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मेघदूत

7 November 2023

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= - - व्याख्या है मैच ! इति स्वपरिचयम्, आख्याते कथिते सति (वय) मुखी उन्नमिवानना, सामप्रिया, उत्कण्ठोच्छ्वसितहृदयाबौत्सुक्य विकसितमना, मैथिली सीता, पवनतनयम् वायुसुतम्, हनुमन्तमित्यर्थः, इव यथा त्वाम् = मेघम् वीक्ष्य अवलोक्य सम्भाव्य सत्कृत्य च अस्मात् वल्लभमंत्री ज्ञानात् परम् अनन्तरम् अविहिता सावधाना सति तल्लीना सतीत्यर्थः श्रोण्यति आकर्णविष्यति, एवनिश्चयेन मत्सन्दे शमिति शेषः । हे सौम्य ! हे भद्र! सीमन्तिनीनाम् = कामिनीनाम्, सुहृदुपगतः = मित्रनीतः कान्तोदान्तः = वस्लमवृत्तान्तः, संगमात् प्रियमिलना किञ्चिदून: ईम्यूनः भवति इति शेषः ॥ ३७ ॥
= = - उन्मुखी: ऊपर की ओर मुंह किए सा वह मेरी प्रिया, उत्कण्ठोच्छ्वसित हृदयः = उत्सुकता के कारण विकसित हृदय वाली (होती हुई), मैथिली सीता, पवनतनयम् हनुमानजी की इव तरह त्वाम् तुमको, वीक्ष्य देखकर, सम्भाव्य च==और (तुम्हारा ) सत्कार करके, अस्मात् (तुम्हें पति का मित्र है यह जान लेने के ), परम् पश्चात् अविहिता सावधान होकर ) श्रोष्यति = ( संदेशों को) सुनेगी एवं निश्चय ही हे सौम्य ! हे सज्जन ! सुहृदुप मतः मित्र के द्वारा लाया गया, कान्तोदान्तः प्रिय का वृतान्त, संगमात् प्रिय समागम से किञ्चित् कुछ ही कनः कम होता है ।। ३७ ।। = - -
शब्दार्थ:- ( है मेष !) इस प्रकार, जास्याते ( तुम्हारे ) कहने पर
भावार्थ:- हे मेघ ! अनेन प्रकारेण स्वत्कथिते सति जानकी हनुमन्तमि दना विकसितचित्ता मत्प्रिया त्वां दृष्ट्वा सत्कृत्य च सावधाना सती मत्सन्देशमवश्यं घोष्यति, यतो हि कामिनीना मित्र प्राप्तः कान्तवृत्तान्तो वल्लम- संगमादीन्यूतो भवति ॥ ३७ ॥
हिन्दी - हे मे ! इस प्रकार तुम्हारे कहने पर जिस प्रकार सीताजी ने हनुमान जी को देखा था और उनका सत्कार किया था उसी प्रकार मेरी प्रिया भी अपने मुँह को ऊपर उठाकर उत्सुकता से विकसित हृदय वाली होती हुई तुम्हें देखकर और तुम्हारा सत्कार करके, सावधान होकर मेरे सन्देश को अवश्य सुनेगी, क्योंकि है सज्जन स्त्रियों के लिए मित्र के द्वारा लाया गया पति का वृत्तान्त प्रियसमागम से कुछ ही थोड़ा होता है ।। ३७ ।।

समासः पवनस्य तनयः पवनतनयः ( ष० त०) तम् मुख यस्याः सा उन्मुली (बहु०) उच्छ्वसितं हृदयं यस्याः सा उच्छ्वसितहृदया (बहू), उत्कण्डया उच्छ्वसितहृदया = उत्कष्ठो चावतिहृदया ( वृ० तद्) । शोभनं हृदयं यस्य सुहृद (बहु०) सुहृदा उपगतः सुहृदुपगतः (दृ० सद्) । कान्तस्य उदन्तः कान्तोदान्त: ( ६० तद्० ) ।
कोशः नारी सीमन्तिनी वधूः इत्यमरः । वार्ताश्वृतितान्तमुदन्तः स्यात् इत्यमरः स्वान्तं हृन्मानसं मनः इत्यमरः
टिप्पणी- मैथिली - मध्यन्तोऽय रिपव इति मिथिला विलोडनार्थक
'म' धातु से मिथिलादय' इस सूत्र से इच् प्रत्यय करके मिथिला शब्द मिय निष्पन्न होता है। मिथिलायां भवः इस विग्रह में 'मिथिला' शब्द से 'तत्र भवः' इस सूत्र से अणु प्रत्यय करके आदिवृद्धि करके 'मैथिल' ऐसा रूप निष्पन्न होता है एवं स्त्रीत्व की विवक्षा में डीए करके 'मैथिली' ऐसा निष्पन्न होता है। प्राचीन मिथिला के (जिसे इस समय दरभङ्गा, मधुबनी, जनकपुर, तिरहुत आदि कहते हैं.) राजा जनक थे और उन्हीं के द्वारा हल चलाते समय पृथ्वी से जानकीजी का जन्म हुआ था ये हल के फाल पर मिली थीं अतः वे 'सीता' एवं मिथिला भूमि में जन्मी थी इसलिए 'मैथिली' कही जाती हैं। पवनतनयस्- हनुमानजी को 'पवन तनय' कहा जाता है। उनका यह नाम क्यों पड़ा इस बात की चर्चा अन्य विस्तार से नहीं की जाती है इन्होंने रामचन्द्र जी की अंगूठी (प्रत्यभिज्ञान) लेकर उनका दूत बनकर चार सो कोष विस्तृत समुद्र को लॉकर लड़ा में जाकर सीताजी का पता लगाया था और उन्हें रामचन्द्रजी का सन्देश सुनाया था। सीताजी ने भी हनुमान् को रामचन्द्रजी का पक्का दूत समझ लेने के बाद उनका सत्कार किया था, जैसा कि वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड में ये पलोक जाये है-
विक्रान्तस्त्वं समर्थस्त्वं प्राज्ञस्त्वं वानरोत्तम
येनेदं राक्षसपदं स्वयंकेन प्रषितम् ।।
शतयोजनविस्तीर्णः सागरी मकरालयः ।
विक्रमश्लाघनीयेन हनुमता गोयदी कुतः ॥ इत्यादि ।

- उपर्युक्त उपमा के द्वारा सीता की तरह पक्षपत्नी का पातिव्रत्य एवं हनुमान की तरह मेघ का तत्व सम्पादित होता है। उन्मुखी-उन्मुख पाब्द घटक 'मुख' शब्द स्वाङ्गवाची है, अत: 'स्वाङ्गान्वोपसर्जनादसंयोगोपधात्' इस सूत्र से स्त्रीत्व विवक्षा में 'डो' हुआ है। श्रोष्यति 'श्रु' धातु के लट्- लकार में प्रथमपुरुष के एकवचन का यह रूप है। सीमन्तिनी-सीमान्तो:- त्यस्या:' इस विग्रह में 'सीमन्त' शब्द से मत इनिनो' इस सूत्र से 'इनि' प्रत्यय करके 'सीमन्तिन्' शब्द बनाया जाता है। पश्चात् स्त्रीत्वविवक्षा में 'ऋनेभ्यो ङी' इस सूत्र से 'डी' करके 'सीमन्तिनी' ऐसा रूप बनता है। संगम-सम् उपसर्गपूर्वक गम्' धातु से 'ग्रहवृदृनिश्विगमय' इस सूत्र से अप् प्रत्यय करके 'संगम' ऐसा रूप बनता है।
अलङ्कारः यहाँ मैथिलीय' में उपमा अलङ्कार एवं 'अविहिता घोष्यति' इस वाक्य को चतुर्थ चरणोक्त वाक्य के द्वारा समर्पित होने के कारण 'अर्थान्तरन्यास' अलङ्कार है एवं दोनों के निरपेक्ष भाव से रहने के कारण 'संसृष्टि' अलङ्कार है ॥ ३७ ॥
तामायुष्मन्मम च वचनादात्मनश्चोपकतु
सूया एवं 'तव सहचरो रामगिर्याश्रमस्थः ।
अव्यापन्नः कुशलमवले ! पृच्छति त्वां वियुक्तः'
पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव ।। ३८ ।।
अन्वयः -- हे आयुष्मन् मम वचनात् आत्मनः उपकर्तुम् च ताम्, एवम् ब्रूया: है बबले ! तब सहचरः, रामगिर्याचमस्थः, अव्यापन्नः, वियुक्तः, स्वीम् कुशलम् पृच्छति। सुलभविपदाम् प्राणिनाम् एतदेव पूर्वा- माध्यम् ।। ३८ ।।
व्याख्या हे आयुष्मन् हे चिरजीविन् ! ममयशस्य वचनात् = प्रार्थनावाक्यात आत्मनः निजस्य च उपकर्तुम् उपकारं कर्तुम्, ताम् मत्प्रियाम् एवम् इत्यम् ब्रूयाः व्याहर। किमिति कथयति है अब ! हे दुर्बले! तब भवत्याः सहचरः सहचारी 'भर्ती' इत्यर्थः, रामगिर्याश्रमस्थ - राम गिरिनामकपर्वताषमस्यः, बम्पापन्नः जीवित सकुशल इत्यर्थः, = -

- वियुक्तः वियोगं प्राप्तः, (सन् ) त्वाम् भवतीम्, प्रियामित्यर्थः कुशलम् क्षेमम् मङ्गलमितियावत् पृच्छति जिज्ञासते। सुलभ विपदाम् सुगमापत्तीनाम्, प्राणिनाम् जन्तूनाम् एतदेवकुशलमेव पूर्वाभाष्यम्प्राक्कथनीयम् ||३८| समासः - हे आयुष्यन्हे विरजीविन् । मम मेरे वचनात् प्रार्थना
वाक्यों से आत्मना और अपने को भी उपकर्तुम् उपकृत करने के लिए, अर्थात् परोपकार की भावना से ताम्र उस मेरी प्रिया को एवम् इस प्रकार, ब्रूया कहना, (कि ) है सबसे ! कृशाङ्गि ! तब तुम्हारा, सहचरः साथी (सहगामी), रामगिर्याश्रमस्यः रामगिरि के आश्रमों में रहता हुआ, व्यापन्नः सकुशल, वियुक्तः = (तुमसे बिछुड़ा हुआ), स्वाम= तुम्हारी, कुशलम् कुशलता को पृच्छति पूछता है। सुलभ विपदाम् आसानी से विपत्तियों को प्राप्त करने वाले, प्राणिनाम्प्राणियों के लिए, एतदेव कुशल प्रश्न ही, पूर्वाभाष्यम् = प्रारम्भ में पूछने योग्य होता है ।। ३८ ।।
भावार्थ:- हे आयुष्मन् ! त्वं मत्प्रार्थनावचोभिकारभावनया म
यामित्वं कथये (यत्) हे अब ! 'स्वप्रियः रामनियमेषु निवसन् कुशली त्वद्वियुक्तः सन् त्वत्कुशलं पृच्छति' । सुगमप्राप्तविपत्तीनां जन्तूनां प्राक्कपनीयं कुशलमेव भवति ॥ ३८ ॥
हिन्दी - हे चिरञ्जीव ! तुम मेरी प्रार्थना से और उपकार की भावना से मेरी प्रिया को ऐसा कहना ( कि ) है अब तुम्हारा प्रियतम तुमसे बिछुड़ा हुआ रामगिरि पर्वत के आश्रमों में रहता हुआ सकुशल तुम्हारा कुशल पूछ रहा है। क्योंकि बनायास ही विपत्ति में फँस जाने वाले प्राणियों को पहले कुशल ही पूछना चाहिए ।। ३८ ।।
समासः - रामगिरेः आश्रमाः रामगिर्याश्रमाः (प० तद्०) तेषु तिष्ठति
इति रामगिर्याश्रमस्थ (उपपदसमास) न व्यापनः अव्यापन्नः (नब्० ) ।
पूर्वमाभाष्यम् = पूर्वाभाष्यम् ( सुप्सुपा० ) सुलभा विपत् येषां ते गुरुभविपदः ( बहु० ) तेषाम् ।
कोश:- कुशल क्षेममस्त्रियाम् इत्यमरः स्वयोषिदोष इत्यमरः । जैवातृकः स्वादायुष्मन् इत्यमरः विपत्यां विपदापदी, इत्यमरः ।
१७ मे० दूत

टिप्पणी-वचनात् यहाँ 'बच्' धातु से 'ल्युट्' प्रत्यय करके 'वचन' रूप निष्पन्न होता है। 'स्लोपे कर्मण्यधिकरणे च इस सूत्र से कर्म में पश्चमी विभक्ति हुई है। आत्मनः यहाँ पर 'आत्मन्' शब्द से द्वितीया विभक्ति प्राप्त थी क्योंकि वह 'उपकार' क्रिया का कर्म है, परन्तु सम्बन्ध की विवक्षा होने के कारण कर्मादीनामपि सम्बन्धमात्र विवशायां षष्ठ्येव इससे हो गयी उपकर्तुम्— 'उप' उपसर्गपूर्वक 'कृ' धातु से तुमुन् प्रत्यय करके 'उपकर्तुम्' ऐसा रूप निष्पन्न होता है। अव्यापन्न- वि + आ उपसर्ग पूर्वक 'पद' धातु से 'क्त' प्रत्यय करके व्यापन' रूप बनता है, न व्यापन: व्यापन्नः। सुलभविपदाम् - यह प्राणियों का विशेषण है। संसार में प्राणियों को विपत्ति प्राप्त होना सुलभ तो है ही जैसा कि कवि ने अपने रघुवंश महा काव्य में भी लिखा है- विपत्पत्तिमतामुपस्थिता' इति भगवान् पतञ्जलि भी योगदर्शन में लिखते हैं-
परिणामतापसंस्कारदुर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्व विवेकिनः' इति । अलङ्कारः - इस श्लोक में पूर्व के तीनों चरणों में कहे गये वाक्य का समर्थन चतुर्थ चरणोक्त 'पूर्वाभाष्यम्' इत्यादि से किया गया है, अतः 'अर्थान्तर- न्यास अलङ्कार है ॥ १८ ॥
अङ्गाङ्गं प्रतनु तनुना पाडतप्तेन तप्तं
साल णानतम विरतोत्कण्ठमुत्कण्ठितेन
उष्णोच्छ्वासं समधिकतरोच्छ्वासिना दूरवर्ती
संकल्पैस्तैविशति विधिना वैरिणा रुद्धमार्गः ॥ ३९ ॥
अन्वयः - ( हे अब !) दूरवर्ती, वैरिणा विधिना, रुद्धमार्ग, तनुना, गाढतप्लेन, सासेण, उत्कण्ठितेन समधिकतरोच्छ्वासिना, अर्जुन, प्रतनुतप्तम्, बचतम् अविरतोत्कण्ठम् उष्णोच्छ्वासम् बङ्गम, तैः सङ्कल्पैः,

- व्याख्या ( हे सुन्दरी) दूरवर्ती दूरस्थ वैरिणा विपरीतेन
- - - = = विधिना विधात्रा, रुद्धमार्ग अवरुद्ध, ( तब प्रियः) तनुनाशेन गाढतप्तेन अत्यन्तोष्णेन साइसेण अधुसहितेन, उत्कण्ठितेन उत्सुकेन समधिक वासना प्रबलनिःश्वासिना, अर्जुन स्वावयवेन प्रतनु बहुङ्कदाम्, तप्तम् सन्तप्तम् अदृतम् नयनाम् अविरतोत्कण्ठम् निरन्तरवेदनायुक्तम्, उष्णोठ्यासम्उष्णनिः श्वासम् अङ्गम् स्वयम् वैः पूर्वानुभूत, सङ्कलैः मनोर, विशति प्रविशति ।। ३९ ।। = = = D
- = = = शब्दार्थ: दूरवर्ती दूर देश में रहने वाला वैरिणा विपरीत, विधिना भाग्य से, रुद्धमार्ग के हुए मार्ग वाला (तुम्हारा प्रियतम) तनुना दुबले गाढप्तेन अत्यन्ततापयुक्त, साओं से युक्त, उत्कण्ठितेन उत्सुकतापूर्ण समधिकतरोन्यासमा दीर्घनिःश्वास लेने वाले अन ( अपने ) शरीर से, प्रतनु अत्यधिक दुबळे, तप्तम् तापयुक्त, अद्भुतम् - आसुओं से भींगे, अविरतोत्कण्ठम् निरन्तर उत्कण्ठा ( वेदना ) युक्त, उष्णोच्छ्वासम् गर्म-गर्म आहों वाले अङ्गम (तुम्हारे शरीर में पहले के अनुभूत मनोरयों के साथ विश्वति प्रवेश करता है ।। ३९ ।।
भावार्थ:- हे बबले ! प्रतिकूल भाग्येनावरुद्धपथो दूरस्वस्त्वत्पतिः कृशेन संतप्तेनापूर्णेोत्कण्ठतेन दीर्घनिःश्वासयुक्तेन स्वशरीरेण कृशे संतप्तेऽक्सिन् उदासयुक्ते त्वत्शरीरे पूर्वानुभूर्तः मनोरथेः प्रविशति ॥ ३९ ॥
हिन्दी है अब ! विपरीत भाग्य के कारण रुके हुए मार्ग वाला दूर देश में रहने वाला ( तुम्हारा पति ) अपने दुबले-पतले, संतप्त अपूर्ण वेदना से युक्त, लम्बी-लम्बी आहें भरने वाले शरीर से अत्यन्त दुबले तापयुक्त, आँखों से भोंगे, वेदनापूर्ण लम्बी-लम्बी बाहों से युक्त तुम्हारे शरीर में पहले के अनुभूत मनोरथों से प्रवेश करता है ।। ३९ ।।
समास:- दूरवर्ती दूरे वर्तीति शीलमस्य इति दूरवर्ती (उपपद०) । रुद्धमार्ग मार्गों यस्य सः रुद्धमार्ग ( बहु० ) गार्ड तलम्गावतसम् ( सुप्सुपा० ) तेन। अप्रैण सहितम् साम्रम् ( तुल्य योग०) तेन सम्य -

- = - अधिकतरम् समधिकतरम् ( कुगतिप्रा० इति समासः) प्रकृष्टं तनु प्रतनु ( कुगतिप्रा० असे दूतम् तम् ( तु० तत्) तत् न विरता अविरता (नन्०) अविरता उत्कण्ठा यस्य तत् अविरतोत्कण्ठम् (बहु० ) । उष्ण उच्छ्वासो यस्य तद् उष्णोच्छ्वासम् (बहु० ) ।
कोश:-- तिग्मं तीव्रं वरं तीक्ष्णं चण्डमुष्णं पटुस्मृतम्, इति यादवः । चाथुनेत्राम्बुरोदनं चासमधु च इत्यमरः । गाढ वाढ-दृढानि च इत्यमरः । रिपो वैरिसपत्नाऽरिद्विषत्वेषणदः इत्यमरः । देवं दिष्टं भागधेयं भा स्त्री नियतिविधि इत्यमरः ।
टिप्पणी- दूरवर्ती 'दूर' उपपदपूर्वक 'वृत्' धातु से तच्छील अर्थ में 'मिनि' प्रत्यय करके 'दूरवर्ती' ऐसा रूप बनता है। बेरी-वैरमस्यास्तीति 'बैरी' 'र' शब्द से 'बत इनिनो' इस सूष से 'इन्' प्रत्यये 'बेरी' शब्द बनाया जाता है। उत्कण्ठितेन उत्कण्ठा सम्यात अस्येति इस विग्रह में 'उत्कण्ठा' शब्द से 'सदस्य सञ्जातं तारकादिभ्य इत इस सूत्र से इतन' प्रत्यय हुआ है। प्रतनु यक्ष ने अपने शरीर को केवल पतला कहा परन्तु पत्नी के शरीर को प्रतनु कहा- अर्थात् एक तो वह स्वाभाविक दुर्बल थी, वियोग में अत्यधिक दुर्बल हो गयी होगी। ठीक इसी भाव का श्लोक वाल्मीकि- रामायण में आता है। 'सा प्रकृत्यैव तन्वङ्गी तद्वियोगाच्च कविता प्रतिपत्पाठ- शीखस्य विद्येव तनुतां गता इति ॥
बलद्वार:- यहाँ 'सम' जलद्वार है क्योंकि यक्ष के शरीर और उसके पत्नी के शरीर का एक समान रूपन किया गया है।

'समं स्यादानुरूपेणी क्लाषा या योग्यवस्तुनो' ( साहित्यदर्पण) ।
शब्दाख्येयं यदपि किल ते यः सखीनां पुरस्तात्
कर्णे लोलः कथयितुमभूदाननस्पर्शलोभात् ।
सोऽतिक्रान्तः श्रवणविषयं लोचनाम्यामदृश्य-
स्त्वामुत्कण्ठाविरचितपदं मन्मुखेनेवमाह ॥ ४० ॥

- = = = = = = व्याख्या (हे बबले !) स्वप्रियः ते तव सखीनाम् आलीनाम् पुरस्तात् सम्मुखस्, यद्वचनम् शब्दाख्येयम् स्पष्टैः सदेः कपनीयम्, (त) अधि जाननस्पर्शलोभात्दन सम्पर्कभिलाषाद, कर्णे धोत्रे, कथयितुम् वक्तुम् ढोल चपलः, अभूत् आनी लियेन श्रवणविषयम् कर्मकुहरम् अतिक्रान्तः = उल्लङ्घितः कर्णेन्द्रियविषय इति भावः लोचनाभ्याम् नेत्राभ्याम्, अदृष्य अनयलोनयः सः त्वत्प्रियः उत्कण्ठाविरचितपदम् औत्सुक्यनिर्मितपदम् इदम् अवक्ष्यमाणम्, मन्मुखेन मदाननेन, आह ब्रवीति ।। ४० ।।
- शब्दार्थ:-( हे बबले !) यः जो ( तुम्हारा प्रियतम) ते तुम्हारे सखीनाम् सलियों के पुरस्तात् सामने, यत् जो शब्दाख्येयम् जो बात ऊँ शब्दों में कहीं का सकती थी ( वह), अपि भी, बाननस्पर्शलोमात् - तुम्हारे मुख के स्पर्श के लोभ से कफान में कथयितुम् कहने के लिए. सोलचाल, अभूत् हो जाता था । श्रवणविषयः कान के विषय से, अतिक्रान्तः अछूता अर्थात् कान से जो नहीं सुना जा सकता, लोचनाभ्याम् नेत्रों से अदृश्य जो नहीं देखा जा सकता, सः वह तुम्हारा प्रिय) त्वाम्= तुमको, उत्कण्ठाविरचितपदम् उत्सुकतावश बनाये गये शब्दों वाला, इदम् यह आगे कहा जाने वाला (सन्देश) मम्मुखेन मेरे मुँह के माध्यम से बाह कहता है ।। ४० ।। E =
अन्वयः - ( हे अबले ) प ते सखीनाम् पुरस्तात्, यत्, शब्दाख्ययम् बपि आननस्पर्शलोभात् कर्णे, कथयितुम्, खोल, अभूत् किल श्रवणविषयम्, अतिक्रान्तः, लोचनाभ्याम् अदृश्यः स त्वाम् उत्कण्ठाविरचितपदम् इदम् मम्मुडेन, आह ॥ ४० ॥
भावार्थ: हे सुन्दरि ! यस्ते वल्लभः पुरा स्वासहचरीनां समझ स्पष्टशब्देः कथनीयमपि वचनं स्वन्मुख चुम्बनाभिलाषया कर्णे वक्तुं च आसीत् । स एव कर्णेन्द्रियातीतः चक्षुर्म्यामदृश्यः दूरवर्ती स्वप्रियः उत्सुकतावशात् विरचित पदं सन्देशं त्वां मन्मुखेन कथयति ।। ४० ।।
हिन्दी - हे सुन्दरि ! जो प्रियतम तुम्हारी सलियों के सामने जिसे स्पष्ट शब्दों में (जैसे से) भी कहा जा सकता था ऐसी बातों को भी तुम्हारे मुख

स्पर्श के लोभ से कान में कहने के लिए चन्चल होता था। वहीं जिस कानों से नहीं सुन सकती या जिसे आंखों से नहीं देख सकती ( दूर रहने के कारण ), तुम्हारा प्रिय उत्सुकता से बनाये गये शब्दों वाला सन्देश तुमको मेरे द्वारा कह रहा है ।। ४० ।।
- = = समासः शब्देन आख्येयम् शब्दाख्येयम् (तृ० त०), आननस्य स्प अननस्पर्श (प० त०), आननस्प लोभ आननस्पर्श लोभ (स० तत्०), तस्मात् श्रवणयोः विषयः श्रवण-विषयः ( प० त० ) तम् द्रष्टुं योग्य: दृश्य:, न दृश्य अदृश्य: ( नव्), उत्कण्ठपा विरचितानि पदानि यस्य उत्कण्ठाविरचितपदम् ( बहु० ) मम मुखम् मन्मुखम् (तत्) तेन ।
कोश:- कोलो लोभो लोलो लाली लम्पटोऽपि च इति यादवः पदं शब्दे च वाक्ये इति विश्वः । वक्त्रास्ये वदनं तुण्डमाननं लपनं मुखम्, इत्यमरः ।
टिप्पणी स्पर्श 'स्पु धातु से 'घ' प्रत्यय करके स्पर्श रूप निष्पन्न होता है। लोभः 'म्' धातु से 'घ' प्रत्यय करके 'लोभ' शब्द निष्पक्ष होता है। अभूत् यह सार्थक 'भू' धातु के लुलकार का रूप है। दृश्य:- वष्टुं योग्यः इस विग्रह में क्यप् प्रत्यय करके 'दृश्य' रूप बनता है।
श्यामास्वङ्ग' चकितहरिणीप्रेक्षणे दृष्टिपातं
शिखिनां बहंभारेषु केशान् । उत्पश्यामि प्रतनुषु नदीवोचिषु भ्रूविलासात्
हन्तैकस्मिन् क्वचिदपि न ते चण्डि ! सादृश्यमास्त ॥४१॥
अन्वयः - ( हे प्रिये !) श्यामासु, अङ्गम्, चकितहरिणीप्रेक्षणे; दृष्टिपातम् शनि वक्त्रच्छाया शिखिनाम्, बर्हारेषु केशान्, प्रतनुषु, नदीवीचिषु, भू- विसान् उत्पश्यामि हन्त हे चण्डि क्वचिदपि एकस्मिन् ते साबुपयम् न अस्ति ।। ४१ ।

= - तहरिणीप्रेक्षणे भयभीत मृगीबिलोकन, दृष्टिपातम् त्वन्नेज-क्रियाम्, शशिनि चन्द्रमसि छत्ववदनकान्ति, शिखिनाम्मयूराणाम्, बहमारेषु पिच्छज्जेषु केशान्धकान् प्रतनुषु क्षीणासु, नदीवीचिषु तदि- तरङ्गेषु विनामान् उत्पश्यामि उत्प्रेक्षे ( किन्तु ) हन्त इति विषादे, हे हे भामिनि, कचिदपि कुत्रापि एकस्मिन् एकत्र ते तब, सादृश्यम् साम्यम्, सर्वाङ्गीणतयेति शेषः, न नहि अस्ति वर्तते ।। ४१ ।। -
व्याख्या- (हे प्रिये !) दयामासुप्रियंगुली, अङ्गम् शरीरम् चाक-
शब्दार्थ:- (हे प्रिये !) श्यामा प्रियंगुलताओं में अङ्गम् (तुम्हारे ) शरीर की पक्तिहरिणीप्रेक्षणे भयभीत मृगी के देखने में दृष्टिपातम् तुम्हारे नेत्र व्यापार की वाशिनि चन्द्रमा में वक्त्रच्छायाम् मुँह की शोभा की, शिखिनाम्= मयूरों के बहंभारेषु पंखों के समूहों में, केशान् बालों को, प्रतनुषु पतली नदीबीच नदियों की तरङ्गों में धूविलासान् तुम्हारे भौहों के विश्रम की उत्पश्यामि उत्प्रेक्षा ( सम्भावना या कल्पना) किया करता हूँ, किन्तु हन्त ! बेद है कि, हे चण्डि हे मामिति वदपि कहीं भी एकस्मिन् एक जगह (सर्वाङ्गीण रूप से, ते तुम्हारी, सादृश्यम् -समानता ननहीं, अस्ति •नहीं, अस्ति है ॥ ४१ ॥ = ।।
भावार्थ: हे प्रिये ! प्रियंगुलता स्वदङ्गम्, जस्तमृगीविलोकने दृष्टिपातम् चन्द्रे वदनशोभाम्, मयूरपिच्छज्जे छन्, क्षीणनदीतरङ्गेषु विभ्रमास्तर्क- यामि, किन्तु हन्त ! कुत्राप्येकस्मिन् साकल्येन त्वत्सादृश्यं नास्ति ।। ४१ ।।
हिन्दी हे प्रिये । प्रियंगु लताओं में तुम्हारे शरीर की भयभीत मृगी के देखने में तुम्हारे देखने की, चन्द्रमा में तुम्हारे मुँह की शोभा की मोरों के पंखों के समूहों में तुम्हारे केशपाश की पतली नदी को तरों में तुम्हारे विलास की सम्भावना में किया करता हूँ परन्तु छेद है कि कहीं भी एक जगह सम्पूर्ण रूप से ) तुम्हारी समानता नहीं है ।। ४१ ।।
=
समास: पकितान ताः हरिण्यः चक्तिहरिण्यः ( कर्मधारय०) तासां
प्रेषणमक्तिहरिणीप्रेक्षणम् (५० तद्०) तस्मिन् वरमस्व

= यत्रच्छाया ( ष० त०) ताम् बणां भारः बर्हद्वार ( ० तत्०) तस्मिन् । प्रकृष्टाः तनवः प्रतनवः ( कुगति प्रा० ) तेषु नदीनां वीचमः नदीवीचयः (प० स० ) तासु भुवो दिलासाः विलास (१००) = तान्
कोशः मातु महिलाया छता गोवन्दनी गुन्दा प्रियङ्गुः फलिनी फली screeः । चण्टस्त्वत्यन्तकोपनः इत्यमरः स्त्रियां वीचिरथोमिषु, इत्यमरः । हन्त ! हर्षेऽनुकम्पायां वाक्याऽऽरम्भविषादयोः इत्यमरः एकाकी 1 [वेक] एकक, इत्यमरः ।
टिप्पणी- यहाँ श्यामा का सादृश्य 'कोमलता' रूप समान धर्म के कारण किया गया है। भयभीत हरिणी के नेत्र का साम्य चाचत्वेन चन्द्रमा की समानता आह्लादकत्वेन मयूरों के पंखों का साम्य कृष्णत्वेन चिक्कण- त्वेन और नदी-तरों का साम्य भूविलास में टेढ़ेपन के कारण किया गया प्रेक्षण' उपसर्गपूर्वक 'इन्' धातु से ल्युट् प्रत्यय करके 'प्रेक्षण' रूप निष्पन्न होता है दृष्टि-'दुश' धातु से 'क्लिन्' प्रत्यय करके 'दृष्टि' शब्द निष्पन्न होता है। वक्त्रच्छायाम्यहाँ पूर्व पदार्थ वक्त्र का बाहुल्य अर्थात् अधिकता न होने के कारण 'छाया बाहुल्ये' इस सूत्र से 'इच्छा- याम्' के समान यह पद नपुंसकलिङ्गी नहीं हो सका शिखिनाम्-शिला मस्त्येषाम् इस विग्रह में 'शिक्षा' गन्द से 'अत इनिनो' सूत्र से 'इन्' प्रत्यय करके 'शिखिन्' निष्पन्न होता है, उक्त रूप षष्ठी विभक्ति के बहु- वचन का है। उत्पश्यामि'उत्' उपसर्गपूर्वक 'वृश' धातु के लट् लकार के प्रथम पुरुष के एकवचन का यह रूप है चण्डि 'डि' कोपे के धातु इवित होने के कारण 'इवितो नुम्धातो:' से नुम् करके जत्य आदि करके 'नन्दि- पिचादिभ्यो युणिन्यचः इस मूत्र से 'अच्' प्रत्यय करके 'चण्ड' ऐसा शब्द बनाकर पश्चात् स्त्रीत्व की विवक्षा में 'बवादिभ्यश्च' इस सूत्र से 'डी' प्रत्यय करके 'चण्डी' रूप बनता है, लोकमत पद सम्बोधन का । कहीं-कहीं विद्-गौरादिम्या' इस सूत्र से 'की' करना बतलाया गया है

पर 'गौरादि' गण में उक्त शब्द के न होने के कारण वह अनुपयुक्त है। अस्ति- यह सुप्रसिद्ध सत्तार्थक 'अस्' धातु के लट् लकार के प्रथम पुरुष के एकवचन का रूप है।
अलङ्कार:- साहित्यदर्पण -
"सदृशानुभवाद्वस्तुस्मृतिः स्मरणमुच्यते" ।
इस क्षण के अनुसार यहाँ 'स्मरण' बलङ्कार है क्योंकि प्रिया के शरीर आदि के समान प्रियंगुलता आदि के अनुभव से ( कोमलता आदि समान धर्म के द्वारा ) प्रिया के शरीर आदि की स्मृति प्रकृत में वर्णित है ।। ४९ ।
त्वामलिस्य प्रणयकुपितां धातुरागः शिलाया- मात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तुं ।
अस्तावहरुपचितेष्टिरालुप्यते मे क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते सङ्गमं नौ कृतान्तः ॥४२॥
अन्वयः - ( हे प्रिये !) प्रणयकुपिताम् त्वाम् धातुराः शिलायाम् लक्ष्य आत्मानम् ते, रणतितम् कुम् यावत् इच्छामि तावद, मुहूः, उपचित, असे मे दृष्टि आलुप्यते क्रूरः कृतान्तः तस्मिन् अपि नौ संगमम् न सहते ॥ ४२ ॥
व्याख्या ( हे प्रिये !) प्रणयकुपिताम्रतिक्रुद्धाम्, न त्वपराधकुपि तामिति भावः त्वाम्-प्रेयसीम् त्वयित्रमितिभावः । धातुरायैः गैरिकादिवर्णैः शिलायाम् = प्रस्तरपट्टे, बालिस्यचिवित्वा आत्मानम् स्वम् ते तब चित्रस्थायाः इति भावः चरणपतितम् पादपतितम् कर्तुम् सम्पादयितुम्, चित्रितुमिति भावः यावत्-पावत्समयम् इच्छामि अभिलयामि तावत् तत्कालावधिम् एवेति योज्यम्, मुहुः अनेकशः उपचितः प्रवृद्ध, ब नेत्रजल, मे मम दृष्टिः- नयनम् आलुप्यते वि क्रूरः निस्पृहः, कृतान्तः विधिः तस्मिन्नपि चित्रेऽपि नौ आवयोः संगमम् सहवासम् न सहतेन क्षमते ॥ ४२ ॥

- - - = = = = == - - तुमको (तुम्हारे चित्र को), धातुराग ने आदि रंगों के द्वारा, शिलायाम् = पत्पर पर, आलिस्य लिखकर आत्मानम् अपने को अपने चित्र को ( ते = तुम्हारे, चरणपतितम् = पैरों पर गिरा हुआ, कर्तुम् चित्रित करना, यावत् = जदतक, इच्छामि चाहता हूँ तावत् उसी समय मुहुः बार-बार प्रवृद्ध उमड़े हुए, अः अधुओं से मे मेरी दृष्टि आलुप्यते दूब जाती हैं (वडवा जाती हैं क्रूरः कठोर, कृताऽन्तः भाग्य, तस्मिन् स चित्र में, अपि भी, नौ हम दोनों का संगममिलन, न सहते नहीं सहता है ।। ४२ ।।
शब्दार्थ:- ( हे प्रिये!) प्रणयकुपिताम् प्रेम में रूठी हुई, त्वाम्
भावार्थ: है प्रिये ! प्रेमकुपिता त्वयि गैरिकादिधातुवर्णैः प्रस्तर- पट्टे विलिख्य स्वप्रतिकृति यावत् स्वपचरणपतितां चित्रितुमिच्छामि तावदेव भूयो भूयः प्रवृर्द्धरबुभिर्मम नेत्रमत्रियते निर्दयो विधि चित्रेऽप्याययोः सहवासं न क्षमते ।। ४२ ।।
हिन्दी (हे प्रिये 1) प्रणय में कुपित तुम्हारे चित्र को गेरू आदि रंग से पत्थर पर लिखकर अपने चित्र को जब तक तुम्हारे पाँवों पर गिरा हुआ चित्रित करना चाहता हूँ, तभी बार-बार उमड़ते बाँसुओं से मेरी जाँ डव- डबा जाती है। कठोर विधाता चित्र में भी हम दोनों के मिलन को नहीं सहन करता ।। ४२ ।।
समास: प्रणये कुपिता प्रणयकुपिता ( स तत्) ताम् धातव एव रागाः धातुरागाः (रूपक) ते चरणयोः पतितः चरणपतिव (स० ००) तम् कृतः अन्तः येन सः कृतान्तः ( बहु० ) ।
कोश:- सारङ्गादी च रागः स्यादारण्ये रज्जने पुमान् इति शब्दार्थवः । नृशंसो धातुकः क्रूरः इत्यमरः कृतान्तो यमसिद्धान्तदेवा कुशल कर्मसु इत्यमरः । धातुर्यादिशब्दाऽऽदि गैरिकादिषु इति यादवः ।
टिप्पणी- कुपिता 'कुप्' धातु से कर्ता में 'क' प्रत्यय करके इटादि करके स्त्रीत्व-विवक्षा में टापू करके 'कुपिता' यह रूप बनता है। क्रोध दो प्रकार का होता है। एक तो ईर्ष्याजन्य क्रोध और दूसरा प्रणयकोप रतिकाम में नायिका का बनावटी क्रोध रतिवर्धक ही होता है, यक्ष, उसी समय का स्मरण

करके प्रिया का चित्र बनाना शुरू किया होगा आलिस्य 'आई' उपसर्ग पूर्वक 'लि' धातु में 'त्या' प्रत्यय करके उसके स्थान में 'स्पप्' करके रूप बनता है। पतितपतनार्थक 'पद' धातु से कतों में 'क'' प्रत्यय करके 'पतित' ऐसा रूप बनता है। नौ- 'अस्मद्' शब्द के स्थान पर 'युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्ययोर्वानावी' इस सूत्र से 'नो' आदेश किया जाता है।
अलङ्कारः - इस पद्य में 'अर्थापत्ति' अलङ्कार है ।। ४२ ।।
मामाकाशप्रणिहितभुजं निर्दयाश्लेषहेतो- घायास्ते कथमपि मया स्वप्नसन्दर्शनेषु ।
पश्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थलीदेवतानां मुक्तास्थूलास्तर किसलयेष्वलेशाः पतन्ति ॥४३॥७
- - व्याख्या है प्रिये ! ) स्वप्नसंदर्शनेषु स्वप्न साक्षात्कारेषु मया- यक्षेण कथमपि केनापि प्रकारेण लब्धायाः प्राप्तायाः से तब निर्दयाss- तो पुरुषाऽऽङ्गिनार्थमितिभावः आकाशप्रणिहितभुजम् गगनप्रसा रितबाहुम्, माम्यक्षम् पश्यन्तीनाम् अवलोकयन्तीनाम् स्थलीदेवतानाम् बरणस्थलीदेवीनाम् मुक्तास्थूलाः मौक्तिकपीवराः, मलेशाः सबिन्दवः aroraणा इत्यर्थः, किसलयेषु दृशनवपल्लवेषु बहुशः भूरिशः, न पतन्तिः न] स्वलन्ति (इति) ननहि, अपितु पतन्त्येव नियेन ॥ ४३ ॥ =
अन्वयः - ( हे प्रिये !) स्वप्नदर्शनेषु मया, कथमपि लब्धायाः ते, निर्दयालेषहेतो: आकाशप्रणिहितभुजम् माम् पश्यन्तीनाम् स्थलीदेवतानाम् मुक्तास्ताः तरुकिसलयेषु बहुशः, न पतन्ति न खलु ॥ ४३ ॥
शब्दार्थ:- (हे प्रिये 1) स्वप्नदर्शनेषु स्वप्न के देखने में मया मेरे
द्वारा, कथमपि किसी प्रकार से लब्धायाः प्राप्त ते तुम्हारे निर्दाऽश्लेष
हेतो:-कठोर आलिङ्गन के लिए, आकाशप्रणिहितभुजम् बाकाश में फैलाये गये
बाहुबाले, मामू मुझको, पश्यन्तीनाम् देखती हुई, स्वलीदेवतानाम् = वनये-

- = - - = बियों के; मुक्तास्थूला मोतियों के समान बड़े अथुलेशाः असुओं की बूंदे (वाष्पकण) tषु वृक्षों के पल्लवों पर बहुशः बहुत, न पतन्ति नहीं गिरते ( इति ऐसा ) न नहीं अपितु गिरते ही हैं, लुनि ॥४३॥
= समासःस्वप्ने दर्शनानि स्वप्नसंदर्शनानि ( वृ० तद्०) तेषु नियंता दवा यस्मात् सः निर्दय ( बहु० ) निर्दयवासी आश्लेषः निर्देयाश्लेषः स एव हेतु निर्देयाश्लेषहेतु ( रूपक० ) तस्य प्रणिहितो मुजो येन स प्रणिहित- मुजः (बहु० ) आकाशे प्रणिहितमुजः आकाशप्रणिहितभुजः (स० तद्०) खम् । स्थलीनां देवताः स्थलीदेवताः (५० तत्०) तासाम् मुक्ता व स्थूलाः मुक्तास्थूला (उपमित कर्म० ) अश्रूणां लेशाः अलेशाः ( ब० तत् ० ) । तरुण किसलयानि तानि ष० त०] ) तेषु =
भावार्थ:- हे प्रिये ! स्वप्नावलोकनेषु मया महता यत्नेन बधायास्तद marsseनार्थमाका प्रसारितवाह मां पश्यन्तीनामरण्यदेवीनां मौक्तिक- पीवरा ( बाध्य विन्दु-रूपाः ) अश्रवः पतन्त्येव ॥ ४३ ॥
हिन्दी - हे प्रिये स्वप्न देखने में मैं बहुत प्रयास से जब तुम्हें पाता हूँ और तुम्हारे गाढ़ बालिङ्गन के लिए आकाश में बाहुओं को फैलाता हूँ उस समय मुझको देखने वाली बनदेवियों के मोतियों की तरह बाष्पविन्दु क्या वृक्षों के पलों पर न गिर पड़ते, अपितु अवश्य गिर जाते हैं।
कोशः स्वप्नः सुप्तस्य विज्ञानम् इति विश्वः दर्शनं समये शास्त्रे दृष्टी स्वप्नेऽक्षिण संविदि इति सब्दार्णवः । भुज बाहू प्रवेष्टो द्रो, इत्यमरः ।
टिप्पणी-ऊपर दिये गये शब्दाय कोश के अनुसार स्वप्न का अर्थ संविज्ञान होता है एवं दर्शन का भी वही अर्थ होता है। इस प्रकार 'स्वप्नसंवर्धने' में 'पुनरुक्ति' नामक काव्य-दोष की प्रसक्ति होती है, परन्तु 'सामान्यविशेष' न्याय से यह पुनरुक्ति दोष नहीं होता। जैसे अम्र शब्द का अर्थ हो आम्रवृक्ष है पुनः 'आम्रवृक्ष' यहाँ पर वृक्ष सामान्य एवं आम्रविशेष है उसी तरह यहाँ भी 'स्वप्न' एक विशेष ज्ञान है, ऐसा समझना चाहिए। दर्शन-दुश' धातु से करण में ल्युट् प्रत्यय करके 'दर्शन' ऐसा रूप निष्पन्न होता -

यदि । 'महात्म गुरुदेवानामधुपात: देशभ्रंशो महददुःखः मरणन्द्य भवेद्ध्रुवम् ।।'
। महात्मा, गुरु और देवताओं का अधूपात यदि पृथ्वी पर हो तो देश महद्दुःख और मरण अवश्य हो ।
हे आश्लेषा' उपसर्गपूर्वक 'दिल' धातु से 'धन्' प्रत्यय होता है। यहाँ प्रकृत्यर्थं 'गिरना' की दृढ़ता अर्थात् 'अवश्य गिरते हैं इसके लिए वो का प्रयोग किया गया है। जैसा कि कहा जाता 'द्वो नली दाद या गम- यतः इति बारिक सूत्र भी है-
स्मृतिनिश्चय सिद्धाऽयं नद्रयप्रयोगः सिद्धः" इति ।
महाकवि ने वनदेवियों का अनुपात पृथ्वी पर न कहकर पलय पर कहा है। क्योंकि देवताओं का अनुपात यदि पृथ्वी पर हो तो देशा, महा- दुःख और मरण होता है। जैसा कि कहा जाता है--
अलङ्कार:- 'मुक्तास्यूताः यहाँ इव आदि सामान्य धर्मवाचक पद के लोप होने के कारण 'लुप्तोपमा' नामक अलङ्कार है ।। ४३ ।।
भित्त्वा सद्यः किसलयपुटान्देवदारुमाणां ये तत्क्षीरत्र तिसुरभयो दक्षिणेन प्रवृत्ताः ।
आलिङ्ग्यन्ते गुणवति ! मया ते तुषाराद्रिवाता:
पूर्व स्पृष्टं यदि किल भवेदङ्गमेभिस्तवेति ||४४
अन्वयः देवदारुमाणाम्, किसलयपुटार, सचो, भित्त्वा तत्क्षीरस्रुति- सुरभयो, ये, तुषाराद्रिवाता, दक्षिणेन, प्रवृत्ताः, गुणवति । पूर्वम् एभिः तब, अङ्गम, स्पृष्टम् भवेत् यदि, किल इति ते मया, बाहियन्ते ।
व्याख्या देवदारुमाणाम् देवदारु नामक वृक्षाणाम्, किसलयपुटान्
पल्लवपुटान, सद्यः तत्क्षणे भित्त्वा विभोय, तत्कीरतिसुरमयः देवदारु
निर्गतदुग्धसुगन्धयः ये तुषारादिवाताः हिमालयपवना, दक्षिणेन दक्षिण-
=

= - = मार्गेण प्रवृत्ताः प्रचलिता, हे गुणवति है सर्वगुण सम्पन्ने ! पूर्वप्रा एभिः हिमालयपवनैः तव भवत्याः प्रियाया इत्यर्थः अङ्गम् शरीरम्, स्पृष्टम् = आमृष्टम् भवेत् स्यात् यदि चे ते हिमालय-पवनाः, कि इतिसंभावनायाम् इति एवंप्रकारेण निश्चयेन गया यक्षेण सायन्ते= आध्यन्ते ॥ ४४ ॥
= = = = = की तहों को सचीही, भिस्वा खिलाकर तत्क्षीरसुतिसुरभयः उनके बहते हुए दूध से सुगन्धित मे तुषाराद्विवाता जो हिमालय की हवा, दक्षिणेन दक्षिण की ओर प्रवृत्ता वह रही है, है गुणवति हे शौशील्यादि गुणसम्पन्ने । पूर्वपहले एभिः इन हवाओं से तव तुम्हारा - शरीर स्पृष्टम् आ गया भवेत् होगा यदि यदि किल अवश्य इति इसी सम्भावना से से हवाएं मया मेरे द्वारा, बालिङ्ग्यन्ते अविजित की जाती हैं ॥ ४४ ॥
शब्दार्थ : – देवदार प्रमाणाम् देवदार वृक्षों के किसलयपुटा = पहलव
भावार्थ:- हे गुणवति । देवदापल्लवान् विकास्य दुग्धमृगन्धिभिः सुगन्धिता: दक्षिणमार्गचिताः हिमालयवनाः प्राक् त्वदङ्गेन स्पृष्टा अवश्यं भवेयुरिति संभावना व तान् हिमालयपनानालिङ्गयामि ॥ ५४ ॥
हिन्दी - हे गुणवति ! देवदार के पल्लवों को खिलाकर उसके बहते हुए दूध की सुगन्ध से सुगन्धित दक्षिण की ओर बहने वाली हिमालय की बा से पहले तुम्हारे बज्र का स्पर्श अवश्य हुआ होगा, इस संभावना से मैं हिमालब की उन हवाओं का आलिङ्गन करता हूँ ।। ४४ ।।
समास: देवदारवञ्च ते दुमाः देवरारुदुमाः (कर्मधा० ) तेषाम् । किसलयानि पुटा इव किसलयपुटा (उपमित क० वा० ) तान् । तेषां क्षीरम् १) । = तत्सीरम् ( ० तत्) तस्य सृतिःतरक्षीरस्रुतिः ( ष० त० ), तदा सुरभयःतरक्षीरस्रतिसुरभयः ( ० त० ) तुषारस्य अद्रिः तुषाराद्रिः ( ब० स० ) वस्य बाठाः = तुषाराद्विवाताः ( ब० तत्० ) ।
कोश: वार्तासम्भाव्ययोः किल इत्यमरः सद्यः सपदि तत्त्वक्षणेः, इत्यमरः ।

टिप्पणी-प्रवृत्ता-'प्र' उपसर्गपूर्वक 'वृद्' धातु से कर्ता में "" प्रत्यय हुआ है। दक्षिणेन "दक्षिण" चूंकि यह प्रकृतिवाची शब्द है बतः 'प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्' से यहाँ तृतीया विभक्ति होनी चाहिए, परन्तु महाभाष्यकार पतञ्जलि तत्रापि करणत्वस्य प्रतीयमानत्वाद' इत्यादि हेतु देकर कर्तृकरणयोस्तृतीया' इसी सूत्र से तृतीया विभक्ति का व्याख्यान करते हैं। स्पृष्टम् 'स्पा' धातु से 'क' प्रत्यय करके 'स्पृष्टम्' ऐसा रूप निष्पन्न होता है। भवेत् पहाँ संभावना में विधि 'भू' धातु से आया है। इस श्लोक में सम्भावना का कथन तीन पदों द्वारा किया गया है अतएव यहाँ सम्भावना का अतिशय प्रतिपादन है, यह कहा जा सकता है। वे तीन पद -१ यदि २ किल और 'भू' धातु से संभावना में विधि लिङ् लकार में बने रूप ३ 'भवेद' ।
वाल्मीकि रामायण में भी इसी भाव का श्लोक आता है।
वाहि बात | यतः कान्ता तां स्पृष्ट्वा मामपि स्पृशेः । बहुतत्काममानस्य शक्यमेतेन जीवितम् ॥' (किष्कि०, १.५३)
संक्षिप्यते क्षण इव कथं दीर्घयामा त्रियामा
सर्वावस्थास्वहरपि कथं मन्दमन्यातपं स्यात् । इत्थं चेतश्चटुलनयने ! दुर्लभप्रार्थन मे
गाढोष्माभिः कृतमशरणं त्वद्वियोगव्ययाभिः ॥४५॥
अन्वयः दीर्घयामा, त्रियामा, क्षण, इब, कथम्, संक्षिप्यते ? बहरपि, सर्वावस्या, कथम् मन्दमन्यातपम् स्यात्, हे चटुलतयते । इत्यम् दुर्लभायं- नमू, मे, चेतः, गावोष्माभिः त्वद्वियोगव्यथाभिः, अशरणम् कृतम् ।। ४५ ।। व्याख्या दीर्घयामा दीर्घप्रहरा, त्रियामा रजनी, क्षण इव अल्पकाल
इव, कथम् केन प्रकारेण संक्षिप्यते लध्वी भवेत्, बहरपि-दिवसोऽपि सर्वा-
वस्यासु सकलवार, कथम् केन प्रकारेण मन्दमन्वाऽऽतपम् न्यूनाऽऽतपम्,
स्यात् प्रवेत् ? हे चलनवने बचाउने ? इत्यम् अनेन प्रकारेण दुध-

= प्राथैनम् अप्राप्याभिलायम्, मेमन, पक्षस्येत्यर्थः चेतः मनः, गाठोष्माभिः अत्यधिक तापवद्भिः स्वव्ययाभिः त्वदीयवियोगपीडाभिः अशरणम् == अनाथम् कृतम् = संपादितम् ।। ४५ ।।
शब्दार्थ : दीयामा बड़े प्रहरों वाली, त्रियामारात कथम् = किस
प्रकार, क्षण इव एक पल के समान, संक्षिप्यते छोटी हो जाये, अहरपि दिन भी सर्वावस्थासु सभी दशाओं में कयम् किस प्रकार, मन्दमन्यातपम् कम सन्तापवाला, भवेद हो जाये हे चटुलनयने है चन्चल नयनों वाली ! इत्यम् इस प्रकार दुर्लभ प्रार्थनम् अप्राप्य मनोरथवाला, मममेरा, पेतुः = मन, गाढोमाभिः अत्यधिक सन्ताप वाली त्वम्ययाभिः तुम्हारे वियोग की पीडा से, अशरणम् असहाय कृतम् बना दिया गया है ।। ४५ ।।
भावार्थ:- दीर्घप्रहरा रजनी केन प्रकारेण लम्बी भवेत् ? दिनमपि सम्पूर्ण- वस्था केन प्रकारेण अत्यल्पसन्तापयुक्तं भवेत् ? हे लक्ष इत्थं कठिन- प्राप्यमनोरथं मे मनः त्वद्विरहवेदनाभिरनाथं कृतम् ।। ४५ ।।
हिन्दी - बड़े-बड़े प्रहरों वाली रात किस तरह छोटी हो जाये ? दिन भी सब समयों में कैसे अत्यल्प सन्ताप वाला हो जाये ? हे चपलनयने ! इस तरह कठिनता से प्राप्त मनोरथ वाला मेरा मन तुम्हारे वियोग की व्यथा से अनाथ बना दिया गया है ।। ४५ ।।
समासः दीर्घा यामा यस्याः सा दीर्घवामा ( बहु० ) यो यामा यस्याः सा जियामा (बहु० ) सर्वात अवस्थाः सर्वावस्था (कर्म०या० ) तासु मन्दमन्दः आपो यस्मिस्तद्मन्दमन्दातपम् ( बहु० ) बटुले नयने यस्याः सा चलनयना (बहू) तत्सम्बुद्धौ दुर्लभा प्रार्थना यस्य तद् दुर्लभप्रार्थनम् (बहु० ) गाढ ऊष्मा यासां ता गाडोमाणः ( बहु० ) ताभिः । तय वियोग: स्वद्वियोगः ( ० तत्० ) तस्य व्ययाः त्वद्वियोगम्ययाः ( प० (द) ताभिः अविद्यमानं शरणं यस्य तत् ( नव् बहु० ) । 1
कोशः शरणं गृहरक्षित्रोः इत्यमरः निशा निशीविनी रात्रिस्त्रियामा क्षणवा क्षपा, इत्यमरः धो दिनानी वातु क्लीवे दिवसवासरो, इत्यमरः ।

टिप्पणी- एक दिन रात में आठ प्रहर होते हैं। इस प्रकार यद्यपि रात के भी चार प्रहर होने चाहिए परन्तु अमरकोश के टीकाकार के मतानुसार रात के आदि के अर्थ प्रहर एवं अन्य के अर्थ प्रहर रात नहीं है अतः 'रात' को शियामा कहा जाता है। संक्षिप्यते 'सम' उपसर्ग पूर्वक 'क्षिप्' धातु 'विधि' का यह रूप है। सर्वावस्थासु यहाँ ग्रीष्म ऋतु के लम्बे दिनों की दुपहरी आदि का समय समझना चाहिए। मन्दमन्दातपम् ' मन्दम्' इसका प्रकारे गुणवचनस्य' इस सूत्र से द्विरुक्ति हो गयी एवं कर्मधारय- वदुत्तरेषु' इस सूत्र से कर्मधारयवभाव हो जाने से 'सुपो धादुप्रातिपदिकयो ' इस सूत्र से सुप् का लुक हो जाता है। दुर्लभप्रार्थनम्- (यह पद 'त' इस पद का विशेषण है। गाढोष्माभिः यहाँ 'उष्मन् शब्द यद्यपि पुंलिङ्ग है तथापि बहुव्रीहि समास हो जाने पर समस्त शब्द स्त्रीलिङ्ग हो जाने पर 'डायुष्यासत्त्यतरस्याम्' इस सूत्र से स्त्रीत्व की विवक्षा में 'बापू' हो जाने से 'गाढोमा' ऐसा रूप frन होता है ।। ४५ ।।
नन्वात्मानं बहु विगणयन्नात्मनैवावलम्बे तत्कल्याणि ! त्वमपि नितरां मागमः कातरत्वम् ।
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा
नीचगच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥४६॥
अन्वयः -- ननु बहु विगणयत् आत्मानम् आत्मना एवं अवलम्बे, तद् कल्याणि ! त्वमपि नितराम, कातरत्यम्, मा, गमः कस्य अत्यन्तम्, सुखम्, दुःखम्, वा, एकान्ततः उपगतम् ? चक्रनेमिक्रमेण वचा, नीचैः उपरि च गच्छति ।। ४६ ।।
व्याख्याननु = हे प्रिये ! बहु-अधिकम्, विगणयन् विचारयन्, आत्मा- नम्स्वम्, आत्मनैव स्वेनंय, अवलम्बे धारयामि तत्तद्धेतोः, हे कल्याणि हे सुभगे ! स्वम् मत्रिया अधि, नितरामु अत्यन्तम्, कातरत्वम्- भीरुत्वम्, मागमः नोवायाः कस्य जनस्य, अत्यन्तम् अत्यधिकम् सुखम् १८ मेघदूत •


=
=
= - = = = - = शब्दार्थः ननु हे प्रिये ! वस्तुतः बहुबार बार, विगणयन् विचार करता हुआ, (मैं) आत्मानम् अपने को, आत्मनैव अपने द्वारा ही अवलम्बे धीरज बंधाता रहता हूँ। तद् इस कारण से, हे कल्याणि हे सौभाग्य- यति । श्वमपि तुम भी नितराम् अत्यधिक कातरत्वम् भीता को, मागम: मत प्राप्त करना ( इस संसार में) कस्य किस व्यक्ति का अत्यन्तम् -- अत्यन्त सुखम् आनन्द, दुःखम् कष्ट वा अथवा एकान्ततः नियमित उपनतम् रहा है। चक्रनेमिक्रमेण रथ की पुरी के क्रम से दशा = (व्यक्ति की अवस्था, नीचे नीचे की ओर, उपरि ऊपर की ओर, गच्छति जाती रहती है ॥ ४६ ॥
= आनन्दः, दुखम् कष्टम् अथवा एकान्ततः नियमन उपनम्
प्राप्तम् । (किन्तु चक्रनेमिक्रमेण स्यन्दनाङ्गमधिपरिपाटया, दशा अवस्था
नीचैः अधः उपरि चउर्ध्वच गच्छति याति ।। ४६ ।।
भावार्थ: है प्रिये ! बहू विचारयनात्मानमात्मनैव धारयामि, तस्मात् कारणाद हे सुभगे ! त्वमपि बहुमीयतां मा गच्छेः कस्य जनस्य अत्यधिकं सुखं दुःखं वा नित्यं प्राप्तम् रथचक्राङ्गपरिपाटया व्यक्तिदशा नीचः उपरि गच्छति ।। ४६ ।। हिन्दी हे प्रिये ! बहुत विचार करता हुआ मैं अपने को स्वयं ही
धीरज बंधाता रहता हूँ, इसलिए हे सौभाग्यवति! तुम भी अधिक भीरता को
मत प्राप्त करना किस व्यक्ति का अत्यधिक सुख या दुःख नित्य रहता है ? रच
की धुरी के समान व्यक्ति की दशा ( कभी ) ऊपर और (कभी) नीचे जाती
है ।। ४६ ।।
समासः - अन्तमविक्रान्तः - अत्यन्तम् (अत्यादयः क्रान्ताच द्वितीया ) ।
चक्रस्य नेमिः चक्रनेमिः ( ष० त० ) तस्य क्रमः चक्रनेमिक्रमः (च० तत्०)
तेन ।
कोश: प्रवनावधारणानुसानुनयामन्त्रणे ननु इत्यमरः । चर्क रा
तस्यान्ते नेमिः स्त्री स्यात् प्रधिः पुमान् इत्यमरः । चक्रधारा प्रथिनेमिः इति

= टिप्पणी- ननु यहाँ इसका ग्रहण आमन्त्रण अर्थ में है। विगणयन्- 'वि' उपसर्गपूर्वक 'गण' धातु से 'जि' करके लट् लकार के स्थान पर 'मातृ' आदेश करके 'विगणयन्' ऐसा रूप उपपन्न होता है। आत्मना यहाँ 'प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्' इस सूत्र से तृतीया विभक्ति हुई है। अवलम्बे- 'अर्थ' उपसर्गपूर्वक आत्मनेपदी लव + (इ) धातु से इदित्वान्मु आदि करके लकार के उत्तमपुरुष एकवचन में 'अवलम्बे ऐसा रूप बनता है। कल्याणि कल्याण 'वाद' से 'बह्वादिभ्यश्च' सूत्र से ङीप् करके 'कल्याणी' ऐसा रूप बनाया जाता है। यह सम्बोधन का रूप है। उक्त विशेषण देने का अभिप्राय है कि 'हे सौभाग्यवति । मैं तुम्हारे सौभाग्य बल से ही जी रहा हूँ।' इति कातरत्वम् कातराया भाव: इस अर्थ में 'कारा' शब्द से ''तस्य भावस्वतलो' इस सूत्र से 'त्व' प्रत्यय हुआ है और स्वतलोर्गुणवचनस्य' इस सूत्र से 'कातरा' को पुंवद्भाव हो गया है। उपनतम् उप उपसर्गपूर्वक 'नम्' धातु से 'क' प्रत्यय होकर अनुनासिक का लोप करके 'उपनतम्' ऐसा रूप बनता है।
विभासरचित स्वप्नवासवदत्तम् --
'कालक्रमेण परिवर्तमाना । जगतः
चकारपतिरिव गच्छति भाग्यपतिः ॥
यह श्लोक आया है। कालिदास के इस श्लोक में उसी की छाया है।
शापान्तो मे भुजगशयनादुत्थिते शापाणी शेषान्मासान् गमय चतुरो लोचने मोलयित्वा ।
पश्चादावां विरहगणितं तं तमात्माभिलाषं
निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु ॥४७॥
अन्वयः -- ( हे प्रिये !) शापाणी, भुजगशयनात् उत्थिते मे शापान्तः । वान् चतुरः मासान् सोचने, मीलवित्वा, गमय पश्चात्, बावाम्, विरह-

- - = = = व्याख्या हे प्रिये! शापाणी विष्णो भुजगशयनात् शेषशय्यातः उत्थिते प्रबुद्धे (सति ) मे मम ( पक्षस्य ) शापान्तः शापावसानः । शेषान् अवशिष्टान् चतुरः चतुः संख्याकान् मासान् निशदिवसीयकालविशेषान् लोचनेने मीलत्वानिमीत्य गमय व्यतीतय पश्चात् शापाव- सानानन्तरम् आवाम् महास्वन्ध विरहगणितम् = वियोग विगणितम तम् अनेकप्रकारकम् आत्माऽभिलाषम् निजमनोरथम्, परिणतशरचन्द्रिका परिपक्वशर दिला. क्षपासुरात्रिषु निवेक्ष्यावः मोठयावहे ॥४७॥
O m शब्दार्थ:- (हे प्रिये!) शाङ्ग पाणी विष्णुभगवान् के, भुजगशयनात् शेषशय्या से, उत्थिते उठ जाने पर, मेमेरे, शापान्त:शाप का अन्त (होगा) पान् (तब तक तुम बचे चतुरः चार, मासान् महीनों को, लोचने-मीलवा मूंदेकर, गमय बिताओ। पञ्चात् चार महीने बाद, आवाम् हम दोनों विरहगणित-वियोग-संकल्पित तं तम् उन-उन ( अनेक प्रकार के), आत्माऽभिलाषम् अपने मनोरथों का परिणतारचन्द्रि कासुरदऋतु की परिणत चन्द्रिका वाली, क्षपासु रातों में, निर्वेदयावः = उपभोग करेंगे ॥ ४७ ॥ -
गणितम् तं तम् आत्माऽभिलाषम् परिणतशरच्चन्द्रिकासु वक्षपासु नि- पावः ॥ ४७ ॥
भावार्थ: है प्रिये ! शेषशय्यातः यदा विष्णावुत्थिते सति मे शापविमुक्ति- भविष्यति । अतः शेषं मासचतुष्टयं नेत्रे निमीत्य वापय । तदनन्तरभावां वियोग पितमनेकप्रकारकं मनोऽभिलाषं शरदिन्दुकलाघवलितासु रात्रिषु भयावहे ॥ ४७ ॥
हिन्दी - हे प्रिये ! शेषशय्या से भगवान् विष्णु के उठ जाने पर मेरे शाप की निवृत्ति होगी। अतः बचे हुए चार महीनों को आँखें मीचकर बिता डालो। पीछे हम दोनों वियोग में विचारे गये उन अनेक प्रकार के अपने मनोरथों का परतुकाल की परिपक्व चन्द्रिका वाली रातों में उपभोक करेंगे ॥ ४७ ॥

समासः शापाणी पश्य शापाणि: (प० बहु० ) मित् स ००) भुजग एवं शयनम् भुजगशयनम् (रूपक० ) तस्मात् पापस्य अन्तः शापान्त ( प० त०) विरहे गणितम् विरहगणितम् (स० स० )" आत्मन: अभिलाषः आत्माऽभिलाषः (प० तत्०) तम् परिणताः शरच्चन्द्रिका यासां ताः परिणतशरच्चन्द्रिका ( बहु० ) तासु -
कोशः- निर्देशो भृतिभोगयोः इत्यमरः । त्रियामा क्षeet at इत्यमरः ।
टिप्पणी-भगवान् विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी जिसे हरिशयनी एका दशी कहते हैं, शेषशय्या पर सोते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी जिसे देवो- स्थान एकादशी कहते हैं, को जगते हैं, इस प्रकार चार महीने होते हैं। प्रारम्भ में महाकवि ने 'आवास्य प्रथमदिवसे ऐसा कहा है, तदनुसार चार महीने से १० दिन अधिक होते हैं फिर चतुरो मासात् गमय ऐसा प्रयोग कैसे किया गया ? यह पाका हो सकती है, परन्तु 'क्षत्रिणो यान्ति के समान यहाँ भी 'वजहल्लक्षणा' से चार महीनों के साथ दिन का भी ग्रहण 'चतुरो मासाद' इस पद से हो जायेगा। कूर्मपुराण में एक श्लोक माता है-
'क्षीराब्धी पर्यके भाषायां संविद्धरिः । निद्रां त्यजति कानियां तयोः संपूजयेद्धरिम् ॥ इति
परिणतशरच्चन्द्रिकासु-दक्षिणावर्तनाथ जी ने आषाढ़ आदि चार मासों के अनन्तर कार्तिक मास में महाकवि ने कैसे "शरद ऋतु' का प्रादुर्भाव व लाया है ? ऐसी शंका की है, परन्तु महामहोपाध्याय मल्लिनाथजी ने इसका उत्तर देते हुए लिखा है कि महाकवि ने कार्तिक महीने के अन्त तक शरदऋतु रहती है और एकादशी तिथि तक उसका परिणत हो जाना स्वाभाविक ही है, अतः परिणतशरचन्द्रिका' कहा है न कि 'शरद ऋतु' की उत्पत्ति बतलाया है। मीलयित्वा विजन्त 'मीडि' धातु से 'सत्या' प्रत्यय करके 'atefacer' ऐसा रूप बनता है। आवास्— 'त्वचा' इस विग्रह में 'दादोनि सर्वेनित्यम्' इस सूत्र से एकक्षेय और 'त्यदादीनां मिथः

-
सहोक्तो यत्परं तच्छिष्यते इस बातक के नियमानुसार पर रहने के कारण अस्मद् [शब्दोष रह गया। तं तम्यहाँ बीप्सा में द्विरुक्ति है।
अलङ्कारः यहाँ 'उदात्त' अलंकार है ।। ४७ ।।
भूयश्चाह त्वमपि शयने कण्टलग्ना पुरा मे निद्रां गत्वा किमपि रुदति सस्वनं विप्रबुद्धा।
सान्तर्हासं कथितमसकृत्पृच्छतश्च त्वया मे वृष्टः स्वप्ने कितव ! रमयन् कामपि त्वं मयेति ॥४८॥
अन्वयः -- भूयय, आह. ( हे प्रिये!) पुरा वायने मेण्डा अि त्वम् निद्राम्, गवा, किमपि सस्वनम्, रुदति विप्रयुद्धादपृच्छतः, मे, 'हे कितव ! त्वम् कामपि रमयन, गया, स्वप्ने दृष्टः इति त्वया, 1 साहसिम् कथितम् च ॥ ४८ ॥
व्याख्यामेषः कथयति पक्षसंवादम् भूयः पुनरपि (स्वप्रियः) आह प्रवीति पुरा वियोगात्पूर्वम्पायने तल्पे मे मम कण्डलमा अपि गाना 'अपि स्वम् मत्प्रिया निद्राम्स्थापन, गत्वा किमपि केनापि प्रकारेण सस्वनम् शब्दसहितम्, रुदती रोदनं कुर्वती, विप्रबुद्धा जागरिता (बासी) ततच असकृत् पुनः पुनः पृच्छतः जिज्ञास कुर्वतः मे मम प्रियस्येतिभावः, हे कितव ! हे धूर्त ! त्वम् मत्प्रियः कामपि अपरिचितनामधेयां स्त्रियम् रमयन् क्रीडयन् मया प्रियया; स्वप्ने संवे दृष्टः विलोकितः इति एवम् त्वयात्रियया साहसिम् ==अन्तसहितम् कथितच उक्तच ॥ ४८ ॥ = = = = =
शब्दार्थ:-भूषा ( तुम्हारे पति ने पुनः आह कहा. (हे प्रिये !) पुरा पहले, शयने शय्या पर मेमेरे, कण्डलग्ना अधि गले में लिपटी भी, त्वम् तुम, निद्राम्नींद को प्राप्त कर, किमपि न जाने क्यों ? सस्वनम् = शब्दों सहित अर्थात् ऊँचे स्वर से, रुदती रोती हुई, विप्रबुद्धा जाग पड़ी थी। (पीछे) असकृत् बहुत पृच्छतः पूछने पर है कितव ! = =

= - = है धूर्त ! स्वम् तुम कामपि किसी अज्ञात नामवाली स्त्री के साथ, रमयन् रमण करते हुए मया मेरे द्वारा स्वप्ने स्वप्न में दृष्टः देने गये हो" इति इस प्रकार स्वया तुम्हारे द्वारा, सान्तसम्मन्द मन्द हंसी के साथ, कविता कहा भी गया ॥ ४८ ॥
भावार्थ:- हे अबले | मन्मुखेन त्वत्प्रियः पुनरप्याह हे प्रिये! पूर्व एवं पर्य मत्कण्ठमालाय वायनाऽपि साध्यं रुदती सहसा जागरिताऽऽसी । पश्चान्मया बहुदा जिज्ञासिते हे धूर्त वं स्वप्ने पापि कामिन्या क्रीडन्मया दृष्टः" इति त्वयाऽन्तम हितमुक्तच ॥ ४८ ॥
हिन्दी हे अब मेरे द्वारा तुम्हारे पति ने पुनः कहा- हे प्रिये ! पहले तुम पलंग पर मेरे कण्ठ से लिपट कर सोयी हुई भी सहसा ऊँचे स्वर से रोती हुई जाग पड़ी थी पीछे मेरे द्वारा बहुत प्रश्न करने पर "हे धूर्त | सपने में मैंने किसी रमणी के साथ तुम्हें रमण करते हुए देखा है" ऐसा मन्द मन्द मुस्कान के साथ तुमने कहा भी था ।। ४८ ।।
समासः कण्ठे लग्नाला (स० तत्०) स्वनैः सहितं यथा स्थात्तथा सस्वनम् ( तुल्ययोग बहु० ) न सकृत् असकृत् ( नव्] त० ) + अन्तः स्थितो हासः अन्तहाँस (मध्यम-पद-लोपो ) अन्तसिन सहित अन्तसिनसहि यथा-स्वात्तथा सान्तसिम् ( तुल्ययोग बहु० ) । =
कोशः स्यात् प्रबन्धे चिरातीते निकटागामिके पुरा इत्यमरः ।
टिप्पणी- किमपि यहाँ 'किम' और 'अपि दो अव्यय पद संयुक्त होकर प्रयुक्त हुए हैं। यहाँ शारदारब्जन राज जी ने 'रुद्र' धातु को सकर्मक माना है और तदनुसार इसको उक्त पद का कर्म माना है। परन्तु यह मत असमीचीन है, क्योंकि सकर्मक धातु का लक्षण है 'फलव्यधिकरण व्यापार- areer कर्मकरवम्' अर्थात् जिस धातु का फलांश अन्य अधिकरण में एवं व्यापारो अन्य afteरण में रहे वह सकर्मक धातु होता है। परन्तु यहाँ तो 'अपात' आदि रुद् धातु का फल एवं नेत्र का मिट-मिलाना आदि व्यापार दोनों 'क्षत्रिया' रूप एक ही अधिकरण में है, अतः यह धातु अकर्मक

है अकर्मक का लक्षण है समाधिकरण व्यापार वाचकत्वमकर्मकत्वम् इति । अतएव मल्लिनाथजी ने 'अनुरोदिति' इस स्थान पर 'अनु' उपसर्ग के योग को हेतु देकर अमं 'द' धातु को सकर्मक माना है। अन्यथा हेतु देना व्यर्थ ही होता रुदतीय' धातु से लाये गए ललकार के स्थान पर तु आदेश करके 'ङ' करके तो ऐसा रूप निष्पन्न होता है। रमयन्य शब्द जिन्न रमि' धातु से लट् लकार लाकर उसके स्थान में 'शत्रु' आदेश करके उपर होता है। इस सन्देश के द्वारा पक्ष अपनी प्रिया के इस सन्देह का निराकरण करता है कि 'क्या यह मंच सचमुच मेरे पति का मित्र है? क्या यह जो कह रहा है, वह सत्य है ? इत्यादि । यदि यह मेघ सचमुच यक्ष का मित्र न होता तो तुम्हारे और यक्ष के बीच हुई घटना का रहस्य यह कैसे जान पाता। इस प्रकार ॥ ४८ ॥
एतस्मान्मां कुशलिनमभिज्ञानदानाद्विदित्वा मा कौलीनादसितनयने मय्यविश्वासिनी भूः ।
स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वाभोगा- दिष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशीभवन्ति ॥ ४९ ॥
= व्याख्या है तनयने है कृष्णाक्षि ! एनस्मात्पूर्वकविता अभि ज्ञानदानात् घटना विशेष लक्षण वितरणात् माम्यम् कुलिनम्= क्षेमवन्तम् विज्ञात्वा कोटी लोकापवादरूपती मंत्रियतमे (विपये) अविश्वासिनी प्रत्यपरहिता मा भूः मास्याः स्नेाणान् विरहे वियोगे किमपि केनापि प्रकारेण ध्वंसिनः विनाशशीलान्, बाहू निगदन्ति वस्तुतः नेयं वार्ता, तु-अपितु, ते प्रणयाः, अभोगात् उपभोगाभा- = = = = =
अन्वयः अनि एतस्मात् अभिज्ञानदानातू, मामू, कुशलि नम् विदित्वा कौलनात् मवि अविधवासिनी मा भूः स्नेहान् विरहे किमपि सिन ते अभोगात् इष्टे वस्तुनि उपचितरसा प्रेमराशी भवन्ति ।। ४९ ।।

- = = = = - - = शब्दार्थ :- हे अतिनयने हे कृष्णनवने । एतस्माद इस ( पूर्व कहे गये) कारण से, अभिज्ञानदानात् घटनाविशेष रूप 'निशानी' देने से मामू मुझको, कुशलिनम् कुशलपूर्ण विदित्वा जानकर, कोलीना लोकापवाद के कारण मेरे विषय में अविश्वासिनी विश्वासरहित, मा भूः मत होमो स्नेहान् स्नेह को, विरहे वियोग में किसी-किसी कारण से. सिनः विनष्ट होने वाले आहु: ( कुछ लोग ) कहते हैं, किन्तु ते वे स्नेह, अभोगान भोगे आने के कारण, इष्टे अभिलषित वस्तुनि पदार्थ के विषय में उपचितरसा बड़े हुए रस (अभिलाष ) वाले (होकर) प्रेमराशी भवन्ति प्रेमपुञ्ज हो जाते हैं ।। ४९ ।।
बाद, इष्टे ईप्सिते, वस्तुनि पदार्थ, उपचितरसा:-समृद्धाऽभिलाषा (सन्तः) प्रेमरावतीभवन्ति प्रणय राशीभवन्ति, विरहसहिष्णुतां प्राप्नुवन्ति ।। ४९ ।।
भावार्थ:- हे प्रिये । पूर्वकथित घटना विशेषरूपाभिज्ञानदानात् मां पवादान्मयि विश्वास रहिता मा भूः। ( केचित् ) स्नेहान् वियोगे विनश्वराः कथयन्ति परन्तु वस्तुस्थितिस्तु तादृशः अपितु ते स्नेहाः वियोगे उपभोगाइमावाद भिलषित पदार्थ प्रवृद्धाऽभिलायाः सन्तः प्रेम- जीभवन्ति ।। ४९ ।।
हिन्दी - हे कृष्णाक्षि ! पहले कहे गये अभिज्ञान के देने से मुझे सकुशल जानकर लोकापवाद के कारण मेरे विषय में अविश्वास मत करो! कुछ लोग ) स्नेह को वियोग में विनाशशील कहते हैं परन्तु स्नेह तो वियोग काल में न भोगे जाने के कारण अभिवित पदार्थ के विषय में अभिलाषा के अधिक हो जाने के कारण प्रेम हो जाते हैं ।। ४९ ।।
समासः न सिते असते (म) असिते नयने यस्याः सा असित- नयना (बहु० ) तत्सम्बुद्धौ न भोगः अभोगः (नव्० ) तस्मात् उपचितो रसो येषु ते उपचितरसा (बहु० ) ।
कोशः मुत्रीतिः प्रमदो हर्षः इत्यमरः स्यात्कलीन लोकवावे पुढे परवहि-पक्षिणाम् इत्यमरः रसो गन्धे रसः स्वादे विस्तादौ विषरामयोः, इति विश्वः । -

टिप्पणी- अभिज्ञानदानात् यहाँ 'हेवी' इस सूत्र से पश्चमी हुई है। 'अभिज्ञान' का अर्थ है चिह्न, जिसे बोलचाल की भाषा में 'निशानी' कहते हैं। महाकवि ने इस अभिज्ञान का प्रयोग अपने अन्य कृतियों में भी किया है। जैसे 'शकुन्तला नाटक' का पूर्ण नाम ही 'अभिज्ञानशाकुन्तलम् है, उसमें राजा दुष्यन्त 'शकुन्तला' को अपना अभिज्ञान स्वनामाङ्कित 'अंगूठी' देते हैं, जो उस नाटक के नामकरण का मुख्य आधार है। इसी तरह 'विक्रमोर्वशीय' में भी 'संगम-मणि' अभिज्ञान रूप हो है। इसी तरह 'मालविकाग्निमित्र' में भी सचिह्न से चिह्नित मुद्रिका अभिज्ञान रूप में आती है। इसी तरह यहाँ भी यक्ष 'निद्रां गत्वा' आदि अभिज्ञान ने की सच्चाई एवं अपनी कुशलता की जानकारी के लिए देता है। कुशलिनम् कुशलमस्यास्तीति कुशली, यहाँ 'कुशल' शब्द से 'अत इनिठनो' इस सूत्र से 'इन्' प्रत्यय हुआ है। कोलीनात् कुले ( जनसमूहे) भवः कुलीनः 'कुल' शब्द से 'कुलात्तः' इससे 'ख' प्रत्यय होता है, और 'बायनेयीनीयियः' इत्यादि सूत्र से 'ख' के स्थान पर 'ईन' आदेश करके 'कुलीन' शब्द बनता है पश्चात् 'कुलीनस्य भावः' या 'कुलीनस्य कर्म' किसी भी विग्रह में 'हायनान्त- युवादिभ्योऽणु इस सूत्र से 'अणु' प्रत्यय करके आदिवृद्धि करके फोलीन ऐसा रूप बनता है। तस्मात् कोलीनात् यहाँ महामहोपाध्याय मल्लिनाथ जी ने 'कुले जनसमूहे भवात् कोलीना लोकप्रवादात्' लिखा है, जो कि उनकी न्यूनता कही जायेगी, क्योंकि उन्होंने प्रकृति प्रत्ययादि का निर्देश नहीं किया है। 'अस्तु', 'कोलीन' का अर्थ लोकापवाद होता है, जो दो प्रकार का होता है- (१) सामान्य और (२) विशेष मल्लिनाथजी ने सम्भवत: 'कुशलिनं मां विदित्वा इस पूर्व पति को आधार मानकर यहाँ सामान्य लोकापवाद का ही ग्रहण किया है कि 'यदि तुम्हारे पति (पक्ष) जीवित होते तो तुम्हारे पास अवश्य आ गये होते' इसलिए यक्ष कहता है है प्रिये मुझे कुशल समझकर मेरे विषय में विश्वास मत छोड़ दो, मैं जीवित हूँ। सम्भवत: इसीलिए यक्ष अपने हर एक सन्देश पद्य में अपनी प्रिया के लिए अविध, सुभगे, आदि का प्रयोग करके यह प्रदर्शित

1 करना चाहता है कि मैं जीवित हूँ, और एक पतिव्रता स्त्री के लिए अपने पति पर परस्त्रीगमन का संदेह होना असंभव है, यह युक्ति भी महामहोपाध्याय जी मे दी है। कुछ लोग यहाँ लोकापवाद से विशेष लोकापवाद का ग्रहण करते हैं। उनका कहना है कि 'तुम्हारे पति किसी दूसरी स्त्री में आसक्त हो गये, नहीं atre] तक तुम्हारे पास आ गये होते' यही लोकापवाद है, इस प्रकार यश समझा रहा है कि हे प्रिये! मुझ पर अविश्वास मत करो मैं किसी दूसरी स्त्री में वक्त नहीं हूँ। यहाँ दोनों अर्थ युक्तियुक्त है, क्योंकि स्त्रियों के मन में अपने पति के लिए वियोगावस्था में इस प्रकार के दोनों भाव सदा उत्पन्न होते ही रहते हैं। अविश्वासिनी 'बि' उपसर्गपूर्वक 'श्वस्' धातु से चन् प्रत्यय करके 'विश्वास' शब्द निष्पन्न होता है और न विश्वास: अविश्वासः । तथा अविश्वास अस्त्यस्याः, इस विग्रह में 'अत इनिनो' इस सूत्र से इनिप्रत्यय करके स्त्रीत्व की विवक्षा में डीप करके 'अविश्वासिनी' रूप बनता है। ध्वंसिनः ध्वंसन्तीति तच्छीलाः इस विग्रह में 'गिनि' प्रत्यय करके 'सिन्' शब्द बनता है, यह प्रथमा के बहुवचन का रूप है। अभोगात्न' दो प्रकार के होते हैं- ( १ ) पर्युदास (२) प्रसव्य- प्रतिषेध इन दोनों का स्वरूप थोड़ा समझ लें -
(१) पर्युदास-जहाँ प्रतिषेध पर बल नहीं रहता, अपितु विधि की प्रधा नता रहती है, इसलिए न का सम्बन्ध क्रिया के साथ न होकर प्रातिपदिक के साथ रहता है वहाँ पर्युदास' होता है जैसे विद्वान् असुखी इत्यादि ।
(२) प्रसज्यप्रतिषेध - पर्युदास के ठीक विपरीत जहाँ प्रतिषेध पर बल,
विधि की प्रधानता न होकर निषेध की प्रधानता तथा क्रिया के साथ न का सम्बन्ध होता है वहाँ प्रतिषेध होता है, जैसे न करोति यहाँ क्रिया के साथ सम्बन्ध न होने के कारण पद समस्त ही रहते हैं।
जब प्रकृत पर ध्यान दीजिए, उपर्युक्त विवेचनानुसार यहाँ 'प्रसज्यप्रति- पेध' है और तद उचित था कि न का सम्बन्ध क्रिया के साथ होता परन्तु नहीं किया गया है, अतः यहाँ 'अविमृष्टविधेयांश' नामक काव्य-दोष की आपत्ति हो सकती है, परन्तु 'वामनाचार्य' ने अपने काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति के


पाणिनि के 'आवेच उपदेशेऽशिति' इस सूत्र के 'अशिति' इस सूत्र का निर्देश देकर प्रसज्यप्रतिषेधेऽपि समासोऽस्ति' ऐसा लिखा है, अतः यहाँ उक्त दोष का निवारण हो सकता है।
प्रेमराशी भवन्ति वियोगावस्था में व्यक्ति अभिलषित वस्तु का उप- भोग तो कर पाता नहीं अपितु उसके विषय में सतत कुछ-न-कुछ सुन्दर कल्पना करता रहता है परिणाम यह होता है कि उस वस्तु के लिए उसके हृदय में अभिलाषा बढ़ती रहती है और एक ऐसा समय आ जाता है कि वह व्यक्ति उस अभिलषित वस्तु के बिना रह ही नहीं सकता, उसे ही प्रेम कहते हैं स्नेह और प्रेम में यही सूक्ष्म अन्तर है कि 'अभीष्ट वस्तु के लिए व्यापार करना स्नेह है और उसके बिना नहीं रह पाना, उसके वियोग को न सह सकना ही प्रेम है अतः यक्ष कहता है 'स्नेह मरता नहीं अपितु वियोग में वह प्रेमपुञ्ज बन जाता है' संयोग को सात अवस्थाएं होती हैं जिसमें स्नेह और प्रेम का अलग-अलग कथन है-
प्रेक्षा दिक्षा रम्येषु तच्चिन्तालमिलापकः
रागस्तरसङ्गबुद्धि : स्यात्स्नेहस्तत्प्रवणक्रिया || द्वियोगास प्रेम
रतिस्तत्सहवर्तनम् । शृङ्गारस्तत्समं क्रीडा संयोगः सप्तधा क्रमात् ॥ अलङ्कार:- यहाँ अर्थान्तरन्यास नामक अलङ्कार है ।। ४९ ।।
आश्वास्यैवं प्रथमविरोदयशोकां सखीं ते
लादाशु त्रिनयनवृषोत्खातकूटान्निवृत्तः ।
साभिज्ञानप्रहित कुशलैस्तद्वाचोभिर्ममापि
प्रातः कुन्दप्रसगशिथिलं जीवितं धारयेथाः ॥५०॥
अन्वयः प्रथमविरोदयशोकाम ते सखीम एवम् आश्वास्य, त्रिनयन-
वृषाता आशु निवृत्तः साऽभिशानप्रति कुशलैः, तद्वचोभिः,
प्रातः कुन्दप्रसवशिथिलम् मम अपि जीवितम् धारयेयाः ॥ ५० ॥ व्याख्या प्रथमविरोदयशोकाम् आद्यवियोगतीव दुःखाम्, ते तब खसीम् भ्रातृजायाम्, मस्त्रियामिति भावः एवम् अनेन प्रकारेण आश्वास्य= =

= = - = त्रिनयन वृषोत्सातकूटात्र वृषभ ( नन्दि ) विदीर्णसानोः, शैलात् पर्वतात् कैलासादिति भावः, आशु शीघ्रम् निवृत्तः प्रत्यागतः, साभिमानप्रति कुशलैः सचिह्न प्रेषितः, तद्वचोभिः मप्रियावचनैः, प्रातः कुन्दप्रसवशिथिलम् - प्रात्यधिक माध्यपुष्प दुर्बलम् मम अपि पक्षस्यापि जीवितम् जीवनम् धारयेथाः धारणं कुर्याः ॥ ५० ॥
= शब्दार्थः प्रथमविरहोदप्रशोकम् अभूतपूर्वनियोग के कारण तीवदुःख-
= = = = वाली से तुम अपनी सखीम् = भाभी को (मेरी प्रिया को), एवम् पूर्वोक प्रकार से आश्वास्य आश्वासन देकर, विनयननृपोत्तकूटा शिवजी के बैंक (पी) के द्वारा विदीर्ण किये गये शिरों वाले पंत (कैस) से, माशु शीघ्र ही, निवृत्तःकोटा हुआ, साऽभिज्ञानप्रति कुशल लक्षण युक्त कुशल वार्ता वाले, तपोभिः = उसके संदेशों से प्रातः कुन्दप्रसवशिथिलम् प्रातःकालिक खिले हुए कुन्द (चमेली) के फूल के समान दुवै ममापि मेरे भी, जीवितम् जीवन की धारयेथाः रक्षा करना ।। ५० ।।
भावार्थ: है मेघ ! अभूतपूर्व वियोगेनातीव दुःखां मत्प्रियतमामेवमाश्वास्य कैलास पर्वतात् त्वरितं प्रत्यागतः लक्षणप्रेषितसन्देशः मप्रियावचोभिस्त्वं प्राभातिक-कुन्द पुष्प दुर्बलं मम जीवनमपि रत ॥ ५० ॥
हिन्दी है मेथ इस प्राथमिक वियोग के कारण तीव्र दुःखवाली अपनी भाभी (मेरी प्रिया) को इस प्रकार आश्वासन देकर कैलास पर्वत से शीघ्र लौटा हुआ तुम लक्षणयुक्त सन्देशों वाले मेरी प्रिया के वचनों से प्रातः काल मैं खिले चमेली के फूल के समान दुर्लभ मेरे जीवन की भी रक्षा करना ।। ५०॥ -
समासः प्रयमास विरह प्रथमविरहः (कर्म०) उद्गतमयं यस्य स उदग्र ( बहु० ); उदयः शोको वस्याः सा उदग्रशोका ( बहु० ) प्रथमविरहेण उदग्रशोका प्रथम विरोदयशोका ( ० तत्०) ताम् त्रीणि नयनानि यस्य सः त्रिनयनः (बहु० ) तस्य वृषः त्रिनयनवृषः (प० तद्०) उत्खाताः कूटा यस्य स उत्खातकूट (बहु० ) जिनयन-वृषेण उत्खातकूटः त्रिनयनपोत्यातकूट (तृ० त०) तस्मात् । अभिज्ञानेन सहितम् साऽभिधानम् (तुल्य० बहु० ) । प्रहितं कुशलं येषु तानि प्रहित-कुचलानि ( बहु० ) साभिज्ञानं यथा स्यात्तथा

= प्रति कुलानि साभिज्ञान प्रति कुलानि (सुप्सुपा० ) ते तस्याः वचांसि चांसि (००) तैः प्रातर्भवः कुन्दप्रसवः प्रातन्यप्रसवः ( मध्यम- पदलोपी समास ) प्रातः कुन्दप्रसव व शिथिलम् प्रातः कुन्दप्रलिम् ( उपमान कर्म धा० ) 1
कोश:- कूटोऽस्त्री शिखरं शृङ्गम् इत्यमरः अविलम्बितमाशु प इत्यमरः । कुशलं क्षेममस्त्रियाम् इत्यमरः उच्च प्रांशुन्नतोदयः इत्यमरः ।
टिप्पणी- आश्वास्य'' उपपूर्वक 'श्वस्' धातु से ि करके पुनः क्त्वा प्रत्यय लाकर उसके स्थान में 'स्व' आदेश करके 'आश्वास्य' रूप बनता है। त्रिनयन- यहाँ 'क्षुम्नादिषु च' इस सूत्र से णत्व का निषेध किया गया है। साऽभिज्ञानप्रहित-कुशलैः- :-पक्ष प्रिया के सन्देश में भी स्वयं की ही तरह 'अभिज्ञान' चाहता है। यह मेरी प्रिया का ही संदेश है या स्वयं बनाकर कुछ कह रहा है, इसकी निवृत्ति के लिए यहाँ साभिज्ञान पद दिया गया। प्रातः कुन्दप्रसव-शिथिल- [- प्रात:काल में चमेली का फूल बहुत शिथिल होता है, अतः पक्ष ने प्राण की उपमा उससे दी है कि त्रिपा विरह के कारण मेरा प्राण भी वैसा ही दुर्लभ है। धारयेथाः 'धारणार्थक' '' धातु से 'हेतुमति च' इस सूत्र से 'शिव' प्रत्यय करके लिङ् लकार लाकर उसके स्थान मध्यमपुरुष एकवचन में 'वास' आदेश करके 'धारयेया: ' ऐसा रूप निष्पन्न होता है। यहाँ 'वि' इस सूत्र से आत्मनेपद का विधान किया जाता है।
यहाँ प्रार्थना अर्थ में लिए हकार आया है ।। ५० ।।
कच्चित् सौम्य ! व्यवसितमिदं बन्धुकृत्यं त्वया मे
प्रत्यादेशान्न खलु भवतो घोरतां कल्पयामि । निःशब्दोऽपि प्रविशसि जलं याचितश्चातकेभ्यः
प्रत्युक्तं हि प्रणधिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव ॥५१॥
अन्वयः - हे सौम्य ! इयम्, मे, बन्धुकृत्यम् त्वया, व्यवसितम् कचित् प्रत्यादेशात् भवतः धीरताम् न कल्पयामि स याचितः (सन् ) निः

= - - व्याख्या हे सौम्य ! हे सज्जन इदम् एतत् मम वन्धुकृत्य == सखाकार्यम् त्वया मेघेन व्यवसितं कच्चित् करिष्यामीति निश्चित किम् ? प्रत्यादेशात् प्रत्यास्थानात् स भवतः नेवस्य धीरताम् ग्रामीन कल्पयामि नानुमोदयामि । याचितः प्राप्तिः सन् निःशब्दः अपि स्तनितरहितोऽपि चातकेयःसारयः जलम् = तोयम् प्रदिशसि प्रण्छसि । हियस्मात् सताम् सज्जनानाम् प्रणविप्रादिषु विषये) ईप्सितार्थक्रिया एव अभिलषित कार्यकरणमेव प्रत्युक्तम् = प्रतिवचनम्, अभीष्ट कार्यसम्पादनमेव प्रापितरं भवतीति भावः ।। ५१ ।।
= = = = शब्दार्थ :- हे सौम्य ! हे भद्र] [] इदम् इस सन्देश पहुँचाना रूप मे = मेरे बन्धुहत्यम् = मित्रता के कार्य को त्वया तुमने स्वतं क्या यह सोच लिया है, प्रत्यादेशात् ठुकरा देने के कारण ही भवतः = तुम्हारी, धीरताम् गम्भीरता को न कल्पयामि मैं कल्पना नहीं करता। यावितः प्रार्थना करने पर निःशब्दोऽपि गर्जन किये बिना भी चातकेभ्यः बालकों के लिए, जलम् पानी प्रविशति देते हो हि क्योंकि सताम् सज्जनों का, प्रणविषु याचकों के प्रति ईप्सितार्थ क्रियैव अभीष्ट कार्य का सम्पादन ही प्रत्युक्तम् उतर ( होता है) ।। ५१ ।। = P
शब्दः अपि चातकेभ्यः, जलम् प्रविवसिहि, सताम् प्रणविषु ईप्सितार्थ- क्रिया, एवं प्रत्युक्तम् ।। ५१ ।।
भावार्थ: है भद्र! त्वया सत्कार्यं करिष्यते इति हृदये निश्चितं किम् ? यस्त्वं याचितः सन् स्वीकृतिरूपं स्तनितमकृत्वाऽपि चातकेभ्यः तोयं प्रददासि सत्वं प्रसन्देशवाहनरूपं कार्यमस्वीकरिष्यसीति त्वद्गाम्भीर्येन नाऽहल्प यामि यतः जनानां प्रार्थि अभिलषित कृत्य सम्पादनमेव प्रतिवचनं भवति ।। ५१ ।।
हिन्दी - हे सज्जन ! क्या तुमने मेरे इस बन्धु-कार्य को करने के लिए निश्चय किया है? जो तुम माँगने पर स्वीकृतिसूचक गर्जन किये बिना भी चातकों को जल देते हो, वह तुम मेरी प्रार्थना को ठुकरा दोगे, ऐसी कल्पना तुम्हारी गम्भीरता के कारण मैं नहीं कह रहा हूँ क्योंकि सज्जनों का सापक के प्रति अति प्रयोजन का सम्पादन ही प्रत्युत्तर हुआ करता है ।। ५१ ।।

= समासः बन्धोः कृत्यम् बन्धुकृत्यम् ( च० त० ) निर्गतः शब्दः यस्मात् सः निःशब्दः (बहु० ) ईप्सितासी अर्थः ईप्सितार्थः (कर्म घा० ) तस्य क्रिया ईप्सितार्थक्रिया ( प० त० ) ।
कोशः कच्चित् काम प्रवेदने इत्यमरः उत्तिराभाषणं वाक्यमादेशो वचनं इति शब्दार्णवः प्रत्याख्यानं निरसनं प्रत्यादेशो निराकृतिः इत्यमरः ।
टिप्पणी मे अस्मद् [शब्द की षष्ठी विभक्ति के एकवचन 'मम' के स्थान में 'मयावकवचनस्य' इस सूत्र से 'मे' आदेश होता है। इस 'में' पद का 'बन्धुकृत्यम्' घटक बन्यो के साथ अपेक्षा होने पर 'गमकत्वात् समास हुआ है। गमकत्व वहाँ होता है जहाँ को समास -वृत्ति एवं विग्रह ( वृत्ति के अर्थ का अवबोधन करनेवाला वाक्य) में एक समान ही उपस्थिति होती है क्योंकि लक्षण है 'वृत्तिविग्रयोः समानप्रकारोपस्थितिजनकत्वं गमकत्वम्' इति कच्चित् यह अव्यय पद है। इसका प्रयोग अभिप्राय प्रगट करने के अर्थ में होता है। प्रत्यादेशात्- 'प्रति पूर्वक एवं 'आ' पूर्वक 'दिश' धातु से '' प्रत्यय करके प्रत्यादेश' शब्द निष्पन्न होता है। यहाँ हेतु में पचमी है।
प्रत्यादेश शब्द का अर्थ महामहोपाध्याय मल्लिनाथजी ने प्रतिवचन अर्थात् प्रत्युतर माना है, उनका प्रमाण है शब्द कोश की उक्तिराभाषणं वाक्यमादेशो वचनं वचः' यह उक्ति है। तदनुसार अर्थ यह हो सकता है कि 'उत्तर देकर तुमने मेरी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया है इसलिए मैं तुम्हारी गम्भीरता का समर्थन नहीं कर पाता, जो तुम माँगने पर बिना शब्द किए ही चातकों को जल देते हो क्योंकि सज्जनों का याचकों के प्रति अभीष्ट प्रयोजन सम्पादन ही प्रत्युत्तर होता है । इति । परन्तु महाभाष्य आदि ग्रन्थों में प्रत्या- देश का प्रत्याख्यान, निरादर नादि अर्थ में ही प्रयोग मिलता है। अतः एतदनुसार ही व्याख्या की गई है।
कल्पयामि – जिन्त 'कल्पि' धातु के लट् लकार के उत्तमपुरुष के एक- वचन का रूप है। 'प्रत्युक्तं हि प्रणविषु सतामीप्सितार्थक्रियैव इसके उदाहरण स्वरूप मल्लिनाथजी ने निम्नलिखित श्लोक दिया है- -

गर्जति शरदि नवति वर्षाति वर्षासु निःस्वनो मेघः । नीची वदति न कुरुते न वदति सुजनः करोत्येव ॥
में इसी भाव का कथन है-
ते हि फलेन साधवो न तु कण्ठेन निजोपयोगिताम् । ( ० २।४८ । )
अलङ्कार:- यहाँ तृतीय चरणो वाक्यार्थ का समर्थन चतुर्थ चरण कवित वाक्य के द्वारा होता है। अतः 'अर्थातरन्यास' नामक अलङ्कार है।
एतत्कृत्वा प्रियमनुचितप्रार्थनादतिनो मे सौहार्दाद्वा विधुर इति वा मय्यनुक्रोशबुद्ध्या ।
शान् विचर जलद ! प्रावृषा सम्भूतधी- मभूदेव क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोगः ॥५२॥
अन्वयः - हे जलद ! सौहार्दाद, वा, विधुर इति वा मयि, अनुक्रोश- या वा अनुचितार्थावतिनो मे एतत् प्रियम् कृत्वा वृषा, संत इष्टान् देशान् विचर क्षणमपि ते विद्युता, विप्रयोगः एवम् मा, भूद ।। ५२ ।।
व्याख्या इदानों यक्षः स्वकार्य मे प्रार्थमानः तं विसृजति एतदिति । हे जलद । हे पयोधर सौहार्दात् मित्रभावाद वा अथवा विधुर इति प्रियावियुक्त इति कारणात् अथवा मयियक्षे, (विषये) अनुक्रो- शबुद्ध्यादयामत्या वा अथवा अनुचितप्रायेनावदिदः अननुरूपयाचकस्य, [में] यशस्य एतद्] [] सन्देशहरणरूपम्, प्रियम् अभिप्सितं कार्यम् कृत्वा सम्पादवित्वाः प्रावृषा वर्षाभिः संमृतधीः परिवर्धित-शोभः सन् इष्टानु नितान् देशान् प्रान्तान् विवरगच्छ, अन्ते व मेघमाशिषमुक्त्या स्वयं यक्ष उपसंहरति माभूदिति क्षणमपि निमेषमात्रमपि ते मेघस्य, विद्युता चपला प्रेतरूपमेति भावः विप्रयोगः वियोग:, एवम् मत्स- दृशम् माभूत् न भवेत् ।। ५२ ।। १९ मे० ० -

= = = - = - = - = विधुर इति (मेरे प्रिया वियुक्त होने के कारण, वा अथवा मयि मेरे विषय में, अनुक्रोशबुद्ध्या करुणाबुद्धि से अनुचित प्रार्थनावर्तिनः अनुपयुक्त प्रार्थना करने वाले में मेरे एतद् इस सन्देश पहुँचाने रूप, प्रियल- दित कार्य को, कृत्वा करके प्रावृषा वर्षाऋतु के कारण, संमृतधीः। समृद्ध शोभा वाला, (होता हुआ ) इष्टान् अभिलषित, देशान् देशों में, विचरविहार करो ( घूमो ) अन्त में आशीर्वाद देकर यक्ष अपना वक्तव्य समाप्त करता है। क्षणमपि एक मिनट भी, ते तुम्हारा, विद्युता बिजली से अर्थात् अपनी प्रियतमा से, विप्रयोगः वियोग एवं मेरे जैसा, माभूद न हो ।। ५२ ।।
शब्दार्थ : हे जलद ! हे मेघ, सौहार्याद मित्र भाव से, या अथवा
भावार्थ:- हे मेघ ! मित्रभावाद्वा एष प्रिया विप्रयुक्त इति कारणाद्वा मद्विषये करुणावुद्या या मत्प्रिया सन्देशहरणरूपमभीष्टकृत्यं सम्पाद्य वनोप- चितोस्त्वं स्वाभिलषितान्देशान् विहर। मत्सदृशः ते विद्युत्कान्ता वियोग: एक क्षणमपि न भवेदिति ।। ५२ ।।
हिन्दी - हे मेघ मित्र भाव से, या यह 'प्रिया से बिछुड़ा हुआ है इस कारण अथवा मेरे विषय में करुणाबुद्धि से अनुचित प्रार्थना करने वाले मेरे इस 'प्रिया सन्देश हरण' रूप अभिलषित कार्य को करके अपने अभिलषित देशों में बिहार करो। ( अन्त में यक्ष आशीर्वाद देकर अपना वव्य समाप्त करता है)।
मेरे समान तेरा अपनी प्रियतमा बिजली से एक क्षण भी वियोग न हो ।। ५२ ।।
समासः जलं ददातीति जलद: ( उपपद०) सत्सम्बुद्धी गोभनं हृदयं यस्य सः सुव (बहु० ) अनुक्रोवास्य बुद्धि अनुकोशबुद्धि ( प० तत्०) तया न उचित अनुचिता ( नव्०) अनुचितः वासौ प्रार्थना अनुचित- प्रार्थना ( कर्म० धा० ) संमृता श्रीर्यस्य सः सम्भूतश्रीः ( बहु० ) ।
कोशः विधुरन्तु प्रविश्लेये, इत्यमरः अथ मित्रं सखा सुहृद् इत्यमरः । स्त्रियां प्राहृद् स्त्रिया भूम्नि वर्षा इत्यमरः कृपादवानुकम्पा स्यादनुक्रोशः, इत्यमरः ।

-- टिप्पणी-जलद जल उपपद पूर्वक 'दा' धातु से 'क' प्रत्यय करके धातु के आकार का लोप करके जलद ऐसा रूप बनता है। सुहृत् यहाँ 'हृदय' शब्द के स्थान पर 'सुहृददुद्द दो मित्रामित्रयो:' इस सूत्र से 'हृद शब्द निपालन किया जाता है। सुहृदो भावः सौहार्दः यहाँ 'सुहृद' शब्द से अणु प्रत्यय करके 'हृदद्भगसिध्यन्ते पूर्वपदस्य च इस सूष से 'सु' के को ओ एवं 'ह' के पह को बार वृद्धि करके 'सौहार्द' ऐसा रूप निष्पन्न होता है। विधुरम् 'वि' उपसर्गपूर्वक 'र' शब्द को 'विगतो घूर्यस्य' इस उपपद समास के पश्चात् क्रपयामानो' इस सूत्र से समासान्त '' प्रत्यय करके 'विधुर याद बनता है। पुनः विधुरमस्यास्तीति इस दिग्रह में 'अर्थआदिभ्योऽच्' इस सूत्र से 'अन्' प्रत्यय करके 'विधुर' ऐसा रूप निष्पन्न होता है, जिसका 'वियुक्त' अर्थ होता है। अनुचित प्रार्थना- वर्तिनः अनुचितप्रार्थनायां वर्तते तच्छीलः इस विग्रह में अनुचित प्रार्थना उप- पद पूर्वक 'वृत्' धातु से 'ताच्छील्य' अर्थ में 'पिनि' प्रत्यय करके 'अनुचित प्रार्थनावर्ती ऐसा शब्द निष्पन्न होता है, प्रकृत रूप षष्ठी विभक्ति का है। प्रार्थना में अनुचित विशेषण देने का तात्पर्य यह है कि कहाँ तो मैं अभिशस यक्ष और कहाँ तुम देवताओं के राजा इन्द्र के मन्त्री, प्रधान पुरुष हो और तुमसे प्रिया के पास सन्देश पहुंचाने के लिए प्रार्थना करना अनुचित होता है। क्योंकि कहा गया है न हि प्रकृष्टाः प्रेष्यन्ते प्रेष्यन्ते हीतरे जनाः । इति संभृतश्री: 'सम' उपसर्गपूर्वक 'मृ' धातु से 'क' प्रत्यय करके स्त्रीत्व विवक्षा में 'टापू' करके 'संभृता' ऐसा रूप बनता है। संमृता बीर्यस्य स संभृतश्रीः । देशान् यहाँ 'वि' उपपूर्वक विहार अर्थ में विद्यमान अकर्मक 'वर' धातु के योग होने के कारण 'अकर्मक धातुभियोगे देश कालो भावो गन्तब्योऽध्या [च] कर्म इति वाच्यम्' इस वार्तिक से कर्मसंज्ञा हुई है और 'कर्मणि 'द्वितीया' इस सूत्र से द्वितीया विभक्ति हुई है। यह बहुवचन का रूप है। यह 'चर' धातु पद्यपि अकर्मक है, परन्तु उक्त कारण से 'देश' यह पद विचर' का कर्म हुआ। उदाहरण स्वरूप देखिए अधिव्यधम्याविचचार दावम् रघु- वंश द्वितीय सर्ग में भी 'दाद' यह पद 'विचार' का कर्म है। विप्रयोग- -

'वि' एवं 'प्र' उपसर्गपूर्वक पोवार्थक युज्' धातु से पत्र प्रत्यय करके विप्र- योग' रूप निष्पन्न होता है मा भूत्यहाँ 'मा' के योग में 'भू' धातु से आशीर्वाद अर्थ में 'माहि लड़' इस सूत्र से लड़ कर आया है और दात्तः इस सूत्र से प्राप्त अद् आगम का निषेध 'नमा योगे इस सूत्र से हो गया है। यह एकवचन का रूप है।
अलङ्कारः- यहाँ लिङ्ग साम्य अर्याद मेष में पुलिङ्ग होने के कारण नायकत्व का एवं स्त्रीलिङ्ग होने के कारण 'विद्युद' में नाविकात्व का समारोप होने के कारण 'समासोक्ति' नामक अलङ्कार है ।। ५२ ।।
इस प्रकार कविकुलगुरू कालिदास ने वियोगी यक्ष के द्वारा अचेतन मेष को कहे गये सन्देश वा संकलन रूप 'मेवदूत' की समाप्ति यहीं पर कर दी है महामहोपाध्याय मल्लिनाथजी ने भी यहाँ तक के इलोकों की टीका की है। आगे के द्वारा प्रतिपादित अर्थ की असंभाव्यता के कारण एवं कालिदास की शैली के अभाव के कारण उन्होंने आगे के संक्षिप्त लोकों को टीका नहीं की है। परन्तु कुछ टीकाकारों ने जिन दो इलोकों की टीका की है उनको टीका में भी कर दे रहा हूँ।
[ तं संदेशं जलधरवरो दिव्यवाचाऽचचक्षे
प्राणांस्तस्या जनहितरतो रक्षितु ं यक्षबध्याः ।
प्राप्योदन्तं प्रमुदितमनाः साऽपि तस्थौ स्वभर्तुः केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना ह्युत्तमेषु || १ || ]
अन्वयः - जनहितरतः, जलधरवर:, तस्याः पक्षयाः प्राणान् रक्षितुम व्यवाचा तम् सन्देशम् आपले सा अस्वभर्तुः उदन्तम् प्राप्य मुदितमनाः, तस्थौ हि उत्तमेषु प्रार्थना, केदाम्मान स्वाद ?
व्याख्या जनहितरत: कल्याणतत्परः जलधरवरः श्रेष्ठः, स्या: पूर्व कथितायाः, बसवण्याः यात्रियायाः प्राणान् जीवितान्, रक्षि पालयितुम् दिव्यवाचा लोकोत्तरवाण्या तम्-यक्ष-कथितम्, सन्देशम् = न्याम् बाणवले उवाच । सा अभिव्यक्षत्रिया अपि स्व-निजप्रियतमस्य = =

उदन्तम् = वृत्तान्तम् प्राप्यलवा, प्रमुदितमनाः - प्रफुल्लहृदया, तस्थौ स्थिता, हिवतः उत्तमेषु महत्सु (विषये) प्रार्थनायाच्छा पा=जना- नाम अभिमतफल प्राप्तकामा न भवेदन स्यात् सर्वेषाम् प्रार्थना महत्सु कामा, भवत्येवेति भावः ।। १ ।।
= = = O शब्दार्थ: जनहितरतः लोकोपकार में लगे जमे, तस्याः उस यक्षवध्याः पक्षप्रिया के प्राणान् प्राणों की रक्षितुम् रक्षा के लिए दिव्यवाचा अलौकिक वाणी से तम् उस पक्ष के द्वारा कहे गये, सन्देशम् सन्देश को, आचचक्षे कहा सा अपिवह यक्षपत्नी भी, स्वभर्तुः = अपने प्रियतम के उदन्तम्वृतान्त को प्राप्य पाकर, प्रमुदित- मनाः प्रसन्न हृदय वाली तस्थौ हुई हि क्योंकि, उत्तमेषु बड़ों से, प्रार्थना की गयी याचना, केषाम् किनकी, अभिमतफलासफल न स्वादन हो ? अर्थात् सदों की प्रार्थना सफल होती ही है ।। १ ।
भावार्थ:- लोकोपकारी मेघश्रेष्ठो यक्षपल्या प्राणरक्षायं पोक्तं सन्देश लोकोत्तरवाण्या तस्यै जगाद यक्ष प्रियाऽपि स्ववृत्तान्तं श्रुत्वा प्रमुदित- मना बभूव महत्सु केषां प्रार्थना सफला न भवत्यपितु सर्वेषां भवत्येवेति भावः ।। १ ।।
हिन्दी- -लोक के उपकार में श्रेष्ठ मेघ ने उस यक्षपत्नी के प्राणों की रक्षा के लिए यक्ष के द्वारा कहे गये सन्देश को वाणी से क्षत्रिया को कहा। वह क्षत्रिया भी अपने पति के वृत्तान्त को सुनकर प्रसन्न मन वाली हो गयी। क्योंकि महापुरुषों से की गयी की प्रार्थना सफल नहीं होती। अर्थात् सबों की होती है।
- समासः जनहिते रतः जनहितरत: (स० तद्०), जलानां घरा घरा ( ० त० ) तेषु श्रेष्ठ: जलघर श्रेष्ठ (स० [०) यस्य वधूः यजवधूः (०) दत्याः दिव्याभासी वाक् दिव्यवाक् (कर्म० धा० ) तया स्वस्थ भर्ती स्वत ( [प० त०] ) तस्य प्रमुदितं मनो यस्याः सा प्रमुदितमना (बहु० ) अभिमतं फलं यस्याः सा अमिता (बहु० ) । -

कोश: योषा नारी सीमन्तनी वधूः इत्यमरः सन्देशवाक बाचिक स्वाद इत्यमरः । वातप्रवृत्ति सान्तमुदन्तं स्याद् इत्यमरः स्वान्तं हृन्मानसं मनः इत्यमरः ।
टिप्पणी- जनहितरत:- जनेभ्यो हितम्' यहाँ जन शब्द से हित के योग में 'हितयोगे च' इस सूत्र से चतुर्थी विभक्ति आयी है। पश्चात् 'चतुर्थी तद-बल-हित सुरक्षित' इस सूत्र से चतुर्थी समास होकर 'भ्यस्' का लोप किया गया है। 'पञ्चात् सप्तमी समास किया गया है। जलधर-धरतीति धरा धू' धातु से पचाच करके 'धरा' ऐसा रूप बनता है और उसके योग में 'कर्तृकर्मणोः कृति' इस सूत्र से 'जल' शब्द से षष्ठी विभक्ति हुई है। यहाँ यदि द्वितीयासमास किया गया तो 'कर्मण्यण' इस सूत्र से अणू प्रत्यय होकर नित्वात् धातु के आकार को वृद्धि होने लगेगी। यदि 'जलधार' रूप स्वीकार कर भी लिया जाय तो छन्दोभ होने लगेगा। रक्षितुम् 'रम्' धातु से 'तुमुन्' प्रत्यय करके 'रक्षितम्' ऐसा रूप निष्पन्न होता है। आचचक्षे आई' उपसर्गपूर्वक चक्षु (इ) धातु के लिट् लकार का 'आप' रूप है। ङित्वात् आत्मनेपद हुआ है। प्राप्य 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'आप' धातु से 'क्वा' प्रत्यय करके उसके स्थान में 'स्य' करके प्राप्य' ऐसा रूप बनता है। तस्थो 'स्था' धातु के लिट् लकार के प्रथमपुरुष के एकवचन का रूप है 'तस्थी' । - -
अलङ्कारः यहाँ तृतीय चरणोक्त विशेष अर्थ का चतुर्थ चरणोक्त सामान्य के द्वारा समर्थन होने के कारण 'वर्षान्तरन्यास अलङ्कार है।
श्रुत्वा वार्ता जलदकथितां तां धनेशोऽपि सद्य:
शापस्यान्तं सदयहृवयः संविधायास्तकोषः । संयोक्यैतौ विगलितशुचौ दम्पती हृटचित्तौ
भोगानिष्टान विरतसुखं भोजयामास शश्वत् ॥ २ ॥
अन्वयः - धनेश, अपि, जलदकविताम्, ताम्, वार्ताम् त्वा सदयहृदयः

- = = = S व्याख्या- धनेशः अपि कुबेरोऽपि जलदकविताम्मैचयाहृताम्, ताम् पूर्व प्रतिपादिताम् वार्ताम् प्रवृत्तिम् श्रुत्वा आकर्ण्य, सदयहृदयः सकरुणचित्तः, अस्त कोपः विगतमन्युः सन् सद्यः तत्क्षण एवं शापस्य पनस्य अन्तम् समाप्ति, संविधाय कृत्वा विगलितशुषो अपगतशोको, हृष्टचित्तप्रसन्नहृदयी एटी पूर्वोक्सो, दम्पती जायापती, अज्ञानामानं तस्य पत्नी, संयोज्य सम्मेस्य, इष्टान् प्रियान् भोगान् भोग्यपदा- र्थात्, अविरतसुखम् निरन्तरमुखम् यया स्यात्तमा पाववद पुनः पुनः भोजयामास अनुभावयाम्बभूव ।। २ ।।
- शब्दार्थ:- धनेश: कुबेर, अधिभी जलद कथिताम् मेघ के द्वारा कहे गये, ताउस, वार्ताम् सन्देश को, श्रुत्वा सुनकर, सदयहृदयः करणहृदय, अतएव अस्तकोपः शान्तक्रोध (बाला होकर) सद्यः = = तुरत शापस्य (अपने द्वारा दिये गये) शाप का अन्तम् अन्त, संविधाय करने, विगलितच विनष्ट थोक वाले, अतएव प्रहृष्टचित्तो प्रसन्न मन वाले एतौ इन, दम्पती पति पत्नी को संयोज्य मिलाकर इष्टान् अभिलषित, भोवान् भोग्य पदार्थों का अविरतसुखम् जिस प्रकार निरन्तर सुख मिलता रहे बार-बार, भोजयामास उपभोग कराया ।। २ ।। - - =
अस्तकोषः सद्यः, शापस्य, अन्तम्, संविधाय, विगलितची हृष्टचिसो एवो
दम्पती, संयोज्य, इष्टान् भोगान्, अविरतसुखम् शब्वत्, भोजयामास ॥२॥
भावार्थ:-कुबेरोऽपि मेघोक्तं यक्षसन्देशमाकर्ण्य सकरुणः विगतमन्युः सन् पापस्य तत्क्षणमेवावसानं कृत्वा निर्वतशोको प्रसन्नमानसावेती जायापती सम्मेल्य निरन्तरं यानन्दं स्यात्तया पुनः पुनः अभिलषितभोग्यपदार्थान् भोजयामास ।। २ ।
हिन्दी कुबेर भी मेघ द्वारा कहे गये यक्ष के सन्देश को सुनकर करणा से शान्त क्रोध वाला होकर अपने शाप को तुरंत समाप्त करके विनष्ट-दुःख वाले अतः प्रसन्न हृदय वाले उन दोनों पक्ष एवं उसकी पत्नी को मिलाकर जिससे उन्हें सर्वदा आनन्द मिलता रहे, इस प्रकार पुनः पुनः उन दोनों को अमित भोग्य पदार्थों का उपभोग कराया ।
समासः श्यया सहितम् = सदयम् (तुल्ययोग बहु० ) । सदयं हृदयं यस्य

सः सदयहृदयः (बहु० ) अस्तः कोषो यस्मात्थः वस्कोप (बहु० ) । विगलिता शुभमस्त विगलितशुप (बहु० जाया च पति च दम्पती (इन्द्र) तौ न विरतम् अविरतम् (न) अविरतं सुखं यस्मिन् तद्यथा स्यात्तथा अविरतमुखम् (बहु० ) ।
कोशः दम्पती जम्पती जायापती भार्यापती च तो, इत्यमरः सतता- मारतान्तसन्तताऽविरताऽनिशम् इत्यमरः ।
टिप्पणी- अस्त-मस् धातु से प्रत्यय करके 'मस्त' ऐसा रूप निष्पन्न होता है। हृष्टहृष् धातु से 'क्त' प्रत्यय करके स्टुत्व आदि करके 'हृष्ट:' ऐसा रूप निष्पन्न होता है। दम्पती जाया च पतिश्च इस विग्रह में इन्द्र समास होने के पश्चात् 'राजदन्तादिषु परम्' इस सूत्र से 'जाया' शब्द को 'दम्' भाव निपातन होता है, तब दम्पती यह रूप बनता है जहाँ उसी सून से 'जाया' शब्द को 'जम्' भाव निपातन होता है वहाँ 'जम्पती' ऐसा रूप निष्पन्न होता है संयोज्य 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'युज्' धातु से 'णिच्' प्रत्यय करके धातु संज्ञा करके पश्चात् कवा प्रत्यय करके उसके स्थान में 'पपू' आदेश करके संयोज्य ऐसा रूप उपपन्न होता है। भोजयामास - जिन् 'भोज' धातु से लिट् लकार लाकर पुनः ति पलादि करके उसका छोप इत्यादि करके आम आदि लाकर पुनः कुव् चानुप्रयुज्यते लिटि' इस सूत्र से लि परक 'अस्' का अनुपयोग करके गुण जयादेश आदि करके, 'भोजयामास' ऐसा रूप निष्पन्न होता है ।। २ ।।
इति शम् ॥
सीता-महो-मण्डल मध्यवर्ती,
ग्रामोऽलपूरा'
बुधवास भूमिः ।
निवासिना तस्य कृताऽत्र टीका,
श्रीवैद्यनाथेन प्रपूरितेषा ॥
इति श्रीकविकुलगुरुमहाकवि कालिदासविरचित मेघदूतस्य मधुवनमण्डलान्त गंत 'पूरा' ग्राम निवासिना झोपावंद्यनायेन कृतया 'इन्दुकला' टीकया भगवान् विश्वेश्वर प्रसीदतु ॥
इति शम् ॥

अन्य यात्रावृत्तान्तः पुस्तकानि

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लेखाः
मेघदूत
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"मेघदूत" भारतीयसाहित्यस्य महाकविः कालिदासः लिखितः महत्त्वपूर्णः काव्यग्रन्थः अस्ति । अस्मिन् काव्यग्रन्थे सखी-प्रेमिणां च दूरं संयोगाभिलाषं च मेघद्वारा चित्रितम् अस्ति । **कथा सारांशः** काव्यग्रन्थस्य कथा प्रियस्य दुःखानि, आकांक्षा च केन्द्रीभूता अस्ति । प्रेमिकायाः ​​दूरं भवितुं सखी दुःखिता अस्ति, सा च स्वप्रेमिणः समीपं गन्तुं आकांक्षति। **मुख्यपात्रः** -मुख्यपात्रं सखी अस्ति, यस्याः प्रेमी दूरं तिष्ठति, कार्ये व्यस्तः च भवति। - मेघः (मेघः) यः प्रियायाः सन्देशं तस्याः कान्तं प्रति प्रसारयितुं दूतरूपेण कार्यं करोति। **कथायाः ऊर्जा:** -"मेघदूत" इत्यस्य मुख्यं आकर्षणं तस्य काव्यस्य अत्यन्तं ऊर्ध्वता, सौन्दर्यं च अस्ति । अस्मिन् काव्ये मेघानां विशिष्टविन्यासेन, प्रियप्रेमेण च चर्चा कृता अस्ति । **काव्यस्य रसपूर्णशैली:** - कालिदासस्य सुन्दरं काव्यं श्लोकानां तेजस्वी च "मेघदूत" इत्यत्र दृश्यते । ते मेघानां विषये विविधपदेषु चर्चां कुर्वन्ति, प्रेमस्य सारं च सुन्दरं चित्रयन्ति । **निगमन:** - "मेघदूत" कालिदासस्य काव्यकलायाः उत्तमम् उदाहरणम् अस्ति, प्रेम, आकांक्षा, प्रियस्य प्रेम इति विषये सुन्दरं कथारूपेण प्रस्तुतम् अस्ति। मेघयुक्तेषु ग्रीष्मदिनेषु अस्य पठनं आवश्यकं भवितुम् अर्हति, साहित्य-काव्य-ग्रन्थ-प्रेमिणां कृते च एषः आनन्ददायकः अनुभवः भवितुम् अर्हति ।

पुस्तकं पठतु