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अभिज्ञान शाकुन्तलम्-3

23 October 2023

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सप्तमा

निषिध्यते ? (शब्दानुसारेणावलोक्य) (सविस्मयम्) अये को नु सल्बयमनु- वध्यमानस्तपस्विनीम्पामवालसस्वो बाल ?

अर्धपीतस्तन मातुरामदक्लिष्टष्ठेसरम् । बलात्कारेण कर्षति ॥ १४ ॥

 (विस्मय के साथ) अरे, दो साथियो के द्वारा पीछा किया जाता हुआ, असाधारण

शक्ति सम्पन्न यह कौन बालक है। अर्धति– अन्वय- मासु अपवस्तनम् मदविकेसरम् सिहरु प्री- वितुम् बलात्कारेण पति ।

शब्दार्थमा अग्रपीतस्वनम् जिसने माता के आधे ही स्तनों का अभी दूध पी पाया है, मामदक्लिटकेसरम ( खोजने मे) रगड़ से जिसके कन्धे के बास इधर-उधर बिखर गये है, सिंह सिंह के बच्चे को खेलने के लिये, बलात्कारेण बलपूर्वक कपतिबीच रहा है।

अनुवाद जिसने अभी माता के आधे ही स्तनों का दूध पी पाया है और खीचने ने) रगड से जिसके कन्धो पर के बाल इधर-उधर बिखर गये हैं, ऐसे सिंह- शावक को सेलने के लिये बलपूर्वक सोच रहा है।

भावार्थ राजा बालक को देखकर कहता है कि इस बालक ने असामान्य शक्ति है अतएव यह उस सिह्नानक को अपने साथ खेलने के लिये बस पकड़कर अपनी और खीच रहा है, जिसने कि अभी अपनी माता के स्तनों का पूरा दूध भी नहीं पी पाया है और बलात् खीचने के कारण जिसके कन्धो के बाल इधर-उधर बिखर गये है।

विशेष स्वभावीक्ति तथा उपासालकार, पयार छन्द है।

संस्कृत व्याख्यातुमा केसरिया अधम् असम्पूर्ण यथास्यात्तथा पीत स्तन येन स तम् सम्पूणपीतस्तनविनितदुग्धम्, वामन यादपणजनितवेगेन क्लिष्टा इतस्ततो विक्षिप्ता केसरा वाला यस्य व -आदर सिंहस्य शिशुस्तम् सिंहसिन सिसायकम् प्रकीवि मनोविनोदावमिति भाव बलात्कारेण बलपूर्वकम् कर्षातिमकर्षति ।

सस्कृत सरलासपस्विनीच्या मनुबध्यमानमवाल] बालक मोक्या यता राजा यति यद् बालोऽयमासम्पन्न प्रतीयते तमतमपि सिगावकीनाथ बलादापति पेन नाद्यापि स्वमात्रशेष स्तन्य पीतमु, पस्य वाला कजनितवेगेनेो विक्षिप्ता वतन्ते ।

टिप्पणी

अवालसत्त्व --- साधारण बालक के बल से मित्र अर्थात् असाधारण शक्ति सम्पन्न । "सोवासप्रति बभूव त्या व शौचेन घिया बिया च" बुद्ध भरित इसी मान का कुमारसम्भव का यह लोक अष्टम है "गृहमद विषाणे हरवाहनस्य स्युमा केसरिण

(तत प्रविशति यथानिविष्टकर्मा तपस्विनीम्या सह बाल बाल स्वस्व सिंह, बन्तास्ते गणयिष्ये [जिम्भ सिप, उन्लाइ दे गणइस्स ।]

प्रथमा अविनीति, कि मोऽपत्यनिविशेषाणि सस्यानि विप्रकरोषि ? हन्त वर्धते ते सरम्भ स्थाने सलु ऋविजनेन सर्वदमन इति कुलना- मधेurse [अविणोद, कि जो अपव्यणिध्विसेसाणि ससाणि विप्पारेसि ? हन्त, बढइ दे सरम्भो । ठाणे मखु इसिजणेण सव्वदमणो ति दिणाममो खि]

राजा कि नु खलु वालेsस्मिन्नीरस इव पुत्रे स्निह्यति मे मतः ? मनपत्यता मा बत्सलयति ।

द्वितीया- एषा खलु केसरिणी त्वा यमिष्यति यदि तस्या पुत्रक न सि। [ एसा केसरिणी तुम लषेदि जद से पुत्तण ण मुसि ।। बाल ( सस्मितम्) अहो बलीय खलु भीतोऽस्मि (अम्हे, बलिअ क्लु भीदो म्हि ।]

(इत्यचरवति)

टाली समिण सूक्ष्मतरे मिलाप बभूव प्रमदाय पित्रो अधपतेत्यादिपद से बालक का उत्तम ध्वनित होता है, क्योंकि पहले तो एक बच्चा दूसरे बच्चे को खीच ही नही सकता, फिर भी सिंह के बच्चे का खीचना, फिर भी माता की गोद से सोचना, फिर भी स्तन्यपान करते हुये को बीच मे ही बीच सेना, फिर भी उडे आदि से नहीं बात कर सोचना, फिर मो खीच कर भाग जाना अपितु सोचते ही रहना, बालक के रकम को धोति करते है।

(तदनन्तरपूर्वोत्तानाय मे लगे हुये बालक का दो सियो के साथ प्रवेश बाल सिंह अपना मुह खोल में तेरे दान्त दिगा।

प्रथम तापसी अरे नटखट हमारी सनान के तुल्य (पत्ते हुवे प्राणियो को तू क्यों कर रहा है। मोहरा को तो वही जा रहा है। ऋषियों ने ठीक ही तेरा नाम दमन रखा है।

राजा मेरा हृदय इस बालक पर निजी पुष के समान रूपो स्नेह कर रहा है ? अवश्य ही सन्तानहीनता मुझे इस प्रकार का प्रेम करा रही है (अर्थात् ऐसा जान पड़ता है कि पुत्र न होने के कारण ही मेरे मन मे इसके प्रति यह वात्सल्य प्रेम उमड बाया है।)

दूसरी तापसी यह सही अवश्य पर आक्रमण कर देगी यदि तू इसके बच्चे को नहीं छोड़ता है।

बाल (मुस्कराकर सब तो मैं बड़ा डर गया है। (उसे चिढाने के लिये अपना अधरोष्ठ दिखाता है)


राजा-

महतस्तेजसो बीज वालोज्य प्रतिभाति मे। स्फुलिङ्गावस्थया वह्निरेघापेक्ष इव स्थित] ||१५||

राजा-

महत इति अन्यय-महूत तेजस बीवम् अय बाल स्फुलि गावस्या प्रतिभाति ।

गन्दा महत तेजस बीज बहुत बजे प्रभाव का बीज रूप अयम् बाप बालक स्कुल दावस्था एापेक्ष स्थित इव चिनगारी की अवस्था से ईधन की अपेक्षा करने वाले अग्नि की तरह मे प्रतिभाति मुझे प्रतीत

होता है।

अनुवाद व प्रताप का बीज रूप यह बालक, चिनवारी के रूप मे ईंधन की अपेक्षा रखने वाले अति की तरह मुझे प्रतीत होता है।

भावाथ उस अपूर्व शक्तिसम्पन बालक को देख कर राजा मन मे सोचता है कि यह बालक मुझे बड़े प्रताप का बीज सा ज्ञात होता है वह इस समय इसी प्रकार प्रताप के बीज रूप में वर्तमान है ओराप्त करने को अपेक्षा रखता है जैसे कि एक कप के रूप मे स्थित अग्नि को अपेक्षा करता है अवस्था प्राप्त कर यह बालक उसी प्रकार अपने प्रताप को प्रदर्शित करेगा सेक अग्नि इवन प्राप्त कर प्रज्वलित हो उठता है।

विशेष उपमा एवं अनुशास मलकार पध्यायस्य छन्द है।

कृपया यस्य प्रहास्य वीजम् उत्पत्ति- कारणम्, अय बास पुरतो विद्यमान एवं बालक स्फुलिङ गस्य स्य अवस्था दमा तथा स्कूलित गावस्पयामि, एधा काष्ठानि अपेक्षते एथापेक्ष स्थित अमेम प्रतिभातिप्रतीयते । =

संस्कृत सरनाथ वास्कुलि गोरपि काष्ठयमवाप्य प्रज्वलि भवति तथैवायमशक्तिसम्पन्न वालोऽपि कालेनावस्था शिक्षा वाप्य महान तेजस्वी. भविष्यतीति भाम ।

विप्रकरोषि परेशान करते हो स्थाने यह उचित ही है। बा जमुहाई पुग्भस्वजमुहाई तो अर्थात् मुह बोलो। अपत्यनिविशेषाणि सन्तान स्य निर्मत विशेष देभ्य तानि सुतनिविशेषम् र सम्भोष, सर्वदमन- सच दमवति सब को दबाने वाला औरसरस जात निजी बसलयति- जब प्रेम कराता है। बलीय बहुत अधिक यह व्यग्योक्ति है अर्थात् में ि नहीं करता हूँ। अधरम्ठदिखाना निन्दा या घृणा सूचक होता है। बीच- उत्पत्ति बीज स्कुलिङ्गकण, एमापेक्ष एव ईंधन की अपेक्षा रखने बाला एम. एच. लकारान्त दोनो दधन काष्ठ के वाचक है। 


प्रथम वत्स, एन बालमृगन्द्र अपर तान । [वच्छ एवं बालमिइन्दल मुख्य अवर दे कीलक्षण दाइस्स || बाल-कुबेतत् [कहि देहि ण ।]

(इति हस्त प्रसारयति ।) राजा - (बालस्य हस्तमवलोक्य) कय चक्रवतिलक्षणमप्यनेन धार्यते ?

लोम्यवस्तुप्रणयप्रसारितो,

ताहास्य- नयकपडजम् ।।१६।।

विभाति जाग्रथिताडगुल कर अलक्ष्यपत्रान्तरमिद्धरागया,

प्रथम तापसी इस सिंह के बच्चे को छोड़ दो, मैं तुझे दूसरा

दूंगी।

बालककहाँ है, यह खिलौना मुझे दो (यह कर हाथ फैलाता है)

राजा - ( बालक का हाथ देख कर ) अरे, क्यों, यह तो चकवतों के लक्षण भी

धारण करता है। क्योकि इसका

प्रलोभ्येति अब प्रशोध्यवस्तुप्रणयप्रसारित जाग्रति कर या नवोसा भित्रम् अलक्ष्यपत्रान्तरम् एक पड कजम् इव विभाति ।

शब्दार्थ — प्रलोभ्यवस्तुप्रणयप्रसारित कषणीय वस्तु (खिलौना) के प्रेम के कारण फैलाया गया, जालविवाह गुसिगाल के समान एक दूसरे से मिली ईलियो कर इसका हाथ इद्धरागमादी हुई लालिमा वाले भदोष नवीन उपकाल के द्वारा मिवम् विकसित किया गया  पान्तरम् = जिसके पत्तो का मध्यभाग स्पष्ट दृष्टिगत नहीं हो रहा है. ऐसे एक- पकम् एव एक अद्वितीय कमल के समान विभातिशोभा पा रहा है।

अनुवादकषणीय वस्तु (जिला के प्रति प्रेम के कारण फैलाया गया (और) जाल के समान मिली हुई गुलियो वाला इसका यह हाय बढी हुई लालिमा वाले नवीन उपकाल के द्वारा विकसित और जिसके पतों के बीच का अवकाश स्पष्ट दिखाई नही पढ़ रहा है ऐसे एक अद्वितीय कमल के समान गोभित हो रहा है।

माबाबालक के लिये खिलौना एक आकर्षक वस्तु होता है, उसे लेने के लिये वह अपना हाथ जाता है, राजा जान के समान मत लियो वाले उसके हाथ को] है (अंगुलिया का जान के समान एक दूसरे से मिला होना वर्ती राजा का चिह्न है उस समय उसका यह हाथ उसी प्रकार सुशोभित हो रहा या जैसाकि यह एक कमल सुशोभित होता है जो कि विशिष्ट तालिमा युक्त नवीन

 संस्कृत व्याख्या प्रलोभन या वस्तुनिकीकर प्रेम तेन सालि विस्तृत प्रलोभ्यवस्तुप्रसारित जातवद पिता परस्परसाि अँगुलयो परियन्स जानवधिता गुति अस्पत कर हस्त समृद्ध राग सौहित्य स्या स्याद्धरागया, नवा चासो उपाि तथा नदोषानवप्रात सन्ध्या भिन्नम् किञ्चिद् विकासितम्  अाणि दृश्याति पागा धनानाम् अन्तराणि अवकाश पस्मिन् तत् अनय वान्तरम् एव जम् एव एक अद्वितीयम् कमलम् इन विभाति विशोभते ।

काल पाकर विकसित हुआ हो और जिसके पत्तो के बीच का स्पष्टाया दिखाई न पड़ रहा हो।

विशेष प्रस्तुत पद्म मे उपमा कम्पनि छेक, वृत्ति, श्रुति, अनुप्रास, प्रसादगुण वैदर्भी रीति नामक है।

संस्कृत सरलाब-डीडनर मादातु लक्षणोपेग बालकस्य हस्तक् राजा सा स्वमम कथयति छीनकरपाकयकवस्तुपहार प्रसारित जातवद- प्रथिता तिरस्य कस्य करतचैव विशोभते यथा प्रतीत्येन नवोप कालेन विकासिम अतएवादृश्यान्तरमेकमद्वितीयकमल गाभामाप्नोति ।

टिप्पणी

तिलक्षणम्-जतिरिक्त करोत्य प्रविता गुतिको मृदु चापा कुणा कितोच चक्रवर्ती भवेद् ध्रुवम् सामुद्रिक शास्त्र के इस वचन के अनुसार जिसके हाथ की अंगुलियाँ जा के समान एक दूसरे से जुडी होती हैं मह वर्ती राजा होता है भवेत्" वह भी चक्रवर्ती होता प्रणय अभिलाषा जनप्रथिताह गुलालवलियो का प्रति होना मस्तुत महापराकमी होने का लक्षण है। मुद्रमरित मे भी इसी प्रकार का नमन मिलता "दस तथा महर्षि वलावनद्वाट, गुलिपाणिपादम् सौर्णध्रुव वारणव- स्तिकोश सविरमम रावत ददर्श प्रलोभप्रणम +नी+बच् प्रसारित+गित हरावाब- प्रमृद्ध या समृद्ध बढी हुई राग अर्थात् राग अर्थात् सानिमा उपकाल मे स्वाभाविक समृद्ध तालिम होती ही है। नयोषा नवीन उषाल की प्रथम किरणो द्वारा उपसुन्दस्वी और नकल, दोनों में प्रयुक्त होता है, उस काल को नूतन किरणों से कमल विकसित होने लगता है पर सूप फिरणों से वह raur refer हो जाता है, जालपति गुलियो वाला यह हस्तकमल भी चिद ही विकसित था, यही कारण था कि उसकी पडियों के बीच का अवकाश स्पष्ट दृष्टिगत नहीं हो रहा था जैसे कि हाथ की अंगुलियों के संचित होने के कारण यो के बीच का अवकाश स्पष्ट दिखलाई नही पद रहा था, पत्रको प तो काल की रक्तिमा से आरक्त भी पर बालक की अंगुलियों स्वाभावत भारत श्री, एक अद्वितीय या अनुपम कमल बालक ने भी एक ही हाथ फैलाया


 एव बाचामात्रेण विरमयितुम् ।

 गच्छ स्वम् मदीये उटजे मार्कण्डेयस्यविकुमारस्य वर्णचित्रितो मृत्तिकामयूर- स्तिष्ठति तमस्पीहर [सुब्वदे ण समको एसो बाजामेण विरमाविदु, गच्छ तुम ममकेर उडाए मक्कटेअस्स इसिकुमारअस्स वण्णचित्तियो मितिमा मोरओ चिट्ठदि त से उवहर।]

प्रथमा - तथा। [ तह ]

( इति निष्कान्ता)

बाल अनेनैव तावत् क्रीडयिष्यामि इमिणा एव्व दाव फीलिस । ]

 (इति तापसों विलोक्य हसति ।)

राजा स्पृहयामि खलु दुर्ललितायास्म- आयदन्तमुकुल मनिमित्तहास- रव्यक्तवर्णरमणीयवच प्रवृत्तीन् ।

 अङ्काश्रयप्रणयिनस्तनयान् वहन्तो, धन्यास्तदङ्गरजसा मलिनीभवन्ति ॥ १७॥


या जो कि अनुपम था। हाथ का फैलाना ही कमल का विकास या अयान्तरम्

अन्तर का पूर्ण विकासाना के कारण अत्तर अलक्ष्य था पर बालक के हाथ

की मंगुलियों के प्रति होने से उनके बीच का अवकाथा वस्तुनि की यह पूर्ण उपमा है। राग र मन्त्रभिदिर्क्त । दूसरी तापसीता ( यह प्रथम तापसी का नाम है) यह केवल कहने मात्र से रोका नही जा सकता है (अ) तुम जाओ, मेरी ऋषिकुमार माकण्डेय का रंग से रंगा हुआ मिट्टी का मौर रखा है, उसे इसके लिये ले जाओ। प्रथम तापसी इच्छा (यह कह कर चली जाती है)

तब तक मैं इससे ही लूंगा।

तापसी को देख कर हँसता है

राजा इस नटखट बालक को वस्तृत बहुत चाहता हूँ। बालभ्येति अनिमित्तहास आलश्ववन्तमुकुलान प्रवृती, अडकाय प्रणयिनना बहुत धन्या त गरजा मलिनोभवन्ति ।

शब्दाच अनिमित्तहारी महारण हँसने से लक्ष्यदन्तकुला जिनके दाद रूपी अंकुर कुछ दिखाई पड़ने लगते हैं, अव्यवणरमणीय प्रवृत्ती अस्पष्ट वर्णों के कारण जिनका बोलना मनोरम प्रतीत होता है। अणविनोद मे रहने के लिए इतना वहन्त पुत्र को गोद में धारण करने वाले, धाभावादजन ही दरजा उनके शरीर की पूति से, मलिनी भवन्ति मलिन होते है। 


अनुवादकारण से कुछ कुदलाई है और अस्पष्ट वर्णोचारण के कारण ( तोतली बोली के कारण) जिनका बोलना मनोरम लगता है तथा जो मे रहने के इच्छुक रहते है, ऐसे पुत्री को गो मे धारण करने वाले भाग्यवान लोग ही उनके शरीर की धूल से मजिन होते है।

भावाथ वस्तुत नहीं लोग कहे जाते है जो कि अपने उन बच्चों को गोद में खिलाते हुये उनके शरीर की धूलि से अपने को मन करते है, जिनके कि कारण हँसने से कुछ कुछ दात दिखाई पड़ने लगते है तथा सोली बोली के कारण जिनका बोलना awr fप्रय लगता है तथा को गांव में चडने के लिये उत्सुक ब रहते है।

कवि का बाज स्वभाव चित्रण और उसके द्वारा जिनका अम्मा मनोहर सोवन अत्यन्त सुंदर है, बाल से तय पर पड़ने वाले प्रभाव का यह सूक्ष्म निरीक्षण कवि की मानव हृदय की ममता का है।

विशेष—यहाँ प्रस्तुत जालान कर समा किया गया है अत अप्रस्तुत प्रशसाकार है ता मुकुलनीय मे समासगा सुप् मलकार है, स्वभाव का वर्णन होने से स्वभावोति अलकार भी है। ऐसे ही होते है पर मैं अन्य हूँ इस सत्य से या भी है। छे, वृत्ति, श्रुति, अनुप्रास बसला नामक छन्द है।

संस्कृत व्याख्या अनिमिता अकारणा में हस्तै अनिमिलहारी कारण विनैव हास्यकरणे आलक्ष्याणि ईन लोकनीयानि दन्ताना- लक्ष्यदन्तमुकुलानि aक्षराणि बासु ता अध्यकवर्णा मया मनोरा वचसा प्रवृत्तय] [यापारा येषाम् तान्तरणरमणीय प्रवृत्ती अब के कोटे आलय निवास रात्र अमिन प्रेम अभिलाषिण अनि नापुषान् बहुतायत सीमान्त वा नानाम अङ्ग शरीरावयव रज मूर्ति तेन रजसा तनयवारीरावयवधूच्या मतिनी भवन्ति भवन्ति ।

सस्कृत सरलार्थ — वस्तुतस्त एवं सुकृतिनो धन्या मे तादुणान् स्वकीयान् पुत्रान् स्वोटे धारयन्त] तहरीरावयवता आत्मान कलुषी कुन्ति ये कारण विनैव हास्यकरणं दृश्यन्कुल एवं स्पष्ट वर्णोचारणरमणीयाव्यापारा अपन पाणि सन्ति ।

टिप्पणी

बाचामायण – बहने मात्र से, "मारिस ग चालताना दाबाचा निना दिया" इस उक्ति के अनुसार यहाँ सन्त पाषु शब्द के आपू मादा प्रत्यय है। वृत्तिकामपुर इससे ज्ञात होता है कि कानिवास


तापसी भवतु न मामय गणयति ।

 (पामवलोक्य) को ऋषिकुमाराणाम् (राजानमवलोक्य) भद्रमुख एहि तावत् मोचयानेन हस्तग्रहेण डिम्भलीलया बाध्यमान वालमृगेन्द्रम [ हो ण म अ गणेदि को एत्थ इसिकुमाराण, भदमुह, एहि दाब मोएहि इमिणा दुम्मो हत्या डिम्भलीलाए वाहीनमाण बालमिइन्दन ।]

राजा - (उपगम्य ) ( सस्मितम्) अयि भी महषिपुत्र ।

सयम किमिति जन्मतस्त्वया ।

चन्दन ||१८||


के समय मिट्टी के खिलौने अधिक प्रचलित मोदी ने भी मूत्तिका मयूर का उल्लेख है। मुच्छकटिक में मिट्टी की गाय का दुललिताय दृष्ट सनित यस्य तस्मै, प्रसन्न करना कठिन है, सम्भवत हिदी का दुलारा शब्द इसी का विकृत रूप है। स्पृहयामिस्पृह धातु के योग मे स्रीक्षित से चतुर्थी अनमितहारी- अविद्यमान निमित्त येषान् अमिता साह पर अती तृतीया रमणीय रम+अनीयर् प्रणयन प्रणय त गत्यर्थे गिनि । afrat भवन्तमसिन+बि+भू+ टकटक का यह श्लोक भाव साम्य के लिये प्रष्टव्यम् इद तस्मादखियो अचन्दनमनौशरीर हृदय स्यानुलेपनम्।"

तापसी अच्छा, यह मुझे नही मिलता है अर्थात् मेरी बात नहीं मानता है। अपने  में देखकर) क्या यहाँ कोईऋषिकुमार है ( राजा की और देकर) मल र आइये और बालकीहा के द्वारा सताये जाने वाले इस सिंह- शावक को कठिनाई से छुडाने जाने वाले इस बालक के हाथ की पकड़ से छुडाये

राजा - ( पास जाकर मुस्करा कर) हे महषि पुत्र

एवमिति अग्वय एवम् आश्रम विषय पूतिना त्वया जन्मत अपि समम कृष्णपशिता चन्दन इव किमिति दृष्यते ।

शब्दार्थ एवम् इस प्रकार आश्रमविरुद्धवृत्तिना त्वया आश्रम के विरुद्ध आचारण करने वाले तुम्हारे द्वारा जन्म जन्म से ही समसुख प्राणियो के बाय के लिये सुखकर वो सयमसमाशीलता कृष्णपशिशुना चन्दन इसके बच्चे के द्वारा चन्दन की भाति किमिति स्मो प्य दूषित किया जा रहा है। =

अनुवाद इस प्रकार आश्रम के विपरीत आचरण करने वाले तुम्हारे द्वारा जन्म से ही सभी प्राणियों के आश्रय के लिये सुख कर भी क्षमाशीतादि नियम, काले राप के बच्चे के द्वारा चन्दन वृक्ष की तरह क्यो दूषित किया जा रहा है।

भावार्थ राजा बालक से कहता है कि है महर्षिपुत्र, म के विपरीत आचरण कर तुम आश्रम के उस क्षमतादि नियम को, जिसके कारण सभी जीव यहाँ मुखपूर्वक निवास करते है, उसी प्रकार दूषित कर रहे हो जैसे कि काका बच्चा च वृक्ष की दूषित कर देता है। ऐसा करना उचित नहीं अर्थात् यहाँ के जीवों को सताना आश्रम नियम के विरुद्ध काम है जोकि तुम्हे नहीं करना चाहिये।

विशेष प्रस्तुत पथ मे पूर्णपमालकार है तथा रमोदतानामन्द है "रा परं नरतमै रथोद्धता" ।

संस्कृत व्याख्या एवम् अनेन प्रकारेण आश्रमस्य तपोवनस्य विरुद्धा विप- रीता वृत्ति  माचरण यस्य तेन वृत्तिमा स्वयपालन जन्मतायादेव सरवाना वन्यजीवानाम् मध्याय समुख निवासाय सुलकर-  अपि सप क्षमाशीलतादितपोवनोचितनियम कृष्णववासी सप स्वस्थ शिशुस्तेन कृष्णपरिसुना, बन्दनमल मुझ न किमिति केन कारणेन दृष्यते । =

स्कृत सरलार्थ राजा कथयति-यथा कृष्णदेव सजीव  चन्दन स्वगरलेन दूषयति तचैव त्वमपि तपोवन नियमविप चैताचरणेन जीवविमदनरूपेण कमणानेन जीवाचयसुखावह अमाशीलताचाथम नियम यस कि त्वमेव तपोवननियमविरुद्धाचरण करोषोत्य न वेदम पर मस्त कर्मानुष्ठानमनुचितम् ।

टिप्पणी

भमुख भने मनुष्य सुन्दर आकृति वाले पुरुष दुहस्तदु सेन मुञ्चत्तमिति दुर्गापुर मुम् इत्यादिना सन् (भ) प्रत्यय प्रत्यये कृते मात्र कृत्य सम्भवति तदुमक इति पाठ न समीचीन हस्तेन ग्रह हस्त गृह प्रत्यादिना हस्तग्रहपू (अ) प्रत्यय दुर्गेच हस्तग्रह यस्य न सवसथमगुण] [] [सत्त्वाना समवाय सुखयति अथवा सत्वाना व समय तेन सुखति । इस पद का चयन और समय दोनो के साथ होगा, चन्दन के साथ इसका होगा व वर्षातु सत्वगुण त्यादिप्रद, सजादादि पर धारण करना उसे सुखसुखकर अर्थात् पन्दन के होने से ललाट पर धारण करने से जो सुलकारी है मस्तुत चन्दन शब्द का प्रयोग सामान्यत नपुंसकलिङ्ग मे होता है किन्तु 'मन्दनोऽस्त्रियाम्' इस कोश वचन के अनुसार यह पुल्लिङ्ग भी है, और सयम के साथ चन्दन प्रयोग ही यहाँ ठीक भी है। यहाँ जात्यादि से विशिष्ट बालक का कृष्ण सप उपमान कुछ खटकता अवश्य है पर वस्तुत वहाँ यह उपमान सामान्य बालक का नही अपितु आश्रम नियम विपरीताचारी बालक का है अत कोई अनचित्य नहीं है।


तापसी- भद्रमुख न खल्वयमृषिकुमार [भमुह, ण क्लु अअ इसिकुमारखो।] राजा - आकारल्या चेष्टितमेवास्य कथयति । स्थानप्रत्ययात्तु


(यादितमनुतिष्ठन् बालस्पर्शमुपलभ्य ) (आत्मगतम्) अनेन कस्यापि कुलाङकुरेण, स्पृष्टस्य गात्रेषु सुख मर्मव का निति चेतसि तस्य कुर्याद

= शब्दार्थस्यापि कुलाव दुरेण अनेन किसी भी बस के अस्वरूप इस बालक के द्वारा स्पृष्टस्य मम गात्रेषुस्पष्ट किये गये मेरे शरीरावयवों में एवं सुखम् इस प्रकार सुख हो रहा है। मस् कृति का जिस भाग्यवान को गोद से यह उत्पन्न हुआ है, तस्य चेतसि उसके मन मे काम नि सिम् कुर्यात् किस प्रकार का अविचनीय आनन्द करता होगा।

तापसी भद्रमुख यह नहीं है। 1

राजा आकृति के समान इसकी चेष्टा ही यह कह रही है। (फि यह कुमार नहीं है, साक्कादन] ऋषि कुमार का काम नहीं हो सकता) किंतु इस स्थान के विश्वास के कारण मेने ऐसा अनुमान किया था।

(तापसी ने जैसा कहा था उसी के अनुसार काम करते हुये, अर्थात् मालक में हाथ से सहायक की छुटा हुये) बालक का स्प प्राप्त करके ( मन ही मन ) अनेनेति अन्य कप कुमार कुरेण अनेन स्पृष्टस्य मम एव सुखम् प्रस्य तस्य चतेति काम निवृत्तिम् कुर्यात्।

अनुवाद किसी भी बम के स्वरूप इस बालक के द्वारा स्पष्ट किये गये मेरे शरीरावयवों में (जबकि ऐसा मुल हो रहा है (व) जिस भाग्यवान की गोद से यह उत्पन्न हुआ है, उसके मन मे किस अतिय आनन्द को उत्पन्न करता होगा।

बालक के स्पर्श से आनन्दाभिभूत होकर राजा सोचता है कि जबकि मैं इसके गास्पा से इतना अधिक आनन्द प्राप्त कर रहा हूँ, जबकि मैं यह भी नहीं जानता कि यह कह का बालक है, तब वस्तुत  भाग्यवाद का यह औरस बालक होगा उसके तो जिस से यह न जाने कितना आनन्द नहीं उत्पन्न करता होगा।

विशेष राजा के स्पजन्य सुखानुभव से पिता का सुखानुभव बतात होता है अत अत्ति अलकार है। कुलाह कुरंग में रूपक बनकार है। छेक वृति, श्रुति अनुप्रास प्रसाद गुण, द रीति उपजाति छन्द है।

तापसी (उभी निर्व) आश्चर्यमाश्चर्यम् अच्छर अच्छर ] राजा आयें, किमिय १

तापसी अस्य बालकस्य तेऽपि सवादिन्याकृतिरिति विस्मिताऽस्मि । अपरिचितस्यापि प्रतिलोम सवृत्त इति। [इस्स वालare देव सवादिणी आदि ति विन्हिदम्हि अपरिदस्स वि दे अपलोमो सबुतोति ॥

संस्कृत व्याख्याकस्यापि वक्त मशक्यस्य जनस्य कुलाह कुरेणरोह- स्वरूपेण, अनेनपुर स्थितेन बालकेन स्पष्टस्य प्राप्तस्य ममदुष्यन्तस्य गात्रेषु =ब्रड गेषु, एवम सुखम्प्रतियचनीय सुखम् भवति (तथा) यस्य कृतिन यस्य भाग्यशालिनी जनस्य कागद वा संजात, तस्य चेतसि तस्य जनस्य मनसि काम् अनिवनीयाम् निवृति जन्मदात् इति न शक्यते उक्त मिति भाव

सस्त सरलाय राजा मन चिन्तयति यमस्य जालस्य  निर्वाच्य मानन्दमनुभवामि तहि भाग्यवान् पुरुषपुत्र कीदशमानद सानुभविष्यति स तु चिर परमानन्दममाद मवाप्स्यति

स्थानत्वात यह ऋषियों का आम है अ यह बालक ऋषिकुमार ही होगा ऐसा विश्वास होने से कुलिन कृती पुण्यात्मा भाग्यशाली राजा का आशय है कि निसन्तान होने से में है। यह उत्पन्न हुआ। इसमे पुजानन का सुन्दर वर्णन किया है। इस सुख के विषय में अन्य कवियो की सूक्तियाँ भी है। तमहकमारोप्य शरीरयोग सुनिधिचन्तमिवामृत [[चि रघु मलपादन] जातमविनीत सन्नि गिगोरासिङ्गन तस्मान्द नादधिकभवेद महाभारत में बाया न रामाणा नापा स्पर्शस्तथाविध शिशोरा- fe यमानस्य tow सूनोमचा सुल पुत्रस्यादि सुतर स्पर्श लोके न महाभारत स्पृष्टस्य पृणु कृतस्यास्तीति कृती तस्य कृतिन इनि । निवि-निर्वृतिन् ।

तापसी ( दोनों को देखकर आलम है, आलय है।

राजा माननीया, क्या आश्चय है।

तापसी इस बालक की और आपकी आकृति मिलती-जुलती है, ये मैं आश्वयचकित हो गई है। अपरिचित भी आपके यह अनुकूल हो गया है अर्थात् आपका कहना मान गया है।


राजा - (बालकमुपलालय) न चेन्मुनिकुमारोऽयम् अथ कोय व्यपदेश ?

तापसी पुरुवश [ पुरुवसो ।)

राजा - (आत्मगतम) कथमेकान्बयो मम अत खलु मदनुकारिण-

मैनमभवती मन्यते अस्त्येतत् पौरवाणा मन्त्य कुलव्रतम् । मूलानि गृहोभवन्ति तेषाम् ॥२०॥

 (प्रकाशम्) न पुनरात्मगत्या मानुषाणामेष विषय ।

भवनेषु रसाधिकेषु पूर्व क्षितिरक्षा शन्ति ये निवासम् ।

निवर्तकपतिव्रतानि पश्चात्

राजा - ( बालक को प्यार करते हुये ) यदि यह ऋषिकुमार नहीं है तो इसका

बम क्या है।

रावा (मनसे) क्या बात है कि इसका और मेरा व एक है। इसीलिये यह तापसी इसको मेरे समान आकृति वाला मान रही है किन्तु पुरुवी राजाओ का तो यह अतिम कुलयत है।

पतिव्रतानि मूलानि गृही भवन्ति ।।


जो लोग पहले अर्थात् पुवावस्था में क्षितिरक्षायन पृवियों की रक्षा के लिये रसाधिकेषु भवनेषु ऐहिक भोगो से परिपूग भवन में, निवासम उगन्ति निवास करना चाहते है पस्चात् वमेतेषा उनके निपतितानि एक नियमधारिणी पतिव्रता पत्नी बाजे राति =

वृक्षो के प्रदेश ही भवन्तिर होते है। अनुवाद जो (पुरुवशी) राजा महते अर्थात् युवावस्था में पृथिवीपालन के

लिये ऐहिक भोगो से परिपूर्ण राजधासादो मे रहना चाहते है, उनके पश्चात् वृद्धावस्था के तल प्रवेश हो पर बनते हैं जिनमें केवल एक नियम परायण पति पत्नी रहती है।

अन्यत्र यततानि मी पाठ है, वहाँ इसका अर्थ है जिनमें नियमित रूप से एक पति अर्थात् मानप्रस्थ व्रत का पालन किया जाता है। किन्तु पहला पाठ ही, प्रानुकूल एवं तदर्पितकुटुम्बभरेण सार्धं शान् करिष्यसि पद पुनराचमेऽस्मिन् इस कथन के अनुकूल भी होने के कारण ठीक है।

राजा मन मे सोचता है कि ऐसे बाघमो मे तो कोई पुरवी राजा अपनी द्वावस्था मे ही केवल एक तपोनियमचारिणी पत्नी के साथ आकर तप करता है, अत उससे सतान की सम्भावना नहीं हो सकती और युवावस्था ने कोई पुरु

5 रम स० गु० गु०

क्षितिर जा

राजा यहाँ आफर सपत्नीक रह भी नहीं सकता, इस देवस्थली मे मनुष्यों का आत्मगति से आना सम्भव नहीं है, तो फिर यह पुस्वी बालक कैसे हो सकता है पुरुवी राजाओ का यह रहा है कि वे मुवावस्था मे तो पृथिवी का पालन करने के लिये भीष्मपूर्ण राजप्रासादो मे रहते हैं और जब वे बुद्ध हो जाते है तब अपनी सन्तान को राज्यभार सौंपकर केवल एक तपोनिधमती पतिव्रता पत्नी के साथ ऐसे आश्रमो मे आकर बुक्षों के नीचे वास करते है, अत इस बालक का पुख्वशी होना सम्भव नहीं जान पड़ता ।

विशेष- 'तरुमूलानि गृही मलहन्ति मे तरमूली पर महत्वका आरोप प्रकृतोपयोगी है, बत परिणामालकार है, किन्ही सापायों ने यहाँ व्यस्त रूपक भी माना है, अनुप्रास, औसिक नामक छन्द है। इसका लक्षण--

ताश्च समे स्युन निरन्तर " जिस छन्द के विषम चरण में छमात्राओं के बाद एक रंग तदन्तर एक लघु तद दो गुरु बम हो यह कि अर्धसमवृत्त कहा जाता है।

६ मात्राये

गण गु०० सान्ति ये निवास

अवनेर साधिकेषु पूर्व

संस्कृत व्याख्या वे परवा पूर्व प्रथमम् दुवावस्था क्षितिरक्षायम् पृथिवी पालनायम् से ऐहिकसरी राधिकेषु अवनेषु राजप्रासादेषु निवासम् अवस्थानम् उशन्तिवान्ति पश्चात् बाधक इत्यम, नियता तपोनियमवती एका केवला पतिव्रता धर्मपत्नी येषु तानि-- निवर्तकपतिव्रतानि तरुगाम मूलानि तरुमूलानि तपोवनवक्षतलानि लेशम पुरुशीयानाम् राजाम, गृही भवतिगृहाणि सम्पद्यन्ते । =

संस्कृत सरलाय पौरवा नृपा स्वयौवनकाले पृथिवीभरणाय भोग् [[पदार्थादयेषु राजप्रासादेषु निवास वाञ्छन्ति से एवं बाधके एकया तपोनियम पल्या सह तपोवनाश्रम मानस्य तस्तलेषु स्वनिवास स्थान स्वमन्ति ।

प्रकाशमिति (ट) किन्तु यह स्थान मनुष्यो को अपनी शक्ति से प्राप्त नही हो सकता, अर्थात् कोई भी मनुष्य अपनी शक्ति से इस स्थान तक नही पहुँच सकता है।

टिप्पणी

सवादिनी रावदतीति सम्बद्+ मिनि डीपु मिलती-जुलती। अप्रतिलोम – प्रतिगत लोमानि प्रतिलोम प्रतिलोम अचप्रत्यन्वव० इत्यादिना अच् प्रत्यय ततमत्व अ प्रतिलोम अर्थात् प्रतिकूल प्रतिलोम अप्रतिलोम अनुकूल उपाय पौरादिक धम्माल पच वर्षा उपदेशयदिश्यतेऽनेनेति एवम एक अन्य वश यस्य स । फुलवतम् परम्परा या कुल प्रथा रसाधिकेषु रसो गधरले स्वदे विपरागयो, गारादौ वे बी पालम्बुदारद" इस कोश के अनुसार सका


तापसी पथा भद्रमुखी भणति अप्सर सबन्धेनास्य जनन्यत्र देव-

गुरोस्तपोधने प्रसूता [जह भमुद्दो भणादि अरासयन्ये इमस्त

जगणी एत्थ देवगुरुण तवोवणे प्पदा ।]

राजा - (अपवार्य) हरत, द्वितीयमिदमाशाजननम् (प्रकाशम्) अय सा तत्रभवती किमान्यस्य राज पत्नी ? ?

तापसी - कस्तस्य धर्मदारपरित्यागिनो नाम सकीर्तति चिन्तयिष्यति [ को तरस धम्मदारपरियानो नाम सकीतिदु चिन्तिस्सदि ]

राजा (स्वागतम् ) इय खलु कथा मामेव लक्ष्यीकरोति। यदि  नामत पृच्छामि अथवा अनायं परदारव्यवहार ।

(प्रविश्य मृण्मयूरहस्ता

यहाँ राग गारादि रस, मधुरादि रस एवं रसास्वाद भी है। अधिकाि उत्तमानि येषु तेषु रस्य ते इति रसा अधिकेषु उसमे लायेषु या क्षितिरक्षाथम्- इससे ध्वनित होता है कि राजा का भोगविलास करना आनुवनिक मात्र था पृथिवी पालन ही मुख्य था जैसा कि कवि ने रघुवश मे कहा है असक्त मुलभू विपणाम वाधके मुनीनाम्। उपान्ति कान्ती, काति का अ इच्छा है। नियतपतिव्रतानि प्राचीनकाल मे वानप्रस्थान में प्रविष्ट होकर तत्कालीन राजा व वक्ष के नीचे कूटिया रहा करते थे, उस समय उनके साथवी धर्मपत्नी ही साथ रहती थी उमना भी परित्याग कर देते थे जैसा कि माश्वस्य ने कहा है- ''पुत्रेषु दारान् निक्षिप्य न गच्छेद स वा" कवि ने 'सहैव वा' के अनुसार रक्त मे कहा हैमुनिवनतरुच्छाचा तया सह शिथिये।" महीभवन्ति प्रगृहाणि गृहाणि भवतीत्यर्थे प्रत्यय गति से विषय प्राप्य स्थान दुष्यन्त भी ऐवर पर चढ़कर ही वहाँ पहुँच सका था केवल अपनी शक्ति से नहीं।

 जैसा कहते हैं, ठीक है। किंतु अप्सरा मेनका के सम्बन्ध से इसकी माता ने इस देवगुरु मारीच के आधम में इस बालक को उत्पन्न किया है।

राजा - (एक और मुह फेरकर) ओह यह एक दूसरी आशाप्रद बात है।  अच्छा तो यह श्रीमती किम नाम के राजा की पत्नी है। तापसी का परित्याग कर देने वाले उस ( राजा का नाम

का उच्चारण करने के लिये भी कौन सोचेगा।

राजा - (मुस्कराहट के साथ) यह कहानी तो वस्तुत मुझे हो लक्ष्य करती है। तो अब इस की माता का ही नाम पूर्ण अथवा परस्त्री के विषय में बातचीत करना अष्टव्यवहार है।

(मिट्टी का मयूर हाथ मे लिये वापसी ने प्रवेश करके)


तापसी सर्वदमन, शकुन्तलावप्य प्रेतस्व [सव्वदमण, सन्दलावरण

पेनख ।]

बाल (सरष्टिक्षेपम्) कुत्र वा मम माता [कहि वा मे अज्जू ?] उने नामसाध्येन चचितो मातृवत्सल ।

 [णामसारिस्तेष वचिदो

मावच्छलो ।]

द्वितीया परस, अस्य मृत्तिकामरस्य रम्यत्व पहयेति भणितोऽसि । [छ, इस्स मित्तिक्षामोरअस्स रम्मत देख ति भणियो सि ॥] राजा - (आत्मगतम्) किं वा शकुन्तलेत्यस्य मातुराख्या सन्ति पुनर्नामधेयानि अपि नाम मृगतृष्णिव नाममात्र प्रस्तावो मे विषादाय

कल्पते । बाल-मात रोचते म एष भद्रमयूर [अजुए सेबदि मे एसो

भोर ।]

(इति क्रीडनकमावले 1)

तापसी संवदमन पक्षी के सौन्दर्य की ओर देखो (वस्तुत तापसी का तात्पय था कि तुम इस पक्षी की सुन्दरता (पक्षी लावण्य सुन्दरता को देखो, किन्तु बालक (शकुन्तला बगरको) देखो, यह कर कहता है)।

बालक (इधर-उधर दृष्टि डाल कर कहाँ है मेरी माता ?

दोनों तापसी नाम को समानता के कारण मातृप्रिय (यह बालको मे

पंज गया है।

दूसरी तापसी पुत्र मैंने तुमसे यह कहा था कि इस मिट्टी के मोर की 1 रमणीयता देखो।

राजा - (मन में तो क्या इसको माता का नाम मत है किन्तु नामो मैं भी तो समानतायें रहती है (अर्थात् एक ही नाम के व्यक्ति भी तो होते हैं, हो सकता है कि नाम की यह कोई दूसरी स्त्री हो अथवा यह भी सम्भव है कि मरुमरीचिका की तरह (शकुन्तला ) का नाममा का कवन मेरे लिये दुध का कारण बन जाये, अर्थात् मैं कुन्तला के नाम माथ को प्रण कर भ्रम में पड़ कर दुख का अनुभव कहे।

बालक माता, वह सुन्दर मयूर मुझे अच्छा लगता है। (यह कहकर खिलौना से लेता है

टिप्पणी

अप्सर सम्बन्धेन तापसी का तात्पम है कि इसकी माता का मेनका नामक एक अप्सरा से सम्बन्ध है, अतएव इसकी माता यहाँ आई और उसने यही पर इस बालक को जन्म दिया, इस प्रकार यह बालक यहाँ पहुंचा है। प्रसूता

प्रथमः -- ( विलोक्य सोवेगम्) अहो, रक्षाकरण्डक मस्य मणिबन्धे "मुश्यते। [अम्हे, रक्खाकर से मणिबन्थे ण दीसदि । ] । राजा असमावेगेन । नन्दिदमस्य सिंहशावकविमत् परिभ्रष्टम् ।

(इत्यादातुमिच्छति ।) उमेमा सत्वेतदवला-कथम् ? गृहीतमनेन [मा क्खु एव बिग महीद शेण ।]

(इति विस्मादुरोनिहितहस्ते परस्परमवलोकयत ।) राज्य - किमर्थ प्रतिषिद्धा स्म १

द्वितीय-पहली बात तो यह थी कि यह बालक पुरवणी है और

 दूसरी बा] बात यह हुई कि इसकी माता का सम्बन्ध एक अधारा से है राजा यह पहले से ही जानता था कि मुला विश्वामित्र से सम्बन्ध होने के कारण मेनका से उत्पन्न हुई है।

मंदारिया जो मत परिणीता पत्नी का अकारण परित्याग करता है वह पापी माना जाता है, ऐसे पापों का स्पर्श करना या उससे बात करना अथवा उसका नाम लेना भी पाप कर्म समझा जाता है अतएव वह उसका नामोच्चारण भी करना नहीं चाहती थी। मामेव सवधी करोतिथ मेरे ही उद्देश्य ने कही गई है। अना - इससे कालिदासकालीन सामाजिक शिष्टाचार का पता चलता है जबकि परस्पी के विषय मे बातचीत करना भी अशिष्ट व्यवहार समझा जाता था, इससे राजा की उच्च सिता का भी ज्ञान होता है। शकुन्तलाय प्राकृत भाषा ने और व दोनों का ही होता है, बालक ने वर्ण का aण अर्थ नेकर प्रश्न किया या जबकि तापसी का तात्पय वधम् या लावण्यम् कुतावणम। यह कवि का प्राकृतामा का जान सूचित करता है कि उसने ऐसे इक सन्य का प्रयोग किया है। मातृप्रिय अथवा मातृभक्त नाममात्रस्ताब - नाम मात्र का प्रथम या प्रयोग इसमे मूल वोति है और इसके क होने के कारण यहाँ पताका स्थानक भी है। वर्षो वचन विन्यास मुश्लिष्ट काम्ययोजित प्रधानमन्तिरापेक्षी पताका स्थानक परम्" सा० द० ।

दिल के साथ ओह, रक्षा सूत्र इसकी कलाई पर (मन्नि स्थान नहीं दिखाई पड़ रहा है। राजा-मबढाइये नही इसके द्वारा सिंह के बच्चे के साथ सघर्ष करने के

कारण वह यहाँ गिर पड़ा था। (यह कह कर उठाना चाहता है दोनों तापसी नेता क्या? क्या इन्होने तो उठा ही लिया? (इस प्रकार विस्मरण, अपने वक्ष स्थल पर हाथ रखे हुये एक दूसरे को रेने लगती है)

राज्य- आपने हमे क्यों (उठाने से) है?

प्रथमा-भृणोतु महाराज एवापराजिता नामौषधिरस्य जातकर्म- समये भगवता मारीचेन दत्ता एतां किल मातापितरावात्मान व वर्ण- facesपरो मिपतितां न गृह जाति [सुणादु महारायो । एसा अवराजिदा णाम मोसी इमey जातकम्मसमए भगवदा मारीएण दिण्णा एद किल मादापिदरी अप्पाण अ वज्जिन अदरो भूमिपदि न गेहनादि । ]

राजा गृह, नाति १

प्रथमा -- ततस्त स मृत्वा बनति तदो त सप्पो मविज दस । ]

राजा भवतीभ्यां कदाचित् प्रत्यक्षीकृतविक्रिया ? उमे अनेकशः। [असो] राजा - ( सहर्षम् आत्मगतम्) कचमिव सम्पूर्णमपि मे समोरचं नाभिनन्दामि ?

(इति बाल परिष्यते ।) द्वितीया- सुखते, एहि इम वृतान्त नियमव्यापृतायं शकुन्तलाये निवेदया। [सुब्वये, एहि इम दुतन्त जिम्बाबुडाए सन्दलाए म्हि |]

(इति निष्कान्ते ।)

बाल मुञ्च माम् । यावन्मातुः सकाश गमिष्यामि [मुच म । जाब मस्स ।]

राजा पुत्रक, मया सहेब मातरमभिनन्दिष्यति ।

प्रथम तापसी सुनिये महाराज यह अपराविता नाम की औषधि इस बालक

के जातकम के समय भगवान् मारीच ने दी थी। इस बौषधि को माता पिता और अपने आपको छोड़कर अन्य कोई व्यक्ति पृथिवी पर गिरी हुई इसको नहीं उठाता है।

राजा अगर उठा लेता है तो ?

प्रथम तापनी तो यह मप बन कर उसे काट लेती है। राजा-क्या आप दोनो ने कभी इसका इस प्रकार का विकार देखा है,

अर्थात क्या कभी बाप लोगों ने इसका सप बन कर काटना देखा है ? दोनों तापसी अनेक बार

राजा - ( पूर्वक अपने मन मे तो फिर क्यों न मैं अपने पूर्ण हुये भी मनोरथ को अभिनन्दित न करूँ।

(यह कहकर बालक का बालिङ्गन करता है)

दूसरी तापसी आओ, नियम पालन में तत्पर शकुन्तला को यह समाचार बतलायें।

( यह कहकर दोनो का प्रस्थान )

बालक मुझे छोडिये में अपनी माता के पास जाऊँगा।

राजापुर, मेरे ही साथ अपनी माता का अभिनन्दन करना।

बाल-मम खलु तातो दुष्यन्त न त्वम् [नम क्खु तादो दुस्सन्दोण तुम ।]

राजा - ( सस्मितम्) एष विवाद एवं प्रत्याययति ।

(तत प्रविशत्येकवेणीधरा शकुन्तला )

शकुन्तला - विकारकालेऽपि प्रकृतिस्था सवदमनस्यौषधमुत्वा न मे आशाssसीदात्मनो भागधेयेषु अथवा पया सानुमत्याsssयात तथा सभाव्यत एतत् | [विआरवाले वि पकिदिरम सव्वदमणस्स आह सुनिल ण मे आमा आसि अत्तणो मामहेएस अहवा जह माणुमदीए आचविद तह सभावीअदि एद]

राजा - ( शकुन्तला विलोक्य) अये, सेयमत्रभवती शकुन्तला पंथा-

बालक मेरे पितातो दुध्यत है तुम नही

राजा - ( मुस्करा कर यह विवाद ही मुझे विश्वास दिलाता है कि मैं इसका

पता है)

टिप्पणी

रक्षाकरणडकम---- रक्षासूत्र पर यहा इसका तात्पय प्रचलित शब्द सामीज से है, किसी पर मे कोई धर कर बच्चे की कलाई पर ata दिया जाता था जिससे कि वह कुदृष्टि आदि के प्रभाव से सुरक्षित रहे प अब इसका उतना प्रचलन नहीं रह गया है जितना कि काविदास के समय मे रहा होया विस्मात विस्मय इसलिये हुआ कि औषधि ने सप बन कर राजा को नही काटा था। जाम प्रसिद्ध पोडा मस्कारों में यह कार है, इसमे बालक की जीभ पर स्वका से जो लिखा जाता है और बालक को घी और शहद, खिलाया जाता है। विजिया विकार, औषधि का रूप में बदल जाना। नियमव्यापताय कमणा से चतुर्थी — नियम् अप् नियम दि+ अनेकशन एक अनेक अनेकस्मिन् काले इत्यर्थे अनेक शब्दात् अधिकरणे प्रत्यय प्रत्याययति विश्वास करा रहा है कि दुष्यन्त नामक इसका पता ही है, और यह मेरा ही पुत्र है

(इसके बाद एक वेगी धारण किये हुये शकुन्तला प्रवेश करती है) शकुन्तला विकार के समय भी सदन की औषधि के प्रकृतिस्थ (अपने स्वभाव और अपने स्वरूप मे हो बने रहने की बात) रहने की बात को सुनकर भी मुझे अपने भाग्य पर (ऐसी) आशा न थी ( कि दुष्यन्त स्वयमेव यहाँ तक जायेंगे सानुमतीने जैसा कि कहा था वेसा भी यह सम्भव हो सकता है। राजा (शकुन्तला को देखकर ओह, यह वही शकुन्तला है, जो कि यह



सप्तमोऽ


बसने परिघूसरे बसाना णि । अति निष्करणस्य सुशीला

मम दीर्घ विरहृव्रत विर्भात ॥२१॥

यस इति अन्य परिघूस बसने बसाना नियमक्षाममुखी धूर्तकवेगि मी अतिष्णस्य मम दीर्घ विरतम् विभति ।

शब्दार्थ परिसरे बने बसानामनि वस्त्र को धारण किये हुये नियम- क्षाममुखी नियम पालन के कारण खाली धर्तकणि एकवेणी को धारण किये हुये आचरण वाली अतिनिकरस्य मममणी पत्नी का परित्याग करने के कारण अति निष्ठुर मेरे दीनम् विरह के कारण लम्बे प्रतीत होने वाले विरत को विभतिपालन कर रही है।

अनुवाद मलिन दो वस्त्रों को पहने हुये नियम पालन के कारण शुष्क मुख बाली, एकवेणी ही धारण किये हुये, फिर भी पवित्र आचरण परित्याग के कारण अतिकठोर मेरे दीमकालीन विरत का पालन कर रही है।

भावार्थको, जो कि उस सदा सलिम स्त्री को (एक अधोवस्था और दूसरी उत्तरीय दुपट्टा पहने हुई थी तथा वही के ह्नि स्वरूप एक ही बेगी को धारण किये हुये थी विरहिणी के नियमों का पालन करते रहने से जिसका मुख कृपा हो गया था फिर भी जो विष आचरण वाली थी, देखकर राजा कहता है कि यह गुण जैसे धमनी का करने से कठोर व्यक्ति के लिये इस दीमकालीन विरत का पालन कर रही है।

विशेष नियमक्षाममुखी में काम्पल जलकार, सम्पूर्ण श्लोक में स्वभावोकि अलकार छेक, वृत्ति अनुप्रास, औपन्यासिक नामक छन्द है। आम हिन्दु विरहिणी का एक जी है तथा नायिकागत विप्रलम्भ एवं नायकगत विषादादि से उपस्कृत निर्वेदध्वनित होता है।

संस्कृत व्याश्या परिसरे अतिमलिने बसने अधरोत्तर वस्त्रे, बसाना= परिदधाना नियम विरहकालीनपवासादितपोनियमे शाम सीप वा गुम् आननम् स्या या नियम क्षाममुखी तारिविच एका = एकवेणीधारिणी, शुद्ध पवित्रम् शील परि यस्या सामुद्धीला पवित्राचारा साध्वी पतिव्रता, अतिनिक गर्भावस्थायामपि परित्यागात् अत्यन्त शूरस्य, मम दुष्यन्तस्य दीपम् बहुकालीन विरक्तम् वियोगनियमम् विभर्ति= धारयति पालयतीत्यथ ।

संस्कृत सरलाच अतिमलिनमधारिणी रिलीनोपवासादिनियमे कृशमुखी तथा धरा बुद्धाचारान्तमवलोक्य राजा ययति भवती शकुन्तला गर्भावस्थायामपि परित्यागात्रस्य मम दीघकालीन विरत पालयति ।


शकुन्तला- तत क एवं इरानी कृतरसामल बारक में गात्रसर्गेण दूषयति [ इव। तदों को एसो दाणि किरकसामगत दारम मे गतससम्मेण दूसेदि २]

बाल- (तरमुपेत्य मात, एवं कोऽपि पुरुषो का पुत्र इत्याङ्गति । [अन्जु, एमो को विपुरियो म पुत्त त्ति आनिगदि ।] राजा प्रिये, कमपि मे त्वयि प्रयुकूलपरिणाम तबसम् हमिदानीं त्वया प्रत्यभिज्ञातमात्मान पश्यामि ।

बबन (स्व) नपुसकलिङ्ग द्वितीया द्विवचन - एक और एक उत्तरीय नरम, स्त्रियों के लिये इन दो बस्यो का धारण करना मावश्यक होता है। परिसरे परित धूसरेइतिमलिन बसाना बच्छादने ( अदादि ) शान प्रत्यय परिदधाना नियमानुजीविरहकाल मे अवश्य करनीय उपवासादिनियमो का पालन करने से जिसका मुख लीन हो गया था, वस्तुत मुख ही नहीं उसका सम्पूर्ण सारीर ही क्षीण हो गया था पर शेव शरीर के वस्त्राच्छादित होने से राजा उसके केवल मुख को ही देख रहा था, अतएव उसे शाममुखी कहता है पूर्तमणिदेशी और af दोनों ही प्रकार के शब्द है धृता एक बेग या या एकवेनि बालो की सूबी हुई एक चोटी एक ही बार बाँधी हुई चोटी विरहिणी जा एक बार पहले सेती है, उसे फिर बोलती नही क्योकि विरहकाल में स्त्रियो के लिये जा प्रसाधन और नई पोटी धनावजित होता है "मण्डन वयमेवारी तथा प्रोषितभतुं का" देवातिष्ठेद्महिते रता" विष्णुधर्मोत्तर न प्रोषिते तु कुर्या बेणी च प्रमोचयेत्" हारीतस्मृ । तमाह गजेनमालिन्य बेकवेणीधर शिर "सा" द ard न प्रमदिवसे या शिखा दाम हिला" एक श्रेणी करण" भवभूति की विरहिणी सीता परिपाक्स कपोलमुन्दर दधती विलोज करी मानन कणस्य मृतिरथवा शरीरिणी विरहस्यमेव वनमेति जानकी" एकमेोधरा धरतीति धरा पचाद्यच् एका या वेणो तस्या धरा न तु एक बेगी धरतीति विग्रह कर्मण इति अणु प्रसाद विषति भूतट

कुता (पश्चाताप के कारण उदासीन एव मलिन माकृति वाले राजा को देखकर) यह आय पुत्र अँसे तो नहीं दीखते हैं, तो यह कौन इस समय जिसकी रक्षा के लिये महल किया जा चुका है, ऐसे मेरे पुत्र को अपने शरीर से कर रहा है

बालक (माता के पास जा कर माता, यह कोई मनुष्य, मुझे अपना पुत्र कह कर आदि न कर रहा है।

राजा प्रिये तुम्हारे ऊपर (मेरे द्वारा की गई भूरता भी अनुकूल फल देने


शकुन्तला (आत्मगतम्) हृदय, समाश्वसिहि समाश्वसिहि ।

 परि- त्यक्तमत्तरेणानुकम्पितास्मि देवेन । आर्यपुत्र बल्देव ।

 [ हिबन, समस्तस । समस्तप्त परिच्चत्तमच्चरेण अनुप्पि हि देवेण ।

 अज्जत क्लु एयो ।]

राजा प्रिये, स्मृतिभिन्नमोहतमसो विष्ट्या प्रमुखे स्थितासि मे सुमुखि ।

 उपरागान्ते शशिन समुपगता रोहिणी योगम् ॥२२॥

अपने मन मे हृदय धेय धारण करो धारण करो भाग्य भात्याग कर अब मुझ पर कृपा की है, यह वस्तृत आय पुत्र ही हैं। राजा प्रिये

दार्थ सुमुखि सुन्दर मुख वाली प्रिये दिष्ट्या सौधान्य से स्मृतिभ मोहममे (पूर्ववृत्तान्त) की स्थति होने से जिसका अज्ञान रूपी कार नष्ट हो गया है ऐसे मेरे प्रमुखे सामने स्थिता असितुम उपस्थित हो गई हो। उपरागान्ते जैसे चन्द्रग्रहण के बाद रोहिणी रोहिणी नामक चन्द्रपत्नी, शनि योग समुपगता चन्द्रमा के पास उपस्थित हो जाती है।

बाली सिद्ध हुई है जो कि मैं इस समय, अपने को तुम्हारे द्वारा पहचाना हुआ दे रहा हूँ अर्थात् मेरी क्रूरता का अच्छा परिणाम निकला है, इस बात का यही प्रमाण है कि तुमने मुझे इस समय पहचान लिया है।

स्मृतीत सुमुखि दिष्ट्या स्मृतिभिमोहमद मे प्रमुखे स्थिता असि । उपरागान्ते रोहिणी नियोग समुपता

मनुवाद हे सुमुखी] शकुन्तला, यह सौभाग्य की बात है कि पूर्व वृत्तान्त की याद आ जाने से  बान्धकार दूर हो गया है ऐसे मेरे सामने तुम उपस्थित हो गई हो, जैसे कि ण हटने के बाद रोहिणी चन्द्रमा के सम्पर्क मे वा जाती है।

भाषासेद्रग्रहण हट जाने के बाद उसकी दिया पत्नी रोहिणी चन्द्रमा के पास आ जाती है, उसी प्रकार हे सुमुखी, सोभाम्यत अब तुम भी मेरे सामने उप- स्थित हो गई हो, क्योकि पूर्व पटित व विवाह की स्मृतिमा जाने के कारण बद मेरा उपराग रूप अज्ञानान्धकार दूर हो गया है।

विशेष प्रस्तुत पद्म में दृष्टान्त अलकार है, और अयगत यत् तत् मन्दों द्वारा एकवाक्यत्व होने से सम्भव वस्तु सम्बन्धलक्षणा निर्देशनालकार है। यहाँ दुष्यन्त को शकुन्तला की प्राप्ति और शकुन्तला को दुष्यन्त की प्राप्ति का वर्णन होने से परस्पर दुख का समन दिखलाया गया है जत कृति नामक निर्वहन सन्धि का मय है "सा समन कृति "त्यनुप्रास भार्या जाति छन्द है।

मुख सुवदने, दिष्ट्या सौभाग्ये स्मृत्या पूर्वान् स्मरणेन भवति मोह एवं तम अज्ञान स्पधकार यस्य तस्य स्मृतिविध मोहमस पुष्प तस्य प्रमुखे सम्मुखे स्थिता अस्थि ग्रुप स्थिता बक्षि -


 उपरागस्य राहुग्रासस्य उपरागाडे, रोहिणी नक्ष चन्द्रपत्नीगमन योगम्पदाम् समुपगता प्राप्ता । 

संस्कृत सरलार्थ यथा चन्द्रोपगोपते तत्पल्या रोहिया चन्द्र सह सम्मेलन जायते तचैव सीमाम्यत सात स्मरणेन मकारस्य मे त्वमपि

शकुन्तला जयतु जयत्वार्यपुत्र [जंदु जंबू अज्जत ।]

 (इत्यक्तेापकण्ठी विरमति ।)

राजा-सुन्दरि,

वाध्येण प्रतिषिद्ध ऽपि जयशब्दे जित सया । यत्तं दृष्टमसस्कारपाटलोष्ठपुट मूलम् ||२३||

सम्मुख भागत्य समुपस्थितासि ।

टिप्पणी

विवर्य फीका मलिन या प्रदास पश्चात्ताप के कारण राजा का भी कथा कुरस्य भावशूरता, तुम्हारा परित्याग कर मैने तुम्हारे ऊपर क्रूरता की श्री अनुकूल परिणाम सवृत्तम् तु इस क्रूरता का परिणाम ह ही सुनिता दीपकानीन प्रवास और प्रतोपवासादि नियमो से तुम्हारा जीवन पवित्र हो गया दिव्याथम ने ऋषिकृपा से तुम्हारे पुत्र मे अमोध शक्ति उत्पन हुई, जीर मुझे पत्नी और पुत्र की प्राप्ति हुई। स्मृति अर्थात स्मृति स्मृ भिन्न मोहरूप तम यस्य तस्य स्मृति स्मृति मोहमद +

मुशोभन मुल परवा तत्सम्बोधने उपरागान्ते उपि उपपदस्य अन्ते रोहिणी अदि २७ नक्षत्रको २७ पुनिया कही जाती थी। इनमे रोहिणी नामक च कन्या चन्द्र की सबसे अधिक प्रिया पत्नी है, चन्द्र ग्रहण काल में यह उससे दूर रहती है, पर उपरागान्त होते ही वह चन्द्रग्रामीप्य मे आ जाती है कुता पर भी शाप रूप उपराग था उसके हटते ही दुष्यन्त के समीप आ गई थी।

पुत्र की हो (इतनी बात कहकर आटो से गया घर जाने से एक जाती है) राजा हे सुन्दरी देवा प्रतिषिद्ध मपि मया नितम्। मद्

शब्दार्थ-जयशब्देाषेण प्रतिषिद्धे अपि (तुम्हारे द्वारा उच्चरित) जय शब्द के बासु के द्वारा रोक दिये जाने पर भी जिस मया मेरी विजय हो गई है। क्योकि असरकारपालटते मुखम् प्रसाधन आलकरसानुलेपन आदि के बिना भी स्वभावत एव श्वेतर मोष्ट पुट वाले तुम्हार, मुखको दृष्टम् देश लिया है।


बाल-मात क एष 2 [अज्जुए, को एसो]

अनुवाद जय शब्द के आसू के द्वारा रोक दिये जाने पर भी मेरी विजय तो हो ही गई है क्योंकि बिना भी स्वभाव तर टाने म्हारे को मदेनिया है।

भावाथ राजा कहता है, सुन्दरी शकुन्तला, यद्यपि तुम मेरे लिये प्रयुक्त जयशब्द का पूरा उच्चारण नहीं कर सकी हो क्योंकि आसुओ ने तुम्हारे कण्ठको कर दिया है सापि मेरी तो विजय हो गई अजय के फलस्वरूप मुझे तो का प्राप्ति हो ही गई है क्योंकि मेने तुम्हारे संस्कार रहित भी स्वभावत श्वेतरोष्ठदाय की देख लिया है तुम्हारे दर को दखने से जो मेरा योग दूर हो गया है, यही मेरी सबसे बड़ी विजय है।

विशेष प्रतिपदेऽपि जितम् इस कवन में विरोधाभास कार तथा जिनके प्रति राग वाक्या हेतु हे अत काम्यलिङ्ग बनकार ि वृत्ति अनुप्रास, अनुष्टुप् नामक छन्द है।

संस्कृत स्यारया—गगणादे जयतु जयतु इति गन्दे ि प्रतिषिद्धेअर पि गया दुष्यन्तेन, जितजय प्राप्त ममात्कर्षो इत्यथ । यत्यस्मात् कारणात् असत्कारेण प्रसाधन रसानुलेपनादितस्काररहितेन पाल भारत एवं श्वेतर ओष्ठपुट मंत्र त असस्कार - तब मुलम् आननम् दृष्टम् अवलोकितम् ।

संस्कृत सरलाय राजा कथयति सुन्दरि कुन्तल । यद्यपि त्य रित जयतु जयतु इतिन्द्र  तथापि ममोस्तु जात एवं सोहि मया रसानुलेपनादिसत्कारविहीनेनापि स्वभावन एक स्तरोष्ठपुट त्वदीय मुमि मोक्तम् । स्वभावदानेन मम विरह तस्या पगमनेनेव मया विमित्याशय ।

टिप्पणी

बाप की वाय कण्ठे यस्या चाव्यकण्ठी बिगरतिब्याह परि म्योरम " इति परस्मैपदम् पाटलोष्ट पाटलोष्ठ और पाठ दोनो रूप ठीक है क्योकि आत्वोष्ठयो समासे या "बालिक से विकल्पत पररूप होता है। इसी प्रकार विम्बष्ठ और निम्बष्ट भी होते हैं। असस्कारेण सस्कारविहीनेापि पाटल भोष्ठपुट स्वाभाविक सौन्दय के लिये कृषि प्रसाधन की आवश्यकता नहीं होती। और स्वस्थ रमणीयत्वमाकृतिविशेषाणाम्' अट राजा का कथन समा उपयुक्त है" "रागेण वाला कोमलेन भूतप्रवालोष्ठमलञ्चकार" "कुमार इद किलाव्याल मनोहर व "।

बालक माता, वह कौन है

प्रथमा - मृणोतु महाराज एवापराविता नानोषधिरस्य जातकर्म- समये भगवता मारीचन दत्ता । एतां किस मातापितरावात्मान वर्ण- वित्वाऽपरो भूमिपतितां न गृह नाति [सुणादु महाराजो एसा अवराजिदा णाम ओसही इमस्थ जातकम्मसमए भश्रवदा मारीएण दिया। एद किस मादापिदरी अप्पान अ वज्जिज अनरो भूमिपदि ण गेहू गादि ।]
राजा गृह, भाति
प्रथमा -- ततस त्या वसति [तदो त सप्पो मनिज दस ।]
राजा भवतीभ्यां कदाचित्वा प्रत्यक्षीकृता विक्रिमा ? उमे—अनेकशः। [ अणेवसो ।]
राजा - ( सहर्षम्। आत्मगतम्) फभिय सम्पूर्णमयि मे मनोर नाभिनन्दामि ?
(इति बाल परिष्यते ।) द्वितीया- सुबते, एहि इम वृत्तान्त नियमव्यावृतार्थ धकुन्तलाये निवेदया। [सुम्बदे, एहि इम बुसन्त णिअमवाबुडाए सन्दलाए विदेह ।]
(इति निकाले ।)
बालगृह माम् । यावन्मातु सकाश गमिष्याणि [मुच म जाव अज्जुए मआस गमिस्स ।] राजा पुत्रक, मया सहेब मातरमभिनन्दिष्यति ।
नये महाराज यह अपराविता नाम की औषधि इस बालक के जातकम के समय भगवान् मारीच ने दी थी। इस नौषधि को माता पिता और अपने आपको छोडकर अन्य कोई व्यक्ति, पृथिवी पर गिरी हुई इसको नहीं उठाता है।
राजा नगर उठा लेता है तो ?
प्रथम मी तो यह नए बन कर उसे काट लेती है।
राजा क्या बाप दोनो ने कभी इसका इस प्रकार का विकार देखा है, अर्थात क्या कभी आप लोगो ने इसका रूप बन कर काटना देखा है ?
दोनों तापसी अनेक बार राजा ( प पूर्वक अपने मन मे तो फिर क्यों न मैं अपने पूर्ण हुये भी मनोरथ को अभिनन्दित न करूँ।
(यह कहकर बालक का आलिङ्गन करता है।
दूसरी तापसी सुते, बाओ, नियम पालन में तत्पर शकुन्तला को यह समाचार बतलायें।
( यह कहकर दोनों का प्रस्थान )
बालक मुझे छोडिये में अपनी माता के पास जाऊँगा। राजापुत्र, मेरे ही साथ अपनी माता का अभिनन्दन करना।
। बाल-मम खलु तातो दुध्यन्त न त्वम् [मम क्खु तादो [ममतादो दुस्सन्दो तुम।]
- राजा (सस्मितम् ) एष विवाद एव प्रत्याययति । (तत प्रविशत्येकवेणीधरा शकुन्तला ।)
शकुन्तला--विकारकालेऽपि प्रकृतिस्था सवदमनस्पोषवित्वान मे आशाssसीदात्मनो भागधेयेषु अथवा यया सानुमत्याख्यात तथा सभापत एतत् | [विभारकाले वि पकिदित्य सम्वदमणस्स आमहि सुवि ण मे आमा आसि अत्तणो भाअहेएस अहवा जह साणुमदीए आचचिजद तह समावीअदि एव
राजा - (शकुन्तला विलोक्य) जये, सेयमप्रभवती शकुन्तला वा-
बालक मेरे पिता तो दुष्यत है तुम नहीं। राजा (मुस्करा कर यह विवाद ही मुझे विश्वास दिलाता है कि मैं इसका
पिता है)
टिप्पणी
1 = रक्षाकरण्डकम- रक्षासूत्र पर महा इसका तात्प प्रचलित शब्द समज से है. किसी वस्व में कोई रक्षामात्र या औषधि कर बच्चे की कलाई पर ata दिया जाता था जिससे कि वह कुदृष्टि आदि के प्रभाव से सुरक्षित रहे, यद्यपि अब इसका उतना प्रचलन नही रह गया है जितना कि कानिवास के समय में रहा होया विस्मात विस्मय इसलिये हुआ कि औषधि ने रूप बन कर राजा को नहीं काटा था। जातक प्रसिद्ध पो सस्कारो मे यह सस्कार है, इसमें बालक की परवा से बोध लिया जाता है और बालक को पी और शहद, लाया जाता है। विठिया विचार, औषधि का प रूम मे बल जाना। नाकमणापमभिप्रेत से चतुर्थी-नियम्+अप्-नियम बि+ आकर अनेक एक अनेक अनेकस्मिन् काले अनेक शब्दात अधिकरणे प्रत्यय प्रत्याययति विश्वास करा रहा है कि दुष्यन्त नामक पता ही है और वह मेरा ही पुत्र है।
(माद एक वेणी धारण किये हुये शकुन्तला प्रवेश करती हैं) शकुमार — विकार के समय भी सबदमन की औषधि प्रकृतिस्थ (अपने स्वभाव और अपने स्वरूप में ही बने रहने की बात) रहने की बात को सुनकर भी मुझे अपने भाग्य पर ऐसी) आशा न थी (कि दुष्यन्त स्वयमेव महाँ तक आयेंगे) अथवा सानुमतीने जैसा कि कहा था जैसा भी यह सम्भव हो सकता है।
(कुता को देखकर) ओह, यह वही शकुन्तला है, जो कि

यसने परिघूसरे बसाना नियमक्षाममुखी मूर्तकवेणि । अतिनिष्करणस्य सुशीला
मम दीर्घ विरहवत विभति ॥ २१॥
इति अन्यपरि बसने बसाना नियमक्षाममुखी धूर्तकवेगि अति मम दीर्घ विरतम् विमति
शब्दार्थ परिसरे वसने बसानामलिन बस्व को धारण किये हुये नियम- धाममुखी = नियम पालन के कारण माली घर्तकणिएकवेणी को धारण किये हुये शुद्ध आचरण वाली अतिनिष्करस्य ममगणी पत्नी का परित्याग करने के कारण जति निष्ठुर मेरे दीर्घ विरान विरह के कारण लम्बे प्रतीत होने वाले विरत को विभतिपालन कर रही है।
अनुवाद- मलिन दो वस्त्रों को पहने हुये नियम पालन के कारण शुष्क मुख बाली, एकवेणी धारण किये हुये, फिर भी पवित्र आचरण वाली परित्याग के कारण अतिकठोर मेरे दोघकालीन विरत का पालन कर रही है।
भावार्थता को, जो कि उस समय दा लिन स्त्री को (एक अवसाद और दूसरी उत्तरीय दुपट्टा पहने हुई थी तथा विरहिणी के चिह्न स्वरूप एक ही नेगी को धारण किये हुये थी विरहिणी के नियमों का पालन करते रहने से जिसका मूल हो गया था फिर भी जो परम आचरण वाली पी कर राजा हता है कि यह गुण जैसे पत्नी का त्याग करने से अतिकठोर व्यक्ति के लिये इस दीपकालीन विरत का पालन कर रही है।
विशेष नियमक्षाममुखी में काव्यलिङ्ग मसकार सम्पूर्ण प्रत मे स्वभावोक्कि छे, वृत्ति अनुप्रास, औपच्छन्दसि नामक छन्द है। हिन्दू विरहिणी का एक सजीव चित्र है तथा नायिका विप्रलम्भ एवं नायकगत विपादादि से उपस्कृत निर्वेद ध्वनित होता है।
संस्कृत व्याख्या परिघूसरे अतिमलिने बसने अधरोत्तर वस्त्रे, बसाना परिदधाना नि विरकालीनपवासादितपोनियम शाम क्षीण करावा मुखम् आननम् यस्यासा नियम क्षाममुखी धूता रिसिव एका वेणि या साि एकवेणीधारिणी, शुद्ध पवित्रम् शील चरित्र मस्या सामुद्धतीला पवित्राचारा साध्वी पतिव्रता, अतिनिष्कृरुणस्य गर्भावस्थाया मपि परित्यागात् अत्यन्त शूरस्य मम दुष्यन्तस्य दीपम् बहुकालीन विरक्तम् वियोगनियमम् विभर्ति धारयति पालयतीत्यच । = E
संस्कृतसरला अतिमलिन बस्पधारिणी विकासनोपवासादिनियमे कृशमुखी तथा पंधरा शुद्धाचारावलोक्य राजा कययति-यमत्रभवती कुन्तला गर्भावस्थायामपि परित्यागात् क्रूरस्य मम दीमकालीन विरक्त पालयति ।
शकुन्तला (पापविव राजान दृष्ट्या न सत्यार्थपुत्र तत क एवं इरानी कृतरसामङ्गल बारक में पात्रसर्गेण यति [णमस्तु अत्त इव । तदों को एसो दाणि किदरक्खामगत दारम मे गतसम्गेण सेदि १]
बाल- (मातरमुपेत्य) मात एष कोऽपि दृथ्यो मा पुत्र इत्याङ्गति । [ए, एम को विपुरियो म पुरा ति आलिगदि ।] राजा प्रिये, क्रौर्यमपि मे त्वयि प्रयुक्तमनुकूलपरिणाम समृतम्, मानवा प्रत्यभिज्ञातमात्मान पश्यामि ।
बहन ( ) नपुसकलिङ्ग द्वितीया द्विवचन - एक मोम और एक उत्तरीय व रियो के लिये इन दो वस्त्रों का धारण करना मावश्यक होता है। परिसरे—परित धुसरे तिमलिन मानव आछादने (मदादि) प्रत्यय परिधान नियमामी विरहकाल में अवश्य करनीय उपवासादिनियमो का पालन करने से जिसका मुख कोण हो गया था, बस्तुत मुख ही नही उसका सम्पूर्ण शरीर ही क्षीण हो गया था पर शेष शरीर के वस्त्राच्छादित होने से राजा उसके केवल मुख को ही देख रहा था, अतएव उसे क्षाममुखी कहता है। मूर्तकवेणिवेशी और fe दोनो ही प्रकार के हैं धृता एक वेणि यया सा एकवेfe वालो की सूजी हुई एक चोटी एक ही बार बाँधी हुई चोटी विरहिणी वा एक बार पहले चोटी सेती है, उसे फिर बोलती नही क्योकि विरहकाल में स्त्रियों के लिये शृङ्गार प्रसाधन और नई चोटी बांधना वजित होता है “मम्बन येणारी तथा प्रोषित का" देवान विष्ठे हिते रता" विष्णुधर्मोत्तर न प्रोषिते तु मस्कुर्यान लेणी च प्रमोचयेद" हारीतस्मृ । तवाह गरेसमालिन्य कवेणीघर फिर सा" द० बे are या प्रथमदिवसे या शिला दाम हिला" एक बैगी करेग" भवभूति की विरहिणी सीता" परिपाम्बस कपोलमुन्दर दunt feeta satक मानन so मूर्तिरयदा शरीरिणी चिरव्यमेव वनमेति जानकी" एकमेमोधरा-धरतीति धरा पचाच एका या देणो तस्य धरा न तु एक वेगी धरतीति विग्रह कर्मण्यण
इति व प्रसंगात् विलिट शकुन्ता (पश्चाताप के कारण उदासीन एवं मलिन माकृति वाले राजा को देखकर यह आय पुत्र से तो नहीं दीखते है, तो यह कौन इस समय जिसकी रक्षा के लिये किया जा चुका है, ऐसे मेरे पुत्र को अपने शरीर स्पर्श से दूषित कर रहा है।
(माता के पास जा कर ) माता, यह कोई मनुष्य, मुझे अपना पुत्र कर आदि न कर रहा है।
राजा प्रिये तुम्हारे ऊपर (मेरे द्वारा की गई सूरता भी अनुकूल फल देने
शकुन्तला (आत्मगतम्) हृदय, समाश्वसिहि समाश्वसिहि परि- त्यक्तमत्सरेणानुकम्पितास्मि देवेन आर्यपुत्र खत्वेष [हिम, समस्स । समस्सस परिच्चत्तमच्चरेण अनुप्पि हि देवेण । अज्जउत्त क्यू एसो ।] प्रिये,
राजा स्मृतिभिन्नमोतमसो दिष्ट्या प्रमुखे स्थितासि मे सुमुति । उपरागान्ते शशिन समुपगता रोहिणी योगम् ॥ २२॥
1 शकुन्तला (अपने मन में हृदय धारण करो धैर्य धारण करो, भाम्य नेपभाव त्याग कर अब मुझ पर कृपा की है, यह वस्तुत आय पुत्र ही हैं। राजा-जिये-
1 स्मृति-अन्वय हे सुमुति दिष्ट्या स्मृतिभिगोतमस मे प्रमुख स्थिता असि । उपरागान्ते रोहिणी शनि योगम् समुपता
सम्मार्थमुमृसुन्दर मुख वाली ये दिष्ट्या सौमान्य से स्मृतिभि मोहतमस मे (पूर्ववृतान्त) की स्मति होने से जिसका ज्ञान रूपी अन्धकार नष्ट हो गया है ऐसे मेरे प्रमुखे सामने स्थिता असितुम उपस्थित हो गई हो। उपरागान्ते से चन्द्र के बाद रोहिणी रोहिणी नामक चन्द्रपत्नी, सचिन योग समुपगता चन्द्रमा के पास उपस्थित हो जाती है।
बाली सिद्ध हुई है जो कि मैं इस समय अपने को तुम्हारे द्वारा पहचाना हुआ देख रहा हूँ अर्थात् मेरी क्रूरता का अच्छा परिणाम निकला है, इस बात का यही प्रमान है कि तुमने मुझे इस समय पहचान लिया है।
मनुवाद हे गुमुखी शकुन्तला, यह सौभाग्य की बात है कि पूर्व वृत्तान्त की याद आ जाने से अज्ञानान्धकार दूर हो गया है ऐसे मेरे सामने तुम उपस्थित हो गई हो, जैसे कि हटने के बाद रोहिणी चन्द्रमा के सम्पर्क मे वा जाती है।
मावा जैसे चन्द्रग्रहण हट जाने के बाद उसकी प्रिया पत्नी रोहिणी चन्द्रमा के पास आ जाती है, उसी प्रकार हे सुमुखी, सौभाग्यतम तुम भी मेरे सामने उप- स्थित हो गई हो, क्योकि पूर्व घटित व विवाह की स्मृतिमा जाने के कारण अब मेरा उपरान रूप बनान्धकार दूर हो गया है।
विशेष प्रस्तुत पद्म मे दृष्टान्त अलकार है, और अपगत यत् तद् मब्दों द्वारा एक होने से सम्भवद् वस्तु सम्बन्ध लक्षणा निमाकार है यहाँ दुष्यन्त को शकुन्तला की प्राप्ति और शकुन्तला को दुष्यन्त की प्राप्ति का वर्णन होने से परस्पर दुख का समन दिखलाया गया है बत कृति नामक निर्वहन सन्धि का मन है "सार्थ समन कृति " श्रुत्यनुप्रास, आर्या जाति छन्द है।
कृपया मुख सुबदने, दिष्ट्या सौभाग्यापूर्व स्मरमेन भित्र उच्छिन मोह एवं तम अधकार यस्य तस्य स्मृतिविध मोहतमसमेतस्य प्रमुखे सम्मुखे स्थिता अलि स्थिता बसि  
(इत्यर्धी पकष्टी विरमति ।)
राजा-सुन्दरि,
वाष्पेण प्रतिषिद्ध ऽपि जयशब्दे जित मया । यत दृष्टमस्कारपटलोष्ठपुट मुखम् ॥ २३॥
= उपरागस्य राहुग्रासस्य उपरागाते, रोहिणी नक्षवरुपा दक्षकन्या संस्कृत सरलार्थ यथा चन्द्रोपगोपरा सत्यमा रोहिया चन्द्र सह
सम्मेलन जायते चैव साम्यत तात स्मरणे
सम्मुल भागत्व समुपस्थितासि ।
टिप्पणी
विवफीका मलिन या पदास, पश्चात्ताप के कारण राजा का मुख भी फीका पड गया था। कौर्यम् शूरस्य धाम कुरता तुम्हारा परित्याग कर मैने तुम्हारे उपर क्रूरता की थी, अनुकूल परिणाम सम् किन्तु इस क्रूरता का परिणाम मा ही सुखद का दीपकामीन प्रवास और व्रतोपवासादि नियमों से तुम्हारा जीवन पवित्र हो गया दिव्याश्रम में ऋषिकृपा से तुम्हारे पुत्र में अमोध शक्ति उत्पन्न हुई, मुझे पत्नी और पुत्र की प्राप्ति हुई। स्मृति अर्थात वृतान्त की स्मृति भिन्न मोहरूप तम यस्य तस्य स्मृति स्मृति, मुह पर मोह, मि+ कभित्र ।
सुमुन्दिशोभन मुल परयास्तम्बोधने उपरागान्ते उपरज्यते अनेनेति उप+र+उपरान्तस्य अन्ते रोहिणी अनादि २७ दक्षको २७ पुनिया कही जाती थी। इनमें रोहिणी नामक चकत्या चन्द्र की सबसे अधिक प्रिया पत्नी है, चन्द्र ग्रहण काल में वह उससे दूर रहती है. पर उपरागान्त होते ही वह चन्द्र सामीप्य मे आ जाती है पर भी मा रूप उपराग था उसके हटते ही शकुन्तला दुष्यन्त के समीपाई थी।
आप पुत्र की कम हो
(इतनी बात कहकर आसुओं से गया भर जाने से एक जाती है) राजा है सुन्दरी
वाजिन् वा प्रतिषिद्धं अपि मया जित पत् असरकारपारोष्ठपुटम् ते मुख्य दृष्टम् ।
शब्दार्थ-जयदेव प्रतिषिद्धे अपि (तुम्हारे द्वारा उच्चरित) जय शब्द के लालू के द्वारा रोक दिये जाने पर भी मिया मेरी विजय हो गई है। यदु क्योंकि, असस्कार प्रसाधन बलतकरसानुलेपन आदि के बिना भी स्वभावत एव श्वेतर बोट पुट वाले तुम्हार, मुखको दुष्टम् देख लिया है।

= रास्कृत व्याख्या-जयशब्दे जयतु जयतु इति गन्दे प्रतिषिय अपर नप गया- दुष्पन्तेन जितम् जय प्राप्त ममात्कर्षो इत्यथ । यद्यस्मात् कारणात् असस्कारेण प्रसाधनरसानुलेपनादिसंस्काररहितेन अपि पावत एक तरफ जष्ठपुट यत्रततुकारा तब मुखम् आननम् दृष्टम् अवलोकितम् ।
बाल-मात क एष [ अज्जुए को एसो]
अनुवाद शब्द के द्वारा रोक दिये जाने पर भी मेरी विजय के तो हो ही गई है क्योंकि कृषि के बिना भी स्वभावत एव श्वेतरक्त ब गुदा गुम्हारे मुख को मने देख लिया है।
भाचा राजा कहता है, सुन्दरी शकुन्तला, यद्यपि तुम मेरे लिये प्रयुक्त जयशब्द का पूरा उच्चारण नहीं कर की हो क्योकि आसुओ मे तुम्हारे कण्ठ को अवरुद्ध कर दिया है तथापि मेरी तो विजय हो गई अर्थात् जय के फलस्वरूप मुझे तो उत्क का प्राप्ति हो ही गई है क्योकि मेने तुम्हारे संस्कार रहित भी भावत श्वेता को देख लिया है तुम्हारे ससुर को दबने से जो मेरा वियोग दूर हो गया है, यही मेरी सबसे बड़ी विजय है।
विशेष—'जयशब्दे प्रतिपतिम् इम कपन में विरोधाभास अवका तथा जिनके प्रति उत्तरागत क्या हेतु अत काम्यलिङ्ग बनकार ि वृत्ति अनुप्रास, अनुष्टुप् नामक छन्द है।
संस्कृत सरलाच राजा यति सुन्दरद्यमित्ययमा रित जयतु जयतु ति शब्द ताशुभि समवरुद्ध तथापि ममोकवस्तु जात एव या रसानुलेपनादिसत्कारविहीनेनापि स्वभावन एवं श्वेतरक्तोष्ठपुट त्वदीय मोतिम् न स्वभावसुन्दरमुखावलोकनेन मम विरह तस्या परामनेनेव मया जितमित्याशय ।
टिप्पणी
बाप कण्ठो वा कष्ठे यस्था वाक्यकण्ठी बिगरति ब्याह परि- म्योरम " इति परस्मैपदम् पाटतोष्ट पाटलोण्ड और पाटलीष्ठ दोनो रूप ठीक है क्योकि 'आयोष्ठयो समासे मा "वालिक से विकल्पत पररूप होता है। इसी प्रकार निम्मी और विष्ट भी होते है असरकारेण सस्कारविहीनेनापि पाटलन मोष्ठपुट म त स्वाभाविक सौन्दय के लिये कृत्रिम प्रसाधन की आवश्यकता नही होती। और सर्वास्ववस्वा रमणीयत्वमाकृतिविशेषाणाम्' अत राजा का कथन सवधा उपयुक्त है" "रागेण वाला कोमलेन भूतप्रवालोष्ठमलञ्चकार" "कुमार इद किलाव्याज मनोहर व "
बालक माता, वह कौन है?

शकुन्तला बत्स, से भागधेयानि पृच्छ [वच्छ, ये भाजबाद पुखेहि।]
राजा - (शकुन्तलामा पादयो प्रणिपत्य ।) हवयात् प्रत्याशीकम से
किमपि मनस समोहो मे तथा बलवानसूत् । प्रबलतम सामेवप्राया शुभेषु हि वृत्तय अजमपि शिरस्यन्य क्षिप्ता पुनोत्यहिया ॥२४
पुत्र अपने भाग्य से पूछो। राजा शकुन्तला के पैरो पर गिर कर
सुतनु-मन्वय हे सुतनुते हृदयात् प्रत्यादेशव्यलीकम् अतु तदा मे बलवान् मन मोह अभूत् हि शुभेषु तमसावृत्त एवं शामा (भवति)  प्ता वजम् अपि अहिर या धुनोति ।
सार्थ सुतनु सुन्दर शरीरवासी अर्थात् सुन्दरी हृदया तुम्हारे हृदय से प्रत्यादेशयसीकम् (मेरे द्वारा किये गये निराकरण की पीडा दूर हो, तदाप्रत्याख्यान के समय मे किमपि बलवानुमुझे कोई ीय प्रवल गन समोह अमृतु चित्त का ज्ञान हो गया था नियो शुभे ममय पदार्थों के विषय में प्रचलतसाम्प्रवल तमोगुणी लोगो की प्रवृत्तय प्रवृत्तियाँ एवप्राया इसी प्रकार की (भवन्ति हो जाती है) अन्यविहीन व्यक्ति, निरतिक्षिप्ताम् जयपि किसी के द्वारा फिर पर डाली पुष्पमाला का भी अहिक रूपा रूप की आशका से धुनोति दूर फेंक देता है। = = =
अनुवाद हे सुन्दरी, तुम्हारे हृदय से मेरे द्वारा किये गये) निराकरण का दुख दूर हो, उस समय मेरे मन मे कोई अवचनीय प्रबल अज्ञान उत्पन्न हो गया था क्योकि काय aeer पदार्थों के प्रति प्रथत लोगों की प्रवृत्तियाँ इसी प्रकार की हो जाती है, व्यक्ति किसी के द्वारा ) शिर पर डाली गई पुष्प मला को भी सप की आशका से दूर फेंक देता है।
भावार्थ- शकुन्तला के पैरो पर गिर कर राजा कहता है कि है सुन्दरी, मैने जो तुम्हारा निराकरण किया था और उसकी जो पीडा तुम्हारे हृदय में है वह अब दूर हो जानी चाहिये, क्योकि निराकरण करते समय मेरे मन मे कोई अनिर्वचनीय प्रत अशा उत्पन्न हो गया था, अत: अज्ञान से विवेक के हास हो जाने से ही वस्तुत मैंने तुम्हारा अकारण परित्याग किया था, जानकर विवेक पूर्वक नही देखा जाता है कि जिन लोगो मे अज्ञानाविश्य के कारण प्रबत मी उत्पन्न होता है वे अपने पाकर कार्यों के प्रति अथवा मङ्गलमय पदार्थों के प्रति ऐसा ही विपत व्यवहार करने लगते है। उदाहरणाय यदि व्यक्ति र पर
= = = बतादात्मनस प्रायादेशेन यत्कृतेन निराकरणेन यद दुख तत् प्रादेशीक अतु दूरी भवतु तदाका मे मम दुष्यन्तस्य किमपि अनिवचनीयनवाप्रमनस वित्तस्य सम्मोह अज्ञान अभूतहितो हि शुभेनविषयषु कल्याणकारिकार्येषु प्रत पोर तम अज्ञानanre मोहापायातसाम् तयव्यापारा एवप्राया एवम्विधा भवन्ति अन्न जन शिरसि मुहिम शिप्ताम्== केनापि समपिताम् अजम् पुष्पमालाम् अपि हि कथा चान्या नीति- दूर प्रतिपति
पुष्पमाला भी डाल दे तो वह उसको समझ कर फेंक देता है। इसी प्रकार तमोगुणी व्यक्ति अपने लिये प्राप्त भी शुभ वस्तु का निरादर कर देता है।
विशेष—यहाँ प्रथम परमगत अय के प्रति द्वितीय पाइयत अम हेतु है त वाक्याथ मूलक काव्यलिङ्ग है। तृतीय पाद बर्णित सामान्य से पूss  विशेषाद का समय होने से [अर्थान्तरन्यास नकार है। चतुष चरणगत उपमान और उपमेय में साम्य प्रतिबिम्बित होता है अतवृष्टांत अनकार है, महि कया मेतिमान् लकार है, घुति 'छेक अनुप्रास हरिणी नामक छन्द है।
कृतार्थाया पाइयो नित्य दुष्यन्त कथयति पानी त्यन्यनसमाकृतनिराकरण पूरी भवतु वस्तु त्वत्पाव्यानकाने मे मनसि प्रवल भ्रम आसीत्, एस्माद् भ्रमादेव गया प्रत्यायन तु कामत, अतोज्ञानवाकृत अपराध गन्तव्य यतो हि शुभकार्येषु प्रवलमोह ग्रस्ताना जनाना व्यवहारा एताशा एवं आवन्ते मोहवास कर सुलोचन मि वस्तु समुपेक्ष्यते । बन्धी जन केनापि समिर परिधापिता पुष्पमाला मान्य दूर शिपति एवमेव प्रतिष्ठास्वरूप स्वयमेवोपस्थिता त्वामह पूर्व प्रगतसम्मोह बाद परिस्वान् । मत ममापराधोऽय सदस्य ।
भागमा छ अपने भाग्य से पूछो कि जब वह क्या करना चाहता है, यदि वह अनुकूल होगा तब तो यह तुम्हारे पिता होंगे और तुम इनके उत्तराधिकारी होगे और यदि भाग्य यब भी प्रतिकूल है तो यह तुम्हारे लिये केवल एक सामान्य राजा मात्र होगे और हम दोनो यही रहेंगे। शोभना तनू मस्या सम्बोधन में इस्व होकर सुतनु होगा, समासान्तविधेरनित्यत्वान्न के प्रत्यय प्रत्यादेश स्वीका- 'स्वाद' इस वचन के अनुसार व्यलीक का अर्थ पीडा या कसक है। 'यी येते' इस अमरकोश के अनुसार इसका अभी है किन्तु पीडा अर्थही अधिक उपयुक्त है। कामाय है कि मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम उस प्रत्याख्यान की तक को निकाल दो। रयात् यद्यपि व्यमी का त्याग हृदय से ही होता है तथापि यहाँ पुन हृदयोपादान यह ध्वनित करता है कि व्यतीक
शकुन्तला- सत्याय त्याच भूसुधारतात पुराकृत बैंक तेषु दिवसेषु परिणामाभिमुखमासीद् येन सानुक्रोशोऽप्यार्यपुत्रो मयि विरस सवृत्त । [ उट्ठेदु अज्जउत्तो पूण मे सुमरियप्पविचन् पुराकिद तेसु दिन परिणामाहिमुह आसि जेण साक्कोसो वि अज्जउत्तो म विरसी सबुतो ।]
(राजोतिष्ठति ।)
शकुन्तला - अब कयमार्यपुत्रेण स्मृती दुखभाग्यय जन ? [ अह कह
अजण सुमरिदो दुक्खभाई अअ जणो ?] राजा-उड तविषादशल्प कथयिष्यामि ।
मोहान्मया सुतनु पूर्वमुपेक्षितस्ते
यो विदुरवर परिवाधमान
त तावदाकुटिलपविलग्नमद्य
प्रमृज्य विगतानुशयो भवेयम् ॥२५॥ (इति यथोक्तमनुतिष्ठति 1)
त्याग व वाणीमा से नही अपितु हृदय से भी होना चाहिये उसका सरकार त्याग होना चाहिए. ऐसा न हो कि हृदय में उसका कोई अशेष बना रहे। जिस प्रकार अन्धा पुष्पमाला को फेंक देता है, उसी प्रकार अज्ञान से मेने सिर पर डाली गई भी पुष्पा के समान तुम को दूर कर दिया की यह अति सुपर उपमा है।
'लाया पापा इस कदम से अनुनय नामक का निर्देश हे अपराध साहित्य दर्पण में इसी को मायलक्षण कहा है वास्तुनयो भवेदयस्य साधनम् ।
शकुन्तला बापु उठिये निश्चय ही शुभ फल में प्रतिबन्धक पूर्वजन्म मे लिया हुआ कोई मेरा कर्म उन दिनों फल देने लगा था (अर्थात् उन दिनों में पूर्वजन्म ये मेरे द्वारा किया गया कोई अशुभ कम उदित होकर अशुभ फल दे रहा था जो कि मेरे फल का प्रबन्धक था जिसमे वयालु होते हुये भी माप पुत्र मुझ पर नीरस या कठोर हो गये थे।
(राजा बढ़ता है)
शकुन्तला-अच्छा तो आपने इस दुख भागीजन को कैसे याद किया?
राजा लक्ष्मी बा के सत्य (अग्रभाग) के निकल जाने पर बतलाऊँगा। मोहादिति से अधर परिवाधान में वापविन्दु गया मोहा उपक्षित पम्तिम् तम् बाष्प प्रमृज्य विगतानुशय भवेयम्

= शब्दार्थ सुतनु सुन्दरी घर परिवाद्यमान तुम्हारे अधरोष्ठको पीडित करता हुआ, बापविन्दु जो अनुविन्दु मोह नया उपेक्षित मैन पहले उपेक्षित कर दिया था। कुलपति कुछ तिरछी पलको मे लगे हुये उस आलू को प्रमूज्य पोठ कर विगतानुश्य भवामि तावत् = पहले मे पश्चात्ताप से रहित हो जाऊँ।
पुनि भावाथता के यह पूछने पर कि आपने पुनः कैसे मेरी याद की, राजा कहता है कि मैं यह बात बतलाऊँगा किन्तु पहले मुझे तुम्हारी तिरछी ल मे उलझे हुये उस आसू को पीछ कर पचात्ताप से रहित हो जाने दो, जिस आसू की मैंने अज्ञानवश पहले उपेक्षा कर दी थी, राजा यहाँ उस बल की बात की ओर संकेत कर रहा है जिसमे उसने रोती हुई भी महला पर ध्यान न देकर उसका परित्याग कर दिया था इत्यादेा स्वजनमनुगन्तु प्रता परी परे यत्तत् सविषमित्र तमाम यही वह आंसू है जिसकी वह पहले न पोछ कर अब पोछना चाहता है।
अनुवाद हे सुन्दरी तुम्हारे अधरोष्ठ को पीडित करता हुआ जो मैंने पहले उपेक्षित कर दिया था तुम्हारी कुछ तिरछी उसको में लगे हुये उस आसू को पोछ कर पहले से पश्चात्ताप से रहित हो जाऊँ।
विशेष प्रस्तुत श्लोक मे 'मया' से तात्पय अविवेकी, धमनी दुष्यन्त के द्वारा अंत यहाँ अर्थान्तर समित वाच्य ध्वनि है। अमो के स्थूल एव चिर स्थायी होने के कारण उनके माजन क कारण सामग्री के होते हुए भी मार्जन रूप काय की उत्पति न होने से विशेयो अवार हूँ पदाय हेतु काव्यलिङ्ग, श्रुति, वृत्ति अनुप्रास, वसतिलका छन्द है। वा दुमान रूप काम का अन्वेषण होने से विधि का विरोध नामव बग है विवोध कायमागम्" सा० द० लोक मे दुष्यन्त को पश्चातापमाजनाथ आन्तरिक भावना का एक कुत्ता की कथा का सुन्दर अन किया गया है।
संस्कृत व्याख्यात शोभा से अपरिवाधमान तया अधरोष्ठपरित वाण्यविन्दु अरुण मोहात् अज्ञानता दुष्यन्तेन पूर्व प्रत्याख्यानाले उपेक्षित गति आकुटि लेषु वनेषु पम सक्तम् आकुटिलपश्मविलग्नम् वाणम् तम् मुख्य अपनी निगनुपातरहित मनामि तावत् भयम् तावत् ।
सरनाथ शकुन्तलया पुष्ट राजा कथयदि दत्तम स्मरण कारणमपि निवेदया पर लोग सायविन्दु प्रकरण- परित्यागात् विमुक्तो भवितुमिच्छामि यो हि वाष्पविन्दु मया पूर्व प्रत्याख्यानानवा दुपेक्षित ।

कुन्तला (मामा पुन र तदनुलोकम् । [ अज्जउत्त, एवं त अली अ
- अस्मादयोपलम्भात् मनुस्मृतिपलब्ध। दाप्रत्ययकाले दुर्लभमासीत्। दिसम किव ण ज तदा अलम्स काले दुरुह आसि ।) हिमवद्धि प्रतिपद्यता कुसुमम् ।
दिप्पणी
यह रही की अपने परित्याग ने अपने पति को दोषी सर अपने मान्य को ही दोष देती है। ति विगत रस प्रेम यस्माद् सदस्य उदविवाद एक सय पे अर्थात् विधदहित बाप-दो बार प्रयुक्त वा शब्द की वारणाय वायन के स्थान पर कारी पाठ रखा जा सकता है विगतानुराय -विगत दूरमपनीत अनुपश्चाताप यस्य स परिवाद्यमान परि+वाघ+ शाम ज्+त्वस्याविन्दु यहाँ जात्यभिप्रायेण एक aer है जो वायविन्दु आखो से निकल कर कपोलों पर वह कर अधरोष्ठ पर देर तब ठहरने के कारण उस पीडित करते थे इससे बिन्दुओ को निरन्तर पाठिता उष्णता ता अधिकता एवं चिरस्थिति तथा के अधरोष्ठ की अति- कुमार ध्वनित होती है। यहा त पद का प्रयोग जो कि पूवार का निर्देश करता है अनुपयुक्त नहीं है कि यह प्रसिद्धि जनो के देखने से चिरका गानुभूतभी दुख से हो जाते हैं। इसी प्रकार अब रात के बाद राजा को देखा तो उसे प्रत्याख्यान कर स्मरण हो आया था करत आसू निकल आये थे राजा को अओ का देखकर फिर उही प्रानकालीन आसुओ की याद आ गई दी अत एवाली आसू उसे तत्कालीन से जान पड़ते पद यहाँ नबचा उपयुक्त है।
तीति यह कहकर उसके आसू पोछने लगता है।
कुता ( राजा के नाम से अंगूठी को देखकर) आयपुत्र यही वह
अंगूठी है।
राजा इस अंगूठी के मिलने से हो बस्तृत (तुम्हारी स्मृति प्राप्त हुई। हा इसने विषम स्थिति उत्पन्न कर दी थी, क्योकि उस समय आपको विश्वास दिलाने के समय यह दुलभ हो गई थी।
राजा तो बस ऋतु के मिलन के चिह्न स्वरूप (अब) लता पुष्प धारण करे अर्थात् बसत रूप दुष्पत्त के समागम स्वरूप अब नता रूप शकुन्तला, इस पुष्प रूप अंगूठी को धारण करे।]

1 शकुन्तला नास्य विश्वसिमि आर्यपुत्र एतद् भारयतु [ण से पारण विसामि अजतो एव्व ण धारेदु । ]
(an प्रविशति मातलि 1) मातलि विष्ट्या धर्मपत्नीसमागमेन पुत्रमुख दर्शनेन चष्मा
वर्धते ।
राजा मूत् सम्पादितस्वादुफलो में मनोरथ मातले, न खलु विवितोऽयमासन्यलेन वृत्तान्त स्वात् मातलि (सस्मितम् ) किमीश्वराणां परोक्षम् ? एत्यायुष्मान् ।
- ( भगवान् मारीचरते दर्शन वितरति ।
राजा शकुन्तले अवलम्यतां पुत्र त्वां पुरस्कृत्य भगवन्तदु- मिच्छामि ।
शकुन्तला-जिह म्यार्यपुत्रेण सह गुदसमीप गन्तुम् [हिरियामि
अलेण सह गुरुसमीय गन्तु ।]
राजा- अप्याचरितम्य मयुवाले रहा हि
(सर्वे परिक्रामन्ति ।)
राहुल मैं इसका विश्वास नहीं करती आयपुत्र (आप) ही इसे
धारण करें।
(इसके बाद मातलि का प्रवेश मातलि सौभाग्यत धमपत्नी के मिलने से और पुत्र का मुख देखने से आपने अभ्युदय प्राप्त किया है (अन आपको बधाई है)
राजा मेरी इच्छा ने अब स्वादिष्ट फल प्राप्त कर लिया है। मातलि सम्भवत यह समाचार इन्द्र को विदित नहीं हुआ होगा । मालिस (मुस्कराहट के साथ) ऐश्वयशालियों के लिये कौन सी बात परोक्ष
(अदृष्ट होती है अर्थात् सब कुछ जान लेते हैं माइये, आयुष्मान् भगवान् मारीच आपको दशन दे रहे हैं। राजा शकुन्तला, पुत्र को ममालो, तुमको आगे करके भगवान् मारी के
दशन करना चाहता हूँ।
शकुन्तला पुत्र आपके साथ गुरुजनों के समीप जाने मे मुझे लल्या हो रही है।
राजा अभ्युदय के समय ऐसा ही करना चाहिये नाम आओ।
(सब चलते हैं)
समवाय कालिदास कि यह उक्ति बड़ी ही सुन्दर है तो उपमा के धनी कालिदास की अनेक ऐसी ही सुन्दर उक्तियाँ है, पर इसमे लिङ्ग साम्य विशेष रूप से

प्रविशत्यावित्या सामासनस्थों मारीच ) मारीच ( राजानमवलोक्य) दाक्षायण । पुत्रस्य ते रणशिरस्यवमाषी, युध्यन्त इत्यभिहितो भुवनस्य भर्ता । चापेन यस्य विनिवतितकर्म जान aratefanterण मघोन
आश्यक है, दुष्य न और र ० और लता स्त्रीलिङ्गीय और पुष्प पुलता पर ही पुष्प मुहिता के पास ही अंगूठी हानी चाहिये राज का यह अभिप्राय है। सगवाद मिलता वा सयोग आखण्डल इन्द्र खण्डयति पवनाश वा आया वोक्तमनुतिष्ठतीत्यादि मे प्रसाव नामक तथा राजा के वन मे भाषण नामक निवहणसव का अग है। सुपाद प्रसाद स्यात् । सामदानादिभाषणम्" ० ६०
- (इसके बाद अदिति ने साथ नस्य मारो का प्रवेश मारीच (राजा को द
पुत्रस्येति अन्वय-अयम दुष्यन्त इति निहित भुवनस्य भर्तीपुत्र चापेन विनिवर्तितम कोटि कुल मोन आभरण जात
शब्दाय-अयम् दुष्यत इति अभिहित यह दुप्यन्त नाम से विख्यात (राजा) पृथिवी लोक का सरक्षक (और) ते पुत्रस्य रणशिरसि अग्रवाची तुम्हारे पुत्र के युद्ध मे जागे चलने वालास्त है) यस्य सापेन जिसके धनुष से विनियमि जिसने दानव हनन रूप सम्पूर्ण काम पूरा कर दिया है ऐसा, कोटिमसी (गर) बाला तद्वह प्रसिद्ध कुनिशम् मन आभरणम् (अ) इद्ध के लिये आभूषण मान जातम् गया है।
अनुवाद दुष्यन नाम से बया (गवा) लोक का सरक्षक (और) तुम्हारे पुत्र इन्द्र के युद्धों मे आगे पलने वाला (है के द्वारा दानव रूप गम्पूर्ण काम पूरा कर दिया गया है। ऐसा तीक्ष्ण र माना, वह प्रसिद्ध केवल के लिये जनकार मान रह
भावाय दुत का परिचय देते हुये भगवान् मारोप गति से कहते है दक्षपुत्री इस राजा का नाम दुष्कत है, यह भूलोक का पालन करने वाला एक तुम्हारे के युद्धों में यह सबसे आगे चलने वाला है का जो क्या दानव व के कार आता था इस राजा ने अपने धनुष के द्वारा वह सब काम पूरा कर दिया है। मात् अपने धनुष से ही सब ही दानवों का मकर या अ अब इन्द्र का यह प्रसिद्धी धार वाला बच, अत्र केवल इद्र के लिये आभूषण मात्र ही रह गया है,


अदिति सभावनीयानुभावास्याकृति ( सभावणीअणुभावा से । आकिवी ।]
मातलि - आयुष्मन् एतौ पुत्रप्रतिविशुनेन चक्षुषापितरावायुष्मन्तमवलोकयत तावुपसर्प
धने ही कर दिया है के लिये उनका अलकार मात्र ही रहा है।
C संस्कृत व्याख्या-अयम्पुरो दृष्यमान दुष्यन्त इति मन् त्यो भर्तारक्षक ते सव पुत्रस्य सुवस् स्पेत्य रणशिरसि सामाभूमी पायी अग्रेसर (अस्ति यवनय चापेन धनुषा विनियतित सम्पादित दानादिकार्यं यस्य स विनियति- कम तपसि कोटिमत तीक्ष्णाय कुलसम्मन्द्रस्य, आभरणम् = अल कारस्वास सपनम
विशेष प्रस्तुत पथ में लोकाप का होने से  आभरण के प्रति विनिवर्तितम हेतु है अत पाच काय तर है ययातिनाम इस कथन से सम्पूर्ण रूप कारण की प्राप्ति होने से पर्यायोक्त अकराभरणम् का है, आभरण रूप अत पक बलकार वीररसीकृत राजविषयरतिभाव है अनुप्रास, वसन्ततिलका छन्द है।
संस्कृत समाजात दुष्यन्तमवलोक्य यणी पतिपुरोवतमान पुरुष दुष्यन्त्ययावयास अस्ति, अमेय मत्यलोकस्य पालक एव तव पुत्रस्येन्द्रस्य ग्रामभूमी अग्रे भनिन- दि रूप कम सम्पादितम् अत एवाधुना तत प्रसिद्ध वा मन्द्रस् कारस्वरूपमेवनम् करशोभाकरमेवानेन्द्र बच न तु तेन विजयादि लाभ, दुष्पधनुधै सत्यम्पादनादिति भावः ।
वाक्षायणी—स्यापत्य स्त्री दाक्षायणी तत्सम्बोधने दाक्षायण ] प्रत्यये तस्य जायन्त्रादयश्चेति दीपू रणशिरसि साम की भूमि मे यह अदिति मे नाथ है। फुलिश- कृतिका अथ हाथ है "कृति" इतिविकाष्टकुलो ह कुलिशी+तिविनाशयति कुमि जो पायी या + णिनि कोटिमत्-कोटि मन्
अदिति इसकी जाति से ही इसके पराक्रम का अनुमान किया था सकता है। -
मालिन्ये देवता के माता पिता, पुत्र प्रेम सूचक दृष्टि से आपको देख रहे है (अत आप उनके पाठ चले
राजा-मातले, एसौ- प्राह इदिशधा स्थितस्य मुनयो यत्तेजस कारण भर्ता भुवनत्रयस्य सुबुधे यद्यज्ञभागेश्वरम्। यस्मिनात्मभाव परोऽपि पुरुषश्च भवायास्पद. इन्द्र दक्षमरीचिसभवमिद तत्वदुरेकान्तरम् ॥२७॥
राजा माने, ये दोनो
प्रहरिति यत द्वारा [स्थितस्य तेजस कारण प्रापतु वन- स्परम् यज्ञभागेश्वरम् सुषुवे । यस्मिन् वात्मभाव पर पुरुष अपि भवाय आस्पदम् दक्षमरीचिसम्भवम् स्रष्टु एकान्तरम् तत् दन्द्रम्
शार्थमुख्यध्यासादिमुनि इन्द्रो को अर्थात् पति पत्नी रूप में जिस अदिति कश्यप रूप जो को, द्वादशधा स्थितस्य प्रकार से स्थित तेजस सूर्य का कारयम् उत्पत्तिकरण, प्राकहते हैं। यह मिस विनयस्य भर्तारम् तीनो लोको के सरक्षक यादरम् भागों के अधिकारी देवताओं के स्वामी (इन्द्र) को जन्म दिया है। [दस्मिन् जिस रूप जो आत्ममव पर पुरुष अपि स्वयम्भू परम पुरुष विष्णु ने भी भवाय वामन रूप से जन्म धारण करने के लिये, वास्पदम् स्थान ग्रहण किया था, दक्ष मरीचिसम्भवम् प्रजापति दक्ष और मरीचि से उत्पन्न (सारण) स एकान्त एक रूप (व या पीढी का व्यवधान रखने वाला यह जोटा अर्थात् अदिति और का = = जोबा है।
अनुवाद व्यासादि मुनिजन जिस जो को बारह रूप में विद्यमान सूर्य का (भी) उत्पत्ति कारण कहते हैं, जिस जांबे ने तीनो लोको के सरक्षक (और) -धकारी देवताओ के स्वामी को (भी) उत्पन्न किया है जिस जो मे स्वयम्भू परम पुरुष विष्णु ने भी दामन रूप में जन्म धारण करने के लिये स्थान ग्रहण किया था पति दक्ष एवं मरीचि से उत्पन्न (बएम) ह्या से केवल एक पुरुष का व्यवधान रखने वाला यह प्रसिद्ध यह अदिति कश्यप का जोना है।
सादादिति कप का यह पति पत्नी का जोer] दक्ष प्रजापति एवं म से उत्पन्न हुआ है, दवा एवं मरीचि दोनो ब्रह्मपुत्र हैं, दशपुत्री अदिति है और वि पुत्र मारी प्रकार से इस जो मे केवल एक पीढी का अन्तर है यही जो बारह प्रकार से विद्यमान का भी उत्पत्ति स्थान है। और माधिकारी देवताओ के अधीश्वर को भी इसी जोड़े ने जन्म दिया है, इतना ही नही स्वयम्भू परम पुरुष विष्णु ने भी वामन रूप में उत्पन्न होने के लिये इन्हीं का प्रण किया था।
प्रस्तुत लोक के तीन चरणों में महापुरुष चरित का वर्णन होने से मासोदकर है, 'आत्मभव भवाय' में विरोधाभास सरकार है. कुछ टीकाकारों ने
यहाँ समुच्चयानकार भी माना है। देवविधयक रतिमान है कि नामक छन्द है।
संस्कृत व्याख्यामुनय यासादयतु] इन्द्रम् स्थितस्य माधरस्य द्वादशात्मकस्येत्य स्थितस्य विद्यमानस्य तेजस समस्य कारणम् -- उत्पत्तिस्थानम् प्रापयन्ति । - भूर्भुवस्व सकस्य लोकस्य परसरक्षक याद भागा देवा तेषामीश्वरस्तम्यमानेश्वरम इदम् सुषुवे उत्पादयामास यस्मिन् आत्मभव स्वयम्भू पर पुरुष परमपुरुष विष्णु अभिय यामन रूपेण जाय, आस्पदम् स्थान वा दक्ष मरीचिश्च भव उत्पत्तिस्थान यस्य तत् दक्षमरीचिसम्भवम् तु पण एकमात्रम् अन्तर धान मस्य तत एकानारम् उत्तम् अस्ति
माप वर्तत इदमेव इन्द्र द्वादरूपेण विद्यमानस्य तेजोमयस्य यस्योत्पत्तिस्थान मस्ति इदमेव [इ] रक्षक देवर देवेन्द्रम् अपि उत्पादयामास । अस्मिन्नेव इन्द्र परमपुरुष विष्णुरपि वामनरूपेण जन्मग्रहणाय स्वायते ।
सम्भावनानुभावा-सम्बादतीय अनुमान पासा, जिसके प्रभावोत्क का अनुमान किया जा सकता है। पुत्र प्रतिपिशुन पुत्र या प्रीति तस्या विशुन कम् तेन द्वास्थितस्य बारह महीनो में ग्रुप के बारह नाम इस प्रकार पुराणो मे पाये जाते हैं विष्णुश्य जाते नरेव हि। अयमा चैव धाता स्वष्टा पूषा तथैव च । विवस्वान् सविता गोबर एव च। अशुभचादितिजा आदित्या द्वादश स्मृता विष्णु पुराण "अदित्या द्वादशादित्या सम्भूतानेश्वरा चातावरेव च भो विवस्वान पूषा च सविता दशस्तथा । एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णु महाभारत कोई माचाय दावा का we greenarrer भी करते हैं, क्योंकि सूर्य की १२ ला मानी गई है। "उनी तापिनी धूम्रा मरीचि fet रुचि userseer feet a धारिणी] [दामा सेक्स तेजोमय सूर्य का इससे अदिति और का प्रभावतिशय तित होता है। मुनयस्तरम्भू र स्वरूप तीनो लोकों की रक्षा करने वाले उप किया वर्षात् इन्द्र केमी जनक विष्णु पुराण में कहा गया है, अदिते पापान्याता देवान्वेन्द्रादयोऽजम आत्मन-स्वयं उत्पन्न होने याले पर पृथ्वपरम पुरुष विष्णू भवाय जन्म पग करने के लिए चामन कर मे अवतार लेने के लिये, इससे स्पष्ट है कि बदिति और कश्य से ही वामन अवतार हुआ था तब विष्णु के भी माता पिता है। विष्णु पुराण में इस सम्बन्ध मे है "मन्यारे व प्राप्त तथा स्वद्विन वामन कस्यपा

मातलि अथ किम् ?
राजा - (उपगम्य) उमाभ्यामपि वासवनियोज्यो दुष्यन्त प्रणमति । मारीच वत्स, चिर जीव पृथिवीपालय ।
अदिति-वत्स, अप्रतिरथो भव। यच्छ अप्पट हो होहि ।] शकुन्तला-पारकसहिता वा पादवन्दन करोमि। [दारअसहिया की
दवन्दण करेमि ।]
मारीच बरसे.
आण्डसम भर्ता जयन्तप्रतिम सुतः । आशीरस्या न ते योग्या पोलोमीसदृशी भव ॥२८॥
"आमच आत्मनस्य द्वितीयैकवचन एकान्तरम् इनके बीच केवल एक ही दक्ष और मरीचि का मरीच का दूसरा नाम कयय भी । आपदमा समतात् पचते अस्मिन्निति पद अधिकरणे च निपात- आपस्थानम् इति इन्द्रम् पनि प्रस्तुत पद्य के मन से ज्ञात होता है कि afrate य थे, तथापि वे समय ही प्रसिद्ध हैं। स्तुत कालिदास की रचनाओ से यद्यपि दही माने जाते हैं कि तु कालिदास की भी देवताओं पर एक-सी ही आस्था थी, उन्हें जहा जिस किसी भी देवता के वर्णन अवसर मिला है वहाँ उन्होने उसका वही मति के साथ मगन किया है, के ही मत विशेष के कटटर अनुयायी न थे।
मालिऔर क्या अर्थात् कथन सत्य है। राजा ( पास जाकर) इन्द्र का सेवक दुष्यन्त आप दोनो को प्रणाम
रखा है। मारी, चिरजीवी हो, पथिवी का पालन करो।
अविति पुत्र अद्वितीय महारथी बनो । कुपुत्र सहित मैं आप दोनों की परमवन्दना करती है।
मारोषपुत्री,
मर्दा यस सुत जयन्तप्रतिम पौलोमी सदृशी
बन्या जाणते योग्य न ।
तुम्हारा पति खण्ड इन्द्र के समान है सुपुत्र दमन, जयप्रतिम पुत्र के समान है, पोलोमीही तुम भी के समान बनाइसके अतिरिक्त अन्य कोई ते तुम्हारे योग नहीं है।
अनुवाद तुम्हारा पति दुष्यन्त इन्द्र के समान है, और तुम्हारा पुत्र सदन, द्र पुत्र जय के तुल्य है, तुम इन्द्राणी के समान बनो, इसके अतिरिक्त अन्य कोई तुम्हारे योग्य नहीं है।

= = तब संस्कृत व्यायामयति दुष्यन्त खण्डसइन्द्र सत पुत्र सदन, जयंत दस प्रतिमा उपमा यस्य स जय उन् समय सम्बन्धे अन्य एतद्व्यतिरिका, काशी] भासाचतम न यौग्यानीपयुक्ता (अत स्वम्) पौलोमसी भवाभव।
अदिति जाते मता भय अथ च दीर्घायु वत्सक उमयकुल नन्दनो भवतु उपविशत [आदे, भत्तणो बहुमदा होहि अब दहक
बच्छ उन्दो हो। उवविसह
(सर्वे प्रजापतिमभित उपविशन्ति)
मारीच (एकेक निदिशन् )
दिष्टया ला-माध्वी सहपत्यमिद भवान् । श्रद्धा वित्त विधिश्चेति चितय तत् समागतम् ॥२
भावाच महामारीच कहते हैं कि वरसे तुम्हारा पति इन्द्र के समान है, और तुम्हारा पुष इन्द्र के पुत्र जयन्त के समान है, इसलिए तुम्हारे लिए बाप कोई आशीर्वाद उपयुक्त नहीं है, केवल यही कि तुम भी इन्द्राणी के समान विनी एव बन
विशेष अर्थ के प्रति हेतु है अत वाक्यार्थ हेतुककाव्यलिङ्गजलकार है। उपमा अनुप्रास तथा अनुष्टुप छन्द है नामक कार एवं वात्सल्य भाव है "आशसन स्यादाशसा"।
सरलार्थमारोप कथयति से पति दुष्यन्त इस मस्ति जयन्त बस्ति । अतस्तव विपदेशीत स्वमपि इन्द्राणी- या भवेति द्राणवावा पत्यादियुक्त तिष्ठति त्वमपि भवेति ।
टिप्पणी
वासवनियोज्य – इन्द्रस्याशाकारीप्रतिरच प्रतिकूल रथ प्रतिरथ न विद्यते प्रतिरथ यस्य अप्रतिरथ अन्य सेन समद्र के समान सम्पन्न पौलोमी दम्मा सदृशी- इन्द्राणी के तुल्य सदा सौभाग्यवती रहो। योग्या—पुज व्यवठा पौलोमो- लोमन नामक राक्षस की पुत्री थी, इद्र ने लोसन का वध किया था। “पुलोमान
जाना जो जामाता न त "हरिया अदिति पुत्री पति की बहुमानीया बनो और यह चिर वीक दोनो
कुलों को आनन्दित करने वाला हो तुम सब बैठो
(सभी प्रजापति के चारो ओर बैठ जाते हैं
मारीच ( एक-एक को निर्देश करते हुए)
विधि इति चितय समागतम्।

राजा भगवन् प्रागभिप्रेतसिद्धि पश्चात् दर्शनम् अतोऽपूर्व खलु षोऽनुग्रह । कुत-
शब्दार्थ-साध्वी सपरिवाइवत् अपत्यम्य सद्गुणसम्पत्र भवान् और आपात दिष्ट्या सौभाग्यतापि बुद्धि, वित्तम संग्रह विधिशास्त्रविहित कर्मानुष्ठान, इति तय सीमो भीजे, समागतम् एक स्थान पर मिल गई है।
अनुवाद यह रिया पशकुन्तला, यह सद्गुणी पुत्र और आप सौभाग्य से श्रद्धा और नो ही एक स्थान पर मिल गये हैं।
यह सौभाग्य की बात कहाँ पर पता और बाप तीन प्रकार मिल गये है, जैसे बड़ा और शास् विमिष्ठान एक साथ मिल जाते हैं।
विशेष—यहाँ श्रद्धा आदि का साहस्य वर्णित होने से असम्भव वस्तु
सम्दा यिशनालकार यचासयानकार अनुष्टुप छन्द है।
तस्कृत व्यारागाही अपत्यम् तथा भवान् दुष्यन्त दिष्ट्या सौभाग्यत बढ़ा भक्ति वित्तमान विधि इति तु वितथम् एतत वस्तुयम् समागतम एकत्र सम्मिलितम् ।
संस्कृत सरस या धनेन विधिना पमिव स्वर्गादिफलप्रदा मनुष्य नात्यापर मेतेषा सयोग सुलभ एवं जायते यदि सोमस्य कदाचिदेषापि हि मनोरसि न कापि समीतिज छात्र दश वा घनस्वरूप पुत्र एवं विधिरूप दुष्यन्त सौभाग्य एवम समात बसवमनोरथ सिद्धिमिध्यतीति निश्चय ।
टिप्पणी
उपकुलमान और नन्दनल्यू अन् मान करने वाला श्रद्धा शास्त्रों एवं पूज्यजनो पर दृढ़ विश्वास और अनुराग विधिति  के अनुसार कर्मानुष्ठान पिम् त्रिशब्द से यस कवि के इस साम्य मेसिन साम्य भी कवि दिनमान के साफल्य के लिए बड़ा धन एवं विधि इन तीनो को हो कब है, जिस कम से इनमें से एक का भी प्रभाव होता वह कार्य पुत सफल न हो सकेगा। कवि के इस श्लोक से यह भी ज्ञात होता है कि वह उस समय माना कि देश मे शो का पूर्णत प्रचलन था और शास्त्री पर लोगो की
पूर्ण श्रद्धा थी, शुभ कुन और भाग्य पर लोगों की बारा थी। राजा भगवन पहले तो अपने मनोरथ की सिद्धि हुई पत्नी और पुत्र की [आणि] रूप मेरी अमीष्ट सिद्धि हुई इसके बाद आपका दान हुआ। वस्तुत

प्रदेति पूर्व कुसुम तत फल. धोदय प्राह तदनन्तर पथ । निमित्तनैमित्तिकयोरय कम-
स्तव प्रसादस्य पुरस्तु सम्पद ॥३०॥
के पश्चात तत्स्वरूप अभीष्ट सिद्धि होनी चाहिए थी, क्योंकि कारण के पश्चात् ही उपहोता है कि तु यहा इसके विपरीत ही हुआ। अत आप लोगो का यह अनुग्रह वाही है क्योंकि
उतीति कुसुम उदेति तत फलम प्रापनोदय तदनन्तरम् पय । निमिशनमित्तिको जय म त प्रसादस्य र सम्पद ।
पहले पुष्प उदेति निकलता है सफल तब उसमे फल लगता है अापले धन का उदय होता है। रम्प इसके उपरान्त जल बरसता है निमित्तनैमित्तिक्यों कारण और कार्य = का जम्म कम होता है अर्थात पहले कारण और तब कार्य होता है। सास्य तु पुर सम्पदन्तु (कारण आपके अनुग्रह के पूर्व ही (कार्य रूप) सम्पत्तियों प्राप्त होती है।
अनुवाद पुष्प मिलता है, तब फल लगता है, पहले मेोका उद होता है, इसके बाद जल मरता है, कारण र कार्य के बीच यही रहता है अर्थात् कारण के बाद काय होता है. किन्तु (कारण रूप आपके (काय रूप) सम्पत्तियाँ प्राप्त हो गई है अत आपका अनुग्रहपूर्ण है
भावार्थ- कार्य और कारण के बीच नियमत कारण की स्थिति पहले होती है और तब उस कारण से ही काम की उत्पत्ति होती है, फल का कारण पुष्प होता है वृक्षादि में पुष्प पहले होता है तब उसमे फल लगता है, जनका कारण मेघों का उदय होता है पहले मेघ आते है इसके बाद वर्षा होती है। परन्तु काय कारण की इस स्थिति के विपरीत ही आपके अनु र फलप्राप्ति की परिस्थिति है, पत्नी और पुत्र की प्राप्ति तो मुझे पहले हो गई पर आप का अनुग्रह बाद मे प्राप्त हुआ, आप जैसे महवियों के अनुग्रह में यहीं अता है।
विशेष—यह प्रथम दो वाक्यार्थ तृतीय वाक्य के प्रति हेतु है मत वाक्यार्थहेतुका बलकार है। चतुर्थपाद मे काय कारण का व्यतिक्रम साया गया है अत अतिशयोक्ति बलकार है दोनों के परस्पर निरपेक्ष होने से सट है, उदेति किया का सभी अन्वय होने से कियादीपक मलकार है और पुष न कहकर 'सम्पद कहने से अप्रस्तुतप्रशसाकार है कोई यहाँ दृष्टान्त बलकार मानते है, वृत्ति, अनुप्रास नामक छन्द है। विस्मय

मातलि एवं विधातार प्रसीदन्ति ।
राजा भगवन् मामाज्ञाकरी यो गान्धर्वेण विवाहविधिनोपयस्य कस्यचित् कालस्य गन्धुभिरानीता स्मृतिसंबिल्यात् प्रत्यादिशमपराद्धोऽस्मि तत्रभवतो युष्मत्स गोत्रस्य कण्वस्य पश्चादड, गुलीयकदर्शनादपूर्वा तद्दुहित रमयगतोऽहम् चित्रमय से प्रतिभाति ।
भाव। यहाँ मधुर नामक नाट्य लक्षण है। सा० द० मे विश्वनाथ ने इसे नामक नाटको का उदाहरण दिया है स्यात् प्रमाणयितु पूज्य प्रियोक्ति भाषणम्"।
सस्कृत व्याख्यानम् प्रथमम् कुमुमम् पुष्पम् उदेति उद्गच्छति, सव कारणरूप पुष्पोद्यमान तरम् फलमसका वृक्षादिषु फल जायते । प्रथम चनानामेानाम उदय आगमनोदय तदनन्तरम् तत्पश्चात् पर दृष्टि भवति । निमितको निमित्तस्य कारणस्य समिति कार्यस्य अयम क्रम अय नियम पौर्वापयम मानुपूर्वी या भवति तयारीचय प्रसादस्य अनुग्रहस्य, किन्तु पुरमेव सम्पदास्य कला- बाप्तिरूपसम्पत्तय सन्ति ।
कृताकार्यकारणयों पौर्वापयक्रम एवविध भवति यत् कारण पूर्व भवति कारणानन्तरमेव कार्य जायते यथा पुष्पोद्यमानन्तर फलागम मे दयानसर भवति पर माया स्वकारणात् ममेव राशन पायात काय मजापत, अतएव पूज्यस्यानुप आसीत् ।
टिप्पणी
अभिप्रेत अभिप्रेतस्य अष्टपदायस्य सिद्धि प्राप्ति पुत्रका पिष्टार्थ प्राप्ति । अपूर्व अनुपम निमित्त नमितिको निमित्त मिति निमित ठ
मातलि भाग्यविधाता सोग इसी प्रकार कृपा करते हैं।
राजा आपकी कारिणी कुता के साथ गान्धविवाह- विधि से विवाह करके कुछ समय बाद वो द्वारा मेरे पास से आई गई इसका स्मरणशक्ति की लता के कारण परित्याग करते हुए मैं आपके मज पूजनीय कष्य ऋषि का अपराध किया है, इसके बाद अंगूठी के मिलने पर मुझे ज्ञात हुआ कि मैंने पहले उनको पुत्री के साथ विवाह किया था। यह बात मुझे कार्यजनक सी प्रतीत होती है।

यया गजो नेति समक्षरपे
तस्मिकामति सशय स्यात् । पदानि दृष्ट्वा तु भवेत् प्रतीति- स्ताविधो मे मनसो बिकार ॥३१॥
यति समक्ष इति तस्मिन् अपक्रामतिराम स्यात् । पदानि तु प्रतीति भवेत् तथाविध मे मन विचार
शब्दार्थमा जैसे समझ प्रत्यक्ष सामने होने पर इति यह मान लिया जाय कि यह यह नहीं है। तस्मिन् भएकाम सके जाने पर यस्मात् यह सन्देह हो कि सम्भवत वह नही था पदानि दृष्ट्वा तु प्रती भवेत् उसके पदचिन्हो को दे (उसके होने का विश्वास हो तथाविधवे मनस विकार आसीत उसी प्रकार का मेरे मन का विकार था।
अनुवाद जैसे प्रत्यक्ष सामने होने पर तो यह मान लिया जाय कि यह गज नहीं है और उसके चले जाने पर यह सन्देह हो कि ही था, पुन उसके पद चिन्हों को देखकर यह ही था, इस प्रकार का ही यह मेरे मन का विकार था।
मायाराजा कहता है कि मेरे मन का यह विकार जिससे वाध्य हो शकुन्तला का परित्याग किया था वैसा ही था जैसा कि किसी व्यक्ति को के सामने उपस्थित होने पर तो यह समझ लिया जाय कि नह नहीं है, और जब यह पता जाय तब यह सन्देह हो कि सम्भवत यह मन ही का और फिर उसके पदचिन्हों को देखकर यह पूरा विश्वास हो जाय कि यह हो है तात्पय यह कि जब तला स्वयं मेरे सामने उपस्थित हुई तब तो मुझे यह ज्ञात हुआ कि यह मेरी भार्या नहीं है उसके चले जाने पर यह सन्देह कि मैंने कभी इसके साथ विवाह भी किया था। इसके बाद अंगूठी देखकर यह निश्चय हुआ कि वास्तव में यह मेरी भार्या ही थी।
विशेष सम्बद्वस्तुसम्बलक्षणा निवशना भसकार अनुप्रास उपजाति छन्द, अद्भुत रस, "कुर्यादसम्" इसति के अनुसार निवसन्धिमे तरस होना चाहिये।
सरकत व्यायामादेन प्रकारेण समझ प्रत्यक्ष स्वस्य यस्य तस्मिन् समरु (गजे) (अयम्) नइतिगो नास्ति इति विश्वासो भवेत् तस्मिन् अपक्रामतिदूर पते सति सा भवेत्पदानि दृष्ट्या भूमौ तस्य पदचिन्हान निरीक्ष्य प्रतीति भए सीत् तथाविधा एवं दुष्यन्तस्य मनस वेतस विकारविश्रम

मारीचयरस, अलमात्नापराधशया समोहोऽपि स्वध्यनुपप भूयताम्-
राजा -अवहितोऽस्मि ।
मारीच पर्वाप्सरस्तीर्थावतरणात् प्रत्यक्ष-वलया शकुन्तलामादाय मेनका दाक्षायणीमुपता तदेव ध्यानादवगतोऽस्मि दुर्वा शापादि तप- स्विनी सहधर्मचारिणी त्वया प्रत्यादिष्टा नान्यचेति । स चापमडगुलीयक- दर्शनावसान ।
संस्कृत घराचा प्रत्यक्षत समुपस्थिते गये विज्याद नागिन तस्मिन दूर पते सति सन्देो भवेत् तदनु भूमीतस्य पन्हा निरीक्ष्यो विश्वास जात वस्तु एवासोत् साहस एव मम पितस्य विमासीत् ।
टिप्पणी
विधाता विधातृ भागा विद्या भाग्य को अपनी इच्छानुसार चलाने वाले मारीय व प्रसीदन्ति प्रसद होते है। आज्ञाकारी बाजाकारिणीम् देविकामित्यर्थ आज्ञा "कुमायादिना साखोल्या (अ) प्रत्यय यययम्+ मत्वा विवाद करके कस्यचित् कालस्य कुछ समय बाद अपरा अपराध्+अपराध किया था। सगोचस्य समान सोच यस्य तस्य मारी पुत्र मारीच को कश्यप भी कहा गया है और महाभारत में महर्षि कण्व को काश्य भी कहा गया है इससे स्पस्ट है कि कश्यप गोत्रीय होने से ही कच काश्यप कहलाते थे। महर्षि मरीचि कश्यप के see a verगोषस्य का इस प्रकार विग्रह किया जाना ठीक होगा, गोत्रेण सहित समस्य सगोच यस्य तस्य अर्थात् बाप जिस के प्रवर्तक हैं। पति- श्लोक में राजा ने बुद्धि की तीन अवस्थाओं का निर्देश किया है के प्रत्यक्ष उपस्थित होने पर राजा न खलु स्वीकर मित्यादि और उसके चले जाने पर देकर वृद्धिमा कुलंग, सूद स्वामहमेषा वा" इत्यादि अन्त मे अनूठी प्राप्त कर विश्वास करता है "अदनानु इत्यादि इसी बात को यज के उदाहरण द्वारा प्रस्तुत किया गया है अपक्रामति- अप++
मारीच पुत्र अपने अपराध की शक करना व्यर्थ है तुम्हे अपने को अपराधी न समझना चाहिए। पित्त या मनोविकार भी तुम मे सम्भवत् उचित नहीं सुनिये-
राजा मैं सावधान है।
मारीच ज्योहि अप्सरस्तीय घाट से अत्यधिक व्याकुलता को लेकर मेनका दाक्षायणी के पास आई, उसी समय मैंने ध्यान से ज्ञान लिया था कि दुर्वासा के

राजा - ( सोच्छ्वासम् एवं वचनीयान्मुक्तोऽस्मि ।
शकुन्तला - (स्वगतम्) विष्याका रणप्रत्यादेशी नावंपुत्र न खलु सप्तमात्मान स्मरामि अथवा प्राप्तो मया स हि शायरिया 1 न विदित अत सखीया सन्दिष्टास्मि भट्ट र गुलीयक दर्शवितव्यमिति । [दिट्ठिा अकारणपच्चादेसी ण अजउतो ण हु सत्त अत्ताण सुमरेमि । अहवा पत्तो मए सहि साबो विरहगुणाहिए ण विदियो। अदो सहीहि
सहि भत्तणो अगुलीन इदव्यति ।] मारोष बरसे, चरितार्थासि तविधान सहधर्मचारिण प्रतिन त्वया मन्यु कार्य । पश्च-
शाप से यह बेचारी सहधमचारिणी तुम्हारे द्वारा निराहत हुई है। नहीं वह शाप अंगूठी के देखते ही समाप्त होने वाला था ।
राजा (लास लेकर अब मैं लोकनिन्दा से मुक्त हो गया हूँ। शकुन्तला (मन मे यह सौभाग्य की बात है कि आप पुत्र ने बिना कारण मेरा परित्याग नहीं किया था. मुझे स्मरण नही है कि मुझे कभी शाप दिया गया या मुझे शाप दिया तो गया था किंतु विरह से हृदया होने के कारण मैं साप को नहीं जान पाई थी, इसलिए मेरी गलियों ने मुझसे विशेष रूप से कहा या कि पति को अभी यह अंगूठी दिखा देना।
आत्मापराधारमन अपराधत्यकासमा असमिति योगे तृतीया । अनुभवअनुचित उप+अर्थात् तुम्हारे बसे व्यक्ति ने अकारण त म उप होना भी सम्भव नहीं था से तार भी इसी का वाचक है। विकलता जिसकी व्याकुलता प्रत्यक्ष देखी जा सकती थी, व्याकुलता मानसिक ही नहीं शरीर भी प्रकट हो रही थी।
ध्यानात् प्रणिधान से मारीच द्वारा शाप की बात स्पष्ट कर देने से राजा अपने को निर्दोष समझने लगा था और हल्ला ने भी राजा को मान लिया या जो कि दोनों के भावी प्रेम के लिए आवश्यक था कवि द्वारा कल्पना नायक को निर्दोष प्रमाणित करने के लिए बावश्यक थी।
अगुलीयक, गुलोकस्य दर्शनम् अवसान यस्सो ( सा
स्युट् अवसानसमाप्ति
मारीची, तुम परिवार्या सफल मनोरथा हो मर्याद तुम्हारा मनोर अब पूर्ण हो गया है। अब तुम्हे अपने सङ्घर्मचारी पति के प्रति षन करना चाहिए, देखो-

शापादसि प्रतिहता स्मृतिरोध
प्रभुता
छाया न मूच्छति लोपहतप्रसादे
तदेव
शुद्धे तु वपण सुलभावकाणा ॥ ३२॥
शापादिति शापात् स्मृति प्रति अपेततमसि ( तस्मिन् सव एवं प्रभुता मलोपा पण छाया नमून्छति शुद्धे तु सुलभावकाशा
शापाद के कारण स्मृतिरोध शक्ति के जाने से निष्ठुर भरि पति के होने पर प्रतिता असितुम तिरस्कृत हुई थी। अनमति भरि जिसका आनानान्धकार दूर हो गया है ऐसे पति पर (अब) एवं प्रभुना तुम्हारी ही प्रभुता रहेगी। मोके कारण जिसको स्वच्छता नष्ट हो गई है ऐसे दमण पर छाया न मूच्छति प्रतिविम्ब स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ता है। स्वच्छ पच पर तो, सुलभावका प्रतिविम्व साफ दिखलाई पडेगा।
अनुपतिस्मृति निरोध के कारण कठोर हो जाने परमरित हुई थी उस पान के नष्ट हो जाने पर पति पर तुम्हारी ही प्रभुता रहेगी। मैच से विनष्ट स्वच्छता वाले वपण पर प्रतिविम्ब नहीं पडता पर उसी स्वच्छ अपन पर प्रतिविम्ब स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता है।
भावाथमारोप कहा है कि दुर्वासा के कारण पहले तुम्हारे पति को स्मरण शक्ति हो गई थी इसीलिए यह तुम्हारे प्रति इतने कठोर हो गये और तुम उनके द्वारा तिरस्कृत हुई थी किन्तु अब उसका प्रभाव समाप्त हो गया है इसलिए जब तुम्हारे पति पर तुम्हारा ही पूर्ण अधिकार गा इसी बात को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए वे कहते है कि धूल आदि से मलिन होने के कारण जब दर्पण की स्वच्छता नष्ट हो जाती है तब उस पर प्रतिबिम्ब साफ दिखाई नहीं रहता किन्तु जब यह स्वच्छ होता है तब उस पर नहीं प्रतिविम्ब स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता है।
विशेष प्रस्तुत श्लोक में कुछ टीकाकारी ने स्वम् और छावा भर्ता और स्मृतिरोध और मनोपप्रसाद प्रतिहता और नमून्छति अपेतम और शुद्ध प्रभुता और सुलमायकामा इन सब में तुलना करके उपमालकार माना है, पर उपमा की यह कल्पना समीचीन नहीं, इससे तो अलमार ही यहाँ स्पष्ट है इसी प्रकार प्रतिवस्तूपमानकार की कल्पना भी अस्पष्ट है। छाया की स्पष्ट ि व्यक्ति ने पूछता हेतु है, त काम्यलिङ्ग अलकार है। "भतरि प्रभुता तद" इस कथन मे असम्बन्ध मे सम्बन्ध चलना अतिशयोक्ति जलकार है, क्योंकि प्रभुता, मे ही रहती है, पानी मे नही "वो भर्ती प्रभु या वनिता सा भूता" इस शास्त्र वचन के अनुसार पति ही प्रभु और प्रधान तथा भरण पोषण करने वाला होता है, माय


राजा यथाह भगवान्
मारीच परस, कच्चिदभिनन्दितस्त्वया विधिवदस्माभिरनुष्ठित- जातकर्मा पुत्र एवं शाकुन्तलेय
राजा भगवान् अत्र खलु मे वशप्रतिष्ठा । (इति बाल हस्तेन गृह गाति ।)
योग होती है क्योकि वह पति द्वारा भरणीया होती है कवि ने यहा प्रमुख और अत्व को बतलाया है, जबकि नियम दोनो का आय एक होना चाहिए अत यहा अति अलकार ही है. दोनो मे बडगामी भाव है।
महादशा म तरिष्यते सति प्रतिहता अतिरस्कृता (परमधुना ) अपेत दूरीभूत शाका यस्मात हस्मिन-ततमसि प्रकृति एवं प्रभुता एवं स्वाम्यत्वम् प्रमुख अधिकारी वा न वसलीनामिति भाव मनेन प्रत्यादिना उक्त विप्रसाद स्वच्छता यस्य तस्मिन्दमुकुरले छाया प्रतिविम्वम् न मृच्छति प्रसरति तु निमले (साय सुलभ सुचेन ar aante प्रवेश स्थान वा यस्याभावात
संस्कृत सरलाय मारीच कथयति प्रथम तब प्रत्याख्यानस्य कारण दुर्वाससा प्रताप एवासी शादेवस्मात पतित्वा प्रत्यानया अतस्तप्रति न त्वया मधु काय असा मुली व्यपगत शापान्धकारेातभरि पुष्यमी सवय प्रभुता भविष्यति नत्वन्यसनी- नाम् इत्यादिना मनिनीभूते दपणे प्रतिबिम्ब न प्रसरति निमले तु वपने देवष्ट निपतति ।
टिप्पणी
चरिताय पनि सफलीभूत a प्रयोजन यया सा फलमनोरथा । यति न्निये मुन्छति भारतस्य" र प्रतिहता प्रति+छन्+टाप् शुद्ध घ्+ गन्धरोध
अत अप+इ+प्रतिषिद राजा भगवन् जैसा आप कहते है अर्थात् आप ठीक कहते हैं।
मारीच. मोगो के द्वारा जिसका विधिवत जातक सत्कार किया गया है ऐसा पुत्र का नया आपने अभिनन्दन किया अर्थात् क्या आपने इसे सह स्वीकार कर लिया है?
राजा भगव इस पुत्र पर ही तो मेरे बस की प्रतिष्ठा निचर करती है। (यह कहकर बालक का हाथ पकड़ता है
मारीच तथाभाविनमेन चक्रवर्तिनमवगच्छतु नवान् पय- श्वेनानुद्धातस्तिमितगतिमा तीजलधि,
पुरा सप्तद्वीपा जयति वसुधामप्रतिरथ
हाय सवाना प्रसभदमनात् सर्वदमन
पुनर्यास्यत्वास्या भरत इति लोकस्य भरणात् ॥ ३३
मारीच आप इसे उसी प्रकार का होने वाला अर्थात् प्रतिष्ठाका सम देखिये-
रनतिमतिर अयम् अनुद्घातस्तिमितगतिना रथेन टीमजल पूरा सप्तद्वीपा वसुधाम् जयति इह सस्थानाम् प्रसदमा सवदमन पुन लोक मरणात भरत इति यावति।
शब्दार्थ-अप्रतिरथ अयम्प्रतिद्वन्द्र अर्थात् अद्वितीय वीर यह (बाल- अनुतस्तिमित गतिमा सटके या धक्के से रहित और मात गवि माले, स्पेन रथ से रथाकार आकाशमान से तीर्थजलधिसमुद्र को पार करने वा ( होकर), पुरा सप्पा वसुधाम् जयति पविषय मे सात द्वीप माली पृथिवी जीतेगा दयाँ (इस atter में यह सभदमनात्- जीनों के दमन करने के कारण, सवदमन इसका नाम सवदमन न पर भविष्य में लोकस्य मरणात्सोको कारण पण करने के कार भरत इति ख्याम् पास्यति भरत इस नाम को प्राप्त करेगा ।
अनुबाद - अद्वितीय महारथी यह बालक (भूतल का स्वर्ण न होने के कार या धर से रहित एवं शान्त गति वाले रम अर्थात् रथाकार आकाशयान समुद्र को पार करने वाला ( होकर) भविष्य मे सप्तद्वीपो वाली पूथिनी को जो यहाँ इस तपोवन में यह बालक वन्यजीवों का दलालु दमन करने के कारण सबंद नाम वाला था कि तु भविष्य मे लोकों का भरण पोषण करने के कारण, भरत नाम को प्राप्त करेगा।
भावार्थमारी कहते है कि यह मानक द्वितीय महारथी होगा, अपने राकार उस विमान द्वारा, जिसमे भूतल स्वर्ण न होने के कारण के मग हो और जो शान्त गति से चलने वाला हो, समुद्रो को पार करके भविष्य सप्तधा को जीतेगा यहाँ यह सर्वदमन इस नाम से इसलिये पुकारा जा है क्योंकि यह बलात् वन्य जीवों का दमन करने वाला है किन्तु भविष्य में ग्रहो का भरण पोषण करने वाला होगा, बस इसका नाम भरत पड़ेगा।
विशेष प्रस्तुत पद्म मे भायो विजय का उल्लेख होने से भा अनुप्रास तथा शिरी नामक छन्द है ।

संस्कृतविद्यते प्रतिरथ प्रतिद्वन्दी प्रतियोदा र यस् अप्रतिरथ अद्वितीयो वीर कपुरस्थित उद्या पाता अभूतलस्पर्शाद प्रतिपातरहिता (एच) स्तिमितानिन साता वा गति गमन यस्य तेनुपातस्तिमितगतिना रथेन रथाकारेण आकाशयानेन तीर्णा - सोग [wear समुद्रा येन सीजन पुरागमिति काले, सप्तद्वीपा जयक्षादिप्तीमताम् वसुधाम् पृथिवीम् वपति जेष्यति । बाधमे, सत्वानाम्सादिम्यन्नाम्प्रसभमनात् (प्रथम बलात् चमन शासन तस्मात् सा दमनकारणात् दमदमन इतिनामय अस्ति पुनः भूप] गोकस्य भुवनस्य धरणाद्पालनाद, भरत इति व्याभरत इति
संस्कृत सरलाय मारीच पतिय ते पुत्र अद्वितीय नौरो भविष्यति । अयमसितनिष्कम्पगतिमा ब्राकाशयानेन समुद्रात् समुत्तीय आवामिनि काले दमनकारणात् दमन हत्या पर मागामिनि काले सकभर भरत इत्या प्रापयति ।
कवि-प्रश्नसूचक अव्ययाया अपत्यानित्यर्थे दावा इति एक प्रत्यय (एव) तथाधाविनो य मेसा हो प्रतिष्ठाकार होगा यस्य तथाभवतात तथाभावी उम् तथा+भू+कटर आवश्यक पनि नयाँ र पद से थाकर विमान तपय है, कि साधारण रथ से समुद्रों को पार नहीं किया जा सकता था, इसी प्रकार के रथ का उल्लेख से कवि ने किया है "वसिष्ठ मन्या प्रभावा- दाकाशमधरेषु यस्यैव बलाहकस्य गरि विजने नहि यस्य" । अनुत्तमनुयात 'ययावनुपातमा र सप्तद्वीपा - साठा वाली सात द्वीप-जम्मू, प्लक्ष, शाक और पुष्कर, सम्पूर्ण पृथ्वी का इन सात द्वीपो में विभक्त माना गया था, एक द्वीप के बाद एक समुद्र इसे विभक्त करता है, इन द्वीपो मे पाम्बूद्वीप प्रमुख एवं मध्य भाग मे मामा जाता है 'जम्बूद्वीप प्रमानोज्य प्स शात्मभिरेव च युद को शाकश्च पुष्करम्य सप्तम एवं सप्त महाद्रीचा समुद्र इन्तभि वा अन्यत्र और अठारह भी गये हैं निखार (५०) पुरा गनपायो। लोक से निपतति पुरानी तु+ त्+यू भरत परत बना विमति दांत भरत इसी नाम के कारण इस देश का नाम भारत मा भारतमय पथा है 'भरमान्य प्रजानामनुर इस पुराण वचन से मनु को भी भरत कहा गया है तथा शाकुन्तलेय 1

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- शकुन्तला (गत्मगतम्) मनोरथ खलु मे भणितो भगवत्या । [ मणारह में भणिदो भवदीए ।]
राजा भगवता कृतसरकारे सर्वमस्मिन् वयमाशास्महे ।
अदिति भगवान् अन्या दुहितृमनोरथसम्पत्ते कण्वोऽपि तावच्छ
तविस्तार कियताम् दुहितृसला मेनकेहैवोपचरन्ती तिष्ठति । [ भअव, इमाए दुहिमणोररूपत्तीए को दि दाव सुविचारो करोअदु दुहिदु- बच्छला मेणाह एव उपभरन्तो विदि
मारीचत प्रभावात् प्रत्यक्ष सर्वमेव तत्रभवत । राजा- अब मम नातिक्रुद्धो मुनि । मारीच तथाप्यसी प्रियमस्माभि यावतिच्य क को भो ?
(प्रविश्य)
शिव्य भगवन्, अयमस्मि । मारीच गालव इदानीमेव विहायसा गत्वा मम वचनात्तत्भयते
तसे ही इस देश का नाम भारत मानना अधिक उचित है। "या भरतो यस्य नाम्नाय भारता" हरिवन
राजा आपके द्वारा जिसका सस्कार किया गया है. ऐसे इससे सभी बात की आशा करते हैं।
अति पुत्र की इस मनोरथ सिद्धि के विस्तृत समाचार से को भी विदित करा देना चाहिये। पुत्री मसला मेनका at (हम लोगो की सेवा करती हुई यही पर है।
भगवन अदिति ने वस्तुम मेरे ही मन की बात कह दी है।
मास के प्रभाव से माननीय को सभी बातें प्रत्यक्ष है।
राजा अतएव मुनि वस्तुत मुझ पर विशेष क्रुद्ध नहीं हुए हैं। मारी भी यह प्रिय समाचार उन्हें सुनाना ही चाहिये यहाँ
कौन है।
(प्रवेश करने)
शिष्य भगवन् यह मैं
मारीच गालव, अभी बाका माग से जाकर मेरी ओर से माननीय कृष्ण

कन्याय प्रियमावेदय यथा-पुत्रवती शकुन्तला तच्छानिवृत्तौ स्मृतिमता पुष्यन्तेन प्रतिगृहीतेति ।
शिष्य – प्रवाशापयति भगवान्।
(इति निष्कान्त ।)
मारीच वत्स, त्वमपि स्वापत्यदारसहित सक्पुराणस्य रथमा- ते राजधानी प्रतिष्ठत्व ।
राजा-मवाज्ञापयति भगवान्। मारीच वत्स, किसे सूप प्रियमुपकरोमि ?
राजाअत परमपि प्रियमस्ति यदीह भगवान् प्रिय कर्तुमिच्छति
सहयमस्तु । भरतवाक्यम्-
प्रकृतिहिता पापिय सरस्वती भूतमहतां महीयताम् । ममापि च क्षपयतु नीललोहित पुनर्भव परिगतशक्तिरात्म ||३४|| (इति निष्क्रान्ता सर्वे 1)
(इति सप्तमोऽबू । समाप्त)
को यह शुभ समाचार सुनाना कि पुत्रवतीमन्ता को उer शाप समाप्त हो जाने पर स्मृतियुक्त दुष्यन्त ने पुन स्वीकार कर लिया है।
शिष्य-जैसी आपकी आशा
(यह कहकर प्रस्थान )
मारी पुन, तुम भी अपने पुत्र और पत्नी के साथ अपने मित्र के र पर पढ़ कर अपनी राजधानी के लिये प्रस्थान करो।
राजा--जो आपकी भाशा ।
मारीच पुत्र, इससे अधिक और क्या मै पुन आपका उपकार कहें।
राजा-क्या इससे भी अधिक और कुछ प्रिय हो सकता है? यदि आप और प्रिय करना चाहते है तो यह भारत वाक्य पूरा हो

= शब्दार्थ-शनि राजा, प्रकृतिहिताय प्रवाजनो के कल्याण के लिए ती हो तमाशास्त्रवण द्वारा ज्ञानगरिष्ठ कवियो की. सरस्वती वाणी (कृति) महीयताम् पूर्णता सत्कृत हो परिगतशक्ति सर्वशक्ति सम्पन्न, आत्म स्वयम्भू नीललोहितसि मम अपि मेरा भी पुनर्भव नयी करें नष्ट करें।
अन्यादिप्रकृतियताम् महता सरस्वती महीयताम्] परियशक्ति आत्म नीलोहित मम अपि च पुनसंवमापयतु ।
अनुभाव राजा प्रजाजनो के कल्याण के लिए तत्पर हो, मायण से ज्ञान- वरिष्ठ कविजन की वाणी म सत्कार प्राप्त करे सर्वगतिमान् स्वयम्भू भगवान् शिव मेरे भी पुनम को निवृत करें।
भावार्थ- भारतवाक्य नाम से प्रसिद्ध शन्तिम आशीर्वादात्मक वाक्य के द्वारा राजा कहता है कि राजा प्रजाकल्याण के लिए तत्पर हो, से जिन्होंने उ की काव्य क्षमता प्राप्त की है ऐसे कवियों की वाणी सदा समावृत हो और वे एवं सर्व सम्पन्न है, मेरे भी पुनर्जन्म को नियत करें मुझे श्री मुक्ति प्राप्त हो।
विशेषता यहाँ पत्यनुप्रास, कानुप्रास, विरा नामक छन्द है "महेरिहरुचिरानी सोग यहाँ निर्वहन सन्धि का प्रशस्त नामe बग है "प्रमस्ति eness "aver" देवपादीना प्रस्त स्वाद प्रशसनम्" अर्थात् जहाँ देव राजा आदि की मगल कामना की जाय। परमेश्वर विषयरतिभाव ।
संस्कृत यायापारि पृथिवीपति राजा, प्रकृतीना प्रजानां हिताय हितसाधना प्रकृतिहिताय प्रवर्तताम् तत्परी भवतु तेन शास्त्रश्रवणेन महता ज्ञानगरिष्ठानाम् श्रुतमहताम् सरस्वती वाणी कृति वर्ग महीयताम् सत्कार समताम् परित गता प्राप्ता सर्वतो व्याप्ता यस्य परिगतशक्ति- परिव्याप्तमिति आत्म स्वयम्भू नीलोहित शिव नमदुष्यन्तस्य अपि च पुनर्भवम् पुनर्जन्म, क्षपयतु नाशयतुमुदाइत्यच । E
संस्कृत परमार्थ भरतवावत्याख्यानेन अन्तिम वाक्ये दुष्यन्त कथयति राजा प्रकृतिहितसाधनाय तत्परी भवतु शास्त्रवणजात ज्ञानोमीना सरस्वती समादर समताम् सर्वशक्तिमान् स्वयम्भू शिव मम दुष्यन्त- स्वापि पुनर्जन्म नाशयतु] अर्थात् मुक्तिप्रदातु।
+ त् + तत्पर हो या प्रयत्नशील बनें। प्रकृतिवाप ---प्रकृतीनी हितम् तस्यैतादय चतुर्थी, मदना प्रसूती हित किमाॉप-

पदम्देति कर्मणि चतुर्थी महता तेन महान्तस्तेषाम अन्य भूतिमहताम् इति पाठ वा वेदज्ञानेन मे महान्तस्तेषाम् महीयताम् गौरव को प्राप्त हो। परिमत- शक्तिपरित बता परिगता प्रादि समास परिणता शक्ति मस्य नीललोहित  पुनमवम् भवतीति भव जम्म पुन भरस्तम् पुनमदम् जन्म नष्ट करे अर्थात् ज्ञान देकर मुक्ति प्रदान करें। आत्मभूत्वयम्भू यह ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों के लिये प्रयुक्त होता है। यह नाटक के अन्त मे आदात्मक श्लोक होता है भारत का इस नट या अभिनेता होता है मत भरताना वाक्य-भाटक के अन्त मे अभिनेता मिलकर जगता के लिये मगल कामना करते हैं, अथवा, भरत से तात्पय नाट्यशास्वप्रणेता भरत मुनि से है, भरत मुनि के प्रति सादर प्रकट करने के लिये अथवा उनकी स्मृति को ब बनाये रखने के लिये यह भरत वाक्य प्रयुक्त होता है।
(सप्तमो समाप्त)



परिशिष्ट १
प्रक्षिप्त इलोक
(प्रथम अक मे "वैखानस हस्तमुद्यम्य बन आयो
न हन्तव्य ) --
मुडुनि मृगशरीरे पुष्पराशाविवान्तिः ।
न खलु न खलु वाण. सन्निपात्योऽमस्मिन् वय व हरिणकाना जीवित चातिलोस व निशितनिपाता वज्रसाराः शरारते ॥ १॥
अन्य मुनि मृगमरी पुष्पराम सन्ति इव बयम् नाम म नपा । बत हरिणकानाम् अतिलोलम् जीवितम् च स्य, निशितनिपाता बारा बारा च
शादार्थस्मिन् मृति मृगशरीरे इस कोमल मृग के शरीर पर पुनराची अनि फूलो के ढेर पर अग्नि के समान वय वायवागनस सनिपात्यन चलाना चाहिए, म पचाना चाहिए। बद की बात है कि, हरिणकानाम असम्जीवितम् कहाँ तो बेवारे गृणो का जीवन, निति निपातात प्रहार बाते पसारा के समान कठोर ते रा और तुम्हारे बा कहाँ
अनुवाद इस कोमल मृग के शरीर पर फूलों के ढेर पर बक्ति के सम यह चाहिए, न बचाना चाहिए, बेद की बात है कि कहाँ वो बेचारे मृगो का अतिञ्च जीवन और कहाँ तीक्ष्ण प्रहार वाले वे तुम्हारे बज के समान कठोर बाग
भावार्थ मैदान कहता है कि इस युग का शरीर जति कोमल है बीर तुम्हारा बाग अति कठोर है जिस प्रकार फूलों के ढेर पर पढ़कर अग्नि उसे तुरन्त कर देता है उसी प्रकार तुम्हारा यह बाम मृग के शरीर को नष्ट कर देना, इन बेचारे हरिणों का कहाँ तो अति पञ्च जीवन और कहाँ तुम्हारे में बावत् कठोर बाम, दोनों में बड़ा अन्तर है अत इस पर बाण चलाना उचित नहीं ।
विशेष प्रस्तुत श्लोक के अन्तिम दो चरणों के सामान्य अर्थ से प्रथम दो चरणों के विशेष मय का समर्थन होने से अन्तरन्यास अलकार पुष्पराजावियामि उपकार तथा बारा मे सुप्तोपकार दो के द्वारा निका

( मे "नीमा इत्यादि १२ के बाद यह श्लोक प्रति है ) अपि च-
कुत्याम्भोधि पवनचपले शाखिनो पौतमूला भिन्नो राम किसलयश्चामाज्यमोमेन । ते जार्वापविदर्भाकुरा, हो मन्दमन्द चरन्ति ॥ २॥
हरि और इसमें मालिनी नामक छन्द है। "वनम
- दुनि मृगशरीरे एतस्मिन् सुकुमारेह्मिणदेहे निगम इव मय नाम एवं सर न न खलु प्रहरणीय, हरिगकानाम् दयनीयाना बालगृहाणाम् मानपत्र, निमितता रावर कठोरा दुष्यन्तस्य सराबागा, ।
राजान कथयति राजन् विमलेऽस्मिन्मृगव स्वया न करणीयम इव तवाय वाणी युगशरीर त्वरितमेव नारविष्यति इसे मृगा पुष्पराशिवत् सुकुमारा दमनीया निरख- सन्ति पर तवेमे वाणामनिया मोरान सन्ति त एतादृशा शरीरे
पानिपत् विपत् हरिणानाम् अनुकम्पनीया हरिणाति हरिणका ठेपान, अत्र अनुकम्पार्थक निशितनिपातानिमिता तीवगा माता प्रहारायेवान्ते नि+को+नि+पत्य बखद्वारा बलवान्।
पुष्परासी पुष्पाणा राशि मृग की कोमलता, सुन्दरता और दयनीयता चित करने के लिए इसका प्रयोग किया गया है, कालिदास ने इन गुणों को सूचित रने के लिए अन्दर भी पुष्पों से ही तुलना की है "को नामोष्योदकेन नवमालिका "शायदभोजयिष्ण वारणम् "कुमार समय" कवि का तात्पर्य है व का वध करना वैसा ही पूति काम है जैसे अग्नि से पुष्पों को बताना, अन्य नाम पाठ है, कई के ढेर में तुरन्त अनि लग जाती है, यह पाठ भी है पर कालिदास द्वारा अभिप्रेत मारता सुन्दरता एवं वयनीयता तूल शब्द नहीं होती। दो पत्र के प्रयोग से दोनों ने महान् अन्तर बतलाया गया है। दिल्याम्भोमानि श्रौतसा (सन्ति)

प्रणित श्लोक
= 3: (कृत्रिम नदी नृत्या) नहर बाद के जल से शानिश, धौतमूला घुसी हुई माने (सन्ति) आमोदमेन यत्र के इम्य) पूत के धुये के उठने से, कोमल पतो (कोपलो की, राम कान्ति की सालिमा मिन हो गई है। एते और ये नष्टाका बाग कारहित अर्थात् निर्भीक, हरिशियमृगशावक कुरायाम् कटे हुए कु मकुरो बाली, उपवन उद्यानभूमि पर बर्षा ही मे मन्दमन्दम धीरे धीरे भरन्ति पर रहे हैं अथवा घूम रहे हैं।
मामोद्गमेन किसनमस्वाम् राग भिन्न (मवलोक्यते) एते च नष्टाहरू का हरिणमिव दिकुरायाम् उपवनमुदि अव मन्दमन्दम् चरन्ति । शब्दार्थ पवनजपने युके द्वारा पचहलते हुए, कुल्या
अनुवाद-बापू के द्वारा आन्दोलित किये गये नहरो बाद के जल से वृक्ष घुली हुई जमा हैं मर्याद मन से उनकी ये घुल गई है (के के उठने से कोमल पत्तो की कान्ति की लालिमा दिवर्ण हो गई है और ये निर्भीक शावक, कटे हुए कुटको बाली उद्यानभूमि पर पास ही धीरे-धीरे घूम रहे हैं।
भावार्थाद्वारा हिलाया गया कृत्रिम नहरों का जन किनारे पर बड़े बुझो कीड़ों में टकराता है जिससे उनकी पलकर साफ स्वच्छ दिखलाई पड़ती हैं।  मे यज्ञों का होना स्वाभाविक है, यशान्ति मे मृत का हवन किया जाता है, बनि में पकने से वो भूत का धुआं उठता है वह वृक्षों के नये पत्तों की कान्ति की लालिमा को विवर्ण (अदरग) कर रहा है और हरिणों के बच्चे, इस विश्वास से कि मायम से कोई शिकारी हमे मारेगा नहीं, निर्भीक होकर उस उद्यानभूमि पर जिसमे कष्टों को काट कर साफ कर दिया गया है, पास ही में इधर-उधर धीरे धीरे घूम रहे हैं। विशेष प्रस्तुत श्लोक में काम्यलिङ्ग मनुमान, स्वभावोति और समु अलकार है, और मदान्ता नामक ग्रन्थ है "मन्दरवन नीती
मयुग्मम्"। संस्कृत यास्यापवनेन वायुना चपले बान्दोलित बनवते कुरुपाया कृत्रिमरित अयोधि जर्त कुल्याम्भोषि सालिन वृक्षा, धौतानि प्रज्ञामितानि मूलानि देवान्ते  (सन्ति) आज्यस्य यस्य धूमस्य हविर्धूमस्य उद्गमेन उत्थानेन माज्यधूमोगमैन, सिवानाम् नवपल्लवानाम् [स्थाम् कान्तीनाम् सिया राम रक्तिमा भित्र विवर्ण (अक्लोक्यते एते च नष्टा माशा येवान्ते नष्टाका निर्भया हरिण सिजद मूनशानका छिमा दर्षाणाम् अकुरा यस्या तस्याम् छङ कुरायाम् नकुशाग्रमायायाम् उपवनमुदि उद्यानभूमी अब समीप एवं मन्दमन्दम् चरन्तिभ्रमन्ति =
सरलार्थासामर रत्या बुक्षा प्रणावित मूलभाषा सन्ति दयिमृतधूमोत्याने नवपलव विवर्णो दृष्यते। विश्वावगमाद- भरमा गुगणायका सुनकण्टकामा मुचान भी समीप मे परिभ्रमन्ति

प्रोक के बाद (सहास) अवतार-
पितृमात्मनो योजनासम्मा के बाद यह प्रक्षिप्त है।
रावा- सम्यगियमाह- इस मुहिम स्कन्धवेशे,
स्तनयुगपरिणाहाच्यादिना वल्कले।
वरभिनयमस्या पुष्यति स्वां न शोभा,
पाम्युपत्रोवरेण ॥३॥
राज्य्+ष चित्र छिर्दिर् + मन्दमन्दम् [अ] से समस्तपदत्वात् पूर्वपदस्य विभक्त पाइस पद के प्रयोग से ऐसा प्रतीत होता है कि आश्रम के पास शो को सीचने के लिए कोई एक नहर या नाली बनाई गई थी, या का अनामी भी होता है।
even सम्पादित निर्णयसागर से छपी अभिज्ञान शाकुन्तल मे तथा अन्य भी करणो मे यह श्लोक नही मिलता सम्मत यह लोक भी है इसमे दो पतियों के अथ से ही कुछ नवीनता है, शेष मे पुनक्ति ही है, पूर्वोक्लो मे भी नही भाव है, प्रथम मे मृगों का वजन है इसमे मृगशावक का अन्य कोई जनता नहीं है, यह लोक प्रक्षिप्त ही है।
रात्रिदा ने यह ठीक ही कहा है--
दे उपहिमा स्तनयुगपरिणाहाच्छादिना [fभननम् पाण्डुपचोदरेण पिनम कुसुमम् हस्वाम माग पुष्यति ।
सज्या स्कन्दे कन्धे पर उपहितसूक्ष्मपन्थिता जिससे कि छोटी गाँठ पाई गई है। स्तनयुगपरिवाहाच्छादिना दोनो स्तनों के विस्तार को इ मेने वाले, बल्कलेन मन्त्र से जस्मा इदम् अभिनयम् वपु इसका यह न योजन सम्म सुन्दर शरीर पीने पत्ते के मध्य भाग के पिपरे हुये, कुसुम इव पूल के समान, स्वाम् शोधान पुष्यति अपनी गोधा को नही धारण कर रहा है। =
अनुवादक पर बंधी हुई छोटी पाँठ वाले, (और) दोनों स्तनों के विस्तार को ढक लेने वाले वल्कल से इसका यह नवयौवनालकृत सुन्दर शरीर पीप के के हुये फूल के समान अपनी शोभा को धारण नहीं कर रहा है। भावार्थ- वल्कलधारिणी] शकुन्तला को देखकर राजा कहता है कि इसने जो मल्ल वस्त्र धारण किया है, इसकी एक छोटी गाठ को पर बंधी हुई है और
E तारकन्यदेशे असणे, उपति सूक्ष्म च बन्धनम् यस्य तेन उपतिगुरुमन्दना स्तनयुगस्य सरोजगतस्थ पराहम् विस्तारम् विशालता वा बाच्छादयितुमी मस्य नस्तनपरिणाहाण्यादिना उजविस्तारपिडाविना परकलेन नवल याताया एतत् अभिनय मनोहरम् परिणाम उदरेण मध्यभागेन पापनोदरेण ताने पिनम् समाच्छादितम् पुष्पम् इव स्वामस्वकीया भा कान्तिम् नपुष्यति धारयति ।
इसने इसके दोनों स्तनों के विस्तार को कलिया है। इस कारण इसका यह नय यौवनशाली सुन्दर शरीर अपनी शोभा को उसी प्रकार प्रकाशित नहीं कर पा रहा है जैसे कि पीले पत्तो से ढका हुआ पुष्प बनी होना को प्रकाशित नहीं कर पाता। [द] वल्कल वस्त्र से आच्छादित होने के कारण इसका पूर्ण शारीरिक सौन्दय प्र नहीं हो रहा है।
विशेष प्रस्तुत पद्य में 'कुसुममिव मे उपमालकार समान्य अनुमान है. मालिनी नामक छन्द है।
सरला-धारा राजा बनसिति दे दत्तदन्धिना रोज निस्तारपिधाया ग यौवनारमा सुन्दरमपूर्ण घरीर तथैव स्वकीय सौन्दर्य न प्रकटी करोति पथा भानपुष्यति ।
टिप्पणी उप-उप हि परिमापरि + नहष परिमाह, परिणाहो विशालता इत्यमर माण्डाविना मामादयितुं शीलमस्येति छतेन वायें विनिचित्रम् अपि न . भारिमते पाक्षिक कारोप पाम्पोवरेणपाण्डु पत्राणामुदरेण पीले पत्तों के मध्य भाग से, वस्तृत यहाँ उदर बन्द नाक है। पुष्यति धारयति ।
राबाद द्वारा सम्पादित पुस्तको में यह श्लोक नहीं है, इसे न छोड दिया गया है, अन्य सस्करणो में भी यह श्लोक नहीं है अतः इसे प्रक्षिप्त श्लोक ही समझना चाहिए। इस लोक के नीचे के गद्य भाग मे 'बचना' शब्द भी अनावश्यक है, इस श्लोक के रखने पर ही 'अथवा' शब्द की उपयोगिता है, अन्यथा नहीं।
इस लोक मेला के द्वारा धारण किये गये को उसके सौन्दर्य प्रकाशन से बामक कलाया गया है, परन्तु इसके आगे के श्लोक मे "नधिक मनोशा वल्कलेनापि तन्वी" कहा गया है, राजा एक बार तो उसी बात को सौन्दर्य में बाधक माता है और फिर दूसरे ही क्षण उसे ही सौन्दर्य भी बतलाता है। इसे प्रति लोक ही मानना चाहिए।

में लोड के बाद, शकुन्तला (सन) सम्मो तो नाशाचा बदन मे मधुकरोमि इति अमरवा
इसके बाद यह रोक है।
राजा - ( सस्पृह विलोक्य) साघु, साधनमपि रमणीयमस्या:- यतो यतो वरणोऽभिवर्तते
सतस्ततः प्रेरितवामलोचना । म शिक्षाले, भयावकामापि हि दृष्टिविभ्रमम् ||४||
-- (बजे भाव से देखकर) बहुत अच्छा इसका eि होना भी कति
दति यत पचरण अभितते तव प्रेरितामसोमना
इस भयात् यकामा अपि अद्य दृष्टिविभ्रमम् शिक्षते । रावाहिक्योंकि पत पत जिस-जिस ओर पद्मरण भ्रमर, पाता है, उस उन ही बोर, प्रेरित वामलोचना अपने सुन्दर माने नामी विवर्तित और कुटी को उसी बोर परिवर्तित कर लेने के कारण अकामा अपिकामभावना neer न पाती हुई थी, आज दृष्टिविभ्रमम् कटाक्षनिक्षेप , कटाक्षपात की विधि को सीख रही है, अर्थात् कटाक्षपात का कर रही है।
धनुषा क्योकि जिस-जिस और अमर जाता है, उस उस मोर ही अपने जो को मा देवासी (और) भौहो को भी उसी ओर चला देने वाली यह भय के कारण न चाहती हुई भी बाज कटाक्षपाठ का अभ्यास कर रही है। अमर बाधा से कारा को देखकर राजा सोचता कि यह इस समय जिस-जिस और यह अमर जाता है उस उस और ही यह हर नेत्रों को घुमाकर और उस ही और को अपनी भौहों को भी तान कर जाती है अब ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यह जाय इस प्रकार न चाहते हुये serera की fafa का अभ्यास कर रही है
मेरो प्रस्तुत पद्य में सहायत्वरूप कारण के बचाव मे भी शिक्षण कार्य ति मतमाने से और भयात् इस पद के प्रयोग से यहाँ उक्तनिमित्ता विभावना ३] शिक्षते का वर्ष यहाँ 'सि' है अत यहाँ प्रतीयमानानकार है। छन्द है।
स्याह यस्मात् कारणात् यस यतयस्यां मत्वा दिशि अमर अभिवर्तते प्राचति तत तत तस्या तस्यां दिशि प्रेरित निक्षिप्ते

प्रक्षिप्त श्लोक
बामे सुन्दरे लोचनेने गया था---प्रेरितवामलोचना विवर्तित विशेषेण सम्मानित भू यया सा विवर्तित परिवर्तित कुटियम् शकुन्तला भयाभ्रमर- मात्मामा छविरहिता अपि सती अनादृष्टे विभ्रममु दृष्टिविभ्रमम् कटान सभ्यतीय
स्कूल सरलार्थ प्रमरयकातरा सकुन्तला निरीक्ष्य दुष्यन्त सि चिन्तयति, अमरोम यस्यावस्था विधि धावति तस्या तस्यामेव दिशि इस स्वमनोहर- लोचने निक्षिपति एवं परिवर्तितरप्यस्ति अनेन प्रतीयते यदियन स्वेण्डाविरहिताप सती मराठासनिक्षेपविधिमभ्यस्तीदेति ।
टिप्पणी
पत पत व इतराभ्योऽपि दृश्यते" इति सप्तम्व मित्र पर पाद अमर भयात् अहेव पञ्चमी अरमान काम इच्छा या सा वाला होने से उसे कटाक्षपविधि को सीखने कीपर अमर ने उसको नेत्र और भू लता को भय इधर-उधर सञ्चालन करने के लिये विल कर दिया था, आत्मा उसे पचनेषा एवं परिवर्तित न देखकर कवि उत्प्रेक्षा करता है मानो वह कटाक्षनिक्षेप का अभ्यास कर रही हो। अकामा का अर्थ कामभावना रहिता भी है वस्तुत सकाया युवती ही कटानिक्षेप सकती है, पर arre बाला को इसकी आवश्यकता न थी। वृष्टिविभ्रमदृष्टि अर्थाने का एक विशेष प्रकार से स
यह ग्लोक भी प्रक्षिप्त है अत कई संस्करणों मे यह उपलब्ध नहीं होता, इस श्लोक का भाव आगे वाले श्लोक मे ना गया है अस इसकी कोई उपयोगिता भी नहीं है भाग एवं प्रसम के अनुकूल होने से कुछ उत्करणों मे यह देखा जाता है, वस्तुत इसे प्रक्षिप्त ही समझना चाहिये।
प्रथम मे लोक के मागे "राजा-मंत्री पुरस्कृतोऽथि"।
इस गया के आने यह सवाल भी कुछ सस्करणो मे प्रति मिलता है-- शकुन्तला-अनसूये, अभिनवकुशसूच्या परिक्षत मे चरण, कुबरका- शाला परिलग्न च वल्कलम्। तावत्परिपालयत मां यावदेतन्मोचयामि । अणसूए, अहिणअकुससूईए परिवाद में चलन कुरवासाहापरिलम्य अ वक्कल दाब परिपालेध म जाव ण मोआबेमि
अनुवाद-शकुन्तला अनसूया नवीन कुश के अग्रभाव से मेरा पैर पायल हो गया है और मेरा कुरवक वृक्ष की शाखा मे उलझ गया है, जब तक मैं इसे तब तक तुम लोग मेरी प्रतीक्षा करो।
अमे "अन्त शशिनइत्यादि तीसरे लोक के बाद एक बगला सारण में निम्नलिखित दो शोक और उपलब्ध होते हैं ये पूत प्रप्ति है, एक यहाँ इनका सक्षिप्त वर्ष ही दिया जा रहा है
अपि च-
(१ ) कन्नामुपरि तुहिन रज्जयत्यसन्ध्या
दार्म मुञ्चत्युटजपटल वीतमिद्रो मयूर । विप्रान्तात् सुरविलिखितादुत्यतश्च स पश्चाच्चै र्भवति हरिण स्वागमायच्यमान् ॥
अबेर की झाडियो पर पड़ी हुई ओस की बूंदो को प्रात कालीन सन्ध्या अनुज कर रही है अर्याद जोस की सफेद बूंदो को रक्ता बना रही है। प्रात जागा हुआ मगर कुछ निर्मित कुटीर की छत को छोड़ रहा है। सुरो से खुदी हुई पश बेदी से उठा हुआ यह मूग अपने बयों को फैलाता हुआ पोछे से उठ रहा है इसमें मृग स्वभाव का वगन होने से स्वभावोति मलकार और मन्द्राक्रान्ता छन्द है।
(२) पावल्यास क्षितिधरगुरो मुनि कृत्वा सुमेरो,
कान्त येन क्षपिततमसा मध्यम पाम विष्णो । सोऽय चन्द्र पतति गगनादल्पशेष पूर्ण अत्यागदि भवति महता मप्यपत्र निष्ठा ॥
पतराज सुमेर की चोटी पर पैर रखकर अपने किरणो को फैलाकर) अन्धकार को दूर करने वाला जो चन्द्रमा विष्णु के मध्यम स्थान अर्थात् आकाश पर आद हुआ था, वही यह अब प्रात काल अपनी मोटी-सी शेप किरणों के साथ माकाश से गिर रहा है, महापुरुष का भी अत्युच्च स्थान पर बात होना पतन में ही परिवर्तित होता है। प्रस्तुत पद्म मे श्वेष, समासोक्ति, अर्थान्तरन्यास बलकार एवं मन्दाक्रान्ता ग्रन्द है।
"राजा शापपति भगवान्" यह एक लोक अन्य सस्करणों मे उपलब्ध होता है, जो कि मनावश्यक होने से प्रसित ही समझा जाना चाहिए
मारीच अपि च- सब भवतु विडोवा. प्राज्यवृष्टि प्रजासु, त्वमपि विततयज्ञो वज्रिण प्रीणयस्व । युगात परिवतनियमन्योन्यकृत्य- नंयत मुभयलोकानुग्रहलाघनीये ॥५॥
अन्य वडा तब प्रजासु प्राप्यदृष्टि भवतु त्वम् अपि दि

                    

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लेखाः
अभिज्ञानशाकुन्तलम्
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अभिज्ञानशकुन्तलम् इति महाकविकालिदासस्य विश्वप्रसिद्धं नाटकं प्रायः सर्वासु विदेशीयभाषासु अनुवादितम् अस्ति । इयं राजा दुष्यन्त-शकुन्तलायोः प्रेम-विवाह-विरह-वियोग-पुनर्मिलनयोः सुन्दर-कथा अस्ति ।
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अभिज्ञान शाकुन्तलम् |

7 October 2023
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आज से लगभग तेरह सौ वर्ष पूर्व 'काव्यादर्श'- प्रणता आचार्य दण्डी ने कहा था - "संस्कृत नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभि" भारत की धर्मप्राण जनता आज के वैज्ञानिक युग मे भी संस्कृत को देववाणी कहने में किस

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अभिज्ञानशकुन्तलम्-2

16 October 2023
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अभिज्ञान शाकुन्तलम्-3

23 October 2023
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अभिज्ञानशकुन्तलम्-2

6 November 2023
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पुस्तकं पठतु