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अभिज्ञान शाकुन्तलम् |

7 October 2023

13 दर्शितम् 13
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आज से लगभग तेरह सौ वर्ष पूर्व 'काव्यादर्श'- प्रणता आचार्य दण्डी ने कहा था - "संस्कृत नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभि" भारत की धर्मप्राण जनता आज के वैज्ञानिक युग मे भी संस्कृत को देववाणी कहने में किसी भी प्रकार के सकोच का अनुभव नही करती। कारण, विश्व का समृद्धतम एव प्राचीनतम साहित्य इसी भाषा मे उपलब्ध होता है। वेद का रचना काल तो इतना प्राचीन है कि उसके आदिकर्त्ता का भी स्मरण नही है अतएव मीमासक आदि वैदिक मतानुयायियों ने उसे शताब्दियों पूर्व 'अपौरुषेय' घोषित कर दिया था। प्रागैतिहासिक वैदिक युग से अद्यावधि संस्कृत वाङ्मय मानव ज्ञान की विविध विधाओं से आप्लावित एव सुसम्पन्न होता रहा है। सहिता ब्राह्मण-आरण्यक उपनिषद्, स्मृति, पुराण, सूत्र, काव्य, नाटक, ज्योतिष, व्याकरण आदि विविध साहित्यो द्वारा संस्कृत भाषा ने ज्ञान रूपी अतल सागर की गहराइयो को जितनी सूक्ष्मता तथा अधिकारिता से मापा है उतना विश्व को किसी भाषा ने नही । अत आज के विज्ञान-परिमित ज्ञान को व्यापक एवं सार्वजनीन बनाने की दृष्टि से सस्कृत भाषा के महत्व को विस्मृत नही किया जा सकता।
मानव इस भूलोक का सर्वाधिक नही एकमात्र – मननशील प्राणी है। अपनी मननशील प्रकृति के कारण एक ओर उसने "कुत स्म जाता कुन इयं विसृष्टि," इस जिज्ञासा द्वारा अपनी मूल प्रकृति के आधारभूत रहस्यो को समझने का उपक्रम किया तो दूसरी ओर अपनी आदि जननी प्रकृति के नाना उपकारो से गद्गद् होकर उसने हृदय के विमल उच्छवासो को मार्मिक वाणी में परिणत कर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की प्रथम प्रकार के साहित्य को आज हम दर्शन, विज्ञान, शास्त्र आदि नामो से अभिहित करते है, तो दूसरे प्रकार के साहित्य को 'काव्य' के नाम से जानते हैं।
काव्याचायों ने काव्य के स्थूलत दो भेद किये हैं—दृश्य और श्रव्य दृश्य काव्यों मे नाटक प्रमुख है और श्रव्य काव्य के अन्तर्गत महाकाव्य, खण्डकाव्य गीतिन काव्य आदि को सम्मिलित किया जाता है। हृदय पक्ष प्रधान किंवा भावुक साहित्य में सहज रमणीयता और चित्ताकर्षकता होती है, इसीलिए सस्कृत वाङ्मय मे 'काव्य' नाम से विद्युत साहित्य की ही प्रचुरता है।
काव्येषु नाटकं रम्यम्
काव्य का लक्षण बताते हुए पण्डितराज जगन्नाथ लिखते हैं- "रमणीयार्थ प्रतिपादक शब्द काव्यम्" अर्थात रमणीय अर्थ की अभिव्यक्ति करने वाले शब्द को

संता और रहा है। यहाँ की प्रत्येक वस्तुप विधिनिर्मित मझी जाती है वेदशन के मूल स्रोत ही नहीं, म है और समस्त विद्यानों का उद्भव वेदों से ही हुआ है, ऐसी मान् प्राचीनकाल से इस रही है पर आज का वि मान्यताओं पर विश्वास न कर प्रत्येक का विकास होना ही स्वीकार करता है की दो ही प्रमुख मह है— एक देवी का और दूसरा विकासवादी मारी उत्पत्ति के विषय में भी ये दोनो प्रथमच भरत मुनि है और दूसरे के आधुनिक एवं भारतीय विद्वान् की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे इन्ही प्रमुख दृष्टिकोन हुए विवाद किया जायेगा

(अ) आचार्य कामदेव

भरत मुनि के साथ मे लेख है कि एक बार अनध्याय के दिन आचार्य भरत होकर मे बैठे हुए थे तो पाकुिछ मूति उनके निकट पहुंचे और उन्होंने बाचा पूछा कि हे प्रथी नावेद की उत्पत्ति किस कर और किसके लिए हुई है? इसके कितने है, क्या प्रमाण है और इसका प्रयोग किस प्रकार का वेदः कथं ब्रह्ममुत्पते। काम का प्रयोगक

इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बाचार्य भरत ने कहा कि तान के स्व मयत में जब जनसाधारण की प्रवृति न होकर रजोगुणी हो गयी थी. ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और उनसे प्रार्थना की कि हे महाराज हमें ऐसी मनोरंजन की वस्तु दीजिये जो दृश्य और दोनो होता रोग के लोगो के लिए समान हो उनकी स्वीकार करी ने चारों वेदों से सार भाग कर चायवेद की रचना की उन्होंने को किया

एवं यजुर्वेदाभिनया रामायण (१/१५.१०) गाव की हो जाने के

प्रस्तुत करने मे अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए ब्रह्मा जी से कहा कि हे भगवन् ! 1 देवता इस नाटक के ग्रहण, धारण, ज्ञान और प्रयोग मे अशक्त और नाट्यकर्म में अयोग्य है- ग्रहणे धारणे ज्ञाने प्रयोगे बार सत्तम् ।
अशक्ता भगवन् देवा अयोग्या नाट्यकर्मणि ॥ तब ब्रह्मा जी ने यह कार्य महर्षि भरत को सौप दिया। उन्होने अभिनय की सफलता हेतु शिव-पार्वती की सहायता ली। अपने सौ पुत्रो, मजुकेशी, सुकेशी आदि अधाराओ, नारद दया कुछ गन्धयों के सहयोग से इन्द्रध्वज महोत्सव पर सर्वप्रथम 'दैत्य-मानव' नामक नाटक का अभिनय किया। यह नाटक सुन्दर ढंग से रचित रंगशाला मे देना गया था।
भरत मुनि की उक्त कथा मे कोई सार नहीं है, ऐसी बात नही नाट्य वेद की रचना ब्रह्मा या ईश्वर द्वारा भले ही न मानी जाय, पर इतना तो माना ही जा सकता है कि सवाद, संगीत, अभिनय और रस-पेपारो तत्व वेदो मे प्राप्य है, अत. नाटको की उत्पत्ति के प्रेरणास्रोत चारो वेद ही है साथ ही भरत मुनि के समय तक भारतीय नाट्यकला अपने विकास की चरम सीमा पर थी। (ब) विकासवादी मत
विकासवाद के प्रवर्तको मे सर्वप्रथम पाश्चात्य विद्वान् आते हैं जिन्होने नाटकों की उत्पत्ति के विषय में विभिन्न मत प्रस्तुत किये है। तत्पश्चात् भारतीय विद्वानों का नम्बर आता है जिन्होंने भारतीय दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए अपने विद्वत्तापूर्ण एवं सारसम्मत मत प्रस्तुत किये हैं। सर्वप्रथम हम पाश्चात्य विद्वानो के मतो की समीक्षा प्रस्तुत करते है ।
१. वेदों से उत्पत्ति न मानने वाले पाश्चात्य मत-कुछ पाश्चात्य विद्वान् वेद से नाटक की उत्पत्ति न मानकर लोक से मानते है। इनमे प्रो० रिजवे प्रो० हिलीबाट (Hillebrandt ), प्रो० स्टेन कोनो (Sten konow), प्रो० पिशेल (Pischel) तथा प्रो० ल्यूटर्स (Luders) के नाम प्रमुख है। प्रो० रिजवे के अनुसार नाटकों का उद्भवतात्माओ को प्रसन्न करने तथा उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए हुआ था। प्रो० हिलीबाट और स्टेन कोनो लोकप्रिय स्थानों से तथा प्रो० पिशेल कठपुतलियों के नाम से नाटको का विकास मानते हैं। प्रो० स्यूटर्स ने नाटकों का विकास छाया नाटकों से स्वीकार किया। इसके अतिरिक्त कुछ विद्वानो के मतानुसार छोटे-छोटे पर्वो पर खेले जाने वाले नाटकों तथा स्वागलीला से ही नाटको का जन्म हुआ है पर ये सभी मत एकामी दृष्टिकोण से परिपूर्ण है। उपर्युक्त नृत्य, अभिनय आदि अति प्राचीन काल से लोक-जीवन में प्रचलित रहे हैं अवश्य पर शास्त्रीय नाटकों का जन्म लोक-साहित्य से मानना कदापि स्वीकार्य नहीं। हाँ, इतना माना जा सकता है कि शास्त्रीय नाट्य और लोकनाट्य ने एक-दूसरे को प्रभावित अवश्य किया होया

तृषाश्च तथा स्त्रीभिर्यान्ति ( रामायण २ / ३ / १हाभारत के विराट् पर्व मे रंगशाला का भी उल्लेखसे स्प हो

तृषाश्च तथा स्त्रीभिर्यान्ति ( रामायण २ / ३ / १हाभारत के विराट् पर्व मे रंगशाला का भी उल्लेखसे स्प हो जाता है और

अभिनीत किये जा चुके थे महाभारत के हरिवंश पुराण में अध्याय ९१ से १६ तक यह उल्लेख है कि बज्रनाभ नामक राक्षस की नगरी में 'रामायण' और 'कोवेररम्मा fमसार" नामक नाटको का अभिनय किया गया था।
हम ऊपर उल्लेख कर आये है कि महर्षि पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी के दो सूत्रो मे शिलालिन तथा कृशाश्व नामक दो नटसूत्र (नाट्यशास्त्र) प्रणेताओं का उल्लेख किया है। निम्नलिखित श्लोक से यह भी स्पष्ट विदित होता है कि पाणिनि ने भी 'जाम्बवतीजय' नामक नाटक लिखा था-
येन । स्वस्ति पाणिनये तस्मे न रुद्रप्रसादत । आदी व्याकरण प्रोक्त ततो जाम्बवतीजपम् ॥
इस नाटक के कुछ श्लोक भी अन्वेषको को प्राप्त हुए है। महर्षि पतञ्जलि (लगभग १५० ई० पू० ) ने भी अपने महाभाष्य (२ / २ / १११) मे 'कसवध' और 'बलिबन्ध' नामक नाटको के अभिनय का उल्लेख किया है- ये तावदेते शोचनिका नामैते प्रत्यक्ष कसं घातयन्ति प्रत्यक्षं च बलबन्धन-
तीति । पर उपयुक्त नाटको में से अभी तक कोई भी नाट्य रचना उपलब्ध नहीं हो सकी है। सन् १९०६ ई० मे टी० गणपति शास्त्री ने त्रावणकोर के पास मास के १३ नाटक की प्रतियाँ प्राप्त की थी। ये नाटक कम से कम ईसा पूर्व द्वितीय शतक और अधिक से अधिक ईसा पूर्व चतुर्थ शतक के है। वर्तमान खोजों के आधार पर भास ही उपलब्ध नाटककारो मे प्राचीनतम सिद्ध हुए है। भास के तेरह नाटको मे से तीन अधिक ख्याति प्राप्त हुए है-प्रतिमा यौगन्धरायण, स्वप्न वासवदत्तम् और चारुदत्त इन तीनो के परितनायक पौराणिक पात्र न होकर लौकिक व्यक्ति है । प्रथम दो नाटको का नायक वत्सराज उदयन है जो अपने रूप और गुणों के लिए शताब्दियों तक लोक चर्चा का विषय रहा है और अन्तिम नाटक मे दरिद्र ब्राह्मण चारदत्त तथा गुणग्रहिणी वीरावना वसन्तसेना के आदर्श प्रेम का वर्णन है। 'प्रतिमा' और 'अभिषेक' नाटको को कथावस्तु रामायण पर आधारित है 'पंचरात्र' मध्यम व्यायोग', 'दूत घटोत्कच', 'कर्णभार', 'दूत वाक्य' और 'उरूमन' नाटक महाभारतीय कथानको पर आधारित है। 'बालचरित, श्रीकृष्ण की बाल लीलाओ से सम्बन्धित है और 'अविमारक' एक प्राचीन आख्यायिका का नाटकीय रूप है जिसका संकेत कामसूत्र मे मिलता है। इस नाटक मे अविमारक तथा राजा कुतिमोज की पुत्री कुरगी के प्रेम का बड़ा ही सुन्दर और सरस वर्णन है। भास पश्चावर्ती नाटककारो मे सर्वप्रथम शूद्रक आते है जिन्होंने 'मृच्छकटिक' नामक नाटक की रचना की है। इस नाटक का चरितनायक भास का चास्वत्त ही है। भास और शूद्रक के नाटक अत्यन्त सरल, सरस और अभिनेय हैं। भाषा की दृष्टि से भी उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है पर इनके नाटको मे नाट्य-तत्वों का पूर्ण समावेश नहीं हो पाया है इन्हें विकास युग के नाटककार कहा जा सकता है।

भास और शुद्रक के पश्चात् कालिदास और अश्वघोष के नाम आते है। कालिदास के तीन नाटक प्राप्त हुए हैं- मालविकाग्निमित्र, विषमोर्वशीय और अभिज्ञान शाकुन्तल प्रथम नाटक की कथावस्तु में ईसा पूर्व द्वितीय शतक के शुंगवशीय राजकुमार अग्निमित्र और अवन्तिसुन्दरी मासविका के प्रेम का वर्णन किया है। दूसरे नाटक का उपजीव्य हग्वेद का पुरुरवा उर्वशी-सवाद और तीसरे का महाभारत का शकुन्तलोपाख्यान है जिन्हें कवि ने अपनी मौलिक कल्पना द्वारा जीवन्त एवं यथार्थ रूप प्रदान कर दिया है। अभिज्ञान शाकुन्तल कालिदास की एक अद्वितीय रचना है जिसकी विश्व के मूर्द्धन्य मनीषियों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। अश्वघोष कुषाण सम्राट कनिष्क (७८ ई०) के राजकवि थे। सन् १९१० ई० मे ल्यूस ने इनके तीन रूपको का पता लगाया। पहला रूपक 'शारिपुत्र-प्रकरण' है जो अको का है तथा जिस पर बौद्ध धर्म की स्पष्ट छाप है। शेष दो रूपक अपूर्ण है और उनके नाम भी अस्पष्ट है। इस विकसित युग मे विशाखदत्त नामक नाटककार का विशिष्ट स्थान है। यह नाटककार किसी राजवश मे उत्पन्न हुआ था, इसलिए उसके नाटको मे राजनीतिक दाव पेचों का बड़ा ही विद बगन है। विशाखदत्त का महत्वपूर्ण नाटक 'मुद्राराक्षस' है जिसमे ई० पू० चतुर्थ शतक के दो राजनीतिज्ञो चाणक्य और नन्द के महामात्य राक्षस की कूटनीतियों का बड़ा ही सजीव वर्णन है। दूसरी ऐतिहासिक रचना देवी चन्द्रगुप्त है, जिसमे गुप्तवंशीय नरेश रामगुप्त की दुलता और उसके अनुज चन्द्रगुप्त द्वितीय की उत्कृष्ट वीरता का बडा ही मनोहारी विवरण है। तीसरी रचना वत्सराज उदयन के जीवन परित पर आधारित 'अभिसारिका वञ्चितक है। विशाखदत्त की विशिष्टता यही है कि उनके नाटक ऐतिहासिक कथावस्तुओ पर आधारित है। विशाखदत्त का रचनाकाल पांचवी या छठी शताब्दी ईस्वी तक स्वीकार किया जा सकता है। उनके बाद कितने नाटककार हुए, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे पास उपलब्ध नही है। अत विशाखदत्त के रचनाकाल के बाद हमे सातवी शताब्दी में ही आकर रुकना पड़ता है। सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ मे सम्राट् इषवर्द्धन (६०६ ई० से ६४८ ई०) ने तीन रूपको की रचना को प्रदर्शिका, रत्नावली तथा नागानन्द इनमे नागानन्द पांच को का नाटक है जो किसी बौद्ध अवदान के ऊपर बाधित है। प्रियदर्शिका और रत्नावली चार-चार अको की नाटिकाएं है जिनका सम्बन्ध उदयन के कथाचक्र के साथ है।
अष्टम शती के प्रथमार्द्ध में कनौज के सम्राट् यशोवर्मा और उनके आश्रित कवि भवभूति नामक प्रख्यात नाटककार हुए समाट् यशोवर्मा ने 'रामाभ्युदय' नाटक लिखा था जो अब अप्राप्य है। नाट्य-जगत् मे भवभूति का नाम कालिदास के बाद लिया जाता है। इनका लोकविद्युत नाटक उत्तर रामचरित है जिसमे 'एको रसः करुण एवं' की पूर्ण सिद्धि की गयी है। इसकी कथावस्तु राम के राज्याभिषेक के उत्तरकालीन जीवन से सम्बन्धित है। दूसरा नाटक महावीर चरित है जिसमे रामकथा का पूर्वार्द्ध वर्णित है। भवभूति की तीसरी रचना मालती माधव है, जो१० अको का एक बाल प्रकरण है। इसकी कथावस्तु कल्पना प्रसूत है जिसमे मालती और माधव के प्रेम-प्रसमो का बढी सुन्दरता के साथ चित्रण किया गया है।

आठवी शताब्दी मे ही भट्ट नारायण तथा मायूराज (अनग हर्ष) नामक नाटककार हुए भट्ट नारायण का बेणी सहार' गोडी सी मे रचित है। इसका कमानक महाभारत पर आधारित है। मायूराज का 'तापसवताराज राजा उदयन और वासवदत्ता से सम्बन्धित सरल तथा सुबोध भाषा मे लिखा गया नाटक है।

नवी शती के प्रारम्भ ने मुरारि नामक लोक ख्यात नाटककार हुआ जिसे कुछ बातोषको मे भवभूति से भी श्रेष्ठ कहा है । उसकी एकमात्र रचना 'अनर्थ रापव' है जो सात अको का नाटक है जिसमे रामकथा वर्णित है। भट्ट नारायण से मुरारि तक के नाटको मे काव्यात्मक चमत्कार की प्रधानता है अभिनय की दृष्टि से असफल रचनाएं है अतः इन नाटको को हासोन्मुखी प्रवृत्ति के परिचायक माना जाता है। ह्रासान्मुखी प्रवृत्ति का अनुसरण राजमंबर (लगभग ८५०६०) से ६२० ई०) ने भी किया है। उन्होने 'बालरामायण', 'बालभारत', 'कर्पूर मजरी' और 'विशालभजिका' नामक चार रूपको की रचना की बालरामायण के दस विशालकाय अको मे रामकथा को भव्य नाटक का रूप दिया गया है बालभारत के केवल दो हो अक प्राप्त हुए है। यह महाभारत की कथा का विराट् नाटकीय रूप है। कपूर मजरी और विशालभञ्जिका चार-चार अको मे समाप्त होने वाली नाटिकाएं राजशेखर नाटकों ने लम्बे-लम्बे सवाद और शार्दूलविक्रीडित जैसे विशालकाय छन्द उन्हें कृत्रिमता का काटि में लाकर रख देते है।

दशम शतक के सभद्र नामक केरल निवासी कवि के तीन नाटको का विवरण मिलता है जिनमें केवल एक 'अश्वये चूड़ामणि' ही पूर्ण रूप मे उपलब्ध हो सका है। दूसरा नाटक 'वीणावासवदत्ता' अपूर्ण रूप मे प्राप्त हुआ है और तीसरा 'उन्माद- वासवदत्ता' अभी तक अनुपलब्ध है। ग्यारहवी शताब्दी म कृष्णमित्र ने प्रतिबोध चन्द्र- दय' नामक नाटक की रचना का जिसमे अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्तो का प्रतिपादन करने का असफल प्रयास किया गया है पर १२वी शताब्दी के उत्तराद्ध में वर-नरेश लक्ष्मण सेन के सभा-कवि जयदेव ने जिस सात अको के 'प्रसन्नराघव' नामक नाटक की रचना की और सरसता, सरलता और अभिनेयता की दृष्टि से उतना ही सफल और लोकप्रिय नाटक है जितना कि यता की दृष्टि से उनका गोलगोविन्द' एक सफल और लोकप्रिय गीत9काव्य है।

कालिदास के जीवन काल की तरह उनके जन्म-स्थान के विषय में भी मतभेद है। कुछ विद्वान उनके नाम के आधार पर उनका बगवासी होना स्वीकार करते हैं। 'मेघदूत तथा कुमार सभव' काव्यो मे हिमालय प्रदेश के सजीव वर्णन के आधार पर कुछ विद्वान उन्हें काश्मीर का निवासी बतलाते है पर कालिदास ने उज्जयिनी के लिए जो विशेष पक्षपात दिखाया है (मेघदूत ११२६) उससे वही उनकी जन्मभूमि प्रतीत होती है। मेघदूत का यक्ष मेघ से कहता है कि यद्यपि रामगिरि से उत्तर दिशा मे अलका की ओर जाते समय तुम्हारा मार्ग टेढा होगा तथापि तुम श्री विशाला उज्जयिनी के विशाल भवनो और रमणियों के टिल कटाक्षो को देखने के लाभ से वचित मत होना। यही नहीं, कालिदास ने अवन्ति प्रदेश की भौगोलिक स्थिति का बडा ही सूक्ष्म वर्णन किया है। उन्हें वहाँ की छोटी-छोटी नदियों तक के नाम मालूम है। महाकाल मे उनकी असीम आस्था थी। इसीलिए वह मेघ से कहता है कि उज्जयिनी मे तुम किसी समय पहुँचो, परन्तु सूर्य के अस्त होने तक तुम्हे वहाँ ठहरना होगा प्रदोष पूजा के अवसर पर तुम अपना स्निग्ध गम्भीर घोष करना, जो महा- काल की पूजा में नगा का काम करेगा और तुम्हे अशेष पुग्यो का भाजन बनावेगा (मेघ० ३५ ) उज्जयिनी उदयन और वासवदत्ता के उदात्त प्रेम की कीड़ा भूमि रही है। कालिदास इस प्रेम-प्रसंग से पूर्ण परिचित है। इन सब बातो से कवि का उदयिनी के प्रति विशेष पक्षपात ध्वनित होता है। अत अधिकाश विद्वान् उन्हे उज्जयिनी का ही निवासी मानते है।

अब हम बाह्य और अन्त साक्ष्यों के आधार पर महाकवि कालिदास के स्थिति काल का निश्चय करने का प्रयास करेंगे। बाह्य साक्ष्यो मे सर्वाधिक उल्लेखनीय बाणभट्ट की 'कादम्बरी' है जिसकी प्रस्तावना मे कवि ने कालिदास की प्रशस्त प्रशंसा की है। वाण भट्ट कान्यकुब्जेश्वर सम्राट् हर्षवर्द्धन (६०६ ई० से ६४६ ई०) के राज कवि थे। अतः कालिदास का स्थिति का सातवी शताब्दी से पूर्व का ठहरता है। अन्तः साक्ष्यों के आधार पर कालिदास के 'मालविकाग्निमित्र' तथा 'विक्रमोर्वशीयम्' नामक नाटकों को लिया जा सकता है "विक्रमोर्वशीय का नायक पुरूरवा होने पर भी उसके स्थान पर विक्रम का नामोल्लेख तथा इस नाटक में विद्यमान 'अनुत्सेक खलु विक्रमासकार ' यह वाक्य यह प्रमाणित करते है कि वे किसी विक्रम अथवा विक्रमादित्य से सम्बद्ध ये विद्वत्समाज मे यह धारणा अति प्राचीनकाल से चली आ रही है कि कालिदास विक्रम के नवरत्नो मे एक थे 'मालविकाग्निमित्र' एक ऐतिहासिक नाटक है जिसमे पुष्यमित्र शुंग के पुत्र अग्नि तथा मालविका नामक राजकुमारी की प्रणय- कया वर्णित है। अग्निमित्र का स्थिति काल ईस्वीय द्वितीय शतक है। अत कालिदास के स्थिति काल की प्राचीन रेखा द्वितीय शतक ई० पू० के बाद की ठहरती है। तात्पर्य यह कि कालिदास द्वितीय शतक ईसा पूर्व तथा सप्तम शतक ईस्वीय के मध्य कभी रहे होगे। यो तो शेष विद्वान् हिप्पोलाइट फॉश कालिदास को रघुवश के अन्तिम राजा अग्निवर्ण का समकालीन मानते है जिनका स्थिति काली शताब्दी ईसा पूर्व है और डॉ० भाऊदाजी आदि विद्वानो ने उन्हे राजा भोज (११वी शताब्दी ई०) का समकालीन बतलाने का प्रयास किया है, पर उपयुक्त अन् एवं बाह्य साक्ष्यों द्वारा इन भ्रान्तियो का स्वत प्रत्याख्यान हो जाता है। कालिदास के स्थिति काल के सम्बन्ध मे बहुत मत केवल तीन है जो निम्नलिखित है-

(१) पष्ठ शतक विषयक मत

(२) गुप्तकालीन मत और

(२) ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का मत

'हूणारि' नहीं। मैकडॉनल, विष्टर निरज आदि अधिकांश पश्चिमी विद्वान् तथा डॉ० आर० जी० भण्डारकर प्रभूति भारतीय विद्वान् कालिदास को सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय के नवरत्नों में से एक मानते है इन्होने शको को भारत भूमि से खदेड़कर "विक्रमादित्य'की उपाधि धारण की थी ये सम्राट् समुद्रगुप्त के पुत्र थे। समुद्रगुप्त ने राजसूय यज्ञ कर देश-विदेश के अनेक राजाओ को परास्त किया था। विद्वानो की धारणा है कि समुद्रगुप्त की विजय यात्रा से प्रेरित होकर ही कालिदास ने 'रघुवश मे रघु की "दिग्विजय' का वर्णन किया है। मीटा के मिलाने मे समुद्रगुप्त की जिस दिग्विजय का उल्लेख है, यह रघु की दिग्विजय से पूर्ण साम्य रखती है। गुप्त सम्राट् म के शासक थे। 'रघुवंश' में वर्णित 'इन्दुमती स्वयंवर' मे उपस्थित मगधराज के लिए जो उपमा या विशेषण प्रयुक्त किये गए हैं, उनसे भी 'चन्द्रगुप्त' नाम की ध्वनि निकलती है। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का समय शांति और समृद्धि का काल था। विद्या, कला, धर्म और दर्शन को इस काल मे पूर्ण प्रोत्साहन मिला था अत ऐसे प्रतापी तथा विधानुरागी शासक के सरक्षण में कालिदास सहन सरस्वतीपुत्र का पल्लवित होना असम्भव नहीं है पर हमारे आलोच्य कालिदास को किसी भी गुप्त नरेश का समकालीन मानने मे कुछ सार्थक आपत्तियाँ है जो इस प्रकार है-

१ कालिदास ने अपने महाकाव्य 'रघुवश' में वर्णित 'इन्दुमती स्वयंवर' प्रसग मे अति के राजा का उल्लेख कर उसके प्रति "अवन्तिनापोऽयमुदाहु इत्यादि शब्दों द्वारा अपनी श्रद्धा प्रदर्शित की है। 'मेघदूत' मे रास्ता टेढा होने पर भी उज्जयिनी की ओर मैच को जाने का पक्ष द्वारा आग्रह किया गया है। इन सब बातो से ध्वनित होता है कि कालिदास के आश्रयदाता विक्रमादित्य उज्जयिनी के राजा थे, मगध के नहीं।

२. कालिदास ने ऋग्वेद की 'पुरखा उर्वशी' को 'विक्रमोर्वशीयम्' नाम देकर 'विक्रम' नाम के प्रति विशेष सम्मान सूचित किया है 'विक्रम' के साथ ही उन्होंने अनेक स्थलो पर 'महेन्द्र' शब्द का भी प्रयोग किया है। इससे ध्वनित होता है कि कालिदास के विक्रम या विक्रयमादित्य महेन्द्र वा महेन्द्रादित्य के पुत्र थे। उक्त नाटक की निम्नलिखित पक्ति के आधार पर समायना की जाती है कि 'विक्रमोर्वशीय नाटक विक्रमादित्य के राज्याभिषेक के समय खेला गया था - "रम्मे उपनीयतां स्वयं महेन्द्र संभूत कुमारस्यायुषो यौवराज्याभिषेक ।"

३ यदि यह कहा जाय कि रघु का दिग्विजय वर्णन समुद्र गुप्त के दिग्विजय से मेल खाता है, तो यह कथन भी विश्वसनीय नही है। कालिदास ने अपने महा- काव्य में जिन पारसीक, यवन, हूण, काम्बोज आदि जातियो का उल्लेख किया है, ये सब नाम पुराणो और महाभारत मे मिलते है। उदाहरण के लिए महाभारत का निम्नलिखित श्लोक दृष्टव्य है-

चीनान् शस्तथा चोदान् बर्बरान् यनवासिनः ।

यापान हारहूश्चि कृष्णान् हैमवतस्तथा ॥ अत स्पष्ट है कालिदास ने महाभारत के आधार पर ही हूणों का वर्णन किया है। इसी प्रकार यह कथन भी निराधार है कि कालिदास ने अश्वमेघ प्रसग समुद्रगुप्त द्वारा किये गये अश्वमेध के आधार पर लिखा था महाभारत तथा पुराणोंमैं अश्वमेघ का अनेक स्थलो पर उल्लेख हुआ है। सम्राट समुद्रगुप्त से भी लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व शुंगवश के संस्थापक पुष्यमित्र ने दो बार अश्वमेध यज्ञ किये थे।

४. कालिदास ने अपने काव्य में भूयवशी राजाओ का यशोगान किया है, जबकि गुप्त सम्राट चन्द्रव यद्यपि गुप्त नरेश उदार धार्मिक दृष्टि के थे, तथापि उनकी वैष्णव सम्प्रदाय मे पूर्ण निष्ठा थी कालिदास भी धार्मिक दृष्टि से उदार थे, किन्तु उनकी शिव ने असीम श्रद्धा थी। अत एक शैव कवि को वैष्णव राजा के यहाँ समुचित समादर मिलना सर्वथा सम्भव नहीं। ऐसी स्थिति मे कालिदास का आश्रयदाता कोई सूर्य शेष नृपति ही होना चाहिये ।

५. गुप्त सम्राटो का अपना वशगत सवत् है उनके किसी भी उत्कीर्ण शिलालेख ने 'मालव संवत्' अथवा 'विक्रम संवत् का उल्लेख नहीं है। जब उनके उत्कर्ष काल मे 'विक्रम संवत्' नहीं प्रयुक्त हुमा दी पराभव काल मे विक्रम संवत्' द्वारा गुप्त सम्राटो को गौरवान्वित करने का तर्क पूर्णत असगत और भ्रान्ति- जनक है।

६ भीटा के जिस शिलालेख मे समुद्रगुप्त की प्रशस्ति उत्कीर्ण है, वह व विषय की दृष्टि से कालिदास से साम्य भले ही रखती हो, भाषा शैली की दृष्टि से दोनो मे पर्याप्त अन्तर है। कालिदास ने सर्वत्र समासहीन वैदर्भी रीति को अपनाया है, जबकि उक्त शिलालेख की माया समास बहुला और कृत्रिमतापूर्ण है। कालिदास की भाषा मे यत्र तत्र आये तथा अपाणिनीय प्रयोग भी मिल जाते है, जबकि उक्त शिला- लेख की भाषा पूर्णतः पाणिनीय व्याकरण के अनुकरण पर लिखी गयी है। शिलालेख की भाषा के हरिषेण नामक कवि है। यदि कालिदास जैसे यशस्वी कवि गुप्तकाल में होते, तो शिलालेख की भाषा हरिषेण जैसे घटिया कवि से लिखवाने में कौन-सी गुरु थी ?

इन सब बातों से हम कहने को विवश हो जाते हैं कि कालिदास का अस्तित्व काल] गुप्त सम्राटो के शासनकाल से बहुत पहले का है।

(३) ईसा पूर्व प्रथम शतक का मत ऐतिहासिक अनुसन्धानो से ईसा पूर्व प्रथम शतक में शो को परास्त करने वाले, विद्वानो को विपुल दान देने वाले न्यायप्रिय उज्जयिनी नरेश विक्रमादित्य के अस्तित्व का पता चलता है। ईस्वीय प्रथम शतक में रचित हाल की 'गाथा सप्तशती' में विक्रमादित्य नामक एक प्रतापी तथा उदारचरित राजा का उल्लेख है, जिसने शत्रुओं पर विजय पाने के उपलक्ष्य में छापने मुल्यों को लाखो का उपहार दिया था। जैन कवि मेस्तु गाचार्य द्वारा विरचित 'पद्यावली' से विदित होता है कि उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्स के पुत्र विक्रमादित्य मे शकों से मालय गणराज्य को मुक्त किया था यह घटना महावीर-निर्माण के ४७० वे वर्ष अर्थात् ईसापूर्व ५७ वर्ष में हुई थी इस घटना की पुष्टि प्रबन्धकोष राया मंत्र माहात्म्य से भी होती है।

अब रोष की बात अश्वघोष कषाण सम्राट कनिष्क (राज्यारोहण)७८ ई०) के गुरु तथा राज-कवि थे। उन्होंने "सोन्दरानन्द' नामक महाकाव्य की रचना की जिसने बौद्ध धर्म की शिक्षाओ का काव्यमय वर्णन है उसके अनेक स्थलो पर कालिदास के 'रघुवंश' के वणनो से भावसाम्य है। पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि कालिदास पर अश्वपोष का प्रभाव है। पर यह मत तभी तक साधक था, जब तक कि कालिदास का स्थिति काल चौथो, पांचवी या छठी शताब्दी तक माना जाता रहा। अवषोष मूलत यौद्ध है। दौद्ध साहित्य का प्रारम्भ पालि से हुआ। परवर्ती बौद्धो ने संस्कृत की लोकप्रियता के कारण संस्कृत को भी अपनी रचना का माध्यम बनाया अश्वघोष भी उड़ी बौद्धों मे से हैं। मौलिक प्रतिभाका धनी कविता -कानन केसरी कालिदास अश्वघोष सरीचे निम्न कोटि के कवियों से मान ग्रहण करे, यह बात कुछ जंचती नहीं। फिर कालिदास कृतन कवि कदापि नहीं थे। यदि अश्वपोष उनके पूर्ववर्ती होते और उन्होने उनके काव्य से प्रेरणा तो होती तो “माससौमिल्ल कवित्र" आदि की तरह अश्वघोष को भी वे अवश्य स्मरण करते पर अश्वपोष का कालिदास की किसी भी रचना में उल्लेख नहीं है। इससे यही मानना पड़ेगा कि कालिदास ने अपने काव्य-सौन्दय से अश्वघोष को ही प्रभावित किया है, अश्वघोष ने कालिदास को नहीं। फिर, कालिदास की भाषा में अनेक आप और अपाणिनीय प्रयोग है, जबकि अश्वघोष की भाषा पूर्णत पाणिनीय व्याकरण के नियमो से बंधी हुई है। इससे कालिदास की भाषा की प्राचीनता स्वत सिद्ध हो जाती है।

उपर्युक्त विवेचन से हम इसी निष्कष पर पहुँचने है कि कालिदास उज्जयिनी नरेश विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे जिनका स्थिति काल ईसा पूर्व प्रथम शतक है।

कालिदास कालीन सामाजिक स्थिति

कालिदास का आविभाँव जिस काल मे हुला, वह काल बौद्ध धर्म के हास तथा वैदिक धम के पुनरुत्थान का युग था मौर्यो की राज्य सत्ता शुंगवशीय ब्राह्मणो के हाथो मे चले जाने के अनन्तर वौद्ध धर्म को राज्याश्रय मिलना भी बन्द हो गया या और वैदिक धम को राज्याधय प्राप्त होते ही याज्ञिक कमकाण्डी तथा वेदमन्त्र- यारो की धूम फिर से मचने लगी थी। कालिदास का धार्मिक दृष्टिकोण सहिष्णुता- बादी था। उन्होने अपने ग्रन्थो मे कही भी प्रत्यक्ष रूप से बौद्ध धर्म का विरोध नही किया है, तथापि उनकी वैदिक धर्म दर्शन तथा उसके अनुसार व्यवस्थित वर्णाश्रम-धम मे गहन आस्था थी। स्मृतियों और पुराणों की रचना हो जाने से कालिदास के समय तक सगुण भक्ति और मूर्ति पूजा का प्रचलन भी हो गया था। स्वयं कालिदास ने 'मेघदूत' में उज्जयिनी के महाकाल के प्रति अपनी विशेष आस्था व्यक्त की है। कालि दास के युग तक वैदिक धम का रूप पौराणिक धर्म मे परिवर्तित हो गया था और पौराणिक धर्म दो बजे सम्प्रदायो-व और वैष्णव मे विभक्त हो गया था। कालिदास कालीन जनता शिव के साथ साथ विष्णु की भी उपासक थी और राम तथा कृष्ण क वह विष्णु के अवतारों के रूप मे भी स्वीकार कर चुकी थी।वर्णाश्रम व्यवस्था कालिदास के ग्रन्थों का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभक्त या । प्रत्येक वर्ष अपने कुल क्रमागत कम को ही करने मे अपना गौरव समझता था । ब्राह्मण, ऋषि, मुनि आदि का वर्ग अध्ययन-अध्यापन, यज्ञानुष्ठानादि धार्मिक कृत्यों का सम्पादन करता था। अभिज्ञान शाकुन्तल में वर्णित कण्व मारीच आदि ऋषियों के आश्रमो मे पूर्वोक्त कर्म ही होते थे यज्ञानुष्ठानो मे पशुबलि का भी विधान पा जिसका उल्लेख अभिज्ञानशाकुन्तल के पाक मे हुआ है— पशुमारण कर्म दारुणो कम्पामृदुरेव योत्रिय । क्षत्रिय तथा राजन्य वर्ग का काय देश रक्षा तथा प्रजापालन या प्रजा का सवचा हित करना राजा का नैतिक कतव्य था, जैसाकि कवि ने शाकुन्तल के भरतवाक्य मे सकेत किया है ता प्रकृतिहिताय पाविद । वैश्यवर्ग का मुख्य व्यवसाय वाणिज्य था। धनीमानी वैश्यो को 'श्रेष्ठी' कहा जाता था। व्यापारी लोग नावो द्वारा समुद्र यात्रा कर विदेशो से व्यापार करते थे। मूद्र यग का मुख्य कम मेवा ही या । इस काम मे सभी जन सुख सभ्य एवं समृद्धिशाली वे तथा अरने arगत नियमो का पालन करना अपना परम कत्तव्य समझते थे। लोग अपने वर्ण- क्रमागत कुल कम को सहज कम समझकर उसके सदोष अथवा निन्दित होने पर भी नही त्यागते थे। अभिज्ञान शाकु तल का धीवर इसका प्रमाण है जो अपने कुल कर्म को हेय न मानकर श्रेष्ठ मानता है (मज वक्किल विनिन्दितम् ० )

कालिदाम वर्ण व्यवस्था की भांति साधन व्यवस्था मे भी आस्था रखते थे। काव के बावन मे और शान प्रकृति ब्रह्मचारी तथा अनसूया और विदा प्रभनि ब्रह्मचारिणियाँ अध्ययनरत थी। ब्रह्मचय काल मे ये बह्मवारी तथा ब्रह्मचारिणिया पुण्योति तथा स्त्रियोचित विद्याएँ ग्रहण करते थे वृक्ष- सेचन, अतिथि सत्कार सनीत आदि स्त्रियों को सिखाया जाता था। अभिज्ञान शाकुन्तल के प्रथम तथा द्वितीय अको मे इनके स्पष्ट उल्लेख हैं। ब्रह्मचर्य काल पूर्ण होने पर द्विज वर्ग को विधिवत् गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की अनुमति दी जाती थी और उन्हे आवश्यक शिक्षाएँ भी दी जाती कि अभिज्ञान शाकुन्तल के चतुध अफ मे कण्व ऋषि ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश करती हुई अपनी पुत्री शकुन्तला को शिक्षा दी है- "शुभूयस्वन् कुरु प्रियसी-वृति सपत्नीजने " इत्यादि। गृहस्वाश्रम के बाद वानप्रस्थ और तत्पश्चात् सन्यास आश्रमो का विधान था। पति गृह यमन करती हुई शकुन्तला जब अपने पिता से भाव विह्वल होकर कहती है कि 'खान, क्या मैं फिर कभी इस आश्रम को देख पाऊँगी " तो कृष्ण इसका उत्तर देते हुए कहते हैं-

भूत्वा चिराय चतुरन्तमहीयानी दौष्यन्तिमप्रतिरथ तनय निवेदय । म त कुतुम्बरेण सार्धं शान्ते करिव्यति पद पुनराधमेऽस्मिन् ॥ इस कथन मे वानप्रस्थ आश्रम की ओर स्पष्ट सचेत है ।

राजा ने अधिकार और कर्तव्य – कालिदास के समय मे देश में राजतत्रात्मक शासन प्रणाली प्रचलित थी। राजा प्रजा वत्सल और मुनियों तथा विद्वानों का आदर करते थे। यद्यपि राज्य मे राजादेश ही सर्वमान्य होता था, तथापि राजा पर अमात्य, पुरोहित तथा विद्वान् ब्राह्मणो का अकुश रहता था। धार्मिक कृत्यों मे राजा को पुरोहित वर्ग की सम्पूर्ण व्यवस्था मान्य होती थी। वह प्रजा का पालन भी करता था और उनके विवाद भी शान्त करता था - " प्रशमयति विवादा कल्पसे रक्षणाय ।" - वह कुपथगामियो को कठोर दण्ड भी देता था जिससे कोई भी व्यक्ति अथवा वर्ण कभी उच्छ बल नहीं हो सकता था, जैसा ि दुष्यन्त के राज्य मेन कश्चित् वर्णानामपथम पकृष्टोऽपि भजते ।" राजाअपनी प्रजा का सदेव पुत्रवत् पालन करता था, पाकि शाकुन्तल में उल्लेख

- "प्रजा प्रजा स्वा इव तत्रयित्वा स्वमुखनिरमिलायो विद्यसे लोक हेतो " यदि

कोई व्यक्ति निसन्तान ही मर जाता था तो उसकी सम्पत्ति का उत्तराधिकार उसकी

पत्नी या पलियों को नही मिलता था, अपितु उसे राजा की सम्पत्ति समझा जाता था ।

पर उस व्यक्ति की विधवाओ को पाप कर्म छोड़कर सभी कर्मों में राजा सहायता

देता रहता था। अभिज्ञान शाकुन्तल के पष्ठा मे इस बात का स्पष्ट उल्लेख है-

येन येन वियुज्यन्ते प्रजा स्निग्धेन बरचुमा |

स स पापाते तसा दुष्यन्त इति पुष्यताम् ॥

शासन मे चोरी आदि अपराध अक्षम्य थे। इनके लिए अपराधी को मूली तक दी जाती थी। राजा लीक की चोरो के अपराध मे धीयर को सूली पर चढाने का ही प्रयास था। राजा द्वारा धीवर को क्षमा कर दिये जाने पर राजपुरुषो द्वारा उससे रिश्वत की बात करना भी बढा मनोरंजक है। धीवर के पुरस्कार मे सम्मिलित होने के इच्छुक पुलिसजनो का यह कथन उनकी रिश्वतखोरो का स्पष्ट निर्देशन है- "कादम्बरी सखित्वस्माक प्रथमशोऽभिमतमिष्यते ।"

अभिज्ञान शाकुन्तल की कथावस्तु का मूल स्रोत महाभारत के आदि पत्र का 'शकुन्तलोपारपान' है। इसमे पौरवराज दुष्यन्त तथा ऋषि काया शकुन्तला के गान्धर्व विवाह का वर्णन है। इस उपाख्यान के अनुसार एक बार राजा दुष्यन्य अपनी सेना लेकर मृगया के लिए वन मे गया अनेक पशु-पक्षियों का आवेट करता हुआ यह उस वन में पहुंचा जिसमे कव्य ऋषि का आश्रम था। राजसी परिधान को उतारकर राजा निवेश द्वारा कण्व ऋषि के दर्शन करने की अभिलाषा से आश्रम में प्रविष्ट हुआ यहाँ पर उसका शकुन्तला से साक्षात्कार हुआ जिसने उसे आतिथ्य हेतु आमंत्रित किया। राजा उसके रूप पर मुग्ध हो गया। ऋषि के सम्बध मे पूछने पर उसे हुआ कि ये समिधाएं लेने आयम से बाहर गये हुए है और थोडी ही देर मे लौटकर आने वाले है। राजा बोला, "हे सुमध्यमे । तुम कौन हो, किसको पुत्री हो और इस तपोवन मे किपलिए आयी हो? तुमने मेरा मन हर लिया है। मैं तुम्हारे विषय में जानना चाहता हूँ ।" शकुन्तला ने मन ही मन मुस्कराते हुए मधुर- वाणी मे उत्तर दिया कि वह भगवान् कण्व की दुहिता है। दुष्यन्त के संदेह करने पर कि भगवान् कल तो ऊन रेता है, वे अपने पथ से विचलित नहीं हो सकते, तो फिर तुम उनकी दुहिता कैसे हो, शकुन्तला ने उत्तर दिया कि वह विश्वामित्र तथा नामक अप्सरा के शुक्र-शोषित से उत्पन्न है। जन्म देने के अनन्तर उसकी माता उसे मालिनी-तट पर त्यागकर इन्द्र लोक चली। थोडी देर बाद महर्षि कण्व मालिनी नदी में स्नानाच आये और उन्होंने तट पर शकुन्तो (पक्षियो ) द्वारा सरक्षित एक शिशु बालिका को देखा। ये उसे वहा से उठा लाये और शकुन्तला नाम रखकर उसका लालन पालन किया। यही शकुन्तला में हैं इस वृतान्त को सुनकर दुष्यन्त उसे क्षत्रिय द्वारा विवाह योग्य जान उससे गाधव विवाह द्वारा अपनी भार्या बनाने की बात करने लगा। शकुन्तला ने पहले तो यह कहा कि आप ठहरिये, अभी थोड़ी देर मे ही ताल आने वाले हैं, उन्ही की अनुमति से मैं आपके प्रस्ताव को स्वीकार कर सकती हूँ। किन्तु जब दुष्यन्त ने उसे गान्धव विवाह का औचित्य समझाकर बिना पिता की अनुमति के ही विवाह करने को राजी कर लिया तो उसने दुष्यन्त के समक्ष यह शर्त रख दी कि यदि मुझसे उत्पन्न पुत्र को हो आप युवराज बनायें तो मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है--मयि जायेत व पुत्र स भवेरवदनन्तरम् । युवराजी महाराज सत्यमेतद्ब्रवीमि ते ॥ तदेव दुष्यन्त अस्तु मे सगमत्वया ।

राजा ने 'एवमस्तु' कहकर उसके साथ विधिवत् गान्धर्व विवाह किया और उसे यह आश्वासन देकर कि "मैं शीघ्र तुमको बुलाने के लिए अपनी चतुरगिणी सेना भेजूगा " - वापिस चला आया। पर चूंकि उसने कण्व ऋषि की बिना अनुमति के यह प्रेम व्यापार किया था और उनसे मिले बिना ही लौट बाया था, उससे वह लज्जित और पश्चात्तापयुक्त हुआ। कुछ ही क्षणो बाद वहाँ कण्व ऋषि आ गये और अपने ज्ञान से सकुन्तला के गान्ध विवाह का पता लगाकर उन्होने उसे पराक्रमी पुत्र उत्पन्न करने का आभीर्वाद दिया। अपने वचन के अनुसार दुष्यन्त ने कुल को बुलाने हे कोई भी व्यक्ति नहीं भेजा और कु तथा भगवान् काश्यप ( कण्व ) के ही आश्रम मे बनी रही। गर्भ पूर्ण हो जाने पर उसने एक अति तेजस्वी बालक को जन्म दिया। बडा होने पर यह बालक अति बलिष्ठ और पराक्रमी सिद्ध हुआ। उसने वन के हिमालिस पशुओं का दमन किया इसलिए उसका नाम 'सयदमन' रखा गया । 'दमन' के जन के सातवें व शकु तला को पति गृह भेजा गया पति-समीप पहुचकर कुतला ने विधिवत् राजा की अपना की और कहा, "राजन् | इस पुत्र को युवराज पद पर अभिविक कीजिये क्योंकि समागम के समय पर आपने मुझसे प्रतिज्ञा की थी।" राजा उसकी बात सुनकर और उसके साथ किये गये समागम तथा उसको दिये गये वचन का स्मरण होते हुए भी यह कहने लगा कि उसे उनके साथ समागम करने तथा उसको किसी भी प्रकार का वचन देने के विषय मे कुछ भी स्मरण नहीं है। इससे शकुन्तला बडी और अपने अविचारित कम पर लज्जित हुई। राजा से सवा परित्यक्त हो जाने पर किसम्पविगूढ मकुन्तला ज्यो ही यहाँ से चलने को उद्यत हुई कि सभा ने आकाशवाणी गूंजने लगी-

मरस्य पुत्र दुध्यन्त माध्यमस्था शकुन्तलाम |

स्व चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला || आकाशवाणी द्वारा सभासदो का सन्दह निवारण हो जाने पर राजा ने

कुतला को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस कथानक में कुछ अक्षम्य दोष है। सवप्रथम तो दुष्य त और शकुन्तला की कामुकता प्रति गहूंगीय है कि वे दो पडी तक भगवान् कण्व के साथ लौटने की प्रतीक्षा न कर गान्धर्व विवाह कर बैठे किसी अपिरिचित व्यक्ति से एक आश्रमवासिनी कन्या द्वारा इतने अल्पकाल मे समागम करने को राजी हो जाना भी अस्वाभाविक लगता है फिर दुष्यन्त आया तो था, कण्व ऋषि के दर्शन करने और उनसे बिना मिले ही चला गया तथा लोक निन्दा के भय से उसने अपनी गान्धव विवाह परिणीता भार्या को न तो स्वयं बुलवाया और न उसके समीप आने पर उसे स्वीकार करने को राजी हुआ। शकुन्तला भी आश्रमवासिनी तापस पासी नही जान पड़ती। यह अति प्रगल्मा, वाचाल और सासारिक सुखों की गरज से अपने शरीर को बेचने वाली जान पड़ती है। ऐसे पात्रो को इसी रूप मे किसी नाटक का नायक-नायिका नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि उनके उपरति कृत्य समाज की मर्यादा के विरुद्ध होने से नायक तथा रस दोनो के ही अपकष फारक है । दशरूपककार धनञ्जय की व्यवस्था है कि यदि किसी कथानक में नायक अथवा रस की दृष्टि से अनीचित्य हो तो उस विरुद्धास को या तो छोड देना चाहिए या उसमे परिवर्तन कर देना चाहिए—यसत्रानुषित कियन्नायकस्य रसस्य था। विद्ध तपरित्याज्यमन्यथा वा प्रकल्पयेत् ॥

इसी बात को ध्यान में रखते हुए महाकवि कालिदास ने अपने नाटक 'अभिज्ञान शाकुन्तल' के कथानक में कुछ आवश्यक परिवर्तन किये है जिनका सक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

(१) अभिज्ञान शाकुन्तल मे मृगयाबिहारी दुष्यन्त ससैन्य नही अपितु अकेला ही आया है। वह हरिण का पाछा करता हुआ ही आश्रम के समीप पहुंचता है जहाँ उस तापसकुमारो से यह सूचना मिल जाती है कि भगवान् काश्यप एक सम्बे समय के लिए सामतीय गये हुए है और आश्रम में उनकी दुहिता सकुन्तला ही अतिथि पूजा करती है। इस प्रकार राजा के मन मे शकुन्तला को दखन की उत्सुकता जागृत हो जाती है।

(२) महाभारत के दुष्यन्त की भांति कालिदास का दुष्यन्त सीधे सकुन्तला के आश्रम में नहीं जाता। उसे कुछ दूर चलने पर वृक्ष संचन करती हुई युवतियों के शब्द सुनाई पडते है । यह एक झाड़ी में छिपकर उनके वार्तालापो को सुनता रहता है। इन ऋषि कन्याओ के साथ काव दुहिता शकुन्तला भी है जिसे सहसा एक अमर आकर लग करने लगता है। ज्यो ही भयाकान्त शकुन्तला परिषाण की माग करती है, त्यो ही दुष्यन्त उनके मध्य उपस्थित हो जाता है। उस देखकर शकुन्तला सहम जाती है और लज्जाभाव से एक ओर हट जाती है।

(२) अभिज्ञान शाकुन्तल की शकुन्तला एक निश्छल तापस कन्या है जो दुष्यन्त के प्रति आसक्ति होने पर भी उसे व्यक्त नहीं करती। उसमे लज्जा है, शील हैं, सयम है, गुरु भीरुता है, त्याग है। उसके चरित्र को उदात्त बनाने मे उसकी प्रियसखियो अनसूया और प्रिया की बहुत बढी भूमिका रही है महाभारत मे शकुन्तला स्वय अपना जन्म वृत्तान्त सुनाती है किन्तु अभिज्ञान शाकुन्तल मे उसकी सखियाँ ही उनका वश-परिचय देती है।

यह समीत अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। एक परित्यक्ता विरहिणी का अपनेप्रेमी के प्रति उपालम्भ की इस गीति मे व्यजना हुई है। इसपदिका राजा की प्रेमिका रही है किन्तु देवी वसुमती के भय से राजा ने उसका परित्याग कर दिया है। इसी बात को लक्ष्य कर हसपदिका ने भ्रमरभ्याज से अपना विरह-निवेदन कर राजा की भ्रमर-वृत्ति की ओर इगित किया है। इसके साथ ही राजा दुष्यन्त के शकुंतला विस्मरण रूप प्रस्तुत के प्रतीयमान होने से इस गीत में गर्म सन्धि के आपेक्ष नामक अग का भी निर्देश किया गया है।

दुर्वासा के शाप के कारण दुष्यन्त को मकुतला के साथ किया गया प्रणव विस्मृत हो चुका है फिर भी इसपदिका के गीवार्थ को सुनकर यह विरह-विधुर- या हो जाता है। वह स्वयं कहता भी है "कि नु खलु गीतायमाकयष्टजनविरहादृतेऽपि बलवदुत्कण्ठितोऽस्मि ।" ऐसा लगता है मानो राजा ने किसी जन्म मे किसी युवती से प्रेम किया था और यह गीत उसका आभास करा रहा है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिन कर्मों का हम जन्म जन्मान्तरों मे भोग कर चुकते हैं उनकी वासना अस्पष्ट रूप से हमारे अचेतन मन में पड़ी रहती है और उन कमों से सादृश्य रखने वाली किसी पटना के अवसर पर वे अनायास उद्बुद्ध होते रहते है। किंतु स्पष्ट होने के कारण हम उनसे परिचित होते हुए भी अपरिचित ही बने रहते हैं। दुष्यन्त का यही विचार है कि

रम्याणि बी मधुराश्य निशम्य शब्दान् पस्कीमवति यत्सुखितोऽपि जन्तु । नूनमबोधपूर्व भावविराणि जननान्तर सोहुदानि ॥

रमणीक वस्तुओ का देखकर या मपुर शब्दों को सुनकर सुखी प्राणी भी ( प्रेमीजन के विरह के न होते हुए भी) जो उत्कण्ठित होने लगता है, उससे (मैं यही समझता हू कि निश्चय ही वह अपने जिस के द्वारा जन्मान्तर के अनुभूत प्रणय बादि सम्बधो को जो कि स्वभाव उसके हृदय में वासना रूप में विद्यमान है, अबोध रूप से ध्यान करता है।

दुष्यन्त के उक्त कथन से यह स्वत सिद्ध है कि शकुन्तला के साथ किया गया प्रणय जननान्तर सौहृद की तरह अस्पष्ट रूप से इसे व्यथित किया उत्कण्ठित तो करता है किन्तु दुर्वासा शाप से अभिभूत उसकी स्मरण शक्ति तथ्य बोध मे पूर्णतया अशक्त है । इससे हमारे हृदय मे दुष्यन्त के प्रति धद्धा और सहानुभूति उत्पन्न होती है और आगे उसके द्वारा किये गये शकुन्तला के प्रत्याख्यान मे हम उसे दोषी नही ठहराते । साराश यह है कि इसपदिका प्रकरण दुष्यन्त के चरित्र की रक्षा के लिए अति आवश्यक था, इसीलिए कांब ने उनकी मौलिक अवधारणा की है।

'अभिज्ञानशाकुन्तल' में दुष्यन्त को देवराज इन्द्र का सखा बतलाया गया है।वो मेरा युद्ध हो जाने पर देवासनाएं केवल दुष्यन्त के अन्य कार्मुक और इत्र के ब से हो अपने त्राण की अपेक्षा करती है-

यही नहीं, षष्ठ अफ मे स्वयं इद्र-सारथी मातलि राजा को देवो की रक्षा के निमित्त इन्द्रलोक को ले जाता है और उसके वहा पहुंचते ही देवलोक में पूर्ण शान्ति स्थापित हो जाती है।

देव, दनुज और मानव ही नहीं, पशु पक्षी और सता विटप भी के आदेश का पालन करते है। पष्ठ अक मे राजा द्वारा वसन्तोत्सव न मनाया जाने का आदेश प्रसारित होते ही वृक्षो पर पुष्प विकास रुक जाता है, अमर गु जन स्थगित हो जाता है, कोकिल की काकली उसके कष्ठ मे अवरद्ध हो जाती है और स्वयं कामदेव के पुष्पवाण भी उसके तूफीर मे घरे रह जाते है-

चूताना चिरनिर्गतापि कलिका बानाति न स्व रज, समद्ध यदपि स्थित कुरवर तत् कोरकावस्वया । कण्ठेषु स्खलित गतेऽपि शिशिरे पुस्कोकिलाना स्त शके सहरति स्मरोऽवि चकितस्तुषार्धकृष्ट शरम् ॥

महाबली होने के साथ साथ दुष्यन्त अप्रतिम धनुधर है। शत्रु के दृष्टिगोचर न होने पर भी वह उसके शब्द मात्र को सुनकर उसे बाण विद्ध करने में समर्थ है। मातलि द्वारा पीडित विदूषक की चीत्कार और मातलि की चुनौती से उत्तेजित होकर वह शर सम्धान कर उसे कारता हुआ कहता है कि अब मैं अपने उस शब्दवेध वाण को चलाता हूँ जो तुम बध्य को मार देगा और रक्षणीय द्विज की रक्षा करेगा -

यो हनिष्यति ययस्था रक्ष्य रक्षिष्यति द्विजम् । उसकी इस ललकार से भयभीत होकर मातलि को तुरत राजा के सम्मुख उपस्थित होना पडता है। इससे सिद्ध हो जाता है कि दुष्यन्त अत्यन्त वीर वली एव पराक्रमी व्यक्ति है।

गम्भीर गम्भीर' शब्द का अर्थ 'गहरा है। गम्भीर व्यक्ति वही होता है जो उत्तेजना के क्षणों में भी उत्तेजित न होकर संयम से काम लेकर औचित्यानीचत्व का विचार करता है शहला के सीद से आकृष्ट होकर उसके मन मे उसे प्राप्त कर लेने की अभिलाषा उत्पन्न हो जाने पर भी वह सयम और विवेक को नहीं छोड़ता । यह उनकी सखियों से उसका वा परिचय जानकर और उसे 'त्रपरिग्रहक्षमा' मानकर ही अपने हृदय को उसकी अभिलाषा करने की अनुमति देता है—'भव हृदय साभिलाष' —क्योकि वह अनि नही अपितु स्पर्शाम रत्न थी। दुर्वासा शाप के कारण वहशकुन्तला के साथ किये गये गान्धव-विवाह की घटना को भूल गया है, अत अपने सम्मुख खडी हुई अनिन्द्य सुन्दरी मकुन्तला का वह "अनिवं णनीय परकलत्रम्" कहकर प्रत्याख्यान कर देता है। उसके इस सयम से आश्चयथकित होकर प्रतीहारी ने ठीक ही कहा है- "अहो धनपिशिता भई नाम सुखोपनत रूप प्रेक्ष्य कोन्यो विचारयति ।" अर्थात् राजा की धर्मभीस्ता प्रशसनीय है, अन्यथा ऐसे सहज सुलभ रूप को देखकर दूसरा कौन विचार करता प्रेम के क्षणों की भाति क्रोध के क्षणो मे भी वह अतिसयम से काम लेता है। पाचवे मे शाश्व आदि उपस्थियों के आक्षेपो का उत्तर वह अति विनम्रता के साथ देता गाङ्ग र उत्तेजित होकर राजा को नीच, शठ बादि विशेषणो से भी कलुषित कर देता है, पर राजा फिर भी अपने सयम को न छोटकर केवल यही उत्तर देता है कि "हे सत्यवादिन हम आपकी प्रत्येक 1 बात को सत्य मानते है, पर इस बेचारी को उगकर हमे क्या मिलेगा " इससे हमे राजा मे विनयशीलता की पराकाष्ठा के दवान होते है यह तपस्वियों तथा अन्य मादरणीयो के प्रति सदैव विनयशील रहता है। मृगानुसारी राजा से जब आश्रमवासियो ने निवेदन किया कि "मो राजन् आश्रममृगोऽ य न हन्तव्य " तो वह विनयपूयक अपने वाण को धनुर्ज्या से उतारकर तूणीर मे रख लेता है। इसी प्रकार माता के बास से दूत आने पर वह जादर से कहता है— "किमम्बाभि प्रेषित " माता के प्रति आदर प्रकट करने के लिए वह विदूषक को अपने प्रतिनिधि के रूप मे हस्तिनापुर भेज देता है और स्वय आश्रमवासियों की रक्षाथ आश्रम मे ठहर जाता है। इन प्रमाणो से सहज स्पष्ट हो जाता है कि दुष्यन्त प्रकृति से गम्भीर होने के कारण ही सयमी विनयी तथा क्षमाशील व्यक्ति है।

रूपवान् एवम् आदमी दुष्यन्त एक सुन्दर तथा प्रभावशाली व्यक्ति है। वह लगभग ३०-३५ वर्ष की अवस्था का सुन्दर, सुपुष्ट स्वस्थ और आकषक युवा है, जिसको देखकर कोई भी युवती आकर्षित हो सकती है। उसे देखकर तापस कन्याएँ भी प्रभावित हो जाती हैं और उनमे से एक प्रियवदा उसकी निम्न शब्दो मे प्रशसा करने लगती है- "चतुरगम्भीराकनिमंधुर प्रियमालपन् प्रभाववानिय लक्ष्यते ॥" दुष्यन्त की बलशालिता की भाति उसके शारीरिक सौंदर्य की व्यजना भी अनेक स्थलों पर होती है। उदाहरणार्थ पाक मे राजा के विषय में की का यह कथन उल्लेख- नीय है—'अहो सर्वास्ययस्यासु रमणीयत्वमाकृतिविशेषाणाम् । एवमुत्सुकोऽपि प्रियदर्शनो देव ।" दुष्यन्त के इसी सौन्दय को देखकर शंकुतला उस पर मोहित हो गयी थी और उससे तिरस्कृत हो जाने पर भी यह उसका स्मरण कर विह्वल रहती थी जैसाकि मष्ठा मे सानुमती के कथन से स्पष्ट है "स्थाने खलु प्रत्यादेशविमानिताऽपि अस्प कुते शकुन्तला क्लाम्यतीति" सप्तम अक मे मारीच ऋषि की पत्नी दाक्षायणी भी दुष्यन्त को देखकर उसके सौन्दर्य और प्रभावशालिता से प्रभावित होकर कह उठती है - "सभावनीयानुभावा अस्थाकृति ।"दुष्यन्त को कवि ने एक आदर्श प्रेमी के रूप में चित्रित किया है। शकुन्तला के प्रति उसके प्रेम मे उद्दामता और उच्छु खलता नहीं है। दुष्यन्त को यद्यपि अपने अन्तकरण पर विश्वास है तथा शकु तला को देखकर उसके प्रति उत्पन्न प्रणय भावना को वह समाज से अनुमोदित समझता है, तथापि उसके प्रति प्रणयभाव को बढाने से पूर्व वह उसके कुल, जाति, माता-पिता, विवाह आदि के सम्बन्ध मे पूरी छान बीनकर लेता है। इसके अतिरिक्त जब तक दुष्यन्त यह नहीं जान लेता कि शकुन्तला उसके प्रति अत्यधिक अनुरक्त है तब तक वह स्वयं अपनी ओर से प्रेम-भाव का सकेत नही देवा । शकुन्तला द्वारा प्रेम-भाव प्रकट किये जाने पर ही दुष्यत अधिक आग्रही होकर उससे गाधव विवाह का प्रस्ताव करता है। पर इस बाग्रह मे उसका व्यवहार सचथा शिष्ट, विनम्र और प्रेम से परिपूर्ण रहता है। तृतीय अक गे विरह-विधुरा शकृतला के पास जाकर वह उसको शयन से खडे होने से रोकता है, उसको पखा करता है तथा उसके चरण दबाने को भी प्रस्तुत हो जाता है। शकु तला से गान्धव विधि से विवाह करके तथा कुछ दिनो के अन्दर ही उसे हस्तिनापुर बुलाने की प्रतिज्ञा करके यह अपनो राजधानी लौट जाता है। पर दुर्वासा शाप के प्रभाव से वह अपनी प्रियतमा को बिल्कुल भूल जाता है। शकुन्तला को दी गयी अगूठी के मिलने के पश्चात् जब दुष्यन्त शकुन्तला विषयक पुरानी बातो का स्मरण कर विह्वल होता है तब उसका प्रणयी रूप पुनमुखरित हा उठता है। वह शकुन्तला के विरह की वेदना से अत्यधिक व्यथित हो जाता है। छठे अंक मे दुष्यन्त को इस विरह वेदना का बडा ही मार्मिक वजन हुआ है उसे रात में नीव नहीं आता और दिन में आंसू बहते रहते हैं। उसकी दया इतनी शोचनीय है कि रात्रि मे नींद न आने से वह शकुन्तला को स्वप्न मे भी नहीं देख सकता और दिन मे आसू बहते रहने के कारण वह उसके चित्र का भी भली- भाति दमन नही कर पाता -

प्रजागरात् खिलीभूतस्तस्या स्वप्ने समागम ।

वाष्पस्तु न ददात्येना इष्टु चित्रगतामपि ।।

सप्तम अक में जब मातलि राजा को मारीच ऋषि के आश्रम में ले जाता है तो वहाँ तपस्विनी विरह पीडिता शकुन्तला को अपने समक्ष देखकर दुष्यन्त की अनिवचनीय अवस्था हो जाती है। शकुतला के विरह मे वह इतना कृशकाय हो गया है कि प्रथम दृष्टि मे शकुतला भी उसको नही पहचान पातीन खल्वार्यपुत्र इव 'इत्यादि । वह अपना अपराध स्वीकार कर शकुन्तला के चरणों में गिर पडता है और शकुन्तला भी अपनी सहज उदारतावश दुष्यन्त को दोष न देकर अपने भाग्य को उलाहना देकर शान्त हो जाती है ।

राजा होने के कारण दुष्यन्त की अनेक पत्नियाँ तथा प्रेमिकाएँ है। इसलिए नाटक की प्रस्तावना (१४) में तथा पंचम अक मे हसपदिका के गीत ( ५-१ ) मे भ्रमर तथा मधुकर शब्दों के प्रयोग के द्वारा कवि ने अन्योक्ति द्वारा दुष्यन्त की भ्रमर वृत्ति की ओर संकेत किया है। उसकी कुछ प्रेमिकाएँ तो ऐसी थी जिनसे उसने केवल एक हीबार प्रेम किया था जैसाकि पचम अक मे दुष्यन्या के ही कथन से स्पष्ट है" एकृस्कृत- प्रणव जन' पर वह एक मद्र और सभ्य नायक था। वह अपनी किसी भी प्रणयिनी को 'दुख नही करना चाहता था उपालम्भ देती हुई हरूपदिका को समझाने के लिए विदूषक को भेजने से उसका यही मन्ष्य स्पष्ट होता है परा के प्रति उसका प्रेम सदैव उदात्त ही रहता है। यह तृतीय अक मे शकुन्तला की सखियों से प्रतिज्ञा करता है

परिग्रह बहुत्वेपि प्रतिष्ठे कुलस्य न समुद्र वसना चोव सखी च पुश्पोरियम् ॥

और सप्तम अक में उसकी इस प्रतिज्ञा की पूर्ति हो जाती है। इतिहास साक्षी है कि शकुन्तला दुष्यन्त की पट्टमहिषी पो और उसके पुत्र सबवगन को ही युवराज पद दिया गया था।

वात्सल्यपूर्ण पिता कालिदास ने दुष्य व को एक वायपूर्ण पिता के रूप मे भी चित्रित किया है। दुष्यन्छ को सन्तान के लिए अधिक अभिलाषा थी किसी राधे से उसका कोई पुत्र उत्पन्न नही हुआ था। अत अपने गम को धारण करने वाली शकुन्तला की उसको बहुत याद आती थी (अभि० ६-२४) । मारीच के आश्रम से सवदमन को देखकर उसका हृदय वात्सल्य से भर जाता है। पहले तो वह समझता है कि सन्तानहीनता के कारण हो मेरे हृदय में इसके प्रति स्नेह उमड रहा है नूनमन पत्पतामा वत्सलपति तथा उस बालक को गोदी मे उठाने के लिए तरस उठता है। ( भि० ७-१७), परन्तु जब उसको विदित होता है कि यह उसका ही पुत्र है तो दोद मे उठाकर उसका आलिंगन करता है। वह गद्गद् होकर भगवान् मारीच कहता है- 1 "भगवन् । वष खलु मे यश प्रतिष्ठा ।"

उदार तथा न्यायप्रिय शासक दुष्यत उच्चकोटि का सफल शासक है। उसका दावा है कि उसके शासन मे कोई भी उद्दण्डता का आचरण नहीं कर सकता (अभि० १-२५)। वह प्रजा को अपनी सन्तान के समान पालता है- प्रजा प्रजा स्वा इतयित्वा (५५) । वह सभी प्रजाजनो का बन्धु है (त्वयि तु परिसमाप्त] बन्धुकृत्य प्रजानाम् २८) वह ससार के कल्याण के लिए ख 3 उठाता है (स्वसुखनिमलष खिद्यसे लोकतो, ५-७) और कुधानामियों को नियत्रित करता है (नियमयसि कुमाव प्रस्थितानात्तदण्ड ५.८) पष्ठाशवृत्ति होकर भी वह तापसजनो से कर नहीं लेता, क्योंकि उसके विचार से तापसजन उसे अपने तप का षष्ठा देते रहते है-तप पद्मावमक्षय्य वदस्वास्थ्यका हि न (२१३)।

दुष्यन्त न्यायप्रिय शासक है और प्रतिदिन स्वयं न्याय का वितरण करता है। किसी कारणवश मंत्री आदि पर काय भार छोडकर भी उनको स्वयं देखने का यत्न करता रहता है। अस्वस्थ होने पर उसने अमात्य पिशुन पर न्याय करने का भार सौंप दिया है, परन्तु धनमित्र के सम्बन्ध मे अतिम निर्णय वह स्वय ही देता है (अक ६) दुष्यन्तलोभी शासक नहीं है। वह चाहता तो धनमित्र के धन को राजकोष मे सम्मिलित कर लेता, परन्तु न्याय का विचार करके उसने वह धन धनमित्र के गमस्थ शिशु को दे दिया। जिन लोगो को अपने प्रियजनो से वियोग हो गया है उन्हें सान्त्वना देने के लिए उसने नगर मे यह घोषणा करवा दी कि ये दुष्यन्त को ही अपना परिवारी जन समझे-

येन येन वियुज्यन्ते प्रजा स्निग्धन बन्धुना ।

स स पापादते तासा दुष्यन्त इति पुष्पताम् ॥ ( ६ - २३ ) अत सिद्ध हुआ कि दुष्यन्त एक प्रजावत्सल तथा न्यायी शासक है। कला कोविद दुष्यन्त को ललित कलाओ का भी सूक्ष्म ज्ञान है। इसपदिका

के गीत को सुनकर वह उसका रस लेता है और प्रशसा करता है "अहो रामपरि- वाहिणी गीति" (अक-५) चित्रकला में वह अत्यन्त निपुण है। उसके द्वारा निर्मित शकुन्तला के चित्र को देखकर सानुमती को ऐसा प्रतीत होता है मानो शकुन्तला उसके सम्मुख खड़ी है"अहो एथा राजनिपुणता जाने सख्यग्रतो मे वर्तते" (re ६)। यही नहीं, कामात तावश प्रकृति कृपण होकर स्वयं दुष्यन्त भी उस चित्र को वास्तविक समझ लेता है।

दुष्यन्त की दृष्टि अनि सूक्ष्म है वह प्रकति के दृश्यों का आनन्द लेता है और उनका अति सूक्ष्म निरीक्षण भी करता है। रथ पर बैठकर वेग से दौड़ते हुए बन के दृष्य, आश्रम के दृश्य, स्वर्ग के भाग के दृश्य वादि के वचनों में कवि ने राजा की इस विशेषता को व्यक्त किया है। उसे प्रकृति निरीक्षण से विचित्र भावुकता प्राप्त हुई है। शकुन्तला के चित्र मे "कार्या मलीनमिथुना" बादि द्वारा उसने जिन प्राकृतिक दृश्यों के सयोजन का प्रस्ताव किया है, वे उसकी भावुकता के साथ-साथ सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का परिचय देने में भी प्रगत सक्षम है।

उपयुक्त विवरण से स्पष्ट है कि कालिवास का दुष्यन्त एक सफन तथा आदर्श नायक है जिसमे प्राय सभी उबात मानवीय गुण विद्यमान है।

(२) शकुन्तला शकुन्तला 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की नायिका है वह राजवि विश्वामित्र और मेनका अप्सरा की पुत्री है। जन्मकाल से ही माता-पिता से परित्यक्त की गयी शकुन्तला का लाल पाer eo ऋषि ने किया है। यद्यपि वह करण की पालिता पुत्री है, तथापि वे उसे अपने प्राणो के समान प्रिय समझते है, जैसाकि नाटक के तृतीय अक के विष्कम्भक में मुनि शिष्यों द्वारा कहा भी गया है "सा खलु भगवत कण्वस्य कुलपतेरच्छवसितम् " उसके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ दष्टिगोचर होती है-

एकनिष्ठ प्रेमिका – मुग्धा तपस्विकया मतला जिम दिन दुष्यत को देखकर बम विरोधी राम विकार से युक्त हुई, उसी दिन से दुष्यन्त का प्रेममयी उसके हृदय में अकित हो गयी। अपने मन- मोहन के पुनदशन की उत्कण्ठा मे वह प्रतिदिन आपका होती जा रही है। सखियों द्वारा बार बार पूछे जाने पर वह केवल इतना ही कहती है- 'सखि यत प्रभूति मम दमनपथमागत तपोवन- रक्षिता राजयि तत एवारम्य सद्गतेनाभिलाये तदवस्वास्मि सत्ता तद् यदि वामनुमत तथा यथा यथा राजधेरनुकम्पनीया भवामि। अन्यथा ममेतिसोधक।" और उसका यह कथन ही उसके प्रेम की अनन्यता को पूर्ण करने के लिए पर्याप्त है। गान्धय-विधि से विवाह कर दुष्यात के हस्तिनापुर चले जाने पर शकुंतला सात चिन्ता मे ही निमग्न रहती है और इस दिशा में उसे अपने शरीर की भी सुध बुध नही रहती "भगव्या चिन्तयात्मानमपि मेा विभावयति कि पुनरागतुकम्" उसका यही अनन्य चिन्न उसके शाप रूपी दुर्भाग्य का कारण बनता है। पंचम अक मे दुष्यन्त से तिरस्कृत होने पर भी शकुन्तला उसका अहितचिन्तन नही करती है और केवल इतना ही कहकर चुप हो जाती है "अनाथ आत्मनो हृदयानुमानेन पश्यसि क इदानीमन् धर्मकयुकप्रवेनिस्तृणच्छन्नकूपोपमस्य समानुकृति प्रतिपत्स्यते ।" पति से तिरस्कृत होकर शकुन्तला अपनी माता मेनका के साथ हेमकूट पवत पर चली जाती है और एक परित्यक्ता किन्तु पतिव्रता भारतीय नारी के बाद के अनुरूप तपोमव जीवन बिताती है। सप्तम अक लोक स० २१ "इसने परिधूसरे बखाना" इत्यादि मे कवि ने एक वेणीधरा मकुन्तला का वही गरिमामय चित्र प्रस्तुत किया है। मारीच ऋषि के आश्रम मे तापस वेपधारिणी होकर भी सकुन्तला अपने प्रियतम के रूप का क्षणभर भी विस्मरण नही कर पाता, जैसाकि वष्ाक मे सानुमती के वचन से स्पष्ट है" स्थाने खलु प्रत्यवमानितायस्य कृते शकुन्तला क्लाम्यतीति ।" मारीचाश्रम मे प्रियतम के बशन होने पर वह उन्हे दोषी नहीं ठहराती अपितु अपने सरल स्वभाववश उनसे केवल इतना पूछ लेती है- 'अथ कथमावपुत्रेण स्मृतो दुखभाग्यय जन " पति द्वारा चरणो मे गिरकर क्षमायाचना किये जाने पर उस आदर्श भारतीय ललना शकुन्तला का सारा आक्रोशशान हो जाता है और वह अपने प्रियतम को किसी भी प्रकार का उलाहना न देकर स्वय अपने ही भाग्य पर सारा दोष मद कर शांत हो जाती है नून मे गुचरित प्रतियधक पुराकृत ते दिवमेषु परिणामाभिमुखमासीद येन खानुकोपार्यपुत्रा मयि विरस सहरा ।" सक्षेप मे शत्रु तला एक आदत एव एकfo प्रेमिका है जो दुख सुखादि सभी परिस्थितियो मे अपने प्रियतम की ही मगलाकाक्षिणो रहती है।

विद्या एव कलाओ मे मनुष्य कण्व ऋषि के आश्रम मे रहकर शकुन्तला ने स्त्रियोचित शिक्षा भी प्राप्त को है वह पशुपालन, बागवानी तथा अवि सरकार एव गृह व्यवस्था ने पूण दक्ष है। उसकी दक्षता के विश्वास पर ही कुलपति कण्ड आश्रम की व्यवस्था का भार अपनी पुत्री पर सौपकर सोमतीर्थ चले गये । वह साक्षर तथा काव्य रचना मे प्रयोग है। उसने अपने हाथो से हो दुष्य त के लिए मदन लेख लिखा था जिसमे विरह जनित उत्कण्ठा, अभिलाषा, उपालम्भ आदि की सुन्दर अभिव्यजना हुई है-

तुम आगे हि मम उप कामो दिवादि रस्तिम्पि । निणि] तब बली द बुत्तमणोरहाई अ तव न जाने हृदय मम पुन कामो दिवाविरात्रावपि । निर्घुण तपति बलीयस्स्वयि वृत्तममोरचान्यङ्गानि ॥ इससे स्पष्ट है कि शकुन्तला एक शिक्षित तथा कला प्रयीणा पाला है।

कन्या-कुत्तता को प्रकृति के प्रति इतना सहज और प्रगाड स्नेह है कि परवर्ती आपको उसे युग म्या ही वह दिया है उसका लालन पालन प्रकृति के सुरम्य एव सुविस्तृत प्रागण में हुआ है जिससे उसके हृदय मे उदारता सहृदयता और सदाशयता प्रभूति सात्विक गुणो का सहज विकास हुआ है। आश्रम के वनस्पतियों के प्रति उसका सोदरस्नेह हे" अस्ति मे सोव स्नेह एतेषु" । वृक्षो का सेवन करती हुई शकुन्तला को केसर वृक्ष अपनी ओर जाता हुआ सा प्रतीत होता है। उसी के शब्दो मे "वारिपल्लवाङ्गलीभिस्त्वन्तीव मा केसरवृक्षक" वनज्योत्स्ना नामक लता को वह अपने प्राणो से भी अधिक स्नेह करती है और पतिगृह- गमन करने से पूर्व वह उससे आलिंगन करती है (चतुय अक) तपोवन के तरुओ के प्रति उसके स्नेह की पराकाष्ठा ऋषि के इस कथन से ही स्पष्ट हो जाती है कि वह पहले उनको जस पिलाकर जल पीती थी, आभूषण प्रिय होन पर भी वृक्षो की पत्तिया नही तोडती थी और उनके प्रथम कुसुमप्रसूतिकाल पर उत्सव मनाती थी— मातुन प्रथम व्यवस्पति जल पुष्मास्यपीतेषुषा-

नादते प्रियमण्डमापि भवता स्नेहेन या पहलयम्

शाकुन्तल मे यह विदूषक सर्वप्रथम द्वितीय अक मे मिलता है जहाँ वह अपनी araण्यता भीता और भोजन प्रियता का परिचय देता हुआ कहता है "हा इतोऽस्मि । एतस्य मृगयाशीलस्य राशो वयस्यभावेन निर्विण्णोऽस्मि मध्यन्दिनेऽपि 1 विरपादपच्छायासु वनराजिषु श्राहिण्ड्यतेऽटवीतोऽटवीम् । पत्रसकरकषायाणिगिरिनदी जलानि पीयन्ते अनियतवेल शूल्यमासभूयिष्ठ बाहारी मुज्यते तुरगानुधावन- कन्धे राजा निकाम शमितव्य नास्ति ।" जब राजा उससे अपने शकुन्तला- विषयक प्रेम-प्रस में सहायक बनने की इच्छा प्रकट करता है "विधातेन भवता ममाप्यनायासे कमणि सहायेन भवितव्यम्" तो पेटू विदूषक इसके उत्तर में कहता है कि मोदिकखादिकायाम्" अर्थात् क्या लड्डू खाने के काम मे (मेरी सहायता की आवश्यकता है ?) राजा जब आश्रमललाम भूता शकुन्तला के प्रति अपनी रोश व्यक्त करता है तो आलसी विद्रवक पहले तो इस प्रसन को टालना ही चाहता है, पर जब राजा अपने प्रेम का औचित्य बतलाने लगता है तब विदूषक हास्यपूर्ण ढंग से राजा पर व्यग्य कसता हुआ कहता है- "यथा कस्यचित् पिण्डखर्जूरैरुद्विजितस्य विन्तिप्यामभिनाषो भवेत् तथा स्त्रीरत्नपरिभाविनो भवत इयमभ्यवना" पेटू होने के कारण उसके इस दृष्टान्त मे खादनीय पदार्थो का ही प्रयोग हुआ है किन्तु जब राजा शकुन्तला के सौदर्य वर्णन द्वारा उसे आश्वस्त कर देता है तो वह राजा से सहमत हो जाता है और विनोदपूर्ण ढंग से उसे अपनाने के लिए कहता है- "तिनहि लघु परित्रायतानेना भवान् मा कस्यापि तपस्विन इगुदी समिश्रचिक्कणशोषस्य हस्ते पतिष्यति” साथ ही वह राजा के प्रेम-प्रसंग को सफल बनाने के लिए उसे परामश देता है और स्वय उद्योग भी करता है, पर इसी बीच माता का सन्देश मिलने पर राजा उसे अपने स्थान पर राजधानी भेज देता है। इतने विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि अभिज्ञान शाकुन्तल का माम्यनामा विषक विनोदी स्वभाव वाला भोजनभट्ट तथा बालसी ब्राह्मण है, और राजा का तरंग मित्र है डरपोक तो इतना है कि तपोवन मे राक्षसो की उपस्थिति का वृतान्त सुनकर वह राजा के साथ भी तपोवन में प्रवेश करने से साफ इन्कार कर देता है। राजा के यह पूछे जाने पर "माढव्य जप्यस्ति शकुन्तला दशने कुतूहलम्" वह भीरु स्वभाववश उसे उत्तर देता है 'प्रथम सपरी- बाहमासीत् । इदानी राक्षस वृत्तान्तेन विन्दुरपि नावशेषित ।"

इन दो नारी पात्रो की इस नाटक मे साभिप्राय सृष्टि की गयी है इनके माध्यम से शकुन्तला का वश-परिचय तथा अभिमत राजा को विदित हो जाता हैजिनसे महाभारतीय शकुन्तला की स्वरवृत्ति तथा निलज्जता का तिरोभाव हो जाता है जामीमा शकुन्तला अपनी काम व्यथा को इन अमारग सखियों से ही व्यक्त कर पाती है और इनके उद्योग से ही उसका दृष्यत से मिलन तथा गन्धव विवाह होता है। महाभारत की भाति अभिज्ञानशकुन्तला मे साबुन राजा से कोई शत नही रखती अपितु यह तो नि स्वाव भाव से अपने आप को समर्पण कर देती है पर अनसूया परोक्ष रूप से उस रात को रख ही देती है "वयस्य बहुवल्लभा राजान श्रूयते यथा नो प्रियसखी बन्धुजन शोचनीया न भवति निर्वाह्यम्" और प्रत्युत्तर मे वह राजा स यह वचन भी ले लेती है कि

परिग्रहमपि प्रतिष्ठे कुलस्य न ।

समुद्रवसना चोर्यो सखीच युवयोरियम ॥

तात्पय यह है कि महाभारतीय कुसला के चरिव मे जो मता, कामुकता आदि ख्याताएँ भी उनका पूर्ण निराम करने की दृष्टि से ही काि दास ने अनसूया और प्रिया की सृष्टि की है।

अनसूया तथा प्रियवा के चरिलो मे जहा अनेक समानताएँ है वह कुछ स्वभावगत विषमताएँ भी है। दोनो सखी शकुन्तला की समवयस्त है और उससे निस्वाथ रने तथा उसका हितचिनन करती है। व्यावहारिक शिष्टाचार निय लता और मधुरभाषिता दोनों में समान रूप से विद्यमान है। दोनो ही कम और उत्साहशील तथा सतना के वृक्ष मेचनादि प्रत्येक त्रियाकलाप मे उसका सल्लाह सहयोग करती है।

उपयुक्त समानताओ के होते हुए दोनो के चरितो मे अपनी व्यक्तिगत विशेष- ता है। प्रियवदा की अपेक्षा अनसूया अधिक प्रौढ, गम्भीर विचारशील और दूरद- मिनी है। दुष्यन्त के यम में उपस्थित होने पर यही आगे बाहर अतिथि का स्वागत करती है और कोतुरुवश 'कतम आयंगराजशोऽनयते" इत्यादि वाक्य से परिचय पूछनी है। दुष्यन्त द्वारा शकुन्तला के विषय में पूछे जाने पर यही उसकी उत्पत्ति का वतान्त सुनाती है। वह विवेकशील है और जल्दबाजी में कोई नाम करना उचित नहीं समझती तृतीय अक मे जब उसको दुष्यन्त कुतला के पारस्प रिक प्रेम का पूरा निश्चय हो जाता है तभी वह शकुन्तला को मदन लेख आदि लिख कर आगे बढने तथा राजा से मिलने के उपाय पर विचार करती है।

अनसूया मे दूरदर्शिता भी है राजा के प्रेम का निश्चय हो जाने पर भी यह अधिक आवश्वस्त होने के लिए उसे कह ही बैठती है कि "राजा लोग अनेक गलियो वाले होते हैं, बस आपको इसके साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिससे इसके ब जन दुखी न हो।" तापसजनो के यज्ञ को निर्विघ्न समाप्ति हो जाने के पश्चात राजा के चले जाने पर भी उसे शकुन्तला के भविष्य के प्रति चिन्ता और का उत्पन्न होती है कि कही राजा नगर मे जाकर यहाँ के वृत्तान्त को भूल न जाय अद्य खराजविरष्टि परिसमाप्यविभिविसर्जित आत्मनो नगर प्रविश्यान्त पुरसमागत इतोगत वृत्तात स्मरति न वेति" ( चतुव अक)।अनसूया के विपरीत प्रियवदा अधिक मधुरभाषिणी परिहासत्रिय और जिज्ञासु है। कुला जब वल्कल को करने का प्रया को उलाहना देती हुई अनसूया से उसे जमा करने के लिए कहती है तो वह परिहासपूर्वक शकुन्तलाको उत्तर देती है " पयोवतारवित आत्मनो यौवनमुपालभर ।" जब शकुन्तला केसर वृक्ष को सोचने के लिए उसके निकट पहुंचती है तो प्रियवदा उसे थोड़ी देर वही रुरुने को कहती है क्योंकि उसकी दृष्टि मे शकुन्तला का सामीप्य पाकर केसर वृक्ष लतासनाथ- साहो गया है "हाकुन्तले अव तावन्मुहूर्त तिष्ठ यायस्वयोपगतया लतास- नाथ हवाय केसरयुक्षक प्रतिभाति।" उसके इन प्रवचनों से तुष्ट होकर ही शकुन्तला ने उनसे कहा था अत सलु प्रियवदासि त्वम् ।" दुष्यन्त की उपस्थिति में उसके हातपरिहास केला एवं भरी से जब शकुन्तला वहाँ से उठकर चलने लगती है तो बड़ा उसे बलात् रोक देती है और कह देती है कि तुम पर दो वृक्षो का सोचना उधार है, उसे चुकाकर जाओ। 1

आरण्यवासी होते हुए भी कण्व लोक वृत्तान्त मे पूर्ण निष्णात है। उन्होंने स्वय कहा भी है-बोकोऽपि तो लोकिका यम" कुतला के वियोगजन्य दुखावेग को दबाकर दुष्यन्त के लिए सामयिक और राजचित सन्देश देने है--- "अस्मान् साथ विचिन्त्य सयमधनान्" इत्यादि और तुरन्त अपनी पुत्री को भी उपदेश देने लगते है- शुषस्व गुरून् कुरु प्रियसीवृत्ति सपत्नीजने" इत्यादि इन राज्यों में उनके लोक व्यवहार ज्ञान का सुन्दर निर्देशन है। ये अच्छी तरह जानते है कि विवाहित पुत्री को अधिक समय तक पितृगृह में नहीं रखना चाहिए अत शकुन्तला को शीघ्र ही दुश्यन्त के पास भेज देते हैं। वे यह भी जानते है कि यूवती तथा अविवाहिता कन्या को बाहर भेजना उचित नहीं है, अंत मे अनसूया और प्रिया को शकुन्तला के साथहस्तिनापुर नहीं भेजते पितु वियोगकातरा शकु तला जब उनसे पूछनी है कि "कदा नु भूयस्तपोवन प्रेक्षिष्ये" तो मुनि शान्त एवं गम्भीर चित्त से उसे सान्त्वना देते हुए कहते हैं-

भूत्वा चिराय चतुरस्तमहीसपत्नी  दौष्यन्तिमप्रतिश्य तनय निवेश्य मर्ना तदर्पितम्यमरेण सार्धं शान्ते करिष्यसि पद पुनराचमेऽस्मिन ॥

को मानव स्वभाव का भी अच्छा ज्ञान है वे जानते है कि मनुष्य धीरे- धीरे अपने दुखो को भूल जाता है। अतः वे शोकविल माकुन्तला को समझाते हुए कहते हैं कि पति के घर के कार्यों में सलग्न होकर तुम मेरे बिरह के दुख को भूल जाओगी "अभिजनवतो भट्ट एलाध्ये०।"

कद जानते हैं कि पुत्री पर पिता का अधिकार नहीं होता। वह तो उसके भावी पति की धरोहरमात्र है। इसलिए शकुन्तला को पतिगृह भेजकर वे सन्तोष की सास लेकर कहने लगते हैं-

अर्थो हि कन्या परकीय एव तामद्य सप्रेथ्य परिगृहीतु । जातो ममाय विशद प्रकाम प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा ॥

इस प्रकार कालिदास के महर्षि दयालु प्रेमपिता, तपोनिष्ठ ब्रह्मचारी, सिद्धिमान् और लौकिक व्यवहारश हैं। वे मानवो पर ही नहीं, पशु-पक्षियों तथा लवा- वृक्षी पर भी समान रूप से स्नेह करते हैं। वे विद्या, ज्ञान और प्रेम की साक्षात मूर्ति है तथा भारतीय संस्कृति के आदम रूप को मुखरित करते हैं।

उत्तमोत्तम सभी नाट्य कला सम्बन्धी विशेषताये हैं, तथापि इन प्रकृति चित्रण ता अप्रितम एवं अतिरमणीय है। यह तो सर्वविदित ही है कि कालिदास की काव्य कला का विकास ही प्रकृति वर्णन से आरम्भ होता है, जो कि उनकी इस काव्य प्रतिमा का प्रमाण है कि उनकी रचनाओं में कयानक गोष है। प्रकृति ही सब कुछ है। अभिज्ञान शाकु तल को यदि इस दृष्टि से पड़ा जाए तो उसमे बायोपरान्त कोमल एवं सरस प्रकृति का भव्य वणन मिलेगा। उनकी शकुन्तला वस्तुत प्रकृया हो है। वह प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में उत्पन्न हुई, प्रकृति ने ही उसका पालन पोषण और शृङ्गार प्रसाधन किया तथा उसका अधिकाश जोवन भी प्रकृति की गोद में ही व्यतीत हुआ और महर्षि कप के शब्दों में "शान्ते करिष्यसि पद पुनराश्रमेऽस्मिन्" उसने अपना अन्तिम जीवन भी प्रकृति की गोद ही में व्यतीत किया। इसी प्रकृतिकमा की कवि ने मानवी रूप में चित्रण किया है। इतना ही नही कवि का मेघदूत गीति काव्य तो प्रकृति काव्य ही है। उसका मेघ एक प्रकृति का ही बग है, उसका सारा काय व्यापार प्रकृति कीडा ही है। भारतवर्ष के भव्य प्राकृतिक द इस गीतिकाव्य में देखे जा सकते है अत मेघदूत आद्योपान्त प्रकृति काव्य ही। इसके अतिरिक्त उनकी अन्य सभी रचनाओं में प्रकृति के उत्तमोत्तम दृश्य देखने को मिलते है। यह मना बयुक्त न होगा कि कालिदास मूलत प्रकृति कवि है और उसकी कला का आरम्भ प्रकृति चित्रण में ही होता है उसमे उत्त शेत विकास एवं परिमाजन होता गया है।

दि की प्रथम रचना "ऋतु सहार" है। इसमे कवि ने विभिन्न यो से मानवों पर पडने वाले प्रभावो का तथा उनके परिणामों का सुन्दर सरस वर्णन किया है। उन्होने प्राकृतिक दश्यों पर चैतन धम का समारोप कर उसका पालकारिक चित्र प्रस्तुत किया है और कही कही प्रकृति को शुद्ध आलम्बन रूप से भी रखकर उसके प्रति अपना अनुराग व्यक्त दिया है। इस प्रकार ऋतु सहार का कवि यद्यपि प्रप्रेमी जान पढता है तथापि यहाँ उसका यह प्रकृति प्रेम प्राय न काही इसमें स्त्रियों के विभ्रम विलास एवं शृगार की ही प्रधानता है। कवि ने इसमे कायों के उन विचारों और भाव का ही विशेष रूप से वर्णन किया है जो कि उसने प्रकृति के प्रभाव से उत्पन्न हुये है। इन कामिनियों के भावो का ही वर्णन करने के लिए कवि ने मानो यहा प्रकृति की पृष्ठभूमि का आश्रय लिया है। वस्तुत प्रकृति का वह आलम्बन रूप यहाँ देखने को नहीं मिलता जो कि उनके कुमारसम्भव और रघुवश आदि मे मिलता है। इन अपनी उत्तरकालीन रचनाओ मे कवि ने प्राकृतिक एवं देवी विभूतियों के बीच अद्भुत साम्य स्थापित किया है। इसके लिए कुमार- सम्भव के प्रथम पाच सब इष्टव्य है वह इन रचनाओ मे लता यक्षादिको मे देवी विभूतियो का अस्तित्व स्वीकार करता है। शाकु तल मे सकुन्तला के विदा होते समय वृक्षों में निवास करने वाले देवता उसको आभूषण वस्त्र एवं प्रसाधन के अन्य पदार्थ भेंट कर विदा करते है। मेघदूत मे यक्ष जब स्वप्न में अपनी पत्नी का दशन पाकर बड़ी उत्सुकतापूर्वक उसका आलिङ्गन करने के लिए अपनी भुजाये फैलाते है तब उसकी इस विगतका देखकर वन देवियों की आखो से मोतियों के समान स्थूल अबिन्दु वृक्षों के पत्तो पर गिरने लगते है। कुमारसम्भव मे चद्रमा अपनी किरण रूपी अमृतयो से रजनी नायिका के अ धकार रूप पास को हटाकर उसके निमीलित कमलने वाले मुख का चुम्बन करता है। "अङ्ग लोभिरिव रजनीमुख गी"।

इससे स्पष्ट कि इन उत्तरकालीन रचनाओं में कवि के प्रकृति विषयक दुष्टिकोण ने पर्याप्त अन्तर आ गया। यहां वह समस्त जय वेतन सृष्टि मे एक ही चेतन तत्य देखता है। उसकी धारणा है कि स्त्री-पुरुष के समान ही लता बुझादि भी उसी चैतन्यसे चेतन हैं, मानव के साथ इनका चिरस्थायी अटूट सम्बन्ध है। अतएव मानव अपने सुख-दुध का रूप प्रकृति ने देखता है और प्रकृति भी मानव से सक्लिष्ट है और उसके प्रति सहानुभूति पूण भी वह उसके सुख-दुख को अपना सुख-दुख मानती है। इस प्रकार मानव का कोई भी क्रिया-कलाप प्रकृति से बहिर्मुख नहीं होता । कवि की रचनाओं में प्रकृति का यह सश्लिष्ट एवं रूप योजनात्मक वर्णन सर्वत्र देखनेको मिलता है। शाकुन्तल के तो प्रत्येक अक में प्रकृति का यह रूप देखने को मिलता ही है पर अथ अन्य ग्रन्थ भी प्रकृति के इस मनोहर रूप से परिपुष्ट है।

इसमे सन्देह नहीं कि कवि ने प्रकृति के मधुर सरस एव भव्य रूप का ही nas fate वर्णन किया है। प्रकृति का भयावह रूप जो कि भवभूति आदि जन्य कवियों मे मिलता है कालिदास की दृष्टि उस ओर नहीं गई है। पर प्रकृति के बाह्य दृश्यों के रूप योजनात्मक वर्णन मे ये अद्वितीय है। उनके ये वर्णन व चित्रप सजीव एवं हृदयग्राही ही है। रघुवंश के योग का वह वणन जहा कवि कहता है कि ममुना की तरगो मे मिलता हुआ गया का प्रवाह ऐसा प्रतीत होता है कि मानो मोनियो की लड़ी में नीलम पिरो दिये गये हो अथवा श्वेत कमल माला में मानी बीच बीच मे नीलकमल पिरो दिये गये हो "क्वचित्प्रभातेविभि उत्चचिता तरेष"

रघु त्रयोदश सग

इसी प्रकार मेष प्रकृति को अपनी प्रियतमा के रूप में देखता है प्रिय लता ही उसकी मा का कोमल सरस एवं विकसित य है, चकित हरिणियो केष्टि- पात उसकी प्रियतमा के नयन कटाक्ष है चद्रमा उसका मुख है, मयूर पुच्छ केशपा तथा नदियों की लोल लहरे उसके विलास है 'प्रयमास्य चकित हरिणीप्रेक्षणे दृष्टिपातम् मेघदूत |

इतना ही नहीं कवि की दृष्टि में मानवीय सौ दय का मापदण्ड प्रकृति ही है। कुमारसम्भव से जब भगवती पावती अरुणोदयकालीन सूप के समान रक्त परि धान धारण कर पूजा जाती है तब कवि कहना है कि मानो नवविकसित पल्लो को धारण करने वाली कोई लता बस रही हो। केसर वृक्ष के नीचे खीला के कारण केसर वृक्ष भी सतारानाथ प्रतीत होता है "स्वयोपगतया लतासनाथ इब केसर वक प्रतिभाति। और ऐसा होना स्वाभाविक ही है क्योंकि शकुन्तला की भुजायें उस खता की कोमल टहनियाँ है, रोष्ठ की लालिमा किसलय को रक्तिमा है और बग-प्रत्यङ्ग पर व्याप्त यौवन ही उस लता की कुसुम समृद्धि है।

क्योकि अनेकन कालिदास ने यह माना है कि मानव सौन्दय से बढकर प्रकृति सौन्दय है। मानव सौन्वय की अभिवृद्धि प्रकृति सौन्दय से ही होती है। इसीलिये उसने शकुन्तला के सौन्दय वणन मे सवत्र प्रकृति उनमानो का ही उपयोग किया है 'अनन्त पुष्प किसलयमूलन कर अपव | सवायामि चरणात पद्मताम्र । कृतन कर्णान्धन सबै गिरीषमागण्डविलम्बि केसरम् न वा शरचन्द्रमरीचिकोमल मृणालसूण रचित स्तनान्तरे । शा पष्ठ० १८ तथापि उसकी रचनाओं मे कई स्थल ऐसे भी है जहा कवि ने मानव सौन्दय को प्रकृति सौन्दय से बढकर माना है। मानव सौ दय के प्रकृति सौन्द सा जाता है। कुमारसम्भव मे कवि कहता है कि भगवती पावती की भुजाएँ शिरीष कुसुम से भी कही अधिक कोमल एवं सुन्दर है "शिरीष कुसुमादपि सौकुमार्यो बाहू तदीयाविति मे वितर्क ( कु सम्भव ) गजशुण्ड त्वचा में करुण होते हैंऔर कदली स्तम्भों मे अत्यधिक होता है अत जाओ के लिए प्रकृति में कोई उपमान ही नहीं रह गया है इत्यादि स्थल उसकी इस मान्यता को पुष्ट करते हैं कि मानव सौन्दय प्रकृति सौन्दय से बढकर है।

कालिदास की प्रकृति कही भी सूक चेतनाहीन एवं निष्प्राण नहीं है, वह मानवो के समान ही संचेतन एवं मजीव है। सुख दुख एवं संवेदना का अनुभव करती है, मानव से उसका अटूट प्रेम है। इसीलिए महर्षि कण्व और उसकी सखिया ही नहीं अपितु समस्त तपोवन ही उसकी विदाई के समय पीडित हो उठा है। जैसाकि rer कहती है। न केवल मध्येव स्वयोपस्थित वियोगस्य तपोवनस्यापि समवस्था दश्यते "दगलितदमकवला मृग्य परित्यक्तनतना मयूरा अपसूतपापा मुञ्चन्त्यमीव लता ।" वृक्षो ने अपनी कन्या की विदाई के समय केवल आभूषण, hter वस्त्र एवं लाक्षारस ही नहीं दिये अपितु कोकिल ध्वनि के द्वारा उसे जाने की अनुमति भी प्रदान की। ज्ञानी मानव होने के कारण भले ही महर्षि क ने अपने आँसू रोक लिए हो, पर लताओं के आँसू न रुक सके, मयूर नृत्य छोडकर मूवी कवल उगल कर उसकी ओर देखने लगती है। बनज्योत्स्ना अपनी गावान्याओ को फैलाकर विदा होती हुई अपनी बहिन से भेंट करना चाहती है। उसका कृतकपुत्र मुगा वक उसका पल्ला पकड़कर उसे जाने से रोकने लगता है को निवसने मे सज्जते ।

कालिदास की प्रकृति सहानुभूति प्रदशन मात्र ही नहीं दुखी जनो को सान्त्वना भी देती है। प्रियजन विरह से पीडित मानव को प्रकृति ही अपनी गोद में लेकर पीटा सहन करने की क्षमता प्रदान करती है। चक्रवाकी-आरटन को सुनकर जब प्रकुतला कहती है "दुष्करमह करोमि तद अनसूया कहती है " एवापि प्रियेण विना यमपति रात्रि विषादपतराम् । गुवपि free anteras साहयति" चकवाकी के इस उदाहरण से वह सान्त्वना प्राप्त करती है। विरह पीडित दुष्यन्त भी मनोविनोद के लिए प्रकृति का ही आश्रय लेता है। शक्यमरविन्दसुरभि आलिङ्गितु पवन इत्यादि। इसी प्रकार उशीराने मृणालयलय नलिनी पत्रबात पुष्प शयन आदि भी प्रकृति के सानदायक पदार्थ है पर कदाचित् प्रकृति बिरही के विरह को उद्दीप्त भी करती है और प्रकृति सौन्दय उसे विपरीत सा दिखाई पढने लगता है, इसीलिए विरह पीडित दुष्यन्त कहता है "विसृजति हिमगमे रग्निमिन्दुमत्वमपि कुसुम- बाणान् वचसारीकरोसि । तृतीया ।

वस्तुत शाकुन्तल प्रकृति चित्रण का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। इसमे कवि के उत्कृष्ट प्रकृति प्रेम का, उसकी प्रकृति दृश्यों की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का और उसकी haita neपनाओ का उत्प्रेक्षाओं और उपमानो को सुन्दर चित्रण है। प्रकृति विषयक भावनाओ का और प्रकृति सन्देश के मार्मिक उद्घाटन का शान से बढ़कर अन्य उदाहरण न मिलेगा। शाकुन्तल का प्रारम्भ हो ग्रीष्म ऋतु वणन से होता है और इसकी समाप्ति भी मारीच के पवित्र प्रकृति प्रागण मे होती है। शाकुन्तल यद्यपि यो समय के लिए इन्द्रिय वासना ने अशान्ति उत्पन्न कर दी थी. पर वहafre ही थी, और ज्योंही वह शान्त हुई हम पुन मारीच के पवित्र प्रकृति प्राङ्गण में दो विरही हृदयों को मिलते हुए पाते हैं। वस्तुत यह मिलन यो बिछुड़े प्रेमियो काही मिलन नही अपितु अन्त एवं बाह्य प्रकृति के चिरन्तन सयोग की ही पुन प्रतिष्ठा है।

शकुन्तला ही नहीं करि को सभी नायिकाओं का प्रकृति से अटूट प्रेम है। फूलो के बीच ही ये पलती है और उन्हीं के बीच उनके जीवन का विकास होता है।

राज कवि होते हुए भी कवि ने प्रकृति वर्णन में साम्प्रदायिक रोति का ही अनुसरण नहीं किया है। उसके वर्णन परम्परा युक्त मात्र नहीं है अपितु उनमें प्रत्यक्ष निरीक्षण की स्निग्धता, सहृदयता की भावना, रसिकता तथा कल्पना की कमनीयता सत्र देखी जाती है, इसीलिये वे प्रकृति कवि है। कालिदास की अलकार-योजना

"वा राम काव्यम्" के अनुसार काव्य की आत्मा रस ही है जो वि सदा यही होता है ध्वनिवादी मम्मट आदि आचाय भी व्यञ्जय प्रधान काव्य को ही उत्तम काव्य मानते हैं, पर भामह दण्डी आदि आचार्यों ने काव्य मे कल्पनाविलास और शब्दाय चमत्कार को भी महत्व दिया है। कालिदास किसी सम्प्रदाय विशेष के अनुयायी नहीं अत उनकी रचनाओ मे रस का प्राधान्य रहते हुये भी गुणलकारों को भी उचित स्थान दिया गया है।

वस्तुत कालिदास अकारवायी कवि नहीं अपितु रससिद्ध कवि है। फिर उनके रचना के प्रवाह में स्वाभाविक स्फुतियश जो भी अलकार स्वत आ गये हैं उनका प्रयोग उनकी रचनाओ मे सब देखा जाता है और वह भी बडा ही सरस और मधुर है।

रस सिद्ध कवि होने के कारण कवि ने शब्दालकारो का प्रयोग बहुत ही कम किया है। अनुप्रास, यमक आदि शब्दाकार यदि वे स्वत रचना प्रवाह मे आ पड़े तब तो में उनकी रचनाओं ने स्थान पा गये है अन्यथा कवि ने उन्हें लाने का कही प्रयास नहीं किया है। अनुप्रास का तो अवश्य अधिक प्रयोग मिलता है पर यमक और एलेष जैसे बुद्धिप्रधान अलकारों का तो कवि ने जानबूझ कर ही प्रयोग नही किया है, क्योंकि इनकी योजना में विद्वत्ता प्रदशन ही अधिक है, रसिकता नहीं इनसे काव्य में कृत्रिमता ही अधिक आती है स्वाभाविकता नहीं इसीलिए इनका प्रयोग ही है। कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं "भुजे मुङ्गरेद्रसमानसारे भू स भूमेरमा मसाज । बधाय वध्यस्य शर पारव्य । प्रजा प्रजनाथ पितेव पासि मनुष्य वाचा मनुवचम् (रघुवश) प्रजा प्रजा स्वा इव तदित्वा (शाकुन्तल) ।

अलकारो के प्रमुख दो भेदो स्वाभावोक्ति और वकोक्ति में से कवि ने स्वभावोक्ति का बड़ा ही सुन्दर प्रयोग किया है जिसमे कवि ने दृष्टि या कल्पित पदार्थों या व्यक्तियों का था और अतिरमणीय चित्र दीपा है। शाकुन्तल मे पीछेदौड़ते हुए रथ पर बैठे हुए राजा के बाण के लगने के भय से भागते हुए मृग का दृश्य "श्रीभगामिरामस् सा० प्रथम अ ० ६ निष्कम्प चामर शिवाले भागते हुए अश्वो का दृश्य "मुक्तेषु रश्मिषु निरायतपूर्वकाया, निष्कम्प चामरशिया निभूतोऽपकर्णा । आत्मोद्धतरपिरजोभिरलङ्घनीया धावत्यमी मृगजवाक्षमयेव रथ्या । तथा इसी प्रकार के अन्य स्वभावोक्ति के स्थल बडे ही सूक्ष्म पर मार्मिक और यथाथ है। शकुन्तला के बिदाई के समय कण्व के कथन मे और उनकी विह्वलता मे बड़ी ही स्वाभाविकता है।

पर कालिदास को कल्पना का रम्य विलास वक्रोक्तिमूलक उपमा उत्प्रेक्षा दृष्टान्त अर्थान्तरन्यास अप्रस्तुतप्रशसा काव्यलिङ्ग आदि बलकारों में देखा जा सकता है। पृथ्वी से आकाश तक समुपलब्ध साधारणजनों के लिए नोरस और उपेक्षणीय पदायों में भी सौदर्याधान करने वाली कवि की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति ने अनकारी के प्रयोग म एक विशेष चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। इन अधिकारों में भी भारताक आलोक ने उपमा के प्रयोग मे कालिदास का सवश्रेष्ठ माना है जैसाकि प्रसिद्ध है-- उपमा कालिदासस्य ।

इसमे कोई सन्देह नहीं कि उपमा के क्षेत्र मे कालिदास अनुपम है। इनकी उपमायोजना, सरसता, रम्पता विविधता एव ममता की टि से बेलोट है। साथ ही ये उपमाएँ भावानुकूल श्लेष की जटिलता से रहित, अनूठी एवं विषयानु कूल है व स्पष्ट एव नित्य व्यवहार में देखी जाने वाली होने के साथ ही शास्त्रीय विषय से अनुप्राणित है। कोई भी वस्तु सौ दस उनकी निरीक्षण पनि से बाहर नहीं जा सका है। उनकी सभी उपमाएँ सानुकूल है। इमली ग्रयवर मे जिस-जिस राजा को छोड़ कर आगे बली जानी थी उन उसके मुख पर निराशा की बालम उसी प्रकार छा जाती थी जैसे राजपथ को अट्टकाये जिन्हें रात्रि मे आगे बढती दीपशिखा ने पीछे छोर दिया है। कालिदास की यह सब प्ठ उपमा है इसीलिये उनका नाम भी दीपशिखा पड गया था।" संचारिणी दीपशिखेव राय व व्यतीयाय विरा सा रघु पन से लौटते समय दिलीप और सुदक्षिणा के बीच नन्दिनी उसी प्रकार शोभा पा रही थी जैसे दिन और रात्रि के बीच सध्या शोभा पाती है। उपमा की यह कल्पना कितनी यदाच एवं स्वाभाविक है। रक्तामवणा नन्दिनी स्त्री- लिङ्ग सध्या है। पुति राजा दिलीप दिन के समान उसके पीछे चल रहे हैं आगे आकर स्त्रीलिङ्ग क्षमा सुदक्षिणा उनका स्वागत कर रही है। यह सर्वात पूर्ण उपमा दिनक्षपामध्यगतेव सध्या रघु० ।

अनेक असू कल्पनाओ एवं मनो व्यापारी से गृहीत उपमाएं भी सुन्दर है । महषियों द्वारा प्रयुक्त उपमाएँ उनके बातावरण विद्याभ्यास एवं ऋषिजनोचित अनुभव तथा व्यवहार से अनुप्राणित है। दुष्यन्त को प्राप्त शकुन्तला उसी प्रकार अशोचनीया नई है जैसे सुमिष्य को दी गई विद्या शोचनीय हो जाती है। "सुशिष्य विश्वासइसी प्रकार "अकृतार्थेऽपि मनसिजे" "कामी स्वता पश्यति" "अनुकारिणि पूर्वम्" " लभेत वा प्राथयिता न वा श्रियम्" "दृष्टप्रयसनितान्यवानस्प इत्यादि अर्थान्तरन्यास के उत्तम उदाहरण है।

इसी प्रकार अन्य अलकारो का प्रयोग भी कवि ने बड़ी ही सुन्दरता के साथ किया है अन्य अलकारो से उदाहरण के लिए परिशिष्ट भाग १ र २ देखिये । कालिदास की रस योजना

मालका प्रधान या बीरार है। बार के सभोग और विश्वम्भ इन दोनो पक्षो में से भी प्राधान्य योग शृङ्गार का ही है, यद्यपि विप्रलम्भ की भी अभिव्यक्ति मे कम नहीं है तथापि प्राधान्य सभोग श्रृंगार का ही है। शाकुन्तल के प्रथम तीन अको ने सभोग ही प्रमुख है। विप्रलम्भ (करण विप्रलम्भ और वात्सल्य विप्रलम्भ) वीर, भयानक, हास्य, अदभुत और शान्त आदि का भी अग रूप मे अभिव्यक्तीकरण किया गया है। यद्यपि विप्रलम्भार का सम्भोग की अपेक्षा अधिक विस्तार देखा जाता है। फिर भी धान्य सम्भोग का ही है, आरम्भ भी सभाग से होता है और अन्त मे दुष्यन्त शकुन्तला के मिलन के रूप में भी रही है अतएव यहाँ सभोग को ही अयो रस मानकर रसो का वजन किया जायेगा।

प्रथमा में वृक्ष सेचननिरता एवं अपनी सखियों से वार्तालाय करती हुई शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त के हृदय में उसके प्रति अनुराग उत्पन्न होता है और कहता है, "मधुरमासा दशनम्" शुद्धान्त दुलममिद वपु इत्यादि। इसके बाद वह उसके प्रति आसक्त हो जाता है और उसके अद्भुत सौंदय की मन ही मन प्रशंसा करता हुआ कहता है- "इद किलाव्याजमनोह सरसिजमनुविद्ध जीवनापि रम्यम्" इसके बाद वह विदा की यह उक्ति सुनकर "हा अव मुहूर्त तिष्ठ, नून स्वयोपगतया लतासनाथ इव कैंसर वृक्षक प्रतिभाति" यह उसे पल्लवित एव विकसित लता के रूप में देखने लगता है और सोचता है कि सचमुच यह लता ही है क्योकि इसका "अधर freeeen कोमलविटपानुकारिणो बाहू कुसुममिव लोभनीय मोवनम सन्नद्धम् ।" उसके जीवन वृत्तान्त को जानकर और उसे for परिक्षमा मानकर राजा उसके साथ विवाह करने को उत्सुक हो जाता है अतएव यह कुता के मुख मण्डल पर महराने वाले भ्रमर की चेष्टाओ से भी ईर्ष्या करने लगता है, "पाद गा दृष्टिम्" और इसी भ्रमर बाधा के निरकरण व्याज से यह शकुन्तलासम्मुख उपस्थित हो उस पर अपना प्रेम अभिव्यक्त करताहै। तापस बाला शकुन्तला भी उसके सौन्दय पर मुग्ध होकर अपनी विलास चेष्टाओं के द्वारा अपना प्रेम प्रकट करती है "किमि जन प्रेक्ष्य तपोवनविरोधिनो विकारस्य गमनीया, स्मि सवृत्ता" राजा उसके भावो मे यह समझ लेता है कि "यथा तथैवेय मध्यस्मासु अनुरक्ता अतएव यह स्पष्ट करता है 'याच न मिश्रयति यद्यपि मदव चोभि" तृतीया मे विरहादुर राजा शकुन्तला को खोजता जब लतामण्डप मे उसकी विरहवरा दयनीय दशा को देखता है और काम पत्र के द्वारा जब उसे उसके प्रेम का पूर्णसुशिष्य परिदत्तेव विद्याशोचनीयासिसवृत्ता" शकुन्तला पल्लवित अति मुक्त लता है तो दुष्यन्त उपभोगक्षम सहकार है एक महानदी है तो दूसरा सागर, एक कुमुदवती है या दूसरा शा विरहपरिस्तान शकुन्तला के बग आशुवलात विषमगसुरभि है। उसका अक्षर परिक्षत कोमल नवकुसुम तुल्या है जिसका रस पान करने को अमर दुष्यत लालायित है। चवा वधू को अपने सहबर से विमुक्त करने के लिये उपस्थित गौतमी रजनी का प्रयोग कितना स्वाभाविक असमानुकूल एवं वातावरण के अनुकूल है। उपमालकार के ऐसे ही अनेक उदाहरण उनकी शाकुन्तल जादि सभी रप- नाओ मे उपलब्ध होते है जो कि उनकी उपमा के क्षेत्र में उन्हे सष्ठ कवि प्रमा गित करते हैं।इस प्रकार यद्यपि उपमा कालिदासस्य" यह कथन सवया उचित है तथापि उपमा का प्रयोग ही कालिदास की सष्ठता का सूचक नहीं हो सकता। वस्तुत अकारवादी नही है अपितु रससिद्ध कवि है, उनकी प्रतिभासवतोमुखी है। उनकी सविधान कुशलता, रस. मोजना, भावाभिव्यञ्जना वन्यात्मक एवं प्रासादिक शैली भी अद्वितीय है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि कालिदास ने उपमालवार से बढकर अर्थान्तरन्यास का प्रयोग किया है

सुशिष्यपरिवत्तेव"उपमा कालिदासस्य गोत्कृष्टेति मत मम ।

अर्थान्तरस्य विन्यासे कालिदासो विशिष्यते ॥

इतना ही नहीं मेषदूत मे कवि न उत्प्रेक्षालकार का इतना सुंदर प्रयोग किया है कि उसका साम्य अन्यत्र दुर्लभ है। शकुन्तला ने अप्रस्तुत प्रसारकार का भी ऐसा सुन्दर प्रयोग देखने को मिलता है। अत यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि कवि ने जिस किसी भी अलकार का प्रयोग किया है वह अद्वितीय है। व्रत किसी माथ प्रशसक कवि की यह उक्ति"उपमा कालिदासस्य भारवेरथ गौरवम् । दग्दिन पदलालिस्य माधे सन्ति व्रयो गुणा ॥

समर्थन प्रतीत नहीं होती, वस्तुत "उपमा कालिदासस्य" में प्रयुक्त उपमा से सभी सादृश्य बलकारो का अथ ग्रहण करना चाहिये क्योकि उनकी रचनाओ मे सभी सादृश्य गुलक अलकारी का उत्तमोत्तम प्रयोग हुआ है। अलिखित सादृश्य मुलक अलकारों के उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो

"अनाघ्रात पुष्पम" इत्यादि श्योक मे शकुरतना के कानम रूप के बा मे कालकार का सुदर प्रयोग है यहा अनेक रूप को एक साथ योजना करके पदिने कुता के सोदय की कामलता अग्नानता एवं मादवता की ओर सकेन किया है। "गरसेव पुन प्रतिनिवृत्त" कृत इस मुग्वविनकितोपदेश नियम्यत इवात्मा वरेषु" 'मुल्य त्यधूणीच लता" इत्यादि उत्प्रेक्षा दर उदाहरण है। मेघदूत तो कर ही है।हो जाता है तब वह वहा उपस्थित होकर उसे गाव विवाह को प्रेरित करता है, स्वीकृति मिलने पर वह उसकी सखियों के समक्ष अपने अनन्य प्रेम और पत्नी रूप मे शकुन्तला की प्रतिष्ठा का freeास दिलाता है "इदमन परायणमन्दा कुलस्य न" सखियों के चले जाने पर वह प्रेमाधि उसक पाद वाहन के लिए उद्यत हो जाता है "समायामि चरणात पचता" और फिर अपति कोमल उसके अधर पान का प्रयास करता है। इस प्रकार तृतीय बक तक सम्भोग शृङ्गार अक्षुण्ण रूप से चलता रहता है, और बीच मे क्या प्रवाह में आने बाल भया नक वीर, हास्य विप्रलम्भ आदि रस इसी अभी रस की पुष्टि करते रहते है। सप्तमान् ने दोनों के मिलन के अवसर पर पुन यही सम्भोग शृङ्गारभक्त होता है जहाँ राजा उसे देखकर "बसने परिसरे साना नियमामुखी क वैणि "छेद प्रकट करता हुआ उसके पैरो पर गिरकर क्षमा याचना करता है सुतनु हृदयात् प्रत्यादेशव्यलीकमतु ते" और दोनों के मिलन को चन्द्र-रोहिणी का मिलन बतलाता है "उपरागान्ते समुपगता रोहिणी योगम्" ।

विप्रलम्भ गार जैसाकि पहले बताया जा चुका है कि शाकुन्तल मे सम्भोग की अपेक्षा विप्रलम्भ का अधिक विस्तार से चित्रण किया गया है और सम्भोग शृङ्गार की सम्पुष्टि की गई है, अतएव यह ठीक ही कहा गया है कि "न बिना विप्रलम्भन सम्भोग पुष्टिमति"। यही कारण है कि शृद्ध र प्रधान काव्यों में विप्रलम्भ वा विस्तृत वर्णन मिलता है। फलता के द्वितीय तृतीय के प्रारम्भ और अन्त में तथा पूरे अमेनिका ही मुख्य सेवन किया गया है तथा बीच-बीच मे अन्य रसो द्वारा उसकी पुष्टि की गई है। द्वितीया मे ि दुष्यन्त शकुना की प्राप्तिको मुलधन मानकर वेद प्ररता है काम प्रिया न सुलभा" फिर भी वह उसकी चेष्टाओं का स्मरण कर कामी व्यक्ति के तुम उ है अपने लिए हो मान कर सन्ताप कर लेता है स्निग्ध तमभ्यतो पिनयने यत्प्रेष ययातथा" बहु उसके अलौकिक को दय पर उसे की अनुपम कृति ही मानता है और उसे पत्नी बनाने के लिये व्याकुलाता है। "चित्रे निवेश्य परिकल्पितसत्ययोगा" "अनाधात पृप विसलयमधून कर न जाने भोक्तार कमिह समुपस्यास्यति विधि" और उसके भावो को विदूषक के सामने इन शब्दो मे व्यक्त करता है "अभिमतमीक्षण, इसिसम पनि दयम् नविता मनः स द रेण चरण दात इत्यण्ड सी स्थितावदेव प्रदान गरया" इत्यादि ।

तृतीया मे प्रथम राजा को काम ] अवस्था का चित्रण है, जहा वह अकुतला की प्राप्ति के लिए अनेक उपाय सोचता है पर कुछ कर सकने में अपने को असमय पाकर दुखी होता है—जाने तपसो वीय सा याला परवतीति मे विदितम्"। इस काम पीडित अवस्था से उसे दिन में भी चन्द्रमा दिखलाई पडता है जो अपनीहिममयी किरणों से अग्नि वर्षा करता हुआ प्रतीत होता है और कुकुमायुध भी उसके

लिए बजाय बन गया है। "तब कुसुमगर भीतरमित्यमिन्दा" इतना ही नहीं

वह शता के वियोग मे जागते रहने और रोते रहने के कारण अतिकुल भी हो

गया है अतएव उसका स्वणवलय डोसा होकर नीचे की ओर खिसकने लगा है। "इब

शिशिरस्तपाद"। इधर शकुन्तला भी राजा के विरह में अत्यधिक पीडित है। उसको सखियाँ विरहताप शमनाथ उस पर उराले कर और उसे पुष्पवाय्या पर लिटा कर उस पर नलिनी पत्रव्यवनों से हवा कर रही हैं और धीरे-धीरे उससे उसकी मनोव्यधा का कारण पूछती है क्रियात्मनामुपेनसे अनुदिवस अनु परिहीयसे । केवल सावव्यमयी छाया त्वा न मुम्पति । " स्तनन्यस्तशीर शिथिलित मृणालंक- चलयम्" क्षामक्षामकपोलमा ननर काठिन्यमुक्तस्तनम" सखियों के आग्रह करने पर वह कहती है "यत प्रभृति नमः दमनपथमागतः स राजर्षि तत आरभ्य ततेा मिलाप तदवस्थाम्मिसदृता । तद्यदि वामनुमत तदा तथा यथा यथा तस्य राजप रम्पती भवामि अन्यथा सिमित मे तिलोदकम् सखिया उसकी अभिलाषा का अनुमोदन कर उससे कामes freने का आग्रह करती है। राजा कामपत्र के विषय बन जाने हृदयम्" को सुनकर उस अवधीरणाभी हृदया शकुवना को उद्देश्य कर बढ़ता है "अय स ते तिष्ठति सगमोत्सुको विशद कसे मी यताऽवधीरणाम्' और फिर तपति तनुगाति मदन कहता हुआ उसके समीप पहुंच जाता है। गान्धय विवाहोपरान्त शकुखला के चले जाने पर यह पुनः खिन होकर कहता है "अहो विष्वत्य खलु प्रातिपद्धि" ।

षष्ठा में अंगूठी के मिलने पर कुता का स्मरण कर वह पुन पश्चात्ताप- ग्रस्त हो जाता है उसकी इसी अवस्था का वर्णन चुकी करता है "रम्य इष्टि यथा पुरा" प्रजागरण से उसकी आखे प्रताम्र हो गई है "प्रत्यादिष्ट विशेषमण्डन- विधि" इसी विरहावस्थावण उसने यस तोत्सव रोक दिया है पर वसन्त तो आ ही गया है, अत मञ्जरी को देखकर उसका दुख और उद्दीप्त हो उठता है और वह विदूषक से कहता है "मुनिमुताप्रणय प्रतिरोधिना" शकुन्तला के निराकरण की घटना का स्मरण कर "इत प्रत्यादेशात्" वह अधीर हो उठता है और किद्वारा जाश्वस्त किये जाने पर भी "स्वप्नो नु मायानुमतिश्रमनु" कहकर वह स्याकुल हो उठता है। जब वहशत की प्रतिकृति देखकर कुछ शाति प्राप्त करना चाहता है तभी उसकी आँखो मे आसू आ जाते है और वह चित्रगत को शत्रु तला को न देख सकने के कारण बहुत दुखी होता है 'प्रजागराद खिलीभूतः तस्या स्वप्नेऽपि सम" यद्यपि वह मातला प्रतिकृति में उसकी प्रिय वस्तुओं का समावेश करना चाहता है- 'काया तीनमिथुना" "कृत न रणधिन सवे पर ऐसा करने में भी अपन को अपाकर वह अति व्यास होकर विदूषक से बहता है- "सबै प्रायस्व माम ।कुल के अमर के प्रति यहाँ राजा का कथन उसकी विरजन्य उन्मादा- स्था का ही है, इसी प्रकार अंगूठी के प्रति उसका उपालम्भ भी विरो माय काही सूचक है। इसी बीच का वृत्तान्त जानकर और अपने को सन्तानहीन देखकर वह पूछित हो जाता है। इसी प्रकार कवि ने इस अंक मे राजा के का चित्रोपन वणन करते हुए लम्भारको पूर्ण की है।

इसके अतिरिक्त नाटक मे एक दो लो पर करण सि भो देखने को मिलता है, तृतीयान्ता की इस उक्ति मे सिमित मे तिसोधकम्" तथा पञ्च न मे जाँ दुष्यन्ता से निराकृत होकर रोती हुई शकुन्तला "सादिती स्वाभिमान प्रवृत्ता" पुरोहित के पीछे जाती हुई कहती है 'भगवति बसु देहि मे।"

चतुविदाई के असम को कई विद्वानों ने करुण रस का उदाहरण माना है औरख्य करण की हो अभिव्यक्ति स्वीकार की है। उनकी इस मान्यता का कारण सम्भवत महाकविभूति की "एको र करुण एवं निभिसमेदाद् fag6u भितानु" पह उक्ति की हो, उन्होंने इसको भी कह ही मान लिया है यदि ऐसा ही माना जाय तो इसे करण कह ही सकेंगे, पर सामान्यत इसे करुण रस का उदाहरण नहीं माना जा सकता, क्योकि इसे करुण रस मानने में शास्त्रीय दृष्टि से विरोध होगा। करण रस का स्थायी भाव शोक होता है जो कि यहाँ कहीं भी नहीं देखा जाता। शकुन्तला को पतिगृह जा रही है, उसके लिए प्रस्थान कौतुक मनाया जा रहा है, उसका समालम्भन करार प्राध किया जा रहा है, सभी उसे समय बहुमता होने का आशीर्वाद दे रहे है जब वह चलते समय रोती है तो उससे कहा जा रहा है न त उचित मा रोदिम" स्वयं महर्षि क कारयति पद पुनराश्रमेऽस्मिन् अत मेरी दृष्टि से यह गोक के अभाव मे करण मानना उचित नहीं है, यहाँ विप्रलम्भ मानना ही प्रानुकूल है।

विकास विप्रलम्भ  अस्यता और अनुपम है और उनकी प्रतिभा का उत्कृष्ट निर्देशन है। सामान्यवारय विमाता- पिता का ही अपनी सन्तान के प्रति वित्त का द्रवीभाव दिलाया जाता है पर यहाँ सोना और सीजन ही सित होते है, अपितु सम्पूर्ण प्रकृति ही पशु पक्षी नामादि भी कुत्ता की विदाई के समय प्रति हो उठे हैं सखियो के लिए तो "विहरत" कहना स्वाभाविक था पर कवि ने तो को भी बासू बहाते दिखाया है। सम्पूर्ण तपोवन शकुन्तला से अतिशय तादाय

मूलक अनुराग के कारण वियोगजन्य अनुभव करने लगा है। माता की विदाई के समय महर्षि कण्व उतने ही दुबी है जितना कि एक गृहस्य अपनी कन्या के प्रथम वियोग के समय होता है यद्यपि निष्काम बनवज्ञानी तपस्वी है और कन्या भी जोर नहीं पालिया पुत्री है, तथापि यह सोचक "पाप" उनका हृदय कण्ठा से भर गया है, ने गये है कष्ठगगद हो गया है, शक्ति क्षीण हो गई है। इसी उरित वाणी मे तपोवन को सम्बोधित करते प्रथम व्यवस्यति जल युमास्व या ययाति शकुन्ना पतिगृहात "क्ष भी उसे के गारप्रसाधन को सामग्री भेंटकर कोकितर के द्वारा इस गलकामना करते हैं। विदा होते समय तो कर ही पर उसके विरह से सम्पूर्ण तपोवन ही चित हो उठा है न केवल सप स्वयोपस्थित वियोगस्य तपोवनस्यापि सायद समवस्था रश्यते ।" मृगियो ने अथ पति कुशास दिये है, मयूरो ने नाचना बन्द कर दिया है और लतायें पान्दुपत गिराने के arrr से मानो व बहा रही है "उद्गतिकता मृग्य परित्यक्तान मयूरा पापा बीलता "चलते समय कुन्तला अपनी प्रियमता वनज्योत्स्ना से विदा लेती है और उसे लगी हुई कहती है "वन ज्योततापि या प्रत्यानि शाखाबातुभ प्रभृति दूरवर्तिनी ते धनु भविष्यामि। फिर उसे नहीं होता तब वह अपनी सखियों से कहती है" एषा हस्ते निक्षेप सुनकर सबिया उत्तर देती है 'अय जनकस्य हस्ते समर्पित इति वा विहरत " तब स्वयमहरू अपने अथ प्रवाह को रोककर कहते हैं, "बनसूये अस दिल्या, ननु भवतीभ्यामेव स्थिरीकरणमा शकुन्तला ।" इसी बीच एक मृगयोतक उसके पत्ते को पकड़ कर सीने बगता है। और इस प्रकार से जाने से रोकना है "को तुखत्वमेत घूमकर से प्यार और हुई कहती है कि सहपरि यामास त्या तातयति विस्वास्थिता"। रोती हुई सी से की है दो प्यापद दुखेन में परणी पुरत अपने वासुका पर उसके नमो मे भर जाते है जिससे वह गाय माग को अच्छी देख नही पानी उसको इस दयनीय स्थिति को देखकर मकते है नयनयो" पिता टिकर कहता है की परिभ्र मन्दिर देखा तरे वीवित धारमध्ये होती है "हा मामेव परिष्वजेषा" पिता को मिलकर वह कहती है पीडित तन्मातिमाच मम कृत इस पर महोप दीप वासलेकर कवल इतना ही कपात म सेवा रचितम् उदारविवीवालि । चतुथ अफ वा यह वात्सल्यविकामा क्षेत्र में अनुपम है तएव चतु इस नाटक

आप समझा जाता है। हास्य रस- अभिज्ञानशाकुन्तल में शिष्ट एवं परिष्कृत हास्य की भी सुदर योजना हास्यसका मुख्य को ही है दूषक राजा केमृगया व्यापार से बहुत सान्त हो गया है उसे अच्छा याना मिलता है न पीन कुछ मनोरञ्जनका साधन है और विश्राम का होने के पीछे दौड़ते दौड़ते उनका शरीर बिल पर गया है, रात को भी आराम से सो नहीं पाता। इतना ही नहीं तब सदस्योपरि पिटक सत" क्योंकि मेरे ही दुर्भाग्यवश राजा को शाद लाई पहई है अत अब वह राजधानी को लौटने का नाम भी नही लेता - कामकुतला समान्यतया दर्शिता, साम्प्रत नगरगमनाय पिन करोति" तब यह एक उपाय सोचता हैकल एव मूल्या स्वास्यामि" इति मलय स्थित " राजा के मह पूछने पर सुतोऽयमापात "वह तुरन्त उत्तर देता है कुल किन स्वपक्ष्याला कारण पृच्छसि" नितु जब राजा कहता है कि मैं तुम्हारा नही समझा, साफ कहो, क्या बात है ? तब पुन मह और एक पहेली सुना देता है-"तसलीम्बयति तत्किमात्मन प्रभावेणु मनुस्य राजा इतनी बात कहकर फिर शकुन्तला के विषय में सोचने है तब विदूषक उसकी ओर देखकर कहता है बाद म यते । भारतमासीत् अस्तु राजा से छुट्टी पाकर जब वह जाने लगता है तब राजा कहता है। 'विधा न भवता ममाप्येकमणि सत्येन मिं सम्पम" विदूषक राजा का अभिप्राय तो समझ गया था किन्तु वह उसे तुरत उत्तर देता है "हम तेन गुगुहीत क्षम" क्या लड्डू खाने से आपकी सहायता करूं तब तो यह निम अप सहर्ष स्वीकार है जब सेनापति राजा से पुन शिकार खेलने का प्रस्ताव करता है तब वह कहता है जा तू शिकार, तुझे कोई वृदा छखा जायेगा राजा शिकार नहीं खेलेंगे "अप भवान् प्रतिमारन वयमानो नरनासिकलोपस्य जीवस्य कस्यापि मुखे पतिष्यसि ।" जब राजा उससे कुचला की प्रसा करता है तब वह कहता है, कि यह इच्छा तो ऐसी ही है जैसी कि किसी पिण्डव रखा-खाकर के हु की इच्छा खट्टो इमलो खाने की होती है "यमा कस्यापि तस्य विन्ति प्याभिलाषो भवेद" जब विधक राजा से पूछता है किसका दृष्टिराग उस पर कैसा है तब राजा विस्तारपूर्वक उसके भाव प्रदशन एवं उसकी अपने प्रति चेष्टाओ का वर्णन करता है जिसे सुनकर यह कहता है तो वह आपको देखते ही आपकी गोद मे आ बैठतीन खलु दृष्टामाजस्यता समारो 7 हृति" राजा ने सभी परिवतों को जब अपने पास से हटा दिया और अकेला रह गया, तब यह करता है अच्छा हुआ आपने सभी मखिया उटा दी "कृत भवता निमक्षि- कम्" जब राजा कहता है कि यदि तुमने दशनीय व्यक्ति को नहीं देखा वो तुम्हे ज पाने का कोई फल न मिला "अनवाप्तचक्षु फलोऽसि" ही वह तुरन्त कह देता है "मनु भवन मे बत" वह मन में सोचता है कि मैं इसे शकुन्तला की बात चलाने का बसर ही न दूँगा किन्तु जब राजा उसे यह विश्वास दिला देता है कि यह भी गुझ पर अनुरक्ता है और जय कन्या होने के नाते मेरे द्वारा विवाह योग्य भी है, तोविदूषक कहता है कि यदि ऐसा है तब तो आप उसे तुरत प्राप्त करिये कही ऐसा न हो कि यह किसी चिनी खोपीमा तपस्वी के हाथ पद जाय न हि परि तामेा भवान् मा कस्यापिचिनस्य हस्ते पतिष्यति" । राज के को सुनकर वह कहता है कि मुझे ऐसा लगता है कि आपने इस तपोवन को भी प्रमोद उद्यान बना डाला है "कुल वयोपन तपोवन मिति पर- यामि।" राजा जय की प्रथा पर रोवन मे राक्षसों के वध के लिए जाने ताविक के कहता है कि क्या तुम प्राकुन्तला को देखना चाहते ही तो कहता है कि पहले वो मेरी समुद्र के समान ही इच्छा थी, पर अब तो राक्षस वृतान्त से उनमें से एक बूंद भी नहीं रह गई है। "प्रथम परीवानासीद इदानीन्तेन विदुरनिवसेवित" जब राजा उससे पूछता है कि तो माता जी ने बुलाया है और उधर कृषियों ने आपस मे बुलाया है अब मैं क्या करूँ कि ?वक कहता है कि जब तुम विराट की तरह बीच मे हो के रहो " कुरातराने तिष्ठ ।"

कुला की मानसिक एवं शारीरिक चेष्टा का मन कर उसका अपने प्रति अनुराग एवं अपना भी उसके प्रति अनुराग पिक के सामने प्रकट कर देता है तथापि यह अन्त मे बड़े कौशल से अपनी इस प्रणयाभिव्यक्ति को निरस्त भी कर देता है। वस्तु इस मक नेता की कमी है। इसे प्रथम तृतीय अको के बीच एक विष्कम्भक ही समझना चाहिये।

तृतीया मे प्रथम तो काही मला गया है पर अन्त में दोनों का मिलन कराकर भोग की चरम परिणति दिला दी गई है। परम्परा युक्त प्रेम पत्र यहा भी लिखवाया गया है पर पाने के पूर्व ही वहाँ पहुच जाता है और पत कुछ समय के लिये बन जाता है । पर कालिदास जसे कवि ने यहाँ भी दोनों में बनाये रखने के लिये रक्षा के लिए गौतम को बीच मे साकार कर दिया है जिसने दोनो भयो को अलग कर दिया है। इस अवसर पर उस मुख्या नाकको जो कि अपना जीवन तीनही पद और राजनी बना दिया है जो प्रियवदा को बात बात पर औरों से शिकायत करने थी, उसका एक गौतम के आने का संकेत पाकर वह राजा से तुरन्त विपरित हो जाने को कहती है और सालयको पुन बिहार के लिये मत कर विदा लेती है। उसका उत्तरोत्तर प्रणय अंतिमधुर र स्वाभाविक का प्रतिपा मारतो ही समाप्त हो जाता है और सामान्य गटन की समाप्ति हो जाती है।

किन्तु कालिदास के प्रेम का बाद उसे और खजाता है फयानक आगे बढ़ने लगता है। कालिदास के आदर्श प्रेम की ऐन्द्रिय कृतिमा नही है, अपितु उनके प्रेमका उद्देश्य विवाह है जिसमे अनुरागी हृदयो काम अटूट प्रेमात बान होता है और कोरम परिणति सन्तानोत्पत्ति होती है, जहाँ पक्षीग नही गम्भीर और जन्म स्थायी बन जाता है, कि उसने मध्येक सुतेन तत्तयों परस्यस्योपरि पीयत। अपने इसके लिये उसने समाप्तप्राय भी हया को है और दुर्वांना के शाप प्रसग से कथानक को दिया है यह है कि और प्रतिभा तथा कल्पनाशक्ति का निवेशन ।

अन्त भी नाटक की एक विशेषता है यही तो प्रणय इन्द्र के रूप में और कही मानसिक के रूप में व्यक्त किया जाता है। का संकेत तो में दिया गया है पर मानसिक प्रथम पहले तो के हृदय में पता है जबकि यह सोचता है कि मेरे द्वारा है कि नही पा मे जब शकुन्तला होकर राजदरबार मे पहुँचती है तो राजा सोचना है "अमर एव विभाते पार न च परियो जैक्नोमि हातुम् ।" पर यह अन्त शकुन्तला के हृदय में उस समय उठता है कि वह प्रथम मे एक ओर अपने उपस्विजनोचित सरकार मुख स्वभाव एवंकन्याजनोचित बायको और दूसरी और हृदय में उठने वाले प्रणय के तूफान के बीच मेंदोलायमान होने लगती है और प्रणयको दवाने का स प्रयास करने लगती है। ऐसी ही आन्तरिक उप उसके हृदय में काम पत्र लिखते समय भी होती है।

सौर्य एवं प्रेम चित्रण

कालिदास की दृष्टि से सौच के लिए बाह्य प्रसानो की आवश्यकता नही 'किमिय हि मधुरामा मदन नातीनाम् ।" सहज सौन्दय सभी मे सुपर मोहर लगता है अहो सर्वास्विवस्थासु रमणीयत्वमाकृतिविशेपणाम रूप की रमणीक होने में है में नहीं इस मधिकमना नापि तवी "इद किलाव्याजमनोहर पू" प्राकृतिक सौन्दय हीराको एक पुल से उपमित करता "when are an a rear धारण करने वाली प्रकृति में को माधुय माद और रमणीय है मानव सौन्दय उसी का एक है। ऐसा अि दया के लिए नहीं होता कही और सदाचार का साधन बनता हैपायति पापवृत्तरूपमभिचारित (कु० सम्म) वास्तव गुणा वसन्ति स्वभाव सुन्दर के लिए बाह्य अजकरण व्यय है। अतएव कहता है 'बाभरणस्याभरण प्रसाधनविसे प्रसाधनविशेष उपमानस्यापि सचे प्रत्युपमान वपुस्तथा ।" यही कारण है कि न केवल प्रकृति ही कोष एवं सो से सजाती है, दुष्यन्तभी से "कृत कर्णाति स प्राकृतिक प्रसाधन से ही सजाना चाहता है और वह प्रकृति कल्यास्वत भी तो "अनाare you feeन कर ही है तथा areer सोती है ऐसी अकृत्रिम सौन्दर्यशालिनी रमणी वस्तु केवल रमण हो की वस्तु नहीं है व गृहणी fee fr सन्ति कलादि है। अतएव महर्षि कण इसे सुगृहिणी बनने का उपदेश देते है [श्रूपवर स्त्री का वास्तविक सोय सच्चरिता है। अतएव भगवती पार्वती "समता समाधिमास्थाय तपोभिरात्मन "स्पीकि प्रिपे सोफ्ता हि पाता ।" स्त्री सौन्दय मे जाशीलता आदि गुणों का होना अनिवाय है, अतएवाचन मिति अभिमुखे निक्षणम्" आदि गुण कुतता मे देखे जाते है जहाँ स्त्री सौन्दय में सुकोमलता आदि गुण आवश्यक है वह पुरुष सौन्दयता पुष्टता व्यायामशीलता आदि गुण हैं अतएव दुष्यन्त मे अवधनकरपूर्वम् आदि गुण देखे जाते हैं। मानव सोयही नहीं कवि ने पशु पक्षियों और वृक्षादिको से भी सौन्दर्य देखा है श्रीराम तेषु रश्मिषु निरायत पूर्वकाया तीराधातग्रहित इत्यादि इस विशन है।

कवि के प्रेम कारण उनकोटि का है। चञ्चल ऐन्द्रिय प्रेम पर उनकी आस्था नहीं। शारीरिक सौम्य ही fast का परम गौरव एवं चरम सौन्दर्य नहीं और न वह प्रेम का कारण ही है। यदि वह ऐसा होता तो भगवती पावती को पोर तप नहीं करना पडता सच्चा प्रेम स्थान और तप से ही किया जा सकता है अवाप्यते वा कन्या द्वय तथाविध प्रेम पतिश्व तारा" कुम । कर्तव्य की उपेक्षा कर भी व्यक्ति कामवस हो जाता है वह दण्डनीय है। कामका विरोधी नहीं और जहा वह ऐसा बन जाता है वहा वह कर दिया जाता है की उपेक्षा की भी कवि से तमेव पूरा होने पर ही उसे दिया इस प्रकार कवि ने काम को अपेक्षाको प्रवास दिया और प्रेम का मूलभूत कारण, शारीरिक और पूर्व वाम के संस्कार को माना है "भावस्थिराणि अनन्त "महज मान्तर सतिशन" रघु कवि की कि ऐसे उदात्त प्रेमको इतिश्री मे नहीं होती 'सती सनदेति भवरेष्वाप" "यथा मे जनतऽपि त्वमेव प्रयोग" यह कालिदास का प्रेम उनकी सभी नामिका इस प्रेम का सम्बल लेकर आ सकी हैं।

दुष्यन्त और शत्रुता का प्रथम प्रेम बाह्य सौदय पर था उसमे विषयवासना का आधिक्य मा मत नह सफल नहीं हो सका। पर दोनो प्रेमियों ने उसे विरहाग्नि को पश्चातापात में तथा कर बरा बना लिया तब वह सफल हुआ। इसीलिये सप्तमाह ने दुष्यन्न अपने द्वारा प्रत्यया नियमामुखी परिसरे बनी को प्रेम की साक्षात् मू के रूप मे देखता है और उसके पैरो पर गिरकर कमा याचना करना है। कालिदास का प्रेम, वृत्तिका समय नहीं कवि अनियन्त्रित प्रेम को प्रेम नहीं मानता। वह प्रेम जिसमे कोई बना हो, कोई नियम हो त्याग हो मर्यादाका पालन न हो। जो प्रेम अकस्मात् नर नारी को एक दूसरे पर मुग्ध करके सम रहित बना देता है, यह अक्ति ही होनही हो सकता। दास ने प्रेम की परिणति दाम्पत्य प्रेम मे और नोति में मानी है अमर वृत्ति में नहीं। यही कारण है कि जो लिये पहले केवल अशात पुष्प थी, वही कुष्ठा बनी और सप्तमात में ही की प्रतिमा बनी। यन्त के शब्दों में ही वह दाम के भाग की कराता हुआ अपना मन्तब्य प्रकट करता है 'गुदा दाम्पत्य प्रेम प्रेम है परस्ती सम्पक सदा है है उनको कृति प्रेम का यही [आम] [रूप] सवत देवा शता है।

प्रकृति चित्रण

भाषा की सरलता सरसता और मनोरमता के उदाहरणार्थ शाकुन्तल के येउदाहरण दृष्टव्य — “मनोरथाय नमसे" "तत्यान्यानम् मच्छति पुर शरीरम" "स्तिग्ध पीक्षित यस्य त्वाम्" सरगमवित्यादि ।

"अस्मान भाषा में सक्षेप और वन्यात्मकता कालिदास की निजी विशेषता है- उनकी शकुन्तला केवल एक छोटे से कसे हो अपने को अभिव्यक्त कर देती है तब न जाने हृदयम्"। दो हृदय के मिलन को इस केवल दो लोकों में दी है अपरित् कोमलस्य कि शीतले प्रका केवल एक श्लोक में ही समाप्त कर दिया है "बिन्ती" हम पविका प्रसंग को भी केवल एक ही है "अनमोलुप भाल के लिये दिये जाने वाले उपदेश में तथा दुष्यात केस देश से भी एक एक ही श्लोक में सब कुछ अभिव्यक्त कर दिया गया है विचित्।" या अपने व्यथित हृदय को एक दो ही वाक्यों में प्रक देती है "अ जनकस्य हस्ते समर्पित "ताव नम् " इसी प्रकार शाकुन्तल में भाषा की महारत एवं व्यासव

कालिदास का भाषा पर असाधारण अधिकार है और उनकी भाषा मे अपू समाहार है किसी भाव का लम्बा-चौer] वन न कर अत्यन्त सक्षिप्त शब्दों से उस भाव की कर देते है अपने रेकी ति करता है "निर्वाण" वासवानी प्रथम दान पर वह अपना केवल इन शब्दो में करता है-"मधुरमासा दशन' इस प्रकार के अन्य वाक्य सुतमेव गिग कृतमातिष्यम्, तो पाक  सत्त" स्वागत मलिन मनोरथस्य""शयोच्छेदि वचनम्" इत्यादि ।

देखी जा सकती है।

शैली कालिदास की वन शैली भी असाधारण उप प्रासादिकता ओविता एवं मधुरता के साथ साथ ध्वन्यात्मकता एवं कुशलता देखी जाती है। प्रसाद के लिये हृदयसम लाम्" जाने तपसो वीयम" जय तिष्ठति" नत्र प परोक्षमा गया यहि कन्या भवन्ति नचास्वरव" सदेवा भवता के लिये लोक देखे जा सकते है

काम्या "सरसमम्" वर किसलय कुसुम रम्" निम्नलिखित श्लोक का पाया जा पाहता महिया "अध्याकान्ता बसति यत्रम्" नियमयसि कुमाग" लीपापात" इत्यादि

कालिदास के मन कोशन के लिये इन श्लोकों को देखना चाहिये जहाँ उसने पटना विशेष या व्यक्ति विशेष का नाविस्तृत एवं नातिक्षिप्त स्वभाविक एवं चित्रोपस यणन किया है और यही शाकुन्तल के सर्वोत्तम स्थल भी है—

१–७, १०, १२, १-१४, २१४, २१४ ३६ १. ३-१०.३१-२३, ४६४, ६-४, ६-६, ६-२, ६-१२ ७-१० १२. २७ २१ दिमाया की भी वृद्धि करने एवं उसमे चमत्कृति लाने मे कारो का महत्व- पूरा स्थान है। पचपि कालिदास बसतारवादी नहीं है कि कोन है ताि कामे जो मी उमेद प्रयोग हुआ है। इन सकारों के प्रयाग म यही नहीं और न कारों की भरमार ही है। इन कारों के प्रयाग के पुस्तक का लिवास की जलकर मोनाकोनाचाहिये।

वाद-शान के सायों में सक्षिप्तता के साथ-साथ रोमकता भी है। उदाहरणाम प्रथमा का राजा और सखियों का बार्तालाप, द्वितीया का रामा और विपक का पताका मला के साथ उनकी सखियों का ता राजा का वार्तालाप देखा जा सकता है चतुय अक मे क तथा सखियों का ही  सक्षिप्त एवं रोचक है। इसी प्रकार ना ने राजा और काबरा, पष्ठ में राजा और विक का साद भी रोचक है। सभी पात्र बने-अपने स्वभाव एवं वातावरण के अनुकूल करते हैं। इन स्वाभाविकता भी है सवाद पद्यपि छोटे-छोटे है तथापि इनमें बड़े ही चुस्त वाक्यों का प्रयोग हुआ है।

चित्रास की नाटय लता रिमेदेखी जाती है कवि का परिचय है, यह दवा सजीव एव स्वाभाव है पर चरित्रके समय यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि कवि का उद्देश्य परिनहीना है। यही कारण है कि इनके पानी मे नाटकीयता धोरण एवं पात्रों की मनोज्ञानिक दगा का चित्रण इसमें उतनी विसता से नहीं मिलता जितना कि अन्य चरित्र प्रधान नाटको मे अवा घटना प्रधान नाटकों ने देखा जाता है। उनके सभी पात्र इस लोक के हो पाप है और उनका यहाँ यथाय स्वाभाविक है। यह दूसरी बात है कि कवि ने अपने बाद मेम को मर्यादा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए पाव बनाने के लिये चाय के मृत्युको स्वर्ग से जोड़ दिया हो नाटक के पुरुष पात्रो मे विषक एवं रव तथा सभी पात्रो मे उता अनसूया एव विदा मुख्य है। इसके अतिरिक्त कथानक के विकास के लिये कवि ने सानुमती सेनापति की प्रतीहारी बीवर दुर्वासा नादि दो पानी की सृष्टि की है।

इस प्रकार अभिज्ञान शान्त नाटक मे कवि का नाम कोबल सा धारण है।

महाकविकालिवासप्रणीतम्
अभिज्ञानशाकुन्तलम्
प्रथमोऽङ्कः
यया या सृष्टि अष्टुराद्या वहति विधिहुत या हविर्या च होत्री, ये काल विधत्त श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।

यामाह सर्वबीजप्रकतिरिति प्राणिन प्राणवन्त प्रत्यक्षाभि प्रपन्नस्तनुभिरवते वस्तभिरष्टभिरो ॥१॥
मेति अन्यय-या खष्टु बाया सृष्टि या विधित विवहति या च होत्री ये काल विधत, भूतिविषयगुणा या विश्व व्याप्य स्थिता, या सर्वबीजप्रकृति इति बाहु यथा प्राणिन प्राणवन्त ठामि प्रत्यक्षामि अष्टासि तनुभि प्रपन्न ईस व जयतु ।।
शब्दार्थ या खष्ट माया सृष्टिको सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की सर्वप्रथम सृष्टि है भगवान शिव की जलमयी मूर्ति या विधिहृतम्] हविवहतिजो निधि पूर्वक हवन की गई सामप्रियो को देवताओं के पास पहुँचाती है बर्बाद भगवान शिव की अग्निमयी मूर्ति या होगी और जो कि  (ई) अर्थात् भगवान् विमजमान स्वरूपा मूर्ति ये काल वित्त जो दो मूर्तियाँ समय का विधान करती हैं अर्थात् भगवान शिव को सूर्य चन्द्ररूपिणी दो मूर्तियाँ, श्रुतिविधगुणायण यता, 1 [य] इन्द्रिय ग्राह्य शब्द रूप गुण की यता, या विश्व व्याप्य स्थिता जो समस्त विश्व को व्याप्त करके स्थित है अर्थात् भगवान् शिव कपनी नित्य स्वरूपा मूर्ति, याम सवबीजप्रकृति इति  सम्पूर्ण अन्नादि बीजो की उत्पत्ति स्थान कहते हैं अर्था शिव की क्षितिमयी मूर्ति, यया प्राणिन प्राणनन्त जिसके द्वारा प्राणी (चेतन जगत्) जीवन धारण कर मध्यवान बनते है अर्थात् भगवान् शिव की वायुरूप मूर्ति, ताभि प्रत्यक्षामि अष्टम तनुभि इन (उपर्युक्त प्रत्यक्षत रम्यमान अष्ट मूर्तियों से प्रपत्र समन्वित ईशक्तिमान् भगवान् शिव व आप सब सभ्य सामाजिक की रक्षा करें। अर्थात् जलरूप, अग्निरूप, यजमान रूप, सूर्यरूप चन्द्ररूप, आकाशरूप, पृथिवीरूप एवं वायुरूप अष्टमूर्तियो अथवा स्वरूप से विशिष्ट अष्टमूर्ति भगवान् शिव सभासदों एवं नटादिको की रक्षा करें।

प्रथमोऽ
अनुवाद भगवान् शिव की प्रथम सृष्टिभूत जलमयी मूर्ति विधिपूर्वक हुत हवनीय पदार्थों को देवताओ के पास ले जाने वाली अग्निरूपा मूर्ति, यजमान रूपा मूर्ति काल का विधान करने वाली सूर्यचन्द्र रूपिणी दो मूर्तियों, आकाशमयी मूर्ति, शितिरूपा मूर्ति, एवं वायुरूपा मूर्ति इन उपयुक्त प्रत्यक्ष दृष्ट अष्टमूर्तियो से विशिष्ट अष्टमूर्ति भगवान् शिव ( नाटक दर्शनार्थ समुपस्थित) सभ्य सामाजिक एवं नटादिको का कल्याण करें।
भावार्थ महाकवि कालिदास प्रस्तुत प्रलोक द्वारा निमिमित्सित अभिज्ञान शाकुन्तल नामक नाटक की शिष्टाचारानुरोध से निविघ्न परिसमाप्ति की कामना से परमेश्वर नामसकीन रूप आशीवेचनसयुक्त नान्दी अर्थात् मह गलाचरण प्रस्तुत करते हुये कहते है कि भगवान् शिव की जो प्रसिद्ध एव दृश्यमान जलादि अष्टमूर्तियाँ हैं जिससे कि ये अष्टमूर्ति कहे जाते हैं। इन अपनी जल, अग्नि, यजमान, सूर्य, चन्द्र, रूप मूर्तियों से विशिष्ट होकर आप सभी सभासदो का कल्याण करें।
विशेष प्रस्तुत श्लोक के "प्राणिन प्राणवन्त " मे यद्यपि पुनकता प्रतीति होती है तथापि "प्राणी तु चेतनो जन्मी जन्तु ज शरीरिण इस कोश वचन के अनुसार प्राणिपद से शरीरी अब ग्रहण करने से तथा मित्राकार शब्दगत होने से यहाँ पुनरुक्ति न होकर पुनरक्तवदाभास बलकार है। जैसा कि साहित्य वपण में कहा है-
आपाततो पदस्य पौनरुतयावभासनम्। पुनरुक्तवदाभास स मिधाकारमन्दन ।
स्रष्टु सृष्टि वहति हृतम्, प्राणी प्राणेत्यादि मे छेकानुप्रास नृत्यनुप्रास आदि जलकार हैं। श्लोक में प्रयुक्त सर्वत्र 'या' इस स्त्रीलिङ्ग निर्देश से तथा तनुभि का अथ कृशाभि ग्रहण करने से समासोक्ति अलकार द्वारा अष्टनायिकायुक्त नामक व्यवहार समारोपण द्वार शृङ्गाररस व्यज्जित होता है, इसी प्रकार पृथिवी नादि साधारण शब्दों का प्रयोग न कर या सृष्टिः स्रष्टुराधा आदि कथन से अतिशयित्व ध्वनिस होता है अतएव परिकरालकार भी व्यज्जित होता है। 'श्रुतिविषयगुणा' मे वितथरव- गुणा पाठ मानकर क्लिष्टत्व दोष का भी धारण किया जा सकता है।
इस श्लोक मे सन्धरा नामक छन्द है जिसका लक्षण "अम्र्याना त्रयेण त्रिमुनि- पतियुता धरा कीर्तिर्तयम्" है, अर्थात् जिस छन्द के चारों चरणो मे क्रमश मगण, रगण, धरण, नगण और तीन गण इस कम से २१ अक्षर हो, बौर सात-सात वर्णों पर यति हो यह सारा नामक छन्द होता है। यथा-
मयण यगण मगण रगण वगण 555 5 | 5 5 | | | | | |55 | 55 सृष्टि राव इति विधि मा हविर्या च होगी।

प्रथमोऽ
सप्तगणात्मक इस छन्द के प्रयोग से कवि ने अपने सात सत्मिक नाटक की भी सूचना दी है, तथा सवप्रथम मगन का प्रयोग कर इस श्लोक के लोक अथवा नान्दी होने की भी सूचना दी है, जैसा कि कहा गया है "म सर्व ले नगणो भूमिदैवत ।"
महाकवि कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं, (प्रस्तुत श्लोक से भी वैद रीति है, जैसाकि आचार्य वामन ने वैदर्भी रीति का लक्षण लिखा है--
अस्पृष्टा दोषमाणाभि समग्रगुणगुम्फिता । विपञ्चीस्वरसौभाग्या वैदर्भी रीति रिव्यते ॥
सस्कृत व्याख्या या तनुं मूर्ति स्रष्टु निर्माण वेधण आद्या प्रथमा, सृष्टि रचना करणा सर्वप्रथम विरचिता जलमयी मूर्ति (सटा प्रजापति वेध इत्यमर) ब्रह्मणा सवप्रथम जलमेव सृष्टम् यथोक्त मनुना "अप एवं सजा व मवासृजत्" या मूर्ति, विषितम् = श्रुतिस्मृतिविहित विधानेन दत्तम् तम् इवनीयद्रव्यजात पुतादिकम् वहति देवान् प्रापयति, तदेवोदेशेनानी प्रक्षिप्त वनीयस्य देवान् प्रापयतीत्यय ।" तथा च श्रुति "वामितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्य वहतु प्रजानन् मला हि देवा [इति अन्यत्रापि-
बनी प्रास्तात [सर्वा आदित्यमुपतिष्ठते ।
आदित्याज्जायते वृष्टि पृष्टेरन व प्रजा ||

मूर्ति या तनु होत्री हवन यजमानका तिरित्यर्थ येत अर्थात् चन्द्ररूपेतन् । काम् अहोरात्रम् मासतुवर्षाविक या विश्वास कुरुत या मूर्ति ते योगस्य विषय शब्द गुण [पस्या सा- शब्दगुणैत्यर्थ मामाकाशरूपा मूर्ति, विश्वम् निखिल जगत् व्याप्यव्याप्त कृत्या स्थिता बताना बस्ति भगवत शिवस्य शब्द गुणा आकाश- मी मूर्ति (आकाशस्य तु विज्ञेय शब्दो वैशेविको गुण) याममूर्तिम्, सर्वबीज- प्रकृति = सर्वविधमस्या रयोनि इति (विज्ञा) आइ वदन्ति । क्षितिरूपा भगवत मूतिरिति भाव । यया मूर्त्या प्राणिन जीवधारिण, प्राणवन्त प्राण- समायुक्ता (सन्ति) साथि पूर्वोक्ताचि प्रत्यक्षाभिदृष्टियोराधि अष्टाभि  तनुभिमूर्तिभि प्रपन्नसमन्वित विशिष्टो वा भगवान् शिव, युष्मान् सभ्य सामाजिकान् नटादिकान च भवतु रक्षतु । संस्कृत सरलार्थ पूर्वोकाभि जलादिरूपाभि aerere परिदृश्यमा- नाभि स्वकीयाभि मूर्तिथि विशिष्ट शिव युष्माक सभ्यमामाजिकाना महादीनाञ्च कल्याण विधात् ।
टिप्पणी
दोवा इत्यर्थ आदित् य टापू, सवप्रथम विधि विधिनाभूतिस्मृति

सृष्टि रचना + न् + तृच् पष्ठ्येकवचन, वाचा दवा इत्यर्थात् यत् टापू, सवप्रथम विधि इतम् विधिना श्रुतिस्मृति |

विहितेन नियमेन तदत्तम् अग्नौ निक्षिप्तम् इक होगी+ तृष् टीप् । सिविषयगुणा ते कणस्य (खु+लि) विषय शब्द गुण यस्या मा । जत आकाशा, शब्द गुणकमाकामम्। विषय वि + सि+अच् व्याप्य–वि + आ + कत्वात्पय स्थितास्था+क्+टाप् आ + प्रथम पुरुष बहुवचने "नामादित आहो प्रूव " वू आह उस समबीजप्रकृति बीजाना प्रकृति उत्पत्ति स्थानम् पृथिवीरुपेत्यय अत्र इतिना कमण उक्तत्वात् प्रकृतिरिति प्रथमा प्राणिम प्राणवन्त प्राणा सत्वेषामित्वर्थे प्राम + इति प्राचिन शरीरिण प्रणयन्त प्राशस्त्यै चागमप प्राणादिवाचन चैतन्यभाज प्राणोपान समानोदानव्यानी व वायव वायुरूपा मूर्तिरित्यय वाभि पूर्वोक्ताभि प्रत्यक्षाभ मष्टाभि तनुभि तिथि - अण प्रति इत्यव्ययीभावे प्रतिपरसमनु- वार्तिनाव समासान्तष्टच तदनु अजादिभ्य इति अच् टापि प्रत्यक्षामि । प्रचप्रपद् रदाभ्यामिति धातोदकारस्य प्रत्ययतकारस्य च नत्वम् । अष्टानि विस्यष्टतम विष्णुपुराणे सूर्यो जल मही वह्नियुराकाशमेव दीक्षितोस्मृता । प्रत्यक्षाभि पद से केवल चाक्षुष प्रत्यक्ष का ही ग्रहण नही है, वायु का स्थान प्रत्यक्ष एवं श्रोत्रियग्राह्य सन्य गुण के आश्रयभूत आकार का औपचारिक प्रत्यक्ष भी ग्रहण किया गया है।
तनुभित का अय अणु भी होता है और उससे यहाँ अणिमा शक्ति तथा बहुवचन देश से अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ भी ग्रहण की जा सकती है, भगवान्  अणिमा आदि मष्ट सिद्धियो से सदा सेवित रहते हैं—अत जलादि अष्टमूर्तियो से तथा चकारात् अणिमा आदि अष्ट सिद्धियो से प्रयत्न अर्थात् सेवित शिव व अवतु यह अर्थ भी हो सकता है। "अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा ईशित्व - मसित्व च प्राकाम्य प्राप्ति रेव च ।
प्रस्तुत नाटक का यह प्रथम श्लोक नादी लोक कहा जाता है। नान्दी शब्द के कई प्रकार के लक्षण और व्युत्पत्तियाँ देखी जाती है, इसी प्रकार इसकी कई विशेषतायें भी देखी जाती हैं। नान्दीन धातो डीप्, "पृषोदरादीनि यो पदि- ष्टानि" के अनुसार दृद्धि होकर नान्दी, अथवा नयति इति नन्द पचाचच नन्द एव नान्द प्रशादिभ्यश्चेत्यणु मादी, नन्दन्ति देवा अत्रेति नान्दी जहाँ देवता आनन्दित होते हैं, अपनी स्तुति के द्वारा जिससे देवता प्रसन्न होते हैं वह नान्दी है, नाटक की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिये सर्वप्रथम जो देवस्तुति की जाती है वह नादी कही जाती है । नाट्यप्रदीप मे इसका लक्षण है "तम्यन्ति काव्यानि कवीद्रवर्मा कुमीलया पारिषदाच सन्त । यस्मादल सज्जन सिहसी तस्मादिय सा कथिते नान्दी "आशीवचन युक्ता स्तुति पस्यात् प्रयुज्यते देवद्विजनपादीना तस्माप्रान्दीति सजिता " साहित्य दन अर्थात् देव द्विज नृप आदि की इसके द्वारा बर्गीयादयुक्त स्तुति की जाती है अत इसे ना दी कहा जाता है। नाटय शास्त्र में आशीर्वाद और नमस्कारयुक्त श्लोक को नादी कहा गया है जिसमे संकेत रूप मे काव्य का कथानक भी बताया गया |

प्रथमोऽ
हो "आशीनमस्त्रियारूप प्रलोक काव्याच सूचक नान्दीति कथ्यते" लपया देवद्विज नृपादीनामान पूर्वका नयन्ति देवता यस्था तस्मान्नान्दीति कीर्तिता । इन उपर्युक्त शब्दव्युत्पत्तियो एवं लक्षणों से ज्ञात होता है कि नान्दी श्लोक मे
देव द्विज नृपादि की आशीवचन युक्त स्तुति होनी चाहिये और काव्यार्य की सूचना भी दी जानी चाहिये। इस दृष्टि से श्लोक का जो ऊपर अर्थ दिया गया है, उसमें भगवान् शिव की स्तुति तो स्पष्ट ही है, इसी प्रकार इसमे नृप अर्थात् राजा दुष्यन्त की भी स्तुति है, इस प्रकार की स्तुति के लिये श्लोक का जय इस प्रकार किया जायेगा ताभि प्रत्यक्षाभि अष्टाभि तनुभि प्रपक्ष ईस अर्थात् जन प्रत्यक्ष अष्ट मूर्तियो से सेवित प्रजापालक दुष्पत जाप लोगो की रक्षा करें, राजा का शरीर जस अग्नि, वायु, पृथिवी और आकाश इन पाँच तत्वों से बना है, यज्ञानुष्ठानकर्ता दुष्यन्त यजमान रूप भी हैं। विशिष्ट तेजस्वी होने से तुम और प्रजा होने से एवं चन्द्र- कभी होने से वह चन्द्रणी मूर्ति से भी विशिष्ट है इस प्रकार वह भी अष्टमूर्ति है। अथवा राजा अष्ट लोकपालो अग्नि, वायु, यम, सूय, इन्द्र, वरुण, च कुबेर- के अम से उत्पन्न होने से भी अष्टमूर्ति सम्पन्न है। राजस्तुति के लिये श्लोक का यह अर्थ भी ग्रहण किया जा सकता है।
की दूसरी  विशेषता है काव्यार्थ अर्थात् अभिधेय वस्तु की सूचना देना, यह भी प्रस्तुत श्लोक से सिद्ध हो जाता है, इसके लिये श्लोक का अर्थ निम्न विधि से करना पडेगा-
"या सृष्टि अष्टुराचा ब्रह्मा की सवप्रथम सृष्टि अर्थात् शकुन्तला, क्योंकि कि वह सौदर्यातिशालिनी है जब तक इतनी सुदर स्वरन सृष्टि नही हुई थी। या विधित हृदि बहुति जो शकुन्तला विधि अर्थात् गा अब विवाहोत्तर सुरतविधि से हृत अर्थात् दुष्यन्त द्वारा निषिक्त हवि अर्थात् बोम को धारण करती है इससे सकुन्तला कागभवती होना सूचित किया गया है या होगी इससे यज्ञानुष्ठानकर्ता मुनिजम और दुर्वासा का भी संकेत है अथवा इससे पत्रानुष्ठानकर्ता दुध्यन्त की ओर भी सकेत माना जा सकता है। ये काल वित्त इस वाक्य से मापात समय बताने वाली पत से सकुला के मिलन के लिये समुचित समय का निर्धारण करने वाली प्रियम्वदा एवं अनुसूया की ओर संकेत है। बुतिविषयगुणा इत्यादि से कुता का दुष्यन्तकृत शब्दात्मक प्रत्याख्यान तथा आकामचारिणी मेनका के साथ उसका तिरोधान सूचित होता है। विश्व व्यत्य स्थिता से शकुन्तला के पतिवर सौदयमादि गुणों से विश्व को व्याप्त करके स्थित होने का भी आभास मिलता है, इसीसे सानुमती की भी सूचना प्राप्त होती है क्योंकि वह भी माकाश सचारिणी थी। अथवा स्थिता से कुता का कम्यपाश्रम निवास सूचित होता है। यामाहुः सवबीजप्रति से सब जीवो के उत्पत्ति स्थानभूत अदिति कश्यप की तथा शकुन्तला से भरत की उत्पत्ति की सूचना दी गई है। भरत का आवन का नाम दमन या 'नामक देशे नाम प्रणाद' के अनुसार सददमन की सूचना है।

(नान्द्यन्ते) सूत्रधार ( नेपयाभिमुखमवलोक्य) आयें ! यदि नेपव्यविधानम सितम, इतस्तावदागम्यताम् । (प्रविश्य) नटी - आर्यपुत्र, इयमस्मि [अज्जउत्त, श्य हि ।]

विषय का विशेष विवरण परिशिष्ट में दिया गया है। नेपस्यविधानम" कुशीलवकुटम्बस्य गृह नेपथ्य मुष्यते" अर्थात् सभी अभिनेता fre्थान पर समय-समय पर अपनी वेषभूषा धारण करते है अथवा बेष परिवर्तन करत है वह स्थान नेपथ्य कहा जाता है, इसे ही आजकल प्रीनहाउस कहते सूत्रधार- आर्य, अभिरुपभूयिष्ठा परिषदियम् अद्य खलु कालिदास- प्रथितवस्तुनाभिज्ञानशाकुन्तलनामयेन नवेन नाटकेनोपस्थातव्यमस्माभि । तत्प्रतिपात्रमाघीयता यत्न । नदी-सुविहितप्रयोगतार्यस्य न किमपि परिहास्यते । [सुविहि दप्पोअदाये अजस्स ण कि पि परिहाइस्सादि । ]

हूँ। नेपथ्य का दूसरा अर्थ वेशभूषा धारण करना भी है-आकल्पवेषी नेपथ्यम्" वेवरचना को भी नेपस्य कहा जाता है यहाँ नेपथ्य का अय परचना ही है, नेपथ्य विधानम् वेषभूषा रचना, किन्तु नेपथ्याभिमुख मवलोक्य मेय का तीसरा पर्दा (मुर) है, मुख्य पर्व की ओर देखकर इस पर्व को ही जयनिका कहा जाता है नेपथ्य स्वयनिक रंगभूमि प्रसाधनम् अमरकोश आयें नाटको मेपली को 'आ' कहकर सम्बोधित किया जाता है "पत्नी पायति समाप्या" नाट्यशास्त्र, अतएव सूत्रधार नटी को आयें कहकर सम्बोधित करता है। अवसितम समाप्त हो गया है—अब+पोतकर्माणि (सा) + विधानम् काय, नेपथ्यस्य विधानम्== drjer रचना का काय मिन नेवस्य ने नेतु व पष्य हितकरम् अभिनेताओं के लिये जो हितकर हो अथवा नेत्री के लिये जो हितकर हो नेपथ्य कहा जाता है इस तीनो हो अथ समाविष्ट हो जाते है वेषभूषा रचना, नेपथ्य यह और पर्दा आयपुत्र 1 "स्त्री पतिर्वाय आयपुत्रेति यौवने" नाट्यशास्त्र के इस वचन के अनुसार नाटको मे स्त्रियाँ अपने पति को आयपुत्र कहकर सम्बोधित करती है। अपते सेव्य गम्यते इति आय पर सम्म पुत्र अर्थात् पति ष्यत्ये नाटको मे स्त्रीपण प्राकृत बोलते है, अत नाटक मे स्त्री पात्रों के लिये शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग किया गया है।
सूत्रधार-आयें, यह सभा विशिष्ट विद्वानो की बसल्या वाली (३) अर्थात् इस सभा मे अनेक विशिष्ट विद्वान उपस्थित है। (जत) हमे आज कालिदास विरचित अभिज्ञान शाकु तल नामक नवीन नाटक के द्वारा उपस्थित होना चाहिए अर्थात् महा- कवि कालिदास द्वारा जिसको कथावस्तु का सयोजन किया गया है ऐसे अभिशान कुन्तल नामक नये नाटक का अभिनय दिखाकर इस विशिष्ट विद्वानों के समाज को प्रसन्न करना चाहिए । अत प्रत्येक पात्र पर (प्रत्येक अभिनेता की भूषा आदि पर विशेष ध्यान देना है।
नटी - सुव्यवस्थित एवं कुशल नाटकाभिनय के कारण आपकी कोई भी न्यूनता (त्रुटि न रह जायेगी) अर्थात् अभिनय की पूर्ण व्यवस्था कर ली गई है अब आपके लिए कोई भी कमी न होगी।
अभिश्वभूमिष्ठा- afeमष्ठा "अभिपो दुधे रम्ये" यहाँ after का अर्थ विद्वान है।  दर्शनीय रूप स्वरूप येषान् अपि विशिष्टा विद्वास अतिशयेन बी इति भूयिष्ठा इष्टाप् । अभिया विशिष्टr fast यस्यासा अभिरूप भविष्ठा बहुसख्यक विशिष्ट विद्वानो वाली परिवबू परित सीदन्ति अस्यामिति परिसद निव+परिषद् सभा कालिदास प्रतिवस्तुना कालिदासेन एतनामकेन कविना प्रथित संयोजितम् वस्तु कथावस्तु यस्य तेन जिसकी कथावस्तु की संयोजना कालिदास द्वारा की गई है अर्थात् कालिदास के द्वारा रचित अभिज्ञानशाकुन्तल नामधेयेन अभिज्ञान शाकुन मिति नामधेय नाम यस्य तेन अज्ञान मास नामक ब्याभिधानञ्च नामापञ्च नाम ब) नामधेय प्रत्यय स्वार्थी नामधेय अर्थात् नाम अभिज्ञायतेऽनेनेति अभिज्ञानम् अभि + गाधातो करणाधिकरणयोश्चेति करणे ल्युट् अभिज्ञानम् अर्थात् जिसके द्वारा पहचाना जाता है, यहाँ अभिमान से तात्पय इस पहचान के चिह्न रूप अनूठी से है जोकि दुष्यन्त द्वारा कुल को दी गई थी और जब यह पहले सो गई थी तब दुष्यन्त उसे भूल गया था और जब वह मिल गई थी तब दुष्यन्त ने उसे इसी से पहचान लिया था। शकुन्तलाम् [अधिकृत्य कृत नाटकम लाकुलम् अधिकृत्य कृते प्रत्ये' सूत्र से अण् प्रत्यय fear वृद्धि शाकुन्तलमहकुतला विषयक नाटक अभिज्ञान प्रधान शाकुन्तलम् इति अभिज्ञान शाकुन्तलम् "पावादीना सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम्" इति वार्तिकेन अब प्रधानेत्युत्तरपदस्य लोप अर्थात् अभिज्ञान प्रधान शकुन्तला विषयक नाटक । अथवा अभिज्ञानसहित शाकुंतलम् अथवा अभिज्ञान स्मृत शाकुन्तलम् इस प्रकार भी विग्रह किया जा सकता है। सब उत्तर पद लोप होकर अभिमान माकुन्तलम् बनेगा । अभिज्ञान शाकुन्तलमिति नामधेय यस्य तेन (नाटक तथा इसके भेदोपभेद के विषय मे परिशिष्ट भाग मे देखिये) उपस्थातव्यम् उपस्थापत्उपस्थित होना या सेवा अथवा प्रस्तुति करना चाहिए। प्रतिपात्रम पात्र पात्र प्रति प्रत्येक पात्र के विषय मे आधीयताम्जा द्या + कर्मणि लोट पक मुविहितप्रयोगतया - सुष्ठु शोभनप्रकारेण विहित कृत सुविहित (सुबिधा + क) सुविहित सुव्यव स्थित प्रयोग नाट्याभिनय तस्य भाव तथा जिसकी कुशलतापूकाकी गई है ऐसे नाटकाभिनय के प्रयुक्त होने के कारण वस्तृत यहा नटी सूत्रधार की नाटिका-  बहुता एवं निपुणता तथा अनुभवीलता की असा करती हुई कह रही है। परिहास्यते परिहा+कमल कोई भी बात छूटेगी नहीं, अभिनय मे कोई न्यूनता न रहेगी क्योकि आप एक कुशल नाट्याभिनय प्रयोक्ता प्रसिद्ध हैं।

सूत्रधार यहाँ से लेकर तृतीय श्लोक तक भारती वृति का प्ररोचना नामक भेद दिखलाया गया है। भारती संस्कृतप्रायो वाग्व्यापारी नटाय भेदं प्ररोचनायुक्त प्रहसनामु नट द्वारा प्रयुक्त प्राय संस्कृत का वाम्म्याहार भारती वृत्ति कहा जाता है जिसके प्ररोचनादी प्रहसन आमुख नामक अवान्तर (भेद होते हूँ यहाँ प्ररोचना भेद है "मुखीकरण तत्र प्रवासात प्ररोचना" दशरूपक जहाँ पर प्रशसा के द्वारा दशको को नाटिकाभिनय की ओर आकृष्ट किया जाता है। बहु प्ररोचना होती है।सूत्रधार आयें, कपयामि ते मूतार्थम् । परितोषाद विदुषा ने साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम् । बलवदपि शिक्षितानामस्मिन्यस्य चेत २२॥

विशेष प्रस्तुत श्लोक के पूर्वाध मे विन ही मेरे आङ्गिक आदि चतुविध अभिनय व्यापार की निता की परीक्षा कर सकते हैं यह अन्तर्निहित अभिप्राय है अत पर्यायोक्त आकार है 'पर्यायोक्त यदा भड या गम्यमेवाभिधीयते ।" उत्तराध में मामाया न पूर्वोक्त विशेषाय का समय होने से अर्थान्तरन्यास असकार है "सामापवाण विशेषस्तन वा यदि काय च कामे कार्येण च सम साधरणाचा तरन्याना मत।" उक्त दोनो अलकारों का बङ्गाङ्गमान कम साथ कय भी है त्यनुप्रासासकार तथा आर्या जाति नामक छन्द है-

नटी - आर्य, एवमेतत्। अनन्तरकरणीयमार्य आतापयतु अज्ज, एव एदम् । अणन्तरकरणिज्ज अज्जो आणवेदु । ]

"पापा मारता येऽपि ।

अष्टादशद्वितीयेने पद मा ।।

"पापा मारता येऽपि ।

अष्टादशद्वितीयेने पद मा ।।

अर्थात् जिसके प्रथम चरण मे १२ मात्रायें और तृतीय में भी १२ मात्रायें हो, द्वितीय चरण मे १८ तथा तुम चरण में १५ मात्रायें हो वह नाम मात्रक छन्द होता है।

संस्कृत पाल्या विदुषाम्नाटक विज्ञान पण्डिताना, परितोषा यावद feet नसतोय मेव्यन्ति arecarefer । प्रयोगस्य कादिरूपाभिनयष्टस्य विज्ञानविशिष्ट प्रयोग विज्ञानम् (a) सफल वा स्वीकरोमि (पत) बलवदपि== निरन्तराभ्यासेन सुदृढ मपि मिश्रितानामादुशाना नाटकाभिनय विशेषज्ञला मावा तहृदयम् बात्मनि स्वविषये विश्वमावे कलादाल इत्यर्थ अत्यपनीयम्।

संस्कृत सरस सुविहितप्रयोगतार्थस्य न feat परिहास्यते इति acturer माय सूत्रधार रूपयति मदीयनाटकानियमवलोक्य यावद विद्वास सामाजिक व सोष मैष्यन्ति न त स्वute reafenयको सफल referrer we usefeaानस्य साफल्यस्य परीक्षका बनोपस्थिता विद्वास एवं सेवा सष्टरेव मम प्रयोगस्य साफल्ये प्रमाणभूता यतो हि नाममा चेत विवाह सन्देहास्पद वा भवति ।

तार्थमभूत मादी पिशाचादी व्याग्ये सत्योपमानयो" इस कोशमन के अनुसार मूल शब्द का अर्थ यहाँ बात है परितोषात् परितुष्+धञ् परितोष 'आ' मह कमनीय शक है और मर्यादाोधक है अपवाद परिधि से यहाँ है। विदे तुव इति प्रत्ये fast want sete वचने विद्वान्पष्ठी बहुवचने विदुषाम् (विद्वान् विचिद दोष समुधी कोविदो बुध) प्रयोगविज्ञान प्रयोगस्य अभिनयस्य विज्ञानम् विशिष्ट वायुधम् प्रयोग, यह प्रयोग अर्थात् अभिनय आदि तक, वाचिक, सहाय और सात्यिक भेद से चार प्रकार का होता है। इसका सम्बन्ध कई विद्वान  के साथ मानते हैं और इसका बय विशेष रूप से शिक्षित करते हैं, कुछ विद्वानों ने का विशेषण माना है, विशेषरूप से दूति मी शिक्षितानाम् शिक्षितम् तस्त्येषामिति शिक्षिता तेषाम् को विश्वास दोन हो । -

माय ऐसा ही है अब आगे इसके बाद जो करना

सूत्रधार किमन्यवस्था परिचय अतिप्रसादनं । तमिमेय
तावदचिरप्रवृत्तभोगक्षय ग्रीष्मसमयमधिकृत्य गीयताम् । सप्रति हि- सुभगसलिलावगाहा पाटलसगिरभवनवाता । या दिवसा परिणामरमणीया ॥३||

सूत्रधार इस सभा के कानों को करने के अतिरिक्त और कोई दूसरी क्या हो सकती है) महाभये, (अल स्थान बादि) लोपभोग के योग्य इस ग्रीष्म ऋतु के समय का लेकर अर्थात् इस ऋतु हो (कुछ) याओ क्योंकि इस समय
सुभगेतिजन्यसुभगसविगाहा परभवनात प्र निद्रा दिवसा परिणामरमणीया (भवति)
सदाय सुभगसावगाहा जिन दिनो में खूब स्नान करना मुलकर (होता है) पाटल सुरभिवनदाता दिन दिनो पास्वा प्रचलित गुलाब पुष्प से प्राप्त करने वाले म एवं मुर्गा मनपचन हो जाते है, जिन दिनों सघन छाया में भी सरलता से आ जाती है, दिवसा -ऐसे के दिन परिणामरमणीया सध्या समय अतिमनोहर होते है।
अनुवाद जिन दिनो मे जल मे खूब स्नान करना हितकर होता है, गुलाब सम्म प्राप्त अत एव सुधित वन वायु बहते है समन छाया में सरलता से नीच आती है, ऐसे काल के दिन, सध्या के समय परम सुख देने वाले होते हैं।
भावार्थी ऋतु के दिनो मे समे सूत्र महाना वा सुखकर प्र होता है। इन्ही दिनों गुलाब बनता है और इससे टकराकर मुर्गा धत हुये वायु बहते हैं तथा इन दिनों छाया में अच्छी नींद आती है ये दिन सूर्यास्त के बाद होने से प्रतीत होते है।
लोक के प्राय भीषण है जो कि अपरिहार को सूचित करते हैं। अत वहाँ परिकलकार है "विशेषमा परिकरो मत" पीष्मकाल का स्वाभाविक वजन होने से स्वाकार पार मृत्यनुनालकार है। आजाति नामक छन्द है।
संस्कृत व्याख्या सुभग कर सज जगा मज्जन येते - पाटलाना थाना पुष्पविनेयाणा वा सह सम्बन्ध पेषु से पाटल त एवं सुरमय मनोशा मुर्गा देने परिभवनदाता प्रष्टसपना छतेषु सुलभा मुलेन लभ्या निद्रा स्वापायेषु च्छायल- कालदिवसा परिणामे दिवसावसाने रमणीया सुमनोहरा

, नदी-तया (इति गायति) चुम्बितानि भ्रमरं सुकुमारकेसरशिखानि । अवसन्ति sun प्रमदा शिरीषकुसुमानि ॥४ ईसीसिबिआइ मनरेहि सुउमारकेसरसिहाई । (ओसन्ति दममाणा पमदाओ सिमकुसुमाइ ।

नन्तरकरणीयमन र मिद्रिम्, अनार करणी यम् इति अनन्तरकरणीयम् अविलम्ब करने योग्य काय अन सुप्युपैति समा भूतप्रसाद प्रसादनम्+ किन्, ति का अर्थ यहाँ कान है। + सावन करना अर्थ त परिवर परिसर पियेक वचने अश्लिम र प्रवृतम मंदिर अतितात्पुरुष सम उप अधिकृत्य त्या-त्यप् । अवगाह - इन्+िन+परिणाम परिन पर मनी अनार बचाव के मत मेज और अप उप के प्रथम कार का लोप होने से बचान, अकास मत बाद दो-दो कम होते हैं। परिणाम रमणीया पद से होता है कि नाटकात सुद होगा ये भी सस्कृत व सुसान्त ही होते है प्रस्तुत श्लोक मे माय गुण और पचासी रीति है।
संस्कृत सरला प्रीष्मकालिन मतिसुखकर भवति । एषु दिवसेषु पापम्प वा सुरमयी बनायको सान्ति एवम् दिवसेष्येषु सम्पते। हमे दिवसा दिनावसानसमये परममनोज्ञा भवन्ति।
टिप्पणी
यही पर भारती वृति का प्ररोचना नामक जन समाप्त होता है और अब यह से आगे आना आरम्भ होता है, इसी आमुख को प्रस्तावना भी कहा जाता है।
नटी ऐसा ही हो (यह कहकर गाती है।
ईद-अन्ययप्रमदा यमाना (सत्य) अम्बान सुकुमार केसरशिखानि शिरीषकुसुमानि भवतस्यन्ति ।
शवाय प्रमदा युवती स्त्रिया दमाना सत्यदयालु होकर अर्थात् दामा से प्रेरित होकर मरे भ्रम के द्वारा दिई कुछ कुछ धीरे-धीरे चुम्बितानि आस्वादित किये गये अर्थात् भ्रमरो द्वारा धीरे-धीरे बोडा-थोडा जिनका रसपान किया गया है। सुकुमारकेसरशिखाभिरन्त

मया फुल 7 गीतरायेण हारिणा प्रसभ हु एष राजेव दुष्यन्त सारं पातिरसा ॥५॥ (इति निष्क्रान्तो ॥ प्रस्तावना

अनुवोधित स्मारित बध+पि+ विस्मृतम्-वि+स्मृ+ मीरा गीतस्य राम तेनहारिका+तिहारी तेन प्र गत सभामा सभा इत्यस्य विचार व यहाँ हम अब मलाइ सार सारस्वतेन शकादमिति अकारण रागवत- बति रागेण गीतरंग वढावा वित्तयति अन्तकरण रङ्गपतिस्मथितिर रात पि भावकरणमौरिति भावे करायला एव रस्त्य मिश्रित विद्याया गस्था सामाजिक लिखित fuकृत कलमत- किममध्ये दारादिभ्य इति बदर भादसे द्वितीक

जहाँ पर वह रहा है अथवा मह" इस प्रकार के बचन प्रयोग के द्वारा सुधार किसी पात्र का प्रवेश सूचित करता है, यहाँ प्रयोगातिशय arts] आका तृतीय होता है प्र मे "एष राजेव दुष्यन्त सुनधार मे मुख्य पात्र के रंगमंच पर प्रवेश की सूचना दी है, मत यहाँ पर पह प्रयोगतिक नामक मुखका तृतीय प्रयुक्त हुआ है।

मृगानुसारी मृग [मनुसरतीति मृगानुसारी, मृग अनु + घासों पिनि द्विदचरण सहित सर सर नाम हस्तयो द रथेन बुद्ध पूना इति निर्देशात् विनापि सह योगे सहार्थ तुतीया मूल- तिति सूत मनुस्मृति के अनुसार क्षत्रिय द्वारा ब्राह्मण कन्या से उपसन्तान सूत कही जाती है, ये सूत, सारवि का ही काम करते हैं "दि विन्याय सूतो भवति जातित सूतानामश्वसारध्यम्" मातृगुप्ताचार्य के इस निर्देश के अनुसार सामन्ताना देवतानां राजन्यामात्यसैनिक हिमागताना पाठ्य योग्यतु संस्कृतम्" भी नाटको मे संस्कृत मे ही बोलता है। आयुष्य मातृ सम्बोधने आयुष्मन् नाट्यशास्त्र के निर्देशानुसार सारथि अपने री को कहता है, इस नियम का समय यह कारण रहा होगा कि म समय सूत एक प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाता रहा होगा, आयु में भी यह रथी की पेक्षा या होता होगा, अत वह रथी को आयुष्मान कहता होगा, सूत या सारथि युद्धों में राजा के साथ जाता था बात गुद्ध के अवसर पर रवी दीर्घायु एवं विजयी हो. इस तात्पर्य से भी त रथी को आयुष्मान कहकर ही पुकारता होगा। "आयुष्मन्निति वाच्यस्तु रथी सुतेन सम" कृष्णसारे कृष्णरवासी सार afine as 'वर्षो वनेति कर्मधारय । यह एक विशेष प्रकार का नृय होता है यह कम होता है पर इस पर काले घने अधिक होते है बाठो क "नास्ताच्छतु" इति षधाय । मधियकार्मुके स्पा गित पम्अत्यावe कान्ताद्यर्थे द्वितीयमा इति प्रादितत्पुरुष कर्मणे प्रभवति इति कार्मुकम् कर्मन् शब्दात् उes प्रत्यय अधिज्य कार्मुक यस्य तस्मिन् अधिज्यकामुकै मृगानुसारिण पिनाकिनम यहाँ एक पौराणिक कथा का संकेत है। भगवान् शिव के varर दक्ष प्रजापति ने अश्वमेघ यज्ञ किया उसमे उन्होंने सभी देवताओ को आमन्त्रित किया था पर भगवान् शिव को नहीं, इतना ही नहीं उन्होने पावती जी के समक्ष शिव के लिये अपमानजनक शब्द भी कहे थे, इससे भगवती ने वहीं अपना शरीर त्याग दिया था, इस समाचार की सुनकर क्रुद्ध हुये भगवान् शिव ने आकर दक्ष का वध किया और यज्ञ जब मृग का रूप धर कर भागा तब शिवजी ने aver fears say लेकर उसका पीछा किया और उसका वध किया था। वायु पुराणदि मे यही कथा कुछ चित्र रूप मे है।

सूत का लक्षण
शिक्षाविशारद । स्वामिभको महोत्साह सर्वेषाञ्च प्रियम्बद ॥ शूरश्च कृतविद्यश्च सारथि परिकीर्तित

प्रस्तुत नाटक मे यही से मुख्य कथावस्तु बारम्भ होती है। मुख्य कथावस्तु या इतिवृत प्रथम दो प्रकार का होता है, आधिकारिक और प्रातहि गक यह प्रासगिक भी दो प्रकार का होता है, पताका और प्रकरी। यदि वो प्रकार का  भी इसी मे जोड दिया जाय तो यह इतिवृत्त पाँच प्रकार का होगा। raft आचायविश्वनाथ ने पताकास्थानक को चार प्रकार का माना है तथापि आचार्य धनजय दो ही प्रकार का मानते हैं, एक अन्योक्ति अथवा अप्रस्तुत प्रशसा के द्वारा और दूसरा समासोक्ति के द्वारा।

यह इतिवृत्त प्रख्यात उत्पाद्य एव मिश्र भेद से पुन तीन प्रकार का होता है। प्रख्यात इतिहास पुराणादि से गृहीत होता है, उत्पाद्य कविकल्पित होता है और - मिश्र मे दोनो का मिला जुला रूप रहता है। प्रस्तुत नाटक की कथावस्तु महाभारत से गृहीत है अत प्रख्यात कथावस्तु है।

नाटकीय कथावस्तु को पाँच भागो मे विभक्त किया जाता है, जिन्हें पाँच प्रकृतियाँ कहते हैं, ये नाटक के नायक की प्रयोजन सिद्धि का हेतु होती है-बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य, ये पांच अथप्रकृतियों के नाम हैं।

इसी प्रकार फलाभिलाषी नायक के द्वारा प्रारब्ध कार्य की पाँच अवस्थाएँ होती है-बारम्भ, यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम । ।

उक्त पाँचो अर्थप्रकृतियो मे से एक-एक को इन अवस्थाओं के एक-एक भेद से मिलाकर पाँच सय बनती है जो कि मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमम, उपसहार इन नामों से प्रसिद्ध हैं। इन को अप्रलिखित प्रकार से देखा जा सकता है

अवस्था

आरम्भ

अथ प्रकृति

बीज

बिन्दु

पताका

प्रकरी

मुख

प्रतिमुख

यत्न

गम

प्राप्याशा

नियताप्ति

सावमश

काय

फलागम

उपमहार

वस्तुत अथ प्रकृतियों कथावस्तु का ढांचा खड़ा करती है वे उपादान कारण कहलाती है । अवस्थाओं का सम्बन्ध नायक की मनोदशाओं से होता है। तात्पर्य यह कि अथ प्रकृतिया तो कथावस्तु का भौतिक दृष्टि से पाच भागो मे विभाजन करती है पर पञ्च अवस्थाए उस कथावस्तु का मनोवैज्ञानिक विभाजन करती है क्योंकि इनका सम्बन्ध नायक की मनोदशाओ से रहता है।

afra का सम्बन्ध है अर्थात् किसी एक प्रयोजन से परस्पर सम्बद्ध कपाशो को जब किसी दूसरे एक प्रयोजन से अन्वित किया जाता है तब वह सम्बन्ध सन्धि कहा जाता है।

इन सन्धियो मे प्रथम मुख सधि है, इस सधि में नाना प्रकार के रसो को उत्पन्न करने वाली बीजोत्पत्ति होती है अर्थात् इसी सन्धि मे कथा का बीज रहता है और काय का आरम्भ होता है, इस सन्धि के १२ तथा अन्य संधियो के भी अलग- अलग कई अंग होते है, जिनका यथास्थान निर्देश किया गया है। मुख सन्धि का लक्षण है

पत्र बीजमुत्पत्ति fनाथरससम्भवा । प्रारम्भेण समायुक्ता तन्मुख परिकीर्तितम ॥

प्रस्तुत नाटक में "तत प्रविशति से लेकर प्रथमां की समाप्ति तक मुख सन्धि है। यद्यपि राधव भट्ट ने द्वितीय अक में "उभौ परिक्रम्योपविष्टी" तक यह सन्धि मानी है।
पाँच अवस्थाओं में यहाँ पर प्रथम आरम्भ नामक अवस्था है "भवेदारम्भ औत्सुक्य व मुख्यफलसिद्धये" सा० दा० अथवा "औत्सुक्यमात्रबन्ध स्तु यो वीजस्य निवध्यते । महत फलयोगम्य स खल्वारम्भ इष्यत अर्थात् जहाँ फल प्राप्ति हेतु काय का आरम्भ किया जाय वहाँ आरम्भ नामक अवस्था होती है। प्रस्तुत नाटक के प्रथम अंक में "राजा भवतु तामेव द्रक्ष्यामि " यह फलप्राप्ति हेतु नायक के काय के बारम्भ की प्रथम मनोदशा है। राजा का औत्सुक्य तो उक्त वाक्य से आरम्भ होता है पर शकुन्तला का औत्सुक्य "कि नु खल्विम जन प्रेक्ष्य" इस वाक्य से आरम्भ होता है।

वाभङ्गाभिराम महरनुपतति स्यन्दने वद्धदृष्टि
पश्चार्थेन प्रविष्ट शरपतनभयाद् भूयसा पूर्वकायम् । योदप्रप्लुतत्वाद् वियति बहुत स्तोकमु प्रयाति॥७ तवेष कथमनुपतत एव मे प्रयत्नप्रेक्षणीय सबुत ।

अल्पमात्र समुदिष्ट बहुधा बद प्रसपति ।

फलस्य प्रथमो हेतु बज तदभिधीयते ।

अर्थात् जो पहले अल्पमात्र हो और फिर फल प्राप्ति पर्यन्त उत्तरोत्तर फैलता जाय इसे बीज कहते हैं। प्रथमा में वैखानस राजा से कहता है "पुत्र मेव गुणोपेत पवर्तिन मवाप्नुहि" वैखानस का यह कथन कथावस्तु का बीज है जोकि धीरे धीरे फैलता हुआ पल प्राप्ति तक चलता है। वस्तुत दुष्यन्त शकुन्तला का प्रेम ही इस नाटक का बीज है जो कि उक्त कपन और "इदानीमेव दुहितर शकुन्तला सोमतीर्थ गत" से आरम्भ होता है।

इसी प्रकार अन्य अथ प्रकृतियो अवस्थाको सन्धियो एव सन्ध्यङगो का यथा स्थान निर्देश किया गया है।

राजा-सूत यह हरिण तो हम लोगो को बहुत दूर ले जाया है और फिर यह अब भी

प्रीवेति अन्वय पश्य, अनुपतति स्यन्दने मूह ग्रीवाभय गाभिराम वयदष्टि शरपतनभयात् भूयसा पश्चार्धेन पूर्वकाय प्रविष्ट, धमविवृतमुख प्रशिभिः अर्धावनी द कीणवर्मा, उदग्रप्लुतत्वात् विमति बहुतरम उर्व्याम्] स्तोकम् प्रयाति । शब्दार्थ पश्य = देखो, अनुपतति स्यन्दने (अपने पीछे दौडले हुये रथ पर

मुह बार बार, ग्रीवाभङ गाभिरामम् गरदन को मोडने से मनोहरतापूर्वक, व दृष्टि एकापदृष्टि से देखता हुआ, शरपतनभयात् वाण लगने के भय से भूयसा बहुत अधिक पश्चार्धेन अपने पिछले आधे भाग से पूबकायम शरीर के अगले भाग में प्रविष्ट = प्रविष्ट हुआ (सा) धर्मावित प्रणिभि ( दौडने मे ) मकावट के कारण खुले हुये मुख से गिरने वाले, अर्धावली आधे चबाये गये दकुशी से, कीणवर्मा जिसका माग व्याप्त हो गया है उदग्रतत्वात ऊँचा उछलने के कारण, विपति आकाश मे बहुतरम् बहुत अधिक उर्व्यापृथिवी पर स्तोकम् = बहुत थोड़ा, प्रयाति चलता है। = = = - =

अनुबाद - देखो, अपने पीछे दौडते हुये रथ पर बार-बार गरदन मोडने से मनोहरतापूर्वक एक दृष्टि से देखने वाला, वाण लगने के भय से अपने शरीर के पिछले आधे भाग से बहुत अधिक लागे के भाग से प्रविष्ट हुआ सा, (दौड़ने मे ) थकावट के कारण खुले हुये मुख से गिरने वाले वाधे बनाये हुये कुमो से जिसका माग व्याप्त हो गया है (ऐसा यह मृग) ऊँचा उछलने के कारण आकाश मे ही अधिक (पर) भूमि पर बहुत कम चलता है। L

भावार्थ- भागते हुए हिरण की चेष्टाओ का वर्णन करता हुआ राजा दुष्यन्त अपने सारथि से कहता है कि देखो, यह हिरण, अपने पीछे दोडते हुए मेरे रथ पर बार-बार अपनी गदन मोडकर मनोहरतापूर्वक दृष्टिपात कर रहा है, मेरे वाण के लगने के भय से इसने अपने शरीर का पिछला भाग बहुत अधिक शरीर के अगले भाग में समेट लिया है, इस प्रकार यह बिल्कुल गोलाकार बन गया है। भागने मे जो इसे ure होती है, इस से इसका मुख खुल गया है। फलत इसके द्वारा अधचवित कुश इसके मुख से गिर रहे हैं, इन कुमो से इसका मार्ग पर गया है। भयया यह ऊँची- कैसी छलाब मारता है। अतएव यह आकाश में ही देर तक ठहरा रहता है पृथ्वी पर तो यह कम ही चलता है।

विशेष प्रस्तुत श्लोक में 'प्रविष्ट इस पद के आगे 'हव' को लगाना पड़ेगा, क्योंकि मृग अपने पूर्वकाय में प्रविष्ट तो हो ही नहीं सकता है अतः यहाँ पम्बोप्रेक्षा सकार होगा। श्रम विवृतेत्यादि पद मे रसनाकाव्य लिंग अलकार है "प्रत्युत्तरोत्तराचं पूर्वपूर्वा हेतुता रसनाकाव्यलिंग तद्” प्रधानतया तो यहां स्वभावोक्ति अलंकार है क्योकि यहाँ मृग की स्वभावगत चेष्टाओ का वर्णन है। छेक, वृत्ति और बुति, शब्दालकार है। काव्य प्रकारकार से इस श्लोक को भयानक रस का उदाहरण माना है। मृगयत भय स्थायी भाव है, धनुर्धारी दुष्यन्त से आरूढ़ रथ का देखना आलम्बन विभाव, रथ का अनुपतन शरपतन आदि उद्दीपन विभाव प्रीवाभङग कुतो का गिरना, शरीर सोच, विवृत मृख होना आदि अनुभाव त्रास का आवेग आदि सचारी भाव है कम्प आदि सात्विक भाव है, अत इन सबसे परिपुष्ट यहाँ भयानक रस व्यग्य है और इसमें अनारा नामक छन्द है जिसका लक्षण प्रथम श्लोक में बताया जा चुका है।

संस्कृत सरलार्थ तीव्रगत्या धावत मृग वणयन् राजा स्वसूत कथयति सूत । मृगोऽयम् अनुगच्छति मम रथे पुन पुन स्वकन्धरावतनेन मनोहरतापूर्वक दृष्टिपात करोति स्वशरीरे मम वाणसपातवासात् अधिकेन स्वशरीरे पश्चार्धभागेन स्वकीय पूर्वकाय प्रविष्ट वालक्ष्यते घावने परिश्रमाद व्यात्तमुला व पतदिन रथचवित कुरस्य धावनमाग व्याप्तोऽस्ति । उदप्रप्लवनैरवमाकास एवाधिक तिष्ठति, भूमी त्वय स्तोकमेव यच्छति ।

तदिति तो किस प्रकार यह मृग, मेरे पीछा करते हुये भी कठिनता से ही दिखलाई पड़ने लगा है ?

प्रोवाच पाभिरामम्कन्धराया परावतनेन अभिराम यथा स्यात्तथा-- अभि+र+घञ्। अनुपतति अनुपदशतु सप्तम्येक वचने स्यन्दने स्यन्द धातोस्युटि रूपम्। वृष्टि अन्यत्र दसदृष्टि इति पाठ । वस्तुत बद्धदृष्टि के स्थान पर दृष्टि पाठ ही उचित है, क्योंकि दृष्टि बाँध कर देखने वाला बार-बार पीछे डर नही देख सकता, भयभीत होने के कारण भागता हुआ हिरण एकटक दृष्टि से पीछे आते हुये रथ को बार-बार नहीं देख सकता था अत दत्तदृष्टि ही पाठ ठीक है। पश्चार्थेन अपरश्वासौ अघस्तेन अपरस्यार्थे पश्चभावो वक्तव्य इति अपरस्य पश्चादेश । शरपतनभयात् अत्र हेत्व पञ्चमी । भूयसा बहुशब्दादीयसुन तीर्थंक वचने भूयसा यहाँ "बहोर्लोपो भू च वहो " से बहु को भू आदेश और ईवस के ईकार का सीप होता है। पूर्वकायम् पूर्व कायस्येति विग्रहे पूर्वापरेति सूत्रेण एकदेशिसमास । प्रविष्ट प्रविशक बाण लगने के भय से मृग अपने शरीर के पिछले भाग को जागे के भाग में समेटे हुये था अत ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वह पिछले भाग से बागे के भाग मे घुसकर गोलाकार बन गया है, पर इस प्रकार के अर्थ के लिये प्रविष्ट के आगे गम्पोत्प्रेक्षा सूचक 'इव' की कल्पना करनी पड़ेगी। मृग वस्तुत अगले भाग में प्रविष्ट नही हो सकता वह प्रविष्ट हुआ सा जान पडता था कीर्णव- यहाँ सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात् समास नियम से समास है। अधवली भय और भागने के कारण मृग ने कुछो को आधा ही बना पाया था जब लिह+ अथमीद। श्रमविवृतमुणा तिमि श्रमेण विवृतात् मुखात् अमिन ते अ+ पिनि। कीव कु+क्त उदग्रप्लुत ऊंची और लम्बी छलांग मारना । मृग मे इस प्रकार के पावन की स्वाभाविक शक्ति होती है।

सूत–आयुष्मन् उद्घातिनी भूमिरिति मया रश्मिसयमनाद्रथस्य मन्दीकृतो वेग । तेन मृग एव विप्रकृष्टान्तर सवृत । सम्प्रति समवेशवत नस्ते न दुरासदो भविष्यति ।

राजा न हि मुच्यन्तामभाषव । सूत - यदाज्ञापयत्यायुष्मान् (रथवेग निरूप्य ) आयुष्मन् पश्य

पश्य-

मुक्तेषु रश्मिषु नियतपूर्वकाया पचामरशिखा निभृतोकर्णा आत्मोद्धरपि रजोभिरलङ्घनीया धावत्यमी मृगजवाक्षमयेव रथ्या ॥८॥सूत-आयुष्मन् (यह ) भूमि ऊँची नीची थी, इस कारण मैंने लगाम खीचने से, रथ का वेग मन्द कर दिया था। इससे यह मृग अतिदूरवर्ती हो गया था। अब समतल भूमि पर स्थित आपके लिए यह दुष्प्राप्य न होगा अर्थात् अब इसका मिलना कठिन न होगा।

राजा तो फिर लगाम ढीली कर दो।

मृत जैसी आपकी आशा ( रस के वेग का अभिनय करके ) आयुष्मन् 1

देखिये देखिये--

मुक्तविति अवय-रश्मिषु मुक्तषु निरायतपूर्वकाया निष्कम्पचामरशिला, reasonर्णा आत्मोद्धर्त अपि रजोभि अलट घनीया अभी रथ्या मृगजवाक्षमया इव धावन्ति ।

शब्याय-- रश्मिषु लगाम, रास या बागडोरो के मुक्त ढीली कर देने पर, निरायतपूर्वकाया जिनके शरीर का अगला भाग पूर्णतया फैल गया है अर्थात् - चौड़ा हो गया है, निष्कम्पचामरशिला (शोभावधनाथ मस्तर पर बाधी गइ) कलंगी या चौरी के अग्र भाग (जिनके) निश्चल हो गये हैं, निभूतोऽवकणा= (जिनके दोनो) कान खड़े हुए एवं निश्चल है हिनते नहीं आत्मोद्धर्त अपने द्वारा उठाई गई, अपि भी, रजोभिलियों से अल घनीया जो उल्लड पनीय नहीं है, अमी रख्या ऐसे ये रथ के घोटे, मृगणवाक्षमया मानो मृग के वेग को न सहन करने कारण, धावन्ति भाग रहे है।

अनुवाद (पीड़ो की रस्सियो के ढीली कर देने पर पूणतया विस्तृत पशरीर के अग्रभाग वाले, चौरियों के निश्चल अबभाग वाले शान्त एवं कानो वाले तथा अपने द्वारा भी उठाई गई धूलियो से स्पृष्ट न होने वाले ये रथ के घोड़े मानो मृग के बैग को न सहन करने के कारण भाग रहे है

भावार्थ वेगपूर्वक मृग का पीछा करते हुये अश्वो का वर्णन करता हुआ सारथि राजा से कहता है, आयुष्मन् देखिये अब मैने इन अश्वो की रस्सियाँ छोड दी है, अतएव अब ये मानो भागते हुए मग के वेग का न सहन करने के कारण, इतने वेग से उसका पीछा कर रहे है। वेगत भागने के कारण इनके शरीर का अगला भाग पूर्णतया लम्बा-चौड़ा हो गया है ( भागते हुए अश्वो के शरीर का अगला भाग स्वभावत लम्बा चौडा हो जाता है) भागने के कारण ही इनके मस्तक पर शोभाय आंधी गई चोरियों या कलगियो के अग्रभाग भी निश्चल एवं प्राप्त हो गये है (अयो के मस्तक पर शोभाय कलगी बाय दी जाती है, दौड़ते समय अश्व स्वभावत अपना tere सीधा रखते है, अतएव कलगी हिल नही रही थी वह सोधी एव निश्चल खड़ी श्री साधारण गति के समय कलगी सिर के हिलते रहने के कारण हिलती रहती है, चामर का अय आय टीकाकारों ने पुच्छ भी किया है, दौडते समय घोड़ो की पूछ भी नहीं दि अन्य टीकाकारों ने चामर का अर्थ घोडो के कन्धो के बाल (अयाल) भी किया है समय की पूछ और गरवन के ऊपर के बाल भी स्थिर एवं निष्प रहते है।) दौड़ने के कारण ही इनके कान खड़े एवं निश्चय है ( दौडते समय छोडो के कान स्वभावत बड़े रहते है और निश्चल बने रहते हैं हिलते नहीं) दौडते समय अपने ही खुरो से उड़ाई गई धूलि भी इनका स्पश नहीं कर पाती (अति वेग से भागने के कारण तुरो से उठी हुई धूलि भी इस पर नहीं पड पाती, जब तक धूलि उड़कर इनके पास तक पहुंचे ये आगे निकल जाते है, अत धूलि भी इन पर नहीं पढ़ पाती है ।)

विशेष – “मृगजवाक्षमया इव" में हेतुत्प्रेक्षासकार है, अश्वो की स्वाभाविक चेष्टाओ का वर्णन होने से स्वभावोक्ति अलकार है। वृत्यनुप्रास शब्दालकार है। वसन्ततिलका नामक छ है "उक्ता वसन्ततिलका तथा जगी गा" अर्थात् जिस छन्द में क्रमश लगण भगण जगण जगण और अंत में दो गुरु वर्णों के क्रम से चौदह (१४) वण होते हैं वह वसन्ततिलका नामक छन्द होता है -

: लगण भगण जगण जगण गु० गु०

: 55 | | | 5 | 15 15 | 55 मुक्षु र मिनिराम त पूव का या

: सस्कत व्याख्या - रश्मिषु प्रग्रहेषु मुक्तेषु शिथिलीकृतेषु नितराम् जायत ate fregate yearय शरीरासमा येषाले निरायतदूवकाया सुविस्तृत- शरीराग्रभागा, निष्कम्पा निश्चला नामराणाम् चनरमगपुच्छनिमिताना शोभार्थ मस्तके बद्धाना शिरोभूषणानाम् शिला अग्रभागा येषा ते निष्कम्पचामरशिला निभृतो निश्चली की कमी यपाते निभतोध्यकर्णा, आत्मना जब उत्थापित आत्मोद्धर्त स्वरोत्यापित अपि रजोभिधूलिभि अलह पनीया अनति- श्रमणीया अस्पृष्टा इत्यथ अभी पुरावश्यमाना रध्या रथवाहिद अश्वा मृगस्य अवस्य वेगस्य अक्षमा असहिष्णुता, तया मृगजवाक्षममा इव धावति वेगेन गच्छन्ति ।

राजा-सत्यम्, अतीत्य हरितो हरीश्च वर्तन्ते वाजिन । तथा हि-

संस्कृत सरलार्थ समतल भूप्रदेश मासाद्य अतिवेगेन धावतोऽश्वान् दशयन् सूत राजान कथयति, आयुष्मन् प्रहेषु शिथिलीकृतेषु रथवाहिन एतेऽश्वा मृगवेगासहिष्णुत वधावन्ति, सवेग घावनकाले अस्वानामेतेषा शरीराग्रभागा सुविस्तृता अवलोक्यन्ते, एतेषा मस्तकेष्वावद्धाना चामराणा मप्रमागा निश्चला सन्ति, कर्णावप्येतेषा निश्वतो वेगेन धावन्त एते स्वरोत्यापित रपि धूलिभिरस्पृष्टा सन्ति ।

उद्घातिनी भूमि त्वं हन्तु शीत मस्या इत्यर्थे उद् + न् + विनि+ की— उद्घातिनी अथवा उद्धाता सन्ति अस्यामिति उद्घातिनी मत्वर्थक इनि उ सावट, ऊँची-नीची भूमि, जिस पर दौडने से ठोकर खाकर गिरने की सम्भावना हो, सारथि ने भूमि को उद्घातिनी देखकर ही अश्वो को लगाम खीच कर दौडने से रोक दिया था, उसे डर था कि कही घोडे ठोकर खाकर गिर न पडे रश्मिसयममात्- रश्मीनाम् अश्वप्रग्रहाणा समन शिथिलीकरणम् तस्मात् सम्बम् + ल्युट अमन्द मन्द कृत इत्यर्थच्च प्रत्यय । विप्रकृष्टान्तरविप्रकृष्टम् अतिदूरम् अन्तर यस्य स । सतसम्वृद्+ समवेशवर्तिन समदेशे साधु वर्तते तस्य, समदेश+ वृत + णिनि दुरासद दुखने आसाचते प्राप्यते दुरासद, दु+ आ+सद् + ल् प्रत्यय खलप्रत्ययान्त दूरासद योगे, न सोति निषेधात् समदेश तिनस्ते, इत्यत्र न कतरि षष्ठी, अपितु शेषे षष्ठी अभीषण 'अभीषु प्रहे rent' इत्यमर। मुच्यन्ताम- मुच कर्माणि तोट् निरूप्यनि+रूप+ णि+ क्त्वा ल्यप् । सामान्यत इसका अथ देखकर होता है, पर नाटको मे प्रयुक्त इस शब्द का अर्थ 'afer कर के होता है, इसी प्रकार 'रूपयति' का अर्थ भी अभिनय करना होता है गया शृद् गारलज्जा रूपयति, भ्रमरवाया रूपमति आदि रूप धातु से ही रूपक बनता है जत रूपयति का अर्थ 'अभिनय करता है' होता है, अतएव यहाँ रथवेग निरूप्य का अथ 'रथ के वेग का अभिनय करके' है। मुक्षु मुश्त नियतपूर्वकाया - नितराम् आयता पूर्वकाया येवान्ते । निर् + आ + यम् + क्त निष्कम्पचामरशिक्षा शिक्षा का अर्थ यहाँ प्रभाग है, चाम के अग्रभाग free मे निमृतोध्यकर्णानिभूत शान्त निश्चल एव कम्वखडे हुये कानो वाले रथयार बहन्ति रचयत्। जहाँ रष्या यह आकारान्त शब्द है वहाँ इसका अथ माग या रास्ता है। - =
राजा- ठीक है (ये मेरे घोडे (वेग में सूप के और इन्द्र के बच्चो को भी अतिक्रमण कर रहे हैं। क्योंकि-
दालोके सूक्ष्म व्रजति सहसा तद् विपुलता, वि भवति कृतसन्धानमिव तत् । प्रकृत्या यद् वक्र तदपि समरेख नयनयो-

मैं मे दूरे किचित् क्षणमपि न पाश्वरथजवात् ॥ सूत पश्यन व्यापाद्यमानम् । (इति शरसन्धान नाटयति)
यदिति [अन्य] रथजवात् यद् आलोके सूक्ष्मम् तत् सहसा विपुलताम् व्रजति यत् अर्धे विच्छिन्नम् तत कृतसन्धानम् इव भवति । यत् प्रकृत्या वकम् तत् अपि नयनयो समरेखम् (भवति) क्षणम् अपि चित् न मे दूरे न पाखें (तिष्ठति ) ।

शब्दार्थ - रजबाद रथ के वेग के कारण यत् जो वस्तु बालोदेखने मे, सूक्ष्मम् = छोटी सी ( दिखाई पडती है) तत् वह वस्तु, सहसा एकाएक, विपुलता प्रजति = विशालता को प्राप्त हो जाती है। मदजो वस्तु, अविच्छिन्नम्बीच से कटी हुई या टूटी हुई सी जान पडती है) तद्वह कृतसन्धानम्जोर वी गई सी, भवति हो जाती है। यदजो वस्तु प्रकृत्या स्वभाव से ही वत्रम् टेडी (होती है) तत् अपि वह भी नयनयो आखो के लिये, समरेखम् सीधी सी ( हो जाती है) क्षणम अपि क्षणभर भी किञ्चित् कोई वस्तु न मे दूरे न पा (तिष्ठति न मुझ से दूर ही बार न पास हो (उदरती है)।

अनुवादके वेग के कारण को वस्तु देखने मे छोटी सी ( दिखलाई पड़ती है) वह अकस्मात् ही विशालता को प्राप्त हो जाती है। जो वस्तु बीच से कटी हुई या टूटी हुई सी (जान पड़ती है) वह जोड़ दी गई सी (हो जाती है) जो वस्तु स्वभावत ही टेढी (होती है) वह भी आंखो के लिये सीधी सी (हो जाती है) क्षणभर भी कोई वस्तु न मुझ से दूर ही और न पास ही (उहरती है)

भावाथ रथ के वेग के कारण अतिशीघ्र होने वाली वस्तुगत परिवर्तनों की प्रतीति को बतलाता हुआ राजा, सूत से कहता है कि रथवेग के कारण दूर से देखने पर जो वस्तु पहले छोटी सी दिखलाई पडती है वह (शीघ्र ही रथ के पास जा जाने से) बडी प्रतीत होने लगती है जो वस्तु पहले बीच से कटी हुई या टूटी हुई सी लगती है वही तुरन्त ऐसी हो जाती है कि मानो उसे किसी ने जोड दिया हो, इसी प्रकार दूर से जो वस्तु स्वभावत देवी लगती है वही तुरन्त नेत्रो के सामने सीधी सी प्रतीत होने लगती है। इस प्रकार क्षणभर के लिये भी कोई वस्तु न तो मुझ से दूर ही रहती है और न पास ही इस सब कारण रथ का वेग ही है।

विशेष प्रस्तुत श्लोक मे सर्वत्र स्वभावोति मलकार है, प्रथम पाद में विरोधाभास अलकार है क्योकि सूक्ष्म वस्तु तुरन्त ही विशाल हो जाती है। दूसर चरण में इस के प्रयोग से बाच्योत्प्रेक्षा और तीसरे चरण मे इव का प्रयोग न होने से गम्योत्प्रेक्षालकार है, चतुथ पाद में यथासत्य अलकार है। रजवार मे हेतु अलकार है, छेक, बत्ति, अनुप्रास शिखरिणी नामक छ है "रसेा यमनलागा शिखरिणी" अर्थात् जिस छन्द के चारों चरणो मे कम गण, गण, नगण, संगण भगण, एक लघु तथा दूसरा वण गुरु हो इस प्रकार जिसमे १७ वण हो और ६ तथा ११ पर यति हो वह शिखरिणी छन्द होता है
संस्कृत व्याख्या— रथजवात् रथवेगात् यद्यद् वस्तु आलोके दुरा दर्शन इत्यय सूक्ष्मम्तनुतर दृश्यते इत्यय तत्तदेव वस्तु, सहसा द्वागेष यकस्मादेव, विपुलतामविस्तीणताम व्रजति प्राप्नोति । यत्य वस्तू, अविछिनम् = अभागे त्रुटितम (वृक्षपक्ति भूतलादिक वा) तत्तद्वस्तु कृतसन्धानमिव अग्भूतम् समिलित अविभक्तम् इव भवति जायते यद्यद् वस्तु, प्रकृत्या स्वभावेन वक्रम कुटिलम (अस्ति तदपि तदपि वस्तु नयनयो नेत्रयो समा रेखा यस्य तद्-समरेखम सरलम अकुटिलम् इव प्रतीयते । क्षण मपि क्षणमात्र मपि किञ्चित् किञ्चिदपि वस्तु न मे दूरेन मत्त दूरे तिष्ठति न पापनापि मम समीपे तिष्ठति ।
मस्कृत सरलाथ राजा सूत कथयति वेगवशात् मत्किमपि वस्तु दूरत दशने तनुतर दृश्यते तदेव वस्तु द्रागेव विशालतामधिगच्छति, पदार्धे त्रुटितमिव प्रथम प्रतीयते तत् सहसँग अपृथग्भूतमिव जायते स्वभावेनैव यत् व मस्ति तदेव नयनयो सरल प्रतीयते, एवं रथवेगवशात क्षणमात्र मपि तकिमपि वस्तु मत्तो दूरे तिष्ठति नापि मम पार्श्वे एव तिष्ठति ।
अतीत्य अति + इण गतौ पत्वा रूपप "ह्रस्वस्य पिति कृति तुमिति दुगागम । हरित हच धातु से उणादि प्रत्यय निष्पन्न हरित शब्द का अर्थ तुम के अश्व और हरि का अर्थ इन्द्र के अश्व है, अतएव सूप को हरिदश्व और इन्द्र को हरिह कहा जाता है कग्वेद में प्रयुक्त यही अर्थ लिया गया ? निरुक्त से भी ऐसा ही प्रमाणित होता है हर और हार अग्णिाली पद है, तथापिप्यत के ये अश्व इनका भो अतिश्रमण कर रहे थे वाजिन बाजा देगवा स्तीति वाजी वा विच्छिन्नमाया मिति लम कृतधानम कृतधान यस्य स धाट प्रकत्या अपत्याउप सख्यानम् इति ततीया मेरातिकार्य इति पाली, रथजवात अत्र मी इस सम्पूर्ण श्लोक मे रम की विशेष तीव्रता का और उससे होने वाली प्रतीति का 1
(नेपथ्ये)
भो भो राजन्, आश्रममृगोऽय न हन्तव्यो न हन्तव्य । सूत - ( आकर्ष्यावलोक्य च ) आयुष्मन् अस्य खलु ते वाणपथ- are कृष्णसारस्यान्तरे तपस्थिन उपस्थिता ।
राजा (ससभ्रमम्) तेन हि प्रगृह्यन्ता वाजिन ।
सूत तथा (इति रच स्थापयति)
(तत प्रविशत्यात्मनातूतीयो वैखानस )
. वैखानस - (हस्तमुद्यम्य) राजन्, आश्रममृगोऽय न हन्तव्यो न हन्तव्य । साधुकृतसन्धान प्रतिसहर सायकम् । आर्तत्राणाय व शस्त्र न प्रहतुं मनागसि ॥ १०
वमन है, वायुयान वा रेल से यात्रा करने वाले लोगों को इसका प्रत्यक्ष अनुभव होगा। छत इति - सारथि 1 अब इसे मारे जाते हुये मृग को देखो (वाण चढाने का अभिनय करता है।)
(नेपथ्य में)
हे राजन् यह आश्रम का मृग है, इसे नही मारना चाहिए, नही मारना चाहिए
सूत - ( सुनकर और देखकर) आयुष्मन, वाण के पहुँचने के माग के बीच वर्तमान इस मृग के और आपके बीच तपस्वी उपस्थित हो गये हैं।
राजा - (घवराहट के साथ) तो घोड़ो की लगाम रोकिये। सूत - अच्छा, ऐसा हो (यह कहकर रम को रोक लेता है । (तदन्तर दो अन्य ऋषियों के साथ वैखानस का प्रवेश)
वैखानस राजन्, यह आश्रम का मृग है, इसे न मारना चाहिए, न मारना
चाहिए।
सदिति-अन्वय तत् साधुकृतसन्धानम् सायकम् प्रतिसहर व शस्त्रम् आतंत्रणा, अनागसि प्रहर्तु न
सार्थ तद् तो इस कारण, साधकृतसन्धानम् जिसको अच्छी प्रकार धनुष पर चढ़ा लिया गया है सायकम् (ऐसे इस ) वाण को प्रतिसहर उतार लीजिये । [व] शस्त्रम् आपका शस्त्र, आतंत्राणाय दुखितो की रक्षा के लिये, अनागसि निरपराधी पर प्रहार करने के लिए नहीं (है)।
अनुवाद- तो इसलिये, जिसे भली-भाँति धनुष पर चढ़ा लिया गया है (ऐसे इस) वाण को उतार लीजिये (क्योंकि) आपका शस्त्र, वृतिजनो की रक्षा के लिए ( है ) निरपराधी जीव पर प्रहार करने के लिए नहीं है
भावाय वैखानस राजा से कहता है कि जिस वाण को आपने अच्छी तरह अपने धनुष पर चढ़ा लिया है, इसे अब उतार लीजिए, क्योकि आपका शस्त्र तो पीडित जनो की रक्षा करने के लिए है, न कि मृग जैसे निरपराधी जीव पर बहारण प्रहार करने के लिए है। यह तो आश्रम मृग होने से सबधा निरपराधी जीव है, इस पर वाण चलाना उचित नही।
विशेष प्रस्तुत श्लोक के पूर्वाध वाक्य के प्रति उत्तराधगत दो वाक्य कारण हैं अता काव्यलि व अलकार है। कुछ आचार्यों ने यहाँ वाक्य का उत्तराध वाक्यद्वय से समयन बतलाकर अर्थान्तरन्यास बलकार भी माना है, छे, श्रुति, अनुप्रास। अनुष्टुप् नामक छन्द है ।
संस्कृत व्याख्यातत्तस्मात कारणात् साधु सम्यकृतया कृत विहितम् सन्धान धनुष्यारोपण यस्य तम् साधुसन्धानम्, सायकमवाणम् प्रतिसहर प्रस्यावत, धनुष उत्ताय तूणीर प्रापयेत्वथ द युष्मादृशाना पुरुषमोद्भवाना राज्ञाम्, मस्त्रम् वाणादिकम् आर्तानां त्राण तस्मै आत जाणाय दुखपरितप्तजनाना रानाम (जस्त) निरास निरपराधिनि जीवे तुम्हाराय न नास्ति ।
संस्कृत सरलार्थ वैखानस राजान कथयति अयमाधममृगोऽस्ति अतस्त्वया नाय इन्तब्य अस्मात कारणात् सम्यस्तथा धनुष्यारोपितोऽय वाणस्त्वया प्रत्यावर्तनीय, तोहि युयादुशाना पुरवणोदभवाना राजा शस्त्र दुखपीडित जनरक्षक मस्ति, नाग निरपराधिनि मृगसदृशे जीवे त्वया प्रहारकरणमुचितम् ।
टिप्पणी
नेपथ्ये नेपथ्य का अथ मुख्य पर्दा होता है, इस पर्दे के पीछे से जो बात कही जाती है, उसकी सूचना नेपथ्ये अर्थात् पर्व मे दी जाती है, कुछ ऐसी बातें होती हैं जिनकी सूचना नाटक मे पर्दे के पीछे से ही दी जाती है। यहाँ इस प्रासंगिक बात की सूचना पर्दे की आज से दी जा रही है, बत यहाँ यह अन्तरसन्धि है, जैसी कि मातृ- गुप्ताचाय की मान्यता है "अप्रविष्ट एवं यज्जवनिकान्तरे पति तन्नेपथ्य हरपुष्यते" नेपथ्य की उक्ति ही अतर कही जाती हूँ "स्वप्नो तरच लेवरच नेपयोक्तिस्त- ये । आकासवचन चेति ज्ञेयान्तरन्यय" राजनाट्यशास्त्र के अनुसार ऋषिजन राजा को 'राजन' कहकर सम्बोधित करते हैं राधिविधि" । पाणयति अन्यत्र वागपातवर्तिन भी पाठ है पर अब मे विशेष अन्तर नहीं है, Shreee पत्या [arete अत्र ऋक्पूरन्यू इति समासान्त अ प्रत्यय टिलोपन्न तस्मिन् वर्तते इति वाणपचवर्ती तस्य आत्माती अत्र पूरण इति वक्तव्यम् से तृतीया का लुक है। इसका जय है स्वयं तीसरा अर्थात् दो अन्य और तीसरा यह बत
राजा - एष प्रतिसहृत (इति यथोक्तं करोति ।) वैखानस - सबुशमेतद् पुरुवशप्रदीपस्य भवत । यस्य पुरोष मुक्ततपमिव सब। पुत्रमेवगुणोपेत चक्रवर्तनमा ॥
वात्मना तृतीय का अर्थ है दो अन्य तपस्वियों के साथ तीसरा तपस्वी, वैखानस - विखनस मुनिनिर्दिष्ट माग का अनुयायी वैज्ञानस कहा जाता है। विखनस अय वैखानस कुछ आचाय ब्रह्म का ही दूसरा नाम विजन मानते है अत ब्रह्ममानुयायी are ही वैखानस कहे जाते हैं, ये प्राय वनवासी वानप्रस्थापमी होते हैं "ज्ञान बनवासी मानप्रस्थश्न तापस" उद्यम्य उठाकर उत्+यम्+ स्पा सन्धानम्यहाँ साधु शब्द को अलग भी किया विशेषण माना जा सकता है, और समासगत एक पद भी यहाँ धान का अर्थ बाण का धनुष पर चढ़ाना है। तंत्रानाय चतुर्थी यहाँ पुरुवशी राजा दुष्यन्त के प्रति आदरा बहुवचन है। अनागसि आग अपराध अनागस् — निरपराध ।
राजा यह (बाण) उतार लिया (यह कहकर वैसा ही करता है।
ज्ञान के प्रदीप आपके लिये यह अति उचित है।
अमेति-अवयवस्य पुरी बसे जन्म तब इवम् युक्तरूपम्, एवं गुणोपेतम्
तिनम् पुत्रम् आप्नुहि ।
सदाचयस्य पुरो बसे जन्म जिस आपका पुरु के बस में जन्म हुआ है) ऐसे आपके लिये यह करना अर्थात् मेरे कहने के अनुसार बाण उतार लेना, सब युक्तरूपम् = आपके लिये अत्यन्त उचित (है) एवं गुणोपेतम् ऐसे ही गुणो से विशिष्ट चक्रवर्तिनम् पुत्र भवर्ती पुत्र को सामुहिक प्राप्त करो। अनुवाद आपका पुरु के बस मे जन्म हुआ है, ऐसे आपके लिये यह काम
स्पन्त उचित है, (फलत आप ऐसे ही गुणों से विशिष्ट चवर्ती पुत्र को प्राप्त करें। भावाथ अपने कथनानुसार ही जब राजा ने बाल उतार लिया तब वैखानस राजा को आशीर्वाद देता हुआ कहता है कि आप पुरुषन में उत्पन्न हुये है बत आपके लिये ऋषियों के वचनों के अनुसार काम करना उचित ही है. फलत आप अब इसी प्रकार के सद्गुणों से युक्त चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त करें।
विशेष प्रस्तुत पद्म मे युक्त रूप पदार्थ के प्रति पुरु के पक्ष में जन्म रूप कारण अत काम्यलिङ्ग अलकार है। अनुष्टुप् नामक छन्द है।
संस्कृत व्याख्या यस्य यस्य तब, पुरो पुस्तामकस्य राश ब जन्म सम्भूति ( अस्ति) तप तस्य तब दुष्यन्तस्य इदम् मुनिवचनपालनरूप कर्म युक्तरूपम् = अतिशयेन योग्यम् (अस्ति) एव गुणोपेतम् एतादुक्तम् चक्रवर्तिनम् = म पुत्र सुतम् आप्नुहि समस्य
समाज्ञानस कथयति राजन् यद् भवता निवा
इतरौ (बाहू उद्यम्य सर्वथा चक्रवर्तिन पुत्रमाप्नुहि । राजा - ( सप्रणामम् ) प्रतिगृहीतम् । वैखानस राजन् समिदाहरणाय प्रस्थिता वयम् एष खलु कण्वस्य
कृतम एतद भवत कम पुरुवसोवस्य तब राम अयोग्य मस्ति, फलती भवान् एतावति पुत्रमाप्नोतु ।
एका तुरन्त है के प्रति आदर भाव दर्शनार्थ इसका यहाँ प्रयोग किया गया है, ऋषि के कहने पर राजा ने तुरन्त शाम उतार लिया था। पुरुषप्रदीपस्य पूरो वा तस्य प्रदीप तस्य पुत्र नामक राजा के बम को प्रकाशित करने वाले प्राचीनकाल में प्रसिद्ध दो ही राज और (सूर्य) वाकु नामक राजा सूद के प्रत इनके ही मे कल्स, दिलीप, रम, राम आदि राजा हुये थे किन्तु पुरु और दुष्यन्त आदि राजा चन्द्रवण मे उत्पन्न हुये थे। यदि मुनि के पुष सोम नामक राजा द्रवा के प्रवर्तक थे, इसी से आयु और पति आदि राजा हुये थे इन याति के पाँच पुत्र थे, इनमें से पुर और यदु नामक पुत्री ने दो नये व की स्थापना की थी—पुर के मेलिष्यन्त और भरत राजा हुये भरतपुर से बी पौड़ी में ये ये इससे ज्ञात होता है कि पुरुष परम्परा बहुत बडी थीम से ही बना है, कृष्णदेवरात बसु बलराम कृष्ण आदि उपमेये वश की प्रसिद्धि का कारण पुरु पितृमति थी अपने पिता पपाति की वृद्धता को पुरा ने अपने ऊपर से लिया था और वे युवा होकर भी युद्ध हो गये थे, राजा ययाति की दो रानियाँ थी शर्मिष्ठा और देवयानी राजा निष्ठा को अधिकता था इस पर होकर पिता शुकाषाय ने राजा को वह हो जाने का शाप दिया था। बुद्धता को उनके पुत्र पुर द्वारा के लिये जाने पर ययाति पुन युवक हो गया था, इससे प्रसन्न होकर बयातिने पुन अपने पुत्र की युवक बना दिया था। पुरुषम्- अतिशयेन युक्तमित्यर्थं प्रणाया रूप इति रूपम् प्रत्यय एवगुणोपेतम् एवं गुणा एक गुणा कमचार उपेत (उप) के वर्तितु समस्येति चत्रवर्ती] निपुत्रम् पुन्नाम्नो सरका यहाँ धरत की उत्पत्ति की और विकास है आहिस दोनों (माओ को उठाकर सब प्रकार से पुत्र प्राप्त
करो।
राधा (प्रणामपूर्वक स्वीकार किया। ज्ञानराजन हम लोग समिधा (हवन के लिए कवियाँ) लेने के लिए जा रहे हैं। सामने माशिनी नदी के किनारे कुलपति कन्द का नाम दिलाई
कुलपतेरनुमानिनीतीरमाश्रमो दृश्यते । न चेदन्यकार्यातिपात प्रविश्य प्रतिगृह्यतामातिपेय सत्कार अपि च- उम्यास्तपोधनानाप्रतिहतविघ्ना क्रिया समवलोक्य । refer traf बहिणादक इति ॥ १
: प रहा है, तो पदको अन्याय न हो तो वहाँ प्रवेश करके अतिथि- जनोचित सत्कार ग्रहण कीजिए और भी
रम्याइतिप्रतिहता रम्यायाम,  मे कियत रक्षति इति (स्वम्) |
साधनानाम् उत्कृष्ट तपस्वियों की प्रतिदिन से रहित, अतएव रम्या मनोरम, क्रिया यज्ञानुष्ठानादिको राम देखकर, मौका के आपात के चिन्हो से मेरी भुजा किरति कितनी रक्षा करती है, इति ज्ञास्यसि यह भी जान लोगे।
अनुवाद तपस्वियों की जिनके सभी विघ्न दूर कर दिये गये हैं, अतएव मनोहर सुख शानुष्ठानादि क्रियाओ को देखकर प्रत्यया के मया चिन्ही से अकूत मेरी भुजा कितनी रक्षा करती है, यह भी होगा-
पावार्थ-से कहता है कि काम में प्रवेश कर आपको सत्कार तो प्राप्त होगा ही किन्तु वहाँ जाकर उत्कृष्ट तपस्वियों के निर्विघ्न एव पूर्वपचने वाले यज्ञानुष्ठान को देखकर आप यह भी जान सकेंगे कि प्रत्यया के आपात के पिसे सुशोभित मेरी भुवा इन यज्ञादि क्रियाओं की कहाँ तक रक्षा करती है।
विशेष लाने में दोनो जायें काम बाती है फिर कवि इस एकवचन का प्रयोग कर यह किया है कि रावा "स्वगुप्ता हि मनो प्रति" इस कथन के अनुसार, अकेला ही सभी को दूर करने में समय था। किया इस महुवचननिर्देश से न केवल यज्ञानुष्ठान ही अपनाना चिन्तन, देवपूजन अतिथि सत्कार, वन्यपशुतरक्षण आदि सभी का ग्रहण है ये ser परिगणित की गई है निष्कृति निशापूजन साधारण उपाय कम चेष्टाचचिकित्साचन क्रियायास्यति" कवि का आशय है कि सुमकर ही नही अपितु स्वयं ही भजी-भाँति अपनी आँखों से देखकर अपने नाम के सरक्षण के विषय में वस्तुस्थितिको जिसका सम्म अद्यावधि बापको पता नहीं है। "तपोधनाना" से कवि ने तपत्य तपस्वियों का अन्य विषयनिरपेक्षत्व है और पद से राजा का नारायण होना तथा मीर होना धोति किया है. इस प्रकार इस पद के प्राय सभी विशेषण साभिप्राय है और इनके प्रकृतोपयोगी होने से यहाँ परिसर अलकार है।
में पुनचक्तयामास असकार है क्योंकि और का अर्थ प्राय समान ही प्रती होता है।ति, यति, अनुप्रास और बार्या जाति छन्द है।
तयाच्या तपोधनानामु उत्कृष्टतापसानाम् प्रतिहता ता  राक्षसानुष्ठानमाधायासाता प्रतिद्धनिष्ना सर्वविघ्नविरहिता (a) रम्मादेदविहिताभरमेन रमणीया, किया यज्ञादिकरण्या समय यथावत् तिरीय मय ज्यादा कि चिह्न तदेव भूषण यस्य मौर्वीका कप्रत्ययातिम दुष्यन्तस्यभुम बायतु कियद परिमाणम्, रक्षति वनाथमकिपासरक्षण करोति इति हास्यसि तज्ञान सम्यसे ।
सरसरनार्थ वैखानस राजान व्यवति राजन् कामन केवल माय भवान् अपि तु तापसाना तथा निष्ना वेदविहितविष्यनुरूप यमाणामानुष्ठानादिक्रिया स्वयमेव यथावन्निरीक्ष्य व्यापातचिह्नभूषितो में भुज परिमाण वा बाणा सरक्षण करोतीत्य सभ्य शास्यति ।
तथैव स्वीकरोमि समिदाहरणाथ समिधा माहरणावमिष्यते वाणिरिति समि- इन्दवारहरण आहरणायेत्यच किमापपदस्येति चतुर्थी अनुमानिनीतीरमालिनी नदी के किनारे-किनारे, मानिनीतीरस्य मनु- सप्तम्यर्थे या  दूसरा नाम मन्दाकिनी भी है, कोटद्वार के पास बहने वाली यह की ही एक सहायक नदी मानी जाती है। कुलपतीमा दमसाल योज्यानाविशेषणात अध्यापयति विप्रषि रही पति स्मृ" पण कुलपति का लक्षण कुछ मित्र प्रकार से बतलाया में गया है "चाय बहुरियाणा मुनीनामग्रणी वादियस कुलपति स्मृत प्रथम मे तो कुलपति के अपने कामों का निर्देश है पर द्वितीय के कुलपति के अपने गुण एवं नियमो पर ही बल दिया गया है। महर्षि कण में ये सभी बातें देखी बाती है, ये दस छात्रो के अध्यापक, मादि से पासोषण करने शादिकर्म करने वाले भी थे। मौर्योकियाक प्राचीन काल में पूर्ण नामक बास से धनुष की डोरी बनाई जाती थी, क्षत्रिय सूर्या की मेखला भी पहनते थे, यह मूर्ती और स्थायी होती थी, अतएव धनु की डोरी को मौका जाता था रासादिकृत विषयों को दूर करने के लिये तथा गुद्धादि में बार-बार माँ से राजा के व्यापात का चिह्न वह गया था जो कि वस्तुत उसकी वीरता का द्योतक रहने से उसका माभूवण ही था। पूवा विकार मौर्वी पूर्वा+ [+] [त्या] तस्या किग मापातहि स एव भूषण यस्य स के प्रयोग से राजा का महाप्रतापी होना योतित होता है अतएव यहाँ त नायक ग्रन्थों मे २६ भूषण का एवं ३२ नाट्यासकारों का परिवलन
राजा अपि सन्निहितोऽज कुलपति ? वैखानसानीमेव दुहितर शकुन्तलामतिथिसत्काराय नियुज्य वैवस्था प्रतिकूल शमयित सोमतीर्थ गत
राजा भवतु सामेव प्रक्ष्यामि । सा तु नितिन मां मह रूपयिष्यति ।
बैखानस सापयामस्तावद (इति सशिष्यो निष्कान्त ।) राजा मूत नोपाध्या पुण्याश्रमदर्शनेन तावदात्मान पुनीमहे । सूत - यदाज्ञापयत्यायुष्मान् इति भूयो रथवेग रूपयति ।) राजा (समन्ताववलोक्य) सूत अकथितोऽपि ज्ञात एवायमा 1
भोषस्तपोवनस्येति ।
तकभि ?
किया गया है, प्रस्तुत नाटक में इनमें से कुछ का प्रयोग  है,  निर्देश यथास्थान किया गया है मामायमिवनाथ ने शप्ति का नजण "शन्ति केचिदशेन feet" या अन्यायात अभ्यस्मिन् कार्ये अतिपात अन्य कार्य मे विमम्य मातिथेय विद्यतिथि यस्य अतिथि - अति गच्छति इति अतिथि म धातु उणादि दपि प्रत्यय करके यह बनता है। अतिषिषु साधु इस वर्ष मे अतिशयात् परयतिथिवसति इत्यादि से जू प्रत्यय वद्धि को एवं आदेश करके आतिथेय अतिथिवोचित नन्द बनता है। सत्कार-सत्++ बादरायस के साथ गतिसमास होकर सरकार बना हैसेकर कार तक उल्लेख गमन पालकार है उल्लेख कार्य जहाँ काय का निर्देश किया जाता है वहाँ यह बलकार होता है रम्या- रातो पोपधात् त् ा विनाविप्रतिप्रति+द्+ एक नए पानी
रावा-क्या कुलपति मद कायम मे वर्तमान है?
arre अभी ही अपनी पुत्र को अतिथि सत्कार के लिए नियुक्त कर उसके प्रतिकूल भाग्य को करने के लिए सोमतीय को गये हैं।
रामाच्छा तो मैं उसी के दर्शन का यह कय के प्रति मेरी भक्तिको बनकर महर्षि को बता देवी
ज्ञानसमा तो हम चलते हैं यह कहकर शिष्यों के साथ प्रस्थान ) राजा बोडो को को पवित्र आश्रम के दर्शन से अपने को पवित्र करें। जो बाकी माता (यह पुन वेग र के होने का अभिनय करता है।
राजाबरोबर देखकर सारथि, बिना बताये ही हो रहा है यह तपोवन के की सीमा है।
: राजन पश्यति भवान्। इह हि वारा शुकगर्भकोटरमुखास्तरणामध प्रस्निग्धा चिविङ्ग बीफलभिद सूच्यन्त एवोपता । विश्वसोपगमादभगत शब्द सहन्ते मृगा- स्तोयापारपयाश्च बल्फल शिखानिष्यन्यरेखाङ्किता ४१३॥
राजाच्या काप नहीं देखते हैं? कि यहाँ पर नीवारा-इति अन्यतस्याम् [य] [गमकोटरा नीवारा (a- लोक्यन्ते) व गुदीफल (अ) प्रउिता सूप एवं विश्वासमा अभय मृगा मन्दम् हते  [] [शिया- निष्यन्द रेखाहिता (दृश्यन्ते
शब्दार्थताम् अधयक्ष के मो शुरुगर्भकोटमुखभ्रष्टतोतो से युक्त कोटरोपी के अभाव से गिरे हुये नवारा व गुणधान्य, (विलाई प रहे है। यहाँ पर रदीफलभिदगुदी के फलों को तोड़ने वाले (अव) विशेष रूप से चिकने, उपतापत्रयन्ते एवं दिखाई विशेष पब हो रहे है। ोपगमात् विस्वास प्राप्त होने के कारण, अभि चाल को बदलने वाले गति से चलने वाले, मृगा हरिण, शब्द सहरी ध्वनि को रह रहे हैं अर्थात् वनि से विचलित नहीं होते हैं। साधारथा और सरोवरों के मार्ग बनानिष्यन्दनादि कला के से हुए जल रेखाओं (दाई पहते हैं
अनुवादके नीचे होतो से युक्त फोटो पोलो के अभाव से गिरे हुए वन्यधन्दा पर रहे है) कही, मुदी के फनी को होने वाले अ एवं विशेष रूप से चिकने पत्थर दिखाई पर हो रहे है वास प्राप्त होने के कारण अपनी बाल को न बदलने वाले (को) को सह रहे हैं सरोवरो के माल के प्रभाग से टपकने वाले की रेखाओं से चिह्नित दिखाई ते है
वारद्वारा यह पूछने पर कि आपको यह कैसे पता लगा कि यह की सीमा है राजा कहता है कि या बाप आश्रम के इन चिन्हो को यहाँ पर नहीं देख रहे है, देखिये -
दक्ष के नीचे, उन पोलो के अग्रभाग से जिनके भीतर सोते रहते हैं, गिरे हुए नीदार व जान हुए होते बचने बच्ची को बिमाने के लिए जो यारो मे लेते है उनमें से कुछ नो के नीचे गिर पडते है जिनके ऊपर होती के घोसले बने हुए है जा के जनगतों में बिना बोदे हुए जो धान उत्पन्न होते हैं और अतिपवित्र समझकर मुनिजन खाते है नीवार कहे जाते हैं, नीरो मे ही पाये

ते नहीं माधम होने का दूसरा लक्षण यह है कि यहाँ कुछ विशेष रूप से चिकने पत्थर हुए हैं. इन पत्थरों से ही मुनिजन द वीके की तोडकर तेल निकालते है, इगुरी वृक्ष भीम में ही पाये जाते हैं। इनके से निकलने वाले काही प्रयोग करते हैं। कही कही गुदी भी कहा जाता है के हरिणो को यह विश्वास रहता है कि हमें कोई मार नहीं सकता है अंत से यह शान्तभाव से करते रहते है, राजा कहता है कि विश्वास के कारण आग के मेरे की आवाज सुनकर भी अपनी उसी गति से चल रहे हैं। मत्य सरोवरो मे ऋषिजन स्नान करते हैं और गीले हो यस्को को पहने हुए अपनी-अपनी कुटियों को लौटते है, बकलो के गीले होने के कारण उनके छोरों से टपकने वाले जल की रेखाओं से ये समरी के माप मो चिह्नित हो ये है इन उपष्ट है कि यह आश्रम की सीमा है।
विशेष प्रस्तुत पद्य में काव्य स्वभावाति ति अनुप्रास और सावित नामक छन्द है, इसका लक्षण है सूर्यास्वं मसनात ता गुरव माविति" अर्थात् जिस छन्द के भारी चरण में गगण सगण, जग, समण, समग, तगण और गुरु दर्गी के रूम से १६ वर्ष हो १२ एवं ७ पर यति हो माल विक्रीडित छन्द होता है-
संस्कृत व्याख्या (कुप्येकस्मिन् वनमा वृक्षाणाम वसेषु गुफा कीरा गये या तासाना कोटराणाम् वज्ञविवराणाम् प्राकटर नीवारानिधान्य (कुचित दर गुदीना तापसयचा चिन्तीति फरमेटा(अन) प्राण उसने एवं रथ- सून सूपते विश्वासस्य उपगम प्राप्तितावाद - मुनि सामान को हिस्यादिति नातामा अभिया यथा पूर्व मवस्थिता गतिसरा पतितपावसचारा मृगा हरिणा सदन सहते नितिन इत्ve तोयामा जागाम् आहारा तोयाद्वारा जलाशया रोषाचा मार्ग इति होमाधारमा सामनागमनमा वल्कलाना तत्व निमिनमुनिजन परिहास शिवाय अभाया जाता तेषा रेखा आता निशितानिष्यन्द रेखाङ्गिकता (एमय
सस्कृत सरलाय ते पुष्ट राजा कथयति पथ वृक्षाणामथ शुक
नीवारा अवलोक्यन्ते क्वचित् र गुदीपला मतएव विशेषेष स्निग्या भाता पाषाणा दुम एवं मुनिवात्सल्यान्धविश्वासा
अतएव परिपामृगा रथध्वनि पशुवन्ति तु नागमनमा कृतस्नानमुनिजनवत्कलाप्रमागम्य विन्दुनिपात रेखाभिहिता सन्ति एवं संयमाचा इति
सम्मिलि] समीपवर्ती-निशा ह रम्+इसका प्रयोग सूचित करता है कि महर्षि की अपनी पुत्री ही नहीं अपितु अपना जीवन सर्वस्व ही मानते थे, अन्य शिष्यों के रहते हुए भी उन्होंने अतिथि सत्कार का कार्य को ही था। अतिचित्काराय-मतिथीनाम् सत्कार तस्मै जिसके जाने की कोई निश्चित तिथि न हो तिथि कहलाता है, विद्यमाना तिथि यस्य स अतिथि प्रति निरन्तर गच्छति इति धातु से उपादि इनिप्रत्यय जो निरन्तर भ्रमण करता रहता है और स्मात् ही मति सत्कार के लिये कहीं भी पहुँच जाता है "यस्य न झाले नाम न च योजन व स्थिति का हमामाति सोऽतिथि कम्पते बुधै मनु ने इसका लक्षण इस प्रकार बतलाया है एक  स्थितो यस्मात् तस्मादतिथि रुष्पते । अतिथि और अभ्यागत करते हुए धमपुराण में कहा गया है तिथि पापा महात्मना सोऽतिथि सर्वभूताना शेवानभ्यागतान् विदु  (शम्+मिब्तुमुन् ) वस्तुत विकासद म दुर्गा शकुन्तला पर जाने वाली विपत्ति को पहले से जानते थे साथ ही उन्हें यह भी ज्ञान था कि उनके तब से यह विपति शान्त भी हो जायेगी [[]] [पन्त से कुछ काल तक परित्यक्त रहकर भी पुन उसका अपने पति से होगा, उसके इसकी कान्ति के लिये तपोनुष्ठान करने के लिए ये सोमतीर्थ गये थे। ती स्थानी मे किये गये तपोनुष्ठान का फल शीम मिलता है मतएव महर्षिसमती गये थे प्रसिद्ध प्रभासतीर्थ का ही दूसरा नाम सोती है जो कि काठियावाड में सोमनाथ के मन्दिर के पास एक तीर्थ है। इसके  मे एक पौराणिक कथा है कि एक बार दक्ष प्रजापति ने सोम (चन्द्रमा) की अ] रोगी होने का काम दिया था, सोने इस स्थान पर उप करके रोग से मुक्ति पाई थी। यह स्थान कण्वाश्रम से पर्याप्त दूरी पर था अतएव महर्षि को वहाँ से लौटने मे पर्याप्त समय लग गया था, इसी बीच पुष्यन्त मला मे गन्ध विवाह, गर्म स्थिति और गम का प्रौढ़ होना आदि कार्य सुचारू रूप से हो गये थे, कवि ने इन सब कार्यों को पूर्ण करने के लिए ही महर्षि को आश्रम से इतनी दूर मे   कार्यों को पूरा किया है।विदिता सूत - सर्वमुपपन्नम्।

भक्ति यस्य तम् विदिताभक्तिम् होना चाहिए या क्योकि प्रियादिगण मे भक्ति शब्द का पाठ न होने से यहाँ 'स्त्रियाँ पुग्द से पुवद्भाव न होगा किन्तु कालिदास ने अन्यत्र भी ऐसे प्रयोग किये हैं। अथवा सामान्ये नपुंसकम् नियम से विदित भक्ति यस्य यह विग्रह होगा।

"बस्था प्रतिकूल देव मममम्" वस्तुत यह कथानक का वाक्य है, वर्षात् इसी वाक्य से मुख्य कथानक की फल प्राप्ति का बीजारोपण होता है। प्रतिकूल देव से तात्पर्य है, दुर्वासा का साप और फलत दुष्यन्त द्वारा शकुन्तलाका प्रत्याख्यान, शमयितुम से शाप मान्ति की ओर संकेत है, मुद्रिका प्राप्ति से शापा- बान के फलस्वरूप दुष्यन्त द्वारा पुत्रवती शकुन्तला को राजधानी में लाना सूचित किया किया है।

"जन्म यस्य पुरो वंश" से लेकर 'तामेव द्रश्यामि तक नाटकीय गुल सन्धि का प्रथम उपक्षेप नामक अग्र प्रयुक्त हुआ है जिसका लक्षण है "काव्यस्पार्थं समुत्पत्ति पक्षेप इति स्मृत" यह वाक्य शाकुन्तल के कथानक का बीज है अत यहाँ बीज नामक अर्थ प्रकृति है, जैसा कि इसका लक्षण है- अल्प मात्र समुदिष्ट बहुधा य विसपति । फलस्य प्रथमो हेतु तदभिधीयते साधयाम" प्रायेण व्यन्तक साध मे स्थाने प्रयुज्यते" आचाय विश्वनाथ के इस कथन के अनुसार साधु धातु का का प्रयोग नाटको मे प्राय गम् धातु के अर्थ मे होता है, बत यहाँ साधयाम का अर्थ गच्छाम है। आभोग सीमा विस्तार।

नीवारा निपूर्वकात् बुधातो 'नो युधाम्बे' इति पनि उपसर्गस्य पि इति दीयॅ नीवार प्रस्निग्धा प्रस्निहरू प्रकर्षण धिचिकने । बीफलभिदइगुदीनाम फलानि भिन्दन्ति फल +भिद्+ क्विइगुदी को तापस तह भी कहा जाता है इसके फलो को तोड़कर तेल निकाला जाता था। विश्वासोपनमा विश्वासस्य उपगमस्तस्मात वि + + पत्र विश्वास उप+ गम + मथ् उपगम उपगम प्राप्ति मुनिजनों के वात्सल्य के विश्वास के कारण। भिन्नगतमभिन्ना गति येषान्ते भिविरत रदाभ्यामिति धातो दकारस्य प्रत्ययतकारस्य च नत्वे भिन्न, गम् + किन्गति । तोयाधारपणा सोयानामा- धारामा पन्यान इति तोयाधारपणा कपूर से समासान्त बप्रत्यय टिलोप होकर पचिन का पथ हो जाता है। बाधियन्ते एष इति बधारा आ + + षञ् । तोया- द्वारा जलाया। महकमेति वल्कलाना शिखाभ्य निष्यन्दा अलविन्दुपाता (नि+ स्यन्द+पत्र "अनुविपर्वभिम्य) से विकल्पत पत्याषा रेखाभि अकिता चिह्निता ।

सूत-यह सब ठीक है।

राजा - ( स्तोकमन्तरत्वा) तपोवननिवासिनामुपरोधो मा भूत् । एतावत्येव रथ स्वापय, यावदवतरामि ।

सूतधृता प्रग्रहा । अवतरत्वायुष्मान् ।

राजा - (अवतीर्य) सूत । विनीतवेषेण प्रवेष्टव्यानि तपोवनानि नाम । इद तावद् गृह्यताम् । ( इति सूतस्याभरणानि धनुश्चोपनीयार्पयति ), सूत । यावदाश्रमवासिन प्रत्यवेक्ष्याहमुपावर्ते तावदार्द्रपृष्ठा क्रियन्ता वाजिन । सूत तथा (इति निष्क्रान्त )

राजा - (परिक्रम्यावलोक्य च इदमाश्रमद्वारम् । यावत् प्रविशमि ।

(प्रविश्य निमित्त सूचयन)|

राजा - ( कुछ दूर जाकर ) तपोवनवासियों को हमारे इस प्रकार पहुँचने से ) कोई उपरोध ( बाधा, विघ्न, पोसा आदि) न हो, इसलिए यहाँ पर ही अर्थात् इतनी ही दूरी पर रथ रोक दो जब तक कि में उतरता हूँ।

मूल (मैंने लगाम रोक ली है। आयुष्मान आप उतरें। राजा - ( उतरकर ) सूत तपोवन मे विनम्र एवं सीधे सादे वेष से ही प्रवेश करना चाहिए तो तब तक तुम यह तो (यह कहकर सारथी को आभूषण और धनुष लेकर दे देता है) सूत जब तक मैं बाधमवासियों का दर्शन कर लौटता हूँ तब तक तुम पोटी को ठण्डा कर लो।

सूत ऐसा ही होगा (यह कहकर चला जाता है)

टिप्पणी

उपपन्नम् उप पद्+यह सब आपका कथन ठीक है तपोधननिया- सिनाम्पस वन तस्मिन् निवस्तु फीलमेषा ते तेषाम् सपोवन+नि+बस् धातो सुप्पजाती० इति ताच्छील्या णिनि । उप-रुप उपरोधकावट विघ्न बाधा या पीटा मा भूत यहाँ मासेमा के योग में लुड़ तकार तथा न मायोगे" से भाव है। fanta fars वेषस्तेन विनीतवेषेण तप साधनानि वनानि तपोवनानि अत्र उत्तरपदलोपिसमास । सूतस्य अपपति-नाचतुर्थी सा तु दाने एवं नाथ सम्प्रदानम् अत्र तु रजकस्य वस्त्र दादातीतिवद् षष्ठ्येव । प्रत्यवेश्यप्रति + अ + ईश्वत्। अत्र पृष्ठा पीसी पीठ वाले अर्थात् महला कर पोछकर उम्टा एवं थकावट रहित कर लो। पृष्ठप्रक्षालन हि वाजिनाम् विशेष श्रम हि भवति विनीतवेषेण प्रवेष्टव्यानि तपोवनानि नाम "नीति नामक नाटकीय अलकार है। नीति शास्त्रेण वतनम् ।  ।

राजा - (धूमकर और देखकर) यह आश्रम का प्रवेश द्वार है तो प्रवेश करता है ( प्रवेश करके और शुभ शकुन सूचित करता हुआ)

ग्रन्तमिवमाश्रमपद स्फुरति च बाहु कुत फलमिहास्य अथवा भवितव्याना द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र|

शार्थम् आश्रमपदम्य तपोवनाथम स्थान, शान्तम् शान्तिमय (१) बाहू दक्षिण भुजा च स्फुरति और फड़कती है, अर्थात् मेरी दाहिनी भुजा फड़क रही है। अस्य इद फलम् कुत इस फड़कने का फल यहाँ कहाँ से (मिल सकता है अर्थात कही से भी नहीं अथवा भवितव्यानाम् अथवा अवश्यम्भाविनी पटनाओं के लिए, समय द्वाराणि भसब जगह द्वार अर्थात् माग या उपाय होते हैं।

शान्तमिति अन्वय इदम् आश्रमपदम् शा तम् बाहू स्फुरति इह अस्य फलम् कृत । अथवा भवितव्याना द्वाराणि सब भवन्ति ।

अनुवाद आश्रम स्थान पूर्ण शान्त है और (मेरी दाहिनी भुजा फडक रही है। (किन्तु इसका फल यहाँ कहाँ से मिल सकता है अति नहीं मिल सकता।

भावार्थ राजा अपने मन में सोचता है कि यह बाथम स्थान शान्त है, यहाँ तो मन शान्तरसनिमग्न मुनिजन ही निवास करते हैं, यहाँ मृगारियो का क्या काम ? किन्तु फिर भी मेरी दाहिनी भुजा फड़क रही है, यह दक्षिण बाहस्कुरण रूप शुभ मकुन तो सुदर स्त्री आदि की प्राप्ति का सूचक है "शकुन शाम के अनुसार "बामेतर स्पन्दो वरस्त्रीलाभदायक अर्थात् दक्षिणवाका फड़कना सुन्दर स्त्री की प्राप्ति का सूचक होता है। किंतु इस शुभ शकुन का फल इस शान्त आश्रम मे मुझे कहाँ मिल सकता है। अर्थात् यहाँ तो यह सवचा असम्भव है ( हो सकता है कि साकाक्ष तपोनिरत विश्वामित्रादि जैसे तपस्वियों को ऐसे तपोवनों में भी नायिकाल प्राप्त हो सके, पर मुझ जैसे व्यक्ति के लिए तो यह भी असम्भव है, क्योंकि न तो मैं तपस्वी हूँ और न मैं परस्त्री की आकाक्षा से ही यहा आया हूँ, पुरुषी राजा तो धर्मात्मा एव सदाचारी ही होते रहे है, अत दक्षिण बाहुस्कुरण का फल मुझे यहाँ कदापि नही मिल सकता, फिर वह सोचता है कि तब क्या शकुनशास्त्र झूठा है, पर यह भी नहीं हो सकता। इस प्रकार देर तक तक-वितर्क करने के बाद वह इस निष्कम पर पहुचता है और कहता है कि अवश्य होने वाली बातो के लिए तो सदा सत्र ही द्वार खुले रहते हैं अर्थात् यदि मुझे वरस्पी लाभ होता ही है तो वह समय हो सकता है चाहे वह आश्रम हो या नगर हो, भाविवेन तदया

विशेष यहाँ सामान्याय से पूर्वाधगत विशेष का समयन होने से अर्थान्तरन्यास अलकार तथा अथवा पद से पूर्वोक्त प्रतिषेध रूप पालकार छेक वृत्ति श्रुति अनुप्रास, बायाँ जाति नामक छन्द है।

संस्कृत व्याख्या इदम् पुरतो दृश्यमानम् आश्रमपदम् आश्रमस्थानम् शान्तम् शान्तिमयम् समप्रधान बास्ति वा मम दक्षिणी भुजम्ब स्फुरति |

(नेपथ्ये) इत इत. सख्य [इदो इदो सहीओ।] राजा - ( कर्ण दवा) अये दक्षिणेन वृक्षवाटिका मालाप इव श्रूयते पाववत्र गच्छामि। (परिक्रम्यावलोक्य च अये, एतास्तपस्विकन्यका)

शकुनशास्त्रानुसारेण वनाधिकालिङ्गनलाभ सूचयतीत्यर्थ (परन्तु रामप्रधानेऽस्मिनाश्रमे अस्य दक्षिणमूजस्फुरणस्य फलम्वरस्वीतामरूप फलम् कुन सम्भवति न कथमपीत्यम अथवा किम्वा अलमेतद्विषविष्या चिन्तयेत्यर्थ भवितव्यानाम् अवश्यम्भाविनामर्थानाम्, सवत्र समकाले सवदेशे न द्वाराणि साधनानि भवन्ति जायन्ते

सरलार्थमाश्रमप्रवेशकाले वरस्त्रीलाभसूचक स्वदक्षिणजस्फुरण मालक्ष्य राजा स्वमनमि चिन्तयति यदिदमाचमस्थान रामप्रधान वतते, अचापि वरस्त्री- सामसूचक दक्षिणस्पन्दन मम शरीरे जायते, पर शान्तेऽस्मिनामे दक्षिण भूस्फुरणस्य फल कथ सम्भवति न कथमपि एतल्लब्धु सभ्यते इति क्षण विचिन्त्य स पुन कययति अथवासमेतमा चिन्तया अवश्यम्भाविना सर्वेषामेवार्थाना साधनानि सवत्र भवन्ति ।

टिप्पणी

आथमपर शान्तम-यहाँ आश्रम शब्द लक्षणया माश्रमनिवासियो के अर्थ मे प्रयुक्त है अर्थात् यहाँ के निवासी मुनिजन सवधा शमप्रधान हैं और श्रृंगार रस से सर्वथा दूर है। स्कूरति फड़क रही है, दक्षिण भुजा का फडकना वरस्त्री लाभदायक होता है, जैसी कि शास्त्र की मान्यता है, स्त्रियो का वामाङ्गस्फुरण शुभफल देने वाला होता है और पुरुषों का दक्षिक्षाङ्गस्फुरण महाकवि कालिदास ने तो कई स्थलो पर अपनी रचनाओ मे शकुन का उल्लेख किया ही है, भट्टि आदि अन्य कवियों की भी शकुन पर आस्था देखी जाती है। इसी प्रकार होनहार या देव पर विश्वास भी इन कवियों मे पाया जाता है। भाग्य या भवितव्यता पर विश्वास के क्षेत्र मे महाकवि कालिदास सबसे आगे है, शाकुन्तल मे ही शकुन्तला अपने सुख और दुख के लिए भाग्य को ही कारण मानती है, भाग्यवादिता और भवितव्यता पर प्राय सस्कृत के सभी कवियो को आस्था रही है।

इस पद्म के द्वारा कवि ने यहाँ मुखसन्धि के द्वितीय अग परिकर का निर्देश किया है। इसका लक्षण है "तदुत्पन्नापवाहुल्य शेम परिकरस्तु स अर्थात् जब बारा काय का विस्तार किया जाता है वहाँ परिकर होता है।

(नेपथ्य मे)

सखियो, इधर आओ, इधर आओ।

राजा (कान लगाकर अर्थात् ध्यान से सुनकर ) बोह, वाटिका के दाहिनी ओर (कुछ) बार्तालाप सा सुनाई पड रहा है तो यहाँ (ही) चलता हूँ (चलकर और

स्वप्रमाणात सेवन वलिपावस्य पयो वातुमित एवाभिवर्तन्ते निपुण ) अहो, मधुरमासा दर्शनम् । शुद्धान्तदुर्लभमिद वपुराश्रमवासिनो यदि जनस्य । दूरीकृता खलु गुणस्थानलता बनलताभि यावदमा छायामाश्रित्य प्रतिपालयामि । ( इति विलोकयन स्थित ।)

मोह, ये तपस्वि कन्यायें अपनी-अपनी सामथ्य के अनुरूप छोटे-बड़े सि के पडो से छोटे वृक्ष (पौधो को जल देने के लिए इधर ही आ रही है (ध्यान से बेलकर) ओह, इनका देखना तो बड़ा ही मधुर है अर्थात् देखने में ये बडी ही सुन्दर गती है।

शुद्धान्तेति अन्वय- शुद्धान्त लभम् इदम वपु यदि आश्रमवासि जनस्प ( अस्ति, तहि खलु उद्यानलता बनलवाभि गुणं दूरीकृता ।

शम्या शुद्धान्तदुभम ( राजाओ के अन्तपुर मे भी यह वपु अति मनोहर शरीर यदि बाश्रमवासित जनस्य (अस्ति) यदि आश्रम में निवास करने वाले व्यक्ति का है, तो खलु नियत उद्यानलता उपवनों की = [eat] नसतामिवन की सताओ द्वारा, गुणे सौदर्य सौकुमार्य भादि गुणों के द्वारा दूरीकृता तिरस्कृत कर दी गई है।

अनुवाद - (राजाओ के अत पुर में दुष्प्राप्य, ऐसा अतिसुन्दर शरीर यदि arunarar व्यक्ति मे भी (है) तो अवश्य ही उपवन बतायें, बुनताओ के द्वारा अपने सौन्दय सौकुमाय आदि गुणों के द्वारा तिरस्कृत कर दी गई हैं।

भावार्थ राजा इन तपस्वि कन्याओं के अति मनोहर अद्भूत शारीरिक सौन्दर्य को देखकर आश्चयचकित होकर अपने मन मे सोचता है कि ऐसा शारीरिक सौन्दर्य तो राजाओ के अत पुर में भी नही मिल सकता, जहाँ कि सब प्रकार के सुन्दर से सुन्दर स्वास्थ्य एवं सन्दधक भोजनाच्छादन के अतिरिक्त शृङ्गार प्रसाधन के सभी साधन उपलब्ध रहते हैं बत राजप्रासादो मे रहने वाली स्त्रियों, वनवासिनी स्त्रियों की अपेक्षा अधिक सौन्दगम लिनी होनी चाहिए, क्योंकि वन मे शृङ्गार प्रसाधन एवं अन्य सुख साधन उपलब्ध नहीं होते। फिर भी यदि आश्रमवासिनी इन कन्याओं ने ऐसा मनोहर सौन्दर्य है तब तो यही कहना पडेगा कि राजोद्यानों में परिवर्धित सताओ को बननताबी ने अपने सुसन्धि कोमलादि गुणो से तिरस्कृत कर दिया है। सामान्यत उपवनलतायें, बताओ की अपेक्षा अधिक सुन्दर होनी चाहिए, पर यहाँ इन बनवासिनी कन्यादो के सौन्दर्य को देखकर तो हठात् यही कहना पडता है कि बनलताओ ने अपने गुणो से उद्यानताओको परास्त कर दिया है।

प्रस्तुत पद्म में 'श्रमवासिनो जनस्य' से तात्पर्य, शकुतलादिरूप स्त्रीजन से है, इव पु का अर्थ यहाँ शारीरिक लावण्य है "व शरीरे लावण्ये" बत इद वपु का अथ है, ऐसा यह शारीरिक लावण्य शुद्धात का अप राजाओ का अंत र स्यार भू भुजामन्त पुर स्यादवरोधनम् शुद्धान्तश्वा] वरोधश्च। परन्तु यहाँ गुडात का लक्षणा द्वारा आत पुर मे रहने वाली स्त्रियाँ हैं। बनलतायें अप्रयत्न परिवर्धित होती है, जलन आदि के द्वारा इन्हें सुंदर बनाने का प्रयास नहीं किया जाता है जबकि auranयें वस्तुत कृत्रिम होती है उन्हें काट छाँट कर सुन्दर बनाया जाता है। अकृत्रिम बलताओं के द्वारा उद्यान की कृषिम सताओ का तिरस्कृत होना यह सूचित करता है। कि कवि इस कथन के द्वारा कृत्रिम सौदव की अपेक्षा स्वाभाविक एवं प्राकृतिक सौन्दर्य की ही विशेषता दिखलाना चाहता है। अपनी रचनाओ मे सब उसकी यही मान्यता रही है, इसीलिए शकुतला के सौन्दय वचन में वह सब अकत्रिम सौन्दर्य की ही विशेषता बतलाता है "हद किलाव्याज मनोहर व इत्यादि ।

विशेष प्रस्तुत श्लोक में, पूर्वाध और उत्तराध में कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं है, किन्तु दोनो की समाप्ति उपमा मे ही होती है अत यहाँ असम्बद्ध वस्तु सम्बन्ध रूप विशालकार है (अभवम् यस्तु सम्बन्ध उपमा परिकल्पक पूर्वाध मे विशेष के प्रस्तुत होने पर भी जो सामान्य कथन किया गया है अत अप्रस्तुत प्रशसालकार है, यहाँ अन्य आचार्यों ने जो दष्टान्त प्रतिवस्तूपमा, तथा अर्थान्तरवास अलकारो को माना है वह उचित नहीं क्योंकि प्रस्तुत श्लोक में इन जलकारी के लक्षण घटित नहीं होते, यहाँ न तो परस्पर निरपेक्ष दो वाक्यों में बिम्ब प्रतिविम्ब भाव ही है और न सामान्य वस्तु द्वय का पृथक-पृथक निर्देश ही है और न यहाँ अर्थ समर्थन की ही सम्भावना है। इसमें बायाँ जाति छन्द है।

संस्कृत व्याख्या— शुद्धान्ते-राजप्रासादस्पस्वी जनेषु दुर्लभ दुष्प्रापम्-शुद्धान्त दुर्लभम् इव पुरोवृश्यमानम्, वपु शरीरलावण्यम्, यदि वेद आश्रमे वस्तु मील पस्य तस्य आश्रमवासिन जनस्य आश्रमनिवासिन शकुन्तलापस्य लोकस्य (अस्ति ) (हि) सलु निश्वयेन धनलाभ अप्रयत्न परिवधिताभि अकृषिमाथि मनोभूतनाभि, गुणैस्वकीयै सोवन्ध्य सौकुमार्यादिधि गुणे, उद्यानलता = अत्यन्तासम्बधिता कृत्रिमा उपवनलता दूरीकृता तिरस्कृता परास्ता था।

संस्कृत सरलार्थ युनिकन्यानाम पूर्व शरीरसावण्य मालश्य राजा मनसि चिन्तयति वनवासिनीध्येतासु मुनिवालासु राजप्रासादस्यस्त्रीजनेष्वपि दुष्प्रापम पूर्व शरीरलावण्य विद्यते सहि सम्बन्धेऽस्मि तत्कपयितु शक्यते यदकृत्रिमाधि वन- लताभि स्वकीये सौगव्यादिगुणे उपवनलता तिरस्कता

टिप्पणी

दक्षिन बाटिकाम एनप् प्रत्ययान्तेन दक्षिणेन योगे 'एनपा द्वितीया' 'इत्यनेन किमात्मन द्वितीया, एनप् प्रत्ययान्तेन सह षष्ठ्यपि भवति । आलाप आ +(तत प्रति ययोक्तव्यापारा सह सखीच्या शकुन्तला ।) शकुन्तला इत इत सख्यौ [इदो इदो सहीओ।] अनसूया हला शकुन्तले स्वतोऽपि तातकाश्यपस्याश्रमवूलका

प्रियतरा इति तर्कयामि येन नवमालिकाकुसुमपेलवाऽपि त्वमेतेषामालवा-

लपूरणे नियुक्ता [हला सउन्दले तुवत्तो वि तादकस्सवस्स अस्समवख

पिअदरेति तक्केमि । जेण णोमालिआकुसुमपेलवा वि तुम

तुम एदाण

आलवालपूरणे णिउत्ता ।]

शकुन्तला न केवल तातनियोग एव अस्ति मे सोवरस्नेहोऽप्येतेषु । [ण केवल तावणिओओ एव्व अस्थि में सोदरसिणोहो वि एदेसु ।]

(इति वृक्षसेचन रूपयति ।)

राजा - कथमिया कण्वदुहिता असापुदर्शी खलु तत्रभवान् काश्यप, इमामाश्रमधर्मे नियुत ।

- लघु + ञ । तपस्विन्या तप एषामस्तीत्यये विनि प्रत्यये तपस्विन पर कल्पका कया एवं कन्या स्वार्थी के स्वप्रमाणानुरूप स्वस्य प्रमाणस्य अनुरूप = अपनी-अपनी सामर्थ्य अवस्था आदि के प्रमाण के योग्य छोटे बड़े सेचन घंटे सेचनस्य पटे अथवा [सेचनार्थं घटाते उत्तरपदलोपसमास (सिप् + ल्युट् सेचन सोचना जन देना। वालपापेभ्य बालाश्य से पादपास्तेभ्य मधुरमासां दर्शनम्बासा- कन्यकानाम् दशनम् (दृश्यते यत्तद्) रूपम् इत्यथ मधुर प्रिय मस्ति दूतोऽवलोकने तिस्रोऽपि न्यायवत्योऽवलोक्यन्तेस्म अतो वचनम्।

1 यावदिति--तो (वृक्ष की इस छाया में स्थित होकर इनकी प्रतीक्षा करता हूँ (कि देखें अब ये क्या करती और कहती हैं यह कहकर देखता हुआ लडा जाता है। इसके बाद पूर्वोक्त काय करती हुई अर्थात् पौधों मे जल देती हुई शकुन्तला

का दोनो सखियों के साथ (रगमच पर ) प्रवेश |

शकुन्तला-सखियो, इधर आओ इधर बाओ ।

अनसूयासी शकुन्तला मैं ऐसा समझती हूँ कि पिता काश्यप (क) (ये) आश्रम के पौधे, तुमसे भी अधिक प्रिय है, जिससे कि नवमालिका के पुष्प के समान सुकुमार भी तुमको, इन पौधो के बलवान (पतवे या क्यारियाँ) भरने मे नियुक्त किया गया है।

शकुन्तला - केवल पिता की आज्ञा ही नहीं, मेरा भी इन वृक्षकों पर सहोदर भाई जैसा स्नेह है।

( यह कहकर पौधो मे जल देने का अभिनय करती है)

राजा तो क्या यही वह कष्व पुत्री शकुन्तला है (जिसके विषय में ऋषियों

किलाव्याजमनोहर पु तप क्षम साधयितु य इच्छति । ध्रुव स नीलोत्पलपत्रधारया, शमीलता घेत्तुषिव्यवस्यति ॥१६॥ भवतु पापान्तर्हित एव विश्ववधं तावदेनां पश्यामि । (इति तथा करोति ।)

सम्पार्थ- ऋषि ऋषि ऋषि जो ऋषि, अव्याजमनोहरम् स्वभाव सुन्दर (ब्याज = कृत्रिम प्रसाधन, मनोहर सुन्दर अव्याज कृत्रिम प्रसाधनों से रहित अर्थात् स्वभावत जन्मत एवं सुन्दर इदम् इस (शकुन्तला के शरीर को, तप क्षम तपस्या के साधन योग्य, साधयितुम् इच्छति बनाने के लिये इच्छा करता षि से की बात है कि, वनिश्चय ही नीलोत्पलपत्र धारणा = नीलकमल के पत्ते की धार से (पत्ते के किनारे से जो कि कुछ वक्ष्ण होता है शमीलता मी वृक्ष की लता अर्थात् शाला को छेतुम् काटने के लिए, व्यवस्यति यत्न करता है (अन्यत्र शमीलता के स्थान पर समिल्लताम् भी पाठ है वर्ष में कोई अन्तर नहीं है)

ने पहले कहा था और तद्नुसार ही मैं यहाँ आया हूँ अवश्य ही पूजनीय कण्व विवेक- होन है उनका यह कार्य अनुचित है जो कि उन्होने इस शकुन्तला को आश्रम के कार्य में नियुक्त किया है।

इवमिति अन्य ऋषि अव्याजमनोहरम् इदम् मधु किल तप क्षम साधयितुम् इच्छति स ध्रुवम् नीलोत्पलपत्रधारया शमीलताम् छेतुम् व्यवस्यति ।

अनुवाद जी ऋषि स्वभाव सुन्दर इस (शकुन्तला के शरीर को खेद है कि. तपस्या के साधन के योग्य बनाना चाहता है, वह ऋषि, निश्चय ही नीमकमल प के अग्रभाग से शमी वृक्ष की शाखा को काटने के लिये मन करता है।

मालिका कुसुमपेलवा भी शकुन्तला को पौधो में जन देती हुई देखकर और महर्षि कण्व की इस अदुरदशिता को लक्ष्य कर राजा मन में कहता है कि जो ऋषि इस स्वभावत ही मनोहर मकुन्तला के शरीर को तपस्या जैसे कठोर काम करने योग्य बनाना चाहता है। निश्चय ही उस ऋषि का यह कार्य वैसा ही बनोसा बौर असम्भाब्य है जैसाकि नीलकमल के पत्ते के किनारे से सभी जैसे कठोर वृक्ष की शाखा को काटने का प्रयत्न करना। कमल पत्र के अग्रभाग से शमीलता का काटना। जिस प्रकार बसम्भव है उसी प्रकार शकुन्तला जैसी कोमलाङ्गी नायिका से इतने पौधों की क्यारियों को भड़ों के जल से भरना असम्भव है।

विशेष प्रस्तुत श्लोक मे असम्बद्ध वस्तु सम्बन्ध रूप निदर्शनालार हैं. ध्रुवम द्वारा सूचित उत्प्रेक्षालकार है, पूवाध मे विरूप कार्यों के संघटन के कारण विमाकार और अव्याज मनोहरम् में विभावनानकार है। श्रुति वृत्ति अनुप्रास प्रस्तुत पद्य द्वारा अभिप्राय नामक नाटकीय अलकार का निर्देश किया है "अभिप्रायस्तु सादृश्यादभूतार्थप्रकल्पना" अर्थात् जहाँ सादृश्य के कारण असम्भव काय की कल्पना की जाती है वहाँ यह अलकार होता है। कमलपत्र की धार से शमीलता के छेदन रूप असम्भव कार्य का वर्णन किया गया है। इस पथ मे वशस्य नामक छ है। "जी तु वशस्य मुदीरित करो" अर्थात् जिस छन्द के चारों चरणो मे क्रम जगण तगण जगण और रयण, ये चार गण और फलत १२ अक्षर हो वह यशस्य छन्द होता है-

= = संस्कृत व्याख्या ऋषि कण्व बध्यानम् सुवस्वाभरणधारणा सीमारहित व तत् मनोहर सु दरम्-अम्बाजमनोहरम् स्वभावसुन्दरमित्यच इदम् वपु एतत् कुतलाया) शरीरम् किल अविसूचकमव्ययम्, तपस क्षमतप क्षमम् तप साधनयोग्यम् साधयितुम् सम्पादयितुम् इच्छति वाच्छति । स कृषि कण्व ध्रुवम् अवश्यमेव नीलोत्पलस्य नीलकमलस्य पत्रस्य दलस्य धारया पाश्वभागेन निशितमुखेनेत्यथ नीलोत्पलपणधारणा, समीनताम् शमीवृक्षस्य शाखा मित्यय छेत्तुम् शिक्षा व्यवस्यति प्रयतते ।

दकि

ला ब्याज,

मना ह

सरकत सरलार्थ वालिकाकुसुमपे वामपि शकुन्तलामाश्रमवुकाणा गालगाल- पूरणे नियोजिता महालोक्य राजा महषिकण्वस्यासादर्शिता नवीकृत्य मनसि चिन्तयति यो महर्षि स्वभावसुन्दर मस्या शरीर तप साधनक्षम विधातु मिच्छति,  समीक्षणाचा प्रयते यथा नीलोत्पलपत्रधारया समाखाच्छेदन] मसम्भवम् तथैव स्वभावसुन्दरेणास्या सुकोमलेन वपुषाधमवृक्षकाणा मालवालपूरण सम्भव मेव अचापि य एतदर्थं यतते स धनुमेवासावर्ती नास्त्यत्र सन्देह ।

अवस्थिति अच्छा देखा जायेगा, तब तक मैं वृक्ष की आड में ही रहकर farareपूर्वक इसको देखता हूँ यह कहकर वैसा ही करता है अर्थात् निश्चिन्तता पूर्वक उसे देखने लगता है) ।

"हो साहाने नीचा बेटी सी प्रति" इस कोशवचन के अनुसार हसा आदि शब्दी का प्रयोग बेटी और सलियों को सम्बोधित करने में किया जाता है अत यहाँ हसा का अर्थ अरी ओ बादि है "भरत मुनि का निर्देश है" समानाभिस्तथा सो हता भाष्या परस्परम् ससियों आपस मे हसा कहकर सम्बोधित करती हैं। प्रधान नायिका और उसकी सखियों की भाषा शौरसेनी प्राकृत|

शकुन्तला - सखि अनसूये अतिपिनद्ध न वल्कलेन प्रियवदमा नियन्त्रि- ताऽस्मि शिथलय तावदेतत् [महि अणसूए, अदिपिणद्वेण वक्कलेण पिअवदए णिअन्तिदा । सिडिलेहि दाव ण ।] 1

इसी भाषा में वार्तालाप करती है जैसा कि भरत वचन है "नायिकाना सखीनाञ्च शौरसेनी प्रकीर्तिता"  मे अन्य प्रकार की भी प्राकृतो का प्रयोग है. जिनका निर्देश यथा स्थान किया गया है। स्वत्तोऽपि मद्द तापकाम्यपस्य तातश्वासी काश्यपस्तस्य धमवृक्षका श्रमस्व हस्वा वृक्षा यक्षका दुस्वायें कन् नवमालिका कुसुमपेलवा मासिकाया पत् कुसुम तत् कोमलपि कुछ आचार्यों ने पेव शब्द को अश्लीलता सूचक मान कर इसका कम प्रयोग किया है पर कालिदास ने अपनी रचनाओं में इसका अधिक प्रयोग किया है अत शात होता है कि कालिदास के समय यह अश्लीलता द्योतक नहीं माना जाता पातालनियोग तातस्य नियोग शानि पुज्न सोदरस्नेह- समान दर यस्येति बहुवीहि समान को स आदेश प्राकुन्तला के इस कथन से उसकी पितृभक्ति के साथ साथ उसकी स्त्रीजनोचित सहृदयता का तथा उसके प्रकृति प्रेम का पता लगता है। साधु पश्यतीति साघुदर्शी न साधुदर्शी प्रति असाधुवर्णी- साधु + दृग्ाच्छील्यार्थं गिनि । तत्रभवान्धवान् इति तत्रभवान् सहस्रपेति समाम इतराभ्याऽपि दुष्यते इति प्रथमार्थं गल काश्यप कश्यपगोत्रात् । आप आश्रम के योग्य काय में किल अरुचि मेद आदि सूचक अव्यय । अम्पाजमनोहरमन ब्याज पस्मिन् तद् याजम् (वि + अन्धम् ) ब्याज व तत् मनोहरम् [मन+छ+अ अर्थात् जो बिना किसी कृत्रिमता ही सुन्दर हो, या कृत्रिम साधन तप अमम् तपस्या जैसे कठोर काय कामानपत्र धारा नील वदुत्पल [तस्य पवस्य धारा नया धार से तात्पय है कुछ तीक्ष्ण प्रभाग से है। मनी वृक्ष की लकड़ी बड़ी कठोर होती है अरणि वृक्ष की लकड़ी बति कठोर होती है और परम्पर रगड़ने से अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार शमी वृक्ष के भीतर भी अग्नि होती है "शमी मिवाभ्यन्तरलीनपावकम् । रघु० । छम् छिदिर+ तुमुन्। लता शब्द का अथ यहाँ माया है, शमी की सता नहीं होती समिता का भी यही अर्थ है पति सो सट् विवादिगण की सो धातु का रूप जट में स्पति होता है। इसी धातु से युक्त अवसान एक प्रत्यये अवसित कमवाच्ये अवसीयते आदि रूप बनने है, यहाँ इसका अर्थ यत्न करना है पापात पापेन अन्तहित अन्तर् धाविन्य वि+ब+ निसकोच भाव से सामने होकर देखने से सोच अवश्य होगा। B

शकुन्तला-सति अनसूये विवदा के द्वारा कसकर बाँधे हुए वल्कलवर के द्वारा में बंध गई इससे मुझे कष्ट हो रहा है, तो इसे ढीला कर दो।

: अनसूया तथा [ तह ]

(इति शिथिलयति ।) प्रियम्वदा (सहासम् ) अत्र पयोधरविस्तारयिष्ट आत्मनो यौवमुपास-

भस्य मा किमुपालभसे [एत्थ पओहरवित्वारदत्तअ अत्तणो जोव्वण उवालह म कि उवालहसि ।]

राजा- काममननुरूपमस्या वपुषो वल्कल न पुनरलङ्कार-थिय न पुष्यति। कुल

सरसिजमनुविद्ध बलेनापि रम्य मलिनमपि हिमांशोलंडम लक्ष्मी तनोति

किमिव ही मथुराणा मण्डन नाकृतीनाम् ॥१७॥

शब्दार्थवलेन अपि शिवार या जल की काई से भी अनुविद्धविरा हुआ या लिपटा हुआ, सरसिज कमल रम्य मनोहर (लगता है) मलिनम् अधि काला भी जन्म कलक, हिमाशो द्रमा की लक्ष्मी सोभा को बढ़ाता है। वल्कनेन अपि वत्कत्तवस्त्र से भी, इयम ती सुकुमार कुशा अधिक मनोशा अति सुन्दर (अस्ति प्रतीत होती है) मधुरराणाम् आकृतिनाम् = हि क्योंकि सुदर आकृतियों के लिए, किमिव मण्डन न भवति क्या वस्तु बलकार नही होती है। = =
अनसूया अच्छा, (ढीला कर देती है)
four (इसी के साथ) इस विषय मे तो (तुम) अपने स्तनों को विशाल कर देने वाले मौन को उलहना दो, मुझे क्यो उतना देती हो, अर्थात् इसका दोष मुझे क्यो दे रही हो।
राजा अथवा भले ही (यह वल्कलवस्त्र इसके शरीर के अनुकूल (योग्य) न हो, किन्तु (यह इसके लिए) अलकार की शोभा नहीं कर रहा है, ऐसी बात नहीं, अपितु यह शोभा बढा ही रहा है। क्योंकि
सरसिजमिति वलेन अपि अनुविद्धम सरसिजम् रम्यम (भवति) मलिन मपि लक्ष्महिमाओ लक्ष्मीम् तनोति वल्कलेन अपि अधिक (अति) हि मधुराणाम आकृतीनाम किमिव मण्डनम् न (भवति)
अनुवाद -शिवार पास से घिरा हुआ भी कमल मनोहर लगता है काला भी कलक चन्द्रमा की शोभा बढाता है, वल्कलवस्त्र से भी यह सु कुमार कुमाङ्गी शकुन्तला अति सुन्दर लग रही है, क्योंकि सुन्दर कतियों के लिए कौन सी वस्तु अलंकार नहीं होती अर्थात् स्वभाव सुन्दर व्यक्ति के लिए सब कुछ शोभाधक ही होता है
भावार्थ- वल्कलधारण किये भी अति सुन्दरी शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त मन मे सोचता है कि भले ही यह वल्कलवस्त्र इसके शरीर के योग्य न हो पर फिर भी यह इसके सौन्दर्य को उसी प्रकार बड़ा ही रहा है, जैसे सिवार घास से घिरा हुआ भी
कमल रमणीक होता है और चंद्रमा का काला भी कलक उसकी होना को बढाता ही है यह कृतना भी इस वत्सक में भी अति सुन्दरी लग रही है, क्योकि स्वभाव सुंदर व्यक्ति के शरीर पर प्रत्येक वस्तु शोभा देती है, कोई भी वस्तु कैसी भी क्यों न ही परंतु सहज सुन्दर व्यक्ति के शरीर पर वह सुन्दर ही लगती है अर्थात् वह  मोम को महाती हो है सुन्दर शरीर पर सभी कुछ शोभा देने लगता है चाहे वह मलिन हो पर उज्ज्वल कठोर हो या कोमल ।
विशेष प्रस्तुत श्लोक में उपमानोपमेय के एक ही सौन्दर्य रूप धर्म का प पृue द्वारा free किया गया है अत प्रतिवस्तूपमासकार है। चतुर्थ चरण में सामान्य विशेष समयन रूप वर्षान्तग्म्यास जलकार है, छेक वृत्ति अनुप्रास मालिनी नामक छन्द है। जिस छन्द के पारो चरणो मे क्रमश नगण, नगण, मंगण, गण गण इस क्रम से पाच गण अर्थात् पन्द्रह अक्षर हो वह मालिनी नामक छन्द होता है, "न न मम युतेय मालिनी भोगिला"
सरकत पारायन शैवालेन जननील्या या (नीली शैवाल [tree] इत्यमर) अनुविद्धम् आवृतम् सम्पृक्तम् वा अपि सरसिजम् सरोज कमल या रम्यम् = मनोहरम ( एव भवति ) मनिनम् लक्ष्म अपि कृष्णवर्णम् चित्रम् हिमाशी चन्द्रस्य लक्ष्मीम शोभाम् तनोति विस्तारयति । कलसदृष्वस्त्रपरिधानेनापि इयम् पुरोदृश्यमाना तन्वी कुशादीना अधिक मनोशा अति मनोहारिणी (दुश्यते) हिमत मथुराणाम्सजनवत्ता लादिनीनाम् बाकुलीनाम् रम्याणा शरीरावयवानाम्, कमिव वस्तु मण्डनम् अलङकरणम्, न नैव भवति अपि तु यावद्वस्तुमान मण्डनमेव भवति । कण्ठगतेन दिषेण शिवस्येव, कल केन चन्द्रस्येव, शैवलेन कमलस्येव भवायस्था सोमाविव एव न तु शीयते इत्यर्थं
सरल सरलायवल्लवस्त्रधारिणी] शकुन्तला निरीक्ष्य दुष्यन्तो मनसि चिन्तयति यथा नामि समाच्छादित कमल रम्य भवति यथा च मलिनेनापि लड के चद्रस्य शोभा विवर्धते तव कृशाङ्गीय शकुन्तलापि वल्कलवस्त्र परिधानेनापि अति मनोहारिणी दृश्यते सत्यमिदमधुरामा माकुलीना मावद वस्तु- श्रमपि शोभायमेव जायते ।
अपि+नहरु भारिमते अकार लोपे पिनद्धम् । पाणिनि न होने से अभिनय रूप भी होगा इसी प्रकार अपिधान विधान आदि रूप तेनानि पन्यू+शिष्टापू, दी गई। शिविलय-
शकुन्तला (अपतोऽवलोक्य) एव वातेरितपल्लवाङ्गलीभिस्वर- नीमा केसरवृक्षक। यावदेन सम्भावयामि [एसो वारिदपल्लवा- ङ्गलीहि तुवरेदिविज म फेसररूक्खओ जाव ण सभावेमि ॥] (इति परिक्रामति ।)

विवाहला शकुन्तले अत्रेय तामुहूर्त तिष्ठ हला राउन्दले एत्य एव्य याद मुहत्तअ चिट्ठ ।] शकुन्तला कि निमित्तम्। [कि निमित्त ।] प्रतिभाति [जाद हुए  पडिभादि ।]
शिथिल मन्दात् सत्करोति तदाष्टगि सोटू पयोधरविस्तारवि-धरतीति घर (धु+अच्) पयस धरौ पयोधरौ तयो विस्तारयित विस्तारयतीत्ययं वि++ णिच् +तृच्पन्लो सरसिज सरति बातमित्यर्थे सरसृजन् धातो सप्ताह जने प्रत्यये दिलोगे तत्वे कृति बहुलमिति सप्तम्या are ओष सरोजम् अनुविद्धम अनुव्यव+क रमवत रम्यम अधिकमनोज्ञा-मनस शाकदा मनोजानातीति मनोशा अधिक शब्देन सह सुप्सुपेति समास । "किमिव हि मधुराणा मण्डन नाकृतीनाम्" कालिदास की इस प्रसिद्ध सूक्ति के समान भाव रखने वाली अन्य सूक्तियाँ भी हैं "अहो सर्वास्ववस्यातु रमणीयत्व माकृतिविशेषाणाम्शाकुन्तल" न षटपदवेणिभिरेव पङ्कज सहवास गमपि वागमपि प्रकाशते कु० स० न रम्य माहार्यमपेक्षते गुणम्" "रम्याणा विकृति रपि बिय तनोति किरात ०" सवमतकारो भवति सुरूपाणाम्" "स्वभाव सुन्दरं वस्तु न सस्कार मपेक्षते" मण्डनम असकरणम् ।
प्रस्तुत  में माधुय नामक बयलज मलकार का निर्देश किया गया है,  मालकारो में से यह एक अलकार है "सर्वावस्थाविशेषेष माधुर्य रमणीयता" साद० "बल्कनेनापि तवी अधिक मनोजा" इस कथन मे प्रसिद्धि नामक नाटकीय भूषण है "प्रसिद्धि सिद्धार्थ रुत्कष्ट साधनम"।
शकुन्तला ( आगे की ओर देखकर ) यह केसरक्षक (वकुल या मोका वृक्ष) वायु के द्वारा हिलाई गई पल्लवी व गुलियो से मुझ को अपने पास आने के लिए) शीघ्रता भी करा रहा है तो पहले इसका सत्कार करती हूँ जल देकर इस सम्मानित करती हूँ (यह कहकर घूमती है।
प्रियम्बदाल शकुन्तमा तुम थोड़ी देर तक यही व्ही रहो। शकुन्तला किसलिए
प्रियम्वदा तुम्हारे समीप रहने से यह केसर वृक्ष जता से युक्त जैसा प्रतीत होता है अर्थात् तुम्हारे पास रहने से यह वृक्ष ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यह लता रूप नायिका से युक्त हो गया हो।
शकुन्तला अत बलु प्रियवदाऽसि त्वम् [अदो क्खु पिवदा सि राजा प्रियमपि तथ्यमाह शकुन्तला प्रियम्वदा । अस्या स अधर कोमलविटपानुकारिणी वाहू कुसुममिव लोभनीय यौवनमङ्गषु सन्नद्धम् ॥
तुम
शकुन्तला - इसीलिए तो तुम प्रियम्बदा हो, वर्षात् इसीलिये तुम्हारा नाम मधुरभाषिणी है।
राजा प्रियम्बदा ने शकुन्तला से प्रिया के साथ ही सत्य बात भी कही अर्थात् उसके कप मे प्रियता हो नहीं सत्यता भी है। अवश्य ही इसका
तर इति-अन्वय-अधर किसलय राग ( अस्ति) बाहू कोमसविटपा- कारिणी (स्त) म गेषु कुसुमम् इव लोभनीयम् यौवनम् सयम् ।
अधर किसलयराग इस सकुन्तलाका धरोष्ठ अवश्य ही जब कोमल पत्ते के समान लान है। बाहू भुजाएँ कोमलविटपानुकारिणी == कोमल शाmrat er अनुकरण करने वानी अर्थात् werओं के बूथ है। शरीरावयवो मे कुसुमम् इव लोभनीयम् पुष्प के समान मनोहर यौवनम् सम् यौवन व्याप्त है।
are ही इसका अधरोष्ठ नव कोमल पव के समान सावर्ण का है, मुजाएँ कोमन टहनियो के समान है, तथा शरीर के अवयवो ने पुष्प के समान  यौवन व्याप्त हो रहा है-
भावा राजा अपने मन मे कहता है कि यद्यपि प्रियम्वदा ने शा ये प्रिय वचन ही कहे है "स्वयोverer aaासनाथ दया केसरवृक्षक प्रतिभाति" तथापि इनमे पर्याप्त तथ्य है, उसके ये वचन केवल प्रिय ही नहीं सत्य भी है, क्योंकि इस अधरोष्ठ में नव कोमलपल के समान रक्तिमा है। भुजायें कोमल बहनियों के सदृश हैं और इसके शरीर मे प्रत्येक अवयव मे पुरुष के समान चित्ताकर्षक यौवन व्याप्त हो रहा है।
यौवनागम से मुख्य पर कान्ति नेषो मे पाल्य एवं अनुराग, कफ में कम्बुसाम्य, जिरेवालयत्व, वक्षस्थल पर हो का उन औत्य काठिन्यावि नाभि से गाम्भी निम्नत्व, उदर मे सनुता एवं कृशता, निम्वस्थल के मध्य भाग में तिम्नत्व पाषण भाग मे मांसलत्व, अघन, जहवा, मामु बौर उरु प्रदेशों मे मासलता विशालता समता मृदुलता, पैरो मे मदालस्य गमन में विलासादि, उत्पन्न हो जाते हैं।
विशेष प्रस्तुत पथ में उपमानकार तथा मार्या जाति छन्द है। पयोच्य नामक नाट्य भूषण है "सम्बद्धार्थानुरूप पदध स प " अर्थात् यहाँ सम्
अनसया-हला शकुन्तले, इय स्वयवरवधू सहकारस्य त्वया कृतना- मधेया वनज्योत्स्नेति नवमालिका एमा विस्मृतासि [हला सउन्दले इ जवर सहजारस्स तुए किदणामहेआ वणजोसिणिति गोमालिआ । ण विसुमरिवासि ।]
शकुन्तला - तदात्मानमपि विस्मरिष्यामि । ( लतामुपेत्यावलोक्य च हला रमणीये खलु काले एतस्य लतापावपमिथुनस्य व्यतिकर सबूत | स्ना, स्निग्धपल्लवतयोपभोगक्षम सहकार ।
के अनुकूल हो पदों का प्रयोग किया गया हो, यहाँ पर अथ के अनुकूलन ही पदों के मे भी सुकुमारता है।
स्कूल व्याया अस्या व बहर अधरोष्ठ, किसलयस्य परस्येव राम साहित्य यस्य स सपराण वाहूभुजी, कोमल मुget fast user अनुकुरुत इति कोमलविटपानुकारिणी (स्त) अबस्था सर्वशरीरावयवेषु कुसुममिव पुष्पमिव सोमनीयम् चिताकर्षक, मौवनम् ताख्यम् स व्याप्तम् (अस्ति ।
संस्कृत सरलाय राजा मनसि चिन्तयति न केवल प्रियम्बदा शकुन्तला प्रति प्रिय वचनमेव अपितु तथ्य मप्याह तथा हास्या अधरोष्ठ पल्लवरागसवश रक्तवण अस्ति, भुज चास्या कोमसवपसदृशस्त सवशरीरावयवेष्वभ्यस्या मनोभिराम पुष्पमय ताम्य सर्व सम्म प्रकारेण व्याप्त मस्ति ।
पारित पल्याड गुलीभिवातेन वायुना ईरिता आन्दोलिता परलया एवं गुल्यताभि । स्वरपरि घाटो लिट केलरक्षक इसे मौलवी या वकुल वृक्ष भी कहा जाता है, इसके होने से पुरुष । पति) को सूचित किया गया है, इसी प्रकार लता के द्वारा स्त्री नायिका को सूचित किया गया इस वाक्य मे समासोक्ति है। समय का मुख्याय पतियुक्त होता है, गोड अय मे इसका अथ युक्त या समन्वित होना भी होता है। पौवनम् पून भाय युवन् मण सम्+न+क्त प्रियमपि तम्यमप्रिय यच सुतम् प्रिय और सत्य वचन [मृत कहा जाता है यद्यपि ऐसा वचन दुलभ होता है। हित मनोहारि च दुर्लभ वच । -
हला शकुन्तला, यह आन वृक्ष की स्वयम्वरवधू नव मालिका मता (है) जिसका कि तुम्हारे द्वारा वनज्योत्स्ना नाम रखा गया है तुम इसको गई हो।
शकुन्तला तब तो अपने आपको भी भूल जाऊगी (बता के पास बाहर और देखकर), सखी, निश्चय ही सुन्दर समय में इस लता और वृक्ष के जोड़े का
अत्ता विविसुमरिस्सं । हला रमणीएक काले इमस्स लदापाअवमिणस्य इरो सत्तो णवकुसुमजोव्वणा वणर्जासिणी, सिणिपल्लवदाए उपभो असमी सहजारो ।]
(इपि पन्त तिष्ठति ।)
प्रियम्वदा-अनसूये, जानासि कि शकुन्तला बनज्योत्स्नामतिमात्र पश्यतीति [ अणसूर जाणासि कि सउन्दला वनजोसिणि अदिमेत पेक्खदि ति ।]
अनसूयान खलु विभावयामि कथय [ण कबु विभावेमि ।
कहेहि ॥]
प्रियम्वदा यथा वनज्योत्स्नाऽनुरूपेण पादपेन सगता, अपि नामवम- हमप्यात्मनोऽनुरूप वर लभेयेति [जह वणजासिणी अणुरुवेण पाअवेण सगदा, अवि णाम एव्व अह वि अतणो अणुरुव वर हे त्ति ।।
शकुन्तुला- एष नून तवात्मगतो मनोरथ | एसो गुण तुह अलगदो मणोरहो ।]
सम्बन्ध हुआ है। वत्स्मा सो नवीन पुष्प रूपी ताम्रम्य से युक्त है और आम्रवृक्ष अपने चिकने पत्तों के कारण (इसके) उपभोग के योग्य है।
(इस प्रकार देखती हुई तक जाती है)
प्रियम्वदा अनुसूया, क्या तुम जानती हो कि शकुन्तला बनज्योत्स्ना को क्यों बहुत अधिक देख रही है।
अनसूया मैं नहीं जानती हूँ, बताओ।
प्रियवश जिस प्रकार वनपोल्ना अपने अनुरूप वृक्ष से लिपट गई है, क्या इसी प्रकार मैं भी अपने अनुरूप वर को पाऊँगी ?
शकुन्तला यह अवश्य ही तुम्हारी अपनी इच्छा है (यह कर घड़े का जल डाल देती है)
टिप्पणी
स्वयम्वरवधू स्वयं वृणुते इति स्वयम्बर स्वयम्+ वृधातो साया तु इत्यादिना खच्प्रत्यय टापू स्वयम्वरा, सा चासौ वधू इति स्वयम्वरवधू जिसने स्वयं अपने पति का वर्णन किया है, ज्योलना लता स्वयं ही आम्रवृक्ष पर चढ़ गई थी, अतएव यहाँ उसे स्वयम्वरवधू कहा गया है। प्राचीन काल मे स्त्रियाँ विशेषतया अपने पति का वरण स्वयं करती भी अतएव इस विवाह को स्वयम्बर कहा जाता था मनुस्मृत्यादि धर्मशास्त्रो मे इसका विधान है। सहकार सह कारयतीत्य स + णिजनो को मिलाता है, सहकार वसन्त ऋतु के आरम्भ मे
फूलता है, प्रवासी जन इसे पुष्पित देखकर अपने घर लौट आते हैं। जता पादप का स्वयम्वर त कवियो को बढा चिकर रहा है और विशेष रूप से कालिदास को arre उनकी रचनाओं में इसका विशेषत उल्लेख मिलता-चूतेन भिती नवम निकेयमस्य महत्वयि च सति यतचित्त " नाम नामशेष नाम यस्या जिसका नाम रखा गया है। वनज्योत्स्ना ज्योतिरस्त्यस्यामित्यर्थे ज्योतिष दा त्वर्थीयो न प्रत्यय निपातनात्साधु लतावादपमिथुनयना व पादपश्चतापाव art free den aftकार वि+अति + कृ + व्यतिकरसम्बन्ध मयो संगम यहाँ इसका तात्पय दोना के विवाह में है। नवयौवना नद सन यौवन यस्था कुसुम शब्द यहाँ लिष्ट है- कुसुम पुष्प और नवकुसुम प्रथम रजोदर्शन, रजौदशन के बाद ही कन्या युवती और विवाह योग्य समझी जाती है। स्निग्धपतया स्निग्धा वा यस्य तस्य भाव दल तथा स्निग्ध पल्लव न के कारण उपभोगक्षम उपभोगस्य क्षम उपभोग के योग्य उपभुज सहकार वृक्ष मे नवीन चिकने कोमल पल सा गये है जो कि उसके हाथ है अत वह नव गायनज्योत्स्ना का उपभोग करने याग्य हो गया है, लता पादप में उपयोग क्षमता को दिखाकर कवि ने दोनो मे पति-पत्नी के व्यवहार समारोपण किया है, इससे उसने अपनी यह भी मान्यता प्रकट की है कि वर और कन्या के उपभोगक्षम एवं युवती और युवक होने पर ही उनका विवाह होना चाहिये, बाम विवाह नहीं, उनकी रचनाओं मे प्राय युवती नायिका स्वयं वरवरण करती हैं।
अतिमात्रम् अति कान्ता मात्रा वस्मित मात्रा का अतिक्रमण करक अत्यधिक यद्यपि 'अति' से ही यह तात्पय हो सकता है पर कवि को बतिमान शब्द अधिक प्रिय है उसने इस शब्द का प्रयोग किया है।
विभावयामि विभूणिच लट्, इसका अर्थ अनुमानत जानना होता है, अनसूया कहना चाहती है कि इस सम्बध मे मैं कुछ भी अनुमान नहीं लगा पा रही है कि यह क्यो गयोस्ना को बहुत अधिक देख रही है। यह तुम्ही बताओ कि इसके इस प्रकार देखने का क्या कारण है, वस्तुत अनसूया बड़े ही गम्भीर स्वभाव की है, शकुन्तला पर उसका अत्यधिक स्नेह है यह प्रिया की तरह व्यवहार ने न तो उतनी चतुर ही है और न वह ऐसी मनोरञ्जक बातों में विशेष रुचि ही लेती है। अनुरूपेण रूपस्य या अपने सौन्दय के अनुरूप सगता सम्मिलिता, पत्नी रूप में अपने अनुरूप पति सहकार से मिल गई है उससे विवाह कर लिया है। अपि नाम अपि ता tree अव्यय है और नाम सम्भावना द्योतक है, a sent a है कि क्या यह है कि, आत्मनोऽनुरूप वर सभेय, अपने अनुकूल पति प्राप्त कर पाऊँगी। rega कवि ने यहा प्रियवदा के द्वारा शकुन्तला की मनोदशा का aणन कराकर राजा को उससे विवाह करने की इच्छा का उपयुक्त अवसर प्रदान किया है, अब तक वह उसे araesar के रूप में ही देख रहा था, प्रियम्बदा और शकुन्तला के इस माता से वह अब उससे विवाह की भी इच्छा करने लगा है, इसी प्रकार लता और
राजा -अपि नाम कुलपतेरियमसवर्णक्षेत्रमा स्यात् । अथवा कृत सम्बेहेन-
असंशय
परिमा यदास्यामभिलाषि मे मनु । सता हि सम्देहपत्रेषु स्तुपु प्रमाणमन्तकरणप्रवृत ॥
तथापि तत्वत एनामुपलप्स्ये ।
शकुन्तला (ससम्भ्रमम्) अम्मो, सलिनसेकस भ्रमोतो नवमालिका- त्या ववम मे मधुकरोऽभिवर्तते । मम्मो, सलिलसे सममुग्गदो [ नोमालिन उज्झिम वलण मे महुअरो जहिवट्टर
(इति भ्रमरवाया रुपयति ।)
पाप में विवाह कराकर कवि ने इन दोनों मे भी विवाह योग्यता का भी निर्देश किया. है। स्वयम्बर वधू से उसने गान्धव विवाह की ओर भी संकेत किया है।
मनोरथ मनस र अर्थात् इच्छा इच्छा वस्तुत मन का रथ ही होती है, इच्छा मन के भावो को उसी प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचा देती है जिस प्रकार रथ मनुष्य को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचा देता है, अत इच्छा को मन का रच कहा गया है। आत्मगत आत्मान गत अपना पति + बुजु+ि चलती है। बावजन का अथ मुलाना पवना नीचे की ओर करना आदि होता है। कवि ने इस वार्तालाप द्वारा दुष्यन्त में शकुन्तला के साथ विवाह की इच्छा को जागृत कर उसके लिए उसे प्रयत्नशील बना कर इस प्रसग को यहाँ छोड़ दिया है।
""कथमिय सा" माँ से लेकर यहाँ तक मुखसन्धि का चतुe विलोभन नामक निर्दिष्ट किया गया है "गुणाना वजन ती विलोभन मितीरितम्" यहाँ नायिकागत गुणों का वजन किया जाये वहाँ विलोभन नामक मब होता है।
राजा का यह सम्भव है कि यह सतना, कुमपति महर्षि कण्व की क्षेत्र अर्थात् ब्राह्मणोतर पत्नी से उत्पन्न हुई हो अथवा ( इस विषय मे सन्देह करने की आवश्यकता नही-
अम्बिय (पम्) अपश्यम् परिग्रहक्षमा (अस्ति ) मद मे बायम् [मन] अस्याम् वसा (बस्ति) हसन्देह पवैषु वस्तुषु प्रताम अन्तकरणप्रवृत्तय प्रमाणम् (भवत ।
नयन परिक्षमा अत्रिय द्वारा पत्नी रूप में स्वीकार करने योग्य यह क्योंकि मे आप मन मेरा श्रेष्ठ मन अस्याम् परछ वाला है। सहदेव वस्तुषु सन्देहास्पद विषयों मे सलाम की जनावरणप्रवृत्तय अन्तकरण की प्रवृत्तियाँ (श्री) प्रमाणम् (भवति) प्रधान होती है।
अनुवाद नसन्देह यह मतला क्षत्रिय द्वारा पत्नी रूप में स्वीकार करने योग्य है, क्योंकि मेरा श्रेष्ठ मन इस पर अभिलाषा करने वाला है विषयो मे सज्जनो की अन्तकरण की प्रवृत्तियाँ हो प्रमाण होती हैं)-
भावार्थ राजा सोचता है कि इनकी बातो से तो यह पता करता है कि यह मृदा महर्षि कण्ड नो ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य वर्ण की स्वी से उत्पन्न का है, परन्तु इसका निश्चय किस प्रकार हो, तद वह कुछ सोचकर स्वय है कि इस विषय मे सदेह करना साथ है, यह निश्चय रूप से क्षत्रिय द्वारा पत्नी रूप में स्वीकार करने योग्य है, और इसका प्रमाण यह कि मेरा विनय विद्या मरणादि से सम्मान एवं निषिद्धाचरण से रहित मन इस पर अभिवादा करता है।  में मृत्पुरुषो की मनोवृत्तियाँ ही कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय करने वाली होती है "साधूना मात्मन तुष्टिरेव च इस मनु वचन से ज्ञात होता है। फि मन जिस वस्तु को अपने मन द्वारा पवित्र एवं ग्रहण करने योग्य निश्चय कर लेते हैं वह अवश्य पवित्र एवं स्वीकरणीय होती है अत इसमे कोई सन्देह नहीं कि यह अश्यि द्वारा विवाह करने योग्य है।
'वस्तृत प्रस्तुत श्लोक द्वारा कवि ने राजा दुष्यन्त के उच्च मारि को प्रस्तुत fear है, जबकि इसके पूर्व तक का उसका काम दुष्यन्न धीरोदात्त नायक के गुण के ही रहा है, छिपकर मुनि कन्याओं को देखना, उनके आपसी afer को सुनना था विवाह की इच्छा करना आदि, तथापि इस श्लोक द्वारा उसके श्रेष्ठ मन को सत्पुरुषो के मन की तरह कतव्यातव्य विनिर्णायक बताकर उसके उदात्त चरित्र को प्रस्तुत किया गया है, कवि के चरित्र-चिषण को मही विशेषता है, मानव चरित्र गुण दोषो से मुक्त ही होता है ।
विशेष प्रस्तुत शतीक के मपरिग्रहमान कहकर जो क्षेत्रपरिषतमा यह सामान्य कथन किया गया है इससे यहा अप्रस्तुतप्रशसाकार है। उत्तरागत सामान्य से पूर्वाधगत विशेष का समधन होने से [अर्थान्तरन्यासावकार है, आमस्या- मभिलाषि से मन कहकर पुन अतरणप्रवृत्तम कहने में मदयामास बलकार है द्वितीय चरण प्रथम चरण का कारण है अत काम्यलिङ्ग अनकार है, नामक छन्द है "जती व मुदीरित जरी "
संस्कृत व्याख्या ( इव शकुन्तला ) अमरायम् निस्सन्देहम् नम् वा [tree] क्षत्रियस्य परिग्रहाय पत्नीश्वेन स्वीकाराम क्षमा योग्या क्षत्रपा afe fur (अस्ति) (क्षत्र क्षत्रियरात्री) (परिग्रह परिजनेपया स्वीकार- मूलयो" इति कोश | यद्यस्मात् कारणात्, आयम् निषिद्धाचरणमूल्यं - चरणादियुक्त मे दुष्यन्तस्य मनवितम, अस्याम शकुन्तलायाम्, ि साभिलाषम् (अस्ति ) हि यत सदेपदेषु सदेहास्पदेषु वस्तुषु विषयेषु मनाप् वाणाम् अन्तकरणप्रवृत्तय मनोवृत्तय प्रमाणम् कर्तव्याकर्तव्यविभयहेतु (भवति) ।
: संस्कृत सरलार्थ मुनिकन्याना  माकर्ण्य कुतला मसवर्ण  राजा निश्चिनोति यदि शन्कुतला नूनमेव मया क्षत्रियेण 'पत्नी स्वीकरणयोपास्ति यतो हि मे निषिद्धाचरणशून्य मन शकुन्तलाया मस्ति यत सशयग्रस्तविषयेषु सत्पुरुषाणा मनोवृत्तय एवं कर्तव्या निर्णायका भवन्ति ।
तथापि इति तथापि इसको वास्तविक रूप से प्राप्त क यह मेरे मन मे यह विश्वास है कि यह क्षत्रिय द्वारा विवाह योग्य पिलोक व्यवहार की रक्षा के लिए पचायत इसे जानकर ही प्राप्त करूँगा के अपने मानसिक विश्वास से ही नहीं ।
कथन द्वारा कवि ने यहाँ परिन्यास नामक मुख सन्धि के तृतीय अग का किया है। "तक्षिपत्तेस्तु कथन परिन्याम प्रचक्षते' अथवा 'तनिष्पत्ति परियास ना० द०" यहाँ दुष्यन्त का कुत्ता के प्रति प्रेम रूपी काव्याच का निश्चित रूप से हुआ है। इसका उल्लेख करने का कोई नियम नहीं है, इसमे पहले चतुर्थ विलोभन नामक अर्थ को दिखा कर अब तृतीय अन पन्यास को बतलाया गया है "मुखादि सप गाना कमो नाम विवक्षित ।"
कुल- (पबराहट के साथ) ओह, जल के सेचन की घबराहट से उड़ा हुआ यह असर नवमालिका को छोड़कर मेरे मुंह की ओर आ रहा है। (यह कहकर अमर बाधा का अभिनय करती है)
टिप्पणी
असवर्णक्षेत्रसम्म समानो बच यस्य तद् समणम न सवर्णम् असवणम्, वर्णात् क्षेत्रा सम्भव उत्पत्ति यस्या सा अथवा प्रवणक्षेत्र सम्भव उत्पत्तिस्थान यस्यासा क्षेत्र शब्द का अर्थ यहाँ पत्नी है, महर्षिक ब्राह्मण से कोई ब्राह्मणी ही उनकी सवण क्षेत्र पत्नी हो सकती थी किन्तु असवर्ण क्षेषा से यहाँ तात्पय ब्राह्मणेतर जाति की पत्नी से है, राजा के मन में सदेह होता है कि सम्म कुन्ता महर्षि कण्व की ब्राह्मणतर पत्नी से उत्पन्न हुई पुत्री है, अतएव वह मेरे द्वारा विवाह के योग्य है। ब्रह्मपुत्र से क्षत्रिय राजा विवाह नहीं कर सकता था जैसाकि मनु का वचन है "सरा दिवाना प्रवास्ता दारकमणि कामतस्तु प्रयुक्तानामिमास्युक्रमशो- वग सभा वर्णों को अपने ही वण की कन्या ने विवाह करना उचित माना गया है. किन्तु कामवश अपने से निम्न वण की कथा से भी विवाह किया जा सकता या पर अपन से उच्चवर्ण की कन्या से कदापि नहीं इस प्रकार का अनुलोम्य विवाह प्राचीन काल में प्रचलित था पर प्रतिलोम विवाह उस समय भी वर्जित था। कृत- के योग मे "गम्यमानापि क्रिया कारकविभक्तौ प्रयोजिका" इस वातिक नियम से तुतीया राजा को पूर्ण विश्वास है कि यह मुनिरुन्या मेरे द्वारा विवाह या है इसमे सन्देह करना है असायनविद्यते संघमित तत् और

प्रथमोऽ

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राजा - (सगृह विलोक्य)

पारष्टि स्पृशसि बहुशो वेपथुमत रहस्याख्याय स्वनति मृदु कर्णान्तिकचर करो व्यान्यत्या पिबसि रतिसर्वस्वमपर वय तस्वान्देवान्मधुकर हतास्त्व खलु

वान्मधुकर तास्त्वता पार

तथास्यात्तथा अयम-राम + मी अच अभिलाषि अभि + लप-सुप्यजाताि छापष्ठीबहुवचन - सन्देहस्यलो मे 'सम् + दिन अन्तकरणप्रवृत्त कियते अनेनेति करण इन्द्रियम् अतस्य करणम् अत करणम उत्तरपदलोपिसमास अतकरणस्य मन प्रयुत व्यापारा प्रमाणमप्रमीयतेऽनेन प्र+मा+ ल्युट् सज्जनो की आत्म ही कर्तव्या कर्तव्य का निश्चय करती है "आचारश्चैव साधूना मात्मनस्तुष्टिरेव च सरबत --- मानसिक सन्तुष्टि के होते हुए भी वास्तविक स्थिति का ठीक ठीक पता लग करके ही इसे प्राप्त करूंगा। मधुकर अभिवर्तते शकुन्तला के मुख को कम समझ नवमालिका को छोडकर अमर उसके मुख की ओर जा रहा था और उसे काटने का प्रयत्न कर रहा था इस कथन से ज्ञात होता है कि शकुन्तला पचिनी स्त्री थी अतएव अमर कमल सुगन्धि से आकृष्ट हो उसका रसपान करना चाहता था, पचिनी का लक्षण 'रतिमञ्जरी' के अनुसार यह है "भवति कमलनेत्रा नासिका क्षुद्ररमा अविरलकुचयु दोर्घकेशी कृष्णागी मृदुवचनमृगीला नृत्यगीतानुरक्ता सकलतनुसुवेक्षा पांचवी " aftersसम्भ्रमोद्गतसविलस्य सेकेन यम तेन रात सिपत्र नजोरिति कुत्वे से वदनमभिवर्तते 'अभिरभागे' से अभि के नम प्रवचनीय सशक होने से वदनम् मे द्वितीया ।

राजा (बड़े चाव से देखकर)

चलेति-अन्वय हे मधुकर (त्वम्) बलापा गाम् वेपथुमतीम् दृष्टिम् बहु eyefe रहस्याध्यायी इव कर्णान्तिकवर (सत्) मृदु स्वसि करौ व्याया रत्वम् अधरम् पिवति । वयम् तत्वान्येषात्हता त्वम् खन्नु कृती ।

सब्दायमधुकर प्रमर मधुप, (तुम्) चलापाद, गाचच देश प्रान्तो वाली (तथा) वेपथुमती (तुम्हारे भय से काँपती हुई ( इसको दृष्टिम् दृष्टि का अर्थात् नेत्रो का बहुत बार बार स्पृगसिप करते हो रहस्याख्यायी गोपनीय बात कहने वाले के समान कर्णान्तिकपर सन्कान के पास घूमने बाले होकर मृदु स्वनसि मधुर गुरुजन करते हो, करो व्याघुवत्या आत्मरक्षाच हाथों को इधर-उधर चलाती हुई इसके रतिसपस्वम् रतिकाल मे सबसे अधिक  योग्य  अधरोष्ठ का पान करते हो वयम् = हम तो

तस्वान्येषात् = वास्तविक बातो का पता लगाने के कारण, हता मारे गये अर्थात् ही रह गये त्वं खलु कृती किन्तु वस्तुत तुम सफल मनोरच हो गये हो।

अनुवाद - मधुप (तुम) चञ्चल नेत्र प्रान्तो वाली, (तथा) (भय वम) काँपती हुई दृष्टि का बार-बार स्पण करते हो अर्थात् चुम्बन करते हो। गोपनीय बात कहने वाले व्यक्ति की तरह, कान के समीप घूमने वाले तुम मधुर गुरुजन करते हो अर्थात् धीरे-धीरे गुनगुनाते हो (आत्मरक्षाच) ताथों को इधर उधर चलाती हुई इसके रतिकाम में सबसे अधिक आस्वाद योग्य अधर का पान करते हो, हम तो तात्विक वालों का पता लगाने के कारण पचित ही रह गये किन्तु तुम वस्तुत सफल मनोरच हो

भावार्थ राजा शकुन्तला को तृष्णापूर्वक देखकर कहता है कि अमर को हटाने में भी इसकी चेष्टायें कितनी स्पृहणीय है, वास्तव में यह अमर ही भाग्यवान् है, हम तो कुछ नहीं क्योंकि

अमर को भगाने के प्रयत्न से यह अपने हाथों को इधर-उधर चला रही है, काटने के भय से इसके नेत्र हो रहे हैं और दृष्टि कॉप सी रही है, फिर भी वह ढीमर इसके नेत्रो का चुम्बन कर रहा है, कभी-कभी यह इसके कान के पास जाकर धीरे-धीरे उसी प्रकार गुनगुनाने लगता है जैसे कि गोपनीय बात कहने वाला व्यक्ति किसी के कान के पास मुख रखकर धीरे धीरे कान मे कुछ कहता है, इतना ही नही रोके जाने पर भी यह भ्रमर इसके रति सर्वस्व अधर का चुम्बन करता है। अमर की इन सब चेस्टाओ को देखकर राजा कहता है कि हम तो वास्तविक बात का पता लगाने के कारण अर्थात् यह जानने के प्रयत्न में कि यह मेरे द्वारा विवाह योग्य है या नहीं, इसके अग से वञ्चित ही रह गये किन्तु हे अमर तुम ही भाग्यवान्

हो जो इसका अग पण पाकर सफल मनोरथ हो सके हो प्रस्तुत ग्लोक में प्राय सवत्र से अर्थ घटित होते हैं? भ्रमर पक्ष में कामि जनपक्ष में, शकुन्तला के प्रति भ्रमर की सब वैसी ही चेष्टायें है जैसीफ एक काभी की होती हैं।

विशेष प्रस्तुत लोक के 'रहस्याख्यापी' में उत्प्रेक्षालकार, कमन की प्रान्ति वश शकुन्तला के प्रति भ्रमर के इस व्यवहार में भ्रान्तिमाम् अलकार है व हताव चलु कृती' में उपमान भूत राजा की अपेक्षा उपमेय अमर मे अधिवय बतलाया गया है अत व्यतिरेक सकार, मधुकर में नायक व्यवहार समारोपण के कारण समासोक्ति अलकार है 'त्व कृती' के लिये प्रथम तीन चरण कारण है व्रत काम्यलिङ्ग कार अमर के व्यवहार मे स्वभाव कथन है अतः स्वभावोक्ति अनकार है। शिखरिणी नामक छन्द है। रसे की शिना यमनलागा शिखरिणी ।"

संस्कृत व्याख्या मधुकर मधुप 1 (स्वम्) चली चलो बागी ने प्रान्त पागी यस्या ताम्बलापागा, वेपपुरस्त्यस्यास्ताम् वेपथुमतीम्= (भा) कम्पमानाम् दृष्टिम्, बहुश पुन पुन, स्पूमसिदष्टु स्पृशसि, बारोप

चुम्बसि रहस्यम आयातु शीन मस्य स रहस्याच्याची गोप्यवार्ता] कपनशील, यथा कणयोरन्तिक समीप चरतीति कर्णान्तिकचर श्रवणसमीपवर्ती (सन् मृदुमधुर स्वनसिजति आरोप प्रवसि अन्योऽपि कामी कामिन्या कर्णान्तिक चर मन रहस्याच्याव्याजेन प्रिय मधुर मधुमंद मंद च ब्रवीति करो= हस्ती, व्यावस्थाविशेषेण भावयन्त्या भ्रमरवाधानिराकरणायेत स्तम्बाला ( शकुन्तलाया) रते सवस्वम - रतिसबम्बम मुरतेच्छाप्रधानकारणम् धरम्-अधरोष्ठम् पिसिदसि आरोपपक्षे-आस्वादयसि चुम्बति वयम् हमित्यथ तत्त्वापादकस्येय का देय क्षत्रियपरिग्रहयोग्या नवेति निरयग जिज्ञासाकारणात् हता चिता भग्न मनोरथा न तस्या कटाक्षयोपभूता अि जाता परिचुम्वनादयस्तु दूरत एवेत्यय (परन्तु त्वम् अमर खलु वस्तुत, कृती ==सफलमनोरथ असि

ग्रस्त सरनाथ भ्रमरस्य कुतला प्रति कामिजनसदृश व्यवहार मवलोक्य दुष्यन्त स्त सम्बोधयन् कथयति मधु । कविता] भवात् कम्पमाना दृष्टि तथैव वष्टु स्मृति यथा कश्चित् कामी चुम्बति । अस्या या अवमन्य मद यथास्यानया तथैव गुजसि पपा wfrer कामt froया कर्णातिचर सन रहस्याख्यानम्याजेन प्रिय मधुर मन्द मन्द मानपति । भ्रमरवावानिराकरणाय स्वहस्तावितस्ततश्चालयन्त्या पा रतिप्रधानकारिणीभूत मधर वष्टुमिच्छसि यथा कश्चितकामी जना हस्तौ बालवया कामिन्या रतिकाने परमास्यादजनक मधरोष्ठ मास्वादयति । अह दुष्यन्तस्तु येथे येति परिप्रयोग्या नवेति निश्चयजिज्ञासा मनोरथ जात परन्तु भ्रमर ! त्वमेव वस्तुत सफलमनोरथोऽसि त्व मस्या

टिप्पणी

संस्पृहम् स्पहया सहितम यथा स्यात्तथा वयथुमतीय वे कम्पने छाती ट्वितोऽयुष इति अवुन प्रत्यपरत्यस्या इत्यर्थे अस्त्यर्थं मतुप् प् वेपमतीता रहस्यास्यापी रहसि भवभित्यर्थं यत् रहस्यम् गोपनीय वस्तु रहस्य + आ + घातो वान्छोल्ये पिनि, frङ ब्यान् इति धातो स्वादेश रहस्य मायातु नीलमस्य रहस्याख्यायी कर्णावर कणयोरन्तिक चरतीत्ययें भरेष्ट इति वर घाट दृष्टिम्+क्तिन यहाँ दृष्टि का अर्थ वस्तुत क्षेत्र है। स्व + आ + धु+तु डीप पष्ठयेक वचन भ्रमर से आत्मरक्षा के लिये दोनो हाथो का चलाना स्वाभाविक ही है। तत्त्वापाद तत्वस्य प तस्माद व अनुप वयम-अमचे बहुवचन प्रयोग कृतीकृत मस्यास्तीति "मत इनिठनौ इति इनि प्रत्यय । वस्तुत यहाँ राजा के लिये बहुवचन का प्रयोग उसकी शिष्टता कुलप्रतिष्ठा एवं सदाचारिता का द्योतक है, अमर के लिए एक वचन का प्रयोग उसकी तुच्छना और बनिष्ठता योतक है, ऐसे प्रसनोंदशकुन्तला - gष्ट विरमति । अन्यतो गमिष्यामि (पान्तरे ferrer fक्षेप) कथमितोऽप्यागच्छति। हला, परित्रायेषां मामनेन विनीतेन मधुकरेणाभिभूयमानाम् [ण एसो घट्टो विरमदि । अण्णदो गमिस्स । कह इदो वि आच्छदि । हला, परिक्षाअह म इमिणा दुब्विणीदेण महारेण अहिअमाण ।]

उमे ( सस्मितम) के आवा परित्रातुम् । दुष्यन्तमानन्द राजरक्षित- यानि तपोवनानि नाम [का व परित्ता दुस्सन्द अवकन्द । रामरवि- दब्वाइ तवोवणाइ णाम ।]

राजा - अवसरोऽयमात्मान प्रकाशयितुम्। न मेतव्यम् (इत्यधोंक्ले स्वगतम्) राजभावस्त्वभिज्ञातो भवेत् एव तावदभिधास्ये ।

शकुन्तला - (पदान्तरे स्थित्वा सष्टिक्षेपम् ) कथमितोऽपि मामनुसरति [कह इदो वि म अणुसरदि । ]

मे अमर जैसे अशिष्ट जन ही शीघ्र सफल हो जाते है पर दुष्यन्त जैसे शिष्ट और सदा बारी जन नही हो पाते है। अशिष्ट जनो को अपनी अप्रतिष्ठा का भय नहीं होता पर दुष्यन्त जैसे व्यक्ति का तो अपनी प्रतिष्ठा का भय होना ही चाहिए था।

म यहाँ वय हता कहा गया है तथापि यहाँ इससे अत्यन्त अभिलाषा जन्य सुख की प्राप्ति प्रकट होती है अत यहाँ प्राप्ति नामक मुख सन्धि का पष्ठ अग है। "गुलायस्योपगमन प्राप्तिरित्यभिधीयते।"

शकुन्तला पर फीड अमर नहीं रुक रहा है। दूसरी जगह जाती कुछ पर चलकर रुककर दृष्टिपात के साथ) क्यों इधर भी आ रहा है। सभी इस दुष्ट अमर से उत्पीडित की जा रही मुझको बचाओ

दोनों सखियाँ (मुस्कराहट के साथ) हम दोनो बचाने वाली कौन है। दुष्यन्त को पुकारो तपोवन तो राजा द्वारा ही रक्षित होते हैं।

राना अपने आपको प्रकट करने का यह अच्छा अवसर है। मत बरो (ननी आधी ही बात कहकर मन ही मन ) ( इससे तो मेरा राजा होना ज्ञात हो जायेगा अच्छा, तो इस प्रकार कहूंगा।

शकुन्तला (कुछ चलकर पककर दृष्टिपात करती हुई क्यो नहर भी

मेरा पीछा कर रहा है।

टिप्पणी

+ सी वैमात्ये' इति इडभाव अन्यत्र 'दृष्ट' भी पाठ है, पर पृष्ट पाठ अधिक उचित है। विरमतिप्याह परिभ्योरम इति परस्मैपदत्यम् । अन्यत सप्तम्यर्थे तसिन् प्रकाशयितुम् अवसर शब्द कालायक अत कालसमयेत्या दिमाग तुमुन् प्रत्यय अभिधास्ये अभि+था+कन्न शब्द का

प्रथम हु

६५

राजा - ( सत्वरमुपसृत्य )

क पौरवी शासति शासितरि दुविनीतानाम। अयमाचावय मुग्धासु (सर्वा राजान दृष्ट्वा तपस्विकन्यासु ॥२१॥ किचिदिव सम्रा

प्रयोग रोने और बुनने में होता है नेह दुष्प के प्रकट होने का अच्छा अवसर उपस्थित किया है इसका रक्षा एवं कनक का जन्य बनाये रखा है कुता का अमर से होता सलियों द्वारा पुष्पा के पुकारने का परामश दिया जाना और तपोवनवासिनो की रक्षा करने के लिए राजा का हा प्रकट होना, ये सब की स्वाभाविकताको स्थिर रखती है, कवि का महीना है कि उसने कही भी कथानक के स्वाभाविक प्रवाह में मैथिल्य नहीं आने दिया है। ऐसा प्रतीत हप्ता है कि दुष्यन्तम् न भेतव्यम' यह दक्ष की ओर से ही कहा था यहा पर कवि ने उसका रंगमञ्च पर प्रवेश नहीं दिया है, और अन्य प्रकार का काई मन्त्रीय निर्देश ही है। स्वगत मन ही मन कुछ सोचना, जो बात अन्य किसी पात्र को नहीं सुनानी होती है। उसे स्वगतम् के द्वारा ही किया जाता है "अभाग्य तु यद् वस्तु तदिह स्वगत मतम् " इसके विपरीत (प्रकाशम) होता है, जिसे सब काई सुन सके।

राजा (शीघ्र ही पास जाकर ) -

E शब्दाय दुविनीतानाम् मासतरि दुष्टजना के शासक, पौरने वसुमती [शासति पुरुवशोत्पन्न राजा दुष्यन्त के पृथिवी पर शासन करने वाले होने पर क अयम्यह कौन मुग्धा तपस्विका सरल स्वभाव वानी भोली भाली मुनि कन्याओं पर अविनयम आचरति अशिष्ट व्यवहार करता है।

इति अन्यय-दुविनीतानाम् नासरि पौरव वसुमतीम् शासति (सति) क अयम मुग्धासु उपस्यिक या अविनयम वाचरति ।

अनुवाद- दुष्टजनों के शासक पुरवणोत्पन्न राजा दुष्यन्त के पृथ्वी पर शासन करने वाले होने पर यह कौन भोली भाली मुनि कयाको पर अशिष्ट व्यवहार करता है।

मावा राजा कहता है कि जब दुष्टो पर अनुमान रखने वाला राजा दुष्प जो कि प्रसिद्ध पुरवणी राजा है, इस भूमि पर शासन कर रहा है, ऐसे समय मे भी यह कौन सा दुविनीत है जो कि सरल स्वभाव वाली मुनि कन्याओं पर अशिष्टजनो जैसा व्यवहार करने का साहस कर रहा है।

विशेष प्रस्तुत श्लोक मे मयि भ्रमर, शकु तलायाम् इन विशेष प्रस्तुतो का प्रयोग न करके जो इनके स्थान पर शासितरि व अयम् तपस्विकन्यासु इन अप्रस्तुती का प्रयोग किया गया है, अत अप्रस्तुतप्रशमानकार छेक, वृत्ति, अनुप्रास, आर्याजाति । सस्कृत व्याख्या दुर्विनीतानाम् दुष्टानाम् शासितरि दण्डादिना मिल

- न खलु किमयत्याहितम् इस नौ प्रियसखी मधु- करेणाभिसूयमाना कातरीभूता [अञ्ज, णक् किवि अच्यादि । इयणो जिसी महमरेण त्रिमाणा कादरीभूदा ।] (इति शकुन्तला दर्शयति) राजा (शकुन्तलाभिमुखो सूत्या) अपि तपो वर्धते । (कुन्तला साध्वसादवचना तिष्ठति

(शकुन्तला साध्वसादवचनात

किनर पौरने पुरुशोभने राजनि दुष्यते वसुमतीम् पृथिवीन शासति पालयति (मति) क अयम को दुष्ट मुग्धामु सरस्वभावासु तपस्वियात्तु मुनि कुमारी, अविनयम आचरति समवति ।

संस्कृत सरला सत्वरमुनि कप्पासमा मागत्य कथयति दुष्टशाराके दुष्यते पृथिवीपालयनितिको दृष्टमुनि वा अनिष्टव्यवहार करोति । (राजा को समापन हुआ देखकर सभी मुनि करवायें कुछ घबडा सी जाती है)

शासितरिधान तद् सप्तम्येक वचने, अतएव दुविनीतानामित्यन 'कतु कमणा कृति' इति पष्ठी

शासति यस्य च भावेन सप्तमी पौरये पुरो गोत्रापत्य पुमानित्वर्थे पुराण वक्तव्य इति अण मृधासुधा पर अशिष्ट व्यवहार करना सर्वथा अक्षम्य अपराध माना जाता है। "मुद्रा का लक्षण "प्रथमावतीजयोग मदविकारा रतो वामा । कविता मृदु माने समधिक नावती मुग्धा" सा० द०

प्रस्तुत कामदेव का प्रभाव वदा ही विचित्र है जिसने दुष्यन्त जैसे धर्मनिष्ठ एक प्रत्य अमर देने के यज से मुनि कवाबो के सामने उपस्थितया है और कवि का रचना कौशल भी अद्भुत है। राजा ने बड़े सेना प्रभाव भी कर दिया है और साथ ही अपना परिचय भी गुप्त

"आा है। भूमिव गावे उसी समय से उसे पहचान न सकी है। यहाँ पर 'दण्ड' नामक सन्तराग दिखलाया गया है दण्ड विनयादीना जनम"।

जना आय वस्तुन कोई सकट या बदी विपत्ति नहीं है। यह हमारी सभी अमर के द्वारा उत्पीडित की जाती हुई दुखित हो गई थी

(यह कहकर यह तो दी है

राजा (कुन्तला की ओर अभिमुख होकर) क्या ( आपका ) तप बढ रहा आपके तपश्चरण में कोई बाधा तो नहीं है?

(शकुन्तला भयवपचाप सही रहती है)

अनसूया इदानीमतिषिविशेषलान ला शकुन्तले, छोटजम । फलमिश्रममुपहर इव पादोदक भविष्यति। [दाणि अविहिविसलाहेन । हला सउन्दने, गच्छ उडन फलमिम्स अ हर द पादोदन भविस्सदि । ]

राजा भवतीना सूनूतयैव गिरा कुतमानिव्यम् । प्रियवा तेन ह्यस्या प्रच्छाया सप्तपर्णवेटिकायां मूहूर्त- मुपविश्य परिश्रमविनोद करोत्वायें। तेण हि इर्मासासीनताए सत्तवण्णवेदिआए मुत्त उवविसिज परिरसमविक॥]

अनसूया इस समय तो अनि हमारा और भी बढ रहा है) कुटजात्रा फलयुक्त ले जाओ। यह (काज) पैर धोने के लिए।

राजा आप लोगो के सत्य और प्रियवचन ने होमस्कार कर दिया है (जत अब और अविष्य की आवश्यकता नहीं।

फिर सा छा से मोगल (एस) वृक्ष को दी (चबूतरे पर थोड़ी देर बैठकर धीमान दूर करन

अत्याहिम अनि म दावे हि अगीय अधीयते मनसि जो मन पर बहुत आपत्ति एवम आदि कातरीता बकातरा कतराता इत्यस्य विकारस्य ईनार । अभिमुख अभियत मुख यस्यादिश्य धातुजम्प उत्तरपद लोग साध्वसात भयमिश्रित लग्न के कारण, साधु सम्यक अस्थति साध्यम स+ अ पचाद्यच् हेव पञ्चमी विशेषलामेन विशेष लाभ सुनता-सुष्ठु नृत्यति जना दुर्गा दनयेति मूनला सुवेति पाक विधेरनित्य- स्वात् गुणाभाव यामपि यत हनिष आतिस्पतियइत्य अतित्वम् प्रत्यय प्रकृष्टाय विभाषामैना सुरा से स् तेन मीतला स्पार्थ अभिगम्यत इत्या कामाचरन् काय मकव्यमनाचरन तिष्ठति प्रकृताचार आय इति स्मृत "द प्रथम अनुसूवा ने ही राजा को उत्तर दिया है। उनके साहस प्रत्युत्पन्नमतित्व एवं वा चाय का पता चलता है। अपि प्रश्न सूचन अन्यय है। स्थ जनो से प्रथम ऐसा हो प्रश्न किया जाता है, और यही उनके वातावरण के अनुकूल भी होता है। अयम्-धराय च विसरिताम्यव सिद्धार्थचैव जष्टार गो प्रकीर्तितये आठ पाप होते है। सप्तपर्ण का दूसरा नाम सतौना वृक्ष भी है। इसकी प्रत्येक दाल में सात पत्ते होते हैं। अनुसूया के

राजा जून मध्यमेन कर्मणा परिश्रान्ता । अनसूयाला शकुन्तले उचित न पर्युपासनमतिथीनाम् अत्रो- पविशाम। [हला ने उड़द जो पज्जुवासण अदिहीण । एत्य उव

(इति सर्वा उपविशन्ति )

शकुन्तला (आत्मगतम्) कि तु खल्विम प्रेदय तपोवनविरोधिनो विकारस्य गमनीयाऽस्मि सत्ता कि क् दम पवित्र तोषणविरोहिणो  गमणीaf सबुत्ता।।

राजा - ( सर्वा विलोक्य) अहो समवयोहपरमणीय भवतीना सौहार्यम् । प्रियम्बदा - ( जनान्तिस्म) अनसूये को नु खल्वेष चतुरगम्भीराकृति मधुर प्रयासपद् प्रभाववानिय लक्ष्यते [अणसूये, को नु क्खु एसो चतर गम्भीरादी महरपि बलवन्ता पहावयन्तो विसक्तीयदि ।]

कपन अनुवत्ति नामक कार का निदेश किया गया है प्रश्रयादनुवन मनुवृत्ति " मा० द० ।

राजा अवश्य ही आप लोग भी इस काम से थक गई होगी।

अनसूयाख शकुन्तला हम लोगो के लिए अतिथियो की सेवा करना  है (यहा पर प्रयानुकूल पासनम का अर्थ पास मे बैठना है, हम लोग अतिथि के पास बैठे यह उचित है।)

( यह कहकर सब पास मे बैठ जाती है)

शकुन्तला--- ( अपने मन मे क्या बात है कि इस व्यक्ति को देखकर में तपोवन के विरोधी मनोविकार का स्थान या पान बन गई हूँ।

राजा (सबको देखकर) खोह, आप लोगो का परस्पर अनुराग, समान अवस्था और रूप के कारण अतिमनोहर है।

प्रिया - हाथ की बोट मे) अनसूया, सुन्दर और गम्भीर माकृति वाला यह कौन व्यक्ति है, जो कि मधुर और प्रिय बातचीत करता हुआ प्रभावशाली लग रहा है।

टिप्पणी

परिचान्तापरिश्रम + + टाप पर्युपासनम् परि + उपवास + स्युसमीपे नियम पास मे बैठना, सामा य पर्युपासन का जय सेवा करना होता है, पर यहाँ प्रसगानुकूल इसका जब पास में बैठना ही समीचीन है, क्योंकि अनसूया उसे दुष्यन्त के पास में बैठने के लिए ही कह रही थी, अतिथि सेवा का उल्लेख तो त पृष्ठों में हो चुका है। आत्मगतम् इसका अर्थ स्वगतम् ही होता है, जो बात सब को नही सुनानी होती है उसे स्वमत या बारमगत रूप मे कहा जाता है। अत आत्मगतम्

अनसूया सखि, ममाप्यस्ति कौतूहलम् । पृच्छामि तावदेनम् । (प्रकाशम्) आर्यस्य मधुरालापजनिमो विषम्भो मा मन्त्रयते--कतम आपॅण राजविवशोऽक्रियते । कतमो वा विरहपर्युत्सुकजन कृतो देश । किं निमित्त वा सुकुमारतरोऽपि तपोवनगमनपरि मस्यात्मा पदमुपनीत [गहि मम वि अत्थि कोहल । पुच्छरस दावा अज्जस्म महूरालाकिया बीसम्भो म मन्तावेदि कदमो अज्जेण रामनवमी अलक अदि । कदमा व विरहृपज्जु- अजणी किदो देसो किणिमित वा मुउमारदरी वि तपोवणगमणपरिस्त- मस्त अत्ता पद उवणीदो।] T

और स्वगतम् का एक ही लक्षण "अमान्य बन्नु यद् वस्तु तदिह स्वगत मतम् । किन क्या कारण है अथवा क्या बात है। तपोवनविरोधिन नपस साधन बन तपोवनम् उत्तरपदसमास घर विरोधी तपोवनस्य विरोधी तस्य विकारस्य विक्रियते अनेनेतिर जो चित्त में विकृति न करता है अर्थात् मनोविकार मनोविकार पाउन का विरोधी होता है सनीवन का वातावरण प्रशान्त, सभी प्रकार के मनोविज्ञान से रहित होता है गमनीयान्तु पो ave या पात्र सौहार्दम् मित्रता, सौहाद और सौहृद ये दोनो ही मित्रता अथ मे प्रचलित है "स्वातमान मग कोश के अनुसार मन मानस हुए और हृदय शब्द समानायक है सो हृदय यस्य सूद तस्य भाव पहाय ना इत्यच "हृदयते इत्युभयपद व मोहादम् शोभन हृदयस्प ह्रदय जाण ह्त्यस्य भाव 'तस्विनामारे रिति बढो मोहृदन् समययोरूप- रमणीयम्य च रूप च वयम् समय वयोश्प लेन रमणीयम् "जनातिकम्- पता करेगा पर्यान्तराकथा अयोन्या यस्यान्ते जनान्तिक कमन के बीच मे हाथ की ओट करके जो बात किसी व्यक्ति विशेष से कही जाती है जिसको कोई अपात्र न सुन सके यह जनातिक कहा जाता है। चतुरगम्भीरा कृति-चरा गम्भीरा व आकृति यस्य स यहाँ चतुर शब्द का नाक्षणिक अर्थ सुंदर है। 1

अनसूया सखी, मुझे भी तो यही बात जानने की बडी उत्सुकता हो रही हैं तो इनसे पूछती हूँ आय, आपके प्रिय वार्तालाप से उत्पन्न विश्वास मुझे (आप से कुछ पूछने के लिए प्रेरित कर रहा है कि आप किस राजदिवस को अत करते हैं, आपने किस देश को (अर्थात् किस देश के निवासियों को अपने विरह से व्याकुल किया है, और किस लिए आपने अपने अतिसुकुमार भी शरीर को इस तपोवन मे आने के परिश्रम का स्थान बनाया है, (अनसूया का तात्यय है कि आप किस राजर्षि के हैं कहाँ से आये हैं और यहाँ आने का क्या प्रयोजन है ?)।

शकुन्तला (आत्मगतम्) हृदय मोत्ताम्य एषा स्वया चिन्तितान्य- नसूया मन्त्रयते। [हिअअ मा उत्तम्म एम तुए चिन्निदान अणसूआ मन्तेदि ।।

राजा - ( आत्मगतम) कथमिदानीमात्मान निवेदयामि कवा पहार करोमि भवतु एवं तावदेना बक्ष्य (प्रकाशम्) भवति, व पोरवेण राज्ञा धर्माधिकारे नियुक्त, सोऽहमविघ्न क्रियोपलम्भाय धरम- दमायात ।

शता (मन मे) हृदय बनेगी अर्थात् अधीन हा यह अन तुम्हारे द्वारा बानो को हो पूछ रहा है अर्थात् उसी बात को पूछ रहा है जो कि तुम जानना चाहते हो ।

राजा - ( मन मे ) किस प्रकार अब में अपने को बतलाऊँ अर्थात् अपन परिचय दूँ, अथवा किस प्रकार अब अपने को छिपाक अच्छा, तो इस प्रकार (अब) इनसे कहूँगा (प्रकट) श्रीमनी जो पुरवणी राजा के द्वारा धर्माधिकार में नियुक्त किया गया है अर्थात् जा धर्माधिकारी है, वह मैं आप लोगों की निविघ्न धार्मिक क्रियाओ को जानने के लिए इस धरिव्य अर्थात् तपोवन में आया हूँ। अर्थात् धर्माधिकारी होने के कारण में यह जानने के लिए कि आप लोगों की धार्मिक क्रियायें ता यहाँ निर्विघ्नतापूर्वक चल रही है। मैं इस आश्रम में आया है।

मधुरालापजनित मधुर प आलाप स्तन जनित विधम्-व (fare और विस्रम्भ दोनो ही शब्द इसी अब से प्रचलित है) जय-मन्त्र धातु चुरादि पि (हेतुमति च) सट पहा मह प्रेरणाच में प्रयुक्त है अतएव इसका अर्थ है प्रेरयति मुखरी करोति। अलकियते मणिभूषणाएँ सद् राजश इससे ज्ञात होता है कि सम्भवत अनसूया ने उसे पहचान लिया था इसीलिए वह ऐसा कहती है। विरगुरुजननिरहण पर्युत्सुका नाम जिस स मे आपके विरह से लोग व्याकुल है। यह जहाँ राजा की प्रजाजन प्रियता का to वहाँ इससे अनसूया की वाग्विदग्धता का भी परिचय मिलता है। मा पवमुपनीत यंत्र नी धातोद्विकमका प्रधानेकमा आत्मनि प्रथमा आत्मा का अय महा पशरीर लेना ही प्रानुकूल है। माता तो मध्यमपुरु वचने ( दिवादिभ्यश्यन) आत्मापहारम आत्मन अपहारम् अपने को छिपाना, वस्तुत दुष्यत इस मनु वचन के अनुसार चतमात्मानमात्तु भाषते पापकृत्तमो लोके स्पेन आत्मापहारक अपा को छिपाने अपना वत्य बोलने म हिचकिचा रहा है वह भी दोनही पाहता और न अप का प्रकट ही करना चाहता है, इसी द्विविधा में वह कुछ सीन कर पहता है कई बात नहीं ता अब इससे इस प्रकार बहूँगा जिससे असत्य भाषण भी न हो और अपने को प्रकट भी न करना प भवति यह सम्बोधन स्त्री मान के लिए मनुस्मृति के अनुसार उचित है पर पली

अनसूया -सनाचा इदानीं धर्मचारिण [सणाहा दाणि धम्मा-

रिणो।] (कुन्तला शृङ्गारलज्जा रूपयति ।) सख्यौ (उयोराकार विदित्वा जनान्तिकम) हला शकुन्तले यत्रा तानसनिहितो भवेत्। [हला सन्जएत्वों सणिहिदो भवे ।].

कुतला - तत किं भवेत् [तयो कि भवे ।] -इम जीवितवस्वेनाप्यतिथिविशेष कृतार्थं करिष्यति । [ इम जोविदव्वस्त्रेण वि अदित्यदि ।

तु या स्त्री यादव यानि ताबूयात् भवतीति य पौरवेण राजा जिसे पुरुश राजा अर्थात् भर पानधकार धमनिर्णय के स्थान सिहासन पर नियुक्त है। यह उनका सत्य कथन है, पर यदि उसका लय यह किया जाय कि जिसे पुरुषगी राजा दुष्यन्त ने धर्माधिकार में नियुक्त किया है तो यह सत्य भाग होगा, इसीलिए राजा न इस यमक वाक्य का प्रयोग किया है और अपने को असत्य से लिया है। वस्तुत इस मग मे राजा का सत्य भाषण भी अनुचित नहीं है "न नमयुक्त वचन हिनस्ति न स्त्रीषु राजन् न विवाहकाने प्राणात्यये सवधनापहारे पञ्चनृतान्याहु पातकानि" महाभारत अग्नियोपलम्भायप्रविष्ता या किया तासा मुपलम्भ तर वियते एभि इति विप्ता विदन् करणे अविद्यमाना fasar याता वा विघ्नरहिता उपसभ भावे पत्र उपलम्भ । धर्मारण्यम्- रणे साधुन पर धर्माधर्मसाधन वा अरण्यम् धर्मारण्यम् उत्तरपदलोप समारा ।

राजा के इस कथन के थक होने से और एक अर्थ के होने से यहाँ स्थान है। "पर्योवचनवास मुश्लिष्ट काव्ययोजित प्रधानान्नरापेक्ष पताकायानक परम्।" इसी प्रकार अनसूया के प्रश्न वाक्यों में गम्याय का भगी से कपन किया गया है अन पर्यायोक्त अलकार है। "पर्यायोक्त पदा भया गम्यमेवाभि प्रीयते ।

अनसूया धर्माचरण करने वाले लोग अब सनाथ हो गये ।

(कुतला बजार ला का अभिनय करती है)

दोनों सखिया दोनों के (शकुन्तला बगैर दुष्यन्त के आकार को उनके आगिक अनुभावो से अथवा सात्विक अनुभाया से उनके हृदयगत भावो को जानकर मुँह फेरकर हाथ की ओट करके जिससे कि दुष्यन्त न सुन सके) सखी सकुतला, यदि काश्यप आज यहाँ समीपवर्ती होते?

सकुन्तला तो क्या होता है।

दोनों सखियाँ तो इस विशिष्ट अतिथि को अपने जीवन सदस्य से भी अद अपने जीवन का सबस्व भी इसे देकर इसे सफल मनोरथ कर देते।

: वचन श्रोष्यामि । [तुम्हे अवैध कि वि जिए करिअ मन्वेध ण वो वअण सुणिस्स ।]
राजा - वयमपि तावद् भवत्यो सोगत किमपि पृच्छाम । सहयो-- आय, अनुग्रह इवेयमभ्यर्थना [अज्ज अणुग्गहो विअ इ
अन्भवणा ।)
शकुन्तला- तुम दोनों दूर हटी, तुम दोनों कुछ मन रखकर ऐसा कह रही हो तुम दोनो की बात नहीं सुनूंगी।
राजा में भी आपको सखी के विषय मे कुछ पूछना चाहता हूँ। दोनो सखिया आपको यह पाचना ( पूछने की प्राथना) (वस्तु हम पर व्यापके) अनुग्रह के समान है। आपका मुझसे पूछना बाप का हम पर अनुग्रह ही है ।)
समाधानाया अभि नाथ ( नाम + धत्र) अथवा नायते वाच्यते पया इति नाथ नावेन सह वनमाना सताया धमचारिणम चरतीत्यर्थे धम+चर पर छील्यै पिनि अनसूया काय यह है कि आपके आगमन से तपोवन के इमचारी जमा और सरक्षक से युक्त हो गये अर्थात् अब हम सब अपने का सुरक्षित अनुभव करती है कि तुला साथ का अब पतियुक्त ह करती है अतएव यह शृङ्गार सजा का अभिनय करती है जो कि पाजनोचित काय है। भार शृङ्गारनिमिता नाम शाकपार्थिवादिवत् समासः । शृङ्गार का अर्थ यहाँ भाव है, जिसके कारण नाचित लगा होना स्वाभाविक हो है। अङ्गार लज्जा के अभिनय में तात्यय है कि सिर चुकाकर लज्जित हुई दृष्टि से देखना और मुह फेर कर इधर उधर बात करना अथवा कृत्रिम कोष प्रकट करना "परावीत ate परावृत्तमुतिमोदते वक्त्रापसारणे।"
आकार विदित्वा आकार का सामान्य जब शरीराकृति होता है, कि इस g अथ के साथ विदित्वा अथ धरित न हो सकेगा क्योंकि आकृति देखी जाती है, न कि जानी जाती है। अत यहाँ आकार का तय है। शरीर में होने वाले आदि गक एव सात्विक भाव जो इस समय दोनो मे हो रहे थे, इन आदि तक चेष्टाओं से उन दोनो के प्रेमभाव को जानकर वस्तुत कवि ने यहाँ हेला नामक जड गज अकार का निर्देश किया है। स्त्रियो के यौवन कालीन २० अलकारो का वर्णन लक्षण प्रथो मे देखा जाता है इनमें बाय हाय हेला ये तीन अजून अलकार होते है। वस्तुत में एक प्रकार के मनोविकार ही हैं शोभावक होने के कारण ही इनको मलकार कहा जाता है। किं खल्विम प्रेक्ष्य तपोवन विरोधिनो विकारस्य गमनीयास्मि सबुता" समुन्तला का
राजा भगवान् काश्यप शाश्वते ब्रह्मणि स्थित इति प्रकाश । इय च व सखी तदात्मजेति कथमेतत् ।
अनसूया धूणोत्वार्यं । अस्ति कोsपि कौशिक इति गोत्रनामधेया महाप्रभावी राजर्ष । [सुणादु अज्जो अस्थि को वि कोसिओ त्ति गोतणा महेज महाप्पहावो राएसी ।]
यह कथन उसमे सवप्रथम उत्पन्न हुए भाव नामक अङ्गज अलकार का सूचक है "विकारात्मक चित्ते भाव प्रथम विक्रिया" अर्थात् जब सवचा विकार र वित्त मे प्रथम मनोविकार उत्पन्न होता है तब इसे भाव नामक अगर असकार कहा जाता है। इसी प्रकार "हृदय, मोताम्य एवा त्वया चितितानया मयने" कुन्तल के इस कपम ने हाथ नामक अगर जनकार निर्दिष्ट हुआ है "भावादीषत्प्राणाय स हाय इति कप्यते" अर्थात् जब पूर्वोत 'भाव' का और कुछ अधिक प्रकाश हो जाता है यह हाथ कहलाता है, भाव आदि यद्यपि होते हैं फिर भी इन कारण कुछ कुछ भ्रू नेशादि विकार भी शरीर में उत्पन्न हो जाते है अत इज विकार कहा जाता है। प्रथम विकार अर्थात् भाव सवधा सिट रहता है और आदि चेष्टाओ से इसके उदय का आभास मात्र होता है पहले तो शाही इस भावोक का अनुभव किया था पर जब वह हृदय गोताम्य आदि कहने लगी तब यह भाव हाव के रूप में बदल गया या "अलाप गारो हाथोक्षिविकार " अर्थात् जबकि बात तो कम कर पर शृङ्गारवश उसके नेत्रादि मे पा आदि प्रतीत होत मग तब हा होता है "नवादि विकारस्तु सम्भोगेच्छा प्रकाशक भाव एवापस विकारा हा उप" सा० द० यही हाल जब शृङ्गाररस प्रकट रूप से अभिव्यक्त करने लगता है तबला कहलाने लगता है "नार रूपमति" से पहला नामक विकार सह निहित समीपवर्ती, सम+नि+छ+ जीवित सवस्वेन जीवितस्य मस् तेन महर्षिष्ण कु को अपने जीवन का सत्य मानते थे अत यह यहा कुला के लिए प्रयुक्त हुआ है "सकुलपतिनिय" कुछ टीकाकारो न यहां भी पावास्थानक माना है। अतिपविशेषमविशिष्यत इति विशेष अतिथीना इस विशिष्ट अतिथि की, कृताथम-कुत सम्पादित [ne प्रयोजन यस्य अपूणमनोरम अपेतम- अपोटी बात मत करो चुप रहो इस कथन मे उदाहरण नामक नाटयभूषण है। वाक्य यद् गूढल्याच तदुपहरणम्" भवत्यो जीनतम अप सागमत्या समास अभ्यवना अनि अथ युच्ा । राजा भगवान फारम (म ) वारी है यह प्रसिद्ध है,
और यह आपकी सखी उनकी पुत्री है यह कैसे अनसूया आप सुनिये कौशिक' इस गोत्र नाम वाले कोई महाप्रभावशाली राज है।
राजा- अस्ति, श्रूयते। अनसूया तमावयो प्रियसख्या प्रभवमवगच्छ उज्झिताया शरीर सवर्धनादिभिस्तात काश्यपोऽस्या पिता तणो पिश्रसहीए पहव अवग उझिआए मरीरमवणादिह ताद कस्को से पिवा ।] राजा उतिशब्देन जनित मे कोतुहल आमूलाच्छोतुमि
च्छामि।
अनसूया शृणोत्वाय गौतमीतीरे पुरा किल तस्य राज प यतमानस्य किमपि जाता दमनका नामाप्सरा प्रेषिता नियमविघ्न- कारिणी (सुणादु अज्जी गोदमीतीरे पुरा किल तम्मराएसिणा तवभि माणer fee जादमकेहि दवे मेण णाम अच्छा पेसिया जिम विग्धकारिणी || 1
राजा है, ऐसा सुना जाता है।
aur उनको हम लोगो की यमी का दाता (पिता) ममतें (माता पिता द्वारा परित्यक्ता इसके शरीर सधन पास पण आदि के द्वारा तान काश्य भी इसके पिता है। राजा परित्यक्ता धन्य ने मुझमे उत्पन कर दिया है, में आरम्भ से
ही इस बात को सुनना चाहता हूँ।
अनसूया जाप सुनिये प्राचीनकाल में गोतमी नदी के किनार (जब कि नद राजन उम्र पर उये (अग समय) कुछ सादिवत हुए बताओ ने तपो नियम में विघ्न करने वाली मेनका नाम की अप्सरा को भेजा।
टिप्पणी
शाश्वते ब्रह्मविद्यत् + निम्तर रहने वाला, ब्रह्मणिब्रह्म शब्द का अथ ब्रह्मचय भी होता है अर्थात् मरण पन्त बहाचारी या नैष्ठिक ब्रह्मचारी "ग्रहाचापविधिवदान् गस्या- श्रमात उपकुर्वाणको काम तक पहारी दो प्रकार के होते है- उपकुर्वाण और नैष्ठिको विधिवत् दायर हरपायन में प्रवेश करते है वे उपकुर्वा और जो भारी रहते है व नैष्टिकारी कहे जाते है इति प्रकाश यह बात प्रसिद्ध है. महाप्रभाव बहुत बडे प्रभावशाली अतएव यह राजर्षि होकर भी ब्रह्मर्षि हो गये थे और होन ही त्रिकु को सारीर स्व भेजा था। राजविराज अथम परिवराजधि उपमित कमधारय । प्रभवम- उत्पत्ति स्थान नपाउञ्+टाप पिता- पालन पोषण कर्ता पालन-पोषण आदि के कारण महर्षि क भी इसके पिता है अर्थात् धमपिता
राजा अस्त्येतदन्यत्समाथित्व देवानाम् ।
अनसूया तो नोवार का उन्मादवित रूप प्रेश्य
[तदो नसन्तोदारसम
(इत्यक्ते मति)
राजा परस्ताज्जायत एव सर्वसम्भवा ।
अनसूया --अथ किम्।। वह छ ।
राजा उप
प्रभातरोति
शकु
जन्मदाता नहीं, क्योकि जनवितोपनेता च पवते पितरः स्मृता । अ प्रापित धमाका है" प्रजाना विनयाधाना प्रक्षणाभरणापि दिवान्तय अभी सन्यादातदाता च ज्ञानदार स्मृता । आसूलात पसरा-
प्यु अद्द्भ्य वा सरति vaa aafaकता समा" इस कोश वचन के अनुसार दिन मे होता है, ता स्त्रिया बहुवप्रसाद पनि अनुसार अप्सरा यह एक वचन का प्रयोग भी होता है
राजा उमरा को महान देवताओं में देखा जाता है। असूरा सदनन्तन रमणम समय मे उसके उन्मादक रूप को
देवकर-
(इतना आधी बात कह जाती है।)
राजा इसके (आग का बात तो विनिही है वस्तुत यह अप्सरा से
उत्पक्ष है।
बनुसूया और क्या। राजा ठीक है।
मानुषीष्विति अथयमा अस्य रूपस्य सम्भव वा स्यात् । प्रभातरल ज्योति वमुधानात् न उदेति । शब्दार्थ मामुपीय मानवता की स्त्रियों में रूपस्य इस ऐसे
समयको सम्भव कथ वा स्यात् उत्पत्ति सकती है। प्रभावरल ज्योति
कांति से देदीप्यमान तेज विद्युत् आदि का प्रकाश वuranic at an से, न उदेति उत्पन्न नहीं होता है। अनुवाद लोक की स्त्रियों में इस ऐसे की उत्पत्ति हो
सकती है, कांति समान प्रकाश भूरा से उत्पन्न नहीं हो सकता है भावाचकुला की उत्पत्ति कथा सुनकर दुष्यन्त कहता है कि यह ठीक ही है। मानव लोक की स्त्रियों से दिने सुदर सौंदय की उत्पत्ति कथमपि सम्भव नहीं हो सकती अर्थात् कुता जैसी अद्भुत सुन्दरी किसी मानवी स्वी की सतान नही हो सकती, विद्युत् आदि का प्रभा से देवीप्यमान प्रकाश आकाश से ही उत्पन्न हो सकता है भूतल से कभी नही, आकाश चारिणी अधारा से ही मतला जैसी अपू सुदरी की उत्पत्ति हो सकती है।
विशेष प्रस्तुत श्लोक में विशेष an ear के प्रस्तुत रहने पर भी जा arguty res erre कम सम्म यह सामान्य कथन दिया गया है, इससे यहाँ प्रस्तुत प्रशसा नकार है यहा उत्पत्ति किया का सम्भव और उदेति इन दो पदो से निर्देश किया गया है, अत प्रतिवस्तूपमाकार है। कुछ आवासों में यहाँ दुष्टात कार माना है। भूति वृत्ति अनुप्रास, पप्यावरून नामक छद है।
सस्कत व्याख्या— मानुषीषु मानवलोकषीषु अस्य शकुसलासदृशस्य दिव्यस्य रूपस्य सौन्दयस्य सम्भव कथं वा स्यात् उत्पत्ति कथं नु सम्भवति न ae autors erfn कामि तरल देदीप्यमानम ज्योति तेज विदादि । वसुधानादभूतला म उदेतिनो छति ।
संस्कृत सरला कुलोत्पत्तिकथा माय दुष्पत कथयति नामसदेह [ सम्भव पता हि मानवी स्त्री कु तामस्य दिव्यस्य सौदयस्य समुत्पत्तिस्तथासम्भवा यथा वदेदीप्यमान विद्युदादि तेज आकाशादेवोत्पद्यते न भूतलात् कदापि ।
अन्य समाधिभीमजयेया समाधे भी तस्य भाव सम+आ+ घा+किसमाधि तपस्या उमावि उमादकम् पायें रूपम "अगप्रत्यह गाना य सन्निवेशो यथोचितमनिष्ट सचिव समितीप्यते । अगायभूषितायेव प्रत्याभिपणे पे भू भांति हि मध्यते परस्तात आगे की बात मानवी मनो अप स्त्री मानुषीमा मना पाता यन्न इति अब वो डीप मध्ये युगागमपच । अस्य रूपस्य कुमासदस्य दिव्यस्य सायणस्य मुसाले छायायास्तरलक्ष्य मिवा तरा प्रतिभाति वह गेषु लावग्य तदिहाच्यते" सम्भव सम+भू+अप उत्पत्ति यहा front ains मायभूषण का निर्देश किया गया है। पदार्थाना प्रसिद्धाना क्रियते परिकीर्तनम ।" आप यहा मुख का विलोभन नामक अन्य भी है गुणाख्यानम विलोभनम् ।
प्रथमोऽ
राजा - (आत्मगतम्) लब्धावकाशो मे समोरथ । कि तु सच्या परिहासोदाहृता वरप्रार्थना श्रुत्वा घृत धभावकातर मे मन । प्रियचदा (सस्मित शकुन्तला विलोक्य नायकाभिमुखी भूत्वा पुन (शकुन्तला सलीमड, गुल्या तजयति ।)
रपि वक्तुकाम हवायें । [ पुणो वि वस्तु कामो वि अज्जो ।]
राजा सम्यगुपलक्षित भवत्या । अस्ति न सच्चरितश्रवणलोभावन्य-
वपि प्रष्टव्यम् । प्रियवदा-अल विचार्य अनियन्त्रणानुयोगस्तपस्विजनो नाम । [अ विरि । अणिजन्तणाणुओओ तस्सिमणी णाम ।]
राजा इति ज्ञातुमिच्छामि । =
जैखानस किमनया व्रतमा प्रदानाद- व्यापाररोधि मदनस्य निषेवितव्यम् । अत्यन्तमेव मदिरेक्षणवल्लभाभि- राहो निवत्स्यति सम हरिणानामि २३॥
(कुतला नीचे की ओर मुख किये रहती है) कुतला का रहता उसकी कुमारीजनोचित लज्जा का द्योतक है, साथ ही अपने जमात से भी उचे सकोच है और अपने सौंदय की प्रशासा सुनकर उसका सिर झुका लेना भी स्वाभाविक है। यहाँ 'क्व मनुष्य व वेद रूपम्" इस तात्पय से विमाकार भी व्य है।
राजा - (मन में) (अब मेरे मनोरम को अवकाश प्राप्त हो गया है।
क्षत्रिय कया है अ अब इसके साथ विवाह करने की मेरी इच्छा पूर्ण हो सकती है)
किन्तु सखी से हँसी में कथित वर-प्राथना को सुनकर मेरा मन द्विविधा से पा हुआ
होने के कारण अधीर हो रहा है।
प्रियदा (मुस्कराहट के साथ शकुन्तला को देखकर फिर नायक (दुष्यन्त) की और मुह करके) आप फिर भी कुछ कहना चाहते हैं।
(शकुन्तला राखी की अगुलि के संकेत से धमकाती है) राजा आपने ठीक समझा इस सच्चरित के सुनने के लोभ से मैं कुछ और भी पूछना चाहता है।
प्रियवद कुछ विचार करने की आवश्यकता नहीं तपस्वि जनो से तो न सकोच कोई भी प्रश्न पूछा जा सकता है।
राजा मैं तुम्हारी सभी के विषय में यह जानना चाहता हूँ । खानसमिति अन्वय— किम् अनया मदनस्य व्यापाररोधि वैखानसम्वतम् दानात निषेवितव्यम् आहो मदिरेशणवल्लभाभि हरिमाड गनाभि समम अत्यन्तमेव निवत्स्यति ।
जाके द्वारा महान्याधि ब्रह्मव्रता () गान किया जायगा, जान) मंदिरेक्षणाना यि लगने वाली हरिय आजीवन निपति
अनुवाद किया तुम्हारी काम के व्यापार का गहने या पाच बह्मचयत को किसी के सा के पूर्व तक ही पालन करेगी अथवा मदमस्त नो से प्रिय लगने वाली मृगियो गा आजीवन निवास करेगा
भावार्थ है क्या विके प्रकार के काम व्यापारी यवा यह दिक्षणा मृगरी के साथ सदा ही इसी प्रकार वन में रही। राजा का आय यह है कि उपकुराण ब्रह्मचय धारण करेगी अपना यह नैष्ठिक ब्रह्मचारिणी बनकर दया मे रहेगी हारीत स्मृति के अनुसार प्राचीनकाल मे दो प्रकार की स्त्रियों "द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिच मद्यस्वश्व" अर्थाद एक प्रकार की स्त्रियों विनी नैष्ठिक ब्रह्मचारिणी और दूसरी उपकृणब्रह्मचारिणी होती थी जोकि कुछ समय के बाद विवाह करके महस्थाश्रम मे प्रवेश करती थी।
कुछ टीकाकारो के मत में राजा के पूछने का आशय यह है कि यदि यह किसी योग्य वर को दी जाने वाली है तब ता विवाह काल तक ही तापस व्रत रखकर यह यन में रहेंगी और तदनन्तर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होकर काम करेगी अपना यदि यह किसी तपस्वी को दी जाने वाली है तब तो यह आजीवन मूगियो की तरह ही मन में रहेगी। इन दोनो मे से इसके लिए क्या निश्चय किया गया है, राजा यह जानना चाहता है।
विशेष प्रस्तुत श्लोक मे साभिप्राय वचन होने से परिकार होत एवं वृत्यनुप्रास अलकार है बस उसका नामक छन्द है।
सरकूत व्याख्या किमु किमिति, अनायास्यामस्य, मृगोभि समम सह अत्यमेव सदैव पाययमित्यय निवत्स्यति निवास करिष्यति ।
व्यापार रद्धि यद् व्यापार राधिका मसारनिरोधकम्साराम वापसोचितम
प्रतम ब्रह्मचगव्रतम् आप्रदानात्परिकलप तम निषेवितव्यम् आचरणीयम् आहो-अथवा मदिने क्षणवल्लभाभिया हरिणाह मनामि
सस्कृत सरलार्थ राजा प्रियवदा पृच्छति किमनया सा कामव्यापाराव रोधक तापस माय विवाहात मैवावरणीयम अथवा समदनेत्रप्रियाभि मृगी हारिणी भूत्वेय माजीयन यने एवं नियस्यति ।
प्रियवदा - आर्य, धर्मणेऽपि परोयरी पुनरस्या अनु प्रदाने । [ धम्मचरणे दि परमो अय जो गुरु उसे अणुरूवर-पा सको ।।
राजा - (आत्मगतम्) न दुरवापैय खलु प्रार्थना । अक्र हृदय साभिलाष सम्प्रति सन्देहनिणयो जात । arge refer aftद स्पर्शक्षम नम् ॥२४॥
टिप्पणी
इंसानसम वैज्ञानमस्येदमित्यण देखापगम "वैमाना बनवासी प्रस्था थापन व्यापाररोधि व्यापार रोड श्रीनग्य व व्यापारी गिनि बि आमात्यापारात प्रकृष्टाप पराग विवाद विधि प्रदान यावत् पञ्चम्या पञ्चमी मदिरेक्षणलमनि--- मंदिरे मदनेने ताच्या वा प्रिया नाभि ।
प्रदाय यह व्यक्ति अर्थात् नाधर्माचरण में भी वही तथापि ताastor का सकल्प इसको योग्य वर को देने का है। राजा - (मन मे) (अब मेरी यह प्राथना दुलही है। मवेति अन्वय-हृदय सामना भव सम्मति निर्णय गत शु
(e) अग्निम आशद कसे तुमक्षम राम ।
शब्दाच हृदय है हृदय साभिनाय भवनान्या के विषय में अभिनाषा बनो सम्पत्ति अन्न का निर्णय, कान हो गया है, जिस वस्तु को (तुम) अग्निम आश कसे अग्नि समश रह थे, वह यह रूप वस्तु नो मगनम स्पर्श करने वा रन है।
अनुवाद अपने हृदय को सम्बोधित करता हुआ राजा रहता है कि (अब कुता की प्राप्ति के लिये अभिलाषा कर सकते हो क्योंकि अब सदेह का मय हो गया है, तुम तक) जिसे अग्नि समझ रहे थे वह वस्तुत स्पण करने करन है
यह जानकर कि महर्षि क किसी योग्य दर से इसका विवाह करना चाहते हैं, राजा मन में सोचता है कि अब मेरी यह शकुनाविषयक प्राथना न जायेगी, अन वह अपने हृदय को स्वस्त करता हुआ कहता है कि अब तुम निश्चित होकर शकुन्तला के लिये अभिलाषा कर सकते हो क्योकि अब मह गुणतया निश्चय हो चुका है कि महर्षि क इसका विवाह योग्य वर से करना चाहते है और यह नैष्ठिक ब्रह्मचारिणी बनकर वन मे भी न रहेगी, यह अप्सरा से उत्पन्न किया होने से मेरे द्वारा विवाह योग्य भी है। अत अब सन्देह की कोई बात
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शकुन्तला - ( सरोषमिव) अनसूये, गमिष्याम्यहम्। [ अणसूए, गमिस्स
अह ]
अनसूया किनिमित्तम्। [किणिमित्त]
शकुन्तला इमामसबद्धप्रलापिनी प्रियवदामार्याय गौतम्यं निवेदयि- प्यामि इम अतबद्धप्पलाविणि जिवद अब्जाए गोदमीए णिवेदइम्स ||
मेष नहीं रह गई है। अब तक तुम जिसे ग्राह्मण कम होने के कारण अग्निव यश न करने योग्य समझ रहे थे, वह वस्तुत स्पश करने योगा स्पृहणीय रत्न है।
विशेष—यहाँ साभिलाष होने का कारण सन्देह निर्णय है अत काव्यलिङ्ग अलकार है। वृत्यनुरास बार्या जाति छद है।
संस्कत व्यावया हृदय है हृदय साभिलाषम् भव शकुन्तलाया we (en) सम्पति ददानीम सदेहनिर्णय जात सहनिवार- णामभूत्तमा रूप वस्तु (स्वम) अन्तिम वह्निम आकमसे तदिदमत कुलस्य वस्तु पक्षमम एवशयोग्य रत्नमकारलम् मस्तीति शेष ।
संस्कृत सरलाय प्रिया वचनेनाश्वस्तो राजा स्वकीय हृदय सम्बोधन कपयति वमिदानीताविषयकप्रत्याशावित भव यतोहि सम्प्रति स वारणात कुतला रूप वस्तु व मयसे तदेतत् योग्य कारल मस्ति ।
टिप्पणी
धर्मचरणेऽपि आश्रमवासिनी होने के कारण शकुन्तला को धार्मिक कृत्यों के विषय मे भी पिता की इच्छा पर निर्भर रहना पडता है, अत विवाह भी पिता की इच्छा पर ही मिभर है। अनुरूपवरप्रदाने अनुरूपाय वराय प्रदान तस्मिन् । "राजा म से लेकर यहाँ तक युक्ति नामक मुख का अंग है "सम्प्रधारण मर्थाना युक्तिरित्यभिधीयते" जहाँ प्रयोजन सिद्धि का कुछ निश्चय हो दुरवापा 33+ अव+आप+त्+टाप सामान अभिलाषेण सह । यहाँ पर समाधान नामक मुख का अग है "बीजस्यागमन यत्तु तत्समाधान मुख्यते। बीज की सम्पर्क स्थापना समाधान कही जाती है।
शकुन्तला (कुछ क्रुद्ध सी होकर) अनसूये में बसी जाऊँगी।
अनुसूया भयो,
शकुन्तला दसपट (अनुचित) प्रताप करने वाली प्रियवदा की आर्या गौतमी से शिकायत की।

अनसूया - सखि, न युक्तमकृतसत्कारमतिथिविशेष विसृज्य स्वच्छ- तो गमनम्। [सहि, ण जुत्त अकिदसक्कार अदिहिविसेस विसज्जिन सच्छन्ददो गमण । ]

(शकुन्तला न किचिदुक्त्वा प्रस्थितय )

राजा - (प्रहीतु निगृह्यात्मानम् आत्मगतम्) अहो चेष्टा- प्रतिरूपका कामिजनमनोवृत्ति । अह हि

अनुयास्यम् मुनितनया सहसा विनयेन वारितसर । स्थानावरचलनपि गत्येव पुन प्रतिनिवृत्त २ 84

अनसूयासति । विशिष्ट अतिथि को बिना सत्कार किये हुए छोड़कर स्वच्छन्दतापूर्वक चला जाना अनुचित है।

(कुन्तला बिना कुछ कहे ही चल देती है)

राजा - ( उसको पकड़ने की इच्छा करता हुआ और फिर अपने को रोककर । मन में यह आश्चय की बात है कि कालीजनो को मनोवृत्ति भी उनकी बाहरी घटनाओं के अनुरूप ही होती है, अर्थात् कामियो की चित्तवृत्ति उनकी बाह्य शारीरिक क्रियाओं के अनुसार ही होती है, शारीरिक व्यापार जिस जिस दशा में जिस-जिस रूप से बेष्टा करता है मानसिक व्यापार भी वैसा ही करता जाता है। क्योंकि मैं

अनुयास्त्वमिति अन्वय- अह हि मुनितनयाम् अनुयास्यन् सहसा विनयेन  हि स्थानात् अनुच्वलन अपि यत्वा पुन प्रतिनिवृत्त इय

शब्दार्थ मुनितनयाम् अनुयास्यन्मुनिषता के पीछे जाने की इच्छा करता हुआ (मैं) सहसा विनवेन वारितसर अकस्मात् विनयशीलता के द्वारा रोक दिया गया हूँ। स्थानात अनुपलम् अपि अपने स्थान से उठकर न चलता हुआ भी, = यत्वा पुन प्रतिनिवृत्त पूर्व जाकर फिर लौट-सा आया हूँ।

अनुवाद-पुत्री कुन्तला के पीछे जाने की इच्छा करता हुआ मैं अकस्मात् विनयशीलता के द्वारा रोक दिया गया हूँ। अपने स्थान से उठकर) न चलता हुवा भी जाकर पुन लौट-सा आया है

भावार्थ- राजा मन मे सोचता है कि बिना सोचे समझे अपना अपने अविनय के प्रकट हो जाने की भी चिन्ता न करके शकुन्तला के पीछे जाता हुआ में विनय द्वारा स्वभावत एव मशाली और बशी होने के कारण, रोक दिया गया हूँ। अत यद्यपि मैं एक पद भी अपने आसन से नहीं चला हूँ तथापि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं उसके पीछे आकर फिर लौट आया हूँ तात्पय यह है कि यद्यपि राजा ने अपने मन में एक बार उसे पकड़ने की इच्छा की थी परन्तु विनय ने उसे ऐसा करने से रोक दिया था, बत अब उसे ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वह उसके पोछे जाकर पुन लौट आया है। वस्तुत यह केवल उसके मन की भावना मात्र है, वह विनयवश अपने वासन से उठा

प्रथमोऽ

प्रियम्बदा (शकुन्तला निक्षय) हसा, म से पुक्त गन्तुम् [हला, ग दे जुत गन्तु ।] शकुन्तला ( सभङ्गम् ) किनिमित्तम्। [किंणिमित्त ।] प्रियम्वदा-वृक्षसेचने धारयसि मे एहि तावत् आत्मान

[भी नहीं पा जाता तो दूर की बात थी अत्यन्त उत्सुकतावश उसके मन में ऐसी भावना होना तो स्वाभाविक ही था क्योंकि कामियो की इच्छा वाह्य शरीर व्यापारों के अनुसार चलती है।

विशेष प्रस्तुत श्लोक के "गत्वा प्रतिनिवृत इव" में किपोत्प्रेक्षालकार, 'अनुपमपि गत्या' में विरोधाभासावकार, काव्यलिङ्ग, अनुप्रास, आर्या जाति है।

हहि मुनितनयाम्मुनिपुत्रीम् शकुन्तलाम् अनुयास्यन् अनुगमिष्यन् सहसा मटित्वेष, विनयेनजितेन्द्रियतया वारित निषिद्ध प्रसर गति यस्य स पारितसर निषिद्धपति (जात) स्थानात् = स्वासनात्, अनुच अनुतिष्ठन् अपि त्या शकुन्तलामनुसृत्य पुन प्रतिनिवृत्त इव पुन प्रत्यागत इस

सस्कृत-रा- दुष्यन्तचिन्नपति शकुन्तला मनुगमिष्य ग्रह मटित्येव प्रति- विद्यगति बत स्वासनावनुतिष्ठापि यह पुनितनयामनुसृत्य पुन प्रत्यागत इव जात

सम्मानिम्न सम्बद्धम असम्बद्धम् (सम्+बन्ध+एफ) सम्ब तपतीत्यर्थं ताच्छीस्पार्थे णिनि- ऊटपटांग वकवाद करने वाली पेष्टाप्रतिरूपिका- प्रतिगत कर मस्या सा प्रतिरूपा तत स्वार्थे कन् प्रतिरूपिका, चेष्टाया प्रतिरूपिका, काम अस्त्येषामिति कामिन से व ते जनास्तेषाम् कामिजनानां मनस वृति कामिजन मनोवृत्ति कामियों की चित्तवृत्ति अनुयास्यन–अनु या लुट् शत्रु विनयेन विनय का वर्ष यहाँ जितेन्द्रियता है "इन्द्रियाणां जय प्राह विनय भरतो मुनि मुनिवनमा के प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि उसके साथ सविनय व्यवहार अनिवार्य है। बारिस प्यन्तात वृधातो प्रप्प्रसर यहाँ पर परिभावना नामक सन्धि का है कुतूहलोत्तरा याच प्रोक्ता तु परिभावना" यहाँ कुतुहलतापूर्ण वाक्य प्रयुक्त हो।

प्रिया (शकुन्तला को रोककर ) सखी तुम्हारा जाना उचित नहीं। शता बढ़ाकर ) क्यो ? प्रमादो वृक्ष सोचने का मेरा ऋण तुम पर है, इसलिए बायो, अपने को

( से छुड़ाकर तब जाना।

: प्रथमोड

मोचयित्वा ततो गमिष्यसि [ एक्ससेअणे दुवे धारेसि मे एहि दाब बत्ताण मोचिन तदो गमिस्ससि ।] (इति बलानां निवर्तयति ।)

राजा-भद्रे, वृक्षसेचनादेव परिश्रान्तामत्र भवर्ती लक्षये । तथा

अस्तांसावतिमात्र लोहिततली बाहू घटोत्क्षेपणा, अद्यापि स्तनवेपथु जनयति श्वास प्रमाणाधिक । अस्त कर्णशिरोबरोधि वंदने धर्माम्भसां जालक बन्धे त्र सिमि चैकहस्तयमिता पर्याकुला पंजा ॥२६॥

वहमेनामनृणा करोमि (इत्यगुलीय वातुमिच्छति ।) (उमे नाममुद्राण्यनुवाच्य परस्परमवलोकयत )

(यह कहकर बलपूर्वक उसको लौटाती है) राजाम, बुक सींचने से ही मैं इनको पकी हुई देख रहा हूँ,- कस्लेति- अवय-पटोत्क्षेपणात् बस्या बाहू अस्तासो अतिमोहित (स्त) प्रमाणाधिक स्वास अद्यापि स्तनवेपथुम् जनयति बहने कर्णशिरीपरोधि धर्माम्भसाम् बालकम् अस्तम्वन्धे समिति व पर्याकुला मूघणा एकस्तममिता (सति ) । सम्बार्थ घटोत्क्षेपणात् बजे उठाने से बल्या बाहू इसकी भुजायें [weater के हुये कन् प्रदेश वासी (तथा) अतिमानसहित अत्यधिक साम हथेलियों वाली (स्त प्रमाणाधिक प्रयास निश्चित मात्रा से अधिक मास निश्वासवायु, स्तनवेपथुम्स्तनों में कम्प, जनयति उत्पन्न कर रहा है। बने मुख पर, कर्णशिरीषरोधि कानों में शिरीष पुष्प को (हिलने से रोकने वाला, धर्माम्पस सम्वेद बूंदों का समूह, खतम् पा हुआ है। बन्धे सचिनि च और ever के डी पड़ जाने पर, पर्याकुला इधर-उधर बिसरे हुये, या केश, एक स्तयमिता एक हाथ से पकडे गये (सन्ति) ।

अनुवाद उठाने से इस शकुन्तला की मुवायें, के हुये कन्धों वाली (तथा) अत्यधिक साल होलियों वाली (है) निश्चित मात्रा से अधिक नि श्वास वायु (इसके स्तनों में कम्प भी उत्पन्न कर रहा है। मुख पर कामों के शिरीष को (हिलने से रोकने वाला स्वेद बिन्दुबों का समूह पड़ा हुआ है, और के के डीने पर जाने पर इधर-उधर बिखरे हुये केस एक हाथ से पकड़े गये है।

माता को पकी हुई देखकर राजा कहता है कि जस सेचन के लिए बराबर परे उठाने के कारण इसकी भुजायें शुके हुए कन्धों वाली हो गई है त इसके हाथों की हथेलियाँ अत्यधिक लाल पर गई हैं। (परिश्रम के कार  एक निश्चित मात्रा से अधिक निकल रहा है बतएव अब भी इसके स्तनों

में कम्प हो रहा है। इसके मुख पर स्वेद बिन्दुओं का समूह फैला हुआ है इस कारण उसने जो शिरीय पुष्प अपने कानो में पहिन रखे हैं उनकी पडियों के पसीने में चिपक जाने से शिरीष पुष्पों का हिलना रुक गया है। इधर उधर बलने-फिरने और परिश्रम करने के कारण उसका केशपाश (जूडा) डीला पर गया है बत उसके के इधर-उधर बिखर गये है अत उसने उहे एक हाथ से समेट कर पकड़ रखा है।

विशेष प्रस्तुत पथ का घटोत्क्षेपण यह हेतु सवन प्रयोज्य है। अत "सेव दीपकम् के अनुसार कारकदीपक अलकार है। स्तनकम्म जनन हेतु से श्वास का प्रमाणाधिक होना सिद्ध होता है अत अनुमानानकार है। बन्धन के होने से धन पर्याकुल है, बत काव्यलिङ्ग अलकार है, शकुन्तलागत परिश्रान्तत्व समयन के प्रति बहुविध कारणों का उल्लेख होने से समुच्चयालकार है। परिश्रम से नायिका मे ये सब बातें स्वधावत घटित होती है अत स्वभावोति कार है। साथ क्रीडित नामक छन्द है।

मस्कृत व्याख्या घटाना मुरोपण तस्मात् पटोरकोपणात् क्षमेचनाम जलपूर्णकुम्भोत्यापनात्यातलाया बाहूभुजी, सस्तो असी पयो तौ- सस्तासी अवनतस्कन्धी, अतिमात्र लोहित तल ययोस्ती-अतिमान मोहिततली = अत्यधिकरतकरतल (स्त) प्रमाणादधिक प्रमाणाधिक स्वाभा- विकस्वमावाधिक प्रवास उच्छ्वास अद्यापि इदानीमपि स्तनयो येपस्तम् स्तनवेपथुम् उरोजकम्पम् जनयति उत्पादयति वदने मुखमण्डले, कर्णयो अतसीकृत शिरीष कणशिरोषम् तद् रोड, शीस यस्य तद्— कसरीपरोधिकर्णा भरणीकृतशिरीषपुष्पसचलननिरोधकन्धर्माम्भसाम्स्वेदजलानाम् जालकम् = बिन्दुसमूह अस्तम् गलितम बोकेशपाशबन्धे सत्रिनिप्रनिधिले सति पर्याकुना इतस्ततो विक्षिप्ता, पूजा केशा एकेन हस्तेन यमिता पूता- एकहस्तयमिता (सन्ति) ।

सस्कृत सरनार्थ पटोलोपपादयेतो रस्या भुजौ अवनतस्कन्धी अत्यधिकरक्त- करती च स्त। स्वाभाविकमात्राविक उच्छ्वासोऽद्यापि कृषकम्प पुत्पादयति, गुण- म कर्णाभरणीकृतशिरीपसचाररोधक स्वेदविन्दुकदम्बक गतिम् प्रतिधिनिविक्षिप्ता केहा एकहस्तधृता सन्ति ।

समितिती मैं इसको म्हण मुक्त किये देता हूँ। (यह कहकर अपनी अनूठी देना चाहता है) (दोनो नामादिकत बगूठी के अक्षरों को पढ़कर एक दूसरी की ओर देखने लगती हैं)।

टिप्पणी

निय निरुक्त्या यम- ध्रुवो येन सहितम् । मे धारयसि धारयसि का अर्थ है ऋणी होना-यी वृक्षो के सीचने का मेरा म तुम पर है, यहाँ 'धारे स्वमण' सूत्र से मे (महाम्) मे चतुर्थी है अस्तांसी सुन्दरी स्त्रियो के कन्धे बाहुमूल स्वभावत कुछ के हुये होते हैं, पर यहाँ पटोपव

प्रथमोऽ

राजा - अलमस्मानम्यथा सभाव्य राज्ञ परिग्रहोऽयम् इति

राजपुरुष मामवगच्छ ।

प्रियम्बदा तेन हि नात्येतव गुलीयकमङ्गुलीवियोगम् आर्यस्य वचनेनानुर्णदानीमेवा (किचि विहस्य) हला शकुन्तले, मोचितास्यनुकम्पि नायेंण, अथवा महाराजेन गच्छेदानीम् [तेण हि गारिहदि एवं अगुलीअन अगुलीfasa | अज्जस्त वअणेन अणिरिणा दाणि एसा हसा उन्दले, मोइदा सि अणुअम्पिणा अज्जेण, अहवा महा रायण गच्छ दाणि ।।

शकुन्तला - (आत्मगतम्) यद्यात्मन प्रभविष्यामि (प्रकाशम्) का त्व विसर्जितव्यस्य रोद्धव्यस्य वा [ज अत्तणो पहविस्स का तुम विस ज्जिदवस रुन्धि दव्वरस वा ।]

: ये और अधिक शुरु गये थे। अतिमात्रलोहिततमी सुदरी स्त्रियो के करतल स्वभावत लाल होते हैं पर यहाँ वे घटोत्क्षेपण से और अधिक साल हो गये थे। तस शब्द यहाँ करतल के अर्थ मे है "नामैकदेशग्रहणे नाममात्रस्य ग्रहणम्" । इन दोनो विशेषण से कुता का उत्तम नायिकात्व ध्वनित होता है। अतियता भाषा यस्मिन् तद् अतिमात्रम्। घटोटक्षेपणात् त्वपञ्चमी प्रमाणाधिक स्वाभाविक मात्रा से अधिक साधारण स्थिति में जितना प्रयास निकलता है, परिश्रम करने में उससे अधिक प्रयास निकलता है  व्यक्ति परिभ्रान्त हो जाता है। मद्यापि इसका अर्थ है अब भी  श्वास निकल रहा है मत स्तनों में कम्प हो रहा है। बचने यद्यपि परिभ्रमण सर्वाङ्ग स्वेदयुक्त पा पर अन्य जगो के इके होने के कारण केवल मुख पर ही स्वेद दिखाई पड़ता था. दूसरी बात यह भी है कि अनुरागियों की दृष्टि सवप्रथम मुख पर ही पडती है अतएव कवि ने यहाँ 'वदने' का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है मुखमण्डल कणशिरीरुधाच्छील्ये गिनि नाममुद्रासराणि - मान्न मुद्रा तस्या अक्षराणि नामाङ्कित मुद्रिका के अक्षरो को, अनुवाच्य अनु+वच + णिच क्त्वा स्वप

राजा हमे और समझना व्यय है। यह तो राजा का उपहार है। इस लिए मुझे राजपुरुष समझिये |

विदा तो यह अंगूठी आपकी अंगुली के वियोग योग्य नहीं है अर्थात् इसे आप अपनी ही मँगनी मे पहनें। आपके कहने से ही अब यह ऋणमुक्त हो गई है। (कुछ मुस्करा कर) हुला शकुन्तला तुम इन दयालु सत्पुरुष के द्वारा अथवा महाराज के द्वारा मुक्त कर दी गई हो, अब आओ ।

कुता ( मन मे यदि मैं अपने वश में होऊँगी, बजा तो तब सकूंगी जब अपना मन अपने बस में होगा (प्रकट) मुझे भेजने के लिये अथवा रोकने के लिए तुम कौन होती हो, अर्थात् यह तो मेरी इच्छा पर निर्भर है जाऊँ या न जाऊँ

: प्रथमोऽणु

राजा (शकुन्तला विलोक्य आत्मगतम्) किशु लुयथा वयमस्या- मेवमियमप्यस्मान् प्रति स्यात् । 'अथवा लब्धावकाशा मे प्रार्थना

या व मिमयति यद्यपि मध्वचोभि कर्ण ददात्यभिमुख मयि भाषमाणे । फाम न तिष्ठति मदाननसम्मुखीना सूयिष्ठमन्यविषया न तु दृष्टिरस्या ॥२७

सूमिष्ठमन्यविषया न तुष्टिरस्या २७

राजा - (शकुन्तला को देखकर मन ही मन ) क्या जिस प्रकार हम इस पर (अनुरक्त है) क्या यह भी उसी प्रकार हमारे प्रति (अनुरक्त होगी) अथवा अब मेरी इच्छा को अवसर प्राप्त हो गया है। क्योंकि-

वाचमिति अन्य यद्यपि वचोभि वाचम् न मिश्रयति, मयि भाषमाणे afir कर्णं ददाति कामम् मदाननसम्मुखीना न तिष्ठति अस्था दृष्टितु भूमिष्ठम् बन्यविषया न

सम्मार्थ यद्यपि मवचोभिद्यपि मेरे वचनों के साथ, वाचन मिश्रयति अपने वचन नहीं मिलती है अर्थाद साक्षाद मुझ से बातचीत नहीं करती है। (तु) af भाषमाणे प्रति (किन्तु मेरे बोलते समय अभिमुख कर्ण ददाति मेरी मोर कान लगाये रहती है अर्थात् मेरे वचनो को ध्यानपूर्वक एवं उत्सुकतापूर्वक सुनती है। कामम्भले ही यह मदाननसम्मुखीना न तिष्ठति मेरे मुख के सामने मुख करके = नहीं ठहरती है बस्या दृष्टि तु किन्तु इसको दृष्टि भूमिष्ठम् अन्य विषयान बहुत  अन्यपिता नहीं होती अर्थात् मेरे अतिरिक्त दूसरी ओर नहीं जाती ।

अनुवाद (यह कुतला मेरे वचनों के साथ अपने वचन नहीं मिलती. अर्थात् साक्षात् मुझ से बातचीत नहीं करती (किन्तु मेरे बोलते समय मेरी ओर कान साये रहती है वर्षात् मेरी बात को ध्यान से सुनती है, भले ही यह मेरे मुख के सामने मुख करके नहीं ठहरती, तथापि इसकी दृष्टि बहुत अधिक अन्यविषयगता नहीं होती, अर्थात् मेरे अतिरिक्त किसी दूसरी ओर नहीं जाती है

मायार्थशकुन्तला की आग चेष्टाओ को देखकर दुष्यन्त सोचता है कि यद्यपि यह शकुन्तला मुझ से साक्षात् सामने होकर बातचीत नहीं करती अर्थात् (जब मैं कुछ कहता हूँ तो यह अपना मत प्रकट नहीं करती, तथापि मेरे बोलने पर यह सावधानी से मेरी बात सुनने लगती है। यद्यपि यह अधिक मेरे सामने नहीं ठहरती फिर भी अधिकतर इसकी दृष्टि मेरे अतिरिक्त दूसरी ओर नहीं जाती अर्थात् यह मेरी ओर ही देखती रहती है अत इन चेष्टाओ से स्पष्ट है कि यह भी मुझ पर उसी प्रकार अनुरत है जिस प्रकार कि मैं इस पर अनुरक्त हूँ।

विशेष- अनुरागोत्पतिनिणय रूप काय के प्रति कर्णदान और अन दृष्टि रूप दो हेयो के निर्देश से यहाँ समुच्चयासकार है। छेक वृति अनुप्रास वसन्ततिलका छन्द है। इसमे विलास नामक अगज अलकार है "यो मागतो विकारो, गत्यासन स्थानविलोकनादी नानाविधा भूतचमत्कृतिश्च पराह मुख चास्यमय विलास ।"

संस्कृत व्याख्या यद्यपि मद्वचोभि यद्यपि मम वचनेसह वाचम्= स्वकीय वचनम् न मिश्रयतिमेजयति साम्रान्यया सह नासपतीति भाव ( तथापि ) मयि भाषमाने सति मयि दुष्यन्ते धदति सति अभिमुख कण ददाति ममाभिमुख कर्ण] योजयति सावधान सादरच वचन शृणोतीत्यच काममु मतमेतद् पद, मदाननसम्मुखीना मन्मुखाममुखी सती न तिष्ठति तथापि अस्या दृष्टि मकुतलाया दृष्टि भूयिष्ठम् अत्यधिक अन्यविषया न अन्यविषयगता न भवति मन्मुखातिरिक्तविषयगता न जायत इत्यच एतेन निश्चीयते पदियं तथैवानुरक्ता यया- स्यामित्याशय ।

संस्कृत सरला शकुन्तमाचेष्टा अवलोक्य राजा चिन्तयति यद्यपि नेज मया सह साक्षाद वार्तालाप करोति, तयापि मयि वदति सति इस सावधान सावरक मवचनं वृणोति । पद्यपि न मन्मुखाभिमुख सती तिष्ठति तथा प्यस्या दृष्टि मुखातिरिक्तविषयगता न जायते। एताभिरस्याश्वेष्टाभिरनुमीयते यदिप तथैवास्मासु अनुरक्ता यथा वयमध्याम् इति ।

टिप्पणी

"राम परियोऽयमिति राजपुष्य मा मवगाय" कुछ प्रतियों में ऐसा भी पाठ मिलता है, यद्यपि यह मनाय है। वस्तुत इसके दो अर्थ है राजा ने इस इययक वाक्य का प्रयोग अपने को छिपाने के लिए किया है, यह कहना है कि मामा- कि त अंगूठी के अक्षरों से भाप मुझे राजा न समझो यह तो मुझे राजा दुष्यन्त के द्वारा दिया गया उपहार है अत मुझे राजकमचारी समझो। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि यह राजा का तुम्हारे लिए उपहार है मुझे तुम राजा समझो ( राजा पासी पुरुष राजपुरुष) प्रथम अथ मे राश पुरुष राजपुरुष होगा। किञ्च विहस्य वस्तुल प्रियया यह जान गई थी कि अंगूठी देने वाले यह राजा दुष्यात हो हैं अतएव उसने मुस्कराकर यह कहा था। मिचपति मिश्रम् करोति मिश्र णि नट- सम्मुखीमा—पदाननस्य सम्मुखीनासम्मुख इन प् विष्ठम्+ को आदेशअन्य विषय यस्यासा भू

प्रस्तुत पद्म मे नायिका का अनुरागित भी इष्टव्य है "विकारो नेस्य तावणार अन्यध्यावेन दीक्षा अनुरागेङ्गित भवेद

(नेपथ्ये)

भो भोस्तपस्विन, सन्निहितास्तपोवनसत्वरजायं भवत । प्रत्यासन्न

फिल मृगयाविहारी पार्थिवो दुष्यन्त ।

सुरगसुरहतस्तथाहि रेणु- विविध तजलाई वल्कलेषु ।

पतति परिणतारुणप्रकाश

शलभसमूह इवाश्रममे ॥२॥

साच तथाहि क्योंकि, तुरगरत अश्वो के सुरो से उठाई गई, परिणतारणप्रकाश सध्याकालीन सू की कान्ति के समान लाल कान्ति वाली, रेधूलि, शलभसमूह दवडियो के समूह की तरह विपक्तिलाई क से जिनकी डालियो पर (सुखाने के लिए मुनियों के जल से भीगे वल्कल वस्त्र डाले गये हैं, आश्रम मे ऐसे आम के वृक्ष पर पततिपक्ष रही है।

(नेपथ्य मे)

हे तपस्वियों, तपोवन के जीवो की रक्षा के लिए आप लोग समीपवर्ती हो जाइये। क्योंकि शिकार के लिये विचरण करने वाला राजा दुष्यन्त पास ही है। क्योकि—

सुरपति अन्यय-तथाहि तुरगसुरहत परिणतारणप्रकाश रेणु शलभसमूह बकलेषु आश्रम नेषु पतति ।

के खुरो से उठाई गई (तथा) अस्त होते हुए सू की कान्ति के समान लाल काति वाली धूनि सलभ समूह के समान उन आश्रम के वृक्ष पर पड़ रही है जिनकी डालियों पर सुलाने के लिए मुनियों के) अस से भीगे वल्कल वस्त्र वाले गये हैं

भावाच नेपथ्य से कहा जा रहा है कि अयो के खुरो से उठाई गई भूमि,  fक लाल चमक सध्याकालीन सूप की कान्ति के समान है. आश्रम के बूझो पर उसी प्रकार पड़ रही है जैसे कि डिडील वृक्षों पर पडता है, इन आश्रम के वृक्षो पर मुनिजनो ने अपने जल से भीगे व वस्त्रो को सुखाने के लिए लटका रखा है।

विशेष परिणतारणप्रकाश मे सुप्तोपमानकार है। समूह इव मे उपमाकार त्यास पुष्पिताग्रा नामक छंद है "अनि गुगरेफतो कारो युजि च न जौ जरगाश्च पुष्पिता" इस विषम छद के प्र० और चरणो में गण गण गण गण तथा द्वि० और पथ मे भगन जगण जगण रमण तथा एक गुरुवण होता है।

संस्कृत व्याख्यातथाहि यतोहि दुरगाणाम् बवाना सुत रंग- चहूत अपयशफोत्यापित परिणतस्य साध्यस्य अश्णस्य सूर्यस्य प्रकाश व प्रकाश

पादाकृष्टव्रततिवलयास सजातपाश । मूर्ती विघ्नस्तपस इव नो भन्सारङ्गयो धमरिष्य प्रविशति गज स्यन्दनालोकभीत र (सर्वा कर्ण दत्त्वा किंचिदिव सभ्रान्ता )

- कान्ति र्यस्य स परिणतारण प्रकाश अस्ताचलो मुखमूयकारित सध्यासमये रक्ताभ- सूर्यकिरणसम्पाद धूलिपटलस्य रक्तरजता जायत एवं रेगु धूलि शलभाना- समूह समूह पराणिरिव विटपेषु वक्षमाखासु विपत्तानि लम्बितानि जलेन बाणि वारिणा सिक्तानि वल्कलानि येषा तेषु विपविषक्तनलाइ वल्कलेषु, बाश्रमाणा हुमा तेषु आश्रमद्र मेषु तपोवनवक्षेषु पठियासनीय

- सन्निहिता समीपवर्तिन सम्+नि+था+क तपोवन० तपोवनस्व जीवानां रक्षा तस्यै प्रत्यासन्नसमीपस्थ प्रति आ मृगयाविहारी मृगया वितुं शीलमस्येत्य मृगया+बि+हु पिवि+ + परिणत परि + न + अपिष और भी-

संस्कृत सरमाय तो तुरगरसमुत्थापित सान्ध्य सूर्यप्रकाश धूलि तोह पतङ्गरागिरिव तेषु तपोवनतरुषु वायुसयोगेनोड्डीय ससृजति येषा वृक्षाणा शाखा मुनिजनाना असेन आणि वल्कलानि लम्बितानि सन्ति ।

तो ति अन्य-स्पन्दनालोक मीत तीव्रापातप्रतिहत स्कन्नैकदन्त, पादाकृष्टव्रत लिगलास गजासपास भिनसारच गज न तपस भूत

विघ्न इव धर्मारण्यम् प्रविशति ।

राज्याय मदनालोकभीतर को देखने से भयभीत हुआ तीव्राचात प्रतिहततरू (दौडने में स्वाभाविक संवेग के कारण ) जिसने ती प्रहार से वृक्षो को तोड दिया है, कद (पाश्व में देखने के कारण जिसका एक दाँत (दाहिना दाँत) एक भाग में लगा हुआ है। यह प्रसिद्ध है कि हाथी दक्षिण स्कन्ध की ओर ही सरलता से अपना मुख घुमा सकता है अव दाहिने कंधे पर ही उसके दाँत का लगता स्वाभाविक है किन्ही प्रतियो मे घातप्रतितत्तन्यकदत" "यह एक ही समासान्त पद है वहाँ इसका अर्थ "तीवप्रहार से तोड़े गये वृक्षो की शाखा पर freer एक दाँत लगा हुआ है, होगा, पर यह अब उचित प्रतीत नहीं होता क्योकि वृक्ष की माला पर हाथी के दांत का लगना स्वाभाविक प्रतीत नही होता, मत इसका =

: इसका अर्थ उक्त प्रकार से करना ही ठीक है, एक नहीं दो पद हैं और दोनो गज के विशेषण हैं। पादाकृष्ट० पैरो द्वारा खीची गई लताओं के समूह के लिपट जाने से जिसके पैरो के लिये पाश बन गया है। अर्थात् जिसके पैर बंध गये हैं। भिवसारङ्ग जिसने मृगो के झुण्ड को तितर-बितर कर दिया है, न तपस मूर्त विप्त इव जो कि हमारी तपस्या के लिए शरीरधारी विघ्न के समान है, ( ऐसा यह गज) तपोवन में प्रवेश कर रहा है।

अनुवाद के देखने से भी हुआ गज, जिसने कि अपने तीव्र प्रहारो से वृक्षो को तो दिया है, और जिसका एक दाँत दाहिने कन्धे पर लगा हुआ है, पैरो द्वारा खीची गई लताओ के समूह के अपट जाने से (जिसके पैरो के लिए पास बन गया है अर्थात् जिसके पैर बंध गये हैं जिसने कि मृगो के शुद्ध को तितर-बितर कर दिया है तथा जो हमारी उपस्था के लिए शरीरधारी विघ्न के समान है, तपोवन मे प्रवेश कर रहा है।

भावाथ नेपथ्य में कोई कहता है कि हे तपस्वियों, देखो, राजा के रथ को देखने से wait होकर यह हाथी तपोवन में घुस रहा है जिससे सभी जीव व्याकुल हो रहे हैं, हाथी ने दोड़ते हुए तीव्र महारो से बूजो को तोड डाला है और इसका एक दाहिना दाँत (फोध में देखने के कारण इसके दाहिने स्कन्ध से लगा हुआ है। इसके पैरों द्वारा भागते हुए इसके द्वारा स्वयं खीची गई लताएँ ही इसके पैरो में बंध गई है तथा इसने मृगों को भयभीत कर इधर-उधर भगा दिया है, वस्तुत यह गज हमारी उपस्या के लिए एक शरीरधारी विघ्न के ही समान है।

विशेष --- यहाँ आपात यादि निमित्तभूत विशेषणों से गम में मूर्तिमत्व की उत्प्रेक्षा की गई है मत उत्प्रेक्षाकार है और मूर्ती विघ्न एव मे भी उत्रेका लकार है, कार्य के वगन से कारणरूपी राजा के आगमन का संकेत होने से प्रस्त प्रशसाकार, परिकलकार श्रुति वृत्ति अनुप्रास मन्दाक्रान्ता छन्द है " मन्दा- ताम्बुधिरस नभनौ तो म्मम्" जिस छन्द में क्रमश मगण भगण गण गण गण तथा अन्त मे दो गुण वग हो, चारछ और सास पर पति हो वह मन्दाक्रान्ता छन्द होता है।

संस्कृत व्याख्यास्यन्दनस्य रथस्य आलोकात् दर्शनात भीत त्रस्त स्यन्द नालोकमत सीवेण अत्युग्रेण आपातेन प्रहारेण प्रतिहता नोटिता तरव देन प्रतिहत स्कन्धे प्रदे लग्न सष्ट एक दक्षिण दन्त पत्य- स्कन्धमनैकदन्तदक्षिणपाश्वभागक्तं कदन्त पादाभ्या माकृष्ट पद्धतीन लतानाम् वय जालम् तस्य आसह गेन समन्तात् परिवेष्टनेन सजात पाया न यस्य पादाकृष्टवत तिवलयास जातपात भिनानि भयोत्पादनेन पृue कृतानि सारङ्गाणाम् वन्यमुषाणाम् यूयानि कुलानि येन स निसार ग न धस्मा- कम्, तपस तपानियमस्य मूर्त शरीरी विघ्न अन्तराय व मज धर्मारण्यं प्रविशति तपोवन प्रविशति ।

अहो धिक्, पौरा अस्मदविणस्तपोवनमुप- इन्वन्ति । भवतु प्रतिगमिष्यामस्तावत् ।

सख्यौ आर्य, अनेनारण्यकवृत्तान्तेन पर्याकुला स्म । अनुजानीहि न उजगमनाय [अज्ज, इमिणा आरणअवुत्तन्तेण पज्जाउल म्ह। अणु- जाणीहि णो उडअगमणस्स ।]

राजा - (समभ्रमम् गच्छन्तु भवत्य । वयमप्याश्रमपीडा यथा न भवति तया प्रयतिष्यामहे ।

(सर्व उत्तिष्ठन्ति ।)

सख्यौ आर्य, सम्भावितातिथिसत्कार भूयोऽपि प्रेक्षणनिमित्त सज्जामह आर्य विज्ञापयितुम् [अज्ज असभाविदादिसिक्कार भूओ वि पेक्खणनिमित्त लज्जेमो अज्ज विष्णविदु ।]

संस्कृत सरलार्थ राजरयदर्शनात्त्रस्त अत्युप्रहारशोति दक्षिणपाय-  तपोनियमस्य शरीरी विघ्न इव गजस्तपोवन प्रविशति ।

बाघात आ + नपम् वस्तुत यह एक बन्यगज था जोकि राजा के र को देखकर भीत होकर भाग रहा था, भागने से संवेग के कारण इसने अपने दाँतो के प्रहारो से वृक्षो को तोड दिया था, कोई टीकाकार कहते हैं कि टूटे हुए बुक की शाखा मैं इसका एक दात उलझ गया था और यह गज उस शाखा के साथ ही भाग रहा था, वस्तुत भय और शोध के समय गज अपने दाहिने पाश्व भाग की ओर मुंह करके देखता है अत दाहिने पाव भाग में इसके दात का लगना स्वाभाविक ही है। --- बा+स+प मूतमुच्छ + इसमें भयानक रस है, गजगत भय स्थायी भाव है।

(सभी कान लगाकर अर्थात् सुनकर कुछ भवता-सी जाती है।) राजा (मन मे) ओह धिक्कार है, मुझे सोने वाले पुरु वासी जन तपोवन को घेर रहे हैं अर्थात् घेर कर पीति कर रहे हैं। अच्छा, मैं सीट जाता हूँ। दोनों सखियाँ आग इस बयान के वृत्तान्त से हम लोग बहुत धनवाई हुई हूँ। (अ) हम लोगों को अपनी कुटी पर जाने की स्वीकृति दीजिए । राजा (घाट के साथ) आप लोग जाइये, मैं भी ऐसा प्रयत्न करूंगा

जिससे बाथम को पौवा न हो

दोनों सवि श्रीमन अकृतातिथि सत्कार आपको पुन दशन देने के लिए प्रार्थना करती हुई हमे लज्जा होती है। तात्पर्य यह कि हम लोगो द्वारा जिस आप का

प्रथमो

राजा मा मैवम् । दर्शनेनैव भवतीनां पुरस्कृतोऽस्मि ।

(शकुन्तला राजानमवलोकयन्ती सव्याज विलम्व्य सहसम्प

निष्कान्ता ।)

राजा - मन्दोत्सुक्योऽस्मि नगरगमन प्रति । यावदानुयात्रिकान् समेत्य नातिदूरे तपोवनस्य निवेशयेयम् । न खलु शक्नोमि शकुन्तला व्यापारादात्मान निवर्तयितुम् ।

मम हि- छति पर शरीर धावति पश्चादसस्तुत चेत  केतो प्रतिवात नीयमानस्य ॥३०॥ (इति निष्क्रान्ता सर्वे 1) ॥ इति प्रथमोऽ ॥

: - अहो चिज वृतान्त को सुनकर राजा अपने को ही धिक्कारता है, क्योंकि यह सब अपने ही कारण हुआ था। पौरा पुरे भवा पौरा नगर वासीजन क्योकि सैनिको के साथ विदूषक यवनी आदि नागरिक भी थे। आरण्यकवृत्ता तेन अरण्ये भव आरण्यक अरण्य बुज को अक, आरण्यकस्प वचनस्य वृत्तान्त तेन असम्मादि- तातिथिसत्कारम् न सम्भावित न त अति सत्कार यस्य तम् । पुरस्कृत = संस्कृत सब्याजम्-व्याजेन सह बहुब्रीहि वि+अजून

कोई अतिथि सत्कार नही बन पड़ा है ऐसे आपसे यह प्रार्थना करने में हमे सोच रहा है कि आप हमे फिर दशन है।

राजा नही ऐसा न कहिये। आप लोगो के दमन से ही मैं सरकृत हो गया हूँ। (शकुतना, राजा को देखती हुई बहाना बनाकर कुछ रुककर दोनो सखियो के साथ चली जाती है)

टिप्पणी

राजा नगर को नौट जाने के प्रति मेरी उत्सुकता मन्द पड़ गई है अर्थात् नगर को लौटने के लिए अब मैं बिस्कुस उत्सुक नहीं हूँ तो मैं अपने अनुयायिओ से मिलकर तपोवन से कुछ ही दूरी पर उहें ठहराता हूँ अर्थात् सबको एकत्र कर आश्रम के समीप ही पढाया देता हूँ क्यों अब मैं वस्तुतकुता के प्रेम व्यापार से अपने को छुवाने मे असमय हूँ मैं कुत्ता की ओर अपनी प्रवृत्ति को नही रोक सकता है।

क्योकि मेरा--

गच्छतीति मन्द - हि मम शरीरम पुर गच्छति, (परन्तु प्रतिवात नीयमानस्य केटो चीनाशुकम् इव असस्तुत चेत पश्चाद धावति ।

प्रथमोऽ

शब्दार्थ हि क्योंकि, मम शरीरम् वह मेरा शरीर तो पुर गच्छति की बोर चलता है (किन्तु) प्रतिवात नीयमानस्य केतो हवा के विरुद्ध से पाये जाते हुए ध्वजा के चीनाशुकम् इव चीनी सूक्ष्म रेशमी वस्त्र के समान असस्तुत ठ अपरिचितसा मन पश्चादधाति पीछे शकुन्तला की ओर दौड़ता है।

अनुवादक्योकि यह मेरा शरीर तो आगे की ओर चलता है किन्तु विरुद्ध हवा की ओर ले जाये जाते हुए ध्वजा के नीननिर्मित सूक्ष्म रेशमी वस्त्र की भांति अपरिचित या (मेरा) मन पीछे शकुन्तला की ओर दौड़ता है।

भावार्थ राजा भरण्यक वत्तात को सुनकर यद्यपि यहाँ से अपने सैनिकों से मिलने के लिए चल देता है लेकिन उसका मन शकुंतला मे ही आसक्त रहता है, इसीलिए वह कहता है कि यद्यपि मैं मलता हुआ आश्रम की ओर जा रहा है, जत शरीर तो जागे चलता है परन्तु मेरा मन उस वजा के पहले सूक्ष्म रेशमी वस्त्र के समान अपरिचित होकर पीछे शकुन्तला की ओर ही भागता है, जिसके कि दण्ड को हवा के विरुद्ध जाया जा रहा है, अण्डे का उड़ा तो उस ओर चलता है, जिस ओर उसे कोई ले जाता है किन्तु उसका वस्त्र उस ओर ही उड़ता है जिस ओर की हवा चलती है, यदि हवा के विरुद्ध ध्वजा को ले जाया जायेगा तो उसका वस्त्र पीछे की ओर ही उड़ेगा। राजा का शरीर ध्वजदण्ड है, और मन ध्वज का वस्त्र इससे स्पष्ट है कि वह अपने मन को शकुन्तला से नहीं हटा पा रहा है।

विशेष- यहाँ शरीर को केतु और पताका को मन माना गया है, यह दोनों ही कल्पनायें बड़ी हो सुन्दर हैं, निर्जीव काष्ठ के को कोई भी कही भी ले जा सकता है। दुष्यन्त का शरीर हृदय से शून्य होने के कारण सेना की ओर चलता है लेकिन जिस प्रकार केतु की पताका वायु वेग से पीछे की ओर ही उड़ती है उसी प्रकार उसका मन भी बोकि चीन के वस्त्र की भाँति सूक्ष्म एवं अति कोमल है पीछे शकुन्तला की ओर भाग रहा है। शरीर आगे की ओर धीरे-धीरे चलता है, परन्तु मन तेजी से पीछे की ओर भागता है सम्बद्ध भी शरीर और मन मे असम्बन्ध बताने से अतिसयोकि बलकार है। असस्तुतम् का अर्थ है शरीर से अपरिचितसा अत गम्योत्प्रेक्षासकार है। बीना- शुकमिव में उपमानकार है। वृत्यनुप्रास—आर्या जाति छन्द है ।

संस्कृत व्याख्याहिपत मम पुष्यन्तस्य शरीरम् देह पुर गच्छति पाति चेत मनस्तु प्रतिवातम् वायो प्रतिकूलम् नीयमानस्य मानस्य केतो ध्वजस्य चीनाशुकम् इव चीननिर्मितसूक्ष्म श्रीमवस्त्रमिव असस्तु- तम् अपरिचितमिव पश्चात् पष्ठत शकुन्तलाभिमुख धातिवेगेन याति ।

संस्कृत सरता सेनाभिमुख गच्छन् दुष्यन्तश्चिन्तयति ममेद शून्यमिव शरीर पुरो याहि किन्तु मे मन बायो प्रतिकूल मुह्यमानस्य ध्वजस्य चीनप्रदेश निर्मितसूक्ष्म- यि अपरिचितमिव शकुन्तलाभिमुख वेगेन याति ।

टिप्पणी

मन्दम औत्सुक्यम् यस्य स उत्सुकस्य भाव बौत्सुक्यम् । वायु- यात्रिकान्वनु पश्चात् मात्रा अस्त्येषामित्यर्थे अनु +यात्रा+छन् (इ) व्यापारात्- प्रवृत्ति से, प्रतिवातमा वातस्य प्रतिकूलम नीयमानस्य नी युक् ज्ञानच ।

(इसके बाद सभी पात्रो का प्रस्थान )

यहाँ सभी समूह के भेदन से भेद नामक मूल सन्धि का अंग है। इस अफ मे दुष्यन्त और शतना मे प्रेम को उत्पत्ति और उसके क्रमिक विकास को बढी कुशलता से दिखलाया गया है। यथास्थान प्रकृति का स्वच्छाद मनोरम वातावरण प्रस्तुत किया गया है। अक के अन्त में सभी पापो का विनिगमन दिखलाया गया है जैसाकि दशरूपक कार ने कहा है एकापरितकार्य मित्यमासन्न नायकम् पास्त्रिचतुरैरक सेवामन्ते च निर्गम इस काfरका मे अडक के विभाजन, उसकी कथावस्तु की समयसीमा, तथा पान सख्या का भी उल्लेख किया गया है। एक अंक की वस्तुयोजना में एक ही दिन की घटना होनी चाहिए, उसे एक ही प्रयोजन से आद्योपान्त सम्बद्ध होना चाहिए, नायक eated हो और अन्त मे पात्रो का निगम दिखलाया जाए" ये सब बातें इस अंक में देसी जाती हैं। अत यह अक के लक्षण से परिपूर्ण है, वहाँ मुख्यपात्र थोडे ही है और अन्त में उनका निगम भी दिखलाया गया है। सा० द० मे अक का लक्षण "प्रत्यक्ष नेतृ रितो रसभावसमुज्ज्वल नानाविधानसयुक्तो नातिप्रचुरपद्यमान् अन्तनिष्कान्त-  इति प्रकीर्तित" पत्रायस्य समाप्ति यत्र च बीजस्य भवति संहारा किम्बदन] सतविन्दु सोऽक इति सवावगन्तव्य ।

( प्रथम अफ समाप्त)

द्वितीयोऽङ्कः

(तत प्रविशति विषण्णो विदूषक ) विदूषक (दिवस्य) भो दिष्टम् एतस्य मृगयाशीलस्य रातो वयस्यभावेन निर्विण्णोऽस्मि । अयम् मृगोऽयम् वराहोऽयम् शार्दूल इति मध्याह्नऽपि प्रीष्मविरलपावपच्छायासु वनराजिष्वाहियतेऽटवीतोऽटवी । पत्रसकरकषायाणि कटूनि गिरिनदीजलानि पीयन्ते। अनियतवेल शूल्यमासनूपिष्ठ आहारो भुज्यते । तुरगानुधावनकण्डितसधे रात्रावपि निकाम दातिथ्य नास्ति ततो महत्येव प्रत्युये दास्पा पुत्रं शकुनिलुब्धकैर्वनग्रहण- कोलाहलेन प्रतिबोधितोऽस्मि । इयतेदानीमपि पीडा न निष्क्रामति । ततो गण्डस्योपरि पिटक सत्ता किलास्मास्वहोनेषु तत्रभवतो मृगानुसारेणाश्रमपद प्रविष्टस्य तापसकन्यका शकुन्तला ममाधन्यतया दर्शिता । साम्प्रतम् नगरगमनाय मन कथमपि न करोति। अद्यापि तस्य तामेव चिन्तयतोऽक्षणो प्रभातमासीद का गति यावत्स कृताचारपरिक्रम पश्यामि ।

पश्याम

(इसके बाद सिनमन विदूषक का प्रवेश )

विषक (लम्बी साँस लेकर ) है दुर्भाग्य इस सिकार के व्यसनी राजा की . मित्रता से मैं दुखी हो गया हूँ, यह मृग, यह शुकर, अथवा यह चीता ( जा रहा है) (यह कहकर दौडते हुये) दुपहरी के समय भी प्रीष्म के कारण विरल (असपन) बुझ की छाया वाले वन प्रदेशो मे एक जंगल से दूसरे जगल मे हमे घूमना पडता है। पत्तों केस से हुए और करने पर्वतीय नदियों के जन पिये जाते हैं। बिना किसी निर्दिष्ट समय पर अर्थात् जब ही मिल सके तभी शूल्य मास ही जिसमें अधिक रहता है, ऐसा खाना खाया जाता है। (लोहे की गताओं में बाँधकर जो माँस पकाया जाता है उसे मूल्य मास कहा जाता है घोड़े के पीछे दोम-दौड़ते (जिसके शरीर की हड्डियों के सन्धि स्थल (बोर्ड) पीडित हो उठते हैं, ऐसे मेरे लिये रात्रि में भी पर्याप्त होने को नहीं मिलता (अर्थात् घोड़े के पीछे दौड़ते रहने के कारण हवियों के जोड़ों में पीडा होने लगती है इस कारण रात मे भी नीद नहीं आती, दिन में सोना या बाराम करना तो सम्भव ही नही) फिर बहुत सवेरे ही नीच बहेलियो के द्वारा जगन को घेरने के कोलाहल से बना दिया जाता हूँ (इस प्रकार न रात को सो पाता हूँ और न सुबह

द्वितीयोऽ

1 (इति परिक्रम्यावलोक्ष्य च ) एव बाणासनहस्ताभि पंचमीभिर्वनपुष्पमाला धारिणीभि परिवृत्त इत एवागच्छति प्रियवयस्य । भवतु । अङ्गभङ्ग विकल इव सूत्वा स्थास्यामि । यद्येवमपि नाम विश्राम लभेय (इति दण्डकाष्ठम- वलम्ब्य स्थित 1)

[भो दिट्ठ एवre आसीलस्स रण्णो वजत्सभावेण निविष्णो हि । अ अ वराहो अअ सलो त्ति मझष्णे दि गिम्हविरलपा वासु वणरा आहिण्डी अदि अडवीदो अडवी । पत्तसकरकसा आद हुआ गिरिणईजलाई पोअन्ति । अणिअयवेल सुल्लमसभूइट्ठो आहारो अण्हीदि । तुरगाणुधावणकण्डिसन्धो रत्तिम्मि विणकाम सदव्य थि । तदो महन्ते एव्व पच्चूसे दासीपुत्तेहि सउणिलुन एहि वणग्गणकोमा लेण पडिवो-धिदो म्हि एत्तएण दाणि वि पीडा ण णिक्कमदि तदो गण्डस्स उवरि पिडओ सबुत्तो हिओ किल अम्हेसु बहीणेसु तत्तहोदो मआनुसारेण अस्समपद पविट्ठस्स ताबसकण्णआ सउन्दला मम अणदाए दसिदा । सपद अरगमणस्स मण कह विण करेदि अज्ज वि से स एव्व चिन्तयम्सस्स बच्छी पभाद आसि का गदी। जाव ण किदाचारपरिक्कम पेक्खामि । एसो वाणासणहत्याहि जवणीहि वणपुप्फमालाधारिणीहि पडिवुदो इदो एम्ब आच्छदि पिञवअस्सो । होदु अङ्गभङ्गविलो विr भविज चिट्ठिस्स । जइ एव्व वि णाम विस्तम लहेअ ।]

को ही इतने समय में भी अब भी यह पीडा नहीं निकलती है अर्थात् इतना होने पर मी बभी मेरा कष्ट समाप्त नहीं हो पाया है कि तब तक फोड़े पर एक फुन्सी और निकल आई बचवा फोड में साज हो गई ( यह एक मुहावरा है freet तात्पर्य यह है कि अभी शरीर की पीठा भी मान् न हो पाई थी कि तब तक यह दूसरा दु भी आ पा कल, जैसाकि कहा जाता है, जब कि हम लोग उनके साथ नहीं थे, पूज्य महाराज पुष्प को मृग का पीछा करते करते आश्रम में प्रविष्ट होने पर मेरे दुर्भाग्य से ही तापसकाया शकुन्तला दिखलाई पड गई। ( इसका फल मह हुआ कि अब वह नगर में लौट चलने के लिए किसी भी प्रकार मग ही नहीं करते- लोटने का नाम भी नहीं लेते। आज भी उसी शकुन्तला को सोचते-सोचते उनकी after के सामने सुबह हो गया बर्षात् शकुन्तला के विषय मे किता करते-करते ही सारी रात बीत गई और जागते रहते ही प्रभात हो गया क्या उपाय है (चलो त तक स्नानादि काम क्रम को पूर्ण कर लेने वाले उस राजा से मिलें।

(घूमकर और देखकर)

: टिप्पणी

विषण्णव + ए + क्त स्वाम्यामिति धातो दकारस्य प्रत्ययतकारस्य च नये पले ले चविक प्रथमा में कवि ने feपादादि व्यभिचारी भाव के द्वारा तथा गुण वगनादि अनुभावो के द्वारा शृङ्गार रस के स्थायी भाव रति की पुष्टि की थी, इस अक में वह पुन उसी की परिपुष्टि के लिए विप्रलम्भ के वजन के उद्देश्य से विपन का प्रवेश कराता है क्योंकि विदूषक राजा का शृङ्गाररस मे सहायक होता है जैसा कि दणकार ने कहा है "ङ्गा सहाया  भा नर्मसु निपुणा कुपितवधूमानमन्जिन शुद्धा" बादि पद से यहाँ मालाकार रजक ताम्बूलक गाधिक आदि का प्रण है। विदूषक का लक्षण है "कुसुमवरान्ताद्यभिr every भावार्थ हास्यकर कसरत विक स्पात स्वकमत" विदूषक का नाम प्राय पुष्प वाचक एवं वसन्तादि ऋतु वाचक शब्दों पर रखा जाता है अतएव प्रस्तुत नाटक के विद्दयक का नाम माधव्य है। ये विक अपने काम से, शारीरिक पेष्टाओं वस्त्राभूषणों के विभिन विन्यास से वाक्य रचना एक fafe afगतों से हास्य उत्पन्न करने वाले, कलहप्रिय तथा भोजनप्रिय होते हैं "विता गम हस्यकारी विदूषक" ये विदूषक प्राकृत ही बोलते हैं "विष बिहारी पाठय प्राकृत भने।"

मुख्य कथावस्तु के साथ जो एक प्रातपिक कथा भी चलती है वह द्विधा विभक्त होती है 'सानुबन्ध पताकाव्य प्रकारी च प्रदेशमा" इस कथन के अनुसार दूर तक wer वाली कथा पताका कथा और एक ही प्रवेश तक सीमित रहने शली कथा प्रकरी कहलाती है। इस नाटक की विदूषक की कथा पताका कथा है।

कुछ टीकाकारों के मतानुसार 'तत प्रविमति से लेकर उसे गाजन विभक्त हिदुल सावेदन भवति। इस तृतीय बक के थान तक प्रतिमुखसन्धि चलती है, जिसका लक्षण "फलप्रचानोपायस्य मुखनिवेशित । सम्यालय प्रयो पत्र प्रतिमुख त काम प्रिया न सुलभा" इस कथन से दुष्यन्त में तो अनुराग लक्ष्म है पर शकुन्तला की चेष्टाओ से वह अनुमेय मात्र है म य है। शकुन्तला प्राप्तिरूप फलावाप्ति के लिए दुष्यन्त का जो शकुन्तलान्वेषणरूप अतित्वरान्वित व्यापार चलता है इससे यहाँ प्रयत्न नामक द्वितीय कार्यावस्था भी है 'प्रयत्नस्तु फलावाप्तो व्यापारोऽतित्वरान्वित " विष्टम्भाग्य देव दिष्ट भाग्यम् किन्तु यहाँ इसका अर्थ दुर्भाग्य है। अत्र दृष्टम् भी पाठ है। भो विपादात्मक सम्बोधन है। वयस्यभावेन- वयसा तुल्य वयस्य 'नौवयोसम से यत्-मैत्रीभाव से निविदा नि विदु+कतारवकारयोत्ये गत्वेन मध्याह्नपि मध्यमध्याय ०- पादपानां छाया पादपच्छाय पीष्मेण विरल पादपच्छाय पासु तासु । प० पानां सकरेण कषायाणि, अनियतवेलम्न नियता निश्चिता बेला यस्मिन् तत् । माहिष्यते- माहिविड गती कमणि लट् रात्रिश्रेणी, पति, वीध्यालिराबलि पक्ति थी लेवास्तु राजय मूल्य से सस्कृत मूल्यम् मूल्य मांस भूमिष्ठ यस्मिन् स

[: १८

द्वितीयोऽङ्क

(तत प्रविशति यथानिनिष्ट परिवारो राजा) (क) राजा - (आत्मगतम्) आम प्रिया न सुलभा मनस्तु तद्भावदर्शनादवासि । + अकृताऽपि मनसिजे रतिमुभयप्रार्थना कुरुते ॥ (स्मित कुत्वा) एवमात्माभिप्रायस भाषितेष्टजनचित्तवृत्ति प्रार्थयिता

: विश्वम

1 पर चूना हुआ माँस शूल्य मास रम रमण यह अनुधावन नैन कवितास ध यस्व तस्य प्रत्पूर्व प्रत्यूषति पीडयति कामुकान् इति प्रत्यूष प्रति उप वाया पुत्र यह एक प्रकार की माली है अनीष पुत्रेऽयतरस्यामिति पष्ठ्या अनुक। अवहीनेषु मया त्यागायक) आदिश्चेति नाचे, घुमास्येति आकारस्य पीछे छूट जाने पर अधयतया धन धनगण लब्धा) धन+यत्वा तस्य भाव तथा कताचारपरिग्रहम-कृत विहित आचारस्य स्वागादे परित ग्रह येन तम्

एष इति यह मेरे मित्र धनुष को धारण करने वाली तथा वन्य पुष्पो की माला पहनने वाली यवतियों (पारसी स्त्रियों से पिर हुये उधर ही आ रहे है। अच्छा तो (अब) अगभग से निकल मा हो कर यहाँ रुक जाता है, सम्भव है कि इस प्रकार से ही कुछ विश्राम मिल जाय।

( यह कहकर काष्ठ दण्ड का सहारा लेकर खड़ा हो जाता है) (इसके बाद पूर्व निर्दिष्ट परिवार के साथ राजा प्रवेश करता है)

राजा - ( मन ही मन )

कामिति-जन्म कामम् प्रिया न सुलभा तु मन तद् भावदशास्वासि मनसिजे अकृतार्थ अपि उभवप्रार्थना रतिम् कुरुते ।

शाही, प्रिया न सुलभा प्रिया शकुन्तला मुल न हो, तु किन्तु मन मेरा मन तद्भावदर्शनाश्वासि उसके ( प्रेममय हाव भावो के देखने से आश्वस्त (तुष्ट) है। मनसिजे अकृताऽपि कामदेव के सफल न होने पर भी उभयप्राथना दोनो की परस्पर मिलने की अभिलाषा, रति कुरुते परस्पर अनुराग को उत्पन्न करती ही है।

अनुवाद ही प्रिया शकुन्तला सुलभ हो, किन्तु (मेरा मन उसके (प्रेममय हाव भावो को देखने से आश्वस्त है। कामदेव के सफल न होने पर भी, दोनों की मिलनोत्कण्ठा परस्पर अनुराग उत्पन्न करती ही है।

भावार्थ- दुष्यन्त मन ही मन सोचता है कि भले ही प्रिया शकुन्तला सुख से न मिल सके, भले ही वह मेरे लिये दुष्प्राय हो किन्तु मेरा मन तो उसके हाव भावो को देखकर सन्तुष्ट हो गया है बत मह पुन पुन उसके भावो को देखने के लिये प्रयास करता है, इस प्रकार  तक सन्तुष्ट नहीं हो सका है तथापि हम दोनो में जो परस्पर मिलते रहने की उत्कण्ठा है वह हम दोनों में परस्पर प्रेम को बढ़ा रही है। बत उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना स्वाभाविक

[: हैत्य यह है कि प्रयत्न साध्य वस्तु की अप्राप्ति से निराम भी और योग से हुये भी नायक नायिका का पारस्परिक अनुराग दोनो के मन आनद उत्पन्न करता है, शारीरिक सन्तुष्टि के अभाव में भी मनस्तुष्टि तो हो ही जाती है।

विशेष- पूर्वार्धगत विशेपाथ के उत्तरागत सामान्यार्थ से समयन होने से अर्थान्तरन्यास अलकार, अकृताथ मनसिज रति (सुरत) कुस्ते हम अर्थकल्पना मे विरोध होता है अत रति का अय अनुराग लिया जायेगा "रति काम स्त्रियों रागे सुरतेऽपि रति स्मृता इस प्रकार यहाँ विरोधाभास अनुकार भी हो सकता है। नाजाति छन्द है।

संस्कृत व्याख्या कामम्मत मेतद् प्रिया कुन्तला न सुलभा सुन या नास्ति, न्यु मन मे मन सख्या भावना दशनन आम्बाहि तदभाव दशनाम्यासि कुतमागतानुरागयजस्निग्धकटाक्षादिष्टाविशेषदनेन तत्प्राप्ति- सम्भावना प्राप्तानन्दमस्तीत्याय मनसि जातस्तस्मिन् मनसिजे कामे, अकृतार्थ= असफले, तत्सम्भोगानुपपत्त्या अचरितार्थे अपि उभय प्राथना त्रियाया नम परस्परानुराग रति कुरुते परस्परप्रीति समुत्पादयति ।

संस्कृत सरमार्थमन राजा कपयति-मतमेतत् यत् प्रिया कुतला न लभ्या सुसेन अपितु बहुप्रयत्नसाध्या एवं किंतु मे मन तदनुरागव्य मागदशनजन्यप्राप्तिसम्भावनया समाश्वस्तमस्ति अचरितार्थोपि कामे आव पारम्परिकानुराग प्रीति जनयत्येव ।

स्मितमिति (मन ही मन मुस्कराकर ) इसी प्रकार अपने अभिप्राय (प्रयोजन) के अनुकूल हो अपने वजन के भी मनोभाव की सम्भावना कर लेने वाला प्रेमी जन उपहास को प्राप्त करता है, अर्थात् लोग उसकी हंसी उड़ाते हैं। टिप्पणी

बाणासन हरताचि वाणासन धनु हस्ते याचा ताभिः वागा अल्पन्ते प्रक्षिप्यन्ते अनेनेति वाणासनम्, असू+ ल्युट करणे । सञ्चारिकायें प्राचीन काल मे यचती नाम की राजाजी की सेवायें होनी भी जो कि गृहकक्षो मे घूमने फिरने वाली तथा वनों एवं उपवनों में राजाओ के साथ रहने वाली होती थी शिकार के समय में शिकारी बेष में रहतीं यन पुष्प माला धारण करती और राजा के धनुष को लेकर साथ-साथ चलती थी, इन्हे सञ्चारिका एव पवनी कहा जाता था "मुहरूयाविचारिण्य तथोपवनचरा सारिकास्तु ता ज्ञेया यन्योऽपि मता क्वचित्"। इनको यवनी इसलिये कहा जाता या क्योंकि यह फारस से सेविका के रूप में लाई जाती थी कालिदास ने यवन राज्य का प्रयोग यूनानी फारसी अरबी आदि लोगों के लिये किया है, दण्डी ने भी भरव निवासियों के लिये यवन शब्द का प्रयोग किया है, यवन शब्द से हमे आय कम के मुसलमानों का ही ग्रहण न करना चाहिये, संस्कृत ग्रन्थो मे इसका प्रयोग बड़े व्यापक

[: (ख) राजा- स्निग्ध बीशितमन्यतोऽपि नयने यत्प्रेरकत्या तथा यात यच्च नितम्बयोग रुतया मन्द विलासादिव । मामा इत्या पदपि सा सासूयमुक्ता सखी सर्व तत् किल मत्परायण हो कामी स्वता प

[ = आत्माभिप्राय आत्मन अभिप्रायेण सम्भाविता इष्टजनस्य चित्तवृत्ति येन स - आत्माभिप्रायम्भावितेष्टजनचित्तवृत्ति । प्रार्थयिता प्राथना करने वाला प्रेमीजन अभि+प्री+अभिप्राय अथवा अभिप्र+अय् + षम् यहाँ विलास नामक प्रतिमुख सन्धि का अब है "समीहारतिभोगाय विलास इति कथ्यते" सा० द० ।

= शब्दार्थ-अन्यत अपि दूसरी ओर भी अर्थात् लता वृक्षादि पर भी नयने प्रेरयन्त्या तथा अपने नेत्रो को डालते हुए उसके द्वारा (प्रेरयन्त्या के स्थान में प्रेमा भी पाठ है पर अर्थ मे कोई अन्तर नही अर्थात् अपनी दष्टि को हर उधर लता वृक्षादि पर डालते हुए भी उसके द्वारा यत स्निग्ध वीक्षितम् जो कि प्रेम या  (मेरी ओर) सव्याज नेतारिकाओं को घुमाते हुए देखा गया था। नितम्बयो गुरुतया कटिपश्चाद भाग के भारी होने के कारण, विलासात् इमानो freापूर्वक अर्थात् कटाक्षविशेपादि आङ्गिक चेष्टायें दिखाती हुई-सी मन्द मातम जो कि यह धीरे धीरे चली थी। माया इति उपरुद्धया 'मन  यह कर रोकी गई उसके द्वारा, यद्यपि साधी सायम् उक्ता जो अपनी प्रियवद से कुछ यपूर्वक कहा गया था, तत्सर्वं मत्परायण किन निश्चय ही यह यह सब कुछ मेरे लिए ही या अर्थात् यह सब कुछ मुझे लक्ष्य करके ही और दिखलाकर ही किया गया था वही कामी स्वतां पश्यति मोह कामी जन स अपनी ही बात बेलता है अर्थात् भने ही कोई कार्य उसके उद्देश्य से न किया गया हो पर कामीजन उस सब को सपने लिए ही किया गया मानने लगता है। दूसरे के एवं चेष्टाओं को वह अपने जैसा ही और अपने लिए ही समझने लगता है। यही आश्चर्य है।

अर्थ मे हुआ है "पानीकोसतो जेतुम्" र० चतुय संग पवनीमुखपद्यानाम् सेहे" ० चतुच । अगभग विकल अगाना मन विश्ता कला यस्य सः ।

काममभवत्वेतत् मतमेतत् अव्ययपदम् सुलभा + लम+सल (ब) टापू, क्योंकि उसका विवाह असन्निहित महर्षि क की इच्छा पर निर्भर है, वह इस विषय मे स्वतन्त्र नहीं आश्वासि पयसितिमा स्वताच्छील्ये जिनि । अकृतार्थत सम्पादित अर्थ प्रयोजन पेन स ।

अन्यय-अन्य अपि नयने प्रेरयन्त्या तथा यत् स्निग्धम् वीक्षितम् मितवा गुरुतया विलासात् इव बन्न मन्य यातम् मा मा इति उपरुद्धमा सा सखी पण सासूयम् उता, सत्सवम् मत्परायण किल, ओह कामी स्वताम् पश्यति ।

: अनुवाद दूसरी ओर अर्थात् ला खादि पर भी अपनी दृष्टि को हुए जो उसके द्वारा (मुझे प्रेम देखा गया था, नितम्ब भागी की ताक कारण मानी  उसके द्वारा गाया और यह कहकर रोकी गई उसके द्वारा जो अपनी से कहा गया मुझे करके ही कहा था दिया है कि कमीजन व अपना भाव ही देखता है, दूसरों के द्वारा किसी उद्देश्य से किया गया काम मा कही हुई बात को कामीन अपने लिए ही समझने लगता है।

सायला द्वारा प्रदर्शित भाषा का स्मरण कर अपने मन से कि उसके द्वारा प्रदर्शित सभा मेरे लिए ही थे स्वाभाविक या कंपनी दृष्टि को इधर उधर डालते हुए भी जो उसने तारिकाओं को जाकर साला मुझे देखा था नितम्बों की स्थूलता के कारण को यह मान मी धीरे धीरे चली थी तथा प्रिया के यह कहने पर कि मत जाओ जी उसने उससे ferfar कहा था कि तुम मुझे भेजने वाली अथवा रोकने वाली कौन ही मैं उसके मन और कथन वस्तुत मुझे स करके ही थे, अत स्पष्ट है कि वह भी पर अनुरक्त है। इतना समझने पर भी यह पुन साचता है कि यह कितनी विच माठ है कि कमीजन सत्र अपना मान ही देखा है द्वारा के उद्देश्य से भी दिये गए काम को वह अपना ही समझने लगता है।

विशेष सामान्य द्वारा विशेष समय रूप अर्थान्तरन्यास, सम्पूर्ण क्लोस मे यासादिव से उत्प्रेक्षा अलकार है, वृत्ति अनुप्रासमान विक्रीडित है

अपि अन्यस्यादिति अवस्था नय युगल स्फुटपाथ हिलाया 1 बीधितया मवलोकितम् नितम्बयो कटिपण्यादभाष्यों गुरतया स्थूलता, विलासमा तो कालविपादिक्रिया वैशिष्ट् मागच्छत्युमा उपरुद्धया निवारिता तथा साथी उपरोधकारिणी दिव्या महिलम् दुक्का अभिहिता, तत्सर्वम tortoir] समेव मत्परायानुरागकपरम् आसीत् अहोदय पद कामविषयाभिमान व स्वतापादि मावश्यमेव सभापति

सरसरनाथकृष्ट स्मृ दुष्यन्तचिन्तयति इत- स्वस्वष्टि प्रतिपत्त्यापि तया यह साeिars at f स्यामा मद मन्द बातम् एव गमनप्रारिणी व दा तया सासून महिला एaree dear frierमनकथनादिकमदमेवानुराम

विदूषक (समास्थित एव) भो वयस्य, न मे हस्तपाद प्रसरति । माइमात्रेण जावयिष्यामि जयतु जयतु भवान् [भो वास्स गण मे कृत्यपाल पसरन्ति । वानामेत्तएन जोआवस्य । जेदु जेदु भव ॥]

राजा - (मस्मितम्) कुतोऽय गावोपपन्न १

विदूषक कुल किल स्वयमध्याकुलीकृत्याकारण पृच्छति। [कुदो  रिस अकारण पुच्छसि ।]

राजानखगामि

: अनुवाद दूसरी ओर अर्थात वृक्षादि पर भी अपनी दृष्टि हुए उसके द्वारा मुझे प्रेम देखा गया था नितम्ब धाम की लता कारण मानो  जो गया था और "माय" यह कहकर रोकी गई उसके द्वारा अपना कहा गया यह कुछ करके कहा था. य कि कमीशन व अपना भाव ही देखता है, दूसरों के द्वारा किसी उद्देश्य से किया गया काम या कही हुई बात को कमीजन अपने लिए ही समझने लगता है।

मावाय दुष्यता द्वारा प्रदक्षित बाबा का स्मरण कर अपने मन मे सोचता है कि उसके द्वारा प्रभात मेरे लिए ही स्वाभाविक [earn अपनी दृष्टि को वरदान हुए भी जो उसने तारिकाओं की समाजमा देखा था, तिम्बों की स्थूलता के कारण जो धीरे धीरे तथा प्रिया के यह कहने पर कि मत जाओ जो उसने उससे कहा था कि तुम मुझे भेजने वाली अथवा रोकने वा हो, मैं पाया न जा सके और वस्तु मुझे करके ही थे, अत स्पष्ट है कि वह भी मुझ पर अनुरक्त है। इतना समझ पर भी पुनाता है कि यह कितनी विनय बात है कि काम समय अपना भाग ही देखता है के द्वारा अन्य के उद्देश्य से भी कियेय काय को यह अपना ही नेता है।

विशेष-सामान्य द्वारा विशेष समयन रूप अर्थान्तरन्यास, सम्पूर्ण सोने विलासादिव ने उनका अनुसान विक छन्द है।

संस्कृत अवस्तुषु वा नष दीक्षितम् सम्मान मवलोम्बियो कटान गुस्ता स्थूलता, विलासात् इमामवसीय कादिक्रिया वैशिष्ट्य मागच्छ  उपरुद्धया निवारितममनया तथा वासी उपरोधकारिणी प्रिया या महितम् यदुक्ता अभिहिता, तत्सबैम raateesertion] मत्परायण मदमेवानुरागप्रकटनवर (बासी) = महायोज्य कामविषयाभिमान व स्वता पश्यति आत्मभावामेव सभापति

- स्वस्वष्टि प्रतियापि तदा वह सात नितम्बस् स्वात्यायनी मन्द बात एवं रामगोपरोपकारिणी व निदा

द्वितीयोऽ

(मास्थित एव) भो वयस्य, न मे हस्तपाद प्रसरति । बाइमात्रेण जापयिष्यामि जयतु जयतु भवान् [भो वमस्स ण मे त्या सरन्ति । वामेत्तएण जीवस्म । जेदु जेदु भव ॥]

राजा - (मस्मितम्) कुतोऽयगा?

पक्ष्याकुली कृत्याकारण पृच्छसि [कुदो किल अच्छी आउनीजि अस्तुकारण पुच्छसि ॥]

राजा-न खल्यगच्छामि

प्रकटनपर मासीत् यमय विषयाभिलाषी न सामभावमेव

लिहा दिसासाइट को देख कर रिमी में जो शृङ्गारिका विशेष होता है उसे विलास कहते हैं "मानस्थानासनादीना नेवादिकमगाम विशेषस्तु विलास स्वादिष्ट सन्दनादिना विनासो हाम भेदेस्यात् अथवा "यो भाesent विकारो गत्वासनस्यानविलोकनाव नानाविधाति चमत्कृतिस्व परामुख चास्यमय विलास गमनासनपा विपावचेष्टा [विशेष वा कम दोगला नूनमय विताय उत" सासूयन्] सहस्य सादेश स्वताम् स्वस्थ भाव स्वतायाम् या गाइ मध्यम पुर्वक वचने देश मा योगे भाव मे परम् अपनयो वा यस्य तत् परावण का यहाँ या उद्देश्य है। कामी कामस्तीति कामी काम इन विषयाला जन प्रत्येक वस्तु, कार्य और हम को अपनी दृष्टि से देखता, समझता और मानता है, मते ही दे किसी उद्देश्य से किये गये हों, यह इष्ट व्यक्ति को प्रत्येक पेष्टा को अपने लिये ही की जाती हुई मानता है।

( प्रकार से ही काष्ठ के इण्डे का आश्रय लिए हुआ ही हे मित्र नहीं रहे है अर्थात् हो जाने के कारण बिन हो गये हैं, निर्जीव हो रहे हैं। मत वाणी से हो (बिना हाथ उठाये आपका योग का जय हो बापकी जय हो।

राजा (सर) हम प्रकार से तुम्हारा कैसे

मेरे नेत्रो को चोट पहुँचाकर (स्वयं) क्यों (मुझ से

का कारण पूंछ रहे हो ? सचमुच में तुम्हारे ( कथन का तात्पय समझ नहीं पा रहा हूँ।

[

1  भो वयस्य यतस कुन्जलीला विम्बयति, तत्क मात्मन प्रभावेण नतु नवीrer ? [भो यस ज वेदसो गुज्जलीन वेदिक असो पहावेषण वे ]

राजा नदीवेनस्तत्र कारणम्

विदूषक - ममापि भवान् । मम दि भव ॥]

राजा--कथमिव।

विदूषक एवं राजकार्यातादृश प्रदेशे वनचरवृत्तिना त्वया भवितव्यम् मत्सत्य प्रत्यह श्वापदसमुत्सारणं सोभितसन्धिबन्धाना सम मात्राणामनीशोऽस्मि सवृत्त तन्प्रसादयिष्यामि विस मामेकाम तावद्विषमिवम् [] राजमणि उनि तारिसे भातप्यसे वर्णचरणातुए होदव्य जमन्च गच्च सावध समुच्छारोह सोह समिधाण मम मत्ता अनीमो हि सबुतो ना पसादइरस विसि एका विदा म विमिदु ।

हिता को देख कर स्त्रियों मे बो शृङ्गारिक भाव विशेष उत्पन होता है उसे विनास कहते हैं "पानस्थानासमादीना मुनेत्रादिकाम विशेष free स्पदिष्टन्दानादिना विनास हाम भेटेस्यात् अथवा "यो भागो बिकारी गत्यासत्यामविलोकनाव नानाविधाति चमत्कृतिश्च परामुखायगय विलास गमनासनया मिपावनेष्टा विशेष वा कमवितोपमे प्रयत्नात्ममय विनासक्त" सासूयन्] सहस्य सादेश्य स्वताम् स्वस्य भाव स्वताशा या गाइ वने इस वादेशमा योगे भाव मत्परायणम् अहमेव परम् अनन् यो वा यस्य तत् परावण का यहाँ य या बदेय है। कामी कामस्तीति कामी काम इन प्रत्येक वस्तु कार्य, और हम को अपनी ही दृष्टि से देखता, समझता और मानता है, भले ही वे किसी उद्देश्य से किये गये हों, वह इष्ट व्यक्ति की प्रत्येक को अपने लिये ही की जाती हुई मानता है।

विक प्रकार से ही काष्ठ के डाका बाप लिए खड़ा हुवा ही हे मित्र मेरे रहे हैं अर्थात् हो जाने के कारण हो गये से बात हो रहे हैं। मत वाणी से हो (बिना हाथ उठाये जय हो आपकी जय हो

राजा - (सर) इस प्रकार से तुम्हारा? विषम स्वयं मेरे नेत्रो को पोट पाकर (स्वयं) क्यों (मुझ से ) आओ का कारण पूंछ रहे हो ?

[च] मैं तुम्हारे (कचन का तात्पय समझ नहीं पा रहा हूँ।

यतस कुब्जलीला विदयति, तकि मात्मन प्रभावेण नतु नवtवेगस्य [भो बस ज वेदसो बुज्जलील विदित असणी पहावेण ण वेअर ?]

राजा नदीवेगस्तत्र कारणम्

विदूषक ममापि भवान् मम विभव ॥]

राजा-कथमिव।

विद्रवक एव राजकार्यात्या तादृश आकुलदेशे वनचरवृत्तिना त्वया भवितव्यम्। यत्सत्य प्रत्यह श्वापदसमुत्सार सोभितसन्धिबन्धाना मम गात्राणामनीशोऽस्मि समृत्त तत्प्रसादयिष्यामि विजितु मामेकाहमपि सावद्विधमिम् [एव्व जरा उशिज तारिखे आउनपदे वगचरत्तिगा तुए होदव्व । जयच्च गच्च सावद-तमुच्छारण रोहि समबन्धा मम मत्ता अनीमो हि सबुतो ना पसादइरस विसजि एका वि दाव में विसमिदु ।

विषमित्र (किनारे पर जो कि शुक जाते है तो क्या स्वयं अपने कारण मुकते हैं अथवा नदी का वेग (प्रवाह) उसमे कारण है ? राजा की इसका कारण नदी का (प्रवाह) बेग ही है। मेरे भी मत हो जाने के कारण बाप ही है। राजा वह किस प्रकार अर्थादतुम्हारे का कारण मैं किस

प्रकार है?

विदूषक इस प्रकार से राज्य कार्यों को छोकर उस प्रकार के (ef सबसे वन प्रदेश में वनवासियों बचा भीतो की वृत्ति का बावरण करना क्या आपको उचित है? आपके सा अनुकूल है ? सच तो यह है कि जगी जीवों के (किने हेतु बोबे पर अनुगमन करते-करते मेर शरीरावयवों के सन्धि स्थलों के डोसे हो जाने के कारण मैं अपने ही अवयवो का स्वामी नहीं रह गया है मेरे शरीर के होने के कारण मैं स्वयं ही असमय हूँ मुझे आप एक दिन के लिए ही विधान के लिए छोड़ देने के लिए हो।

टिप्पणी

वयस्य मित्र विदूषक राजा का मित्र होता है वह राजा को वयस्य कहकर करता है तो यस्येति भूपति बनगीन बने परतीति बनेर किरात इति प्रत्यय तत्पुरुषे कृति दु इत्मक बनबर एक जाति विशेष समय जिन्हे किरात कहा जाता है चीन भेदा किरातरपुसिन्दालेच्छ जातयइत्यमर

(स्वयम्) अमाप सुतामनुस्मृत्य

मृगयाधिक्य घेत कुल - नमयितुमधियमस्मि वक्त धनुरिदमिक मृगेणु । सहवसतिमुपेत्य में प्रियामा कृत इव मुग्धविलोकितोपदेश

दिल की 'ही' से (च) हस्तपादहस्त पादीत प्राणिय

गणपत (पार) का प्रयोग एकच में कर का बोधक होता है तथा होता है। सबुत

पति अनुकरण करता है, स्थापन पदानिपाननान्त दानि पदानि येषा

राजा अपने मन मे और यह (क) इस प्रकार से कह रहा है। मेरा भी मन कल्यपुत्री (काकर शिकार करने से उदासीन हो गया है बर्षाद सब में भी शिकार के लिए उत्सुक नहीं

मनममिति अधियाम् नमन अस्मि प्रियायात उपयोग कृत

शवाय अधिज्य बोरी जस्ता प्रयास पर पडी हुई है, हिसा विस पर बाग पढ़ा हुआ है। इस धनुष को गेषु हिरणी पर (वन्य पशु पर नचाने के लिए नहीं। सायको उत्पति से देखने की शिक्षा की है।

अनुवाद- (राजा) एवं बाग से युक्त इस धनुष को उन हिरणों पर चलाने में सक्षम नहीं है, चिन्दीनपरी प्रिया (कुता के सुवास को प्राप्त कर मानी (मधुर एवं मोर दृष्टिपात का दिया है

भावाय जय विदूषक न राजा को शिकार के प्रति अपनी रुचिका कारण बताया तो राजा दुष्यन्त ने विचार किया कि वस्तु में भी इस समय शिकार करने के उसे रहित हो गया है। कारणको दृष्टि से युक्त है। प्रिया मानन्हीं मृगो से मनोहर दृष्टिपात वा मधुर कटाक्ष करने की शिक्षा

द्वितीयोऽ

( राजो मूख विलोक्य) अत्रभवान् किमपि हृदये कृत्या मन्यते अरण्ये मया रुदितमासोत् [ अनभव कवि हिमए करिब मन्तेदि अरणं मए रुदिव आसि ।

प्राप्त की है। फिर यह इस पर क्योंकि शिया को भी है तथा इन्होने उसे धोन भी है।

विशेष प्रस्तुत पद से उत्तराध पूर्वाध का कारण है कार इनकार, वृत्ति, बुति अनुपान पुष्पिता नामक छन्द है।

संस्कृत-व्याधिता अध्यायाप्रत्ययामि रोमरोमन धनुरासनम्, मृगेषु हरिवेषु न सितम् सहबास एकवासयत्वमित्य उपेत्य प्राप्य मुखानि स्वभाव सुन्दराणि यानि विलोकितानि विलोक्नान पान उपगम्यवितोकि सोपदेशवदत्त व = = = =

सरकत सरलाच विकस्य मृगयाविमभिज्ञाय दुष्यन्तम पानी free समारोप शमन मृगेषु व्यापारविमानोऽस्मि, सहवास प्राप्य मम मियायालया स्वादयोपदेश

गमपिनमपि + तुमुन् अनुरमा अनु + स्मृत्य प्री+ इगुपधमा प्रत्ययाप माहित (धा को हि

अधियायाम (बी)।

लोकतोपदेशमुखस्य विलस्य उपदेश

यहाँ पन्त का शकुन्तला के प्रति अनुराग व्यक्ति हो रहा है। क्योंकि प्रत्येक प्रिय को अपने व्यक्तिको प्रत्येक वस्तु प्रिय होती है। कुला के ने एक are faran मृग भी राजा की मिस माओ की का गूग के समान होना ही सौद का प्रतीक माना जाता है। 'मम्' का यक्ष प्रिया की दृष्टियों की मे होता हैाङ्ग चतिरिणोक्षणेदृष्टिपात"।

- राजा के मूल को ओर देखकर महाशय आकुछ मन मेर विचार कर रहे है। (तक्या मैं न ही किया ब यर्थ मे ही अपनी या आपको सुनाई ?

[राजा - ( सस्मितम् ) किमन्यत् ? अनतिक्रमणीय मे सुहृदवाक्यमिति

स्थितोऽस्मि । विदूषक विजय [चिर जीन ।]

(दति गन्तुमिच्छति।)

राजा - वयस्य, तिष्ठ सावशेष मे बच ।

विदूषक - आज्ञापयतु भवान् [आणवेषु भव ।]

राजा - विभान्तेन भवता ममाप्येकस्मिन्ननायासे कर्मणि हासवेन

भक्तिव्यम् ।

विदूषक कि मोदकविकायाम् तेन हाय सुगृहीत क्षण [कि मोदवसज्जिए। ते हि अन सुगहीदो खाणी ॥] राजा-यत्र बध्यामिक को भो ।

(प्रविश्य)

दौवारिक (प्रणम्य) अशापयतु भर्ता [आणवेदु भट्टा ।]

[राजा (मुस्करा कर और क्या आप जैसे मित्र के वचन उत्तपनीय नहीं यही कर चुप हूँ।

विमान हो ऐसा कहकर जाने लगता है) रामा ठहरो बची (मैंने पूरी बात नही कही है। 1 विदूषक आप बाजा करें। राजा विश्राम करने के पश्चाद आपको मेरे एक अत्यन्त सरल से काम मे

सहायक होता है विदूषकाने तो यह मुझे स्वीकार है। राजा जिस काम के लिए मैं कहूँगा यहाँ कौन है? (प्रवेश करके)

बारिक (प्रणाम करके) आशा दीजिए स्वामी ।

शेष—अवशेषेण सह (बहु० ) अर्थात बात अभी अधूरी है। विद्यान्न—विश्राम करके विश्रान्तवि+बा मन्त्रयते मन ही मन सोच रहे है। अरण्य रोदनव्यथ प्रयास अर्थात् जिस प्रकार वन से अथवा कन्दन को कोई नही सुनता, कारण कि यहाँ कोई भी व्यक्ति नहीं रहता (अरव्य से अभिप्राय बन से है। इसी प्रकार से विपक की बात का उत्तर न देकर राजा मौन हो गया था कि इसे करो' अर्थात् मेरा कहना व्यथ ही हुआ मुहावरे का यहाँ प्रयोग किया है बनाया-

: राजा रैवतक, सेनापतिस्तावदाहूयताम् । दशैचारिक तथा (इति निष्क्रम्य सेनापतिना एवं आज्ञावचनोत्कण्ठो भर्ता इतो दसदृष्टिरेव तिष्ठति। उपसर्पतु आयें। एसी अण्णावककण्ठ भट्टाइयो दिदिट्ठी एम्ब चिदिवमप्ययु बज्जो ।]

सेनापति ( राजानमवलोक्य) एष्टदोवापि स्वामिनि मृगया केवल गुण एवं सत्ता तथा हि देव

अनवरतधनुर्ज्यास्फालनकूरपूर्व

वरणसहिष्णु स्वेदलेर भिन्नम् ।

अपचितमपि गात्र व्यायतत्वादलश्य

आपास दस्मिन् अर्थात सरल काम जो कि के लिए मोक्षण ही है। पुर+पि+ (अ)

राजा तक सेनापति को बुलाओ।

द्वारपाल जैसी आज्ञा (यह कहकर निकल कर पुन पति के साथ प्रवेश करके) यह महाराज (दुष्यन्त) आजा देने के लिए उत्सुक होकर इधर की ओर दी दृष्टि लगाये स्थित है बाद समीप नय 1

सेनापति (राजा की ओर देखकर), यद्यपि शिकार मे (अनेक दोष देखे ये है तथापि ( वही विकार) महाराज (दुष्य के विषय मे केवल गुण ही बन गई है. क्योकि

अनवरत इति अन्यमगिरिवर नाग (देव) aaवस्फालन- पूर्व रविकिरणसहिष्णु स्वेदलेरभिन्नम् अपचितम् अतिव्यायवाद प्राणसार मात्र वित

या गिरिवरतवारी नाग हाथी इमानदेव = आप) नवस्यासनपूर्वम् निरन्तर धनुष को सीने से जिसका genre कठोर हो गया है, रविकिरणसहिष्णु की किरणों को सहन करने वाला स्वंय से भी पशीन से रहित, अतिपरिश्रम से दुबल अपि भी. व्यायतत्वात विशाल एवं दृड होग के कारण अम्ल न लक्षित होने वाला प्राणसारमप्राण शक्ति सम्पन्न गाव शा विमति धारण करते हैं।

उपेत्य) जयतु जयतु स्वामी गृहीतश्वापत्रमण्यम् किमन्यत्रा-

राजा मन्दोत्साहोम मृगपापादिना माये । सेनापति (जनान्तिकम्) ससे, स्थिरप्रतिबन्धो भव अह तावत् यामिनश्चित्तवृत्तिमनुतिष्ये (प्रकाशम्) प्रलपत्येष बंधेय । ननु प्रभुरेव निदर्शनम्।

कुशोवर लघु भवत्युत्यानयोग्य व Heart लक्ष्य विकृतिमच्चित्त भयक्रोधो । उत्कर्ष सच धन्विनापदिषव सिध्यन्ति लक्ष्ये चले मिव व्यसन वदन्ति मृगयामोग विनोद कु

: यद-वि+आप+यायत- तस्य भाव तस्मात् सेनापतिमत्स्य पुराण के अनुसार सेनापति मे मे गुम होने चाहिए "कुलीन "कुलीन मीलसम्पत्रो धनुर्वेदविरदहस्तशि pretener निमित्त कति कृत कर्मचा रस्ता तत्त्वविधान फल्गुसारविशेषवित्। राजा सेनापति कार्यों ब्राह्मण अजियोध्या" दृष्टदोषादृष्टा दोषा यस्था या शिकार क्षेत्रमा राजा के लिए माना गया है" पानी मृगया व्यसनानि महीपते" कामाक नीति सार" गुण एव नीतिकारी के अनुसार दुर्व्यसन होता हुआ भी यह आपके विषय मे गुण ही हो गया है।

(पास जाकर ) जय हो महाराज की जय हो में वन्य पशु र लिए

गये है तो अब आप अन्य क्यों बैठे हुए हैं. सब आपको शिकार के लिए चल देना चाहिए। राजा बाट की निन्दा करने वाले माव्य (विदूषक) ने मेरा (के

प्रति उत्साह मन्द अर्थात् कम कर दिया है। सेनापति (हाथ की भाव मे पिक के प्रति) तुमने ही आप पर स्थिर रहो मैं तब तक स्वामी (महाराजा) की वृत्ति (आकार) का म सरण करुमा (प्रकट) इस को बकने दीजिये निश्चय ही महाराज (माप ही) ही इसमे प्रमाण है।

मेवेति लघु उत्थानयोग्य भवति सत्त्वानां निकृतिम चितम् अपि लक्ष्य बिना उत्कष यत् प इस मध्यन्ति मृगया विध्या एवं विनोद कुत। 1

वपु शरीर, मेदश्छेदकृशोदरमवर्ती के जाने से प उदर का उत्थान सरलता से उठने योग्य बस्त =

उत्साहपूर्ण हो जाता है, पशुका भयो भय और अपर) विकृतिमन विकार को प्राप्त हुआ, तिमी लक्ष्यान लिया जाता है विनाम् उत् और रियो के लिए गौरव की बात है [ [ [] इन सिध्यन्तिक उनपर भी सिद्ध हो जाते हैं या शिकार को मिव- (मनु आदि प्रमशास्त्र प्रणेता एवम आदि नार ते वकुमृगया के अतिरिक्त इस प्रकार कानोताहै।

बादर वर्षात शिकारी का शरीर व टे जाने से दाह (और सरलता से पम्प, स्कूर्तिमय चुस्त एवं उत्साह सम्पन्न हो जाता है) का स्था में विकार प्रस्त चित्त भी जान ना जाता है, परियों की यह सब से बजे गौरव की बात है कि शिकार करने मे उसके बाद पर भी सिद्ध हो जाते है (मनु आदि नीति जन) व्यथ ही मुनया को कहते हैं के अतिरिक्त ऐसा मनोविनोद और कहाँ से मिल सकता है अर्थात् कहीं से भी नहीं-

भावार्थ-नातिया के गुणों की प्रशसा करता हुआ राजा से कहता है कि मुनया ने शिकारी का शरीर स्यूत नहीं रह जाता अपितु न ट जाने से वह उदाएका तथा सरलता से उठने बैठने दौडने योग्य चुस्त एव हो जाता है। वन्य पशु को अवस्था मे तथा पीत होने पर सात हो जाता है, यह भी शिकारी को ज्ञात हो जाता है और सबसे अधिक लाभद बात यह है कि शिकारी के बाण मानते एवं उछलते कूदते हुए मीर हो जाते हैं। भवन लक्ष्य पर बार का ठीक निशाना लगा ही धारियों की सबसे बड़ी विशेषता है। इतने गुणों के होते हुए भी जो मनु आदि कृषि जन शिकार की निन्दा करते हैं. वह है, तो मह है कि मृगया जैसा मनोविनोद जय किसी भी वस्तु से नही मिलता ।

विशेष प्रस्तुत 'समुन्नया है मत किया समुक्क्यानकार है। मोक की प्रथम तीन पक्तियों गया के दोपrera कथन मे पङ्गि सकार है विनायक है।

'स्वामी' से लेकर यहाँ दश' नामक ना जतन यत्र दक्षिण  अथवा भैष्टया वाचा परचित्तानुवर्तनम् । "योगा गुणागुणा दोषा यत्र स्यु सुदन हि तत्" जाचार्य विश्वनाथ के इस कथन के अनुसार यहाँ 'मुदव' नामका वीथिका अंग भी है।

व्याख्या वयापराधस्य जनस्य शरीरम् मेदस बसाया शरीरस्योत्यवर्धक धातुविशेषतासेन मी उदर- मेद सपूभारहीनम उत्त्मानयोग्यम् झटिति समुदाय

विदूषक ( सरोषम् ) अपेहि रे उत्साहहेतुक । अत्रभवान् प्रकृतिमापन्नः । त्वं तावदवमाहिण्डमानो नरनासिकापस्य जी कस्यापि मुखे पतिष्यसि [अहिरे उच्छा अत्तभव पकिदि आपणो । तुम वा अणवीदो अडवी हिडन्त परणामिमालोलुवस्स जण रिस कस्स वि मुहे पस्सिसि ।]

[ सोसम्पादनक्षम सविधायसम्पादन कियाशीलम =जापते।

सरदाताम्] सहव्याप्रमृगादिव पशूनाम् भयको भौतिक विकृतिमत् विकारयुक्त दिया वित्तमपि एष परिणाम, उत्पौरवविषयमा तिमीले लक्ष्ये वमरा सिध्यतीति मन्वादयधम शास्त्र] प्रणेतार) विनामेन गदामाम् वसनम् दयोत्पाद या वदन्ति एतादृश विनोद दास मनोरन कुन

समर्थान निदिशन सेनापति राजान कपयति---यागुण विवये तु भवानेव निदान तो हास्य पर नहानीगोदर भारहीन सायानी मन एवं केवल सिंहादिवन्य काले कोका विधनुष्मता कृष् गौरव या वाणानि भवन्ति सस्वप्येतेषु गुणेषु वास्तारो मृगया दुव्यसन चयन्ति सन्मुचैव मृगयाया हन्ति बहव स्वास्थ्य-  मनो गुणा अतो न गया दोषाम टिप्पणी

[: टिप्पणी

मृगयापवादमा मृगया यदि भीमस्य तेन साइन के स्थान पर मान भी पाठ है। मामले मधु माधव्यमस्थिति स्थिर प्रतिबंध यस्य स गुगया से रोकने के आग्रह में पढ रहना, विद्या+ कमणि मत विधेयम् विद्यान तस्याधिकारी विधेय सदस्य पर यहाँ इसका मूल है निदर्शनमा उदाहरणाप्रमाण, मृगया मे कितने अधिक है इस बात के लिए आप ही प्रमाण है। बडदिर+बम् । तनूकरणे प्रत्यय उत्थानम्+स्था ल्युट् विकृतिमत्-- विकृति विद्यते पस्मिन् तामगात् इनिप्रत्यये धन्दी तेषान्तु मनावनम् व्यस्थ परि हम्पादनेनेति नमविस्म कहा है। कालिदास ने रघुवारा मेगा के युगों का वर्णन किया है। वि++ विनोद ।

(क) बरे उत्साह के एकमात्र कारण भूत) उत्पन्न करने

राजा - भद्र सेनापते, आश्रमe स्म । अतस्ते बच्चो

नाभिनन्दामि अद्य तावत्-

हन्ता महिषा निपानसलिल हस्ताडित

छाया कदम्बक मृगकुल रोमन्यमम्यस्यतु ।पतिभिस्ताक्षति पत्वले विश्राम लभतामिद च शिथितज्याबन्धममध

[: बाले दूर हट महाराज अपनी स्वाभाविक प्रवृति को प्राप्त हो गये हैं। तुम एक बन से दूसरे बन प्रदेश में घूमते हुए मनुष्य की नासिका के लोभी (बारी) किसी घालू

रामा सेनापति हम आन के निकट ही ठहरे हुए है। अत तुम्हारे कथन (विचार) से मैं सहमत नही हूँ म आज तो

पाहतामिति महिया ताति निपानसलिल शाहन्ताम् । छामाकदम्बक मुकुल रोमच अभ्यस्तु वराहपतिभिविधपरवले मुस्ताक्षति ताम्। विलियम हृदन विधामा ।

दही के द्वारा बार-बार = किये गये निपानको गाहन्ता अगान करें। छायावदकदम्बकम् छाया मे बनाने बाला मृगकुलम् हिरणों का समूह रोमन्यम्बुगाली का अभ्यस्यतु अभ्यास करे वरापतिभिडे करी द्वारा विषमविश्वासपूर्वक (बिना किसी थम के) पत्वले पोखरों मे, मुस्ताति = नागरमोथा (पथ्वी को ओर मिट्टी निकालने को किया कि इ रबन्धम शिथित प्रत्य बचन बाला, म हमारा धनुष, विश्राम विराम, सताम् प्राप्त करे।

अनुवाद से अपने सोगो से बार बार feateत किये ये परोवर के लच्छायक भगवान करें, स्नान करें (लो) की छाया deewar हुए हिरन निर्भय होकर जुगाली करें - कर निश्चिन्त होकर तालाबों में अथवा पोखरी में नागरमोथा खोद कर निकालें और हमारा यह धनुष faast प्रत्यचा का बन्धन [fafer कर दिया गया है, अब विधा करे।

वामेकदा त्याग, क्षमा आदि उदात मानवीय गुणों से युक्त होने के कारण ही मनुष्य पशुओं से बेष्ठतम माना गया है। वहाँ किसी व्यक्ति के अन्त करण में कठोरता विद्यमान होती है, वहाँ उसके हृदय में दवा स्थान आदि गुणों की हा घीयाप्त रहती है, भवसर के प्राप्त होने पर वे ही दया आदि भाव बात हो

जाते है। जैम से विमीर हुए राजा से साथ (के नाम को सभी वस्तु से हो गया है। राजा विकार करने में असमय है जब उसके बाग मानो जीव पर बनने की हित हो गये हैं शिका से इस प्रकार विर हृदय पासा मन आदेश देता है कि अब वन्य जीव स्व होकर (शिकार के भय से अपने पापों में भाग लेवा- हिरणी का स्वभाव है की छाया में लाकर बैठना, बराह द्वारा नागरमोथा कर खाना भैगो द्वारा जनावगाहन किया जाना का भाव भी अपने अपने में हो और वाना मेरा यह धनुष भी विश्राम

विशेष-काव्यप्रकार आस्ट ने प्रस्तुत पद्म के तृतीय चरण मे नभन दोष माना है क्योकि पूर्व के दो चरणोतु वाक्य तथा तृतीय चरण मैकमवाद का प्रयोग है। कार की एक सक्ति (न) होने के कारण अतिशयोक्ति बना है।

एकेरीता पिता तथा म्याद के कारण क्रियामनुष्य द्वार तथा प्राणियो की स्वाभाविक चेष्टाओं के प करने के कारण यहाँ स्वाभावसिकार भी है।

[संस्कृताहिकमा विवाह पुन गुन (भूम) नितरामित्यच तारित विलोडितम निपानसलिलमानस्य पाहता छान Breedharan annदेशम् महरिसमूह रोमन्यम् श्रेष्ठवराविषनिया स्वल्पतोययुक्त सरोवरे बला वा. स्वाविशेषाणा सनम (कायम) भिताविधीयताम्, शिथिल व्याया]] [[ यस्मित्तत् अवरोपित एव अस्मदमनुष्यास्य कामुकम् न विधाम लता शान्तिमवाप्नोतु ।

कृतार्थमानो नृपतिमृगयाक नाचन मुपैष्य कथयति अथवा वन्यनामा स्वfवा सरोवरजाति पुन पुन गुम सम शवानी शान्ति मना

" सरोषम) अपेदिरे उत्सा" यह पाठ भी पुस्तको में नहीं है, ब चाहिये। प्रकृतिमापन - अपनी स्वाभाविक स्थिति मे आ गये है समय नहीं करता हूँ मुक्ति का यह स्वभाव

सेनापति यत् प्रभविष्णवे रोवते।

राजाननिय पूर्वगता वनग्राणि यथा न मे निका तपोवनमुपरुन्धन्ति तथा निषेव्या पक्ष्य

अमप्रधानेषु तपोधनेषु

हि दाहात्मकमस्ति तेज

स्पर्शाला इव सूर्यकान्ता-

स्वदन्यतेजोऽभिभवाद्वसन्ति ॥७॥

[: होता है कि वे अपने सीमों से सरीवरी के आस-पास की मिट्टी काट कर जल को गन्दा करके तब उसमे सीटते हुए को दाना फरमा । स्वभावत जगलों में उगने वाली मुसा (मचा) धारा की निकाल कर खाते हैं। वाम यद्धपि पाणिनि व्याकरण की [दृष्टि से नहीं है क्योंकि बम यहा पर "नोदात्तोपदेव" से वृद्धि निषेध होकर free होगा तथा स्वार्थ में प्रशादिभ्यश्य से अग कर विधाम भी सकता है गाज नहीं कहा जा सकता।

सेनापति जी महाराज को जैसी इच्छा । राजासी बन पैरने के लिए आगे हुए वन पेरने वालो को सीटी मेरे सैनिको को इस प्रकार से निवारण करो ताकि वे तपोवन (आश्रम में विघ्न उत्पन्न करें।

देखो-

राम-ति--प्रधानेषु तपोधनेषु माहात्मन] [] [ते] अस्ति हि स्कूल का इन अय तेजोऽभिभवाद तत्

यानि तपोधनेषु तपस्वियों में ही है ना), दाहामुप्त, छिपा हुआ रहता है यह स्पर्शानुकूलाप के योग्य (जिसे यात विशेष समान अथवा तर अन्य= किसी दूसरे के बाद से तिरस्कृत होने से उस गुप्त तेज को मन्ति प्रकट करते हैं।

अनुवाद है जिनमे अर्थात तपस्वियों मे जला देने वाला गुप्त रहता है योग सूतमणियों के पी किसी अन्य के तेज से अभिभूत होने से उस तेज को प्रकट कर देते हैं

प्रधान तिवाने होते है, को रहित हो ऐसी बात नही क्योंकि किसी भी व्यक्ति द्वारा यही मे अपमानित किये जाने पर ये

सेनापति यदाज्ञापयति स्वामी। विदूषकध्वसता त उत्साहवृत्तान्त [पसदु दे उच्छाहत्तन्तो ।] (निष्क्रान्त सेनापति 1)

: = -- संस्कृतस्याप्रधान पेषु तेषु ममप्रधानेषु परमप तप एवं धनमेतेषु तपोधनेषु उत्कृष्टतपस्विषु दाहस्त- दाहात्मसु मम्मीकरणस्वभावकम् प्रमस्ति भवति हि यतो हि समस्य अनुकूल स्पर्धा सूर्यकता सूवकिरणसम्पर्कपानमोद्गारिण, मणिविशेषा इव अन्यस्य राजा जसा भव पराभवस्तस्मात् यतेोऽभिवाद् दमति प्रकटयन्ति । =

अपने को प्रकट कर देते है जैसे गणियो का पण सुखद होता है तथापि सूर्य की किरण पडते ही बनती है। स्वी भी अपने तिरस्कार का बदला सेने हेतु तेज को धारण करते हैं। सम्राट् होते हुए भी दुष्यन्त ने अपने सैनिको ने डालने से मना किया है।

विशेष प्रस्तुती व उनके पोल पर कहा गया है वचस्व से देदीप्ण होने के कारण हो राजा सवदा तपस्विवी को सम्मान प्रदान करते थे।

"स्पर्शानुकूलाना से उपर है। यहाँ उपजाति नामक छन्द

इन्द्र एक बनता है।

सरनार्थथा भस्मीकरणस्वरूप गूढ तेज सूर्यकानामणिषु भवति तथैव शान्तिप्रियेग्वपि तपस्विषु अपि भवति तेजकत्वेन यथा सूर्यकान्तमण सुखस्पर्धा frent स्वकीयात्मक गूढ ते प्रकटयन्ति।

प्रविवि शीलस्य प्रभू इन रोचते' इति योगे 'यांना प्राण इतिस्पर्शसमभवगादिव्यतिरिक्त मनोमन का निग्रह हो शाम है, उपस्वियों में याहोता है तो कर देते हैं सदद्वारा कर देते है, किसी भी प्रकार ऋषिजन का अपमान किया जाना चाहिए और उनके मनुष्ठानादिकमों में विघ्न किया जाना चाहिए।

सेनापति जो महाराज की आजा

करे उत्साह देने वाली बातों का वास हो ।

सेनापतिका प्रस्थान )

राजा - ( परिजन विलोक्य) अपनयन्तु भवत्यो मृगपावेशम्। रंवतक, त्वमपि स्वनियोगमशून्य कुरु । परिजन देव आज्ञापयति देवी आणवेदि ।

( इति निष्क्रान्त ।)

विदूषक कृत भक्ता निमरिकम्। साम्प्रतमेतस्मिन् पादपच्छाया- विरचितविताना शिलातले निषद भवान् वाचमपि सुखासीन भवामि। [किय भवदा निम्म अ सपद एवम पावसावरद- विदाणणाये मिलाले गिनीददुभव नाम अवि हामीणो होमि ।।

राजा-गायत ।

विदूषक एतु भवान् [दु भव

(इत्युभी परिक्रम्योपविष्टौ ।)

राजामात्य, अनवाप्तफलोऽसि येन त्वया दर्शनीय न  ननु भवानपती ने पतते भव अग्गदो मे बहुदि ।] -

राजा सर्व तु रान्तमात्मीयपश्यति । तामाश्रमललामभूता शकुन्तलामधिकृत्य प्रीमि

(स्वगतम्) भवतु, अस्थावसर न दास्ये (प्रकाशम्) नो

राजा (परिवारको तुम अपने शिकार के (परिधान विशेष बको उतार दो तुम भी काम पूरा करो। परिचारकगण जैसी महाराज की आशा (निकल जाते हैं।

विदूषक- आपने इस बल की छाया में बने ता म से लाला पर आज तक मैं भी आराम से है।

विषय- आप (भी) आ

तुमने का प्राप्त नहीं किया है, क्योकि देखने योग्य वस्तु को (तो) देखा ही नहीं

विष आप मेरे समक्ष दी

राजा सभी (व्यक्ति) आमजन को सुन्दर मानते है मैं तो के men की शोभा की (एकमात्र आधारभूत की करके कह रहा हूँ।

वन मे अच्छा में इन्हें (fares के लिए असर ही नहीं दूंगा। मिषतुम उस तापसवाला के इक दिखाई दे रहे हो।

: वयस्य, ते कार्यनीया दृश्यते [होवुन अवसर ण दाइन्स । भोवाणी दोनदि । ] राजासन परिहार्य वस्तुनि पौरवाणा मन प्रवर्तते। सुरवतिभव किल मुनेरपत्याधिगतम | अस्योपरि शिथिल तमिव नवमालिकाकुसुमम् ॥ ॥

: राजावित्यास्तु की ओर पुगियों का वित्त प्रवट नहीं होता. आकर्षित नहीं होता।

गुरमुखतीत अन्वय-शिवनस्य उपरि नानाकुसुम

मुने वयस्य किल सुरभितम् । टूरा हुआ- ( धरा) के उपर ऊपर गिरा हुआ नवमी के पुष्प की तरह तद वह शकुन्तला, मुनि की (षिक की अस्य सन्तान (कन्या) किस वस्तृत तो सुरयुवती (मेगा से) है छोटी IS जाने पर माता के द्वारा व्यक्त प्राप्त हुई है को

अनुवाद से टूटे हुये (अ) के पौधे पर गिरे हुए चमेली के पुष्प के समान यह ऋषि की पुची) (क) अप्सरा की पुत्री है (माया द्वारा स्थान दिये जाने पर वह ऋषि को प्राप्त हुई है।

भावार्थ तुम तापस कन्या के इच्छुक हो यह कहे जाने पर राजा विदूषक को

स्तुति का बोध कराता है कि कुल की

पुत्री अर्थात् उनसे उत्पन्न नहीं है, वह वो मेनका अप्सरा की पूर्वी है जो माता के

द्वारा स्थान दिये जाने पर ऋषि को उसी प्रकार से प्राप्त हुई है जैसे

चमेली कारक पर गिर पड़े दुष्य का अभाव क

को यह बोध करना है कि बालिका

नहीं है प्र य जाता है।

विशेष प्रस्तुत पद्म में उपमालङ्कार है। दार्या है यहाँ यहाँका है।

क्षस्य उपरि पति वा नवमानिकाया सालताया कुमुम= पुण्यम् विना सन्तति सुरपति वा अतिसम्म उम् मेनका गरि मस्ति

संस्कृत सरावाला नाम कस्य पुत्री अपितु या गैारवतिसम्भवास्ति तथा मेनका परिया

या मुनिना पति देव स्वतस्य पितृत्वम् न तु सा तदात्मवेयमिति यथा कदाचित् स्तावित कामदारकोपरि निति स्यात् ।

उत्साह वृतान्तगया के लिये उत्साहक "महतस्यापद मरयम आदि तुम्हारी बात नष्ट होमणि नोट स्वनियोग म यह वास्तव में नाटकों में प्रयुक्त एक मुहावरा है जिसका तात्पय होता है, आप जाइये और अपना काम कीजिये मृत भवता निक्षिकाम भाव अ यह भी एक प्रकार का मुहावरा ही है, सपने सभी माँ उहा अर्थात् सभी लोगो को हटा कर इस स्थान को एक योग्य बना लिया है' पारप० वृक्ष की छाया से बने विधान (चंदोबा ) से युक्त पादपस्यविरचितेन विधानेन प्रतियो मे "एवारिवितान मासने यह भी पाठ है, पर कोई विशेष अतर नहीं है। स्य छाया इस विग्रह मे वस्तुत पाचपन्छायम् प्रयोग बनता है। पावतीति पादप याद+ पाक वितन्यते विस्तीयते विज्ञानम् वि छन् कमणि पत्र सुखासीन सुन यासीन खान मन फलन मयाप्त प्राप्त यो फलम् तम येन स सर्वान्भारो विदूषक के कहने का तात्या कि आप वो मेरे सामने ही चला आपसे सुन्दर और कौन हो सकता है, राजा कहता है कि अप को  जन की तो सभी समस्यामा सुति समास अधिकृत्य करके

कुछ विद्वानों के अनुसार "राजामा यहाँ से लेकर की समाप्ति तक प्रति यत्र दृश्यादृश्यतया भवेत तत्स्यात् प्रतिमुतम्" कहाँ पर बीज का दाय और अदृश्य रूप से प्रकाशन होता है नहीं प्रति- मुख सन्धि होती है। बिंदु नामक अति तथा नामक अवस्था से मिलकर इसके [१२] होते है बिंदुमादर गायस्य योद" पर निदान नेता के आरम्भ से ही प्रतिमुमानी है और यह [at] [] है। बिन्दु नाना विच्छेदे पदवच्छेद कारणम् । या स्वदुरिति स्मृत राजा माधव्य । यहाँ से पुन कथासूत्र बा गया है। प्रयत्न "पस्त फलप्राप्ति को व्यापार फल प्रति पर चोक्य मन श्य प्रकीर्तित "या राजा तपस्विमि चित् परिज्ञातोऽस्मि" गुरदुति सम्मयम—सुरगुरति सम्भव पतिस्थान यस्य त पितरों करणे यत्

: विषक (विहस्य) मा कस्यापि पिण्ड जितस्य तिन्तिण्या- मभिलाषो भवेत् तथा स्त्रीरत्नपरिभाविनी भगत इयमभ्यर्थना (जह कस्स पिण्ड उम्मेदस्त तिन्तिणीए महिलासो भवे सहर अपरिभाविणो भवदो इन अनत्यमा।)

राजा-न तावदेना पश्यसि येनयमवादी ।

विदूषकालु रमणीय यद् भवतोऽपि विस्मयमुत्पादयति त बु रमणिज्ज ज भ व विम्ब उप्पादेवि ।।

राजा-यस्य कि बहुता चित्रे निवेश्य परिकल्पितसत्वयोगा

रूपोच्येन मनसा विधिना कृता नु स्त्रीरत्नसुरपरा प्रतिभाति सा मे धातुविभुत्वमनुचिन्त्य वपुश्च तस्या ॥

प्रकार (निरन्तर बिरो से प्राप्त (व्यक्ति) की इमली में इच्छा होती है, उसी प्रकार (पुरक) उप (] प्राप्त) आपकी यह प्राथना है।

राजा तुमने जब उसे (मिया देखा नहीं है इसलिए इस

प्रकार कह रहे हो।

मिनूषक - निश्चय ही वह रमणीय हो कि उत्

कर रही है।

कहूँ

विइति धावित्वम् तस्या व अनुत्सा विधिना पित्रे निवेश्य परिकल्पित्वयोगा मनसा तू पोचयेन कृता अपरा स्त्रीरल सृष्टि प्रतिभाति ।

राज्याचधातु पात्लम्सामन्य अथवा रचना पुष्प पर तस्थाव और कुता के शरीर पर अनुविन्यपुन पुन विचार करके, मेहता मुझे विधिना के द्वारा विनिवेश्य चित्रफलक पर रख कर, परिकल्पितसत्ययोगा जिसमे प्राणो का सचार कर दिया है के द्वारा मन से ही ययेनसौन्दयसमूह से बनाई गई अपरावण ही स्वरन सुष्टिको रचना प्रतिभावि प्रतीत होती है।

अनुवादष्टा ह्या के सामच्य अथवा मष्टि रचना वैध पर और उसके शरीर पर पुन जून विचार करके, यह बह्मा के द्वारा

: जिसमे प्राणों का बचा कर दिया गया है अथवा जिसे ने मन से ही श्री यम समूह से बनाया ऐसी ही नीरस रचना प्रतीत होती है

भावाच राजा विक से कहता है कि उस कुता के और तो क्या कहूं. इतना ही पर्याप्तो ने ि फलक पर रखकर उसने प्राणी का सार कर दिया है अथवा उसे अपने मन से ही समूह से बनाया है तब के रचना चाय और उसके शरीर पर बार- बार विचार करने पर मुझे तो वह एक विचित्र ही स्त्री रत्न को सृष्टि प्रतीत होती है, वह कोई साधारण सुन्दरी नहीं है या तो वह ब्रह्मा की मानसी सृष्टि है अथवा ने पहले उसका चित्र बनाकर फिर उसमें जीवन सवार कर दिया है, अंत वह अपूर्व सुन्दरी है।

विशेष प्रस्तुत पद्म में 'मनसा' मे सहावार है, कोई बाबा का अ] [fare लेते है अत उत्प्रेक्षानकार, वीरान सृष्टि होकर भी यह अपरा है भेदारो से मद में भेद है, चतुव चरण, प्रथम तीन चरणों का कार है अल मकार भूति, वृत्ति, अनुमान है वसन्ता जगा"।

संस्कृत व्याख्यातु ब्रह्मण, वित्वम् सामय्यम् सृष्टिरचनापुण्य माता व शरीर अनुचिनयविवाद स मम दृष्यतस्य पित्रे आले प्रतिरूपके वा, निवेश्य परिकल्पित सत्त्वस्य योग जायनस्य सभार पस्यासापरिकल्पित योगा मनसा कि विनय पोवनी निर्मिता, अपरा अपूर्वा एक स्त्री रामसृष्टि रमणीरत्ननिमिति प्रतिभातिप्रतीयते। F

[[]] [[सरता राजा तमासीन्दयविपये विदूषक कपयति- पत्ता शत्रुता वस्तु ब्रह्म विलक्षणा एवं रमणीरत्ननिमिति स्तह्म मुष्टिरचना कौशल तथा शरीर न विभाज्य एवं प्रतीयते यत्सा विधिना प्रतिरूप

जिजो चुका है, जिसे

हो गयी है। परिमानिके स्थान पर परिभाति भी पाठ है-पर प्रथम पाठ हो थप मनसा हाथ से बनाने में सम्भवत उनी सुरता न आती [ मन से ही कर उसे बनाया अपना अपरा अनन्यसदयमालिनी अव जैसी तो पहले कभी बना सक थे और न मन्यमे ही बना

शेष प्रत्यादेश इदानीं रूपवतीनाम जइ एव पचासो दाणि रुवपदी ||

राजा इदच मे मनसि वर्तते ।

अनात पुष्प किसलयमलून कर

नाविद्ध रत्न मधु नवमनास्वादितरसम्

अखण्ड पुण्याना फलमिव च तद्रूपमन न जाने भोक्ता कमिह समुपस्थास्यति विधिः ॥ १० ॥

[न जाने भोगतार कमिह समुपस्थास्यति विधिः ।। १०-

अनुचिन्त्य अनुचिती कालिदासपास है उनकी मा नायिका इसी प्रकार की अब सुन्दरी है यक्षिणी या तस्थाद दुष सृष्टिराधा" विमीया सविध निर्मातु भवेद मनोहर मिद रूप पुराणो मुर्ति पावतीमा समुपयेन एकस्थ सौन्दय] [furere" [तस्मि विधानातिशये विधातु कन्यामये ये रसधार पर भी को सारनिमित बना दिया है दुमण्डल दमयन्तीवदनाय वेधसा ।

विचक-यदि (तुम्हारा कपन) सत्य है तब तो अब (सभी गुदरी वि तिरस्कृत हो गई।

राजा मित्र मेरे मन मे तो यह है

अगाप्रातमिति अन्वय नम्र बनाम र अनम् किसलयम, अनादि र जनस्यादितरसम्म इव हि भोक्कार समुपस्थास्यति इति न जाने

शब्दाय अनम दोषरहित अर्थादवरूप उसका रूप- सदय (कुता का साग पुष्पम् (सम है), करमानी से नूनमग नवीन कोमलय (के नविन गया, रत्नमणि (१), अनादि जिसका रसास्वादन नहीं किया गया है, ऐसा ही दया और समका समान है, विधि विक किसको किस सौभाग्यशाली होग करने वाला समुपस्वास्यति प्रस्तुत करेगा हि न जाने नहीं जानता है।

विशेष (विष) उस (कुल) का सौद (किसी के द्वारा नागया कोमल पल्लव (है) न काटा [eat] अथवा बेधा गया है) सदा जिसके रस का (a) [दन नही किया गया (ऐसा नवीन मधु (है) (जमात के सवितों का फल के समान (सद का विधाता किसको उपर बनायेगा

[

अर्थात् इसके उपयोग करने का सौभाग्याने किस समय को प्राप्त होगा, मैं नहीं जानत

भावाय महाकविका रमणीयता की उपासना करने वाले सा है उसकी दृष्टि मे ही स्वरूप है, जो हो, परम पवित्र एव सदगुणों से समन्वित हो तो उनकी दृष्टि में है है कालिदास के अनुसार अभिनदनीय एवं सद्गुणों से युक्त वातरों के पुष्पों से ही प्राप्त होता है। सच के भी निर्दोष रूप का उपभोग करने वाला कोई पुग्यशाली ही होगा क्योंकि इस प्रकार का अर्थात् मधुर, पवित्र नवीन जैसा अर्थादीन green मे माता की भाँति कोमल एवं शुचि रमणीयता सीमा से ही प्राप्त होती है।

विशेष यहाँ गुणी नामकना क्षणी उपमानों के साथ 'इ'को करने पर महाद्वार है बना प्रात जनावाद शब्द साभिप्रायुक्त हुए है परिकर बनकार है "गोमा " art feerer है, "रूपयत्यभोगार्थ रणम"

यहाँ नामक छन्द- मन मला मिरी "

कार ने प्रस्तुत पद्य को सोधा नामक नायिकामद्वार के उदाहरण के रूप मे किया है।

व्याख्यान निर्दोषम परमपवित्र सिम्ता पायाम, अनाधात पुष्पमन केनापि गृहीत धमकुम (इव अति), करन अनबन, जयम्न अस्ति, अनाविदम् अक्षलम रत्नशियमगिरिवास्ति, अनारवादित र अनुतास्वादम्- नव मधुवनी नूतन वा भारत पुण्याना तथा मुक्तानाम् शुभ कर्मासनिपरिणाम इवास्तिविधि समानभार (अन्या) उपभोगकर समुपस्थास्यति उपनेत इति न जाने हिदायते।

संस्कृत सरलार्थतामा जगताप विषये राजा विषक रूपयति-- यस्य मे मनसीदमेव वा नियनापदि नरलून पल्लवितगिरि, अनुप नवीन क्षमिवास्ति पुण्याना सम्पूर्ण फलमिति सदस्यपभोक्तार की विधि समुपस्वास्यतीत्यन रेट्रिम ।

प्रत्याये प्रति आदिश निराकरण, तिरस्कार- आज भूषा न गया हो, असून सूत्रधातोता वादिभ्यति [तकारस्य त्येतत न समाय अनास्वादितरराम आस्वादित उपयुक्त रस

[: द्विती

विदूषक तेन हि लघु परिवायताना भवान् मा कस्यापि तपस्विन स्ते पतिष्यति। [तेण हि लहु परिलम ण भव । मा कस्स बनवणो गुणहत्थे परिस्सदि । ]

माधुयपस्तद्वा+धुन+सन अंगपन प्रविध- मानम् अ दोष यस्मिन् रूपमायभूषितानादिना देन भूमिपमितिले रेहन्ति र "gers are rests अनाविनन आप मणि मधु मदिरा नहीं क्योंकि मंदिरा तो पुरानी ही श्रेष्ठ मानी जाती है। पर शहद नवीन हो

अनादि विशेषण द्वारा उसका परिग्रह योग्य सूचित किया गया है। यदि उपमानो म पर योग्यता मुता यता उत्तम सूचित भी गई है। इन उपायो उपमानो से मम प्राणमुख पक्ष रसना आदि इन्द्रिय [का] [भी] [ा गया है, समुपस्थास्यति यहाँ तय है। अत] [अ] है उपस्थित करेगा।

सवा दोष बजित सौद ही उपासनीय एवं व्य है। महाकवि कालिदास इसी प्रकार के सौद के इस प्रकार का निष्कल पवित्र सौदयपुष्पी से ही प्राप्त होता है फिर चाहे वह वस्तुगत हो बया feeree मे महाकवि ने विशाला नगरी को स्वर निवासी के पुष्पों के कम हो जाने पर बचे हुए पुष्य के द्वारा गाया गया कान्तिमा स्वयं का एक बताया है--

स्व भूते सुचरित स्वगणा वागताना

कान्तिमत्वमेकम् ।। सौद की परिभाषा विभिन्न कवियों ने विभिन्न प्रकार से दो है किन्तु fore के सौन्दय की उपासना से कोई नही हो सका है। महावि साथ के दो में रमणीयता-

कालिदास की प्रमेयभावनाष्टपति होती है। [य] [स्तुति का उदाहरण है के के गन में प्रयुक्त प्रत्येक शब्दसामा है जिनसे दुत की उपभोगेच्छा अभिव्यक्त होती है।

विषको अपना लीजिये (ही ऐसा न हो कि यह नदी के तेल से चिकनी किसी तपस्वी के हाथ जाए प्राप्त हो जायें।

[

राजा परवतो खलु तत्रभवतो न च समहितोऽत्र गुरुजन ।

विदूषक - अत्र भवन्तमन्तरेण फोवृशस्तस्या दृष्टिराग जत्त भवन्त

अन्तरेण कीदिना से विराओ ।। राजा - निगदिवाप्रगल्भतपस्विन्याजन । तथापि तु अभिमसितमीक्षण

हसितमन्यनिमितकचोदयम् ।

नवितो मदनो न च सप्त ॥११॥

[] विवृतो मरतो न च सप्त ।। ११ ।

रामदेवी परत है और फिर इस समय उसके (संरक्षक) कृषि कभी माँ नहीं है।

विष आपके प्रति (उसकी ) प्रेमयुक्त टी

राजानी बालिकाएं स्वभाव (सीसी) भोली भाली होती है।

अभिचे इति अन्य मयि अभिमुपम सतम अपनिमित्ततयोदय  वारिवृत्ति मदन न विद्युतम संवत शस्त्रादि मेरे अभिमुझे (सति) अभिमुख अर्थात् के सामने दृष्टि जाने दर क्षणष्टिकोनाला (अत्र देखने लगी), अन्यनिमित्त का बहाना लेकर हिने से जाती दी [अस] प्रकार से तथा उसने (कुतला ने विनयवारितवृत्ति = काय मदनभावको नविवृत तर छिराया ही =

अनुवाद द्वारा उसके नामन देखने पर वह कु बीर से नहीं मिला बाबाले प श्री बाल काम भाव को नही किया और पाया

भावादिकृतला न दुष्यत दृष्टि नहीं मिलाई नाई साम (से किया उसकी और दही तथा दुष्यन्त को उसके हाव भाव से यह ज्ञात होता भी उस पर अनुरक है क्योंकि वह राजा केटा को ही अपनी ही माती कारों को लेकर सनी मीना मानो उनका यह प्रकट कर ही दिया था कि वह राजा पर अनुरक्त है। दुष्यन भी यह समझ गया किला उसके प्रतिमा है क्योंकि (ये) इस प्रकार के भावों से चित अनुरतिनहा होगा।

[: बा

विदूषक खलु दृष्टमानस्य तवा समारोहति। [डि न

मनस्य तु अक ममादिः ||

विशेष प्रस्तुत पचनेन विचलन में रोष विराध का परिहार किया जा सकता है।

इस है।

समिक्षण सहनमा दादापा समर्पित निमिनेन हेतुनानेनत्ययापारस्य उद मोहसिन कृतन पर अनुराग ति । (राति सर यस्य स विनयवादिना भाव

सकृत सरला राजा निसर्गा माद दष्टि माया समयोनिम अने कर्मचा यस्ता सितम जान कामस्य प्रकटीकृत नागपि प्रमाणापित्रितोऽपि कामविकारान स्कूटीन एवेनि ।

मा कस्यापि इस कथन के द्वारा विकासे राजा द्वारा महो नियम्यनिनमहरिणानामिन्दर की ही पुष्टि की है बरकती- परम परमपरा प्रेमदृष्टि नवत सपने प्रेम को वह यही पर रही और न ही कर रही थी। अपने कमवार को बचाये रखने का कर रही थी. इसमे है जिसमे एक अज्ञात पौवनत्व दोनो ही रहते है। इससे कसिमनामबाट भाव को दिलाया है। काम के अनुसार कुल्ला में नवकामाविभूतिविशिष्ट उनमे प्रथम का समावेश हो चुका है जिसने मे और कामयुक्तख कम होता है। विकार कहा जाता है 'स्वाचि नोटबारी द्वारा स्वाभिलाया प्रकट करना मोयायित भाव होता है।

और क्या देखते ही तुम्हारी गोद में तो नहीं बैठ जाती ।

[राजा मम प्रस्थाने पुन शालीनतयाऽपि काममाविष्कृतो भावस्तत्र

भवत्या । तथा हि- • रेण चरण क्षत इत्यकाण्डे लम्बी स्थिता कतिचिदेव पदानि गत्वा ।

शाखा कलमपि माणाम् ॥ १

[शाखा बल्कलममा मणाम् ॥ १२

राजा - ( सखियों के साथ लौटकर जाते समय उसने न जाता पूर्वक मेरे प्रति प्रेमभाव (अनुराग) को अभिव्यक्त किया था क्योंकि

स्मिता अपि विमोचयती विवदमासीत्।

शब्दातबी इकहरे बदन वाली कोमला गी) कतिचिदेव कुछ ही पदानि पग मलकर अकाशे एकाएक अचानक, E अवसर पर ही दशके भाग से रक्ष हो गया है। इति यह कहकर स्थिता गई दुमणामको धान उनसे हुए अ वल्कल वस्त्र को विमोचयन्तीवाटी हुई विना मेरी ओर मुख करके पीसी स्थित हो गई।

अनुवाद-सुकुमाराही तला) (सलियों के साथ कुछ कदम चल कर (थोडी दूर जाकर ही) अचानक मुख का भाग मेरे पैर मे घूम गया है' यह कहकर खड़ी हो गई और अक्षों की डालियों में उन हुए भी अपने वस् को हुई मेरी और मुखको करके एक गो

आवाज को टीका मन दुष्यन्त को छोड़ने अर्थात उससे free होना नहीं चाहता था तथापि क्या वह न तो मुख से कुछ कह ही गती थी और न प्रत्यक्ष अपने प्रेम को व्यक्त ही कर सकती है बत बहु कि पैर मे काँटा चुभ गया है ताकि मोट समय यह एक बार मेरा न कर सकेग हुए भी वल्कल को टाने के बहाने से कुछ देर तक ठहर कर मुझे देखती रही थी। हो प्रेम की गतिविधि है के प्रति यह उत ही है-

नागभाभ्यते ॥ विशेष प्रस्तुत पक्ष मे "असतो" में विरोधाभास अलङ्कार

[विदूषक तेन हि गृहीतपायेयो भव कृत स्वयोपवन तपोवनमिति थामि तेन हि गहीदपाय होहि किद तुए उपवन तयोषण ति खामि।]

राजा सखे तपस्विभि केचित् परिज्ञातोऽस्मि चिन्तय तावत् हेनापदेशेन पुनराधमपद गाम ।

कोपरोपवे युष्मा राजाम्। नोवारवष्ठभागमस्मा-

हमुपहरन्त्विति । [ को अवरो अवदेसो तुम्हाण रात्राण णीवारच्छट्ठभाभ रम्हाग उवहरन्तु ति ।]

के प्रकटीकरण का हेतु होने के कारण यहाँ हेतु द्वार है।

[मस्त व्याख्याता कविषिदेवका एवं धारणा बलिया स्वयमेव गत्या प्रत्यय अकाण्डे सहव रेवा वरेण दमस्य अरे शाभावेन वरण दक्षत द इति इत्य] ( ) [ क्षण त मामलो भवतु मामपादपाना, मालायेषु च असक्तमपि निमलिस्य वस्त्र विषयी विमोचनस्य व्यापार नाटयन्ती तयस्था सा एवं भूता सा स्थिता मभूव ममाभिमुखी भूत्या स्थितेत्यय ।

संस्कृत सरासरी वय प्रेमभाव सव्याज दरायती गदान गत्या अनवसर एवं चरणापानमा अ शाखा असक्तमपि कामवनो परामुखी भूत्या समसामयि स्वानुरागमकटितयतिति ।

विस+कृ+धातु से शालीनता (न =विवृत वचन यस्या का बीहि) अनवसर में ही राजा दुष्यन्त विदूषक कहता है कि यह बहाने से ही की थी तथा इस प्रकार शालीनता पूर्वक मेरे प्रति अपना अनुराग व्यक्त किया था क्योंकि प्राय (स्त्रियों के हाव-भाव ही जन के प्रति आसक्ति की योति करते है।

गामा विभ्रमो हि प्रियेषु

(मेष) ● विदूषक (माग का भोजन ग्रहण करें। तुमने तो तपोवन उद्यान (डोन ही बना दिया है, यह देखता है

राजा मुझे कुछ तपस्वियों ने पहचान लिया है। तो सोचो कि किस होने से पून (हम लोग साथ मे जायें।

विकमा जैसे राजाजी के लिए किसी अन्य महाने की क्या पता

[राजा मूर्ख, अन्यदेव भागधेयमेतेषां राणे निपतति पद रत्न- राशीनपि विहान पाय- अनुतिष्ठसि वर्षेभ्यो नपाणा क्षयि तत्फलम् / तपय भागमय्य ददत्यारण्यका हि न १३ ।।

[नीवार ( धान की फसल का छठा हिस्सा हमे दो (उपस्वियों से तपोवन से पाकर यह कहने।

राजा मूखइन (तपस्वियों) के वाण काम मे वो दूसरे ही प्रकार का भाग कर रूप में प्राप्त होताहैर से भी कहीं अधिक अभिनय (स्वीकार करने योग्य है। देवी-

जयतु तिष्ठति नाम तलम समिति) हि ( या पा

शार्थमाह्मणादिवरूप में प्राप्त होने वाला = धनबाद, प्रतिष्ठति उपलब्ध होता है पानाम् राजाओं के लिये = उस आदि का फल अर्थात् ऐवादिना हि फिन्ल्लू, आरण्यका बनवासी मुनिवन हमको, अक्षय्य कभी नष्ट न होने वाला अपनी काम देते है।

अनुवादादि वर्णों से जो धन आदि कर रूप में उपलब्ध होता जाज के निधन का दिवाली है, किन्तु ये तो हमे कभी न होने वाला अपनी तपस्या का छठा भाग L

माया का ही होता क्षणी ही होता है. इसी बात को स्पष्ट करता राजा विदूषक से कहता है कि ब्राह्मणादि वर्षों से कर रूप में प्राप्त होने वाला धन तो राजाओं के लिये अस्थायी ही हैं किन्तु जो हमे कर रूप से अपने तप काष्ठभाग देते है का देना है।

विशेष महा रत्नादि ने भी तपस्या का पठार अधिक श्रेष्ठ पोषण किया गया है अत व्यतिरेक है।

अनुष्टुप है। जिसका इस प्रकार से है-

गुरु रिजानीयादम्। द्विषय पादस्व सप्तम दीम पद्म में कवि ने भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता पर विशेष

दिया

[ (नेपथ्ये)

हन्त सिद्धा स्व

राजा - (कर्ण दवा) अये। धीरप्रशान्तस्वरैस्तपस्विभि भवितव्यम् ।

(प्रविषय)

दौवारिक जयतु जयतु भर्ता । एतौ द्वौ कृषिकुमारी प्रतीहारभूमि- मुपस्थितौ जेदु जे भट्टा। एते दुवे इसिकुमारला परिहारभूमि उपद्विदा ।]

राजा तेन हाविलम्बित प्रवेश तो

[: पेण उत्तिष्ठतिप्राने नृपाणाम् पादशाना बनाम तत्फल= फलम् अचिरस्थायि (हिन् नागिन तपस्विन न=बरमाक राजान, अक्षय्यम अविनश्व आगम्यतपतिमयस्य षष्ठाशम् ददति प्रकरणापपति

सस्त सरलार्थ यवम् प्रनादिफलमधिरस्थावि भवति किन्तु are कररूपेणापित तपष्ठा विनम्र भवति ।

गृहीताये गृहीत लब्धपाचे माचोवन येन प्रेम मार्ग के दुष्प के लिए प्रेमभाव हो पाये होगा जिससे कि वह अपने मार्ग पर निय जायेगा। इस अर्थ में पयतिथि से उम् (ए) प्रत्यय भागधेयम्- कर का पराया कि तुम दीवार का देने के बहाने आश्रम मे सोच जा सकते हो क्योंकि राजा ष्ठति है कर्मधारय समास्तम्] यहाँ पटू का अर्थ वस्तुत है अतएव मारा निषेध नहीं हुआ।

'चिन्तय' से लेकर यहाँ तक विलास नामक प्रतिमुख राधिका जग है "समीहा रतिभोगा दिलास इति कथ्यते।

निपय में)

मही हम सफल मनोरथ हो गये।

राजा - ( सुनकर मरे, स्मीर एवं स्वरो वा उपस्वी बनो को ही होना चाहिए।

(प्रवेश करके)

द्वाराम महाराज की जय हो यो मुनिकुमार द्वार पर ब राजा तो उन दोनों को शोध प्रवेश करायो

[दौवारिक एवं प्रवेशयामि (इति निष्क्रम्य, पुन ऋषिकुमाराज्या सह (प्रविश्य) इत इतो भवन्तौ [एसो पवे सेमि हदो इदो भवन्ता ।] तस्मिन्पयो नातिभिने राजनि कुल - अध्यक्षता वसतिरमाध्यमे सर्वभोग्ये रक्षायोगादयमपि तप प्रत्यह सचिनोति । अस्यापि या स्पृशति वशिनश्चारणइन्द्रगीत

(उभौ राजान विलोकयत )

प्रथम- नहीं दीप्तिमतोऽपि विश्वसनीयताऽस्य वपुष । अथवोपपने-

पुण्यशब्दो मुनिरिति मुह केवल राजपूर्व ॥ ४ ॥

[ सभी प्रवेश करता हूँ (यह कहकर निकल कर पुन ति बालको के साथ प्रवेश करके आप इधर बायें।

(दोनो मुनिकुमार राजा को देखते हैं)

प्रथम भी इस राजा का शरीर विश्वास उत्पन्न कर है। इसके विषय मे यह सब इसके उचित ही

योगात्म तप समिनोति पनि अस्य अपि केवल राजपूर्व पुष्प मुनि इति शब्ध चारणहगीत मुथा पति ।

सम्मार्थममुना अपने भी भी सभी अर्थात् चारों E के द्वारा उपभोग बचना बाय के योग्य साथमे गृहस्थाश्रम मे वसति विषा स्थान बनाया है। योगादपना के रनपी योग से, कमपि यह दुष्यन्त राजा भी प्रत्यह प्रतिदिन तपस्या का नि [[][करता है। चिपतियों वाले अस्य अपि इस राजा का भी केव राजपूर्ण = केवल 'राज' शब्द पूव वाला, पुष्प पवित्र मुनि ऋषि इति - = यह शब्द पारी पारयुगल के द्वारा पाया जाता हुआ स्वर को स्पृशति करता है।

अनुवाद ने भी ऋषियों की भाँति सभी धमों द्वारा उपभोग के योग्य (गृहस्थान) में निवास स्थान बनाया है जा के सरक्षण रूपी योग यह भी प्रतिदिन करता है। इस राजा का भी केवल राजपूत वाला पवित्र भूमि यह शब्द चारमजीवी द्वारा गाया जाता हुआ बारम्बार स्व का करता है।

वास्तु के सभी पद है उनका एक राजा के पक्ष मे तथा द्वितीय जयं मुनि के पक्ष मे होता है।

[अनापि स राजा दुष्यन्त केवल मुनि ने ही सभी ब्रह्मणारी आदि जनो द्वारा आय प्राप्त करने योग्य आश्रमेत् गृहस्थाश्रम निवास करता प्राप्त किया है, जिस प्रकार एक मुनि भौ  आदि धार्मिक जनो द्वारा यणीय बनाम मे अपना निवास स्थान बनाता है। राजा और मुनि में कोई अन्तर नहीं है। रक्षा की तथा की रक्षा के उपाय से भयमपि यह राजा दुष्यन्त भी प्रत्यहम् प्रतिदिन [रूप] सम्चिनोति पुष्य का करता है, जिस प्रकार एक मुनि शरीर रक्षणास किये जाने वाले योगाभ्यास से प्रतिदिन तप का सञ्चयकरता है. इस प्रकार भी मूर्ति और राजा मे कोई अन्तर नहीं है। प्रजानुरज्याष्ठादि धमकों से भी इस दुष्यन्त का भी ( न केवल मुनि का ही केवल राजपू केवल जिसके राजा बन्द लगा हुआ है, ऐसा पुण्यमन्यवद पवित्र मूनि यह अर्थात् राजशब्द चारण इन्द्रगीत चारणों के बोबो से कीर्तिमान होकर (चारण भाट राजाओं की स्तुति करने वाले होते हैं या स्पृशति स्वर्ग तक पहुँचता है, fae प्रकार एक जितेन्द्रिय मुति कामन्यत् पवित्र मुनि यस बहु युगल द्वारा मानो आकाश तक पहुँचता है इस प्रकार कृषि र राजा मे कोई अन्तर नही है, राजा के सभी का ऋषिही है, केवल नाममान का बर यह है कि राजा को राज] कहा जाता है और ऋषि को केवल ऋषि राजशब्द के पूर्व प्रयुक्त होने के कारण ही वह राजर्षि है अन्यथा भी ही है।

विशेष प्रस्तुत पद्य में सोये आपने रायोगात् आदि विशिष्ट पद द्वारा अनेकार्य का विधान किया गया है बत पालकार है, केवल राजपू मुनि की अपेक्षा काय कथन से व्यतिरेकालकार है। मन्दान्ता छन्द है।

सकृत व्याख्यानमुना राजा दुष्यन्तेनापि न केवल मुनित्यर्थ', आपने गृहस्थाश्रमे वसति निवासस्थानम मायाकान्ताधिकृत (मुनि सर्वे यदु मध्यपनायम् आषयणीय बनावने स्वनिवासस्थान कल्पयति रखाया annerक्षणस्य योग उद्योग उपाय वा तस्मात्त्वमपि राजा दुष्यन्तऽपि न केवल मुनि रेय प्रत्य प्रतिदिनम्, तप पुष्यम, सचिनोति अजपति वर्षको मुनि तोगाभ्यासात् स बिनोति प्रजारानुष्ठानादिधर्मकयाचि वशिन समिन ब मुलिन) केवल राजोपपदविशिष्ट पुष्प पति इति शब्द परणीतचरणयुगमानस यां स्याने समुच्चारितो ब्रह्मरिच भवति मत तो राजा ।

[द्वितीय गौतम अय स वनभित्सको दुष्यन्त । प्रथम - अथ किम् । तच्च पदयमुदधियामसीमा परिषी-

द्वितीय-तेन हि

मेक कृत्स्ना नगरपरिघप्राशुवा भुनक्ति । सन्ते सुरयुवतयो पहि

राज्ये धनुष विजय पोते व वर्ग १५ ।।

[न मोहारभूमिम् प्रतिह्नियते राजसमीप मीठे बना प्रतिहार प्रहार या ( हु दीर्घ) यहाँ इसका द्वार है। अ तिम्-दिन तिम् efore  पपि राजा मा तथापि उसका मुनि के समान था अतएव उसके शरीर पर विश्वास किया जा सकता था उत्पम् उपपद सोपे आ राजपक्ष में सभी भागो द्वारा श्रवणीय गृहस्वाथम मे भी गृह के सहारे जीवित रहते है यथा वायु समावित्यन्त अन्तव । तथा गृहस्थमात्मा (मनु) भी 'त्य उच्यते श्रेष्ठ सवीनेतान् विवहि" मनु मुनि पक्ष ने भी विद्यार्थी तथा अतिथि तपोवनाथन में माय प्राप्त करते हैं। अधि+आ+म + हापूस अहह प्रति अन्ययीभाव बारी बारामा गीत पारयन्ति कीर्तिम इति चारणा से लेकर इस लोक तक की होने से माँ पुष्प नामक प्रतिमुख सन्धि का अंग है और विशेष नामक नाट्यक्ष

संस्कृत सावको मुनि वजनाये हा भवति सर्वानिवसति, प्राणाय वयमपि राजा पुष्यति यथा मुशिरसाष्टाविन्यासात प्रत्य तपो- दुष्यन्तस्य पारयुगगीयमान केवल राज मुनिरिति पुष्प शब्द का पति यथा वयस्य मुने जगमान मुनिरिति पुण्य राज्य अन्तरिक्षच भवति । राजानामि इषि

श्री " विशेष वचनम् मतम" द्वितीय-गौतम या यह इन्द्र के मित्र पन्त '

प्रथम और क्या

द्वितीय-तब हो तेन हि तपरिवाम् एक-

[श्यामसीमा कृत्स्ना परिजीम एवं निम् न हि रक्त अस्य ये धनुष पौरुते च व विजयम नाशसन्ते ।

सदा नगरपरिषदार को अलाओं के समान) सीमामा धरित्री पृथ्वी का मुक्ति= उपभोग करता है। जापान करता है। यह चित्रप की बात नहीं है कि वे जिनका ५ हुआ है ऐसी सुरयुतदेवाङ्गनामे अस्य इस राजा दुष्यन्त के अधि प्रत्याषि पर पीते है, पर विजयम् विजय को करती है।

अनुवाद (द) नगर द्वार की जाओ के समान विकास या नालाय राजा दुष्यन्त मही समुद्र के (नीले जल के कारण नीली (दिखाई देने वाली सीमा से युक्त, समस्ती का उपभोग करता है, तो इसमे की कोई बात नहीं है, क्योंकि दैत्यों के साथ शत्रुता रखने वाली देवताओं की सुरियाँ इस राजा के हुए धनुष पर और के नख पर विजय की आशा करती है

मावा राजा दुष्यत (भा व्याप्त नीली सीमा से युक्त विद्यालय (बी) पर एक राज्य करता है। यह अकेला ही इतने बड़े राज्य का उपभोग कैसे कर लेता है इसकी कोई गुजाया नहीं है क्योंकि जब देवताओं और देवास होता है तो को इसी यचायुक्त पर और परह की आशा रहती है। इससे हो जाता है कितना कमी है कि देवासुर ग्राम में यह देव इन्द्र का सहायक होता है तब फिर सम्पूर्ण खण्ड का यह अमेले ही भार धारण करता है इसकी कोई बात नहीं है। वस्तुत दुष्यमा पुरुषार्थी एवं पराचमी है।

विशेष—यहाँ प्रस्तुत दुष्प के धनुष और अप्रस्तूत के प का एक ही किया के साथ सम्बन्ध होने से कालकार है " ar मासकार है। का ] [] उत्तराध है, जिनकार है। यहाँ विज्ञान जा को जीतना रूप कारण के स्थान पर समस्त पृथिवीपालन रूप का का दो बार सकारा छन्द है।

व्याख्या नगरस्य (लक्षण) नरद्वारस्य परि पा बाहू तो ] स्य गएक एकाकी एवं मयत उदधि अगन एवं श्यामसीना मी प्रान्तस्वनी स्था साताम् उदधिश्यामसीमामा सम्पूर्ण परीअनि पुनरि

उभौ (उपगम्य) विजयस्व राज राजा - (आसनादुत्याय) अभिवादये भवन्तौ । उभौ-स्वस्ति भवते (इति फलान्युपहरत ।) राजा - ( सप्रणाम परिगृह्य आशापयितुमि हामि । उभौ- विदितो भवानामसामहस्व तेन भवन्त प्रार्थयन्ते ।

नित्यमानमहिपत रे ( सह ), बदराभावा सुरयुवतय सुराणा युवलय देवा गना अस्य दृष्यतस् मधिज्ये समारोपितगुणे धनुषि शरासने, पौरनृते विजय विजयची सफलता, मानसन्ते अभिपति अपेक्षा

सस्त सरला नगरद्वारादण्डतामसहाय एवं दुष्यन्त आसमुद्र ] समस्त पृथिवीपतिनाथ कोयास्वयरिचय यतो हि ये ग्रह  वा अस्य समारोपितगुणे कार्मुके स्वप विमान्।

टिप्पणी

यसभितीति बिल+मिदिर+विप, बलभिद सखा बलभित्सव राजाहा इति समासान्तष्ट बल के ही अन्य नाम पुत्र नमुचि सम्बर आदि है। विश्यामसीमाम उदधिस्थामा सीमा वस्था अथवा यामाया बुद्धिरिधिश्याम सीमावस्या ता राजन्यवाद स्याम सदस्य परनिपात उदकानि छतेऽस्मिति उदधिउदा कमम्यधिकरणे चेति उदकस्योदइति स्यादन] परिपरि + न् + अ किवा के पीछे लगाया जाने वाला या कामकरता है,  में ही धातु परस्मैपदी है। तेजाब छायें त्वम् रक्तय के स्थान पर समिति सूरा भी पाठ है समिति युद्ध में समिति का अय सभा भी है समेत्य यत्र जना सम्+इ+फन् रासपौभिरूपते बाजे व पौत तस्यैव तस्मिन् ।

दोनों (समीप पहुँचकर राजन विजय हो ।

राजा (आसन से उठकर (से) आप दोनो का अभिनन्दन करता

दोनों आपका कस्या हो यह फलोपहार देते है। राजा (प्रणाम स्वीकार करके) (मैं) काय आला की अपेक्षा करता

अर्थात् आप हमे मा

दोनों पूज्यनीय महर्षि के आश्रम में विद्यमान न होने के कारण  हमारे पो में बाधा उपस्थित करते है। अस बाप सारथि सहित कतिपय यतका में रहकर आश्रम को न कीजिए।

द्वितीयोऽ

राजा- किमाज्ञापयन्ति

उभौ तत्रभवत कण्वस्य महरसानिध्याद् रक्षासि न इष्टविन मुत्पादयन्ति सद् कतिपयराज सारमिद्वितीयेन भवता समायोयितामा इति ।

राजा - अनुगृहीतोऽस्मि ।

विक  - ( अपवार्य) एदानीमनुकूला तेऽम्यर्थना [एसा वाणि अणुऊला से अमत्यणा । 1

राजा - (स्मित कृत्वा) रेवतक मनायता सारथि सवाणासन रथमुपस्थापयेति । 1.

दौवारिक पद्दब आज्ञापयति [ देवो आणवेदि । ] ( इति निष्कान्त 1)

उभी (सर्व) अनुकारिणि पूर्वेषा पुक्तरूपमिव त्वयि ।  पोरवा ॥१६॥

राजा मे अनुगृहीत विदूषक (दूसरी ओर मुख करके इस समय यह प्रार्थना तो आपके मन के

है। राजा - ( मुस्कराकर) तक मेरी ओर से कहो कि हमारे धनुष बाण सहित रस को उपस्थित करे।

= शम्माच पूर्वबाद अपने अनुकारिणि अनुकरण करने वाले व्ययितुम्हारे विषय मे युक्तरूपमपूरूपेण ( रावमा) उतर- वनों को दान के अनुष्ठान मे) दीक्षिता दीक्षित हे हैं।

द्वारपाल जैसी महाराज की आजा

(निकल जाता है

उभौ (प्रसन्नतापूर्वक) मनुकारिणीति अन्वय-पूर्वेषाम अनुकारिणि त्वपि इदम् मुक्तरुप पौवा पापेषु दीक्षिता

अनुवाद-सपने पूर्व बसतो का अनुगमन करने वाले बापने विषय यह अर्थात् मुनि वचन पालन करना और उनको समय देना सदा उपयुक्त हो है पुरुवीय राजा (वस्तृत) आपत्ति से पीडितों को अभयदान देने मे) को यज्ञ मे सदा निष्ठ रहे हैं।

: राजा (सप्रणामसुगमता पुरो भवन्तो अहमप्यनुपमागत एवं उभौ- विजयस्य (इति निष्क्रान्ती) राजा-माधव्य, अप्यस्ति शकुन्तलादने कुतूहलम् ।

[: आयाम-पुरुष में उत्पन्न राजा मरणागत बन रहे हैं मत अपने पूर्वजों के गुल्य महाराज दुष्यन्त भी रात को शरण देने वाले और आपत्ति से पीडितो को सहायता करने ने वापर रहने वाले हैं। परम्परागत होण करना ही बने पूर्वजो की मर्यादा को स्थिर रखना है हमे दान देकर आपने यह प्रमाणित कर दिया है कि आप अपने को के पदचि हो पर चलने वाले है।

विशेष प्रस्तुत पुरुवा की मौरवमय परम्परा पर प्रकाश डाला गया है arin पूर्वा का कारण है अतल बलद्वार है। उत्तरागत विशेष से पूर्वात सामान्य का समर्थन होने से यहाँ अर्थान्तरन्यासकार है, मनुष्टुप् छन्द है। संस्कृत याक्या पूर्वेषाम्पूजामा राजा अनुकारिणि अनुवापिनि स्वराशि (दुष्यते एतद अभयदानमरूप काम तपसा सभी- चीन मे समस्त या आपापस्तामा पि खाना वा साहाय्यप्रदानरूयशेषु दीक्षागृह

स्कूल वारिपादानादिकम वजानामनुयामिति त्वयि राजनि एतचानरूप कायम् सम्यहं पुरुषो गया [य] चिमनाभयदानख्याध्वरेषु तारिणीभ

टिप्पणी

विजय विपराभ्यासे इत्यात्मनेपदम् उपगम्य उपा स्वप् । उत्थाय रामाय अभियानात्मनेपदम् माना चाहता हूँ कि आप मुझे कुछ ना दें। सदाम्प मानवासिनाम् यतमाने इति पष्ठी, पिराम कतिपय राय स्मिन् जनान्निघा+कि समिति समिति सान्निध्यसमा समीप होने के कारण "आपन्नाभवसमेषु नानाम् मे ते आप सत्र सीदन्ति सयुक्तरुपमा 1

राजा - (प्रणामसहित) आप दोनो जाये में भी आपका ही अनुगमन (अभी करता हूँ।

दोनों आप विजय हो (निकल जाते हैं)। रामाया को देखने के लिए क्या तुम हो

[: द्वितीयोऽ

१३७

विदूषक - प्रथम सपरिवाहमासीत्। इदानो राक्षसवृत्तान्तेन विन्दुरपि नावशेषित । [ सपरिवाह आणि दाणि मनतन्ते विन्दु वि गावसेसिदो ।]

राजा मा भैषी । ननु मत्समीपे वतिष्यसे ।

विदूषक एव राक्षसा रक्षितोऽस्मि [एस रक्खसादो रसिदो रह] (प्रविश्य)

दौवारिक सज्जी रयो भतुं विजयप्रस्थानमपेक्षते एवं पुनर्नगरा देवीनामाप्तिहर करभक आगत [सज्जो रो भटटणो विमा अदि एस उप अरादी देवीण आणतिही कम आ दो ।]

राजा - ( सादरम् ) किमम्बाभि प्रेषित

दौवारिक अथ किम् [ अह ]

राजा ननु प्रवेश्यताम् ।

बौवारिक तथा (इति निष्क्रम्य करभकेण सह प्रविश्य) एवं भर्ता । उपसर्प [तह एसो भट्टा । उवसप्प ।]

करमक - जयतु जयतु भर्ता देव्याज्ञापयति आगामिनि चतुर्थदिवसे प्रयुतपारणो मे उपवासो भविष्यति। तत्र दीर्घायुषाऽवश्य सभावनीयेति । [जेदु जेदु भट्टा देवी आणवेदि। आजामिण पतत्यदिव उत्तपारणों में जवासो भविस्यदि तहि दोहामा अवस्य सभाविदम्पत्ति ।।

[हने उत्साह अधिक था इस समय तोकी वालों से एक

बूंद भी शेष नहीं रह गया है।

म डरो (तुम तो मेरे साथ रहा।

विदूषक अब मेरी राक्षसो से रक्षा हो गई।

प्रवेश करके

द्वारा तथा महाराज की विजय यात्रा की प्रतीक्षा कर रहा

इधर (एक ओर नगर से (हस्तपुर से देवी का सन्देशवाहक आया है। राजा(बादर सहित) क्या रणीय) माता जी न भेजा है। करमहाराज की जय हो देवी की आशा है कि मागावी बौथे दिन मेरे व्रत की पारणा होगी अतः उस समय जीव (राजा दुष्यात अश्यमेव ( उपस्थित होकर सम्मानित करे।

द्वारपाल और क्या

राजा - (शीघ्र ही प्रवेश

द्वारपाल जैसी आशा (निकल कर पुन करभव के साथ प्रवेश करके) ये महाराज (विराजमान है

[

राजा- इतस्तपस्विकार्यम् दत्तो गुरुजनामा यमप्यनतिक्रमणीयम् ।

किमत्र प्रतिविधेयम् ।

– कुरिवान्तरा तिष्ठ [तिसङ कु विभ अन्तरा चिट्टा ] राजा सत्यमाकुलीनूतोऽस्मि । कृत्यभाषीभवति मे मन । पुर प्रतिहत शैले स्रोत खोतोयहो यथा ॥ १७ ॥

रायर का काम है। इधर माता जी की दोनो ही

अतुलनीय है। अब क्या उपाय करना चाहिये।

विकशिश की तरह मध्य में ही लटके रहो। राजा-सचमुच में परेशान है।

कृत्यय इति अन्य कृत्य मेमन गुरले प्रवित तोही पथा द्वैधीभवति ।

सध्दार्थ कृत्य दोनो के देवस्थान में होने के कारण मे मेरा (मूल दुष्यन्त का मन चित्त पुरसम्मुख प्रतिहत के कारण अवरुद्ध सोतो नदी के स्रोतो प्रवाह यथाकी माँ विधा मे पगया है।

अनुवाद (पयों की रक्षा, माता की आज्ञा का पालन दोनों कार्यों के पृथक पृथक स्थल (क्रमण तपोवन, हस्तिनापुर) ने सम्पन्न होने के कारण मेरा मन सस्थित नदी के प्रवाह दो धाराओ मे विभक्त के तुल्य द्विविधा में लायमान हो रहा है।

भावापत के सम्मुख स्थित होने के कारण अवरुद्ध नदी का जल जैसे दो धाराओ मे विभक्त हो जाता है ठीक वैसे ही राजा दुष्य का मन भी द्विविधा में फें गया है। एक ओर तो तपस्वियों की रक्षा करना, दूसरी ओर माता की बाबानुसार राम- धानी में पहुँचना वस्तु दोनों ही काय आवश्यक है उसका मन तसे को हुई परिणाम दो पारामो मे विभक्त धारा के समान दोलायमान है। अन्त हृदय मे बाप्त है।

विशेष निरवयव वित्त मे धोमाद कथन से यहाँ सम्बन्ध सम्प्रसक्षणा शक्ति है। प्रयोग से उपमानकार है साटानुप्रास नृत्यनुप्रास छेका प्रात मनुष्प छन्द है ।

संस्कृत व्याख्यात्ययो आश्रमरक्षणमातुसम्भावer] कार्य भिन्नदेशत्वादपरस्परम्यमे मम मनसि यथा पुर प्रतिप्रवाही यशपाल जायत।

: राजा (विचिन्त्य) राखे, त्वमम्बया पुत्र इति प्रतिगृहीत। अतो भवानित प्रतिनिवृत्य तपस्विकार्यव्यग्रमानस मामावेद्य तत्रभवतीमा पुत्रकृत्य- मनुष्ठातुमर्हति । विदूषक मारीत गणयति [ण क्युम क्लोनो

गणेस ||

[: संस्कृत सरला – मातृकापस्य नगरे तपस्विकामस्य च एक तयो यो स्पानुष्ठानासम्भवा मनस्तथैव [wear a प्रतिवद्ध सन् या प्रवाह द्विधानितो जायते।

अनुदम पदस्य पश्चात् भीमाय पीछे पीछे भागता ही रहा हूँ बताने हलत्रयवस्तुमा स्यादल।" परिवाम्परित बहन सह यथा स्याता परिया परि + परिवाह और परवाह दोनों रूप होते हैं। परिवाह ऊपर तक पूरा भरा होना, पहले उत्सुकता पूराप से भरी हुई थी एवं राक्षस स्वायें अणु अवशेषित- अब+शिष् करणितिप्यसे सूट] वत्स्यसि वृम्य स्वनो विकल्प परस्मैपदम् मागे भाव भी सम्मा+ हिरात, अभ्यास आदरा बहुवचनम्माज्ञापयति आशा कि महराजा हरि का पता इसने सारी जाने के लिये महर्षि से पाचन की पर उनके अस्वीकार कर देने पर इसने वशिष्ठ के विश्वामित्र से प्राथना की उन्होंने उसे समरी स्वर्ग भेज दिया पर देवताओं ने उसे स्वग में प्रविष्ट न होने दिया और उसे नीचे उल्टे सिर डाल दिया विश्वामित्र ने उसे अपने तपोबल से बीच मे रोक दिया, यह अब भी बीच मे एक तारे के रूप में सटका है।

भिप्रवेशस्वामि देवो तो भाव तस्मात् इति द्विपमुव् धास्थानयो नीति द्विविधायुक्त याकुल तो महवि प्रस्तुत पद्म में कवि ने दुष्प हृदय की द्विविधाको मनोवैज्ञानिक तथा भूत रूप में प्रस्तुत किया है, इसमें अमूर्त मन की मूल प्रवाह से उपमा भी दर है।

राजा (विचार करके मित्र तुम्हे माता ने पुत्र रूप में स्वीकार किया है। आप यहाँ से (राजधानी) लौटकर मुझे तपस्वियों के कामों में व्यस्त मन बता करके पूज्यनीय माता जी के पुत्र के द्वारा (करणीय) काय की सम्पन्न कीजिए। विश्वको आप मुझे राक्षसो से भयभीत न अर्थात मे राजसी से डरने के कारण यहाँ से राजधानी जा रहा हूँ आप ऐसा न समझें।

राजा - ( सस्मितम) कथमेतद भवति सभाव्यते ?

विदूषक यथा राजानुजेन गन्तव्य तथा गच्छामि [जह रामाण

गन्तव्य तह गच्छामि। 1

राजानमनु तपोवनोपरोध परिहरणीय इति सर्वानानुयात्रिकास्त्वयैव सह प्रस्थापयामि।

(ग) तेन हि युवराजोऽरमोदानी सबुत । [तेण हि बराओ हि दाणि सत्तो ]

राजा - (स्वगतम्) चपलोऽय वटु कदाचिरस्मत्प्रार्थनामन्त पुरेम्य कथयेत्। भवतु । एनमेव वक्ष्ये (विदूषक हस्ते गृहीत्वा प्रकाशम) वयस्य ऋषिगौरवादाधम गच्छामि न सत्यमेव तापसकन्यकाया ममाभिलाय । पश्य-

व वय व परोक्षमन्मयो

मृगशावं सममेधितो जम परिहासविजल्पित सचे

परमार्थेन न गृह्यता वच १८ ॥

: राजा - (मुस्कराकर बाप सम्बध मे ऐसी सभावना कैसे की जा सकती है? गया का अनुज जाता है वैसे ही राजा का पेरा दूर करना चाहिए सभी अनुवाद को तुम्हारे साथ ही भेज रहा हूँ।

इस समय में युवराज हो गया हूँ।

राजा मे हो यह बडा होत है। कहीं हमारी इच्छा को बतपुर की रानियों से ठीक है, तो मैं इससे इस प्रकार से कहूँगा (विदूषक का हाथ पकड़ कर प्रकट में) पियो में प्रतिकार होने के कारण ही में जा रहा है। तस्वी के मेरी बाई आकाक्षा नहीं है। देखो-

इति गणात परोक्षम जन यस वर्ष परमागमनम

शब्द-रामसभाओं मे प्रयोग राजा दुष्यन्त), कहाँ भगशार्थी के साथ (सानिध्य मे) एधित = को प्राप्त परीक्षम कामना से दूर (रहित), जनसामान्य व्यक्ति, कहाँ रिहाविति मे नही गई तो परमा साम्राज्य जानिये ।

अनुवाद (वासी) और महाबो के साथ (पाती काम (सामा यक्ति (बामाता कहाँ हम मे नही गई बातों को सत्य मत समझ लेना ।

द्वितीयोऽ

विदूषक [अथ किम्। [ अह ] (इति निष्क्रान्ता सर्वे 1) इति द्वितीयोऽङ्क ।

1 भावाय राजधानी की लौटते हुए वियक के प्रति राजा दुष्यन्न रहता है oयक वार्ता को सत्य मत मानना कारण कि मित्रता, विवाह तथा प्रीति यह तो समान स्तर के व्यक्तिया में ही होती है। फिर कुता और मुझ तो आकाश पाताल का अंतर है। कहा तो अनपुर की दरियों से विलास एवं क्रीडा करने वाला मै दुष्य त और कहा काम भावना से सपा अपरिचित यह भोली तपस्वी काया जो मृगो के साथ रही है फिर हम दोनों में किस प्रकार एक दूसरे के प्रति आसक्ति हो सकती है। अत यह पूष कथित बाल तो परिहास मात्र भा सत्य नही

1 संस्कृत व्याख्यास मित्र वयम् नागरिका व कुत्र, मृगशाव मृगशावके, सम्स, एधित सम्बंधित (अतएव परोक्षमन्मय कामभावानभिश जनसकुन्तलासदृश अन क्य कुप, परिहासेन उपहासेन विजल्पितम् कथितम् परि हास विजल्पितम् [बच वचनम्, परमार्थेन तत्वत न गृह्यताम् न स्वीक्रियताम् । संस्कृत सरलार्थ राजा विदूषक कम्पयति ततो मम कुतलाया मासक्ति अहमस्मि कामकलाभिज्ञ नागरिक सा चास्ति मृगनायकै सम बृद्धिगता अतएव कामभावानभिज्ञा बनवासिनी तापस वाला, अत तस्या ममानुरागी न सम्भवति अतः मत्कृत शकुन्तलानुरागगणनादिक सर्व काल्पनिक परिहासविजल्पितमाम न स्वया तत् परमायती पाह्यम

विशेष पहाँ पूर्वाध उत्तराध का कारण है अत काम्पनिङ्ग अलकार, राजा और मकुन्तला के एकत्र वर्णन से विषय अलकार है। वियोगिनी नामक छन्द है। " विषमे सजा गुरु समे समरालोऽय गुरु वियोगिनी" "राजा-स्वगतम् से लेकर तक संवृत्ति नामक सध्या है" संवृत्ति स्वयमुक्तस्य स्वय प्रच्छादन] भवेत् ।

टिप्पणी

बहु वस्तु ब्रह्मचारी के लिये प्रयुक्त होता है पर यहाँ इसका तात्पय ब्राह्मण बालक से है । अस्मत प्राथनाम शकुन्तला विषयक मेरी अभिलाषाको अन्त पुरेय- यहाँ लक्षणा के द्वारा अन्तपुर का अथ बन्तपुर की रानियाँ है। परोक्ष ममय- परोक्ष मम यस्य स मन मनातीति सम्म काम अणों पर परोक्षम तवस्त्य स्वेति परोक्ष परोक्ष-अ मत्वर्थ परिहास विजति परिहसनम् परिहास तेन विजल्पितम् परम अवस्तेन परमार्थेन ।

कि ठीक है।

(सभी निकल जाते हैं। द्वितीया समाप्त  ( प्रविशति कुशामादाय यजमानशिष्य ) शिष्य – अहो ! महानुभाव पार्थिवो दुष्यन्त । प्रविष्टमात्र एवाणम " तत्रभवति राजनि पद्रवाणि न कर्माणि प्रवृत्तानि भवन्ति । का कथा वाणसन्धाने ज्याशब्देनैव दूरत । हुकारेणेव धनुष स हि विघ्नानपोहति ॥ १॥ यावदिमान्यविसस्तरणार्थं दर्भानृत्विगम्य उपनयामि। (परिक्रम्याव  च, आकाशे) दे । कस्पेदमुशीरानुलेपन मृणालवन्ति च नलिनी- पत्राणि नीयन्ते ? (आकर्ण्य) कि प्रवीषि ? आपल नाइसववस्वस्था शकुन्तला तस्या शरीरनिर्वापणायेति ? तहि त्वरित गम्यताम् । सखि । सा भगवत कण्वस्य कुलपतेरच्छ वसितम् अहमपि तावद्ध तानिक शान्त्वकमस्यै गौतमीहस्ते विसर्जयिष्यामि । ( इति निष्क्रान्त) इति विष्कम्भक ।

तृतीयोऽङ्कः तृतीयक प्रारम्भ

(तदनन्तर कुणों को लेकर कप के शिष्य का प्रवेश) शिष्य मोह, राजा दुष्यन्त महाप्रभावशाली (है) उन महानुभाव राजा के आश्रम में प्रवेश करते ही हमारे धार्मिक काम निर्विघ्न पलने लगे हैं। अन्वय-बापानेका कथा ? हिस ज्याशब्देन एव धनुष हुँकारेण इव विमान दूरत मपोहति ।

सायासाने धनुष पर वाण चढाने में, का कथा बात ही क्या, ज्याशब्देनैव प्रत्यक्षा के शब्द से ही, धनुष हकारेण इमानो धनुष की कार से विष्नान् = यज्ञ कम की बाधाओ को अपोहति दूर कर देते हैं या निराकरण कर देते हैं।

अनुदान-धनुष पर बाण चढाने की तो बात ही क्या, क्योंकि वह प्रत्यचा के बाद से ही मानो धनुष की हुकार से ही विष्नो को दूर कर देते हैं। मायाय— इस श्लोक मे राजा के महान प्रताप का वर्णन किया गया है। उसका चारो ओर इतना प्रभाव व्याप्त है, कि राक्षस आदि भी यह कर्म में उपद्रव करने का साहस नही कर सकते आश्रम मे सभी धार्मिक क्रिया-कलाप निर्विघ्न सम्पन्न हो रहे हैं। इस कारण राजा को धनुष पर बाण चढाने को आवश्यकता ही नहीं ती उसकी की ध्वनि ही मानी धनुष की टकार है जिसे सुन कर सभी विघ्न दूर भाग जाते हैं।

विशेष प्रस्तुत पद्म में 'का कथा' अर्थात् उसका तो कोई प्रसय ही नहीं, इस प्रकार यहाँ अत्ति अलकार है 'हुकारेण इव में उत्प्रेसकार है। धनुष पर चेतनत्वारोप होने से यहाँ उत्प्रेक्षा समासोकिन है अष्टाक्षरात्मक अनुष्टुप छ संस्कृत व्याख्या वाणस्य शरस्य सन्धान समारोपणम् तस्मिन् वाणसन्धाने

शरयोजने का कमा=किमुच्यते वाणसन्धानस्य प्रथम एव नावातीत्यथ ह यत सराजा दूरतएव दूरादेव ज्याया मोय शब्द ध्वनि तेन ज्याशब्देन एव धनुगु गावनिव धनुष कामुकस्य, हकारेण इव शब्द सदृशेन इव विघ्नान् धार्मिक क्रियान्तरायान् अपोति निराकरोति ।

संस्कृत सरलार्थ दुष्यन्तस्य प्रताप निर्दिशन् शिष्य कथयति यज्ञविघ्नकारिणां राक्षसाना वधाय तस्य रस धानस्य प्रसन एव नास्ति स तु अनुशब्देनैव सर्वविघ्नान् दूरी करोति

पावदिति तब तक इन कुशो को वेदी पर बिछाने के लिये ऋषियों को देता हूँ (घूमकर और देख कर आकाश की ओर देखकर अकेले ही कहता है) प्रियवदा यह बस का लेप और कमालना युक्त कमल के पत्ते किसलिये जाये जा रहे हैं। (सुनने का अभिनय करके पुन स्वयं कहता है, क्या तुम यह कहती हो कि लू लगने से शकुन्तला बहुत अधिक अस्वस्थ ( हो गई है) उससे शरीर को शान्ति देने के लिये (पहने जा रही हूँ तो सावधानी से उसका उपचार करना । वस्तुत यह कुलपति भगवान् कच्च की प्राणस्वरूप है तब तक में भी शकुन्तला के लिये यज्ञीय शान्ति जल गौतमी के हाथ से भिजवा दूंगा।

(यह कहकर चला जाता है)

(विष्कम्भक समाप्त हुआ) यजमानशिष्य यज्ञानुष्ठानकर्ता भगवान् कण्व का शिष्य यजते इति यजमानयन् धातो द्शानच् शिष्य-शास घातो एतिस्तु इत्यादिना कयप "सास इद रस्य ईकारे षत्वे महानुभाव अनुमतो भाव अथवा अनुभावयतीत्यनुभाव अनुभू+ पन् अथवा अनु + भू+ णिच्बच् कतरि महाद अनुभाव यस्य महानु प्रतापी प्रविष्ट मात्रे एवं प्रविष्ट एवं प्रविष्ट मात्र तस्मिन् प्रवेश करते ही मयूर व्यसकादिवद् समास । वस्तुत इस प्रकार के शब्द प्राय नपुसकलिङ्ग मे ही प्रयुक्त होते हैं, पर कवि ने इनका सी लियो मे प्रयोग किया है अर्थात् इनको विशेषण बनाकर सभी में प्रयुक्त किया है। सन्धाने समा ल्युट freeणि निता उपद्रवा पा तानि रतदूरे स्थित्वेत्यच पीपे पञ्चमी हुए कारड करण कार हुन्+कृ+पत्र पोहति प्रप् +

टिप्पणी

(तत प्रविशति कामयमानावस्थो राजा ।) राजा - (निश्वस्य) जाने तपसो वीर्यं सा बाला परवतीति मे विदितम् । अलमस्मि ततो हृदय तथापि नेद नियतयितुम् ||२||

उह+लट उपसदस्यतिवाक से परस्मैपद या धातु आत्मनेपदी है। यतो यतये क्विन्नाकाशे - यह एक  पारिभाषिक शब्द है, इसे आकासमा भी कहा जाता है। इसमें प्रश्न करने वाला और उत्तर देने वाला एक ही व्यक्ति होता है, वह आकाश की ओर देखता हुआ किमी से सम्बोधित कर कुछ पूछता है और फिर सुनने का अभिनय कर कहता है कि क्या तुम यह कह रहे हो और तब स्वयं ही उसका उत्तर भी देता है कि. पीति नाटये विनापात्र प्रयुज्यते त्वेवा मुक्तमप्यथ तत् स्यावाकाशभाषितम्" मतानिकम वितानस्य यस्य अथवा विताने भवन वितान +ठक एक वृद्धि  यह भी एक नाटकीय पारिभाषिक शब्द है— विष्कम्भूनाति नियोजयति पूर्वापरका भाग सम्म अर्थात् पूर्वापर कथा भाग को जो जोड़ने वाला कथा विशेष का अस नाटको मे विष्कम्भक अत्यावश्यक होता है, क्योंकि भारतीय नाटकों मे युद्ध वध आदि का रंगमञ्च पर दिखाना वर्जित होता है, अतएव द्वितीय अफ मे म विनकारियों के वध के लिए जब राजा प्रस्थान करता है तभी अक समाप्त हो जाता अत अब आगे के कथा भाग को जोडने के लिए पूर्व घटना का बताना आवश्यक पा इसीलिये कवि ने पूर्वापर कथा भागो की कडियो को जोडने के लिए तीय अक के प्रारम्भ में इस  की योजना की है। यद्यपि विष्कम्भ की कथा नीरस और सप्त होती है तथा पूर्वापर का भागो को जोडने के लिए इसकी आवश्यकता पड़ती है इसमे प्राय मध्यम पात्रो का प्रयोग होता है और यह अक के बाद मे रखा जाता है। वृष्यमाणाना कपाशाना निवेशक सक्षिप्ता वस्तु विष्कम्भ आदावड, कस्य दशित मध्यमेन मध्यमाभ्याचा पाया सम्प्रयोजित शुद्ध स्यात् स तु सकीणों नीच मध्यमकल्पित ।"  भूतभाविवस्त्ववासूचक । अमुख्य- पात्र रचित सोक प्रयोजन अर्थात् यह कि विष्कम्भक दो प्रकार का होता है, जहाँ एक या मध्यमणी के पात्र होते हैं वहाँ विष्कम्भक और जहाँ नीम और मध्यम पात्र होते हैं वहाँ मिश्र या कोण विष्कम्भक होता है यहाँ एक ही क मध्यम पात्र है अत मह शुद्ध कम है। कुछ आचार्यों को मान्यता है कि यहाँ  पात्र केवल संस्कृत भाषी हो वहा शुद्ध और जहाँ संस्कृत प्राकृत भाषी हो वहाँ मिश्र विष्कम्भ होता है इस दृष्टि से भी यह शुद्ध विष्कम्भ है।

(तदनन्तर कामियो जैसी अवस्था वाले राजा का प्रवेश)

(मदनबाधा निरुष्य) भगवन् कुसमायुध, त्वया चन्द्रमसा च विश्वसनी याभ्यामतिसन्धीयते कामिजनसार्थ । कुत- तव कुमारस्य शीतरमित्यमिन्दो- इयमिव मययार्थं दृश्यते मद्विधेषु । विसृजति हिमगर्भे रग्निमिन्दुम- स्त्वमपि कुसुमवाणान् वज्रसारीकरोषि शा

अन्वय-तपस वीर्य जाने, सा बाला परवती इति में विदितम्। तथापि व हृदय तत नितमि न अस्मि

भावार्थ तपसी तपस्या की शक्ति को जाने जानता हूँ। सा  बाला वह कन्या शकुन्तला परवती पराधीन विदित है, तत जात उसे, नियतवितुम् हटाने मे बल नास्मि समय नहीं हूँ।

अनुवाद मे तपस्या की पति को जानता हूँ वह भोली बाली कन्या (कुन्तला पराधीन है, यह भी मुझे विदित है। फिर भी इस मन को उससे हटाने मे समय नही है।

भावार्थ राजा दुष्यन्त सतना में अत्यन्त बासक्त है पर उसे प्राप्त करने में वह उपाय शून्य है न तो वह शकुन्तला को बनाए आपन से ले जा सकता है। क्योंकि ऐसी अनधिकार चेष्टा पर उसे ऋषि कष्य शाप दे सकते हैं। उनके तपोबल से वह भली-भांति परिचित है तथा उसे शकुन्तला की परवशता का भी ज्ञान है। शकुन्तला ऋऋषिकपद के सरक्षण में है। यह कप की वज्ञा के बिना स्वेच्छा से उसके साथ नहीं जा सकती। अत राजा का शकुन्तला के विषय में सोचना व्यय है । हो भी न जाने क्यों उसका मन अभी शकुन्तला मे अनुरक्त है। वह अपने मन को शकुन्तला की ओर जाने से नहीं रोक सकता है।

विशेष—यहाँ पर 'तपस दी जाने में तप के प्रभाव को जानता हूँ। मत मै कुन्तला को बलाद अपने आधीन नहीं कर सकता इस प्रकार यहाँ पर बना  काय के प्रस्तुत होने पर जो यह अप्रस्तुत 'तपनो वीर्य जाने काम कहा है इससे यहाँ पर अप्रस्तुत प्रशसा अलङ्कार है।

विशेषोक्ति यहाँ पर राजा के शकुन्तला से अपने मन को हटाने के कारण हैमहत्य कद का तपोबल तथा शकुन्तला का पराधीन होना पर फिर भी वह अपने मन को कुता से नहीं हटा पा रहा है। यहाँ कारण के रहते हुए भी कार्य केन होने से विशेयोक्ति अकार है।

छन्द-यजाति छन्द है ।  सत्याचा तपसो बीर्य जाने यह मुनिजनतप प्रभाव सम्यद जानामि । सापूर्वोक्ता वाला मुधा नायिका सुन्तला परवती गुरुजनाधीना, इति मे विदितम् इत्यपि मया शातम तथापि (अम) तत्त इदमवस्था मनुरक्तम् हृदयममन वितवितुम अपनेतुम् न अलम अस्मि समर्थो नास्मि ।

संस्कृत सरसा-राजा मनसि विचिन्तयति ग्रह मुनि प्रभाव सम्प  मुनयो हि प्रानुग्रहसमर्या भवन्ति मतो वलादस्या अपने शापादि भयम साधा ताप गुरजनाधीना अतो न तस्था स्वेच्छया मया सह गमनमपि सम्भवति  प्राप्त सम्भव तथापि तदनुरक्त मम चित्त महाकाशातु मसमर्थोऽस्मि ।

( कामपीडा का अभिनय करके) भगवान् कामदेव विश्वास योग्य भी आप और चन्द्रमा के द्वारा कामिजनो का समूह अत्यधिक प्रतारित किया जा रहा है क्योंकि

अन्वय-कुसुमशरत्वम् इदो शोतरमित्य (च) इद अमिषु अयथार्थ दृपते (हि) इन्दु हिमगमें मपूर्व पनि विसृजति स्वमपि कुसुमवाणान् वयसारीकरोषि ।

शब्वाय – तव तुम्हारा, कुसुमपरत्यपुष्प सायक होना हो का, सोतरमित्वम् शीतल किरणो वाला होना इव द्वये दोनो मविधेषु मुझ जैसे काम पीडित विरहियो के लिये यथाच असत्य या विपरीतार्थक हिमनमें तुषार पूर्ण किरणों से, विसृजति वर्षा करता है, बारी- करोषि के समय कठोर बना लेते हो।

अनुवाद तुम्हारा पुष्पसree होना तथा चन्द्रमा का जीवन किरणो वाला होना ये दोनो बातें मुझे जैसे काम पीडित विरहयो के विषय में असत्य दिखाई देती हैं क्योंकि चन्द्रमा तो पारपूर्ण किरणो से अग्नि की वर्षा करता है और तुम भी पुष्प धरों को बच के तुल्य कठोर बना रहे हो

भावार्थ- इस श्लोक में विरहियों की दशा का यथार्थ चित्रण किया गया है। की अवस्था मे जो कामदेव के फूलो के कोमल वाण सुख पहुँचाते है और चन्द्रमा की शीतल किरणें तापहारक होती हैं, वहीं विरहावस्था में मदन पीडितो के लिए विपरीत प्रकार के बन जाते हैं। यही कारण है कि राजा के लिए चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से उसकी विरहानि को और अधिक उद्दीप्त कर देता है। वे विरह से सन्तप्त होने के कारण चन्द्रमा की शीतल किरणो मे अन्ति का अनुभव करने लगते है। काम के कुसुम बाण भी बच के तुल्य कठोर बन कर उनके विरह व्यथित अन्त करण को और अधिक विदोण कर देते हैं।

विशेष प्रस्तुत पद्य में द्वितीय चरण मे 'म' इस विशेष का कथन करने के स्थान पर जो "मदिधेषु" इस सामान्य का कथन किया गया है उससे यहाँ अस्त- तबलद्वार है।

तापसी बीर्ग जाने मुनिगत प्रभाव सम्यग जानामि । सापूर्वोक्ता वाला मुधा नायिका शकुन्तला परवती गुरुजनाधीना, इति मे विदितम् इत्यपि ज्ञातम तथापि (अहम) तकुइदमस्या मनुरक्तम् हृदयममनमपनेतुम् न अलम समर्थ नास्मि ।

संस्कृत सरलार्थ राजा मनसि विचिन्तयति यह मुनिल प्रभाव सम्यग ग्रिनहि समर्था भवन्ति, अतो वलादस्या अपहरणे सापादि भयम | हा मुग्धा तसा गुरजनाधीना अतो न तस्था स्वेच्छया मया सह गमनमपि सम्भवति एव तस्य प्राप्ति सम्भव तथापि तदनुरक्त नम चिल महाशा ममर्थोऽस्मि ।

( कामपीडा का अभिनय करके)

भगवान् कामदेव विश्वास योग्य भी बाप और चन्द्रमा के द्वारा कामिजनो वा समूह अत्यधिक प्रतारित किया जा रहा है क्योंकि

तवेति-अन्यय-सव कुसुमशरस्यम् इव तरमित्व (च) ददद्वय अपि मधेषु अथार्थ दूयते (हि) इन्दु हिमगमें मी नि विसृजति त्वमपि कुसुमवाणान् वयसारीकरोषि ।

शब्दाय तव तुम्हारा, कुसुमहारत्वम् पुष्पसायक होना, इन्दो मन्द्रमा का शीतरमित्यम् शीतल किरणो वाना होना ये दोनो मद्विधेषु मुझ जैसे काम पीडित विरहियों के लिये अपचायम् असत्य या विपरीतार्थक हिमगमें दुषार पूण, मयूखे किरणों से, विसृजति करता है, पथवारी- करोषि के समन कठोर बना लेते हो।

अनुवाद तुम्हारा पुण्यसायक होना तथा चन्द्रमा का शीतल किरणो वाला होना ये दोनो बातें मुझे जैसे काम पीडित विडियो के विषय में असत्य दिखाई देती हैं। क्योंकि चन्द्रमा तो पारपूर्ण किरणो से अग्नि की वर्षा करता है और तुम भी पुष्प सरों को ब के तुल्य कठोर बना रहे हो

भावार्थ इस श्लोक मे विरहियो की दशा का यथार्थ चित्रण किया गया है। योग की वस्था में जो कामदेव के फूलो के कोमल याण सुख पहुँचाते हैं और चन्द्रमा की शीतल किरण तापहारक होती हैं, यही विरहावस्या में मदन पीडिती के लिए विपरीत प्रकार के बन जाते है यही कारण है कि राजा के लिए चन्द्रमा अपनी किरणों से उसकी विरहानि को और अधिक उद्दीप्त कर देता है। वे विरह से सन्तप्त होने के कारण चन्द्रमा की हीतल किरणो मे अनि का अनुभव करने लगते है। काम के कुसुम वाण भी बच के तुल्य कठोर बन कर उनके विरह व्यथित अन्त करण को और अधिक विदोण कर देते हैं।

विशेष प्रस्तुत पद्य में द्वितीय चरण में 'माथि' इस विशेष का कथन करने के स्थान पर जो "मद्विधेषु" इस सामान्य का कथन किया गया है उससे यहाँ अप्रस्तुत- अलङ्कार है।

'कुमाणान' मे कुसुमो पर बाणों का आरोप किया गया है जोकि प्र विरह के प्रसंग में उपयोगी है क यहाँ परिणामासकार है "आरोप्यमाणस्य प्रकृतीपयोगित्वे परिणाम ।

कुसुमशरत्वम 'और' 'फीतरश्मित्वम्' इन दोनो की अयथार्थता को सिद्ध करने के लिए उत्तराद्धगत दो वाक्यार्थी को हेतु के रूप में रखा गया है. जत "वाक्यार्थ हेतुककाव्यलिंग" अनकार है।

शीतल किरणों से की वर्षा करना तथा पुष्पों के बाणो से बा कठोर प्रहार करना इन दोनों स्थलो पर विषम अलकार है, क्योंकि यहाँ पर कारण और काम के गुणों का परस्पर विरुद्ध रूप मे वणन किया गया है। कुछ यहाँ पर अपहनुति अलकार भी मानते हैं। क्योकि यहाँ चन्द्रमा के पीतल रश्मि को, जो प्रकृत है, छिपा कर उसका अग्निववण कहा गया है सम्पूर्ण पथ मे पासप कार है। मालिनी नामक छन्द है ।

संस्कृत व्याख्या- तब कामदेवस्य कुसुमानि पुष्पाणि शर याणा स्म तस्य भावस्तत्त्वम् कुसुमशरत्वम पुष्पपारसज्ञत्वम् इन्दो = चन्द्रस्य शीता जीवला rane किरणा यस्य तस्य भावस्तत्त्वम् शीतरश्नित्यम् हिमानुसकत्वम द्वयम् = एतद् उभयमपि मद्विधेषु मातृशेषु विरहिणु अग्रथाचन् विपरीतार्थम् निरर्थक वा दृश्यते प्रकटी भवति (हि) इन्द्र चन्द्रमा हिम गर्भे येवान्ते - हिमग तुषाराभ्यन्तरं मी किरणे अग्निम् वलिम, विसृजति विशेषेण किरति वहिनीवर गारवा किरण देहतीत्याशय । त्वमपि कुसुमायुधोऽपि, कुसुमान्येव वाणास्तान् कुसुमवाणान् पुष्पमयान् शरान् वयस्य सार इसारो वल मेवान्ते वचसारा खसारा वचसात् करोपीति वयसारीकरोषि कुलियवत् कठोरात् करोषि । =

संस्कृत सरलार्थ काममाया गरिनयन् कुसुमायुध सम्बोधन राजा कथयति- इदानीमेव प्रतीयते यत्तव पुष्पवाभासत्वम् चन्द्रस्य च भीतरमित्वम् एत यमपि कामपीडिते मयि असत्य मेवनत्व कुमार नापि चन्द्र शीतरमि यतो हि चन्द्रस्तु स्वकीय वहिश्शीलते रप्यह गारममैरिवान्त किरणं मी दहति त्वमपि स्वकीयान् पुष्पवाणान् बखवत् कठोरा करोषि ।

टिप्पणी

अनुवाद कुछ पीने दण की बालुकाराम वाले इस लतामण्डप के द्वार पर आगे की ओर ऊँची उठी हुई (तथा) पीछे की ओर नितम्वस्थल के भारीपन के कारण नीचेसी हुई, नवीन पदपङक्ति दिखाई पर रही है।

1 विशेष प्रस्तुत पथ मे यह कारण न बताकर कि शकुन्तला ने इस भाग से प्रवेश किया है जो पद पति रूप काय का कपन किया है इससे माँ पर्यायोक्त अकार है तु से वस्तु के ज्ञान के कारण उपमान बनकार "सात् साज्ञानमुपमानम्" म्युन्नत आदि पर पक्ति से कुल के होन का अनुमान किया गया है अत अनुमानासकार पचह्न स्वभाव वमन से स्वभावकार है। आर्यात है।
भावाय सतामण्डप के द्वार पर नीचे की ओर देखकर राम कहता है यता को अवश्य इस मण्डप में होना चाहिये क्योंकि इसके द्वार पर जहाँ कि पीवण की रेल पडी हुई है नवीन पदनिही पदचिह्न तता के ही होगे क्योंकि ये जाने की ओर तो कुठे हुये हैं। पर पीछे की ओर उसके धन स्थल के भारी होने से महरेपट है कि अभी ही ने लतामण्डप ने प्रवेश किया है।
व्याणासित पीतवर्णाच वासुकाराधियुक्त अस्य लता
मण्डपस्य द्वारे प्रतीहारे, पुरस्तात् अग्रभागे अङ्ग स्यादिनिपत्यले अनुसता समुत्थिता पश्चात्पृष्ठत जनगौरवाद नितम्वस्थलभाराद, अववाह गम्भीरा निम्नगा, अभिनव नूतना, पद पहिनत चरणावनि, दृश्यते अवलोक्यते । संस्कृत सरलाब- पती पत्र वासुकाराणि युक्तं लतामण्डप प्रवेशद्वारमार्गे माता वाद नितम्बस्वलभारात् निम्नया पद पति दृष्पते यदा भयम्। -
यावदिति तो में अब बह की ओट से देखता हूँ (चारो ओर घूमकर वैसा ही करके, पूर्वक) मोह, मेरे नेत्रो का बाद मिल गया यह मेरी अभिलाषा मात्र से हृदय मला (शन्स) पुष्पो के विस्तर वासी पत्थर की पटिया पर बेटी हुई, सखियों द्वारा सेवित हो रही है अर्थात् सखिया उसकी सेवा कर रही हैं अच्छा तो अब इनके पारस्परिक विश्वस्त वार्तालाप को सुनुगा ।
(इस प्रकार देखता हुआ लदा रहता है)
देसपरिक्षिप्ते परिक्षि परिक्षिप्त अम्युन्नता अभि +
उत् + नमू+ टाप उठा हुआ अगुलियों को और भार के कम होने से चरण चिह्न हल्के अधिक गहरे नहीं थे। अथगावा-अब-गाह टाप गहरा, पैर की एडियो की ओर, जपन स्थल के भार से चरण चिह्न गहरे से हुये थे। पाण्डुसिकते पाण्डव सिकता यत्र तस्मिन् वृश्यते कमणि नद् जघनगौरवात मनस्य गौरवम् तस्मातु वचनगौरव रमणी सौन्दय का प्रतीक है अतएव श्रोणीभारादलसगमना", पचासता गुरुनितम्बतमा" आदि उक्तियां मिलती है। सामने निर+ वायुरनिर्वाण शब्द का प्रयोग दार्शनिको ने प्राय मोक्ष के लिये किया है जा कि जीवन मे सर्वोत्कृष्ट प्राप्य है और जीवन की साथकता इसी में है दुष्यन्त शकुन्तला
- सख्यौ (उपवीज्य सस्नेहम्) हला शकुन्तले, अपि सुखयति ते नलिनीपत्रात [हला सन्दले अवि सुहअदि दे णलिणीपत्तवाद ।] शकुन्तला - कि बीजयतो मा सख्याँ [कि वीजन्ति म सहीओ।] (सख्यौ विवाद नाटयित्वा परस्परमवलोकयत 1) राजा बलववस्वस्यशरीरा शकुन्तला दृश्यते। (सवितर्कम्) तत्किमय-
प्रविशति यथोक्तव्यापारा सह सखीन्या शकुन्तला )
मापदोष स्यात, उत यथा मे मनसि वर्तते (साभिलाष निर्वण्य)  कृत सन्देहेन ।
तनन्यस्तशीर शिथिलितमृणाल कवलय
प्रियाया साबाध किमपि कमनीय वपुरियम् ।। समस्ताप काम मनसिजनिदाघप्रसरयो-
नं तु ग्रीष्मस्यैव सुभगमपराद्ध मुवतिषु ॥ ॥
को देखकर कहता है, मेरे नेत्रो को सर्वोत्कृष्ट इष्ट वस्तु मिल गई, जिससे ये साधक हो गये, अब इन्हे और कोई आकाक्षा नही रह गई है। मनोरथप्रियतमा छा माम से मानी गई प्रियतमा, क्योंकि वह वास्तविक रूप से तो अभी तक उसको farmer नही बन सकी थी। शिलापट्ट मधियाना शीशा टाप अधिशयाना यहाँ इसके योग ने 'अधिस्थामा कम' से मिलाप मे द्वितीया है। अन्वात्पते अनु + आसू कमणि लट सेवित हो रही है।
( पूर्वोक्त अवस्था मे विद्यमान प्रकुतला का दोनो सखियों के साथ प्रवेश ) दोनो सखिया (पालकर, स्नेह पूर्वक सविता या कमलिनी के पत्तो की या तुम्हे सुखद प्रतीत हो रही है।
शकुन्तला-सखियो, क्या तुम मुझ पर हवा कर रही हो। (दोनो किया विता का नाटय करती हुई एक-दूसरे का देखती है)
राजाला अत्यन्त अस्वस्थ शरीर वाली दिखाई दे रही है। (तक के साथ तो क्या यह नू का दोष है अथवा जैसा मेरे मन मे है (अभिलाषा पूवक देख- कर) अथवा सन्देह करना व्यथ है।
प्रियाया स्तनन्यस्तशीर शिथिलताले साधम् इदव  कमनीयम् (अति) काम मनासिजनिदाघप्रसरवो ताप सम (भवति), तु युवतिषु ग्रीष्मस्य अपराद्धम् एव सुभन न (भवति) ।
शब्दाच प्रियामा शकुन्तता का स्तनन्यस्तोगीरम्= जिसके स्तनों पर प किया गया है, शिथिलता कवलयम् जोकि ठीले कमलनाल के एक करुण से युक्त है। साबाधम् अस्वस्थ, कमनीयम मनोहर या मनोकामन्मते ही,

मनासिजनिदाघप्रसरयांका और ग्रीष्म के मचार का युबतिहरुनियो पर अपराद्धम= सन्ताप, सुप्रम् सौन्धक।
अनुवाद का स्तनों पर सस लेप से गुक्त और ढीले हुए कमलनाथ के एक कण से युक्त, अस्वस्थ भी यह शरीर क्या हो मनोश है। भले ही काम और श्रम के संचार का समान हो किन्तु तरुणियों पर ग्रीष्म का सन्ताप ऐसा सौन्दय- नही होता
भावार्थ- कामता पीडिता कुतला अत्यधिक अस्वस्था दृष्टिगोचर हो रही है। उनके पक्ष स्थल पर शीतलतादायक बस का लेप किया गया है और कोमलता के कारण वह हाथ मे केवल एक मणास का ढीला कगन धारण किये है परंतु इस अस्वस्थता में भी वह अति सुन्दर प्रतीत हो रही है। यद्यपि काम और लू का प्रभाव समान रूप से शरीर को अस्वस्थ बना देता है, पर लू लगने से शरीर का सौन्दय नष्ट हो जाता है। अतएव राजा का विचार है कि शकुन्तला पर यह प्रीष्म का प्रभाव इतना कमनीयता सम्पादक नहीं हो सकता यह तो अवश्य ही काम का प्रभाव है जिसमे निबलता होने पर भी सुन्दरता बनी रहती है।
विशेष प्रस्तुत पद्म में नू के प्रभाव से काम प्रभाव को विशेष बतलाया गया है अत व्यतिरेक अनकार है। शरीर सन्ताप के लिये प्रथम चरण में द्विविध विशेषण प कारणो का उल्लेख होन से समुच्चपालकार, शरीर के सुस्तादि सम्पादक हेतु के न होने पर भी कमनीयता रूप कार्योत्पत्ति कथन से विभावनालकार, साबाध रूप कारण के होने पर भी यदि रूप कार्याभाव कपन से विशेयोक्ति जलकार, स्वनन्यस्तेत्यादि विशेषण से सत्तापादिशय की प्रतीति होती है और उससे काम सन्ताप का अनुमान होने से अनुमानानकार, युवतिषु इस सामान्य कथन से अप्रस्तुत प्रशसालकार है और शिखरिणी नामक छ है।
संस्कृत व्याख्या—प्रियाया शकुन्तलाया स्तनयो न्यस्तम् उशीरम् पत्र सत्-रतन पस्तोमीरम कुचनिहितोणीरम् शिथिलितम् मुणालाना मेक वलय यंत्र तत् शिविलितमाल कवनयम् एकमनाकट कणम, बाबाधा सहित साबाधम् = पीनासहितम् अस्वस्थ मित्यच इद वपु एतत् (शकुन्तलाया सरीरम् किमपि निवनीतया कमनीयम् मनोजम् (अस्ति) कामम् मतमेतद् यद् मनसि काम निदायौ तयो सर ने तयो मनसिजनियाभर तापसन्ताप समय (भवति) तु किन्तु प्रीष्मस्य तीव्रातपन्य, युवतिषु तरुणीषु अपराद्धम् ताररूपापराध एवम् ईदृशम् सुभगम् सौन्दयवधकम् न भवतीत्यच ।
सरल सरलालापट्टमधियाना सखीयागन्यास्यमाना शकुन्तला निरीक्ष्य राजा मनसि विचिन्तयति यद्यप्यस्यास्तनयो परि दाहशान्त्यर्थमुशीरा लेप कृतोऽस्ति सौकुमार्यास तापाच्य पपीयमेकमेव प्रतिपिन मनास वलय धारयति अतो निश्चीयते यदि बलवद स्वस्थ शरीरारित तथा प्यस्या शरीरमिद किमपि कमनीय लो
-  (अनामिक) अनभूये, तस्य राजर्षे प्रथमवारम्य पर्युत्सुकुता। किमु खस्वस्यास्तन्निमित्तोऽयमात भवेत् [अर रामिणो पदसणादो बार हिय पज्जुस्सुआ विश उन्ला कि सेतो भवे ।]
फया सक्षिममापीदृश्याशङ्का हृदयस्य । भवतु प्रयामि सामान्। (प्रकाश) खि प्रयास किमपि । बलवान् खलु ते सन्ताप । सहि, मम वि इंदिनी आसका हिअअस्स । हो, पुच्चिस व ण सहि पुच्छिवास किम्पि बलव खु दे सदावो ।]
शकुन्तला (पूर्वार्धमनादुत्थाय) हला, कि वक्तुकामासि। [हला, किवतुकामासि ॥
अनसूया-हला शकुन्तले, अनम्यन्तरे खल्वावा मदनगतस्य वृत्तान्तस्य किन्तु पावृशीतिहासन्धेिषु कामयमानानामवस्था धूयते तादृशी तव पश्यामि ममेतत् यत् काम ग्रीष्मस्य सन्ताप समानरूप एव भवति तथापि प्रीष्मस्य
सन्ताप युवतिषु एवं सौदयको कदापि जायते ग्रीष्मतापेन शरीरकान्ति क्षीयते पर कामतापेन शरीरस्य दोषस्येऽपि का बघते एम त स्पष्ट मित्र व काम- सन्तापसौन्दर्याधायकत्वात् न तु श्रीष्मताप इत्याशय ।
टिप्पणी अपि प्रश्नसूचक अव्यय उपवीव्य-उपवी स्वार्थे णिच् कस्या ल्य मुखपति-सुख फरोती पण तत्करोतीत्यादिना पि गलिनी पवाता पजामा बात आतपदोष दरम हवा या लू का दोष उस अथवा कृतम् सन्देहे- कृतम अलम् व्यथम के अथ मे है किमपि ही अविचनीय रूप से, साबाधम्- आसमन्ताद् वाघनम् शानाथा आ + बाध भावे आवाधा तथा सहितम् । मनसि- निवासी मनसि जात इत्यर्थमन् धातो उप्रत्यये टिलोप पते सप्तम्या अलुक् मनसिज काम नितरा बहाते अस्मिपि नि वह अधिकरणे च निदाष, प्रसरस + अप
प्रिमवदा (हाथ की ओट में अनसूया, उस राजर्षि के प्रथम दशन से लेकर शकुन्तला विन सी है तो क्या इसकी यह अस्वस्थता उसके कारण ही है? -
अनसूयाखी मेरे हृदय को भी ऐसी आमका है। अच्छा, तो इससे पूछूंगी। (प्रकट में) सखी, तुमसे कुछ पूछना है तुम्हारा सन्ताप वस्तुत अति तीव्र है।
शकुन्तला (शरीर के आधे भाग से विस्तर से उठकर सखी क्या कहना ती हो। गीता, हम दोनो वस्तुन काम सम्बधी बातो से अन है किन्तु इतिहास की कथाओ मे जैसी कामपीडितो की दशा सुनी जाती है वैसी ही परमार्थतोऽज्ञात्वा मारम्भ प्रतीकारस्य [हला मउन्दले अणन्भन्तरा वस्तु अम्हे मदणस्स सन्तस्न । कि दुनावी इविहासन्धेि कामयमाणाण अवस्था सुणीयदि ताविसी ये पेक्खामि । कहि णिमित्त दे सदावी विरक्तु परमत्यदो मि बणारम्भ पडिवारा ]
राजा - अनसूयामप्यनुमतो नदी नहि स्थान मे वर्शनम् ।
शकुन्तला (आत्मगतम्) बलवान् खलु मेऽभिनिवेश इदानीमपि सहस्तयोर्न शक्नोमि निवेदयितुम [वलप कe में अहिणिसो दाणि वि सहसा एवाण ण सक्कणोमि निवेदिदु ।]
प्रिया - सन्ति सुष्ठु एवा भगति । किमात्मन आत- पेक्षसे। अनुदिवस खलु परिहीयतेऽङ्ग । केवल लावण्यमयी खायात्वा न सुति । [सहि सन् सुट्टू एषा भणादि कि असो आतक उवेक्खसि । अहि क्खु परिहीअसि अगेहि केवल लावण्णमई छाया तुम ण मुचदि]
तुम्हारी देख रही हूँ बताओ तुम्हारे बाप का क्या कारण है ? वस्तुत रोग को ठीक ठीक जाने त्सा आरम्भ नहीं की जा सकती।
राजा अनसूया मे भी मेरा तक उत्पन्न हुआ है। मेरा विचार अपने ही प्रयोजन से नहीं है। शकुन्तला (मन मे मेरी आशक्ति वस्तुत बलवती है। अब भी सहसा इ
दोनों को बताने में समय नहीं हूँ।
टिप्पणी
पका मन या उदासीन आत जातका रोग या सन्ताप तन्निमित-सनिमित्त यस्य अथवा तद् प्रथमदशनम् निमित्त यस्य । मनभ्यन्तरे अधिगता अन्तरम् अभ्यतारा, अभिज्ञा या परिचितान मभ्यन्तरा अनभ्यन्तरा मदनगतस्य काम सम्बधी प्रेम व्यापार की इतिहास निन्येषु- इतिहास की कहानियो मे "धर्माकाममोक्षाणामुपदेशसमचतम् पूजबूत काता मितिहास प्रचक्षते ।" इति आस्ते अस्मिन् इति इतिहास इति + इ + आ + पत्र विकारमवि+कृ+ रोग या व्याधि परमापत वास्तविक रूप से प्रती कारम्य प्रति ++ उपाय चिकित्मा वनविचार या धारणा, अि निवेश-प
प्रिया कुन्सा यह ठीक कहती है तू अपने रोग की उपेक्षा क्यों कर रही है। दिन प्रतिदिन अपने शरीरावयवो ने क्षीण होती जा रही है।

राजा - अवितथमाह प्रियवा तथा हि- माकपोलमान काठिन्यमुक्तस्तन
मध्य क्लान्ततर प्रकामविनतावसौ छवि पाण्डुरा । शोच्या व प्रियदर्शना च मदनविलयमालक्ष्यते
पत्राणामिव शोषणेन महता स्पृष्टा लता माधवी ॥७॥
शब्दार्थ आननम् मुखमण्डल, क्षामक्षामकपालम् अति दुवल कपोलो वाला, उरवक्षस्थल, काठिन्यमुक्तस्तन कठोरता से रहित स्तनो वाला मध्यकटिप्रदेश क्लान्ततर अतिशय श्री प्रकामनि अत्यन्त अवनत छबि देह की कान्ति पाण्टुराली, मदनक्लिष्टा कामसन्तप्ता शोच्या शोचनीय प्रियदर्शगा देखने मे प्रिय
अर्थात् तेरे अग प्रतिदिन सूखते जा रहे है केवल यमयी छाया अर्थात् सौन्दय की सक ही तुझे नहीं छोड़ रही है।
राजा प्रियवदा ने सत्य कहा है। क्योकि-
अन्वय (अस्या) जाननम् सामक्षामपोलम उर कायमुक्तस्तनम् मध्य लावर असो प्रकामविनती, छषि पाएपुरा ( सजाता) पचाणा शोषणेन महता स्पृष्टा माधवीलता एव मदनलाइ च्या प्रदशनाच आलश्यते ।
अनुवाद (कुतला का मुखमण्डल अतिकृश कपोलो वाला हो गया है वक्ष स्थल कठोरता रहित स्तनो बाला (हो गया है), कटिप्रदेश अतिशय क्षीण हो गया है), अयना झुक गये है और देह की कान्ति पीसी (पद गयी है। पत्तो को सुखा वाली वायु के द्वारा स्पश की गई वासन्ती तता के समान कामसन्तप्ता यह शोचनीय तथापि प्रदशना दिखाई दे रही है
भावाय प्रियवदा का कथन सुनकर और शकुन्तला की दशा को देखकर राजा कहता है कि इसके कपोत अतिदुक्स से हुए हो गये हैं। वक्ष स्थल पर इसके स्तनों ने अपनी स्वाभाविक कठोरता छोड़ दी है और व ढीले पडकर झुक गये है, इसका स्वभावत क्षीण भी कटिभाग और अधिक पतला हो गया है, स्वभावत भूके हुए भी कन्धे और अधिक झुक गये हैं, शरीर की कारित रक्ताभ होने के स्थान पर जब पीली पड गई है। कामजन्यवेदना अब यह कुल वैसी ही मुझ गई है जैसी कि बासी लता गरम हवा के लगने से मुर्झा जाती है, यद्यपि अब यह शोचनीय बन गई है तथापि अब भी वह देखने मे सुन्दर लगती है, क्योकि यह जतावत् कान्तिमती सुकुमारी पुष्पमती एव पविता है।
विशेष प्रस्तुत पद के सोन्या च त्रिपदमना प' में विरोधाभास बलकार है, विरोध का परिहार, गोध्या का अनुकम्पनीया अय करने से किया जा सकता है, शोच्या मे मदनविष्ठा हेतु है म पदार्थ हेतु काव्यलिङ्ग अलकार है। 'इव' द्वारा उपमा- सकार है। विरजाय व्यथा एवं सता का स्वाभाविक वर्णन होने से स्वभावोक्ति
+ संस्कृत व्याख्या माननम् मुखमण्डनम्, सामसामी अतिशयेन क्षीणी कपोली यस्मिन् तत् आमाकोल वक्ष स्थलम् काठिन्येन स्वाभाविक कठोरतया मुक्तौ त्यक्तौ (रहितौ स्तनौ कुची परिमन् तत् काठिन्यमुक्तस्तनम् मध्य कटिप्रदेश अतिशयेन क्लान्त इति क्लान्तर क्षीणवर असौ स्कन्धौ प्रकामम्  विशेषेण अवनती प्रकाौ, छवि शरीरकान्ति पारा पीतवर्णा (अतएव ) पत्राणाम् दलानाम्, गोवणेन शोषकेण महता वायुना स्पृष्टा- astra समता माघनी वासन्ती, लता इस, मदनेन कामेन क्लिष्टा पीडिता मदन, इशकुन्तला शोच्या च शोचनीया च प्रियदमनामनीशदर्शना चलते परिदृश्यते ।
शकुन्तला-सखि, कस्य वान्यस्य कथयिष्यामि किन्त्वायासयित्री- दानों वा भविष्यामि । [सहि, कस्स वा अण्णस्स कहइस्स । किम्बु आआस-
इत्तिला दाणि वो भविस्स ।]
अलकार । प्रियवदा के कथन के समधन रूप काय के प्रतिक्षामेत्यादि बहुविधकारणो का उल्लेख होने से समुच्चावालकार अनुप्रास, गार्दूलविक्रीडित नामक छन्द है।
संस्कृत सरलाच प्रियंवदा कथन मनुमोदयम् राजा कथयति कामवेदना-तन जीणी जाती, स्तनौ काठिन्यरहितो जातो, शीणोऽपि प्रदेश क्षीणतर सगभवत् नतावप्यस्या स्कन्धी प्रकामविनतो जातो, हतिरप्यस्या पीतवर्णा सजाता, rव रक्षादिपशोषकोष्णपश्चिमवातेन सथिता वासन्ती नव कामपीडितेय शोचनीया अध्यापि मनोमुग्धकर दाना परिवृते ।
परिहीय परि + मोहा त्याने कर्मणि यक् । लावण्यमयी छाया- लावण्य प्रचूर मस्या मित्यय लावण्य मयट् ठीप् । “मुक्ताफलेषु छायायात्तरसत्व- भिवान्तरा प्रतिभाति यदङ्गेषु तल्लावण्य मिहोच्यते" "छाया सूपप्रिया कान्ति " | अवितथम् विगत तथा सत्य यस्मात्तत् वितथम् असत्यम् न वितयम् तिषम् == सत्यम् - वि+तथा+अच्मा- आम आम प्रकारे गुण वचनस्येति द्वित्वम् 'कमधारयवदुत्तरेषु' इति विभक्ति लोप द्वित्ववसादन] आधिक्यार्थ न तुम इत्यर्थ+क्त क्षायो म इति प्रत्यय तकारस्य मादेश शोषन पोषयनीति सोवण गुप् + ल्यु अन गत्य मदता-भियन्ते जना अनेन बिना इति मत्+ ओमादिक उद् प्रत्यय मदनविष्ठा मदनेन क्लिष्टा पीडिता अतएव प्रियदशना- प्रीणाति इति प्रियम्प्रतपणे पति प्रिय दर्शन यस्या क्योंकि मदन अपनी मादकता उस पर छोट जाता है। क्लिष्टा होने से तो सोच्या पर मदनविष्टा
होने से प्रियदर्शना शकुन्तला— राम्री और अन्य किससे कहूंगी किन्तु अब मैं तुम दोनो के लिये कष्टदायिनी ही बनूंगी।
उमे-अत एव खलु निर्वन्ध स्निग्धचनसविभक्त हि दुह सहावेदन भवति । [ अदो एग्य + णिबन्धी सिद्धिषणसविभत हि दुक्ख सज्झवेदण होदि ।]
राजा पृष्टा जनेन समुदु खसुखेन बाला
नियम यति मनोगतमाथिहेतुम् ।
वृष्टो नित्य बहुशोऽप्यनया सतुष्ण- मत्रान्तरे अवणकातरतां गतोऽस्मि ॥ ८ ॥
दोनों इसीलिये तो हमारा आग्रह है स्नेहीजनो मे बंटा हुआ दुख सहन करने योग्य वेदना वाला हो जाता है।
राजा-
अन्वय- समदुखसुखेन जनेन पृष्टा इस वाला मनोगत मानि वयति इति । अनया मम नित्य सतुष्ण दृष्ट अपि ( अहम् ) अत्रान्तरे श्रवणकातरता गत अस्मि ।
शब्दार्थ समदुमुन और सुख मे समान भाव से रहने वाले, पुष्टा पूछी गयी, मनोगतम् हृदयस्थ, आधिहेतुम् मनोव्यथा के कारण को, बदयति बतायेगी, बहुत अनेक बार, नित्यपीछे मुड़कर सतुष्णम् तृष्णा के साथ, अत्रान्तरे इस अवसर पर श्रवणकातरतान् सुनने की अधीरता को गतप्राप्त
बनुमा दुःख और सुख मे समान भाव रखने वाले व्यक्ति द्वारा पूछी गई यह बाला शकुन्तला अपने मानसिक पीडा के कारण को न बतायेगी, ऐसा नहीं अपितु वचस्य ही बतायेगी। इसके द्वारा अनेक बार तुष्णा के साथ पीछे मुखकर देखा गया भी मैं इस अवसर पर (इसका उत्तर) सुनने की अधीरता को प्राप्त हो गया हूँ।
भावार्थ- प्रियजनो में बाँट देने से दुख का बैग हल्का हो जाता है, क्योकि  उसका निराकरण करते हैं, उसको सान्त्वना बादि देते हैं जिससे उसको शान्ति मिलती है मत राजा का विचार है कि शकुतना अपनी सुख दुख की समभागिनी सखियों से अपनी मनोव्यथा को अनस्य निवेदन कर देगी। यद्यपि शकुन्तला ने राजा को मिलाप नेत्रों से अनेक बार पीछे मुडकर देखा था और इस प्रकार अपने प्रेम को प्रकट कर दिया था फिर भी वह इस समय उसके उत्तर को सुनकर अपनी शा का समाधान करने के लिए अत्यन्त अधीर हो रहा था।
विशेष प्रस्तुत श्लोक मे सलियों द्वारा पूछने पर शकुन्तला क्यों सत्य कहेगी इसका हेतु "समदुखसुखेन और बाला" दिया गया है। बत यहाँ काव्यलिङ्ग बसर है।
यद्यपि कुन्तला के द्वारा बार-बार मुडकर दुष्यन्त को देखा जाना रूप कारण विद्यमान है, फिर भी दुष्यन्त के हृदय में प्रेमविषयक विश्वास रूप कार्य की उत्पति नहीं हो रही है मत विशेषोक्ति अलङ्कार है।

= संस्कृत व्याख्यातम दुख सुख न यस्य तेन समदुखसुखेन दु न्यूनातिरेकशून्येन जनेन सखीजनेन पृष्टा अनुयुक्ता सती, इय वाला एषातमन्त करमनिहितम् आ मनोव्यथावा हेतुस्तम्- बाधिहेतुम् मनोव्यधाकारणम्, न वक्ष्यति पविष्यति इति तु न अपितु कप- विम्पत्येय अनया शकुन्तममा, बहुत अनेकवारम्, निवृश्यमुख परावृत्य सतुष्णम् सस्पृहम् दृष्ट समवलोकित अपि (बहम्) ममान्तरे अवसरे, अवणे कातरता तामू-श्रवणकातरताम् प्रतिवचन श्रवणातुरताम्, गत प्राप्त अस्मि ।
शकुन्तला-सचि यत प्रभृति मम वर्शनपथमागत सपोर राजचि मत आरम्य तद्गतेनाभिलावेणैतववस्थास्मि सबुता [सहे, जो पहृदि मम वसण भादो सो तवोवणरक्खिदा राएसी । तदो आरहि तन्गवेण अहिलासेण एतदवत्यम्हि सबुत्ता ।]
"श्रवणकातरता गतोऽस्मि" कार्य के होने पर भी किसी कारण का कपन नही किया गया है अत विभावना अलङ्कार है। श्रुति वृत्ति अनुप्रास वसन्ततिलका नाम है।
सस्कृत सरसा सीजनवचनानि मनसि निधाय राजा चिन्तयति यदिदानी सुखे दुवे च न्यूयातिरेकन्येन सखीजनेनानुयुक्त व मुग्धा शकुन्तला स्वमननि निहित मनोचा नवस्य कथयिष्यति नाथ समीति । यद्यप्यनया कुलया प्रथमदर्शन- काल एवाह बहुत साभिलाय समवलोकित अथाप्यमस्मिवसरे स्थाप्रतिवचन श्रोतुमारो जात ।
टिप्पणी
आपातयित्री आणि कतरि] तुच् डीप् फष्टवायिका जिनम-लिह कर मतमाने क लिगा से बना  तेषु सविभक्तम् प्रियजनो मे बैठा हुआ सह्यवेचनम्-सोढ़ योग्या सह्या+यत्ह्या वेदना यस्य तत् इस सूक्ति के द्वारा कवि ने मानव जीवन का एक व्यावहारिक मनोवैज्ञानिक पक्ष प्रस्तुत किया है। यद्यपि दु सीजन को पीडा स्वय सहनी पड़ती है तथापि जब वह अपने दुख को अपने प्रेमीजनो पर प्रकट कर देता है तो उनके द्वारा दी गयी सान्त्वना से उसका दुव हल्का हो जाता है और वह उसे सहन कर लेता है, सकटकाल मे अपनों का अपनत्व सम्बल देता है "तुल्याद विभागादिव तन्मनोभिखातिभारोऽपि लघु स मेने (किरात) बाधितुम पुस्याधि मनिसी व्यथा मानसिक व्यथा के कारण को। यहाँ पर प्रतिमुख सन्धि समाप्त होती है।
शकुन्तला-सती तपोवन की रक्षा करने वाले के राजदि जब से मेरे दृष्टिपथ मे आ गये हैं, उसी समय से लेकर उनकी प्राप्ति की अभिलाषा के कारण मेरी यह दसा हो गई है।
राजा - (सहर्षम् ) श्रुत श्रोतव्यम् । स्मर एव तापहेतु नियता स एव मे जात । दिवस इवाभ्रश्यामस्तपात्यये जीवलोकस्य ॥ ॥
राजा - ( हम पूर्वक) सुन लिया जो कुछ सुनने योग्य था अर्थात में जो कुछ सुनना चाहता हूँ वही सुन लिया।
स्मर-इति अन्वय-तपात्यये जीवनकथाम दिवस इव स्मर एवं ने पहेतु (ब) स एव निर्माता जात
राग्यार्थ तपात्यये ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति पर जीवन प्राणि समूह के लिये अश्याम का स्मर एवं कामदेव ही तापहेतु सन्ताप का कारण, निर्वापयता शान्ति देने वाला।
अनुवाद ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति पर अर्थात् वर्षारम्भ काल में प्राणी समूह के लिये मेषो से आच्छादित मलिन दिन के समान कामदेव ही मेरे सत्तापका कारण था, वही शान्तिदायक हो गया है।
भावार्थ- ग्रीष्म काल मे अत्यधिक धूप के कारण जो दिन ताप का कारण होता है नही दिन वर्षाकाल के प्रारम्भ होने पर मेघान्छन होने से शीतल एवं मुद हो जाता है उसी प्रकार शकुन्तला के उत्तर सुनने से पूर्व जो काम राजा के सन्तापका कारण था वही काम मकुन्तला का उत्तर सुनने पर शान्तिप्रद बन गया है। शकुन्तला भी उसी की भाँति काम पीडित है यह जानकर राजा के हृदय को अति शान्ति प्राप्त हुई है। 1
विशेष प्रस्तुत पद्म मे 'स्मर एवं ताप हेतु स एव पिता इस कथन मे  अस्कार है, भिन्नाश्रयगत होने से विरोध का परिहार हो सकता है। कोई बाचाम यहाँ विषमासकार मानते हैं, 'इव' द्वारा उपमालकार है, आर्या जाति छन्द है।
संस्कृत व्याख्यातपात्यये प्रीष्मावाने प्रायुदारम्भ इत्यर्थ जीव लोकस्य- प्राण समूहस्य असे श्याम  अनश्याम जलदमलिन दिवस दिनम इव स्मरकाम एव मे मम दुष्यन्तस्य तामस्य सन्तापस्य हेतु कारणम् तापहेतु (आसीत् सामदेव एव निर्वापयताशान्तिदायक जात सम्पन्न ।
संस्कृत साथ यथा तो वृष्ठे प्राक जलदमलिनो दिवस सन्तापकरो भवति पर ट्यनन्तर स एव शान्तिप्रद सुखदश्च जायते तथैव शकुन्तलावचन- श्रवणात् पूर्व स्मर सन्तापदायक बासीत् स एवेदानी स्वाभिप्रामानुकूल तस्या वचन युवा मे शान्तिप्रदो जाय ।

शकुन्तला-तद्यदि वामसुमत, तथा तथा वचा यथा तस्य  भवामि । अन्य मे तिलोकम् [त जद वो अणुमद, ता तह वह जह तस्स राएसिणो अणुकम्पणिज्जा होमि बहा अवस सिच मे तिलोदय ।]
राजा - सशयच्छेदि वचनम् । प्रियवदा - (जनान्तिकम्) अनसूये, पूरनतमन्मयायामेव का हरणस्य यस्मिन् वद्धभावचा, स ललामभूत पौरवाणाम् तम् पुक्तमस्या अभिलाषोऽभिमन्वितम्। अणसूए, दूरगअमम्महा अक्लमा दम कालद्रणस्स । जस्ति बढभावा एसा स ललामभूदो पोरवाण ता जुत्त से महिलासो अहिन्दि ।]
अनसूया तथा यथा भणसि [तह जह भणासि ।] प्रियम्बदा - ( प्रकाशम्) सखि, विष्ट्यानुरूपस्तेऽभिनिवेश । सागर- मुज्झित्वा कुत्र वा महानद्यवतरति क इदानीं सहकारमन्तरेणातिलो
शपथदर्शनस्य पत्या तम् क्रम् इति समासान्त म प्रत्यय निर्वाचिता निर्वा+णि तृच् । तपात्यये तपस्य  समाप्ति तस्मिन् ति+६+अस्य । =
शकुन्तला तो यदि यह बात दोनों को उचित सगे अर्थात् इसमें तुम्हारी अनुमति हो, तो वैसा प्रयत्न करो जिससे कि मैं उस राजर्षि की कृपापात्र हो जाऊँ कृपा कर मुझे स्वीकार करलें नही तो अवश्य ही मेरे लिये दिला दो (अर्थाद में मर जाऊँगी और फिर तुम लोग मेरे लिये तिलोदक देना। राजा बस इसका यह कथन सब सन्देहों को दूर कर देने वाला है।
प्रियवदा (अलग, मकुन्तला की ओर से हाथ की बात करके) अनसूये, इसका काम विकार बहुत आगे बढ़ चुका है अ अब यह (इस काम मे) विलम्ब सहन करने में असमय है। जिस पुरुष पर इसका मनोऽनुराग वृढ़ है यह पुरुवशियों मे सर्वश्रेष्ठ है, अत इसकी अभिलाषा का अभिनन्दन (अनुमोदन) करना उचित है। अनसूया जैसा तुम कहती हो, ठीक है।
(प्रकट सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा यह प्रेम तुम्हारे योग्य है। बड़ी नदी समुद्र को छोडकर और कहाँ उतरती है। जिस प्रकार गया बाबि महानदियां समुद्र मे ही गिरती है अन्य नहीं उसी प्रकार अपूर्व सुम्दरी सर्व लक्षण सम्पन्क्षा तू भी दुष्यन्त जैसे राज को छोडकर और किससे प्रेम कर सकती थी। मान को छोड़कर और कौन वृक्ष पल्मपित अतियुक्त (माधवी को
1 पल्लवित सहते । [सहि, विट्टमा अणुरुवो दे अहिणिवेसो साबर उज्झिन कहि वा महागाई ओदरह को दाणि सहआर अन्तरेण अदिमुसलद पल्लविद सहेदि ।]
राजा-किमत्र चित्र यदि विशाले शशालेखामनुवर्तते ।
अनसूयाक पुनरुपायो भवेद् येनाविलम्बित निभूत व सख्या मनोरथ पावयाव । [st उण उबालो भवे जेण अविलम्बिन हिम अ सहीए मणोरह सपावेम्ह
प्रियम्वदा निभृतमिति चिन्तनीय भवेत्। शीघ्रमिति सुकरम् ।
[णिहुअ ति चिन्तणिज्ज भवे । सिम्म ति सुबर ।]
अनसूया - कथमिव [कह दिन ।]
सकता है, अर्थात् पूर्णता पल्लवित विकसित माधवी लता को जैसे बाम्रवृक्ष ही सहारा देता है अन्य नहीं अतएव वह उसी पर चढ़ती है ठीक उसी प्रकार विकसित यौवना तुम्हें दुष्यन्त के अतिरिक्त और कौन अपना सकता है? अर्थात् यह तुम दोनो का पारस्परिक सयोग बडा ही सुन्दर है।
राजा- इसमे विचित्रता ही क्या यदि विशाला नक्षत्र के दोनो तारे चन्द्रमा का अनुवर्तन करते है (अर्थात् जिस प्रकार दोनो विशाखा नक्षत्र चन्द्रमा का अनुगमन करते हैं उसी प्रकार ये दोनो सखियाँ मकुन्तला का अनुगमन करती है, उसकी बात अनुमोदन करती है, वस्तुत इनको ऐसा करना ही चाहिये ।
माया उपाय हो सकता है कि शीघ्र और गुप्त रूप से सखी का मनोरथ पूर्ण किया जाय।
प्रियवा गुप्त रूप से यह तो सोचने की बात है, पर "श्री" यह तो है।
किस प्रक
तिलोदकम् - तिलमिश्रम् उदकम् तिलोदकम् (शाक पार्थिवादित्वात् साधु ।मृतकों को दी जाती है। सरायच्छवि--समय छिनत्ति- सय+छि+ मिनि समय दूर करने वाला रगतमन्यथा दूर गत सन्म यस्यान क्षमतेसम्+कर्तरि अच्] टाप् बद्धभावा-बुद्ध भावयस्या साभिनन्दि+ तुमुन् अनुरूप अनुगत रूपम् प्रादितत्पुरुष । निवेश+नि+व+ चुनाव, 'सागरं  ही सुन्दर सामयिक सूक्ति है इसके द्वारा विदा शकुन्तला की पसा करती है। "निधि मनुरूप जल कन्यावतीर्णा" रघु० मतिमुक्तवता माधवीलता, इसके द्वारा प्रियंवा दुष्यन्त की भी प्रथा करती है। विशाल-विशाला में दो नक्षत्र होते हैं. रवि मह

प्रियम्वदा-ननु स राजविरेतस्या स्निग्धवृष्ट्या सूचितानिला एतान् दिवसान्प्रजागरपृशो लक्ष्यते [ण सो राएसी इमस्ति सिणिददिडीए सूदाfहलासी इमाद दिनहाइ पजाअरकिसो लक्खीअदि ।]
राजा - सत्यमित्यभूत एवास्मि । तपाहि
निशि निशि भुजन्यस्तापाङ्ग प्रसारिभिरभि ।
अनभितिज्याघाता महणिजन्या- कनकवलय  [ मया प्रतिसार्यते ॥
दोनो विशाला और चन्द्र लेखा स्त्री है और ये तीनो भी स्त्रीलिङ्ग है लिङ्ग एवं वचनानुसार यह उपमा ज्योतिष शास्त्र पर आधारित है। अविलम्बितन+ लम्बू भावे अविलम्बित यथा स्यात्तथा चरम् सुबेन कियते सु+कृ+
प्रिया क्योंकि वह राजर्षि, जो प्रेमपूर्ण दृष्टि से इसके प्रति अपनी अभिलावा सूचित कर चुके हैं। इन दिनों रात्रि जागरण के कारण इस विचा देते हैं।
राजा वस्तृत मैं इसी प्रकार का हो गया हूँ क्योंकि इवमिति-अन्वय- मिथि निशि मुन्यस्तापासारथि बन्ततापासू अरे अभि विवणमणीकृतम् अनभिविन्याषाताम् मणिबन्धनात् स्व- अस्त इदम् कनकवलयम् मया गुद्ध प्रतिसार्यते ।
साथ निमि निति प्रत्येक रात्रि को मुजन्यस्तापाङ्गप्रसारिभि ( उपधानीकृत) भुजा पर रखे गये नेत्र प्रान्तों से बहने वाले अन्तस्तापातु हृदय (से उठे हुए मवन) ताप के कारण, अशिशिरे उष्ण, अभिमओ से विवर्ण- मणीकृतम् = जिसकी मणियों विकृत वण वामी अर्थात् मलिन कर दी गई है। अनभितिज्याचाता कम् जिसने धनुष की डोरी सींचने के कारण (प्रकोष्ठ पर पडे हुए) चिन्ह (रगट के कारण हुए) को स्पा नहीं किया है, अथवा वलय से अन्तरित होने के कारण जिसमे व्यापाताक दिखाई नही पडता है, मणिबन्धनात् प्रकोष्ठ या कलाई से सुस्त सस्तम्बार-बार खिसक कर हवेली की ओर भा ये दम्कनकवलयम इस स्वण करुण को गया मेरे द्वारा मुह बार-बार प्रतिसायते खीचा जाता है।
अनुवाद मत्येक रात्रि मे ( उपधानी कृत) भुजा पर रखे गये नेत्र प्रान्तों से बहने वाले, (तथा) हार्दिक सन्ताप के कारण उष्ण असुली से जिसकी मणियां चिन कर दी गई है और जिसने धनुष की प्रत्यस्था के रगड के चिन्ह को स्पर्स नहीं किया १६४
है। (ऐसा ) यह स्वण फकण कलाई से बार-बार खिसकता हुआ मेरे द्वारा (ऊपर की ओर खीचा जाता
भावाय प्रियवचा के कथन का अनुमोदन करता हुआ राजा कहता है कि सचमुच में अत्यधिक जागरण वह अति कृम हो गया है, अतएव प्राय प्रत्येक रात्रि में अब मैं अपनी भुजा पर अपना मुख रख कर लेटता हूँ और विरह यश जब मेरे नेत्रो से आसू बहते हैं जो कि हृदय के सन्तान के कारण उष्ण होते हैं, इन आँसुओ से मेरे प्रकोष्ठ पर पहने गये करुण की मनियाँ मलिन हो जाती हैं, विरह सतावण नीचे की ओर खिसकता हुआ स्वर्ण करुण, धनुयात के चिह्न को भी पक्ष नही कर पाता, विरह कथता के कारण जब-जब यह स्वण बलम कलाई से नीचे की ओर आने लगता है तब में बार बार इसे ऊपर की ओर खीचता रहता हूँ वह कुशवाह माता पर भी नहीं ठहर पाता है।
विशेष— ढीले होने के कारण नीचे की ओर किसने मे तथा विरहियों के बाम भुजा पर मुख कर रोते मे स्वभाव कथन है अत स्वभावोक्ति अलकार है, मणि  का कारण उष्ण प्रवाह है अत काव्यलिंग बलकार है। कार्य रूप वलय कारणरूपता के घोषित होने से पर्यायोक्त बसकार है। विप्रलम्भ गर कीसुन्दर अभिव्यक्ति हैं। राजा बालम्बन, निशा उद्दीपन, अधु कृशता आदि अनुभाव, चिन्ता विषादादि सचारी भाव है। हरिणी नामक छन्द है।
न समरस लागा पद वे हरिणी मता । व्याख्या निशि निशि प्रतिनिशम् भुजे न्यस्त व अपाग तस्माद्
प्रसशील येषान्ते पुजन्पास्तापाद गप्रसारिभि उपधानीकृतवाम] माप्रदेशस्य नयनप्रान्तविनिर्गमनशीले, अन्तस्तापात् कामजनितहृदयदाहार, अमि अभिनेते दिवर्णा निष्प्रभा मनयो रत्नानि यत्रतत् विवर्णमणि अविवणमणि विवर्णमणि कृतम् इति विवणमणीकृतम् कान्तिविरहितमणीकृतम् ज्यामा  पस्मिन्नमितुलित अस्पृष्ट व्यापाताक यस्मिन् तत् — अनभिनितज्यापातार कम्, अस्पृष्टमौर्वीकिणभूषितम्, गणि वय यत्र सद् मणिबन्धनम् तस्मात् मणिबन्धनात् प्रकोष्ठात् सस्त स्तम्पुन पुन गलितम् इदम् कवयम् एतत् स्वर्णक कणम् मया दुष्यन्तेन मुहू पुन पुन, प्रतिसार्यते स्वस्थान प्राप्यते ।
परमार्थ प्रियंनदाकपनानुसार दुष्यन्त कथयति सत्य महमतिको
प्रतिनिश वामभुजन्यस्तनमनप्रान्त निर्गमनी अन्तगतमदनसन्तापा भूमि कान्तिविरहितमणीकृत अस्पृष्टज्याथाताम्क मणिबन्धनात् पुन पुन गलत पर स्वर्ण मया पुन पुन स्वस्थान प्राप्यते । टिप्पणी
प्रयागरात् अत्यधिकरादि जागरणात् कुरा प्रभागरकुश । अन्तस्तापात्- [वा तस्मात् प्रस्तुत पद्म की अन्तिम दो पंक्तियों के अर्थ में विद्वानों में
प्रियम्वदा - ( विचिन्त्य) हला, मदनलेसोऽस्य क्रियताम् । इम वेव- प्रसादस्यापदेशेन सुमनोगोपित कृत्वा तस्य हस्ते प्रापयिष्यामि। [हला, मजलेहो से करीबदु इम देवप्यसादस्सावदेसेण सुमणोगोविद करिअ से हृत्य पावइस्स ।
अनसूया - रोचते मे सुकुमार प्रयोग कि या प्रकुन्तला भगति । [रोअइ मे सुखमारो पोलो कि वा सन्दला भणादि ॥] 1
शकुन्तलाको नियोगो या विकल्प्यते । [कि ओम वो विकप्पीआदि।]
प्रियम्वदा तेन ह्यात्मन उपन्यासपूर्व चिन्तय तावत् किमपि ललित- पदबन्धनम्। [तेण हि अत्तणो उवण्णासपुण्य चिन्तेहि दाव किम्पि ललिअप- दबन्धण ।]
शकुन्तला हला, चिन्तयाम्यहम् । अवधीरणाभोवक पुनर्वपते मे हृदयम् [हला, चिन्तेम अह अवहीरणाभीरुम पुणो वेबइ मे हिमम । ]
मतभेद है, अपनी अपनी कल्पनानुसार टीकाकारों ने अपना-अपना अब किया है, किसी की कल्पना है कि दुष्यन्त रातभर बैठा-बैठा रोया करता था और वाम हाथ की हथेली पर अपना सिर रखकर रोता था उसके आसुओ से उसके प्रकोष्ठ के स्वर्ण वलय की मणियाँ मलिन हो गई थी। स्वण करूण बार-बार कुहनी की ओर सकता था जिसे वह पुन पुन कलाई की ओर खीचता था इत्यादि पर इस अर्थ मे कई ढंग से खीचतान करनी पड़ती है, सीधा जप नही है, दिन भर घूमते रहते वाला व्यक्ति होता मने ही न हो पर लेटता तो अवश्य होगा उसके बैठे बैठे रोने की कल्पना कुछ ठीक नही जात होती
प्रियंवदा - ( सोचकर ) सखि, उनके लिए एक प्रणय-पत्र लिखवाया जाय। इसको फूलो मे छिपाकर देवताप्रसाद के बहाने से उनके हाथ पहुँचा दूंगी।
अनसूया यह सुन्दर उपाय मुझे पसन्द है किन्तु शकुन्तला क्या कहती है। शकुन्तला-आप लोगो के किस आदेश पर मेरे द्वारा कतव्याकर्तव्य का विचार किया जाता है?
विदा तो फिर अपने प्रथम प्रणयवार्ता के अनुरूप कोई सुन्दर पद रचना सोचो।
शकुन्तला-सखि, मैं सोचती हूँ किन्तु तिरस्कार के भय से मेरा हृदय काँ
रहा है।
राजा - (सहर्षम् )
अप स ते तिष्ठति सगमोत्सुको
विशसे भी यतोऽवधीरणाम् ।
समेत वा प्रार्थयिता न दा जिय नवा
या दुराप कमीप्सितो भवेत् ॥ ११॥
राजा - (प्रसन्नतापूजक)
अन्वय हे भी पत अवधीरणा विशसे, स अय ते सङ्गमोत्सुक तिष्ठति । प्राथमिता समेत वा न वा (संत), बिया ईप्सित रूप (पुन) दुराप भवेत् । शवाय — अवधीरणाम् तिरस्कार, विमसे आशङ्का करती हो सगमोत्सुक मिलने के लिए उत्कंठित, विपीको लवित,
दुराप दुलभ । अनुवाद, जिससे तू तिरस्कार को आशा करती है, वह यह तुम्ह जिमने के लिए उत्कंठित खता है लक्ष्मी के प्रार्थी को लक्ष्मी प्राप्त हो या न हो किन्तु क्ष्मी द्वारा वाञ्छित व्यक्ति कैसे (लक्ष्मी के लिए) दुलभ हो सकता है
भावाबतला के मन में राजा द्वारा अपने तिरस्कार का भय है, जिसे जानकर राजा कहता है कि वह तो स्वयं शकुन्तला से मिलने के लिए अधीर है मत यह उसका तिरस्कार कभी नहीं कर सकता लक्ष्मी के प्राथमिता जन को लक्ष्मी की प्राप्ति हो या न हो पर लक्ष्मी द्वारा ईति जन उसके लिए डुलम नही हो सकता । इसी प्रकार शकुन्तला भी लक्ष्मी है राजा उसको प्राप्त करना चाहता है, वह उसे प्राप्त हो या न हो पर मनुन्तला द्वारा वाछित दृष्यन्त उसके लिए कभी भी नही हो सकता। अतएव सुन्तला की प्राप्ति के विषय में दुश्यन्त का शा करना उचित है लेकिन दुष्यन्त की प्राप्ति के विषय मे म तल को का करने की आवश्य कता नही
विशेष प्रस्तुत पद्य में अंतिम दो चरणों में सामान्य से विशेष का समयन होने से 'अर्थान्तरन्यास' अलङ्कार है क्योंकि यहाँ राजा यह कहना चाहता है कि तुम्हारे से प्राथना किया जाता हुआ मैं तुम्हारे लिए कैसे दुलभ होऊँगा? अर्थात् कैसे भी नहीं। नामक छन्द है ।
संस्कृत व्याख्या अभिवृचा भौतिकासरे, मत यस्मात् पुरुषात् अवधीरणाम् अवहेलनाम, विशद कसे आम कसे, स अगम दुष्यन्त तव सह में उत्सुक गमोत्सुक असगोपालस तिष्ठति स्थितोऽस्ति प्राथयिता लक्ष्मीप्राप्तिसमुत्सुक श्रीकामो या जन श्रियम् लक्ष्मीम् लभेत प्राप्नुयात्न प्राप्नुयाद मा ( किन्तु ) बिवालदम्या इप्सित लक्ष्म्या इप्सित प्राप्तुमिष्ट जन कथम् केन प्रकारेण दुरापदुलभ भवेद्स्यात् ।
- अयि आत्मगुणावमानिनि क इदानों शरीरनिर्वापयित्रीं शार द ज्योत्स्ना पटान्तेन वारयति । [ अयि अत्तगुणावमाणिणि को वाणि सरीर- णिव्वावइत्तिम सारदिन जोसिणि पडन्तेण वारेदि ।]
शकुन्तला - ( सस्मितम् ) नियोजितेदानीमस्मि । [णियोहमा वाणि राजा-स्थाने बलु विस्मृतनिमेवेन चक्षुषा प्रियामवलोकयामि ।
म्हि ।]
( इत्युपविष्टा चिन्तयति ।)
यत
उन्नमितंक भ्रूलतमाननमस्या पदानि रचयन्त्या । कण्टकितेन प्रथयति मय्यनुराग कपोलेन ॥१२॥
उपन्यास- तीसप्रेषणं या भावाभिव्यक्तिरिष्यते" सुमनोगोपितम् सुमनोभि गोपितम् सुकुमार प्रयोग सुन्दर कोमल उपाय । -प्रस्तुत करना, समीप रखना पर यहाँ इसका अर्थ है विषयानुकूल प्रथम । पद बन्धनम् रचना-पद्यरचना समोरूने उत्सुक प्रसितोत्सुकाभ्या तृतीया चेति सप्तमी त पञ्चम्यास्तसिल, दुरामदुर्गाप्य इच्छित बापू+ सम् + त यहाँ अभूताहरण नामक गम सन्धि का अंग है "तत्र व्यावाश्रय वाक्यम- भूताहरण मतम्। प्रस्तुत श्लोक द्वारा कवि ने मानव स्वभाव की सुन्दर एवं सूक्ष्म समीक्षा की है। -
संस्कृत सरलार्थ - शकुन्तलावचनान्यायं दुष्यन्तो मनसि कथयति अि भीतिकातरे प्रिये, यस्मात् जनात्वमवधीरणा मातर कसे स एवाय दुष्यन्त तब समागमोत्कण्ठाकृत त्वदाशा प्रतीक्षमाणोऽ स्थितोऽस्ति । सम्भवत्येतत् यच्छ्रीकाम मानुषानुवाद पर बिया प्राप्तुमिष्ट जनक दुलम स्वादन कमपीत्यर्थ । टिप्पणी
मदनले कामपत्र या प्रेमपत्र, जिसमे अपनी कामभावना का उल्लेख हो । स्त्रियो को कामाभिव्यक्ति के चार प्रकार भरतमुनि द्वारा बतलाये गये हैं—
"लेख्य प्रस्थापन निम् न मृदुभाषिर्त ।

दोनों को अपने गुणो का तिरस्कार करने वाली कौन मला शरीर को शान्ति प्रदान करने वाली शरत्कालीन चांदिनी को (अपने वस्त्र के छोर से रोकता है, चांदनी को अपने ऊपर पड़ने से रोकने के लिए अपने सिर पर वस्त्र बाल लेता है अर्थात् कोई नहीं तात्पय यह कि ज्योत्स्ना के समान हृदयानन्ददायिनी तेरा वे कभी तिरस्कार न करेंगे।
शकुन्तला ( मुस्कराहट के साथ) तो अब मैं तुम्हारे आदेशानुसार काम मे लग्न होती हूँ।
(यह कहकर बैठ कर सोचती है) राजा इस उचित अवसर पर अपलक दृष्टि से प्रिया को देखूं क्योंकि 1
1 भावाथ प्रस्तुत ग्लोक में प्रणय-पत्र लिखती हुई शकुन्तला का सुन्दर चित्र कीचा गया है। पत्र लिखते समय चिन्तन करती हुई शकुतना की एक भी ऊपर पड़ गयी है। उसके हृदय में राजा के प्रति जो प्रेम भाव उमड रहा है उससे उसके पी मे रोमाञ्च हो गया है। रोमान्चित कपोलों से उसका अनुराग प्रकट हो रहा बर्षात् इसके रोम कपोल से स्पष्ट है कि यह मुझ पर प्रेम करती है।
अन्य पदानि रचयन्त्या अस्या उन्नमितलतम् आनन कण्टकिन कपोलेन अनुराग प्रथयति ।
शब्दार्थ - रचयन्त्या रचना करती हुई, उन्नतिम् उठाई गई एक प्रकुटि वाला, कण्टकितेन रोमाञ्चित, कपोनपण्डस्थल द्वारा प्रथयति प्रकट कर रहा है।
अनुवाद-पव की रचना करती हुई इस मकुतता का मुख, जिसमें कि लता के समान एक माँ को ऊपर चढ़ा लिया गया है। रोमान्चित कपोन के द्वारा मेरे प्रति अनुराग प्रकट कर रहा है।
विशेष प्रस्तुत पद्म मे "कण्टकितेन कपोलेन मे अर्थापत्ति' अलकार की प्रतीति होती है क्योकि कपोल उसी अवस्था में रोमाञ्चित होंगे जब हृदय में अनुराग होगा। बत रोमाञ्चित कपोलो से अनुराग का प्रकाशन होने से "पति" असार है। अपना रोमान्चित कपोलों से शकुन्तला के अनुराग की अनुमिति होने से 'अनुमाना- है।
'उन्नमितक भूतम' में 'अलता हब' ऐसी व्याख्या करने पर यहाँ अपमा
असार है। सम्पूर्ण स्लोक मे स्वमायोक्ति है। आर्याभाति छन्द है।
संस्कृत म्याख्या पदानि मदनले सनिवेशार्थं सुप्तिदन्त मयानि कवितापदानि, चमन्यावरचयन्त्या अस्था शकुन्तलाया, उन्नमिता उत्थापिता एका भूलता यस्मिन् तत् उन्नमितैक भूतम् उत्थापितककुटम् आनगम मुखम् कष्ट किन रोमान्चितेन कपोलेनगण्डस्थलेन मयि दुष्यन्ते, अनुरागम् स्नेहम् प्रथमति सूचयति ।
मस्कत सरला पदरचनाव्यस्ताया शकुन्तलाया मुखाकृति मालक्ष्य ता सह निरीक्षमाण राजा कथयति कवितापदानि निवन्नन्या बस्या मुखम यस्मिक भूलता उपमिता बढ़ते रोमाञ्चितेन कपोलेन करणेन) मवि दुध्यन्ते स्वानुराग सूचयति ।
आत्मगुणानामिनि आत्मनो गुणान् अवमानयतीति तत्सम्बुद्धी, आत्म गुण+अब+मान स्वार्थे चित्र, कतरि थिनि निर्वापयित्री प्रातिदामिका--- शिर बप् + णिच नियोजिता अर्थात आप लोगो द्वारा बताये गये काम को करती हूँ, अर्थात् में स्वयं नहीं, केवल आप लोगो के आदेश का पालन कर रही है। स्थाने- यह उचित है, सकुन्तला की बात सुनकर राजा सोचता है कि अब इसे प्रेमपूर्वक देखने
वाकुन्तला हला चिन्तित मया गीतवस्तु न खलु सनिहितानि पुनर्लेखनसाधनानि । [हला चिन्तिद मए गोदवत् । असणिहिवाणि उण लेहसाणाणि । ]
प्रियम्वदा एतस्मिम्शुकोदरसुकुमारे नलिनीपत्रे ननिक्षिप्तवर्ण
कुछ [इमस्सि सुबोदरसुमारे णलिणीपत्ते महेहि निखितवण करेहि ॥] शकुन्तला - ( यथोक्त रूपयित्वा ) हला शृणुतमिवानों सगतार्थ न
विति [हला, सुणुद दाणि सगवत्य ण वेति । ]
उभे-अवहिते स्व । [ अवहिषे म्ह
कुन्तला - ( वाचयति)
न जाने हृदय मम पुन कामो दिवाऽपि रात्रावपि ।
निर्घुण तपति बलीयस्त्य वृत्तमनोरथान्यङ्गानि ॥१३॥
का मुझे अधिकार है। मिस उत्नम मिल्कमणिक उन्नभिता एका भू सता इव यस्मिन् तद् कष्टकितेन कण्टका सजाता यस्येत्यर्थं कण्टक + इतच् अनुरागम्— अनुराग रति की छठी अवस्था माना गया है" "अह मुरपल्लव प्रसून फलोभागिय क्रमण प्रेमा मान प्रणय स्नेहो रामोऽनुराग इत्युक्त राग एवं स्वचदशा प्राप्त्या प्रकाशित । यावदाश्रयवृत्तिश्वे दनुराग इतीरित" यहाँ क्रम नामक गम सधि का भाग है "भावतस्योपलब्धिस्तु कम स्पात् अनुराग [भाव
का यहाँ तात्विक ज्ञान है।
शकुन्तला- मैंने गीत का विषय सोच लिया है। किन्तु लेखन के
साधन यहाँ विद्यमान नही।
प्रियदा-तोते के उदरभाग के समान कोमल इस कमलिनी-पत्र पर नसों से वर्णों को अति कर दो।
पूर्वोक्त रूप से लिखने का अभिनय करके) सखियो, सुनो ब इस गीत का भाव संगत है या नहीं ?
दोनों हम दोनो सावधान है। कुन्तला बाँचती है)
अन्वयन तव हृदय (अ) न जाने काम पुन, स्वयि वृत्तमनोरथानि मे अङ्गानि दिवा अपि रात्रौ अपि वलीय तपति ।
शब्दाब नियुणनिय दिवा अपि रात्री aft दिन रात, वसीय अत्यधिक उपतितपाता है या पीडित करता है।
स्वपि वृत्तमनोरथानि मे अनि मेरे उन शरीरावमयों को जिनकी अभिलाषा तुम पर समर्पित है।
राजा - (सहसोपसृत्य )
अनुवाद हे निदय मै तुम्हारे हृदय को तो नहीं जानती, किन्तु कामदेव हैरी और अभिलाषा युक्त मेरे अ को दिन रात अत्यन्त पीडित कर रहा है।
भावाथ प्रस्तुत पद्म मे शकुन्तला अपनी कामपीडित अवस्था का उल्लेख करती है। वह अनिम कामताप से तप रही है पर उसकी इस दशा को देकर भी दुष्यन्त को इसका कोई ध्यान नहीं है। मत वह उसे निदम बताती है। शकुन्तला दुष्यन्त के हृदय के विषय में नहीं जानती कि उसकी क्या अवस्था है अथवा उसके हृदय का कार उसकी ओर है भी या नहीं परंतु शकुन्तला की सब अभिलाषायें दुष्यन्त की ओर लगी हुई है।
विशेष- निपूण मे अर्थापत्ति अलङ्कार है क्योंकि इससे दुष्यन्त अपने कर्तव्य से परामुख है इसकी प्रतीति होती है।
'तब न जाने हृदयम्' से शकुन्तला की इस अभिलाषा की प्रतीति होती है कि यह बालिङ्गन करना चाहती है। जत अनुमानालकार है। यह गीति नामक छन्द है । "वाय पूर्वाधसम यस्या अपराध मपि हसगते छन्दोविदस्तदानी गीति सामभूतवाणि भाषसे।"
संस्कृत व्याख्या- अयि निपूण निष्कृप । तव हृदयम अह न जाने सब हृदयस्य कीदृशी दशेत्य न वेद्मि पुन किन्तु त्वयि त्वद्विषये वृत्ता सजाता मनोरथा अभिलाषा येषान्तानि बुतमनोरथानि भवदह गालिङ मनाविक मुपलब्धुकामानि मम शकुन्तलाया [ब] गानि शरीरावयवान् कामस्मर दिवा अपि दिनेऽपि राजा च वलय अत्यधिकम् तपति सन्तापयति । =
संस्कृत सरताथ कामतापमसहमाना कुतता उपालम्भपूर्वक स्वा निवेदयन्ती राजान मुविदश्य कथयति हे निष्प तव हृदयदशान्तु नाह जाने, तदत्यनुरक्तमयि न वेति कि तु कामो मम सर्वापेण तान्पड गानि येषामभिलाषा त्वयि एवं केवल समर्पितास्ति दिनेऽपि राणामपि चात्यधिक सत्तापयति ।
टिप्पणी
लेखन साधनानि लिखने की सामग्री कागज स्याही, कलम आदि। इससे ज्ञात
होता है और पाणिनि तथा कात्यायन के कम 'इन्द्र वरुण' सूष तथा 'पवनाल्लिप्याम' कार्तिक से प्रमाणित होता है कि भारत मे लेखन कला अति प्राचीन काल से ही विद्य मान रही है। सगतायम- प्रथम और भाव के अनुकूल निर्घुण — नियम, क्योंकि मेरी दशा की ओर तुम्हारा ध्यान नहीं है निरस्ता पणा दया अस्य । शकुन्तला का यह सम्बोधन उसके प्रबल अनुराग एवं उसकी ऐडिय वासना का द्योतक है। विप्रलम्भ शृङ्गार है। लक्षणा द्वारा पति का अथ वर्धते करने पर यह शकुन्तला को अनुनयोक्ति
भी मानी जा सकती है। राजा (सहसा पास जाकर )
१७१
तपति तनुगात्रि भवनस्त्वामनिश मा पुनर्दत्येव । लपयति यथा शशाङ्कन तथा हि कुमुद्दतों दिवस ॥१४॥ सख्यौ ( सहर्षम् ) स्वागतमविलम्बिनो मनोरथस्य । [साबद अवलविणो मनोरथस्स ॥] (शकुन्तलापुरातुमिच्छति ।)
अन्य - ( है ) तनुगाणि मचन त्वाम बनिथम् तपति माँ पुन दति एव दिवस यथा यत्ति तथा कुमुहती न हि तपयति ।
मन्दाय अनुगानि कृष्णा मदन कामदेव, अनिमसदा == चन्द्रमा को ग्लपयति म्लान बना देता है, कुमुद्वतीम् कुमुदिनी को ।
अनुवाद हे स्वभावत एव कामतापस कुछ अगो बाली, कामदेव तुमको तो निरन्तर तपाता ही है परन्तु मुझको तो वह जलाता हो है दिन जितना चन्द्रमा को लान (काली) बना देता है उतना कुमुदिनी को नही
भावार्थ राजा कुमाला के कथन को सुनकर सहसा वहाँ पहुँचकर कहता है कि हे कृशाङ्गी । यह सत्य है कि तुम्हे निरन्तर कामदेव सन्तप्त कर रहा है किन्तु यह मुझे तो जला ही रहा है। अर्थात् मेरी काम पीया तुमसे कहीं अधिक है। दिन चन्द्रमा को जितना मन करता है उतना कुमुदिनी को नहीं दिन मे कुमुदिनी कुम्हला भले ही जाये पर वह अस्तित्व-विहीन नहीं होती, पर बना तो दिन मे दिखाई भी नही पडता इसी प्रकार काम कामदेव तुम्हे केवल सन्तप्त हो तो करता है पर वह मुझे तो जला कर भस्म ही कर देना जाता है सन्ताप से शरीर की तनुता ही सम्भव है विनाश नही परतु जलने से तो शीघ्र विनाश हो जाता है।
कुतता के देह ताप की अपने मानसिक ताप से कम बताने के ही लिये के राजा ने उसे तनुगानि कहा है। इसी प्रकार तपति पद भी साभिप्राय है, केवल तपाता हैं सतप्त नहीं करता, ताप से तो शरीरापाय भी सम्भव था पर ताप से नहीं।
विशेष-पूर्वाध पराधगत वस्तु का विम्ब प्रतिविम्ब भाव होने से पृष्टान्त पुल्लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग साम्य से शमा और कुमुदवती पर नायक नायिका व्यवहार समारोपण से पराध मे समासोक्ति, मदयतीति मदन] अर्थात हृपद जोकि ताप देने वाला नहीं हो सकता अत विरोधाभास तनुगानि मे तनु और गान शब्दों के समानार्थक होने से पुनरुक्तवदाभास पर यहाँ तनु का अर्थ कृष है। 'तपति' के प्रति नुगावि पदार्थ हेतु है नत पदाय हेतु काव्यलिंग, उपति और दति इन दोनो का एक ही कर्ता है अत दीपक पति इस एक जिया के शशाक और कुमुद्वती के दो कम हैं अतः हुल्ययोगिता कि ही के मत में यहां प्रतिवस्तूपमा भी है। अनुप्रास, आर्या जाति छन्द है । संस्कृत व्याख्या तनुगात्रि कृशानि मदन काम अनिशम्सततम् स्वा शकुन्तलाम सपति पीडयति पुन किन्तु माम् दुष्यतम् वहति एव
राजा अलमलमायासेन ।
सन्वष्टकुसुमशयनाम्पा शुक्लान्तविसभङ्गसुरभीणि। गुरुपरितापानि न ते गात्राण्युपचारमर्हन्ति ॥ १५ ॥
भस्मसात् करोत्यैव दिवस दिनम् यथा येन प्रकारेण रामाम्=चत्रम् पयति निशोमम् करोति तथा तेन प्रकारेण सुमुदतीय कुमुदिनीम्, न हि यति ग्लानि नयति ।
संस्कृत सरलार्थ अवसरान्वेषी दुष्यन्त सहसोपेत्य शकुन्तला कथनस्योत्तरव्या errent निवेदयन् यति है कृशानि स्वान्तु काम केवल aपत्येव, मां [स] [भस्मीकरोत्येव दत्त न सत्य तथा पीडयति यथा स मा दहति स्वाभाविक मेतत् दिवसो यथा चन्द्रापयति न तथा स कुमुदिनी ग्लानि प्रापयति ।
टिप्पणी
वपत्ति ताप देता है, बताता है, तपाने से कोई चीज अस्तित्वहीन नहीं होती पर जलाने से वह अस्तित्वहीन हो जाती है, इससे राजा ने अपने मानसिक सन्ताप को शकुन्तला के दैहिक ताप की अपेक्षा अधिक बतलाया है। पति दिन मे कुमुदनी सुरक्षा आती है पर अस्तित्वहीन नहीं होती, पर चन्द्रमा दिन में बिल्कुल दिखाई नहीं पता स्त्रीलिङ्ग कुमुदिनी शकुन्तला के रूप में, पुल्लिङ्गयन्द्र को दुष्यन्त के रूप मे तथा पुलिस दिवस को मदन के रूप में प्रस्तुत किया गया है और इस दृष्टान्त के द्वारा राजा ने अपने सन्तापाधिक्य को सूचित किया है। मनोरथस्य यहाँ लक्षणा से मनोरथ का अर्थ अभीष्ट व्यक्ति है अर्थात् दुष्यन्त
(शकुन्तला राजा के स्वागत के लिए उठना चाहती है) राजा-नहीं, नहीं कष्ट करने की आवश्यकता नहीं।
अन्य --- सदस्यकुसुममयनानि शुक्लान्तबिसङ्गसुरभीणि गुरुपरितापानि ते भाषाणि उपचारम् न बर्हन्ति ।
सध्याच सदष्टकुसुमगमनानि फूलो की भैया को मदित करने वाले, बाक्लान्त विसङ्गसुरभीणि शीघ्र ही मुरझाये हुए कमल नाम के टूटने से सुगन्धित, गुरुपरितापानि अत्यधिक सन्तप्त, सामाणि शरीरावयव या वङ्ग, उपचार शिष्टाचार पालन, अर्हन्ति योग्य है।
अनुवाद फूलो की या को मसलने वाले शोध मुरझाये हुए कमलनाल के टूटने से सुगन्धित, अत्यधिक सन्तप्त तुम्हारे बङ्ग शिष्टाचार प्रदर्शन के योग्य नहीं हैं।
भावाथ शकुन्तला अस्वस्थ होने के कारण शिलातल पर बिछी पुष्प भैय्या पर लेटी हुई है पुष्पा अग सचालन से अस्त-व्यस्त एवं नतोन्नत हो गई है। साथ ही उसके शरीर के ताप के कारण पहने हुए कमल नाल मुरझा गये थे। इनके टुकुडो से उसके अङ्ग सुगन्धि युक्त हो गये थे। राजा के आने पर शकुन्तला शिष्टाचार प्रदर्शन हेतु उठना चाहती है पर राजा कहता है कि उसे शिष्टाचार प्रदर्शन अनसूयाइत शिलातलंकदेशमलकरोतु वयस्य । [इवो सिलात- लेक्स अलकरेदु वनस्सो ।] (राजोपविशति शकुन्तला सलज्जा तिष्ठति ।)

की आवश्यकता नहीं क्योंकि उसके अन्न अत्यधिक सन्तप्त है उसकी अवस्था ठीक नहीं है।

विशेष प्रस्तुत पद्य ने जो शकुन्तला के अङ्ग दुष्यन्त के माने पर उपचार या शिष्टाचार का व्यवहार करने के योग्य नहीं हैं, इसमें कारण गुस्तापानि' पद है अतएव यहाँ पर पदाग हैक-काव्यलिङ्गानद्वार है। गात्राणि पद के तीनों विशेषण यहाँ सार्थक है अत साभिप्राय विशेषणों के होने से यहाँ परिकरालङ्कार है। आर्या- जाति छन्द है।

संस्कृत व्याख्याट काम सन्तापा वितस्ततोऽङ्गसचालनपरिमदितम् कुसुमानाय पुष्पाणाम् शयन भैय्या तानि राष्टकुसुमानि आशु सत्वरम् or free मालस्य मम विछेद सेन सुरभीनि सुगधीनि बाणु क्लान्तसिमट सुरभीणि, गुरु अधिक परिन ताप येषान्तानि गुरपरितापानि, शकुन्तला गात्राणि शरीरावयवा उपचारम= शिष्टाचार प्रदशनम् न अहर्तुं योग्यानि न सन्ति ।

संस्कृत सरलार्थशकुन्तला स्वागताय मुल्यातु मिच्छन्ती मवलोक्य राजा कथयति अत्यधिक तापयुक्तानि तव गावाणि पानि परिमदितपुष्पायनानि बासु- म्लानकमलनाल विच्छेदगधीनि मन्ति मम स्वागताय मायासकरणाय योष्पानि न सन्ति ।

टिप्पणी

सम्बष्ट कुसुमशमनानि सन्दष्ट कुसुमाना सायन ये तानि इसके वर्ष में विद्वानी के विचार है। वस्तुतष्ट का अर्थ है सलग्न पुष्पा सन्तप्त अगो मे सभी हुई थी अतएव तापवण उसके पुष्प मुरझा गये थे, इसी बात को कवि ने २३ मे परमिता शब्द से स्पष्ट किया है, कामसन्ताप के कारण वह शय्या पर इधर-उधर हाथ-पैर पटक रही थी इस कारण पुष्प दबकर सुरक्षाकर हो गये थे, यहाँ साना के द्वारा सन्दष्ट का अर्थ पीडित मा परिमंदित करने है प्रतगानुकूल जय हो जायेगा सम्वत व्यस्मिन्निति शयनम्+ अधिकरणे युट् । सत्या शाकु उपचारम[सामान्य शिष्टाचार प्रदशन |

अनसूया प्रिय मित्र आप इधर शिलातल के एक भाग को सुशोभित करें बैठें।

(राजा बैठता है कुता लम्बित हो जाती है)

प्रियम्वदाद्वयोरपि युवयोरन्योन्यानुराग प्रत्यक्ष । सखीस्नेहो मां पुनचक्तवादिनों करोति । [ दुवेण पि वो अण्णोष्णापुरानो पन्चको । सहीसिणोहो म पुणरुत्तवाविणि करेदि ।]

राजा भद्रे, नैतत् परिहार्यम् विवक्षित ह्यनुक्तमनुताप जनयति । प्रियम्वदा आपस्य विषयनिवासिनो जनस्यातिहरेण राज्ञा भवित- व्यमित्येव वो धर्म । [आवण्णस्स विसअणिवासिणो जणस्स अत्तिहरेण रण्णा दोदव्य त्ति एसो वो धम्मो ।]

राजा-मास्मात् परम् ।

प्रियम्वदा तेन हीयमावयो प्रियसखी त्वामुद्दिश्येवमवस्थान्तर भगवता मदनेनारोपिता तवर्हस्यम्युपपत्या जीवितमस्या अवलम्बितुम् । ते हि अ णो पिअसही तुम उद्दिसि इम अवत्यन्तर भगवता मण आरोविदा ता अरुहसि अन्भुववत्तीए जीविद से अवलम्बिदु ।] -

राजा- भद्रे, साधारणोऽय प्रणय सर्वथाऽनुगृहीतोऽस्मि । सकुन्तला - ( प्रियवदा मवलोक्य) हला, किमन्त पुरविरहपयुं त्सुकस्य

प्रियवा आप दोनो का ही परस्पर अनुराग प्रत्यक्ष है (अत बाप दोनों के विषय में पद्यपि कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है) तथापि सखी के प्रति स्नेह मुझे फिर भी उसी बात को कहने के लिये विवश कर रहा है।

राजा इसे न रोकना चाहिये (अर्थाद आपको अपने मन की बात कह डालना चाहिये क्योंकि जो बात (कोई) कहना चाहता है यदि यह न कहीं जाय सो वह पश्चात्ताप उत्पन्न करती है।

जिवा-राजा को अपने राज्य के अन्दर रहने वाले, विपत्तिग्रस्त व्यक्ति की आपत्ति को दूर करने वाला होना चाहिये, यही बाप राजाओ का धम है। राजा इससे बढ़कर और कोई (कर्तव्य) नहीं है।

प्रिया तो हम दोनो की यह प्रिय सखी कुचला तुम्हारे ही कारण, भगवान् कामदेव के द्वारा इस दशा को पहुंचा दी गई है। अत उचित है कि आप अनुग्रह करके इसके जीवन की रक्षा करें।

राजा यह प्रावना तो (दोनों ही बोर से समान है, वर्षात् यदि इसका जीवनालम्वन में हूँ तो यह भी मेरा जीवनालम्बन है अत जीवनालम्बनार्थ यह प्रार्थना तो दोनो ही की समान है फिर भी यदि आप मुझसे जीवनालम्बन की याचना करती है तो इसके लिये समय में आपका अनुगृहीत है।

शकुन्तला ( प्रियवदा की ओर देखकर) सखी, अपने अन्त पुर की रानियों के

राज परोधेन [हला, किं अन्तेउरविरहज्जुस्तुबस्स राएसिणी उब-

रोहेण ॥]

राजा-

इदमनन्यपरायणमन्यथा

हृदयसन्निहिते हृदय मम ।

यदि समर्थयसे मविरेक्षणे

मदनबाणहतोऽस्मि त पुन ॥ १६ ॥

E इदमिति अन्य मंदिरे हृदयसन्निहिते इदम् अनन्यपरायण मम हृदय यदि अन्यथा समर्थयसे मदनवाणहत पुन हृत अस्मि । सत्यार्थमदिरेशमादक लोचनो वाली, हृदय सन्निहिते हृदय में निवास करने वाली अनन्यपरायणम् अनन्यासक्त समयय से समझती हो, मदनबाणहूत =

में भावाथ राजा कहता है चचत एव उन्मादक वो वाली और मेरे हृदय निरन्तर विराजमान रहने वाली तसे मेरा हृदय तुम्हारा अनन्य भक्त है पर फिर भी यदि तुम उसको अन्यासक्त होने का सन्देह करती हो तब तो पहले से ही काम से अति सतप्त में फिर से मारा जाऊँगा अर्थात् जीवित नहीं रह सकूगा। अतएव  मेरे विषय मे सक्त होने की का करता सर्वथा अनुचित है।

महताजमहल पुन

विरह से नि राजर्षि को रोकने से क्या साम अर्थात् मेरे लिये इनको रोकना व्यर्थ है। राजा-

काम बाणो से बात

अनुवाद मादक लोचनो वाली मेरे हृदय में निवास करने वाली मेरे इस ree हृदय को यदि अन्यथा समझती हो, तो कामदेव के शरों से माहत हुवा भी मैं पुन मारा जाऊँगा

विशेष—' बनन्यपरायणम्' के प्रति हृदयनिहिते' पद हेतु के रूप मे रखा गया है, अत पदार्थ हेतुककाव्यकार है।

'हृदय का अनन्यपरायणम्' तथा शकुन्तला के 'हृदय सनिहिते' और 'मदिरेशणे' इत्यादि अनेक विशेषण साभिप्राय है अत यहाँ परिकर अलकार है।

'हृदय हृदयेति' 'तहत इति 'यहाँ पर लाटानुप्रास अलकार है। विलम्बित नामक छन्द है ( तविलम्बित माह नभी मरी")

संस्कृत व्याख्या मंदिरे ईक्षने यस्या तत्सम्बोधने मंदिरेक्षणे मादकनयने, हृदये चेतसि सन्निहिता सम्म प्रतिष्ठिता तत्सम्बोधने हृदयसन्निहिते मानस- समवस्थिते इदम् एतत् न तु कल परायणम् आश्रय यस्य तत् अनन्यपरायणम् -अन्यास विरहित त्वन्मात्रनिष्ठमित्यथ मम दुष्यन्तस्य हृदयम्मानसम् यदि चेत्वम्, अन्यथा विपरीतभावेन अन्यपरायणतयेत्यच समर्थयसेनपति = =

1 किम इस शिला के एक भाग पर वस्य मित्र, राजा को शकुन्तला पर पूर्णतमा आकृष्ट देखकर अनुसूया उसे वयस्य कहकर सम्बोधित करती है। अन्योन्यानुराग अन्यस्मिन् अस्मिन् इति अन्योऽयम् अन्योऽस्मिन् अनुराग अन्योऽन्यानुराग ( अनु + रन्ज + पञ्=अनुराग ) पारस्परिक प्रेम "क्रिया व्यतिहारे सर्वनाम्नो वाच्ये समासवच्य बहुल" से द्वित्य असमासवभाव और स हुआ है। माँ द्वयोरपि कहने से कवि का तात्यय है कि तुम दोनो मे जो परस्पर अनुराग है उसको तुम दोनो ही जानते हो। पुनरुक्तवादिनीम् पुन उक्तवतीत्यर्थे पुनरुक्त+ बद साधुकारिणि कर्तारि जिनि ताम् उसी बात को पुन दुहराने वाली परिहार्यम्- परि+हु+प्य विवक्षितम वक्तुमिच्छा विवक्षा मा सजाता अस्य तत्पू+ विवक्षितम्-जो कहने की इच्छा हो, अनुतन कहा गया, मनुतापमपश्तालाप, जनयति उत्पन्न करता है। आपस्य आपद्+= विपत्तिग्रस्त विषयनिवासिनदेश या राज्य में रहने वाले का धम कतम्य तिहरेमा ++ सिन्आति आति हरतीत्यर्थे आति+हु+अय तेन= दुख को हरण करने वाले अवस्थान्तरम् अन्या अवस्था अवस्थान्तरम् अब + स्था मावे व अवस्था परिवर्तित या दयनीय दशा को भगवता-ऐश्वर्य एव  "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य यस्यथिय ज्ञान वैराग्ययोश्चैव पण भग इतीरित " अभ्युपपत्त्या अभ्युपपत्तिरनुग्रह अन्त पुरविरहपर्युत्सुकस्य अन्त पुर का अय यहाँ अन्तपुर मे रहने वाली रानियाँ है-पर्युत्सुक सिन या व्याकुल । अनन्यपरायणम् न अन्यत् परायण यस्य तत् पराजयले अस्मिन्निति परायणम् = परा+अम्बधिकरणे ल्युट जिसका अन्य कोई उत्तम बाय नहीं है। वयसलि हिले हृदये सन्निहिता तत्सम्बोधनै सम्+नि+ धाक मविरेाणे – मायति बाभ्यामिति मंदिरे, मंदिरे ईश नयने यस्था तत्सम्बोधने, मद करने फिर ईस भ्यामिति ईक्षणे "दृष्टि विकसितापाङ्गा, मदिरा तरुणे मदे आपूणमानमध्या या क्षामाचञ्चित तारका अथवा सौष्ठवेनापरित्यक्ता स्मेरापाङ्ग मनोहरा वेपमा- नान्तरा दृष्टि मदिरा परिकीर्तिता । मदिरा का अर्थ सुरा भी है अत उन्मादक, लक्षणया [] है मदिरा भ जन का भी नाम है अंत मत नेत्रो वाली। माँ साम नामक प्रतिमुख सन्धि का अंग है तब साम प्रिय वाक्य सानुवृति प्रका

(f) मदनस्य कामस्य वा निमवनवागत काममरक्षत अहम् पुन भूयोऽपि ह्मारित ।

(अपि

संस्कृत सराव शकुन्तलाकथन माकण्य राजा कययति चितस्थित areer यद्यपि मम हृदय त्वदेकप्रणयासक्त वहते तथापि त्वं यदि मति विपरीतभावेन चिन्तयति तहि कामरक्षत अपि ज पुन इतोऽयधिक प भविष्यामि ।

टिप्पणी

अनसूया वयस्य, बहुवल्लभा राजान भूयन्ते यथा नो प्रियसखी बन्धुजनशोचनीया न भवति तथा निर्वतय। [अस्स, बहुवल्लहा राजाणो सुणीवन्ति, ज णो पियसही बन्धुअणसोअणिज्जा ण होइ तह वित्तहि ॥] जह

राजा-भद्र कि बहना।

प्रत्येऽपि प्रतिष्ठे कुलस्य मे । समुद्ररसना चोब सखीच युवयोरियम् ॥ १७॥

उभे निवृते स्व ।

अनसूया-मित्र सुना है राजाओ की बहुत सी प्रियायें होती है। बत 1 जिससे हमारी प्रियसी बन्धुजनो के लिए सोचनीय न हो वैसा ही व्यवहार कीजिये। अर्थात् ऐसा प्रबंध कीजिये जिससे कि स्वजनों को पछताना न पड़े।

राजाम, अधिक क्या कहूँ इतना ही पर्याप्त होगा-

परिग्रहेति नाय परिग्रहवत्वेऽपि मे कुलस्य प्रति (भविष्यत ) समुद्र रसना इस युवयो सखी च

शब्दार्थ परिग्रहवत्वेऽपि बहुत-सी पत्नियों के रहते हुये भी की प्रतिष्ठा गौरव समुद्र जिसकी मेखला के सा है ऐसी पृथ्वी या (शकुन्तला के पक्ष मे ) मुद्रा अर्थात् रत्नों से युक्त जिसकी मेलता है ऐसी शकुन्तला,

अस्थियों के होते हुए भी मेरे बस की प्रतिष्ठा दो-एक तो समुद्र रूपी मेलला बाली पृथ्वी और दूसरी आप दोनो की यह सखी

भावार्थ राजा की दृष्टि में शकुन्तला का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि राजा के अन्तकरण में बहुत-सी रानियाँ है और समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर उसका राज्य है। परन्तु जिस प्रकार पथ्वी उसके कुल की प्रतिष्ठा है उसी प्रकार वह सकुन्तला को भी अपने वश के गौरव का कारण मानता है।

विशेष- प्राकुन्तता और पृथ्वी दोनों प्रस्तूतों का एक धर्म 'प्रतिष्ठा' के साथ सम्बन्ध होने से पयोगिता अलकार है। कोई यहाँ उर्बी को अप्रस्तुत मानकर दीपक अलकार मानते हैं। उसमें मि के समय से स्त्री के व्यवहार का आरोप किया गया है अत समासोक्ति अलकार है।

'प्रतिष्ठे कुलस्य मे दोनो ही प्रतिष्ठा का कारण है इस प्रकार प्रतिष्ठा पदका अध्यवसाय होने के कारण भेद मे अभेद लक्षणा अतिशयोक्ति है।

'समुद्र रसना' से पृथ्वी और सभी दो अर्थों की प्रतीति हो रही है व श्लेषा

14 लकार है। पय्यावनत्र नामक छन्द है।

प्रियम्बदा - (सवृष्टिक्षेपम् ) अनसूये, पच इतोदसदृष्टि को मृगपोतको मातरमन्विष्यति। एहि सयोजयाच एनम् [ अणसूए जह एसो इदो दिदिट्टी उत्सुओ मिअपोदनी मादर असदि एहि सजोएम ण ।] (इत्युभे प्रस्थिते)

शकुन्तला-हला, अशरणाऽस्मि । अन्यतरा युवयोरागच्छतु [हला, असरणा म्हि अण्णदरा वो आअच्छदु ।]

= संस्कृत व्याख्या परिग्रहाणा बहुत्व तस्मिन परिग्रहवत्राशिवाये अपि मम दुष्यन्तस्य कुलस्यवशस्य प्रतिष्ठे एवं गौरवस्थितिहेतुभूते (स्त) समुद्र सागर रसना मेलला यस्था सा समुद्ररसना, उर्वी पृथिवी न युवयोभत्यो इयम् एषा सत्री शकुन्तला च ।

संस्कृत सरला राजा कथयति सत्यपि राजिवाहुल्ये मम कुलस्य गौरव हेतु बाधा हेतू या केवल एवं स्त समुद्रवेष्टिता इस पृथ्वीच दुवयो इय सखी शकुन्तादेति ।

दोनों हम लोग अब प्रसन्न हो गई है।

टिप्पणी

परिपरि परित साकल्येन गृह्यते इति परिग्रह पत्नी परिग्रह कर्मणि] अप् । प्रतिष्ठा प्रतिष्ठत्यस्याम इति प्रतिष्ठा आधार स्वरूप या गौरव का कारण प्रति + स्था+व+टाप् । कुल परम्परा का आधार दुष्यन्त शकुन्तला को 1 अपने कुल की प्रतिष्ठा मानता है, षष्ठम में भी वह कहता है "त्यक्ता मया नाम कुलप्रतिष्ठा" समुहरसना दाणि रस्ते सह समुद्र स एव रसना मेखता था था, चारो ओर समुद्र से परिवेष्टिता पृथ्वी "रत्नानुविद्धार्णव मेखलाया दिन सपत्नी दक्षिणस्या" रघु० रखना और रशना ये दोनो ही प्रकार के शब्द मिलते हैं रसना  समुद्र बना' भी पाठ है अर्थात् समुद्रही जिसका है, अवध रूप आच्छादित करने वाला वस्त्र "टीकाकारों ने इसे शकुन्तला का विशेषण श्री माना है। वस्तुत समुद्र रसना का ही अन्यत्र भी वर्णन मिलता है अत समुद्र बना पाठ अधिक उपयुक्त नही है। यहाँ कुलोत्कर्ष कथन के कारण गम सन्धि का उदा हरण नामक बग है। उदाहरण मुत्कर्ष वचनम्" तथा दाक्षिष्य नामक नाट्य लक्षण

है "दापि चेष्टा वाचा परचिन्तानुयतनम्।" पिवा (एक ओर दृष्टि डालकर अनसूये, इधर की ओर दृष्टि लगाये हुए उत्कण्ठित यह युग का बच्चा मानो अपनी माता को खोज रहा है। बाओ इसको उससे

मिला है (यह कहकर दोनों चम देती है) -सी में बहाय रह गई हूँ, तुम दोनों में से एक तो यहाँ

उमे पृथिव्या य शरण स तव समीपे वर्तते। [ पुहवीए जो सरण सो तुह समीचे बट्टद।] (इति निष्क्रान्ते ।)

शकुन्तला कब गले एव ? [कह गदाओ एव्व]

राजा - अलमावेगेन । नन्वयमाराधयिता जनस्तव समीपे वर्तते।

कि शीतलं क्लमविनोदिभिरार्द्रयाता-

सचारयामि नलिनीदलतालवृन्तं

अ निघाय करभो यथा ते सवायामि चरणावृत पद्मताओं ॥१॥

दोनों जो पृथ्वी का आश्रय है वह तुम्हारे समीप में विद्यमान है। (दोनों का प्रस्थान )

शकुन्तला-क्या पली ही गई

राजा --- चबाने की कोई बात नही यह सेवक व्यक्ति तुम्हारे समीप ही है। किमिति की मविनोदिभि नलिनीदलतातयन्ते द्रवातान सवारयामि उत करमोह, ते पद्मताचौ चरणो अ निधाय यथासुखवायामि

शब्दाय नमविनोदिभि श्रम ( थकावट ) को दूर करने वाले, नलिनीरल तालवृन्तकमलिनीपत्र के पक्षी से आइवातान् शीतल हवायें करमरकर (हाथी के बच्चे की सूंड) के तुल्य जाँचो वाली अथवा कलाई से लेकर कनिष्ठिका उँगली तक हाथ का बाहरी भाग करम कहलाता है, उसके तुल्य जमाओ वाली पद्यताम्रौ कमल के समान रक्ताभ के गोद मे या कोड भाग में, निधाय रखकर, = पाल - जिस प्रकार तुम्हें सुख मिले, उस प्रकार सवायामि दबाऊँ।

अनुवाद क्या मैं श्रम को दूर करने वाले कमलिनी के पत्तो के पलो से aat हवा कहें? अथवा है करमोह तुम्हारे कमल के समान रक्तवर्ण वाले चरणों 1 को शोद में रखकर जिस प्रकार तुम्हें सुख प्राप्त हो उस प्रकार दबा

भावाब- राजा के पास अकेली छोडकर दोनो सखियो के पले जाने पर शकुन्तला अपने को असहाय मानकर चिन्तित होती है राजा उससे पूछता है कि क्या यह कमल पत्र के सुकुमार व्यजनो से ठण्डी ठण्डी हवा करके उसकी मकान को fact या उसके चरणों को, जोकि कमल के समान सास रस के हैं और कोमल हैं, गोद मे रखकर दबाये। इस प्रकार राजा उसे अनेक चाटूक्तियों से प्रसन्न करने की चेष्टा करता है।

विशेष- यहाँ पर नलिनीदलो पर तासन्त का आरोप किया गया है जो प्रकृत मे पखा करने के लिए उपयोगी है मत परिणामालकार है।

शकुन्तला न माननीयेष्वात्मानमपराधयिष्ये ( इत्युत्थाय गन्तु- मिच्छति ) [ण मागणीएस अत्ताण अवराहइस्स ।

'करभोर' और 'पद्यताओं से उपमावाचक इव शब्द का प्रयोग होने से यहाँ 'लुप्तोपमा' है।

'करमो' और 'पताओं इन विशेषणों के सामनहोने से परिकार है, विकल्पात्तकार "नविरोध विकल्प करो और पचताम्रा सवाहन मे हे हैं अलकारका नामक छ द है।

संस्कृत व्याख्याकिम ( अहम) शास क्लान्ति वा विशेषेण सुदन्ति दूरी कृषन्ति इति ममविनादिन से विनाविभ कहार या दलानि देवावृतानि व्यासेनविनीता वृन्ते कमीने बाद शीता जातास्तावला सचार पामि बीजयामि । उता है करीब ऊ यस्या सा तत्वबोधने करो तव पद्मे कम इव ताम्री अस्पतम्रो कमलोदरपणी भरणी पादी, फोडे, निधाय सम्माप्य यथासम्यथा ते सुख वेद तथा सवायामि मर्वयामि ।

सस्कत सरनाथ-कुन्तला परित्यज्य गमनानन्तर ता राजा दयति-- मावेगेन नन्वयमाराधविता जनस्तव समीपे वतते कथय कि शीतस्प कमलपत्र व्य वातान बीजयामि अथवा फमलताम्री तब चरणो स्वामारोप्य पचासुख मदयामि ।

शकुन्तला- नहीं, मैं माननीय जनो के प्रति अपने को अपराधिनी नहीं बनाऊँगी।

(यह कहकर उठकर जाना चाहती है)

निवसे- निश्चित आराधयिता उपासको आराध++ तु क्लमनोविमिम विनोदयितुमीनमेषा मित्ययें- कलम + वि+जूद + fe कर्तार पिनि। सचारयामि सम्पर पिच करमोद-करम का अर्थ- कलाई से लेकर कनिष्ठिका अगुली तक का नीचे का भाग (मणिबन्धनादकनिष्ठ करस्य करभो वह " अथवा हाथी के बच्चे की सूंड, इसके समान ऊरु अर्थात् पाओ वाली। इससे जाओ का अनुवताकारत्व एवं कोमलत्य वनित होता है। सवायामि इससे राजा की चाटुकारिता सूचित होती है सम्बपि यहाँ माला नामक नाट्य लक्षण है "माला स्याद्यभीष्टाय प्रकाशनम पर्युपासन नामक सभ्य भी है "मुर्यास्तरनुनय"।

उपस्थितम् और तपोधनम् इन दो विशेषणी से यह सूचित किया गया है कि स्वयं आकर सामने उपस्थित हुये भी अतिथि को न देखना उसकी बात न सुनना बहुत बड़ा अपराध है, साथ ही कोई साधारण अतिथि नही अपितु तपोमूर्ति अत्युत्कृष्ट उपस्वी दुर्वासा, जो कि निग्रह और अनुग्रह दोनों की सामन्य रखते है, afe "अतिथि fिee पूजार्थ प्राकृतोऽपि विजानता" इस वचन के अनुसार साधारण अतिथि भी पूज्य होता है, तब दुर्वासा जैसे तपस्वी को तो बात ही क्या माम्— इससे दुर्वासा का अहम्भार एवं क्रोध प्रकट होता है। यद्यपि "विवाह भोजन मापोत्सगौ मृत्युरत तथा" इत्यादि वचन के अनुसार शाप का वर्णन निषिद्ध है तथापिहीं है, केवल अको में ही है। "शापादी सान्तरायण स विमर्श इति स्मृत" आचाय विश्वनाथ के इस कथन के अनुसार यहाँ विम afra भी मानी जा स कती है। इस पाप कक्षा से रस दोष का भी धारण किया गया है। विचिती सज्ञाने शतृ दीप्योति व्यन्त दुष् + क्त प्रियम्वदा हाम हाय, अनय (अनचाहा) हो ही गया, किसी पूजनीय जन के प्रति (चिना) एवासना ने अपराध कर दिया है। (सामने कर) बस्तु विसो साधारण जन के प्रति नही अपितु ) यह (ता) सहज कोत () (का) व सजतिनीय एवं विभिटेजा है।

अनसूया अग्नि के अतिरिक्त जीर बोन दूसरा जनाता हू रामात जाजा (उनके) चरणों में प्रणाम करके लोटन पूजा के लिए) अनार नल वार करती है।

(एकरी है।

(यह कह कर ली गई )

अनसूया (कुछ आग पर पान का अभिनय करके) जाए, पहा- छूटान के कारण रहावभाग की गिर गई हैं।

(यह कह कर फूल के उठाने का अभिनय करती है)

टिप्पणी

यमय बनवा अन सवृत्तमहमूद पूजा- पूजा महतीत्य पूजा + धानो अस्मिन्महृदया कुदीतशरीरापि दुष्यतमानस जाय हृदयन या अपराद्वा-अपराध कृतवनी-अपराध धाता कतरि टाप परिमन कस्मिन्नपि न जिस किसी साधारण अतिथि पर नहीं, अपितु सुतमको सुलभ का यम्य समेत लय कोपायेन स । दुर्वासा दुष्ट दुसाध्य नाम यस्य स यह ऋषि का नाम है, पुराणों में यह सवाधिक कधी ऋपि मान गये है। गोकुल्या वेगस्य बलेन अतितीवा तथा । प्रतिनिवृत्त+नि+तादिकक्षिप्त हवनीय द्रव्यं वहति तस्य प्रापयति तस्मात् अत्र योग इति । दग्युम्यह + तुमुन् अग्नि की यह नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है कि इसमें जा कुछ भी कामत या कठार पायदान दिया जाय उस वह बिना कुछ सोचे विचारे जला कर भस्म कर देती है, कवि न यहाँ दुलामा कृषि को अग्नि तुल्य माना है जो प्रथमप्रणयपरिगताकोमा शकुन्तला को भी शापाग्नि से जलाने से समय है । अनि कभी-कभी होता की अगुलियों को भी जाना देती है यदि वह सावधान न रहे, दुधाद्दीन काल में अपराधानपरा र औचित्यानीत्य एवं अवसरात वसर का ध्यान नहीं रखने, अतएव उन्हाने कुता को शाप दे डाला। अकम्पश्व उपेत्यनयो समाहार अब और अब मे निम्ननिवित आठ चीजें मिलाई 2 जाती है।

"आप सीर कुमार, सितिण्डुलम्। पत्र सिद्धारा गाज्य परिकीर्तित ॥

(प्रविश्य)

प्रियवदा - सखि । प्रकृतिवक्र स कस्पानुनय प्रतिद्धति किमपि पुन सानुक्रोश कृत । [ सहि पतिविवक्को सो कस्स अनुणम पनि गेहदि ।

कि वि उण सानुक्कासी किदो ॥] अनसूया ( सस्मितम् ) तस्मिन् तदपि कथय [तम्मि बहुद

पि। कहेहि।]

प्रियवदा पवा निवर्तितु नेच्छति तदा विज्ञापितो भया । भगवन प्रथम इति प्रयाविज्ञाततप प्रभावस्य दुहितृजनस्य भगवत कोऽपराधो ममितव्य इति । [ जदा वित्तिदु ण इदि तदा विष्णविदो मए । भद म त पेक्rि अविण्णादन व पावन् दुहिदुजणरस भगवदा एक् अवराहो मरिसिदम्बो ति ।]

अनसूया ततस्तत (तदो तदो)

मे वचनमन्यथा भवितुमहति कित्यभिज्ञानाभरण- दशनेन शापो निर्वतप्यत इति मन्त्रयमाण एवान्तहित । तदो ण मे क्षण अण्णाभविद् अरिदि। किदु अहिणाणाभरणदमण सावो विदित मन्तअन्तो एव्य अन्तरिहियो ||

अनसूया मिदानीमाश्वसितुम् अस्ति तेन राजविणा सप्रस्थि- तेन स्वनामधेयानि लीयक स्परणीयमिति स्वय पिनम् । तस्मिन  शकुन्तला भविष्यति। [सक्क दाणि असममिदु । अथ तण रामिणा पण सणामहेअकिन अगुलोज मरणीयतिं स पिगढ़। तस्सि साहीगोवामा उन्ला भविन्मरि ।]

अग्रहस्तात अश्वासोश्चेति कमधारय "इस्तापस्तादयों गुणगुणिनो भेदाभेदाभ्याम्" इति वामनोदिया- अवयव अग्र अवयव हस्त याना में अमे विवक्षा कर ली गई है, हस्तस्पा विग्रह करम पर हस्ताय रूप होगा। प्रष्टम- प्र+अ+ अनिमी चलने से प्रस्खलित गति के कारण पुष्पभाजन का गिरना वस्तुत अपशकून सूचक है जिससे दुवासा के न नोटनको सूचना दी गई

(प्रवेश करके)

प्रियवासी स्वभाव से हो टेडा वह दिससे प्राथना स्वीकार करता

है फिर भी मैं उसे कुछ दबाना था।

अनसूया (मुस्कराहट पूर्वक) इस इतना भी बहुत है कहा

(फिर क्या हुआ)

प्रियम्वदा जब यह लोटन के लिए इच्छुक नहीं हुआ, तब मैन (उनसे निवेदन किया। भग, (आप) तप से प्रभाव को न जानन बाली पुनीजन का यह प्रथम (अपराध है यह समझकर जाve द्वारा यह एक अपराध क्षमा करने याग्य है ।

7 अनसूया तब क्या हुआ

चतु

प्रियवदासलि एहि देवकार्य तावद् निर्वर्तवाद [सहि एहि देवकज्ज दाब वित्त म्ह॥]

( इति परिक्रामत 1)

- ( विलोक्य) अनसूये, पश्य तावत् । यामहस्तो पतिवदना- ssलिखितेव प्रियसखी भगतया चिन्तयात्मानमपि नवा विभावयति, कि पुनरागन्तुकम् [ अणसूये, पेव दाव वामहत्वोवहिदवणा आलिहिदा ही भत्तगदाए बिन्ताए बत्ता पिएमा बिभावेदि कि उण आजन्तु ।]

प्रियम्वदा व मेरा वचन विपरीत (मिया) नहीं हो सकता है किन्तु परिचायक आभूषण को देखने मे शाप निवत (समाप्त) हो जायेगा यह कहते ही वह अन्तर्धान हो गया।

अनसूया धे धारण किया जा सकता है। प्रस्थान करते हुए उन राज (दुष्यन्त) के द्वारा अपने नाम से अeिr  अँगूठी स्मरणचिह्न रूप ने (शकुन्तला के बंगुली मे) स्वयं पहनाई गई थी, (यह) विद्यमान है उन (शायमोक्ष के) उपाय म स्वतन्त्र रहेगी।

प्रकृतिक प्रकृत्या भावेन वक्र कुटिर स्वभाव से ही कुटिन प्रति गृह णादिस्वीकरोति प्रतिग्रह तद् अनुपम् अनु +नी+दिनय प्रार्थना किमपि कुछ कुछ सामु अनुक्रोशे अग सह पनि सानुको अनु+इतिभूनाथ में वर्तमान यह प्रयोग प्रचलित मुहावरे के अनुसार है, जिनस्य दुर्वासा से अनुग्रह प्राप्त करने के लि की यह सामयिक भावात्मक विजन है पुल पर कठोर हृश्य जन भी दया करते हो है । प्रेक्ष्य काय अविज्ञाततप प्रभावयन विज्ञान अविज्ञात तपस प्रभावे येन तस्य मपयितव्य मृपतयत् अभिज्ञानाभरणदशनेन - अभिशापज्यमेति अभिज्ञान नत् आभरण तस्य दर्शन तेन ना+ शानच् अन्तहित अथाह प्रति था इत्यस्य हि योगसिद्धि के बल से वे अन्तर्धान हो गये। आश्वसम् + एवम् तुमुन सत्रस्थितेन-- सम् + अ + स्था + क्त । स्मरणीयमस्मृबाहुनकाद करणे अनीपर स्मरत्यनेन अर्था इसके द्वारा तुम मुझे पार करते रहना स्वाधीनोपाया स्वस्मिन् अधि इति स्वधि स्वार्थी इन स्वाधीन उपायते अनेनेति उपाय उप अध स्वाधीन उपाय यस्याः सा पिनम् अपि न भारिमते अकारलोप 10 प्रियम्बदारी जाओ, तब तक हम दाना) देवपूजा का काय समाप्त -

करे।

( दाना चारो आर पुनती है)

अनसूया प्रियदे, द्वयोरेव नौ मुख एवं वृतान्तस्तिष्ठतु रक्षितव्या खलु प्रकृतिपेलवा प्रियसखी [पिअवदे, दुवेण एव्व णो मुहे एसो वृत्तन्तो चिट्ठदु रमिया क्यु पकिदिलवा पियसही ।] ● प्रियवदाको नामोष्णोदकेन नवमालिका सिति [ को णाम उष्णोदएण गोमालिय सिचेदि । ]

(इत्युने निष्क्रान्ते) विष्कम्भक ।

पर मुख प्रियम्बदा (देवकर) बनवाता (यह हमारी पिसची बाये हाथ रखे हुए चिमिन सी ( स्थित है) प्रतिवद्ध पिता के कारण वह अपने का भी नहीं समझ रही है, फिर अतिथि को तो कहा समझेनी २ ) ।

अनसूया प्रियम्बदा वह (शाप का) बात हम दोना के मुख तक ही सीमित रहे जयतु एम दानों के अतिरिक्त और काई इसे मान न पाये। स्वभाव से ही कोमल प्रिया की रक्षा करनी चाहिए (यदि वह इस बात को गुनेगी

तो उसे बडा दुम होगा) | प्रियम्बदा भला कौन नवमालिका को गरम जल से सोचेगा जर्यात् काई

(यह कह कर दोनों का प्रस्थान ) (विष्कम्भक समाप्त)

टिप्पणी

नियंतणावपूर्ण करे या समाप्त करे। वामहस्तोतिवदना वामश्वासी हस्त तस्मिन् उपति वचन यस्था सा अपने बायें हाथ पर जिसने अपने मुख को र लिया है अर्थात् पतितचिता मे निमन्न बैठी है, प्राय विरहिणियो को चिति अवस्था में इसी प्रकार दिलाया जाता है, कालिदास ने मेमदूत मे भी विरहिणी यक्षिणी को इसी प्रकार दिलाया है आलिखिताचित्रिता, उपहित उप + डा+क्त] आग कम आगच्छतीति बागतु आ + गम् कतर तुन प्रत्यय आगन्तुरेव आगन्तुकस्यायें कन्प्रत्यय तम् तु गतया - भतार गता तया विभावयति वि++ ट जो अपनी ही सुध-बुध भूल गया है वह अतिथि को पहचान सकता है को नाम फोन ऐसा होगा जो कि नयमालिका के समान अति कोमल कुता को यह उष्णोदक रूप प का समाचार सुनावेगा, जैसे गरम जल से नवमालिका कुम्हला जावनी उसा प्रकार यह जाप की बात सुनकर मकुतला का भी प्राण संकट में पड जायेगा कवि न इस कथन द्वारा वहा एक ओर चिया का शकुन्तला पर वाय भाव यापित किया है। यह उसने दूसरी और शकुन्तला को इस घटना से अनभिज्ञ रबर दशको की उसके प्रति सहानुभूति एवं उत्सुकता की अभिव्यक्ति की है. यह उनका नाय कौशल ही है।

(तत प्रविशति सुप्तोस्थित शिष्य ।) (१) शिष्य वेलोपलक्षणार्थमाविष्टोऽस्मि तत्रभवता प्रवासादुपा-

वृतेन काश्यपेन प्रकाश निर्गतस्तावदवलोकयामि कियदवशिष्ट रजन्या इति (परिक्रम्यावलोक्य च ) हन्त, प्रभातम् । तथाहि-  शिखर पतिरोषधीना-

माविष्कृतोऽरुणपुर सर एकतोऽर्क । तेजोद्वयस्य युगपद्व्यसनोदयाभ्या

लोको नियत इवात्मवशान्तरेषु ॥२॥

प्रकृतिपेलवा इसमे पेय शब्द यद्यपि कुछ विद्वानों के अनुसार अश्लील है या कालिदास ने इसका सभी नाटको में कई स्थलो पर प्रयोग किया है अत जात होता है कि कालिदास के समय में यह शब्द सभ्य समाज में प्रचलित था और इसमें अश्लीलता की थी।

किम्भक यह मरकत नाटको का पारिभापिक शब्द है जिसका प्रयोग भून और भागी घटनाओं को जोड़ने के लिये आदि मे किया जाता है। यदि इसके पात्र संस्कृत भाषो होत हैं तब यह शुद्ध और यदि प्राकृतभाषी होगे तो  कहा जाता है। जैसा कि इसका लक्षण हे वृत्तवतिष्यमाणाना कथा- शाना निर्देशक सक्षिप्ता वस्तु विष्कम्भ आदाब कस्य दर्शित। मध्यमेन मध्यमाभ्या वा पात्राभ्यासप्रयोजित शुद्ध स्यात् स तु सवर्णो नीचमध्यमकल्पित (सा०द०) प्रस्तुत प्रसग मे दुर्गाता संस्कृत तथा सखिया प्राकृत बोलती है, और सभी पात्र मध्यमणी के है अत मह शुद्ध किस्म है। सक्षिप्त भी है और इसमें शा कथा का वजन है। शाप कथा के लिये हो इसरा सयोजन यहाँ किया गया है, arrer मे इस योजना नास्त्रीय नियमानुसार नही की जा सकती थी। इसमे "गाथसँग विधिना" इत्यादि कथन से भूत cares को और अभिशा- नाभरणदशनेन शापो निर्वातिष्यते इत्यादि कथन से भावी कथानक को जोड़ा गया है यहाँ पर "प्रियम्बदे द्वयोरेव" से लेकर वहा तक अभूताहरण नामक मन ध का प्रथम अग बतलाया गया है। इसका लक्षण "पटाप च न अभूता- हरण बिंदु " अर्थात् कपटाबित वाक्य का जहाँ प्रयोग होता है जहा गभसन्धि का यह जग होता है।

(तदनन्तर सो कर उठे हुए शिष्य का प्रवेश

शिष्य-प्रवास से लौटे हुए पूप काय अर्थात् महर्षि कृष्ण ने समय का परिशान करने के लिए मुझे आज्ञा दी है. (तो) प्रकाश में बाहर आकर देखता हूँ कि रात कितनी शेष रह गई है (चारों ओर भूम पर और देखकर) ओह, प्रातकाल ह गया क्योंकि

यातीति जन्य एकत औषधीनाम् पति अस्तशिन्तरम् याति, एकत अरुणपुर

र अर्कsयस्य युगपद व्यसनोदयाभ्याम् लोक आत्मदृणात्तरेषु विभ्यते इस

शब्दार्थ एकत एक आर अर्थात् पश्चिम दिशा में, ओषधीनाम् पति साविको के स्वामी सरक्षक अयात् चद्रमा, अस्तशिखरम् अस्ताचल की चोटी पर याति= जा रहा है। एक एक और अर्थात् पूर्व दिशा मे अरणपुर सर सूप का सार जिसके जागे चल रहा है, (एस) बक सूप, आविष्कृत भूत गया है अर्थात् उदिता रहा है तेजाइयस्य तेजी के [अर्थात् सू दो तेजो के एक साथ ही व्यसनोदयाभ्याम् अन्त और उदय के द्वारा, लोक ससार, मानो आत्मवणारेषु अपनी मन सुखात्मक एडात्मक दशाओं के विषय में, नियम्यते = नियंत्रित किया जा रहा है।

अनुवाद और अचात् पश्चिम दिशा में वनस्पतियो का स्वामी अर्थात् चंद्रमा अस्ताचल को चाटी पर जा रहा है अवाद अस्त हो रहा है, (और) एक और अदि दिशा में, नुम जिसके जागे उसका नामक सारखी चल रहा है, प्रादुभूत हो रहा है। दो तेजो के अर्थात् सूप और च रूप दो तेजो के एक साथ हो, अस्त और उदय के द्वारा गानो (यह) ससार अपनी विभिन्न सुख, दुखात्मक दशाओं के विनियमित किया जा रहा है

भावाथ प्रकाश में बाहर जाकर कण्व शिष्य देखता है कि पूर्व दिशा मे ता मूस उदित हो रहा है और साथ ही पश्चिम दिशा में चन्द्र अस्त हो रहा है, सूर्य भन् रूप दोनों तेजो का एक साथ उदय और अस्त देखकर वह उत्प्रेक्षा करता है कि मानो ये दोनो एक साथ उदय और अस्त के द्वारा ससार को यह शिक्षा दे रहे है कि इस परिवतनशील ससार मल और दुख उति और अवनति सयोग और वियोग कालक्रमानुसार आत जाते रहते है, किसी को नियत स्थिति नहीं है। अतएव दुष्यन्त और शकुन्तला का अनुराग भी जो कि किसी समय चरम सीमा तक पहुँच चुका था, आज दयनीय स्थिति को प्राप्त हो रहा है, पर यह भी सदा नहीं रहेगा, वे भी पुन अपनी स्थिति को प्राप्त होगे ।

विशेष प्रस्तुत पद्य मे सूय और चन्द्र पर दो सज्जनों के व्यवहार का आरोप किया गया है अत समासोक्ति अलकार है। प्रभात वगन में दानो ही सूय और प्राकरणिक  प्रस्तुत है अत तुल्ययोगिता अनकार है। चन्द्र और सूप मे क्रमण व्यसनोदय बताया गया है अत यवासथ्य अनकार है। नियम्यते इव मे कानुप्रास एवं पत्यनुप्रास शब्दालकार भी है प्रसाद गुण तथा वैदर्भी रीति है। इसका नामक छन्द ज्ञेयाला तमजा जगोगा" अर्थात् इसके प्रत्येक चरण में प्रमत गण, भगण, जगण जगण अन्त मे दो गुरु वर्णों के क्रम से 14 वण होते है।

संस्कृत व्याख्या एकत एकस्या दिशि पश्चिमाया दिशीत्यय ओषधीना पति ओषधीरचन्द्र अस्तनिखरम् अस्तायत बूढाम् यातिगच्छति। एकत =जिन म्याविदिनागदत्यच अरुण सूयभूत पुर मर अग्रगामी यस्य स - अरुणपुर गरम विष्ट उदितो भवति तेजोयम्य चन्द्रसूययो युगपद एकमेव व्यसनादयाभ्याम् अस्तीवगगमनाभ्याम्, लोक नित्यानित्य- वस्तुविरहित आत्मदान्तरेषु यस्व सुखात्मकावस्था विशेषेषु निवास एवं स्वममयानुसार मुदयमन लभते अन म्यम्यत्तम्पत्तिविनिवणाया नास्सासिकी।

संस्कृत नरानस्थित जय प्रकाश f पश्चिम सूयस्योदपच नमकानमेव निरीक्ष्य चिपति यन्त्रन्या मनान भव अस्तगमनेन उदयन सर्वोऽपि लोक मन वननिवाप्नोति अंग सुम्पकाने हों दुकाने शान

टिप्पणी

बेलोपलक्षणम्-करा समय,

उपनक्षणाय जानने के लिये। प्रवासात प्रवर्गात जमिनिति प्रयासमा प्रवास का अब सामान्यत विदेशवास हा पर महाराज रामतीवास ही है, क्योंकि महर्षि कण्व सामतोय से होटे उपायन प्रत्यायतन उप + आ + यत्+हन्त यह नाय चत्र जन्यय है।

एकतर सप्तम्य मेसिन प्रत्यय है औषधीना पति जय समरादि वनमा हो, पलता गुल्म यन बौहि जातान सरकार चाहाना है जन उसे जोश भी कहा जानियापति श्यमर चद्रमा भी आपतियों का पोषक होता पुष्णामि धीमा सोमा मुल्ला रसात्मक इस वचन से ज्ञात होता आप पर दोन्निरापीयने अस्यामिति आधि जप+ धा+कि ओषधि हिरणाका प्राप्त करनी है अस्तिशिखर याति अस्तायत के शिखर पर जाहा हे आविष्कृत बिग वातु से" आदि निमून से आदि रूम में प्रत्ययाय प्रारम्भ में आदि कर्माणि farer a के अनुसार प्रत्यम होता है। अतएव महायहा रहा है, इस प्रकार किया जायेगा। अरुणपुर सर पुर अग्रे सरति गच्छतीति पुर सरयू धातु से अप प्रत्यय अरुण पुरसर यस्य स। वरुण सूप के सारथी का नाम है "सूर्य तो काश्यपि वाग्रज' इत्यमर सारथी होने के कारण अरण आग आगे चलता है। अस्तशिलर बाति और आविष्कृत का एक साथ रखने में विद्वानों ने प्रक्रम नग दोष की कल्पना की है पर आदिकमणिनिष्ठा वकत्र्या वार्तिक के अनुसार यहाँ त प्रत्यय को आदि कम मे कतु वाच्य ने मानने पर यह दोष नहीं होगा। अकसूम स्फटिके

६ रखी" युगपदव्यसनोदपाध्यान व्यसनञ्च उदयश्चेनि व्यसनोदय युगपद यी व्यसनोद- यो ताभ्याम् (कमधारय ) बिअस धातु से ल्युट—यसनम् = आपत्ति अवनति या दुःख "व्यसन विपदि अ" इत्यमर लोक लोकन्तु भवने जने" इत्यमर ar सोक का अर्थ साधारण जन है जो कि ससार की परिवर्तनशीलता और नित्या free वस्तु का विवेक नहीं रखता। आत्मरसान्तरेषु आत्मन दमाना मतराणि तेषु अपनी विभिन्न उन्नतानतस्थितियों के विषय मे नियम्यते नियंत्रित या अनुशासित किया जा रहा है। सूब चद्र रूप वो तेजा के एक साथ ही उदयास्त रूप 'सुख दुखात्मक दशा विशेष के विषय मे लोक को मानो यह शिक्षा दी जा रही है कि सभी को स्थिति सदा एक समान नहीं बनी रहती। परिवतनजी ससार में परिवर्तन होता रहता है। उदय उन्नति अथवा सुख प्राप्त कर लेने वाला भी भी अस्त, अवनति अथवा दुख को प्राप्त होता है, इसी प्रकार अस्तगत अवनत अथवा डुसी जन भी कभी उन्नति कर सुखी होता है सुख और दुख का चक्र सदा इसी प्रकार चना करता अत मनुष्य को न तो सुख मे अधिक ही होना चाहिये और न दुस मे अधिक दुखी ही क्योंकि सुख दुस कभी स्थायी नहीं होते। इसी भाव को लेकर अपन कवियो की सूक्तियां भी प्रष्टव्य है "स्पात्यन्त सुख मुनत दुस मेका थानीछत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण" मेघदूत

(२) अपि च- अन्तहिते शशिनि व कुमुद्वती में,

दृष्टि न नन्दयति सस्मरणीयशोभा । पुष्टप्रवास जनितान्यबला जनस् दुखान नूनमतिमात्र सहानि ॥ ॥

प्रस्तुत पद्म मे अपने पक्ष के अर्थ की सिद्धि के लिये उदाहरण प्रस्तुत किया गया है अत यहा दष्टात नामक नाटय लक्षण है दृष्टा यस्तु पक्षासामनाव निदगनम्" सा० द० प्रस्तुत पथ मे कवि ने कण्व शिष्य द्वारा ससार की परिवर्तन- शीलता का और मानव भाग्य की नियतिनियमबद्धता का वहा सुंदर वर्णन किया है और यह बतलाया है कि विवेकी पुरुष को इस परिवर्तन से प्रभावित न होना चाहिये अपितु यह समझना चाहिये कि मुल चदुल यदि वापि जन्तु देवीधीन विन्दते नात्मशक्त्या । तस्माद् देव वलव मन्यमानो न सज्वरेनापि हृप्पे वापि इसके साथ ही कवि ने प्रभात का सनिक वर्णन भी प्रस्तुत किया है।

२- शिष्य और भी, अर्थात् प्रभातकालीन कमनीयता से आकृष्टदृष्टि होकर जल मे कुमुदिनी को देखता हुआo प्रासंगिक वृत्तान्त से प्रस्तुत अर्थ को और भी स्पष्ट करता है।

अन्तहित इति अन्य मणिनि अहिले सा एवं कुमुद्यतो सस्मरणीय शोमा (सती) मे दृष्टि न नन्दयति । नूनम् जवलाजनस्य इष्टप्रवासजनितानि दुसानि अतिमात्र सहानि ( भवन्ति ।

से उत्पन्न E दामिनि अहिले चन्द्रा के अस्त हो जाने पर, सा एवं वही मनोमुग्धकारिणी, कुमुद्वतीकुमुदिनी सस्मरणीयोमा (सती) स्मरणीय शोभा वाली होकर मे दृष्टि न नयपति मेरी दृष्टि को आनन्दित नही करती है। नूनम् = वस्तुत, अचलाजनस्य स्वोजनों को इस्टप्रवासजनितानि अपने प्रियजन के प्रवास दुखानि जतिमात्र सहानि अत्यन्त असा भवन्ति होते है)

अनुवाद के अस्त हो जाने पर वही कुमुदिनी (अब) स्मरणीय शोभा वाली होकर मेरी दृष्टि को आनन्दित नही करती है, वस्तुतस्त्रीजनो को (अपने प्रियजन के प्रवास से उत्पन्न दुःख अत्यन्त असहनीय होते है

भावार्थ- प्रातः गुहांमी हुई कुमुद को देखकर शिष्य कहता है कि अब चन्द्रमा के मस्त हो जाने पर वही यह कुमुदिनी जो कि चन्द्रोदय काल में पूर्ण विकसित होकर सबके नेत्रो को आकृष्ट करने वाली और मनोकारिणी थी, अब मेरी दृष्टि को आनद नहीं दे रही है. अब इसको वह मनोहारिणी सभा केवल स्मरण की वस्तु बन गई है सच है कि स्त्रिया अपने प्रियजन के प्रवास से होने वाले दुख को बड़ी ही कठिनाई से सहन कर पानी हैं, कुमुदिनी का प्रिय चन्द्रमा अब अस्त हो चुका है, उससे दूर चला गया है अत यह जीवन रस से रहित हाकर मुझ गई है। स्त्रियाँ भी इसी प्रकार अपने प्रिय के दूर चले जाने पर जीवन रस से होकर अस नौ दुख का अनुभव करने लगती है। प्रस्तुत प्रसन म दुष्यन्त के चले जाने पर ला भी इसी प्रकार वामहस्तोपहितवदना होकर असह्य दुख का अनुभव करती हुई म्लान हो गई है।

विशेष प्रस्तुत पद्म मे चन्द्र और कुमुदिनी पर क्रमश दुष्यन्त और शकुन्त का आरोप किया गया है, अत समासोति नकार है, दृष्टिति का कारण सस्मरणीय शोभा है, अत काव्यलिङ्ग अनकार है। उत्तराध मे सामान्याच के द्वारा विशेषाम का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अनकार है। डेक, वृति, भूति अनुप्रास, प्रसाद गुण तथा वैदर्भी रीति है। साथ ही इस पथ से यह भी गुढाथ प्रकट होता है कि सकुन्तला को शीघ्र ही उसके प्रिय के पास भेजना चाहिये। इससे यहाँ तृतीय पताकास्थानक भी है। साहित्यकार ने इसका लक्षण इस प्रकार बताया है "अर्थोपक्षेपक तु तीन सविनय भवेत् लिष्टप्रत्युत्तरोपेत तृतीय मिद मुख्यते ॥"

संस्कृत व्याख्या सगिनि चन्द्र अन्तर्हिते अस्तगते सति स एव चैव मनाहारिणी, कुमुद्वती- कुमुदिनी, सस्मरणीयोमा स्मरणयोग्यशालिनी (सती) मे मम कण्वशिष्यस्य दृष्टिम् नेत्रम्, न नन्दयति न पयति । नूनम्-- अवश्यमेव अवसानस्य स्लोजनस्य, इष्टप्रवासजनितानि प्रियजनदूरगमनसमृद्- भूतानि दुखानिष्टानि, अतिमात्र सहानि अत्यतासानि भवन्तीति शेष संस्कृत सरलाय प्रात काले चन्द्रमसि व्यवहिते सरोवरे म्लानतामापन कुमुदिनीवलोक्य शिष्य कथयति कुमुदिनीनायके चन्द्र अस्तगते सति सैवेय

दिप्पणी

काम सकाम — कामदेव सफल मनोर हो अर्थात् नाम स्वभाव कामदेव अ] शकुन्तलाका दुध देखकर अपनी अभिलाषा पूरी करें, असत्यसन्धे-सन्धा प्रतिज्ञा-मूंठी प्रतिज्ञा करने वाले सी पद कारितासी शकुन्तला का प्रेम कराया है। मेवमात्रम अपि-पत्र मात्र भी एतायत कालस्य इतने लम्बे समय तक व कर्मणि ठी अर्थात् यदि दुर्वासा का शाप न होता तो वह राजर्षि अब तक क्या कुछ पत्र आदि भी न भेजता अत यह दुर्वासा का ही प्रभाव है राजा का दोष नहीं तो इस माप से मुक्ति पाने के लिये इस आम से ही नम् अभिज्ञायते अनेन अर्थात् परिचायक सुखशीले तपस्विजने सदा तप के को सहने वाले, विषय भोगो से पराre इन वासी तपस्वियों में से किससे प्रार्थना की जाय कि वह इस अंगूठी को वहाँ पहुँचा दे। व्यवसितापि— उद्यत होकर भी सत्यम् आपना ताम् अथवा प्राप्त सत्त्व यया ताम् ।

(प्रवेश करके)

या (इष के साथ सभी शकुन्तला के प्रस्थानकालिक मंगलकार्य को पूरा करने के लिये शीघ्रता करो।

२१

प्रियवदा श्रृणु इवानों मुखातिप्रच्छिका शकुन्तलासकाश गतास्मि । [सुशाहि दाणि सुहसइदपुच्छि सउन्दलासबास गदन्हि ।] अनसूया -- ततस्तत । [तदो तदो ।]

प्रियवदा तावदेना लज्जावनतमुख परिष्वज्य तातकाश्यपेनयमभि मन्वितम् । दिष्ट्या धूमाकुलितस्टेरपि यजमानस्य पावक एवाहुति पतिता । वत्से, सुशिष्यपरिवता विद्येवाशोचनीयासि सबुता अद्यैव विरक्षित त्यां सकाश विसर्जयामीति [ दावएण लज्जावणदमुहि परिस्सवितादकस्स वेण एव्व अहिणन्दिव । दिट्ठिना धूमाउलिवदिट्ठणो वि जनमाणस्स पावए एव्व आहूदी पडिदा वच्छे सुसिरसपरिदिण्णा विज्जा विष असोअणिज्जासि सबुत्ता अज्ज एव इसिरक्खिद तुम भत्तणो समास विसज्जेमित्ति ।]

[अरिंगसरण पविट्ठस्त सरीर विणा सन्दोमईए वाणिजाए।]

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लेखाः
अभिज्ञानशाकुन्तलम्
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अभिज्ञानशकुन्तलम् इति महाकविकालिदासस्य विश्वप्रसिद्धं नाटकं प्रायः सर्वासु विदेशीयभाषासु अनुवादितम् अस्ति । इयं राजा दुष्यन्त-शकुन्तलायोः प्रेम-विवाह-विरह-वियोग-पुनर्मिलनयोः सुन्दर-कथा अस्ति ।
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अभिज्ञान शाकुन्तलम् |

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अभिज्ञानशकुन्तलम्-2

16 October 2023
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अनसूया (सविस्मयम्) कथमिव ।[कह विज ।] प्रिया - ( सस्कृतमाधिस्थ) दुष्यन्तेनाहित तेजोबधना भूतये भुव । अहि तनया ब्रह्मग्निगर्भा शमीमय ॥४॥ शकुन्तला बाहुति और दुष्यन्त अग्नि के प्रतीक है अथवा शकुन्तला की

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अभिज्ञान शाकुन्तलम्-3

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सप्तमा निषिध्यते ? (शब्दानुसारेणावलोक्य) (सविस्मयम्) अये को नु सल्बयमनु- वध्यमानस्तपस्विनीम्पामवालसस्वो बाल ? अर्धपीतस्तन मातुरामदक्लिष्टष्ठेसरम् । बलात्कारेण कर्षति ॥ १४ ॥  (विस्मय के साथ) अरे, दो

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अभिज्ञानशकुन्तलम्-2

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अनसूया (सविस्मयम्) कथमिव ।[कह विज ।] प्रिया - ( सस्कृतमाधिस्थ) दुष्यन्तेनाहित तेजोबधना भूतये भुव । अहि तनया ब्रह्मग्निगर्भा शमीमय ॥४॥ शकुन्तला बाहुति और दुष्यन्त अग्नि के प्रतीक है अथवा शकुन्तला की

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