अनसूया (सविस्मयम्) कथमिव ।[कह विज ।] प्रिया - ( सस्कृतमाधिस्थ)
दुष्यन्तेनाहित तेजोबधना भूतये भुव ।
अहि तनया ब्रह्मग्निगर्भा शमीमय ॥४॥
शकुन्तला बाहुति और दुष्यन्त अग्नि के प्रतीक है अथवा शकुन्तला की कामवासना धूम का उसका हृदयदान आहुति का तथा दुष्यन्त अग्नि का प्रतीक है। सुशिष्य- परिवत्ता योग्य शिष्य को दी गई विद्या जिस प्रकार अशोचनीय होती है उसी प्रकार विद्यारूपिणी शकुन्तला दुष्यन्तरूप शिष्य को प्राप्त होकर अशोचनीय हो गई है। "जशोच्या हि पितु कन्या सद्भतु प्रतिपादिता" कुमारसम्भव का यह भी इसी बात की पुष्टि करता है कवि ने रघुवश मे भी कहा है 'क्रिया हि वस्तुपहिता प्रसीदति"।
अनसूया तो (यह) समाचार किसने पिता काममप को बताया? प्रियम्बदा-यज्ञ शाला में प्रविष्ट हुये उनको अशरीरिणी छन्दोमयी वाणी
ने बताया
अनसूपा ( आश्चय के साथ) किस रूप में
प्रियम् (संस्कृत भाषा में)
दुष्यन्तेनेति अन्यया दुष्यन्तेन माहितम् तेज भूव भूतये दधानाम् तनयाम् अग्निगर्भा शमीम् इव अहि
न्याय वेता महर्षि कच्च दुष्यन्तेन दुष्यन्त के द्वारा आहितम् -निषिक या स्थापित किये गये, तेजीयको पृथिवी भूत कल्याण के लिये दधाना धारण करती हुई, तनयाम् ( अपनी ) पुत्री को अग्निगर्भा अपने भीतर अग्नि रखने वाले सभी समवृक्ष की तरह अहि-जानो।
अनुवाद हे ब्रह्म दुष्यन्त के द्वारा निषिक्त बीम को पृथिवी के कल्याण के लिये धारण करती हुई अपनी पुत्री को अपने अदर अग्नि रखने वाले शमीवृक्ष की तरह जानो ।
भावादप्रियम्वदा कहती है कि उस वाणी ने पिता काश्यप से यह कहा था कि है बहन, यह आपकी पुत्री शकुत्तला दुष्यन्त द्वारा स्थापित वी को उसी प्रकार अपने अन्दर धारण किये हुये है जैसे कि शमीवृक्ष के अन्दर अनि छिपी रहती है, अर्थात् यह गभवती है, फिर भी इसका यह गर्भ पृथिवी के लिये कल्याणकारी है अर्थात् इससे उत्पन्न पुत्र पृथिवी का कल्याण करने वाला ही होगा।
विशेष प्रस्तुत पथ मे इन द्वारा उपमानकार है और मार्ग नामक यभ - संस्कृत-व्याख्या— ब्रह्मन्— द्विजोत्तमः महये । दुष्यन्तेन राजा दुष्यन्तेन आतिनु = गमधारणरूपेण स्थापितम् जीयम् भुवपृथिव्या भूतये- कल्याणाय दधानाम् धारयन्तीम्, तनयाम्-स्वपुत्री शकुन्तलाम् अग्नि अनल गर्भजन्त यस्यास्ताम् अग्निगर्भा, मीम्समीकृतम् इव अहि जानीहि ।
सन्धि का अंग है क्योंकि जहाँ पर वास्तविक बात का प्रकाशन किया जाता है वहाँ यह अग होता है। "तत्त्वापकथन माग सा०द० इसने अनुष्टम् नामक छन्द है ।
संस्कृत सरलार्थ सस्कृतभाषा मायित्व प्रियम्बदा रुपयति छन्योमय्या बाप्पा तातकाश्यप एव सूचित ब्रह्मन् । त्वदीया तनमा मकुन्तला दुष्यन्तेन गान्धर्य विधिना परिणीता सती तक्षिति दीर्य धारयति, तस्या एव गम पृथिया कल्याणाय भविष्यति यथा शमी वृक्षाभ्यन्तरेऽग्नि भवति तथैव तस्या उदरे गर्भो वर्तते इति भवानवगच्छतु ।
रणरण शब्द का अर्थ है "रण गृहरक्षित्रोत्र अत अग्निशरणम् का अर्थ है अग्निशाला या यज्ञशाला, प्रत्येक अग्निहोषी के घर एक अग्निमाला होती थी जिसमे गापत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि इन तीन अलियो के तीन कुण्ड होते थे जिनमे अग्निहोत्री प्रतिदिन हवन करता था। इन्हीं तीनो अग्नियो को बेता, कहा जाता था। ये सदा सुरक्षित रखी जाती थी। छन्दो मयी छन्दोबद्ध समाधित्यनाथ के नियमानुसार स्त्रीपाल प्राकृत भाषा मे बोलते है, पर यहाँ प्रियम्बदा उस अशरीरिणी वाणी को यथावत् उदधृत करती हुई संस्कृत भाषा का प्रयोग करती है, ऐसा करना नाट्यशास्त्र के नियम के विरुद्ध नहीं है, जैसा कि आवाय विश्वनाथ ने कहा है "कायतश्चोत्तमादीना कार्यो भाषा विषय " भुव भूतबे इससे ज्ञात होता है कि शकुन्तला पुत्र चक्रवर्ती राजा होकर भूतल का कल्याण करेगा । अवेहि अव + आ + इग् गी लोट् मध्यम पुरुषेक वचन । अग्नि गर्भा शमीम हामी वक्ष के अन्दर जिस प्रकार अग्नि छिपी रहती है उसी प्रकार शकुन्तला के उदर में तेजोमर जीव गम मे छिपा हुआ है। महाभारत के आख्यान देवप्राथना पर पहने अग्नि ने विवीय को धारण किया था, पर रोज के बस होने से उसने पहले पीपल वृक्ष में तबनु शमील में प्रवेश किया, देवताओ ने रामवृक्ष मे ही उसे स्थायी बना दिया था समीक्ष की लकड़ी रगडने पर उससे आग उत्पन्न होती है अन्यत्र यह भी उल्लेख है कि मृगु के साथ से भयभीत अग्नि शमीवृक्ष मे छिप गई थी। इसी प्रकार की यम स्थिति का वर्णन कालिदास ने 'रघुवश' में इस प्रकार किया है।— के अनुसार,
निधान गर्भामिव सागराम्बरा समीमिवाभ्यन्तरलीनपावकम्
नदी भिवान्त सलिला सरस्वती नृप सत्त्वा महिषीमनन्त ।
अनसूया - ( प्रियवदानाशिलय) सखि, प्रिय में किन्येव शकुन्तला नीयत segenerसाधारण परितोषमनुभवामि। [सहि पि मे किदु अज एव्व सउन्दला णीअदि ति उक्कण्ठासाहारण परितोस जगृहोमि ।]
प्रियवया सखि, आबा तावदुत्कण्ठा विनोदविध्याव । सा तपस्विनी निता भवतु। [सहि, व दाव उक्कण्ठ विणोदइस्सामी सा तवसिणी णिबुदा हो ।]
अनसूया तेन तस्मितशाखावलम्बिते नारिकेलसमुद्ग एत- झिमितमेव कालान्तरक्षमा निक्षिप्ता मया केसरमालिका । तदिमा हस्तनिहिता कुरु । यावदहमपि तस्यै गोरोचना तीर्थमृतिका दुर्वाकिसल- यानीति मङ्गलसमालम्भनानि विरचयामि। [तेग हि एदस्सि चूदसाहावलम्विये पारिएरसमुग्गए एतणिमित एव्व कालान्तरक्तमा गिखित्ता भए केसर मालिजा ता इम हृत्यसणिहिद करेहि जाव अपि से गोरोभण तित्थ- fifer दुव्वाकिसलआणिति मंगलसमालभणाणि विरएमि ।
प्रियवदा तथा क्रियताम्। [तह करोअदु] (अनसूया निष्क्रान्ता । प्रियवदा नाट्येन सुमनसो गृहाति ।)
अनसूया ( प्रियम्वदा को गले लगाकर ) सखी में हर्षित है। किन्तु कुता
आज ही (पतिगृह को ले जाई जा रही है अत ( मैं ) विषादमिति सन्तोष का
अनुभव कर रही है।
प्रियम्वदासी, हम दोनो तो अपने विवाद को दूर कर लेगी, वह बेचारी ( किसी प्रकार ) सुखिनो हो ।
अनसूया तब तो इस नाम की माया से लटकते हुये नारियल के सम्पुटक मे (डिब्बे) इसी अवसर के लिए समय के अन्तर को यह लेने वाली अर्थात् देर तक कुम्हलाने वाली मौलसिरी (होली) की माला को मैने रखा है, तो इसको तुम हाथ में ले लो तब तक मैं भी उसके लिये गोरोचना, तीयों की मिट्टी, दूब के अकुर आदिमा गलिक वस्तुओं को सजाती हूँ।
प्रियम्बदा ऐसा ही करो। ( अनसूया का प्रस्थान, त्रियम्वदा फूलों को लेने का अभिनय करती है)
आश्लिष्य आ + पियक्त्वा प्रिय मेयात् इस बात से मुझे बडीत हुई। उत्कण्ठाधारणम् उत्कण्ठवा विषादेन साधारण समानम् अर्थाद विषाद से मिश्रित दुख के समान परितोषम् सन्तोष को, यद्यपि के जाने से तो विवाद है, पर उसके भावी सुख की कल्पना से सन्तोष भी है। विनीय विध्यान अपने विवाद (उत्कण्ठा) को दूर कर लेगी, अपना मन किसी प्रकार बहता तेगी। तपस्विनी तपस् शामत्वर्थे विन् । 'तपस्वी चानुकम्याह' इस बचन के अनुसार यहाँ तपस्विनी का अथ अनुकम्पाही ही से है, तब साधिका से नहीं जैसा फि
- अनसूया सखि, एहि गच्छाव [सहि एहि । गच्छम्ह ।] (इति परिक्रामन )
(नेपथ्ये)
गौतम, आदिश्यन्ता शार्ङ्गरवमिश्रा शकुन्तलानयनाय । प्रियवदा (कर्ण दवा) अनसूये त्वरस्व स्वरस्व एते खलु हस्तिमापुरगामिन ऋषयशब्दारयन्ते अणसूए, तुवर, तुवर, एदे व हत्या उरगामिणो इसीओ सावन्ति ।]
(प्रविधय समालम्भनहस्ता)
प्रियवदा (1 1- ( विलोक्य) एषा सूर्योदय एवं शिलामज्जिता प्रतीष्टनी- बारहस्ताभि स्वस्तिवाचनिकाभिस्तावसोभिरभिनन्द्यमाना शकुन्तला तिष्ठति । उपसव एनान्। [ एसा मुज्जोदए एब्ब मिहामज्जिदा पडिदिशीवार- हत्याहि सोहि तावसीहि अहिणन्दीअमाणा सन्दला चिट्ठछ । उवसम्यम्ह ण। ]
(इत्युपसर्पत ।)
कुछ टीकाकारो ने माना है, वस्तुत यहा तपस्विनी का अब बेचारी, अनुकम्पनीया, दापात्र है. अब तक वह पतिविरह मे पीडित भी अत अनुकम्पनीया भी पति से ] वह सुखी होगी, उसका भला होगा यह प्रियम्वदा की कामना है। चूतशाखावलम्विते नम्र हुये समुद्ग सम्प उद्गच्छतीत्पर्ये सम् + उद् + गम् प्रत्यय दिला, तत स्वायें कन् सप्तम्यैकवचने । नारियल के ऊपर से छीनने पर जो भीतर एक सा गोना निकलता है जिसने गिरी रहती है उसको बीच से काटने पर दो प्यासे से नहाते है यही नार समुदयक कहलाता है पहा इसका अर्थ या या दोना नहीं है। कालान्तर- क्षमावानी जिसकी सुधि एवं सरसता देर तक ठहरती है। केसर-कुलमा मौसिरी, मौलश्री गोरोचना यह गाय के मूत्र से तैयार होती है और इसका रंग पीला होना है मालिक अवन पर इसका प्रयोग किया जाता है। समाम्नानि समानयनेमि समालम्भनानि गवार्य समानानि मलसमानम्भनानिमन्+आ+लभ + ल्युट् किलानिके अकुर, यह भी मालिक वस्तु होती है मालिक अवसरों पर ग्राम माला में दूब के अकुर लगा दिये जाते है पविनां राािलका"।
(नेपथ्य म
[15/10, 8:13 pm] Ritika Mishra: गौतमी मा आदि का कुल को (पतिगृह) ले जाने के लिये
बाजा दो । प्रियम्वदा (कान लगाकर ) अनसूया, जल्दी करो मे हस्तिनापुर को जाने वाले ऋषि लोग बुलाये जा रहे है।
(तत प्रविशति यथोद्दिष्टव्यापारासनस्था शकुन्तला )
तापसीनामन्यतमा (शकुन्तला प्रति) जाते भतु बहुमान तृतीया - वत्से, भमता भव । [च्छे भतृणो वहुमदा होहि ॥] (इत्याशियो दवा गौतोमयजं निष्क्रान्ता ।)
महदेवशब्द लभस्व । [ जाये, भतृणो बहुमाणसूजन महादेईसह लहेहि ।] द्वितीया - वत्से, वीरप्रसविनी भव [बच्छे वीरप्पसविणी होहि ।]
( मालिक वस्तु हाथ मे लिये हुए प्रविष्ट होकर ) अनसूयासंबी, आओ, चने ।
(यह कह कर दोनो धगती है)
प्रियम्बदा ( देखकर ) यह मकुन्तला सूर्योदय के समय ही शिखा सहित स्नान किए हुये अर्थात् पूर्ण स्नान करके, नीवार धान्य हाथों में लिये हुए, स्वस्ति वाचन करने वालो वासियों से अभिनति की जाती हुई बैठी है। हम इसके पास चलती हैं।
(यह कह कर दोनो जाती है) (इसके बाद यथाकथित अर्थात् पूर्वोक्त रूप मे आसन पर बैठी हुई शंकुतला एक तापसी (मकुन्तला से) पुत्री पति के अति सम्मानसूचक महारानी शब्द
का प्रवेश)
को प्राप्त करो।
दूसरी पुत्री वीरपुत्र का जन्म देने वाली बनो । तीसरी पुत्री पति के बहुत अधिक सम्मान को प्राप्त करो। (इस प्रकार आशीर्वाद देकर गोतमी को छोड़कर बम सभी का प्रस्थान ) आदिश्यन्ताम् आदिश कमवान्य लोट प्र० पु० बहुवचन
गाङ्ग वमिधा शाङ्ग व आदि मान खेग नियामा खमिया शारव नामक ऋषि से मिश्रित अवाद साथ, अथवा मा र प्रधान पूज्यो वा येषान्ते शारमिश्रा नित्यसमास इस प्रकार मिश्र के दो जय है, इत्यादि और प्रमुख पूज्य प्रधान आदि। हस्तिनापुरगामिन–हस्तिनापुर को जाने वाले महाभारत के अनुसार भरत के प्रयोग हस्ती ने इस नगर को बसाया था अतएव इसका नाम हस्तिपुर पड़ा है, यह वतमान दिल्ली से ५६ मी उत्तर पूर्व की ओर गंगा की एक सहायक नदी के तट पर था पर वायु विष्णु और हरिवंश पुराणों के अनुसार हस्ती नामक राजा भरत से सातवा राजा था, कुछ भी हो, पर ऐसी स्थिति मे दुष्यन्त की राजधानी हस्तिनापुर कैसे हो सकती है जबकि भरत दुष्यन्त का पुत्र था ऐसा प्रतीत होता है कि कालिदास ने अपने समय में प्रचलित नाम ही दुष्यन्त की राजधानी के रूप में प्रयोग किया है, दुष्यन्त के समय यह अन्य किसी नाम से प्रसिद्ध रहा होगा। गम् धातु से णिनि प्रत्यय करने पर गामिन रूप होगा, पर
(उपसृत्य ) सखि सुखमज्जन ते भवतु [महि सुमज्जण
[दे हो ।]
शकुन्तला स्वागत मे सख्यो इतो निषीदतम् [साजद मे सहीण। इदो गिसोदह।]
उभे (मङ्गलपात्राण्यादाय उपविश्य) हला, सज्जा भव यावते मङ्गलसमालम्भन विरचयाव । [हला, सज्जा होहि । जाव दे मङ्गलममा- लम्भण विरएम।]
शकुन्तला इवमपि बहु मन्तव्यम् दुर्लभमिदानों मे सखीमण्डन भविष्यति । [ इदपि बहु मन्तब्ध दुल्लह दाणि मे सहीमण्डण भविस्सदि ।] (इति वाष्प विसृजति ।)
समस्त पद में कुमति य' से नकार को गत्य होकर गामिण बनना चाहिए था, किन्तु साहित्य में कालिदास तथा अन कवियों की रचनाओं में भी गामि ही प्रयाग मिलता है अत इसे सहसा अशुद्ध नहीं कहा जा सकता से नरा स्वगगामिन" स्रोतोया- सागरगामिनीव" "पूर्व सागरगामिनीम्" फालिदास व्याकरण प्रत्थो मे भी कतु गामिनि क्रियाकले ।" शब्दायते सब्द करोतीत्य सब्द रेत्यादिना स्य प्रत्यये शब्दायते जिन्ता कमवा मन्दाय पिच नद्दास्यते शिणामजिता शिखाया स्नान कारिता, शिर धोकर नहलाई गई प्राय स्त्रिया प्रतिदिन शिर धारूर नही नहाती मागलिक उत्सवो पर या विशेष स्थिति में ही शिर धोकर नहाती है। प्रतीष्टनीवारहस्ताभिप्रतीष्टा गृहीता मीवारा तृणधान्यविशेषा हस्तेषु करेषु पासा वा साभिनवारो को हाथ में लिये हुए नीवार पवित्र धान्य माना जाता था। स्वताचा स्वस्तिवाचनम् स्वस्तिवाचनात्मक वेदपाठ करण प्रयोजन यासा ता वामि अत्र प्रयोजनार्थ "अनुप्रमादिभ्यष्ठ सूत्रेण छ प्रत्यये पुण्याहवचनादिभ्य इति वार्तिकेन तस्य लोचे तदनु स्वार्थे कन् प्रत्यये स्वस्तिवाचनिका, यह कथन इस ओर भी सकेत करता है कि कालिदास के समय में स्त्रियों को वेद पढने का अधिकार प्राप्त या विधातो भावे युधि वाचनम् स्वस्ति इति याचन स्वस्तिवाचनम् विनर प्रभूते अशी वीरप्रसविनी वीर++ धातु से ताच्छील्य गिनि अयतमा जयाद तापसियों में से एक बहुमान- चकम् बहुमान जयंतीनिमान महादेवीम्यम् महनी देवी महादेवी, रानी को महा जाता था देवीकृताभिषेकायामितरासु च भट्टिनी" महादेवी प्रधान महिषी मतुवमताभ इत्यत्र भूतु पष्ठी एकवचन, बहु+ मन+टा बहुमता, यहा "वस्य च बतमाने" अतएव भर्तुरित्यत्र अनुक्तं करि मोनोलिया ( पास जाकर ) बली, तुम्हारा स्नान सुखकर हो, अर्थात्
इस स्नान से सदा सुखी रहे। सकुन्तला-मेरी सखियों का स्वागत है। इधर बैठिये
उमेस उचित न ते मङ्गलकाले रोवितुम। [सहि उण देण मङ्गलकाले रोइदु । ] (इत्यभूणि प्रमुज्य नाट्येन प्रसाधयत )
प्रियवदा- आभरणोषित रूपमाधमसुलभ प्रसाधने विकार्यते । [ आहरणीय रूप असमनुल हेहि प्रसाहणेहि विप्पजाराजदि । ]
(प्रविश्योपायनहस्तावृषिकुमारको) उभौ- इदमलकरणम् । अलिपतामत्रभवती ।
(सर्वा मता 1)
गौतमो वत्स नारद, फुत एतत् [वच्छ पार, कुदो एद ।] प्रथम तातकाश्यपप्रभावात् ।
गौतमी कि मानसी सिद्धि [ कि माणमी सिद्धी ।]
दोनो (मार गलिक पात्रो को लेकर और बैठकर) शकुन्तला प्यार हो जाओ। (हम लोग ) अब तुम्हारा मालिक करण (प्रस्थानकालिक प्रसाधन
-सजावट) करती है। शकुन्तला यह भी बहुत माननीय है। अब मेरे लिये सखियों द्वारा अलकरण
दुलभ हो जायेगा।
नही है।
(यह कहकर आसू गिराने लगती है अर्थात् रोती है)
दोनो ससी (दस) मंगल के अवसर पर तुम्हारा रोना उचित
(यह कहकर आसुओ को पोछकर अलत करने का अभिनय करती है) प्रियम्बदा आभूषण के योग्य (यह दर रूप आश्रम न प्राप्य अनकारी
से विकृत किया जा रहा है।
(भेंट मे रूप प्राप्त आभूषणो का हाथो मे लिये हुये दो ऋषिकुमाराका प्रवेश) दोनो ऋषि कुमार आभूषण हे (इनसे) इस देवी को करें। (सभी देखकर आश्चयाबित हो जाती है)
गौतमीपुत्र नारद । ये कहाँ से प्राप्त हुये) 1
प्रथम ऋषि कुमार पिता काश्यप के प्रभाव से ।
गौतमी क्या यह मानसी सिद्धि है अर्थात् क्या दे आभूषण उनके मानसिक सकल्प के परिणाम स्वरूप प्राप्त हुये है?
टिप्पणी मुखम-तुम्हारा स्नान सुखमय हो, सवियाँ मन में इच्छा करती है
विशेष प्रस्तुत पथ मे आम्र और नवमालिका पर नायक-नायिका का आरोप होने से समासोक्ति अलकार, शकुन्तला और वनज्योत्स्ना दोनो प्रस्तुतो का वीतचिन्त " से सम्बन्ध होने के कारण तुल्ययोगिता अलकार, दोनो को अनुरूप पतियों के मिलने के कारण सम अकार, दोनो का पतियों से मिलन होने का कारण है, अंत काव्यलिङ्ग अलकार है। भावावनि, प्रसाद गुण और वैदभी रीति का सुन्दर उदाहरण है। मानव और प्रकृति के तादात्म्य को दिखलाया गया है। वसन्ततिलका छन्द है।