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चाणक्य नीति

25 December 2023

3 दर्शितम् 3
वह चणक का पुत्र होने के नाते चाणक्य था। उसकी चालें शत्रु की पकड़ में नहीं आती थीं, अति कुटिल थीं, इसीलिए उसे लोगों ने नाम दिया था- कौटिल्य।
वह दिखने में जितना कठोर था, उतना ही सहृदय भी था। राजनीति की बिसात पर टेढ़ी-मेढ़ी चालों का खिलाड़ी होने पर भी वह सच्चा महात्मा था। उसके लिए सुख-वैभव, पद आदि महत्वपूर्ण नहीं थे, महत्वपूर्ण था देश का अखंड गौरव। अखंड भारत के उस स्वप्न को साकार करने के लिए वह न
कहीं रुका, न कहीं झुका।

तदहं संप्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया। येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते ।।
"मैं लोगों की भलाई की इच्छा से (राजनीति
के) उन गूढ़ रहस्यों का वर्णन कर रहा हूं, जिन्हें
जान लेने मात्र से मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है
अर्थात् और कुछ जानना उसके लिए शेष नहीं
रह जाता।"

           संपूर्ण चाणक्य नीति, चाणक्य सूत्र और जीवन-गाथा

अथ प्रथमोऽध्यायः
अथ द्वितीयोऽध्यायः
अथ तृतीयोऽध्यायः
अथ चतुर्थोऽध्यायः
अथ पंचमोऽध्यायः
अथ षष्ठोऽध्यायः
अथ सप्तमोऽध्यायः
अथ अष्टमोऽध्यायः
अथ नवमोऽध्यायः
अथ दशमोऽध्यायः
अध एकादशोऽध्यायः
| अथ द्वादशोऽध्यायः
अथ त्रयोदशोऽध्यायः
अथ चतुर्दशोऽध्यायः
अथ पंचदशोऽध्यायः
∎ अथ षोडशोऽध्यायः
अथ सप्तदशोऽध्यायः
चाणक्य सूत्र
चाणक्य जीवन गाथा
चाणक्य नीति
• विद्यार्थी
चाणक्य • विश्लेषक चाणक्य प्राध्यापक चाणक्य आंभिक की कथा पुरु

(पोरस) के साथ युद्ध अपमानित चाणक्य • प्रतिशोधक चाणक्य • नंदों की कहानी • योजनाकार चाणक्य कुटनीतिज्ञ चाणक्य धनानंद का अंत मगध का युद्ध नीतिज्ञ चाणक्य संकटग्रस्त चाणक्य
चाणक्य के शास्त्र
• अर्थशास्त्र • चाणक्य नीति पंचतंत्र कथाएं

चाणक्य नीति
जिस प्रकार विज्ञान में सुनिश्चित सिद्धांतों की खोज की जाती है और उनकी पुष्टि बार-बार किए गए प्रयोगों से एकसमान प्राप्त निष्कषों से होती है, उसी प्रकार नीतिशास्त्र की नी एक सुनिश्चित परंपरा है। इसके निष्कर्ष भी प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति में एकसमान हैं। इसीलिए आचार्य चाणक्य ने नीतिशास्त्र को विज्ञान कहा है। वे इस ज्ञान के द्वारा 'सर्वज्ञ' होने की बात भी कहते हैं। यहां सर्वज्ञ होने का अर्थ है अतीत, वर्तमान और भविष्य का विश्लेषण करने की क्षमता प्राप्त कर लेना।
मनसा चिन्तितं कार्य वाचा नैव प्रकाशयेत्। मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्य चाऽपि नियोजयेत्।।
मन से सोचे हुए कार्य को वाणी द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए, परंतु मननपूर्वक भली प्रकार सोचते हुए उसकी रक्षा करनी चाहिए और चुप रहते हुए उस सोची हुई बात को कार्यरूप में बदलना चाहिए।
इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः। देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत् ।।
बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को वश में करके समय के अनुरूप अपनी क्षमता को तौलकर बगुले के समान अपने कार्य को सिद्ध करना चाहिए
परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमाः। त एवं विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत्।।
जो लोग एक-दूसरे के भेदों को प्रकट करते हैं, वे उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे बांबी में फंसकर सांप नष्ट हो जाता है।

।। अथ प्रथमोऽध्यायः ।।
पहला अध्याय
किसी कष्ट अथवा आपत्तिकाल से बचाव के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए। धन खर्च करके भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए, परंतु स्त्रियों और धन से भी आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं की रक्षा करे।
प्रणम्य शिरसा विष्णुं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम्।
 नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीतिसमुच्चयम् 
नानाशास्त्राद्धृत वक्ष्य राजनातिसमुच्चयम्।।
मैं तीनों लोकों-पृथ्वी, अन्तरिक्ष और पाताल के स्वामी सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक परमेश्वर विष्णु को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूं। प्रभु को प्रणाम करने के बाद में अनेक शास्त्रों से एकत्रित किए गए राजनीति से संबंधित ज्ञान का वर्णन करूंगा।।।1।।
प्राचीनकाल से हमारी यह परंपरा रही है कि ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए ग्रंथकार अपने आराध्य का स्मरण अवश्य करता है। इसे 'मंगलाचरण' कहा जाता है। आचार्य चाणक्य ने भी सर्वशक्तिमान प्रभु विष्णु को नमन करके इस ग्रंथ की रचना की है।
विदित हो कि श्रीविष्णु पालनकर्ता है और 'नीति 'का प्रयोजन भी व्यक्ति और समाज की व्यवस्था देना है। चाणक्य ने अपने इस ग्रन्थ को राजनीति से संबंधित ज्ञान का उत्तम संग्रह बताया है। इसी संग्रह को बाद में विद्वानों और जन-सामान्य ने 'चाणक्य नीति' का नाम दिया।
अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः। 
धर्मोपदेशविख्यातं कार्याकार्य शुभाशुभम् ।।

'सत्तमः' अर्थात श्रेष्ठ पुरुष, इस शास्त्र का विधिपूर्वक अध्ययन करके यह बात भली प्रकार जान जाएंगे कि वेद आदि धर्मशास्त्रों में कौन से कार्य करने योग्य बताए गए हैं और कौन से कार्य ऐसे हैं जिन्हें नहीं करना चाहिए। क्या पुण्य है और क्या पाप है तथा धर्म और अधर्म क्या है, इसकी जानकारी भी इस ग्रंथ से हो जाएगी। ।।2।।
मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि कुछ भी करने से पूर्व उसे इस बात का ज्ञान हो कि वह कार्य करने योग्य है या नहीं, उसका परिणाम क्या होगा? पुण्य कार्य और पाप कर्म क्या हैं? श्रेष्ठ मनुष्य ही वेद आदि धर्मशास्त्रों को पढ़कर भले-बुरे का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
यहां यह बात जान लेना भी आवश्यक है कि धर्म और अधर्म क्या है? इसके निर्णय में, प्रथम दृष्टि में धर्म की व्याख्या के अनुसार किसी के प्राण लेना अपराध है और अधर्म भी, परंतु लोकाचार और नीतिशास्त्र के अनुसार विशेष परिस्थितियों में ऐसा किया जाना धर्म के विरुद्ध नहीं माना जाता, पापी का वध और अपराधी को दंड देना इसी श्रेणी में आते हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध की प्रेरणा दी, उसे इसी विशेष संदर्भ में धर्म कहा जाता है।
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।
येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते ।।

अब में मानवमात्र के कल्याण की कामना से राजनीति के उस ज्ञान का वर्णन करूंगा जिसे जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। ।।3।।
चाणक्य कहते हैं कि इस ग्रंथ को पढ़कर कोई भी व्यक्ति दुनियादारी और राजनीति की बारीकियां समझकर सर्वज्ञ हो जाएगा। यहां 'सर्वज्ञ' से चाणक्य का अभिप्राय ऐसी बुद्धि प्राप्त करना है जिससे व्यक्ति में समय के अनुरूप प्रत्येक परिस्थिति में कोई भी निर्णय होने की क्षमता आ आए। जानकार होने पर भी यदि समय पर निर्णय नहीं लिया, तो जानना समझना सब व्यर्थ है। अपने हितों की रक्षा भी तो तभी सम्भव है।
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति ।। मूर्ख शिष्य को उपदेश देने, दुष्ट-व्यभिचारिणी स्त्री का पालन-पोषण करने, धन के नष्ट होने तथा दुखी व्यक्ति के साथ व्यवहार रखने से बुद्धिमान व्यक्ति को भी कष्ट उठाना पड़ता है। ।14।।
चाणक्य कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति को ज्ञान देने से कोई लाभ नहीं होता, अपितु सज्जन और बुद्धिमान लोग उससे हानि ही उठाते हैं। उदाहरण के लिए बया और बंदर की कहानी पाठकों को याद होगी। मूर्ख बंदर को घर बनाने की सलाह देकर बया को अपने घोंसले से ही हाथ धोना पड़ा था। इसी प्रकार दुष्ट और कुलटा स्त्री का पालन-पोषण करने से
सज्जन और बुद्धिमान व्यक्तियों को दुख ही प्राप्त होता है।

दुखी व्यक्तियों से व्यवहार रखने से चाणक्य का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति अनेक रोगों से पीड़ित हैं और जिनका घन नष्ट हो चुका है, ऐसे व्यक्तियों से किसी प्रकार का संबंध रखना बुद्धिमान मनुष्य के लिए हानिकारक हो सकता है। अनेक रोगों का तात्पर्य संक्रामक रोग से है। बहुत से लोग संक्रामक रोगों से ग्रस्त होते हैं, उनकी संगति से स्वयं रोगी होने का अंदेशा रहता है। जिन लोगों का धन नष्ट हो चुका हो अर्थात जो दिवालिया हो गए हैं, उन पर एकाएक विश्वास करना कठिन होता है। दुखी का अर्थ विषादग्रस्त व्यक्ति से भी है। ऐसे लोगों का दुख से उबरना बहुत कठिन हो जाता है और प्रायः असफलता ही हाथ लगती है। जो वास्तव में दुखी है और उससे उबरना चाहता है, उसका सहयोग करना चाहिए। क्योंकि दुखी से तो स्वार्थी ही बचता है।
दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः ।
ससर्प च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः ।।

दुष्ट स्वभाव वाली, कठोर वचन बोलने वाली, दुराचारिणी स्त्री और धूर्त, दुष्ट स्वभाव वाला मित्र, सामने बोलने वाला मुंहफट नौकर और ऐसे घर में निवास जहां सांप के होने की संभावना हो, ये सब बातें मृत्यु के समान हैं। ।।5
जिस घर में दुष्ट स्त्रियां होती हैं, वहां गृहस्वामी की स्थिति किसी मृतक के समान ही होती है, क्योंकि उसका कोई वश नहीं चलता और भीतर ही भीतर कुढ़ते हुए वह मृत्यु की ओर सरकता रहता है। इसी प्रकार दुष्ट स्वभाव वाला मित्र भी विश्वास के योग्य नहीं होता, न जाने कब धोखा दे दे। जो नौकर अथवा आपके अधीन काम करने वाला कर्मचारी उलटकर आपके सामने जवाब देता है, वह कभी भी आपको असहनीय हानि पहुंचा सकता है, ऐसे सेवक के साथ रहना अविश्वास के घूंट पीने के समान है। इसी प्रकार जहां सांपों का वास हो, वहां रहना भी खतरनाक है। न जाने कब सर्पदंश का शिकार होना पड़ जाए।
आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद्धनैरपि।
 आत्मानं सततं रक्षेद् दारेरपि धनैरपि ।।

किसी कष्ट अथवा आपत्तिकाल से बचाव के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए और धन खर्च करके भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए, परंतु स्त्रियों और धन से भी अधिक आवश्यक यह है कि व्यक्ति अपनी रक्षा करे। 11611
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह आपत्ति अथवा बुरे दिनों के लिए थोड़ा-थोड़ा धन बधाकर उसकी रक्षा करे अर्थात धन का संग्रह करे। समय पड़ने पर संचित धन से भी अधिक अपनी पत्नी की रक्षा करना आवश्यक है क्योंकि पत्नी जीवनसंगिनी है। बहुत से ऐसे अवसर होते हैं, जहां धन काम नहीं आता, वहां जीवनसाधी काम आता है। इसी संदर्भ में वृद्धावस्था में पत्नी की अहम् भूमिका होती है।
चाणक्य का विचार यह भी है कि धन और स्त्री से भी अधिक व्यक्ति को अपनी रक्षा करनी चाहिए अर्थात व्यक्ति का महत्व इन दोनों से अधिक है। यदि व्यक्ति का अपना ही नाश
हो गया तो धन और स्त्री का प्रयोजन ही क्या रह जाएगा, इसलिए व्यक्ति के लिए धन-संग्रह और स्त्री रक्षा की अपेक्षा समय आने पर अपनी रक्षा करना अधिक महत्वपूर्ण है।
देखने में आया है और उपनिषद् के ऋषि भी कहते हैं कि कोई किसी से प्रेम नहीं करता, सब स्वयं से ही प्रेम करते हैं- आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।
आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतां कुत आपदः । 
कदाचिच्चलिता लक्ष्मीः सञ्चितोऽपि विनश्यति ।।

आपत्तिकाल के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन सज्जन पुरुषों के पास विपत्ति का क्या काम। और फिर लक्ष्मी तो चंचला है, वह संचित करने पर भी नष्ट हो जाती है। 11711
चाणक्य का कहना है, मनुष्य को चाहिए कि वह आपत्तिकाल के लिए धन का संग्रह करे। लेकिन धनी व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि उनके लिए आपत्तियों का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि वे अपने धन से सभी आपत्तियों से बच सकते हैं, परंतु वे यह नहीं जानते कि लक्ष्मी भी चंचल है। किसी भी समय वह मनुष्य को छोड़कर जा सकती है, ऐसी स्थिति में यह इकट्ठा किया हुआ धन भी किसी समय नष्ट हो सकता है।
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः। 
न च विद्याऽऽगमः कश्चित् तं देशं परिवर्जयेत् ।।

जिस देश में आदर-सम्मान नहीं और न ही आजीविका का कोई साधन है, जहां कोई बंधु-बांधव, रिश्तेदार भी नहीं तथा किसी प्रकार की विद्या और गुणों की प्राप्ति की संभावना भी नहीं, ऐसे देश को छोड़ ही देना चाहिए। ऐसे स्थान पर रहना उचित नहीं। ।।8।।
किसी अन्य देश अथवा किसी अन्य स्थान पर जाने का एक प्रयोजन यह होता है कि वहां जाकर कोई नयी बात, नयी विद्या, रोजगार और नया गुण सीख सकेंगे, परंतु जहां इनमें से किसी भी बात की संभावना न हो, ऐसे देश या स्थान को तुरंत छोड़ देना चाहिए।
श्रोत्रियो धनिकः राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
 पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत्।।

जहां श्रोत्रिय अर्थात वेद को जानने वाला ब्राह्मण, धनिक, राजा, नदी और वैद्य ये पांच चीजें न हों, उस स्थान पर मनुष्य को एक दिन भी नहीं रहना चाहिए। 119।।
धनवान लोगों से व्यापार की वृद्धि होती है। वेद को जानने वाले ब्राह्मण धर्म की रक्षा करते हैं। राजा न्याय और शासन-व्यवस्था को स्थिर रखता है। जल तथा सिंचाई के लिए नदी आवश्यक है जबकि रोगों से छुटकारा पाने के लिए वैद्य की आवश्यकता होती है। चाणक्य कहते हैं कि जहां पर ये पांचों चीजें न हों, उस स्थान को त्याग देना ही श्रेयस्कर है।
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात् तत्र संस्थितिम् ।।

जहां लोकयात्रा अर्थात जीवन को चलाने के लिए आजीविका का कोई साधन न हो, व्यापार आदि विकसित न हो, किसी प्रकार के दंड के मिलने का भय न हो, लोकलाज न हो, व्यक्तियों में शिष्टता, उदारता न हो अर्थात उनमें दान देने की प्रवृत्ति न हो, जहां ये पांच चीजें विद्यमान न हों, वहां व्यक्ति को निवास नहीं करना चाहिए। ।।10।।
जानीयात् प्रेषणे भृत्यान् बान्धवान् व्यसनाऽऽगमे।
 मित्रं चापत्तिकालेषु भार्या च विभवक्षये ।।

काम लेने पर नौकर-चाकरों की, दुख आने पर बंधु-बांधवों की, कष्ट आने पर मित्र की तथा धन नाश होने पर अपनी पत्नी की वास्तविकता का ज्ञान होता है। ।।11।।
चाणक्य कहते हैं कि जब सेवक (नौकर) को किसी कार्य पर नियुक्त किया जाएगा तभी पता चलेगा कि वह कितना योग्य है। इसी प्रकार जब व्यक्ति किसी मुसीबत में फंस जाता है तो उस समय भाई-बंधु और रिश्तेदारों की परीक्षा होती है। मित्र की पहचान भी विपत्ति के समय ही होती है। इसी प्रकार धनहीन होने पर पत्नी की वास्तविकता का पता चलता है कि उसका प्रेम धन के कारण था या वास्तविक।
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रु-संकटे।
 राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः।।

किसी रोग से पीड़ित होने पर, दुख आने पर, अकाल पड़ने पर, शत्रु की ओर से संकट आने पर, राज सभा में, श्मशान अथवा किसी की मृत्यु के समय जो व्यक्ति साथ नहीं छोड़ता, वास्तव में वही सच्चा बन्धु माना जाता है। ।।12।।
व्यक्ति के रोग शय्या पर पड़े होने अथवा दुखी होने, अकाल पड़ने और शत्रु द्वारा किसी भी प्रकार का संकट पैदा होने, किसी मुकदमे आदि में फंस जाने और मरने पर जो व्यक्ति श्मशान घाट तक साथ देता है, वही सच्चा बन्धु (अपना) होता है अर्थात ये अवसर ऐसे होते हैं जब सहायकों की आवश्यकता होती है। प्रायः यह देखा जाता है कि जो किसी की सहायता करता है, उसको ही सहायता मिलती है। जो समय पर किसी के काम नहीं आता, उसका साथ कौन देगा?
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिसेवते।
 ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि।।

जो मनुष्य निश्चित को छोड़कर अनिश्चित के पीछे भागता है, उसका कार्य या पदार्थ नष्ट हो जाता है। ।।1311
चाणक्य कहते हैं कि लोभ से ग्रस्त होकर व्यक्ति को हाथ-पांव नहीं मारने चाहिए बल्कि जो भी उपलब्ध हो गया है, उसी में सन्तोष करना चाहिए। जो व्यक्ति आधी छोड़कर

पूरी के पीछे भागते हैं, उनके हाथ से आधी भी निकल जाती है।
वरयेत् कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम्।
 रूपवर्ती न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले।।

बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुई कुरूप अर्थात् सौंदर्यहीन कन्या से भी विवाह कर ले, परन्तु नीच कूल में उत्पन्न हुई सुंदर कन्या से विवाह न करे। वैसे विवाह अपने समान कुल में ही करना चाहिए। ।।1411
आचार्य चाणक्य ने यह बहुत सुंदर बात कही है। शादी-विवाह के लिए सुंदर कन्या देखी जाती है। सुंदरता के कारण लोग न कन्या के गुणों को देखते हैं, न उसके कुल को। ऐसी कन्या से विवाह करना सदा ही दुखदायी होता है, क्योंकि नीच कुल की कन्या के संस्कार भी नीच ही होंगे। उसके सोचने, बातचीत करने या उठने-बैठने का स्तर भी निम्न होगा, जबकि उच्च और श्रेष्ठ कुल की कन्या का आचरण अपने कुल के अनुसार होगा, भले ही वह कन्या कुरूप व सौंदर्यहीन हो। वह जो भी कार्य करेगी, उससे अपने कुल का मान ही बढ़ेगा और नौच कुल की कन्या तो अपने व्यवहार से परिवार की प्रतिष्ठा ही बिगाड़ेगी। वैसे भी विवाह सदा अपने समान कुल में ही करना उचित होता है, अपने से नीच कुल में नहीं। यहां 'कुल' से तात्पर्य धन-संपदा से नहीं, परिवार के चरित्र से है।
नखीनां च नदीनां च शृंगीणां शस्त्रपाणिनाम्।
 विश्वासो नैव कर्तव्यो स्त्रीषु राजकुलेषु च।।

'नखीनाम्' अर्थात बड़े-बड़े नाखूनों वाले शेर और चीते आदि प्राणियों, विशाल नदियों, 'शृंगीणाम्' अर्थात बड़े-बड़े सींग वाले सांड़ आदि पशुओं, शस्त्र धारण करने वालों, स्त्रियों तथा राजा से संबंधित कुल वाले व्यक्तियों का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। ।। 1511
बड़े-बड़े नाखूनों वाले हिंसक प्राणी से बचकर रहना चाहिए, न जाने वे कब आपके ऊपर हमला कर दें। जिन नदियों के पुश्ते अथवा तट पक्के नहीं, उन पर इसलिए विश्वास नहीं किया जा सकता कि न जाने उनका वेग कब प्रचंड रूप धारण कर ले और कब उनकी दिशा बदल जाए, न जाने वे और किधर को बहना प्रारंभ कर दें। इसलिए प्रायः नदियों के किनारे रहने वाले लोग सदैव उजड़ते रहते हैं।
बड़े-बड़े सींग वाले सांड़ आदि पशुओं का भी भरोसा नहीं है, कौन जाने उनका मिजाज कब बिगड़ जाए। जिसके पास तलवार आदि कोई हथियार है, उसका भी भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि वह छोटी-सी बात पर क्रोध में आकर कभी भी आक्रामक हो सकता है। चंचल स्वभाव वाली स्त्रियों पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। वह अपनी चतुरता से कभी भी आपके लिए प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा कर सकती हैं। इस तरह के कई उदाहरण प्राचीन ग्रंथों में मिल जाएंगे। राजा से संबंधित राजसेवकों और राजकुल के व्यक्तियों पर भी विश्वास करना उचित नहीं। वे कभी भी राजा के कान भरकर अहित करवा

सकते हैं। इसी के साथ वे राज नियमों के प्रति समर्पित और निष्ठावान् होते हैं। राजहित उनके लिए प्रमुख होता है-संबंध नहीं।
विषादप्यमृतं ग्राह्यममेधयादपि काञ्चनम्।
 नीचादप्युत्तमा विद्या स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ।।

विष में भी यदि अमृत हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। अपवित्र और अशुद्ध वस्तुओं में भी यदि सोना अथवा मूल्यवान वस्तु पड़ी हो तो वह भी उठा लेने के योग्य होती है। यदि नीच मनुष्य के पास कोई अच्छी विद्या, कला अथवा गुण है तो उसे सीखने में कोई हानि नहीं। इसी प्रकार दुष्ट कुल में उत्पन्न अच्छे गुणों से युक्त स्त्री रूपी रत्न को ग्रहण कर लेना चाहिए। ।।16।।
इस श्लोक में आचार्य गुण ग्रहण करने की बात कर रहे हैं। यदि किसी नीच व्यक्ति के पास कोई उत्तम गुण अथवा विद्या है तो वह विद्या उससे सीख लेनी चाहिए अर्थात व्यक्ति को सदैव इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि जहां से उसे किसी अच्छी वस्तु की प्राप्ति हो, अच्छे गुणों और कला को सीखने का अवसर प्राप्त हो तो उसे हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। विष
में अमृत और गंदगी में सोने से तात्पर्य नीच के पास गुण से है।
स्त्रीणां द्विगुण आहारो बुद्धिस्तासां चतुर्गुणा।
साहसं षड्गुणं चैव कामोऽष्टगुण उच्यते ।।

पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का आहार अर्थात भोजन दोगुना होता है, बुद्धि चौगुनी, साहस छह गुना और कामवासना आठ गुना होती है। ।।17।।
आचार्य ने इस श्लोक द्वारा स्त्री की कई विशेषताओं को उजागर किया है। स्त्री के ये ऐसे पक्ष हैं, जिन पर सामान्य रूप से लोगों की दृष्टि नहीं जाती।
भोजन की आवश्यकता स्त्री को पुरुष की अपेक्षा इसलिए ज्यादा है, क्योंकि उसे पुरुष की तुलना में शारीरिक कार्य ज्यादा करना पड़ता है। यदि इसे प्राचीन संदर्भ में भी देखा जाए, तो उस समय स्त्रियों को घर में कई ऐसे छोटे-मोटे काम करने होते थे, जिनमें ऊर्जा का व्यय होता था। आज के परिवेश में भी स्थिति लगभग वही है। शारीरिक बनावट, उसमें होने वाले परिवर्तन और प्रजनन आदि ऐसे कार्य हैं, जिसमें क्षय हुई ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए स्त्री को अतिरिक्त पौष्टिकता की आवश्यकता होती है।
इस सत्य की जानकारी न होने के कारण, बल्कि व्यवहार में इसके विपरीत आचरण होने के कारण, बालिकाओं और स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा कुपोषण का शिकार होना पड़ता है।
बुद्धि का विकास समस्याओं को सुलझाने से होता है। इस दृष्टि से भी स्त्रियों को परिवार के सदस्यों और उसके अलावा भी कई लोगों से व्यवहार करना पड़ता है। इससे उनकी बुद्धि अधिक पैनी होती है, छोटी-छोटी बातों को समझने की दृष्टि का विकास होता

तथा विविधता का विकास होता है। आज के संदर्भ में इस क्षमता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
भावना प्रधान होने के कारण स्त्री में साहस की उच्च मात्रा का होना स्वाभाविक है। पशु-पक्षियों की मादाओं में भी देखा गया है कि अपनी संतान की रक्षा के लिए वे अपने से कई गुना बलशाली के सामने लड़-मरने के लिए डट जाती हैं।
काम का आठ गुना होना, पढ़ने-सुनने में अटपटा लगता है लेकिन यह संकेत करता है कि हमने काम के रूप-स्वरूप को सही प्रकार से नहीं समझा है। काम पाप नहीं है। सामाजिक कानून के विरुद्ध भी नहीं है। इसका होना अनैतिक या चरित्रहीन होने की पुष्टि भी नहीं करता है। श्रीकृष्ण ने स्वयं को 'धर्मानुकूल काम' कहा है। काम पितृऋण से मुक्त होने का सहज मार्ग है। संतान उत्पन्न करके ही कोई इस ऋण से मुक्त हो सकता है।
स्त्री की कामेच्छा पुरुष से भिन्न होती है। वहां शरीर नहीं भावदशा महत्वपूर्ण है। स्त्री में होने वाले परिवर्तन भी इस मांग को समक्ष लाते हैं-स्वाभाविक रूप में। लेकिन स्त्री उसका परिष्कार कर देती है जैसे पृथ्वी मैले को खाद बनाकर जीवन देती है। इसे पूरी तरह से समझने के लिए आवश्यक है कामशास्त्र का अध्ययन किया जाए।
कुल मिलाकर इस श्लोक द्वारा चाणक्य ने स्त्री के स्वभाव का विश्लेषण किया है।
अध्याय का सार
यह भारतीय परंपरा रही है कि किसी भी शुभ कार्य को प्रारंभ करने से पहले देवी- देवताओं अथवा प्रभु का स्मरण किया जाए ताकि वह कार्य बिना किसी व्यवधान के सरलतापूर्वक सम्पन्न हो। 'चाणक्य नीति' का प्रमुख उ‌द्देश्य यह जानना है कि कौन-सा काम उचित है और कौन-सा अनुचित। आचार्य चाणक्य ने प्राचीन भारतीय नीतिशास्त्र में बताए गए नियमों के अनुसार ही इसे लिखा है। यह पूर्व अनुभवों का सार है। उनका कहना है कि लोग इसे पढ़कर अपने कर्तव्यों और अकर्तव्यों का भली प्रकार ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। सम-सामयिक राजनीति के ज्ञान में मनुष्य अपनी बुद्धि का पुट देकर समय के अनुसार अच्छाई और बुराई में भेद कर सकता है।
सबसे पहले आचार्य चाणक्य ने संग के महत्व पर प्रकाश डालते हुए यह बताया है कि दुष्ट लोगों के संसर्ग से बुद्धिमान मनुष्य को दुख उठाना पड़ता है। चाणक्य ने मनुष्य के जीवन में धन के महत्व को बताया है। उनका कहना है कि व्यक्ति को संकट के समय के लिए धन का संचय करना चाहिए। उस धन से अपने बाल-बच्चों तथा स्त्रियों की रक्षा भी करनी चाहिए। इसके साथ उनका यह भी कहना है कि व्यक्ति को अपनी रक्षा सर्वोपरि करनी चाहिए। जिन लोगों के पास धन है, वे किसी भी आपत्ति का सामना धन के द्वारा कर सकते हैं, परंतु उन्हें यह बात भी भली प्रकार समझ लेनी चाहिए कि लक्ष्मी चंचल है। वह तभी तक

टिक कर रहती है, जब तक उसका सदुपयोग किया जाता है। दुरुपयोग आरंभ करते ही लक्ष्मी चलती बनती है।
चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति को उसी स्थान पर रहना चाहिए जहां उसका सम्मान हो, जहाँ पर उसके भाई-बंधु हो, आजीविका के साधन हों। इसी संबंध में वह आगे कहते हैं कि जहां धनवान, वेद-शास्त्रों को जानने वाले विद्वान ब्राह्मण, राजा अथवा शासन-व्यवस्था, नदी और वैद्य आदि न हों, वहां भी नहीं रहना चाहिए। नौकरों की कार्यकुशलता का पता तभी चलता है, जब उन्हें कोई कार्य करने के लिए दिया जाता है। अपने संबंधियों और मित्रों की परीक्षा उस समय होती है, जब स्वयं पर कोई आपत्ति आती है। गृहस्थ का सबसे बड़ा सहारा उसकी स्त्री होती है, परंतु स्त्री की वास्तविकता भी उसी समय समझ में आती है, जब व्यक्ति पूरी तरह धनहीन हो जाता है।
मनुष्य को चाहिए कि वह अधिक लालच में न पड़े। उसे वही कार्य करना चाहिए जिसके संबंध में उसे पूरा ज्ञान हो। जिस कार्य के संबंध में उसे ज्ञान न हो, उसे करने से हानि हो सकती है। जिस कार्य का अनुभव न हो, उससे संबंधित निर्णय लेना कठिन होता है। निर्णय यदि ले लिया जाए, तो संशय की स्थिति मन को डगमगाती रहती है। ऐसा निर्णय कभी भी सही नहीं होता- 'संशयात्मा विनश्यति।' मन यदि संशय में हो तो वह रास्ते से भटकाता ही नहीं, गहरे और अंधेरे गड्ढे में फेंकता है। यदि आप ऐसे व्यवसायियों का जीवन देखें, जिन्होंने अपने क्षेत्र में ऊंचाइयों को छूआ है, तो आप पाएंगे कि उन्होंने अपने काम को समझने के लिए किसी दूसरे अनुभवी व्यक्ति के नीचे काम किया है। किताबी और व्यावहारिक जानकारी में जमीन-आसमान का अंतर होता है।
विवाह के संदर्भ में, चाणक्य ने कुल के भेदभाव की बात नहीं मानी है। उनका कहना है कि नीच कुल में उत्पन्न कन्या भी यदि अच्छे गुणों से युक्त है तो उससे विवाह करने में कोई हानि नहीं। जिन पर विश्वास नहीं करना चाहिए उनके बारे में आचार्य का कथन है कि सिंह और बाघ आदि तेज पंजों वाले जानवरों से दूर रहना चाहिए, ऐसी नदियों के आसपास भी नहीं रहना चाहिए, जिनके किनारे कच्चे हों और जो बरसात आदि के दिनों में लंबे-चौड़े मैदान में फैल जाती हों। इसी प्रकार लंबे सीगों वाले सांड़ आदि पशुओं से अपना बचाव रखना चाहिए। जिसके पास कोई हथियार है, उसका भी कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।

।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।।
दूसरा अध्याय
'मनसा चितितं कार्य' अर्थात मन से सोचे हुए कार्य को वाणी द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए, परंतु मननपूर्वक भली प्रकार सोचते हुए उसकी रक्षा करनी चाहिए और स्वयं चुप रहते हुए उस सोची हुई बात को कार्यरूप में बदलना चाहिए।
अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलुब्धता । 
अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः ।। 
झूठ बोलना, बिना सोचे-समझे किसी कार्य को प्रारंभ कर देना, दुस्साहस करना,
छलकपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्र रहना और निर्देयता-ये
स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। ।।1।। स्त्रियों में प्रायः ये दोष पाए जाते हैं-वे सामान्य बात पर भी झूठ बोल सकती हैं, अपनी शक्ति का विचार न करके अधिक साहस दिखाती हैं, छल-कपट पूर्ण कार्य करती हैं, मूर्खता, अधिक लोभ, अपवित्रता तथा निर्दयी होना, ये ऐसी बातें हैं जो प्रायः स्त्रियों के स्वभाव में होती हैं। ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं अर्थात अधिकांश स्त्रियों में ये होते हैं। अब तो स्त्रियां शिक्षित होती जा रही हैं। समय बदल रहा है। लेकिन आज भी अधिकांश अशिक्षित स्त्रियां इन दोषों से युक्त हो सकती हैं। इन दोषों को रखी की समाज में स्थिति और उसके परिणामस्वरूप बने उनके मनोविज्ञान के संदर्भ में देखना चाहिए।
भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वरांगना।
 विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ।।

भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का प्राप्त होना, उन्हें खाकर पचाने की शक्ति होना, सुंदर स्त्री का मिलना, उसके उपभोग के लिए कामशक्ति होना, धन के साथ-साथ दान देने की इच्छा होना-ये बातें मनुष्य को किसी महान तप के कारण प्राप्त होती हैं। 11211
भोजन में अच्छी वस्तुओं की कामना सभी करते हैं, परंतु उनका प्राप्त होना और उन्हें पचाने की शक्ति होना भी आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसकी पत्नी सुंदर हो, परंतु उसके उपभोग के लिए व्यक्ति में कामशक्ति भी होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसके पास धन हो, परंतु धन प्राप्ति के बाद कितने ऐसे लोग हैं, जो उसका सदुपयोग कर पाते हैं। धन का सदुपयोग दान में ही है। अच्छी जीवन संगिनी, शारीरिक शक्ति, पौरुष एवं निरोगता, धन तथा वक्त जरूरत पर किसी के काम आने की प्रवृत्ति आदि पूर्वजन्मों में किन्ही शुभ कर्मों द्वारा ही प्राप्त होते हैं। 'तपसः फलम्' का अर्थ है कठोर श्रम और आत्मसंयम।
यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दाऽनुगामिनी।
 विभवे यश्च सन्तुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि।।

जिसका बेटा वश में रहता है, पत्नी पति की इच्छा के अनुरूप कार्य करती है और जो व्यक्ति धन के कारण पूरी तरह संतुष्ट है, उसके लिए पृथ्वी ही स्वर्ग के समान है। ॥3।।
प्रत्येक व्यक्ति संसार में सुखी रहना चाहता है, यही तो स्वर्ग है। स्वर्ग में भी सभी प्रकार के सुखों को उपभोग करने की कल्पना की गई है। इस बारे में चाणक्य कहते हैं कि जिसका पुत्र वश में है, स्त्री जिसकी इच्छा के अनुसार कार्य करती है, जो अपने कमाए धन से संतुष्ट है, जिसे लोभ लालच और अधिक कमाने की चाह नहीं है, ऐसे मनुष्य के लिए किसी अन्य प्रकार के स्वर्ग की कल्पना करना व्यर्थ है। स्वर्ग तो वह जाना चाहेगा, जो यहां दुखी हो।
ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः स पिता यस्तु पोषकः।
 तन्मित्रं यस्य विश्वासः सा भार्या यत्र निर्वृतिः ।।

पुत्र उन्हें ही कहा जा सकता है जो पिता के भक्त होते हैं, पिता भी वही है जो पुत्रों का पालन-पोषण करता है, इसी प्रकार मित्र भी वही है जिस पर विश्वास किया जा सकता है और भार्या अर्थात पत्नी भी वही है जिससे सुख की प्राप्ति होती है। ।।4।।
चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थ सुखी है, जिसकी संतान उसके वश में है और उसकी आज्ञा का पालन करती है। यदि संतान पिता की आज्ञा का पालन नहीं करती तो घर में क्लेश और दुख पैदा होता है। चाणक्य के अनुसार पिता का भी कर्तव्य है कि वह अपनी संतान का पालन-पोषण भली प्रकार से करे। जिसने अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लिया हो, उसे पुत्र से भी भक्ति की आशा नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार मित्र के विषय में चाणक्य का मत है कि ऐसे व्यक्ति को मित्र कैसे कहा जा सकता है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता और ऐसी पत्नी किस काम की, जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो तथा जो

सदैव ही क्लेश करके घर में अशान्ति फैलाती हो।
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
 वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।।

जो पीठ पीछे कार्य को बिगाड़े और सामने होने पर मीठी-मीठी बातें बनाए, ऐसे मित्र को उस घड़े के समान त्याग देना चाहिए जिसके मुंह पर तो दूध भरा हुआ है परंतु अंदर विष हो। 11511
जो मित्र सामने चिकनी-चुपड़ी बातें बनाता हो और पीठ पीछे उसकी बुराई करके कार्य को बिगाड़ देता हो, ऐसे मित्र को त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध भरा है परंतु अंदर विष भरा हुआ हो। ऊपर से मीठे और अंदर से दुष्ट व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता। यहां एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि ऐसा मित्र आपके व्यक्तिगत और सामाजिक वातावरण को भी आपके प्रतिकूल बना देता है।
न विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चाऽपि न विश्वसेत्।
 कदाचित् कुपितं मित्रं सर्व गुह्यं प्रकाशयेत् ।।

जो मित्र खोटा है, उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए और जो मित्र है, उस पर भी जति विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा हो सकता है कि वह मित्र कभी नाराज होकर सारी गुप्त बातें प्रकट कर दे। ।।6।।
चाणक्य मानते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास करने का प्रश्न ही नहीं उठता, परंतु उनका यह भी कहना उचित है कि अच्छे मित्र के संबंध में भी पूरी तरह विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि किसी कारणवश यदि वह नाराज हो गया तो सारे भेद खोल देगा।
आज बड़े-बड़े नगरों में जो अपराध बढ़ रहे हैं, जो कुकर्म हो रहे हैं, उनके पीछे परिचित व्यक्ति ही अधिक पाए जाते हैं। 'घर का भेदी लंका ढाए'- यह कहावत गलत नहीं है। जो बहुत अच्छा मित्र बन जाता है, वह घर के सदस्य जैसा हो जाता है। व्यक्ति भावुक होकर उसे अपने सारे भेद बता देता है, फिर जब कभी मन-मुटाव उत्पन्न होते हैं तो वह कथित मित्र ही सबसे ज्यादा नुकसान देने वाला सिद्ध होता है। ऐसा मित्र जानता है आपके मर्मस्थल कौन से हैं। घर में काम करने वाले कर्मचारी के बारे में भी इस प्रकार की सावधानी रखना आवश्यक है।
मनसा चिन्तितं कार्य वाचा नैव प्रकाशयेत्।
 मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्ये चाऽपि नियोजयेत्।।

मन से सोचे हुए कार्य को वाणी द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए, परंतु मननपूर्वक भली प्रकार सोचते हुए उसकी रक्षा करनी चाहिए और चुप रहते हुए उस सोची हुई बात को

सदैव ही क्लेश करके घर में अशान्ति फैलाती हो।
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
 वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।।

जो पीठ पीछे कार्य को बिगाड़े और सामने होने पर मीठी-मीठी बातें बनाए, ऐसे मित्र को उस घड़े के समान त्याग देना चाहिए जिसके मुंह पर तो दूध भरा हुआ है परंतु अंदर विष हो। 11511
जो मित्र सामने चिकनी-चुपड़ी बातें बनाता हो और पीठ पीछे उसकी बुराई करके कार्य को बिगाड़ देता हो, ऐसे मित्र को त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध भरा है परंतु अंदर विष भरा हुआ हो। ऊपर से मीठे और अंदर से दुष्ट व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता। यहां एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि ऐसा मित्र आपके व्यक्तिगत और सामाजिक वातावरण को भी आपके प्रतिकूल बना देता है।
न विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चाऽपि न विश्वसेत्। 
कदाचित् कुपितं मित्रं सर्व गुह्यं प्रकाशयेत् ।।

जो मित्र खोटा है, उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए और जो मित्र है, उस पर भी अति विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा हो सकता है कि वह मित्र कभी नाराज होकर सारी गुप्त बातें प्रकट कर दें। 116।।
चाणक्य मानते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास करने का प्रश्न ही नहीं उठता, परंतु उनका यह भी कहना उचित है कि अच्छे मित्र के संबंध में भी पूरी तरह विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि किसी कारणवश यदि वह नाराज हो गया तो सारे भेद खोल देगा।
आज बड़े-बड़े नगरों में जो अपराध बढ़ रहे हैं, जो कुकर्म हो रहे हैं, उनके पीछे परिचित व्यक्ति ही अधिक पाए जाते हैं। 'घर का भेदी लंका ढाए'- यह कहावत गलत नहीं है। जो बहुत अच्छा मित्र बन जाता है, वह घर के सदस्य जैसा हो जाता है। व्यक्ति भावुक होकर उसे अपने सारे भेद बता देता है, फिर जब कभी मन-मुटाव उत्पन्न होते हैं तो वह कथित मित्र ही सबसे ज्यादा नुकसान देने वाला सिद्ध होता है। ऐसा मित्र जानता है आपके मर्मस्थल कौन से हैं। घर में काम करने वाले कर्मचारी के बारे में भी इस प्रकार की सावधानी रखना आवश्यक है।
मनसा चिन्तितं कार्य वाचा नैव प्रकाशयेत्।
 मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्ये चाऽपि नियोजयेत् ।।

मन से सोचे हुए कार्य को वाणी द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए, परंतु मननपूर्वक भली प्रकार सोचते हुए उसकी रक्षा करनी चाहिए और चुप रहते हुए उस सोची हुई बात को

कार्यरूप में बदलना चाहिए। ।।7।।
आचार्य का कहना है कि व्यक्ति को कभी किसी को अपने मन का भेद नहीं देना चाहिए। जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखें और समय आने पर पूरा करें। कुछ लोग किए जाने वाले कार्य के बारे में गाते रहते हैं। इस प्रकार उनकी बात का महत्व कम हो जाता है और यदि किसी कारणवश वह व्यक्ति उक्त कार्य को पूरा न कर सके तो उसकी हंसी होती है। इससे व्यक्ति का विश्वास भी कम होता है। फिर कुछ समय बाद ऐसा होता है कि लोग उसकी बातों पर ध्यान नहीं देते। उसे बे-सिर-पैर की हांकने वाला समझ लिया जाता है। अतः बुद्धिमान को कहने से अधिक करने के प्रति प्रयत्नशील होना चाहिए।
कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम्।
 कष्टं तु कष्टतरं चैव परगेहनिवासनम् ।।

मूर्खता और जवानी निश्चित रूप से दुखदायक होती है। दूसरे के घर में निवास करना अर्थात किसी पर आश्रित होना तो अत्यन्त कष्टदायक होता है। 11811
मूर्ख होना कष्टदायक है, क्योंकि वह स्वयं को, अपनों को और दूसरों को एक समान हानि पहुंचाता है। मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी इसलिए माना गया है क्योंकि उसमें व्यक्ति काम, क्रोध आदि विकारों के आवेग में उत्तेजित होकर कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है, जिसके कारण उसे उसके अपनों और दूसरे लोगों को अनेक कष्ट उठाने पड़ सकते हैं। चाणक्य कहते हैं कि ये बातें तो कष्टदायक हैं ही परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरे के घर में रहना, क्योंकि दूसरे के घर में रहने से व्यक्ति की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है, जिससे व्यक्तित्व का पूर्णरूप से विकास नहीं हो पाता
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
 साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ।।

सभी पहाड़ों पर रत्न और मणियां नहीं मिलतीं। न ही प्रत्येक हाथी के मस्तक में गजमुक्ता नामक मणि होती है। प्रत्येक वन में चंदन भी उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार सज्जन पुरुष सब स्थानों पर नहीं मिलते। ।।9।।
आचार्य चाणक्य के अनुसार प्रत्येक स्थान पर सब कुछ उपलब्ध नहीं होता। विशिष्ट वस्तुएं विशेष स्थानों पर ही होती हैं। उन्हें वहीं ढूंढना चाहिए और उसी के अनुसार उनका मूल्यांकन भी करना चाहिए।
माणिक्य एक लाल रंग का बहुमूल्य रत्न होता है जो सभी पर्वतों पर अथवा खानों में प्राप्त नहीं हो सकता। ऐसी मान्यता है कि विशिष्ट हाथियों के माथे में एक बहुमूल्य मोती होता है। सब जंगलों और वनों में चंदन के वृक्ष जिस प्रकार नहीं मिलते, उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति भी सभी स्थानों पर दिखाई नहीं देते अर्थात श्रेष्ठ वस्तुएं मिलनी दुर्लभ होती हैं।
पुत्राश्च विविधैः शीलैर्नियोज्याः सततं बुधैः ।

नीतिज्ञाः शीलसम्पन्ना भवन्ति कुलपूजिताः ।।
बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वह अपने पुत्र और पुत्रियों को अनेक प्रकार के अच्छे गुणों से युक्त करें। उन्हें अच्छे कार्यों में लगाएं, क्योंकि नीति जानने वाले और अच्छे गुणों से युक्त सज्जन स्वभाव वाले व्यक्ति ही कुल में पूजनीय होते हैं। ।।10।।
चाणक्य कहते हैं कि बचपन में बच्चों को जैसी शिक्षा दी जाएगी, उनके जीवन का विकास उसी प्रकार का होगा, इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएं, जिससे उनमें चातुर्य के साथ-साथ शील स्वभाव का भी विकास हो। गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा होती है।
माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
 न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।

वे माता-पिता बच्चों के शत्रु हैं, जिन्होंने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया नहीं, क्योंकि अनपढ़ बालक विद्वानों के समूह में शोभा नहीं पाता, उसका सदैव तिरस्कार होता है। विद्वानों के समूह में उसका अपमान उसी प्रकार होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है। ।।11日
केवल मनुष्य जन्म लेने से ही कोई बुद्धिमान नहीं हो जाता। उसके लिए शिक्षित होना अत्यन्त आवश्यक है। शक्ल-सूरत, आकार-प्रकार तो सभी मनुष्यों का एक जैसा होता है, अंतर केवल उनकी विद्वत्ता से ही प्रकट होता है। जिस प्रकार सफेद बगुला सफेद हंसों में बैठकर हंस नहीं बन सकता, उसी प्रकार अशिक्षित व्यक्ति शिक्षित व्यक्तियों के बीच में बैठकर शोभा नहीं पा सकता। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें, जिससे वे समाज की शोभा बन सकें।
लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः। 
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत् ।।

लाड़-दुलार से पुत्रों में बहुत से दोष उत्पन्न हो जाते हैं। उनकी ताड़ना करने से अर्थात दंड देने से उनमें गुणों का विकास होता है, इसलिए पुत्रों और शिष्यों को अधिक लाड़-दुलार नहीं करना चाहिए, उनकी ताड़ना करते रहनी चाहिए। ।।12।।
यह ठीक है कि बच्चों को लाड़-प्यार करना चाहिए, किंतु अधिक लाड़-प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष भी उत्पन्न हो सकते हैं। माता-पिता का ध्यान प्रेमवश उन दोषों की ओर नहीं जाता। इसलिए बच्चे पदि कोई गलत काम करते हैं तो उन्हें पहले ही समझा-बुझाकर उस गलत काम से दूर रखने का प्रयत्न करना चाहिए। बच्चे के द्वारा गलत काम करने पर, उसे नजरअंदाज करके लाड़-प्यार करना उचित नहीं। बच्चे को डांटना भी चाहिए। किए गए अपराध के लिए दंडित भी करना चाहिए ताकि उसे सही-गलत की समझ आए।
श्लोकेन वा तदर्थेन पादेनैकाक्षरेण वा।

अबन्ध्यं दिवसं कुर्याद् दानाध्ययन कर्मभिः।।
व्यक्ति को एक वेदमंत्र का अध्ययन, चिंतन अथवा मनन करना चाहिए। यदि वह पूरे मंत्र का चिंतन-मनन नहीं कर सकता तो उसके आधे अथवा उसके एक भाग का और यदि एक भाग का भी नहीं तो एक अक्षर का ही प्रतिदिन अध्ययन करे, ऐसा नीतिशास्त्र का आदेश है। अपने दिन को व्यर्थ न जाने दें। अध्ययन आदि अच्छे कार्यों को करते हुए अपने दिन को सार्थक बनाने का प्रयत्न करें।।।1311
चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य जन्म बड़े भाग्य से मिलता है, इसलिए उसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए-व्यक्ति को चाहिए कि वह अपना समय, अपना दिन वेदादि शास्त्रों के अध्ययन में ही बिताए तथा उसके साथ-साथ दान आदि अच्छे कार्य भी करे। महान पुरुषों की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा गया है- 'व्यसनं श्रुतौ' अर्थात् श्रेष्ठ ग्रंर्थों का अध्ययन करना उनका व्यसन होता है।
कान्तावियोगः स्वजनापमानः ऋणस्य शेषः कुनृपस्य सेवा।
 दरिद्रभावो विषमा सभा च विनाग्निनैते प्रदहन्ति कायम्।।

पत्नी का बिछुड़ना, अपने बंधु-बांधवों से अपमानित होना, कर्ज चढ़े रहना, दुष्ट अथवा बुरे मालिक की सेवा में रहना, निर्धन बने रहना, दुष्ट लोगों और स्वार्थियों की सभा अथवा समाज में रहना, ये सब ऐसी बातें हैं, जो बिना अग्नि के शरीर को हर समय जलाती रहती हैं। ।।14।।
सज्जन लोग अपनी पत्नी के वियोग को सहन नहीं कर सकते। यदि उनके अपने भाई-बन्धु उनका अपमान अथवा निरादर करते हैं तो वह उसे भी नहीं भुला सकते। जो व्यक्ति कर्जे से दबा है, उसे हर समय कर्ज न उतार पाने का दुख रहता है। दुष्ट राजा अधवा मालिक की सेवा में रहने वाला नौकर भी हर समय दुखी रहता है। निर्धनता तो ऐसा अभिशाप है, जिसे मनुष्य सोते और उठते-बैठते कभी नहीं भुला पाता। उसे अपने स्वजनों और समाज में बार-बार अपमानित होना पड़ता है।
अपमान का कष्ट मृत्यु के समान है। ये सब बातें ऐसी हैं, जिनसे बिना आग के ही व्यक्ति अंदर-ही-अंदर जलता रहता है। जीते-जी चिता का अनुभव करने की स्थिति है यह।
नदीतीरे च ये वृक्षाः परगेहेषु कामिनी।
मन्त्रिहीनाश्च राजानः शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम्।।

जो वृक्ष बिलकुल नदी के किनारे पैदा होते हैं, जो स्त्री दूसरों के घर में रहती है और जिस राजा के मंत्री अच्छे नहीं होते वे जल्दी ही नष्ट हो जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है। ।। 1511

नदी के किनारे के वृक्षों का जीवन कितने दिन का हो सकता है, यह कोई नहीं कह सकता, क्योंकि बाड़ तथा तूफान के समय नदियां अपने किनारे के पेड़ों को ही क्या, अपने आसपास की फसलों और बस्तियों को भी उजाड़ देती हैं। इसी प्रकार दूसरे घरों में रहने वाली स्त्री कब तक अपने आपको बचा सकती है? जिस राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते, वह कब तक अपने राज्य की रक्षा कर सकता है? अर्थात ये सब निश्चयपूर्वक जल्दी ही नष्ट हो जाते हैं।
बलं विद्या च विप्राणां राज्ञां सैन्यं बलं तथा।
 बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां परिचर्यकम् ।।

ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना, व्यापारियों का बल उनका धन है और शूद्रों का बल दूसरों की सेवा करना है। ।।16।।
ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि विद्या ग्रहण करें। राजाओं का कर्तव्य यह है कि सैनिकों द्वारा वे अपने बल को बढ़ाते रहें। वैश्यों को चाहिए कि वे पशु-पालन और व्यापार द्वारा धन बढ़ाएं, शूद्रों का बल सेवा है।
चाणक्य ने इस श्लोक में चारों वर्णों के कर्तव्यों की ओर संकेत किया है। उनके अनुसार-चारों वर्णों को अपने-अपने कार्यों में निपुण होना चाहिए। समाज में किसी की स्थिति कम नहीं है। समय के अनुसार परिस्थितियां बदलती हैं, संभवतः किसी समय जन्म के अनुसार चारों वर्ण माने जाते जाते रहे हों, परंतु तथ्य यह है। कि वर्षों की मान्यता कार्यों पर निर्भर करती है।
इसलिए किसी भी कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति शिक्षा के क्षेत्र में है, तो उसे ब्राह्मण ही माना जाएगा। जो व्यक्ति व्यापार करता है, कृषि कार्य में लगा है, पशु-पालन करता है, उसे वैश्य माना जाएगा। जो सेना में भर्ती हैं अथवा सेना से संबंधित कार्य कर रहा है, उसे क्षत्रिय कहा जाएगा। शेष व्यक्ति शूद्रों की श्रेणी में आते हैं। शूद्र भी शिक्षित हो सकता है। परंतु किसी भी वर्ण में पैदा हुआ व्यक्ति, जो लोगों की सेवा के कार्य में लगा है, उसे शुद्र माना जाएगा-शूद्र का अर्थ नीच नहीं है। आज्ञापालन की भावना शूद्र का विशेष गुण है। प्रायः इस श्रेणी के लोग मानसिक रूप से संतुष्ट होते हैं।
निर्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत्।
खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चाऽभ्यागता गृहम्।।

वेश्या निर्धन पुरुष को, प्रजा पराजित राजा को, पक्षी फलहीन वृक्षों को और अचानक आया हुआ अतिथि भोजन करने के बाद घर को त्यागकर चले जाते हैं। ।।17।।
आचार्य ने यहां संबंधों की सार्थकता की ओर संकेत किया है। कोई तभी तक संबंध रखता है, जब तक उसके स्वार्थ की पूर्ति होती है।
वेश्या का धंधा परपुरुषों से धन लूटना होता है। धन के समाप्त होने पर वह मुंह मोड़

लेती है। प्रजा प्रतापी राजा को ही सम्मान देती है। जब वह शक्तिहीन हो जाता है तो प्रजा राजा का साथ छोड़ देती है। इसी प्रकार प्रकृति के सामान्य नियम के अनुसार वृक्षों पर रहने वाले पक्षी तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं, जब तक वहां से उन्हें छाया और फल प्राप्त होते रहते हैं। घर में अचानक आने वाले अतिथि का जब भोजन-पान आदि से स्वागत सत्कार कर दिया जाता है तो वह भी सामाजिक नियम के अनुसार विदा लेकर अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ता है। भाव यह है कि व्यक्ति को अपने सम्मान की रक्षा का स्वयं ध्यान रखना चाहिए। उसे अपेक्षा करते समय संबंधों के स्वरूप को सही प्रकार से समझना चाहिए। किसी स्थान, व्यक्ति या वस्तु से आवश्यकता से अधिक लगाव नहीं रखना चाहिए।
गृहीत्वा दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम्।
प्राप्तविद्या गुरुं शिष्या दग्धाऽरण्यं मृगास्तथा।।

ब्राह्मण दक्षिणा प्राप्त करने के बाद यजमान का घर छोड़ देते हैं, विद्या प्राप्त करने के बाद शिष्य गुरु के आश्रम से विदा ले लेता है, वन में आग लग जाने पर वहां रहने वाले हिरण आदि पशु उस जंगल को छोड़कर किसी दूसरे जंगल की ओर चल देते हैं। 111811
यह श्लोक भी उसी बात की पुष्टि करता है, जिसे पहले कहा गया है। यदि कोई व्यक्ति किसी विशेष कार्य के कारण किसी के पास जाता है, तो अपना कार्य सिद्ध हो जाने पर उसे वह स्थान छोड़ देना चाहिए, जिस प्रकार ब्राह्मण लोग यजमान के किसी कार्य की पूर्ति के बाद दक्षिणा प्राप्त हो जाने पर आशीर्वाद देकर वहां से चले जाते हैं। शिष्य भी विद्या की प्राप्ति के बाद गुरुकुल छोड़कर अपने-अपने घर चले जाते हैं। जब किसी जंगल में आग लग जाती है तो वहां रहने वाले पशु भी उस जंगल को छोड़कर किसी दूसरे जंगल की खोज में चल पड़ते हैं अर्थात व्यक्ति को अपना कार्य समाप्त हो जाने पर किसी के यहां डेरा डालने की मंशा नहीं करनी चाहिए।
दुराचारी दुरदृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जनः।
 यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्रं विनश्यति ।।

बुरे चरित्र वाले, अकारण दूसरे को हानि पहुंचाने वाले तथा गंदे स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है। 111911
सभी साधु-संतों, ऋषि-मुनियों का कहना है कि दुर्जन का संग नरक में वास करने के समान होता है, इसलिए मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके, दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ दें।
आचार्य ने यहां यह भी संकेत किया है कि मित्रता करते समय यह भली प्रकार से जांच-परख लेना चाहिए कि जिससे मित्रता की जा रही है, उसमें ये दोष तो नहीं हैं। यदि ऐसा है, तो उससे होने वाली हानि से बच पाना संभव नहीं। इसलिए ज्यादा अच्छा है कि उससे दूर ही रहा जाए।
समाने शोभते प्रीतिः राज्ञि सेवा च शोभते।
 वाणिज्यं व्यवहारेषु दिव्या स्त्री शोभते गृहे ।।

प्रेम व्यवहार बराबरी वाले व्यक्तियों में ही ठीक रहता है। यदि नौकरी करनी ही हो तो राजा की नौकरी करनी चाहिए। कार्य अथवा व्यवसाय में सबसे अच्छा काम व्यापार करना है। इसी प्रकार उत्तम गुणों वाली स्त्री की शोभा घर में ही है। 120।।
अपनी बराबरी वाले व्यक्ति से प्रेम संबंध शोभा देता है। असमानता सामने आए बिना नहीं रहती, तब प्रेम शत्रुता में बदल जाता है। इसलिए क्यों न पहले ही ध्यान रखा जाए। इसी प्रकार यदि व्यक्ति को को नौकरी तथा किसी सेवा कार्य में जाना है तो उसे प्रयत्न करना चाहिए कि सरकारी सेवा प्राप्त हो, क्योंकि उसमें एक बार प्रवेश करने पर अवकाश प्राप्त होने तक किसी विशेष प्रकार का झंझट नहीं रहता।
फिर वह निर्दिष्ट नियमों से संचालित होता है, न कि किसी व्यक्ति विशेष के आदेशों से। यदि अन्य कार्य करना पड़े तो व्यक्ति अपना ही कोई रुचि का व्यापार करे। गुणयुक्त स्त्री से घर की शोभा है और घर में अपनी मर्यादाओं और कर्तव्यों का पालन करते हुए स्त्री भी अपने सद्‌गुणों की रक्षा कर सकती है।
अध्याय का सार
इस अध्याय के प्रारंभ में ही स्त्रियों की ओर ध्यान दिलाया गया है। देखा जाए तो दोष तो सभी में होता है। कुछ के पास अनेक पदार्थ होते हैं, परंतु वे या तो उनका उपभोग नहीं जानते अथवा फिर उनमें उपभोग की शक्ति नहीं होती। इस अध्याय में यह भी बताया गया है कि कौन-सा परिवार सुखी रहता है। सुख उसी परिवार को प्राप्त होता है, जहां सब एक- दूसरे का सम्मान करते हैं, एक-दूसरे में श्रद्धा रखते हैं- अर्थात पुत्र को पिता और पिता को पुत्र का ध्यान रखना चाहिए।
यह संसार बड़ा विचित्र है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो सामने तो मीठी बातें करते हैं, परंतु पीठ पीछे बुराइयां करते हैं। ऐसे लोगों से बचना चाहिए। चाणक्य तो यहां तक कहते हैं कि मन से सोची हुई बात का वाणी से भी उल्लेख नहीं करना चाहिए अर्थात अपना रहस्य अपने मित्र को भी नहीं बताना चाहिए। मूर्खता तो कष्टदायक होती ही है, जवानी और दूसरे के घर में आश्रित होकर रहना भी भारी दुख देने वाला होता है। उसके साथ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि श्रेष्ठ और उत्तम वस्तुएं तथा सज्जन लोग सब स्थानों पर प्राप्त नहीं होते।
चाणक्य ने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि माता-पिता को चाहिए कि वे अपनी संतान को गुणवान बनाएं, उनका ध्यान रखें और उन्हें बिगड़ने न दें। आचार्य कहते हैं कि व्यक्ति को चाहिए कि वह अपना समय सार्थक बनाए, अच्छा कार्य करे। इसके साथ उनका कहना है कि सब लोगों को अपना कार्य अर्थात कर्तव्य पूरा करना चाहिए।
कौटिल्य ने मनुष्य को बार-बार सचेत किया है कि उसे वास्तविकता समझनी चाहिए, गफलत में नहीं रहना चाहिए। उसे यह ज्ञात होना चाहिए कि वेश्या का प्रेम एक धोखा है। इसलिए उसे इस प्रकार की स्त्रियों तथा दुष्ट पुरुषों से बचना चाहिए। उसे चाहिए कि वह प्रेम और मित्रता अपने बराबर वालों से ही रखे।

।। अथ तृतीयोऽध्यायः ।।
तीसरा अध्याय
जहां मूखों की पूजा नहीं होती, जहां अन्न आदि काफी मात्रा में इकट्ठे रहते हैं, जहां पति-पत्नी में किसी प्रकार का कलह, लड़ाई-झगड़ा नहीं, ऐसे स्थान पर लक्ष्मी स्वयं आकर निवास करने लगती है।
कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीडितः।
 व्यसनं केन न सम्प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम्।।

संसार में ऐसा कौन-सा कुल अथवा वंश है, जिसमें कोई-न-कोई दोष अथवा अवगुण न हो, प्रत्येक व्यक्ति को किसी-न-किसी रोग का सामना करना ही पड़ता है, ऐसा मनुष्य कौन-सा है, जो व्यसनों में न पड़ा हो और कौन ऐसा है जो सदा ही सुखी रहता हो, क्योंकि प्रत्येक के जीवन में संकट तो आते ही हैं। 11111
आचार्य चाणक्य ने यह बात ठीक ही कही है कि कोई विरला ही वंश अथवा कुल ऐसा हो, जिसमें किसी प्रकार का दोष न हो। इसी तरह सभी व्यक्ति कभी-न-कभी किसी रोग से पीड़ित होते हैं। जो मनुष्य किसी बुरी लत में पड़ जाता है अथवा जिसे बुरे काम करने की आदत पड़ जाती है, उसे भी दुख उठाने पड़ते हैं। संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसे सदा सुख ही मिलता रहा हो और संकटों ने उसे कभी न घेरा हो। अर्थात कोई मनुष्य पूर्ण नहीं। कोई न कोई दुख सभी को लगा ही हुआ है।
आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम्।
 सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम्।।

मनुष्य के व्यवहार से उसके कुल का ज्ञान होता है। मनुष्य की बोल-चाल से इस बात का पता चलता है कि वह कहां का रहने वाला है, वह जिस प्रकार का मान-सम्मान किसी को देता है, उससे उसका प्रेम प्रकट होता है और उसके शरीर को देखकर उसके भोजन की मात्रा का अनुमान लगाया जा सकता है। ।।2।।
मनुष्य जिस प्रकार का व्यवहार करता है, उससे उसके कुल का ज्ञान भली-प्रकार हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य की भाषा और बोलचाल से उसके देश-प्रदेश अथवा रहने के स्थान का पता चलता है। मनुष्य जिस प्रकार का किसी के प्रति आदर प्रकट करता है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उसका स्वभाव कैसा है। इसी प्रकार उसके शरीर की बनावट
देखकर उसके खाने की मात्रा का अनुमान होता है।
बनावट और उसका व्यवहार किसी भी मनुष्य के मन की स्थिति को पूरी तरह से बता देता है। लेकिन इसके लिए अनुभव अपेक्षित है।
सुकुले योजयेत्कन्यां पुत्रं विद्यासु योजयेत्। 
व्यसने योजयेच्छत्रुं मित्रं धर्मे नियोजयेत् ।।

समझदार व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपनी कन्या का विवाह किसी अच्छे कुल में करे, पुत्र को अच्छी शिक्षा दे। उसे इस प्रकार की शिक्षा दे, जिससे उसका मान-सम्मान बढ़े। शत्रु को किसी ऐसे व्यसन में डाल दे, जिससे उसका बाहर निकलना कठिन हो जाए और अपने मित्र को धर्म के मार्ग में लगाए। ।।3।।
प्रत्येक माता-पिता का कर्तव्य है कि अपनी पुत्री का विवाह किसी अच्छे परिवार में ही करें। 'अच्छा कुल' अर्थात् जो संस्कारित हो और शिक्षित भी। उन्हें चाहिए कि वह अपनी संतान को विद्वान बनाएं, ताकि उनका अपना कुल भी गुण-संपन्न हो।
शत्रु के संबंध में व्यसन की बात चाणक्य ने जिस प्रकार से कही है, उससे प्रकट होता है कि वे कितनी दूर की बात सोचते थे। आज भी देखने में आता है कि बहुत से पड़ोसी देश अपने विकास में लगे हुए देशों को मार्ग से भटकाने के लिए लोगों में धन का लालच पैदा करके उन्हें नशीले पदार्थों के व्यापार में लगाने का प्रयत्न करते हैं। आज पहले सी परिस्थितियां नहीं रह गई हैं, परस्पर युद्ध की संभावना बहुत कम हो गई है। इसीलिए दूसरे देश को कमजोर बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाए जाते हैं। नशे की लत में एक बार फंसने पर निकलना कठिन होता है। व्यसनी व्यक्ति मानसिक रूप से कमजोर हो जाता है और ऐसा शत्रु यदि जीवित भी रहे, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। मित्र को सदैव श्रेष्ठ
कार्यों की ओर प्रेरित करते रहना चाहिए।
दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः । 
सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे ।।

दुष्ट व्यक्ति और सांप, इन दोनों में से किसी एक को चुनना हो तो दुष्ट व्यक्ति की

अपेक्षा सांप को चुनना ठीक होगा, क्योंकि सांप समय आने पर ही काटेगा, जबकि दुष्ट व्यक्ति हर समय हानि पहुंचाता रहेगा। ।।4।।
चाणक्य ने यहां स्पष्ट किया है कि दुष्ट व्यक्ति सांप से भी अधिक हानिकर होता है। सांप तो आत्मरक्षा के लिए आक्रमण करता है, परंतु दुष्ट व्यक्ति अपने स्वभाव के कारण सदैव किसी-न-किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाता ही रहता है। इस प्रकार दुष्ट व्यक्ति सांप से भी अधिक घातक होता है।
एतदर्थ कुलीनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम्। 
आदिमध्याऽवसानेषु न त्यजन्ति च ते नृपम्।।

राजा लोग कुलीन व्यक्तियों को अपने पास इसलिए रखते हैं कि वे राजा की उन्नति के समय, उसका ऐश्वर्य समाप्त हो जाने पर तथा विपत्ति के समय भी उसे नहीं छोड़ते। ।।

राजा लोग अथवा राजपुरुष राज्य के महत्वपूर्ण पदों और स्थानों पर उत्तम कुल वाले व्यक्तियों को ही नियुक्त करते हैं, क्योंकि उनमें उच्च संस्कारों तथा अच्छी शिक्षा के कारण एक विशिष्टता होती है, वे राजा के हर काम में सहायक होते हैं। वे उसकी उन्नति के समय अथवा सामान्य-मध्यम स्थिति में तथा संकट आने के समय भी साथ नहीं छोड़ते। कुलीन व्यक्ति अवसरवादी नहीं, आदर्शवादी होता है।
यदि इस बात को आज के संदर्भ में भी देखा जाए तो स्वार्थी और नीच कुल के व्यक्ति ही अपना स्वार्थ सिद्ध होने पर दल-बदल कर लेते हैं और अपने दल का साथ छोड़ देते हैं। परोक्ष रूप से चाणक्य लोगों को सचेत करना चाहते हैं कि सहयोगियों का चुनाव करते समय कुल और संस्कारों का विचार अवश्य करना चाहिए।
प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः।
 सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः ।।

समुद्र भी प्रलय की स्थिति में अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर देते हैं और किनारों को लांघकर सारे प्रदेश में फैल जाते हैं, परंतु सज्जन व्यक्ति प्रलय के समान भयंकर विपत्ति और कष्ट आने पर भी अपनी सीमा में ही रहते हैं, अपनी मर्यादा नहीं छोड़ते । ।।6।।
विशाल सागर बहुत गंभीर रहता है, परंतु चाणक्य धैर्यवान गंभीर व्यक्ति को सागर की अपेक्षा श्रेष्ठ मानते हैं। प्रलय के समय सागर अपनी सारी मर्यादा भूल जाता है, अपनी सभी सीमाएं तोड़ देता है और जल-थल एक हो जाता है, परन्तु श्रेष्ठ व्यक्ति अनेक संकटों को सहन करता है और अपनी मर्यादाएं कभी पार नहीं करता।
मूर्खस्तु परिहर्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः।
 भिनत्ति वाक्यशल्येन अदृष्टः कण्टको यथा ।।

मूर्ख व्यक्ति से दूर ही रहना चाहिए, क्योंकि मनुष्य दिखता हुआ भी वह दो पैरों वाले
पशु के समान है। वह सज्जनों को उसी प्रकार कष्ट पहुंचाता रहता है, जैसे शरीर में चुभा हुआ कांटा शरीर को निरंतर पीड़ा देता रहता है। ।।711
कांटा छोटा होने के कारण अदृश्य हो जाता है और शरीर में धंस जाता है। मूर्ख की भी यही स्थिति है। वह भी अनजाने में दुख और पीड़ा का कारण बनता है। अकसर लोग मूर्ख की ओर भी ध्यान नहीं देते, वे उसे साधारण मनुष्य ही समझते हैं।
रूपयौवनसम्पन्नाः विशालकुलसम्भवाः।
 विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ।।

सुंदर रूप वाला, यौवन से युक्त, ऊंचे कुल में उत्पन्न होने पर भी विद्या से हीन मनुष्य सुगंधरहित ढाक अथवा टेसू के फूल की भांति उपेक्षित रहता है, प्रशंसा को प्राप्त नहीं होता। 11811
यदि किसी व्यक्ति ने अच्छे कुल में जन्म लिया है और देखने में भी उसका शरीर सुंदर है, परंतु यदि वह भी विद्या से हीन है तो उसकी स्थिति भी ढाक के उसी फूल के समान होती है, जो गंधरहित होता है। ढाक का फूल देखने में सुंदर और बड़ा होता है, परंतु जब लोग यह देखते हैं कि उसमें किसी प्रकार की सुगंध नहीं है तो वे उसकी उपेक्षा कर देते हैं। न तो वह किसी देवता के पूजन में चढ़ाया जाता है, न ही साज-शृंगार में उसका उपयोग किया जाता है।
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम्।
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ।।

कोयल का सौंदर्य उसके स्वर में है, उसकी मीठी आवाज में है, स्त्रियों का सौंदर्य उनका पतिव्रता होना है, कुरूप लोगों का सौंदर्य उनके विद्यावान होने में और तपस्वियों की सुंदरता उनके क्षमावान होने में है। 11911
भाव यह है कि व्यक्ति का सौंदर्य उसके गुणों में छिपा रहता है। जिस प्रकार कोयल और कौआ दोनों काले होते हैं, परंतु कोयल की मीठी कूक सभी को पसंद होती है, यही मीठा स्वर उसका सौंदर्य है, इसी प्रकार स्त्रियां वे ही सुंदर मानी जाती हैं, जो पतिव्रता होती हैं अर्थात स्त्री का सौंदर्य उसका पातिव्रत धर्म है। समाज में भी पति-परायणा स्त्री को ही सम्मान प्राप्त है, उसी की लोगों द्वारा सराहना की जाती है। शरीर से कुरूप व्यक्ति भी विद्या के कारण आदर का पात्र बन जाता है जैसे सत्यवती पुत्र व्यास। तप करने वाले व्यक्ति की शोभा उसकी क्षमाशीलता के कारण होती है। महर्षि भृगु ने 'क्षमा' करने की विशेषता के कारण ही श्रीविष्णु को देवताओं में श्रेष्ठ घोषित किया था।
त्यजेदेकं कुलस्याऽर्थे ग्रामस्याऽर्थे कुलं त्यजेत्।
 ग्रामं जनपदस्याऽर्थे आत्माऽर्थे पृथिवीं त्यजेत्।।

यदि एक व्यक्ति का त्याग करने से कुल की रक्षा होती है, उन्नति होती है, सुख-शांति

मिलती है तो उस एक व्यक्ति को छोड़ देना चाहिए, उसका त्याग कर देना चाहिए। ग्राम के हित के लिए कुल छोड़ देना चाहिए। यदि एक गांव को छोड़ने से पूरे जिले का कल्याण हो, तो उस गांव को भी छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए सारे भूमंडल का ही त्याग कर देना चाहिए। ।।10।।
छोटे स्वार्थों के त्याग की ओर संकेत करता है यह श्लोक। इस दृष्टि से 'स्व' ही सर्वश्रेष्ठ है अर्थात् यदि व्यक्ति अपनी उन्नति में किसी चीज को बाधक समझता है तो उसका त्याग कर देने में देर नहीं करनी चाहिए-वह कितनी भी मूल्यवान क्यों न हो।
उद्योगे नास्ति दारिद्र्यं जपतो नास्ति पातकम्। 
मौने च कलहो नास्ति नास्ति जागरिते भयम्।।

उद्योग अर्थात पुरुषार्थ करने वाला व्यक्ति दरिद्र नहीं हो सकता, प्रभु का नाम जपते रहने से मनुष्य पाप में लिप्त नहीं होता, मौन रहने पर लड़ाई-झगड़े नहीं होते तथा जो व्यक्ति जागता रहता है अर्थात सतर्क रहता है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता। ।।11।।
जो व्यक्ति निरंतर परिश्रम करते रहते हैं, उनकी गरीबी स्वयं दूर हो जाती है। परिश्रम करके भाग्य को भी अपने वश में किया जा सकता है। जो व्यक्ति सदैव प्रभु का स्मरण करता रहता है, अपने हृदय में सदैव उसे विद्यमान समझता है, वह पापकार्य में प्रवृत्त नहीं होता। श्लोक के दूसरे भाग में कहा गया है कि मौन रहने से लड़ाई-झगड़ा नहीं होता अर्थात् विवादों का समाधान है मौन। यह बात जीवन के सभी पक्षों पर लागू होती है। जो व्यक्ति सावधान रहता है, सतर्क रहकर अपने कार्य करता है, उसे किसी भी प्रकार के भय की आशंका नहीं रहती। जिस व्यक्ति को आलस्य, असावधानी और गफलत में रहने की आदत है, उसे हर स्थान पर हानि उठानी पड़ती है। उसका न तो आज है, न कल।
अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वेण रावणः। 
अतिदानात् बलिर्बद्धो अति सर्वत्र वर्जयेत् ।।

अत्यंत रूपवती होने के कारण ही सीता का अपहरण हुआ, अधिक अभिमान होने के कारण रावण मारा गया, अत्यधिक दान देने के कारण राजा बलि को कष्ट उठाना पड़ा, इसलिए किसी भी कार्य में अति नहीं करनी चाहिए। अति का सर्वत्र त्याग कर देना चाहिए। 111211
चाणक्य ने यहां इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण देकर यह समझाने का प्रयत्न किया है कि प्रत्येक कार्य की एक सीमा होती है। जब उसका अतिक्रमण हो जाता है तो व्यक्ति को कष्ट उठाना पड़ता है। सीता अत्यंत रूपवती थीं, इसी कारण उनका अपहरण हुआ। इसी प्रकार रावण यद्यपि अत्यंत बलवान और समृद्ध राजा था, परंतु अभिमान की सभी सीमाएं लांघ गया, परिणामस्वरूप उसे अपने स्वजनों के साथ मौत के घाट उतरना पड़ा। राजा बलि के संबंध में सभी जानते हैं कि वह अत्यंत दानी था। उसके दान के कारण जब उसका यश सारे संसार में फैलने लगा तो देवता लोग भी चिन्तित हो उठे। तब भगवान विष्णु ने वामन का

अवतार लेकर उससे तीन पग धरती दान में मांगी। बलि के गुरु शुक्राचार्य ने उसे सावधान भी किया, परंतु बलि ने उनकी बात न मानकर वामन बने विष्णु की बात मान ली और भगवान ने तीन पगों में धरती, स्वर्ग और पाताल-तीनों लोकों को नापकर बलि को भिखारी बना दिया।
इन सब उदाहरणों का भाव यही है कि अच्छाई भी एक सीमा से आगे बढ़ जाती है, तो वह बुराई अर्थात् हानिकर बन जाती है। लोग उसका लाभ उठाते हैं। इसीलिए कहा गया है कि अति न करो।
को हि भारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम्। 
को विदेशः सविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम्।।

समर्च अथवा शक्तिशाली लोगों के लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं होता, व्यापारियों के लिए भी कोई स्थान दूर नहीं, पढ़े-लिखे विद्वान व्यक्तियों के लिए कोई भी स्थान विदेश नहीं। इसी प्रकार जो मधुरभाषी हैं, उनके लिए कोई पराया नहीं। ।।13।।
जो लोग शक्तिशाली हैं अर्थात जिनमें सामर्थ्य है, उनके लिए कोई भी काम पूरा कर लेना कठिन नहीं होता। वे प्रत्येक कार्य को सरलतापूर्वक कर लेते हैं। व्यापारी अपने व्यापार की वृद्धि के लिए दूर-दूर के देशों में जाते हैं, उनके लिए भी कोई स्थान दूर नहीं। विद्वान व्यक्ति के लिए भी कोई परदेस नहीं। वह जहां भी जाएगा, विद्वत्ता के कारण वहीं सम्मानित होगा। इसी प्रकार मधुर भाषण करने वाला व्यक्ति पराये लोगों को भी अपना बना लेता है। उसके लिए पराया कोई भी नहीं होता, सब उसके अपने हो जाते हैं।
एकेनाऽपि सुवृक्षेण पुष्यितेन सुगन्धिना ।
 वासितं तद्धनं सर्व सुपुत्रेण कुलं तथा ।।

जिस प्रकार सुगंधित फूलों से लदा हुआ एक ही वृक्ष सारे जंगल को सुगंध से भर देता है, उसी प्रकार सुपुत्र से सारे वंश की शोभा बढ़ती है, प्रशंसा होती है। ।।1411
बहुत से लोगों के बहुत से पुत्र अथवा संतानें होती हैं, परंतु उनकी अधिकता के कारण परिवार का सम्मान नहीं बढ़ता। कुल का सम्मान बढ़ाने के लिए एक सद्‌गुणी पुत्र ही काफी होता है। धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक भी ऐसा नहीं निकला जिसे सम्मान से स्मरण किया जाता हो। ऐसे सौ पुत्रों से क्या लाभ? सगर के तो साठ हजार पुत्र थे।
एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्निना। 
दह्यते तद्धनं सर्व कुपुत्रेण कुलं तथा।।

जिस प्रकार एक ही सूखे वृक्ष में आग लगने से सारा जंगल जलकर राख हो जाता है, उसी प्रकार एक मूर्ख और कुपुत्र सारे कुल को नष्ट कर देता है। ।।15।।
जैसे जंगल का एक सूखा पेड़ आग पकड़ ले तो सारा वन जल उठता है, उसी प्रकार कुल में एक कुपुत्र पैदा हो जाए तो वह सारे कुल को नष्ट कर देता है। कुल की प्रतिष्ठा, आदर-सम्मान आदि सब धूल में मिल जाते हैं। दुर्योधन का उदाहरण सभी जानते हैं, जिसके

को लादते नहीं हैं, वैसा ही आप यहां अपनी संतान के साथ भी करें। यहां भी समझाने- बुझाने में तर्क और व्यावहारिकता हो, न कि अहं की भावना।
उपसर्गेऽन्यचक्रे च दुर्भिक्षे च भयावहे।
असाधुजनसम्पर्क यः पलायति स जीवति ।।

प्राकृतिक आपत्तियां-जैसे अधिक वर्षा होना और सूखा पड़ना अथवा दंगे-फसाद आदि होने पर, महामारी के रूप में रोग फैलने, शत्रु के आक्रमण करने पर, भयंकर अकाल पड़ने पर और नीच लोगों का साथ होने पर जो व्यक्ति सब कुछ छोड़-छाड़कर भाग जाता है, वह मौत के मुंह में जाने से बच जाता है। ।।19।।
भावार्थ यह है कि जहां दंगे-फसाद हों, उस जगह से व्यक्ति को दूर रहना चाहिए। यदि किसी शत्रु ने हमला कर दिया हो या फिर अकाल पड़ गया हो और दुष्ट लोग अधिक संपर्क में आ रहे हों, तो व्यक्ति को वह स्थान छोड़ देना चाहिए। जो ऐसा नहीं करता, वह मृत्यु का ग्रास बन जाता है।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
 जन्म-जन्मनि मत्र्येषु मरणं तस्य केवलम् ।।

जिस व्यक्ति के पास धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि इन चार पुरुषार्थों में से कोई भी पुरुषार्थ नहीं है, वह बार-बार मनुष्य योनि में जन्म लेकर केवल मरता ही रहता है, इसके अतिरिक्त उसे कोई लाभ नहीं होता। ।।20।।
चाणक्य का भाव यह है कि व्यक्ति मनुष्य जन्म में आकर धर्म, अर्थ और काम के लिए पुरुषार्थ करता हुआ मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न करे, मानव देह धारण करने का यही लाभ है।
मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसञ्चितम्।
 दम्पत्येः कलहो नाऽस्ति तत्र श्रीः स्वयमागता ।।

जहां मूखों की पूजा नहीं होती, जहां अन्न आदि काफी मात्रा में इकट्ठे रहते हैं, जहां पति-पत्नी में किसी प्रकार की कलह, लड़ाई-झगड़ा नहीं, ऐसे स्थान पर लक्ष्मी स्वयं आकर निवास करने लगती है। ।।21।।
इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि जो लोग देश अथवा देशवासी, मूर्ख लोगों की बजाय गुणवानों का आदर-सम्मान करते हैं, अपने गोदामों में भली प्रकार अन्न का संग्रह करके रखते हैं, जहां के लोगों में घर-गृहस्थी में लड़ाई-झगड़े नहीं, मतभेद नहीं, उन लोगों की संपत्ति अपने-आप बढ़ने लगती है। यहां एक बात विशेष रूप से समझने की है कि लक्ष्मी को श्री भी कहते हैं, लेकिन इन दोनों में मूलतः अंतर है। आज जबकि प्रत्येक व्यक्ति लक्ष्मी का उपासक हो गया है और सोचता है कि समस्त सुख के साधन जुटाए जा सकते हैं, तो उसे इनमें फर्क समझना होगा।
लक्ष्मी का एक नाम चंचला भी है। एक स्थान पर न रुकना इसका स्वभाव है। लेकिन जिस श्री की बात आचार्य चाणक्य ने की है, वह बुद्धि की सखी है। बुद्धि की श्री के साथ गाढ़ी मित्रता है। ये दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकतीं। महर्षि व्यास ने श्री का माहात्म्य भगवान के साथ जोड़कर किया है। उनका कहना है कि जहां श्री है, वहां भगवान को उपस्थित जानो। इस श्लोक में जिन गुणों को बताया गया है उनका होना भगवान की उपस्थिति का संकेत है।
लक्ष्मी चंचला है लेकिन श्री जिसके मन या घर में प्रविष्ट हो जाती है उसे अपनी इच्छाা से नहीं छोड़ती। श्री का अर्थ संतोष से भी किया जाता है। संतोष को सर्वश्रेष्ठ संपत्ति माना गया है। इस प्रकार संतोषी व्यक्ति को लक्ष्मी के पीछे-पीछे जाने की आवश्यकता नहीं होती, वह स्वयं उसके घर-परिवार में आकर निवास करती है।
अध्याय का सार
आचार्य ने विशेष रूप से मनुष्य के आचार अर्थात चरित्र के संबंध में कुछ बातें कही हैं। उन्होंने माना है कि अच्छे-से-अच्छे कुल में कहीं-न-कहीं किसी प्रकार का दोष मिल ही जाता है और संसार में ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो कभी रोगों का शिकार न हुआ हो। सभी में कोई-न-कोई व्यसन भी होता है। इस संसार में लगातार किसको सुख प्राप्त होता है अर्थात कोई सदा सुखी नहीं रह सकता, कभी-न-कभी वह कष्टों में पड़ता ही है। सुख-दुख का संबंध दिन-रात की तरह है।
महान व्यक्तियों को और धर्मात्माओं को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। ऐसा संसार का नियम है। चाणक्य का मानना है कि मनुष्य के आचार-व्यवहार से, बोलचाल से, दूसरों के प्रति मान-सम्मान प्रकट करने से उसके कुल की विशिष्टता का ज्ञान होता है।
आचार्य का मानना है कि पुत्री का विवाह अच्छे आचरणशील परिवार में करना चाहिए और पुत्रों को ऐसी प्रेरणा देनी चाहिए कि वे उच्च शिक्षा प्राप्त करें। शिक्षा ही जीने की कला सिखाती है।
शत्रु को व्यसनों में फंसाने की बात करते हुए आचार्य संकेत करते हैं कि शत्रु का नाश बौद्धिक चातुर्य के साथ किया जाना चाहिए। इसलिए सावधान रहें और लाभ उठाएं। चाणक्य ने शिक्षा और बुद्धिमत्ता पर सब कार्यों की अपेक्षा अधिक जोर दिया है। वे कहते हैं कि मूर्ख भी सज्जन और बुद्धिमान की तरह दो पैर वाला होता है परंतु वह चार पैर वाले पशु से भी निकृष्ट और गया-गुजरा माना जाता है, क्योंकि उसके कार्य सदैव कष्ट पहुंचाने वाले होते हैं। चाणक्य कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ है तथा रूप और यौवन आदि से भी युक्त है, परंतु उसने विद्या ग्रहण नहीं की तो यह सब उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार बिना सुगंध के सुंदर फूल। उनका मानना है कि किसी का सम्मान उसके गुणों

के कारण होता है, न कि रूप और यौवन के कारण। आचरण से संबंधित एक और महत्वपूर्ण बात चाणक्य ने यह कही है कि यदि किसी एक व्यक्ति के बलिदान से पूरे कुल का कल्याण हो तो उसका बलिदान कर देना चाहिए, परंतु उन्होंने मनुष्य को सर्वोपरि माना है और वे कहते हैं कि यदि व्यक्ति अपने कल्याण के लिए चाहे तो प्रत्येक वस्तु का बलिदान कर सकता है।
उनका मानना है कि व्यक्ति को अपनी निर्धनता दूर करने के लिए उद्यम और पापों से बचने के लिए प्रभु का स्मरण करते रहना चाहिए। उन्होंने बार-बार मनुष्य को सचेत किया है कि वह किस प्रकार कष्टों से बच सकता है। उनका कहना है कि व्यक्ति को सदैव सतर्क रहना चाहिए। आचरण में आचार्य किसी भी तरह की अति के पक्ष में नहीं हैं।
आचार्य के अनुसार मधुर भाषण करने वाला व्यक्ति समूचे संसार को अपना बना सकता है। अनेक कुपुत्र होने के बजाय एक सुपुत्र होना कहीं अच्छा है। चाणक्य ने बाल मनोविज्ञान पर भी प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि पांच वर्ष तक की आयु के बच्चे से लाड़-दुलार करना चाहिए। इसके बाद की आयु में अनुशासित करने के लिए डांट-फटकार, ताड़ना करने की आवश्यकता हो, तो वह भी करनी चाहिए, परंतु जब बच्चा सोलह वर्ष की आयु तक पहुंच जाता है तब उसे मित्र के समान समझकर व्यवहार करना चाहिए। श्लोक में 'पुत्र' शब्द का प्रयोग संतान के अर्थ में किया गया है। बेटियों के संदर्भ में भी यही नियम लागू होता है।
आचार्य ने बार-बार मनुष्यों को यह बताने-समझाने का प्रयत्न किया है कि यह मानव शरीर अत्यंत मूल्यवान है। व्यक्ति को अपना दायित्व निभाने के लिए यथाशक्ति धर्माचरण करते रहना चाहिए। चाणक्य इस अध्याय के अंत में समूचे समाज को मूखों से बचने का परामर्श देते हैं। अपने अन्न तथा अन्य उत्पाद को ठीक ढंग से संभालकर रखना चाहिए और आपस में प्रेमपूर्वक रहना चाहिए। झगड़े-फसाद में अपना जीवन नष्ट नहीं करना चाहिए। ऐसा करके हम स्वयं को दुख के गर्त में डालते हैं।

।। अथ चतुर्थोऽध्यायः ।।
चौथा अध्याय
व्यक्ति को चाहिए कि वह ऐसे धर्म का त्याग कर दें, जिसमें दया और ममता आदि का अभाव हो। इसी प्रकार विद्या से हीन, सदा क्रोध करने वाली स्त्री और जिन बंधु-बांधवों में प्रेम का अभाव हो, उनका भी त्याग कर देना चाहिए। उनसे भी दूर रहना चाहिए।
आयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च। 
पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः।।

जीव जब मां के गर्भ में आता है तभी उसकी आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु- यह पांचों बातें निश्चित हो जाती हैं। ।।1।।
चाणक्य का विश्वास है कि मनुष्य के जीवन की प्रायः सभी बातें पहले से ही निश्चित हो जाती हैं जैसे कि वह कितने वर्षों तक जीवित रहेगा, किस प्रकार के कर्म करेगा, उसे धन आदि की प्राप्ति कैसे होगी तथा वह कितनी विद्या प्राप्त कर सकेगा।
साथ ही उन्होंने कर्म अर्थात् पुरुषार्थ को कहीं नकारा भी नहीं है। कारण स्पष्ट है- इन सबके मूल में कर्म ही तो है, जिसे प्रारब्ध कहते हैं। माना जाता है कि उसी के अनुसार जीव को शरीर की प्राप्ति होती है, वह भी हमारे कर्मों का ही परिणाम है। शास्त्रों में कहा गया है कि व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य कर्म करना है, अतः वह अपनी विद्या और बुद्धि के अनुरूप श्रेष्ठ कर्म करता रहे। देखने में आता है कि संकल्पपूर्वक किए गए कर्म से इन सबमें भी परिवर्तन किया जा सकता है।

साधुभ्यस्ते निवर्तन्ते पुत्रा मित्राणि बान्धवाः।
ये च तैः सह गन्तारस्तद्धर्मात्सुकृतं कुलम् ।।

पुत्र, मित्र और बन्धु-बान्धव साधु लोगों से विमुख हो जाते हैं क्योंकि उन्हें ऐसे लोगों का आचरण मूर्खतापूर्ण लगता है, परंतु जो लोग साधुओं के अनुसार अपना जीवन बिताते हैं, उनका संग करते हैं, उनके अनुकूल आचरण करते हैं, उनके इस कार्य से जो पुण्य प्राप्त होता है, उससे सारा वंश-परिवार कृतकृत्य हो जाता है। 112।।
दर्शनध्यानसंस्पर्शेर्मत्सी कूर्मी च पक्षिणी।
शिशुं पालयते नित्यं तथा सज्जनसंगतिः ।।

जैसे मछली अपने बच्चों को देखकर, मादा कछुआ ध्यान (देखभाल) से और मादा पक्षी स्पर्श से अपने बच्चों का लालन-पालन करते हैं, उसी प्रकार सज्जनों की संगति भी दर्शन, ध्यान और स्पर्श द्वारा संसर्ग में आए व्यक्ति का पालन करती है।।3।।
आचार्य ने इस श्लोक द्वारा सज्जनों के अत्यंत सूक्ष्म प्रभाव की ओर संकेत किया है। मान्यता है कि मछली अपनी दृष्टि से, मादा कछुआ ध्यान से तथा पक्षी स्पर्श से अपनी संतान का लालन-पालन करते हैं। सज्जन भी दर्शन, ध्यान और स्पर्श से अपने आश्रितों को सुरक्षा प्रदान करते हैं और विकास में सहयोगी होते हैं। सज्जनों के दर्शन से आत्मबल में वृद्धि होती है और संकल्प दृढ़ होता है। यदि उनका ध्यान किया जाए और यदि उनके चरणों का स्पर्श
कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाए, तो सफलता, उन्नति और विकास सहज हो जाता है।
यावत्स्वस्थो ह्ययं देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः। 
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते किं करिष्यति ।।

जब तक यह शरीर स्वस्थ तथा नीरोग है और जब तक मृत्यु नहीं आती तब तक व्यक्ति को अपने कल्याण के लिए धर्मयुक्त आचरण अर्थात पुण्य कर्म करने चाहिए क्योंकि करने-कराने का संबंध तो जीवन के साथ ही है। जब मृत्यु हो जाएगी, उस समय वह कुछ भी करने में असमर्थ हो जाएगा अर्थात कुछ भी नहीं कर सकेगा। ।।4।।
किसी को इस बात का ज्ञान नहीं कि मनुष्य का शरीर कब रोगों से घिर जाएगा। उसे यह भी मालूम नहीं कि मृत्यु कब होने वाली है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि जब तक वह जीवित है, अधिक-से-अधिक पुण्य कर्म करे, क्योंकि करने कराने का संबंध तो जीवन से है। जब मृत्यु हो जाती है, तब सारे विधि-निषेध निरर्थक हो जाते हैं।
कामधेनुगुणा बिद्या ह्यकाले फलदायिनी। 
प्रवासे मातृसदृशी विद्या गुप्तं धनं स्मृतम् ।।

कहा गया है। ।।5।।
गुप्तधन वह होता है जिससे मनुष्य संकट के समय लाभ उठा सके। इसलिए चाणक्य ने विद्या को गुप्तधन बताया है और उसकी उपमा कामधेनु से की है। कामधेनु उसे कहा जाता है, जिससे मनुष्य की सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं। उससे उस समय भी फलों की प्राप्ति होती है, जब देशकाल के अनुसार फल प्राप्ति संभव न हो। विद्या के कारण ही विदेश में व्यक्ति का सम्मान होता है। माता जिस प्रकार बच्चे की रक्षा करती है, उसी प्रकार विदेश में विद्या से व्यक्ति की हर प्रकार से रक्षा होती है और सुख प्राप्त होते हैं। नीति वाक्य भी है- विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।
वरमेको गुणी पुत्रो निर्गुणैश्च शतैरपि।
 एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः सहस्त्रशः ।।

सैकड़ों गुणरहित और मूर्ख पुत्रों के बजाय एक गुणवान और विद्वान पुत्र का होना अच्छा है, क्योंकि हजारों तारों की अपेक्षा एक चंद्रमा से ही रात्रि प्रकाशित होती है। ।।6।।
सैकड़ों मूर्ख पुत्रों की अपेक्षा एक विद्वान और गुणों से युक्त पुत्र से ही पूरे परिवार का कल्याण होता है। रात्रि के समय जिस प्रकार आकाश में हजारों तारागण दिखाई देते हैं, परंतु उनसे रात्रि का अंधकार दूर होने में सहायता नहीं मिलती। उसे तो चंद्रमा ही दूर कर पाता है।
आचार्य की दृष्टि में संख्या नहीं गुण महत्वपूर्ण हैं।
मूर्खश्चिरायुर्जातोऽपि तस्माज्जातमृतो वरः। 
मृतः स चाऽल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत् ।।

दीर्घ आयु वाले मूर्ख पुत्र की अपेक्षा पैदा होते ही मर जाने वाला पुत्र अधिक श्रेष्ठ होता है, क्योंकि पैदा होते ही मर जाने वाला पुत्र थोड़े समय के लिए ही दुख का कारण होता है, जबकि लंबी आयु वाला मूर्ख पुत्र मृत्युपर्यन्त दुख देता रहता है। ।।7।।
संतान से माता-पिता की उम्मीदें जुड़ी होती हैं। जब जन्मते ही संतान की मृत्यु हो जाती है, तो माता-पिता निराशा के अंधकार में डूब जाते हैं। भविष्य में इस मृत संतान को लेकर कोई सुख-दुख की उम्मीद नहीं रहती है। जबकि मूर्ख जीवित पुत्र नित्य-प्रति अपने माता-पिता की आशा के टुकड़े-टुकड़े करता रहता है। इस दुख से पहला दुख ज्यादा ठीक 18
कुग्रामवासः कुलहीनसेवा कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या।
पुत्रश्च मूखों विधवा च कन्या विनाऽग्निना षट्
प्रदहन्ति कायम् ।।
अशिक्षित तथा अनुपयुक्त स्थान या ग्राम में रहना, नीच व्यक्ति की सेवा, अरुचिकर

विद्या में कामधेनु के गुण होते हैं। उससे असमय में ही फलों की प्राप्ति होती है। विदेश में विद्या ही माता के समान रक्षा और कल्याण करती है, इसलिए विद्या को गुप्तधन

और पौष्टिकता से रहित भोजन करना, झगड़ालू स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा कन्या, ये छह बातें ऐसी हैं जो बिना अग्नि के ही शरीर को जलाती रहती हैं। ।।8।।
कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनसे व्यक्ति जीवनभर दुखी रहता है। उनमें सबसे प्रमुख वह स्थान है, जहां उसे लगातार रहना होता है। यदि वह स्थान ठीक न हो और वहां के निवासियों का आचार-व्यवहार सही न हो तो व्यक्ति सदैव दुखी रहता है। इसी प्रकार यदि किसी को नीच व्यक्ति की नौकरी करनी पड़े, गंदा, बासी और पौष्टिकता से रहित भोजन करना पड़े तो वह भी दुखदायी ही है। यदि स्त्री झगड़ालू हो, छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा करती हो तो गृहस्थ का सुख कैसे प्राप्त हो सकता है? पुत्र यदि मूर्ख हो और लड़की विधवा हो तो यह आयुभर का असहनीय क्लेश हो जाता है। ऐसी स्थितियों से बच पाना यदि संभव न हो, तो मानसिक रूप से इससे निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए।
किं तया क्रियते धेन्वा या न दोग्ध्री न गर्भिणी।
 कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान् भक्तिमान्।।

जिस तरह दूध न देने वाली और गर्भ न धारण करने वाली गाय से कोई लाभ नहीं, उसी प्रकार यदि पुत्र भी विद्वान और माता-पिता की सेवा करने वाला न हो तो उससे किसी प्रकार का लाभ नहीं हो सकता। ।।9।।
कोई भी व्यक्ति ऐसी गाय को पालना पसंद नहीं करेगा, जो न तो दूध देती हो और न ही गर्भ धारण करने के योग्य हो, इसी प्रकार ऐसे पुत्र से भी कोई लाभ नहीं, जो न तो पढ़ा- लिखा हो और न ही माता-पिता की सेवा करता हो।
संसार तापदग्धानां त्रयो विश्श्रान्तिहेतवः ।
अपत्यं च कलत्रं च सतां संगतिरेव च।।

इस संसार में दुखी लोगों को तीन बातों से ही शान्ति प्राप्त हो सकती है-अच्छी संतान, पतिव्रता स्त्री और सज्जनों का संग। 111011
अपने कार्यों अथवा व्यापार में लगे हुए व्यक्तियों के लिए घर में आने पर शान्ति मिलनी चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब उसके पुत्र और पुत्रियां गुणी हों, स्त्री पतिव्रता और नम्र स्वभाव वाली हो तथा व्यक्ति के मित्र भले और सज्जन हों।
सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः।
 सकृत् कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत्सकृत्।।

राजा एक ही बार आज्ञा देते हैं, पण्डित लोग भी एक ही बार बोलते हैं। कन्या भी एक ही बार विवाह के समय दान में दी जाती है। ।।11।।
सरकार एक ही बार आज्ञा देती है। उसका आदेश कानून का रूप ले लेता है। प्रजा को उस पर चलना ही होता है। इसी प्रकार पण्डित लोग भी किसी आयोजन में श्लोकादि एक ही बार बोलते हैं। ठीक इसी प्रकार कन्या का विवाह भी एक ही बार होता है। माता-पिता अथवा अन्य संबंध रखने वाले कोई वचन देते हैं, तो उसे निभाने का पूरा प्रयत्न किया जाता है।
चाणक्य का कहना है कि ये कार्य ऐसे हैं, जो केवल एक-एक बार ही होते हैं, इन्हें बार-बार नहीं दोहराया जाता। इनके संबंध में बार-बार निश्चय बदलने से बात हल्की पड़ जाती है और उसका प्रभाव कम हो जाता है। हानि और समाज में अपयश दोनों प्राप्त होते है।
एकाकिना तपो द्वाभ्यां पठनं गायनं त्रिभिः।
 चतुर्भिर्गमनं क्षेत्रं पञ्चभिर्बहुभिर्रणः ।।

तप अथवा किसी प्रकार की साधना का कार्य एक अकेला व्यक्ति ही अच्छा करता है, यदि दो छात्र मिलकर पढ़ें तो अध्ययन अच्छा होता है और गाने के लिए यदि तीन व्यक्ति मिलकर अभ्यास करते हैं, तो अच्छा रहता है। इसी प्रकार यदि यात्रा आदि पर जाना हो तो कम-से-कम चार व्यक्तिों को जाना चाहिए। खेती आदि कार्य ठीक प्रकार से चलाने के लिए पांच व्यक्तियों की आवश्यकता होती है, जबकि युद्ध में यह संख्या जितनी हो उतना अच्छा है। ।।12।।
चाणक्य कहते हैं कि तप अथवा साधना व्यक्ति को अकेले ही करनी चाहिए, एक से अधिक होंगे तो उसमें विघ्न पड़ेगा। अध्ययन दो व्यक्तियों के बीच ठीक रहता है, क्योंकि दोनों एक-दूसरे को कोई बात समझा सकते हैं। गाने के अभ्यास के लिए तीन लोगों का होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि उनमें से एक जब अभ्यास करता है, तो दोनों सुनने वाले अपनी प्रतिक्रिया जाहिर कर सकते हैं। कहीं यात्रा पर जाने के समय चार व्यक्ति और खेती आदि के कार्य के लिए पांच व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। युद्ध ऐसा कार्य है जिसमें जितने भी अधिक लोग हों, उनसे सहायता मिलती है।
सा भार्या या शुचिर्दक्षा सा भार्या या पतिव्रता।
सा भार्या या पतिप्रीता सा भार्या सत्यवादिनी ।।

पति के लिए वही पत्नी उपयुक्त होती है, जो मन, वचन और कर्म से एक जैसी हो और अपने कार्यों में निपुण हो, इसके साथ ही वह अपने पति से प्रेम रखने वाली तथा सत्य बोलने वाली होनी चाहिए। ऐसी स्त्री को ही श्रेष्ठ पत्नी माना
जा सकता है। ।।13।। आचार्य चाणक्य ने आदर्श पत्नी के गुणों की चर्चा करते हुए यह भी संकेत किया है कि पति को कैसा होना चाहिए। हम यह तो चाहते हैं कि पत्नी पति से कुछ न छिपाए, लेकिन पत्नी से रहस्यों को छिपाना अपना अधिकार मानते हैं। घर को संभालने का कार्य पत्नी कुशलता से करे और पति? पत्नी पति से प्रेम करती है और पति? आज बदलते परिवेश में आचार्य के कथन को व्यावहारिक रूप से देखने-परखने की आवश्यकता है। ये बातें दोनों के लिए एक समान है।

अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः शून्यास्त्वबान्धवाः ।
 मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता।।

जिस घर में बेटा नहीं होता, वह घर शून्य माना जाता है, जिसके कोई बन्धु-बान्धव नहीं होते उसके लिए सारी दिशाएं, सारा संसार ही शून्य होता है। मूर्ख व्यक्ति का हृदय शून्य होता है और दरिद्र व्यक्ति के लिए तो सभी कुछ शून्य है। ।।14।।
प्रत्येक माता-पिता यह चाहते हैं कि उनकी एक संतान बेटा हो, बेटे के बिना घर सुना मालूम होता है। क्योंकि आज सोच बदली है। कायदे-कानून बदले हैं। जो व्यक्ति इस संसार में अकेला है, जिसके कोई रिश्तेदार अथवा बन्धु-बान्धव नहीं, उसके लिए चारों दिशाएं अथवा सारा संसार ही सूना होता है। वह किसी से अपने मन का दुख प्रकट करने में असमर्थ रहता है। मूर्ख व्यक्ति करुणा, दया और ममता से रहित होता है, इसलिए कहा गया है कि इसका हृदय सूना होता है। दरिद्र अथवा निर्धन व्यक्ति के लिए तो सभी कुछ सूना है क्योंकि कोई भी उसका साथ देने को तैयार नहीं होता। उससे सब कन्नी काटते हैं।
अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्।।

अभ्यास के बिना शास्त्र विष होता है, अजीर्ण अर्थात भोजन के ठीक प्रकार से पचे बिना फिर भोजन करना विष के समान होता है, निर्धन और दरिद्र व्यक्ति के लिए समाज में रहना विष के समान होता है और बूढ़े पुरुष के लिए युवती विष के समान होती है। ।।15।।
मनुष्यों को निरंतर अभ्यास द्वारा शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। यदि वह शास्त्र ज्ञान के लिए निरंतर अभ्यास नहीं करता तो वह अधकचरा ज्ञानी बनता है, ऐसा ज्ञान विष के समान दुखदायी होता है। इसी प्रकार पेट में अपच की स्थिति में यदि बढ़िया-से-बढ़िया भोजन किया जाएगा तो वह भी विष के समान कष्ट देगा। दरिद्र यदि किसी सभा, सोसायटी अथवा समाज में जाता है तो वहां उसकी पूछ न होने के कारण उसे विष का छूटे भी पीना पड़ता है।
बूढ़ा आदमी यदि तरुणी के साथ विवाह रचाता है तो उसका जीवन अत्यन्त कष्टमय हो जाता है, क्योंकि विचारों में आयुगत असमानता सदैव क्लेश का कारण बनती है और शारीरिक रूप से निर्बल होने के कारण वह नवयौवना को यौन संतुष्टि भी प्रदान नहीं कर सकता। ऐसी पत्नी पथभ्रष्ट हो सकती है, जो कि सम्मानित व्यक्ति के लिए अत्यंत कष्टदायी स्थिति होती है।
त्यजेद्धर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्।
त्यजेत्क्रोधमुखीं बान्धवांस्त्यजेत्।।

भार्या
निःस्नेहान्
व्यक्ति को चाहिए कि वह ऐसे धर्म का त्याग कर दे जिसमें दया और ममता आदि का
अभाव हो, इसी प्रकार विद्या से हीन गुरु का भी त्याग कर देना चाहिए। सदा क्रोध करने वाली स्त्री का त्याग भी श्रेयस्कर है और जिन बन्धु-बान्धवों में प्रेम अथवा स्नेह का अभाव हो, उनका भी त्याग कर देना चाहिए। ।।1611
प्रत्येक धर्म से आशा की जा सकती है कि वह दया, अहिंसा और प्रेम का संदेश देगा। यदि उसमें ये बातें नहीं हैं तो ऐसे धर्म को छोड़ देना चाहिए। गुरु का कर्तव्य ज्ञान देना है, यदि वह अनपढ़ और मूर्ख। है तो उसे गुरु बनाने से कोई लाभ नहीं। स्त्री पति को सुख देने वाली होती है, परंतु यदि वह हर समय गुस्से में भरी रहे और क्रोध करती रहे तो ऐसी पत्नी का भी त्याग कर देना चाहिए। रिश्तेदार, भाई-बन्धु व्यक्ति के दुख में काम आते हैं, परंतु यदि उनमें स्नेह और प्रेम का अभाव है तो ऐसे भाई-बंधुओं का कोई लाभ नहीं। उन्हें त्यागना ही हितकर है।
त्याग भी तभी संभव है, जब उसकी सही दिशा-दशा का ज्ञान हो।
अथवा जरा मनुष्याणां वाजिनां बन्धनं जरा।
 अमैथुनं जरा स्त्रीणां वस्त्राणामातपो जरा।।

जो मनुष्य अधिक पैदल चलता अथवा यात्रा में रहता है, वह जल्दी बूढ़ा हो जाता है। यदि घोड़ों को हर समय बांधकर रखा जाएगा तो वे भी जल्दी बूढ़े हो जाते हैं। स्त्रियों से यदि संभोग न किया जाए तो वे जल्दी बूढ़ी हो जाती हैं। इसी प्रकार मनुष्य के कपड़े धूप के कारण जल्दी फट जाते हैं अर्थात धूप उन्हें जल्दी बूढ़ा कर देती है। ।।17।
जो लोग हमेशा यात्रा में रहते हैं, वे नियमित न रहने के कारण जल्दी बुढ़ापे का शिकार हो जाते हैं। पात्रा की थकान और खान-पान की गड़बड़ी का तन-मन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। जिस घोड़े को हर समय बांधकर रखा जाता है वह भी जल्दी बूढ़ा हो जाता है। ऐसा करना उसकी शारीरिक प्रकृति के प्रतिकूल है।
यह तो मनुष्य ने उसे पालतू बना लिया, असल में तो यह स्वच्छंद विचरण करने वाला प्राणी है। स्त्रियों के बारे में आचार्य ने यहां जो कहा, वह पढ़ने में अटपटा लगेगा, लेकिन है सत्य। शारीरिक रचना की दृष्टि से देखें, तो 'संभोग' स्त्री के शरीर की जैविक आवश्यकता ज्यादा है, मनोवैज्ञानिक कम-जब तक वह मासिक चक्र में है। और फिर ऐसा होना उसके अपने पति से संबंधों के ठीक न होने की ओर भी संकेत करते हैं। इस बात को प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति स्वीकार करता है कि यदि मन के स्तर पर असंतोष होगा तो बुढ़ापा आएगा ही। कपड़े ज्यादा देर तक धूप में पड़े रहने पर जल्दी फट जाते हैं क्योंकि मिट्टी और सूर्य की तपिश कपड़े के बारीक तंतुओं को जला देती है।
कः कालः कानि मित्राणि व्ययाऽऽगमौ। को देशः को
कश्चाऽहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः ।।

समझदार व्यक्ति को चाहिए कि इन बातों के संबंध में सदैव सोचता रहे जैसे कि मेरा समय कैसा है? मेरे मित्र कितने हैं? में जिस स्थान पर रहता हूं, वह कैसा है? मेरी आय और व्यय कितना है? मैं कौन हूं? मेरी शक्ति क्या है अर्थात में क्या करने में समर्थ हूँ? 118।।
जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति। 
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृताः ।।

जन्म देने वाला, यज्ञोपवीत कराने वाला गुरु, विद्या दान देने वाला अध्यापक, अन्न देने वाला और भय से मुक्त रखने वाला, यह पांच व्यक्ति पितर माने गए हैं। 111911
चाणक्य का मत है कि इन पांचों को सदैव संतुष्ट रखना चाहिए, तथा इनका पिता की तरह सम्मान करना चाहिए।
राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्रपत्नी तथैव च। 
पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैता मातरः स्मृताः ।।

राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, पत्नी की माता अर्थात सास और जन्म देने वाली अपनी माता, ये पांच माताएं मानी गई हैं, अर्थात् इनका सम्मान माता के समान करना चाहिए। न्याय करते समय भी इन संबंधों को 'मां' की परिभाषा में ही स्वीकार किया जाता है। ।।2011
अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्। 
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनः ।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विजाति कहा गया है, इनका देवता यज्ञ है। मुनियों का देवता उनके हृदय में निवास करता है। मंद बुद्धि वालों के लिए मूर्ति ही देवता होती है। जो व्यक्ति समदर्शी हैं, जिनकी समान दृष्टि है, वे परमेश्वर को सर्वत्र विद्यमान मानते हैं। ।।21।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को द्विजाति इसलिए माना जाता है कि जन्म के बाद गुरु उनका उपनयन संस्कार करता है। उनके लिए यज्ञ ही उनका देवता है। मुनियों के हृदय में देवताओं का निवास होता है क्योंकि वह सदैव उनका मनन-चिंतन करते रहते हैं। मूर्ति पूजा को यहां साधना के प्रारंभिक चरण के लिए आवश्यक माना गया है-जैसे वर्णमाला के माध्यम से फल-फूल आदि का ज्ञान विद्यार्थी को कराया जाता है। जो संसार का रहस्य जानते हैं, उनके लिए ईश्वर सर्वव्यापक है। वे संसार के कण-कण में उसे देखते हैं।
अध्याय का सार
चाणक्य का कहना है कि जीव जब गर्भ में होता है, तभी उसकी आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु आदि बातें निश्चित हो जाती हैं अर्थात मनुष्य जन्म के साथ ही निश्चित कर्मों

के बन्धनों में बंध जाता है। इस संसार में आने के बाद सज्जनों के संसर्ग के फलस्वरूप व्यक्ति सांसारिक बंधनों से मुक्त होता है। अच्छे लोगों का साथ हर तरह से मनुष्य की रक्षा के लिए ही होता है।
आचार्य के अनुसार, मनुष्य जब तक जीवित है, तब तक उसे पुण्य कार्य करने चाहिए, क्योंकि इसी से उसका कल्याण होता है और जब मनुष्य देह त्याग देता है तो वह कुछ भी नहीं कर सकता।
विद्या को चाणक्य ने कामधेनु के समान बताया है। जिस तरह कामधेनु से सभी इच्छाएं पूरी हो जाती है, उसी प्रकार विद्या से मनुष्य अपनी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है। विद्या को बुद्धिमानों ने गुप्त धन भी कहा है।
चाणक्य कहते हैं कि अनेक मूर्ख पुत्रों की अपेक्षा एक गुणी पुत्र अधिक हितकर होता है। उनका कहना है कि मूर्ख पुत्र यदि दीर्घ आयु वाला होता है तो वह आयुभर कष्ट देता रहता है, इससे तो अच्छा है कि वह जन्म के समय ही मर जाए, क्योंकि ऐसे पुत्र की मृत्यु से दुख थोड़ी देर के लिए होगा।
उनका कहना है कि इस संसार में दुखी लोगों को अच्छे पुत्र, पतिव्रता स्त्री और सज्जनों से ही शांति प्राप्त होती है। सांसारिक नियमों के अनुसार चाणक्य बताते हैं कि राजा एक ही बात को बार-बार नहीं कहते, पण्डित लोग भी (मंत्रों को) बातें बार-बार नहीं दोहराते और कन्या का भी एक ही बार दान किया जाता है। इसलिए इन कर्मों को करते हुए
सावधानी बरतनी चाहिए।
व्यक्ति को तपस्या अकेले करनी चाहिए। विद्यार्थी मिलकर पड़े तो उन्हें लाभ होता है। इसी प्रकार संगीत, खेती आदि में भी सहायकों की आवश्यकता होती है। युद्ध के लिए तो जितने अधिक सहायक हों उतने ही अच्छे रहते हैं।
चाणक्य कहते हैं कि उसी पत्नी का भरण-पोषण करना चाहिए जो पतिपरायणा हो। जिस मनुष्य के घर में कोई संतान नहीं, वह घर सूना होता है। जिसके कोई रिश्तेदार और बन्धु-बान्धव नहीं, उसके लिए यह संसार ही सूना है। दरिद्र अथवा निर्धन के लिए तो सब कुछ सूना है। विद्या की प्राप्ति के लिए अभ्यास करना पड़ता है, बिना अभ्यास के विद्या विष के समान होती है। जिस प्रकार अपच के समय ग्रहण किया हुआ भोजन विषतुल्य होता है और निर्धन व्यक्ति के लिए सज्जनों की सभा में बैठना मुश्किल होता है, उसी प्रकार बूढे व्यक्ति के लिए स्त्री संसर्ग विष के समान होता है।
धर्म उसे कहते हैं, जिसमें दया आदि गुण हों। गुरु उसे कहते हैं जो विद्वान हो। पत्नी वह होती है, जो मधुरभाषिणी हो, बन्धु-बान्धव वह होते हैं, जो प्रेम करें, परंतु यदि इनमें यह बातें न हों अर्थात धर्म दया से हीन हो, गुरु मूर्ख हो, पत्नी क्रोधी स्वभाव की हो और रिश्तेदार बंधु- बांधव प्रेमरहित हों, तो उन्हें त्याग देना चाहिए। अधिक यात्राएं करने से मनुष्य जल्दी बूढ़ा होता है। स्त्रियों की कामतुष्टि न हो तो वे जल्दी बूढ़ी हो जाती हैं और कपड़े यदि अधिक देर तक धूप में पड़े रहें तो जल्दी फट जाते हैं।

चाणक्य बताते हैं कि मनुष्य को अपनी उन्नति के लिए चिंतन करते रहना चाहिए कि समय किस प्रकार का चल रहा है? मित्र कौन हैं और कितने हैं? कितनी शक्ति है? बारबार किया गया ऐसा चिंतन मनुष्य को उन्नति के मार्ग पर ले जाता है। इस अध्याय के अंत में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि का देवता अग्नि अर्थात अग्निहोत्र है। ऋषि-मुनियों का देवता उनके हृदय में रहता है, अल्पबुद्धि लोग मूर्ति को अपना देवता मानते हैं और जो सारे संसार के प्राणियों को एक जैसा मानते हैं उनका देवता सर्वव्यापक और सर्वरूप ईश्वर है।

।। अथ पंचमोऽध्यायः ।।
पांचवां अध्याय
धन से धर्म की, योग से विद्या की, मधुरता से राजा की और अच्छी स्त्रियों से घर की रक्षा होती है।
गुरुरग्निद्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।
 पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्वाऽभ्यागतो गुरुः ।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आदि द्विजों के लिए अग्निहोत्र गुरु के समान आदरणीय ● चारों वर्णों में ब्राह्मण सबसे अधिक श्रेष्ठ और आदरणीय है। स्त्रियों के लिए पति ही गुरु है घर में आया हुआ अतिथि सभी के आदर-सत्कार के योग्य माना गया है। ।।1।।
नौर द्विजों का कर्तव्य है कि वे अग्निहोत्र आदि कर्म जादरपूर्वक नित्य करते रहें। नग्निहोत्र से वायुमंडल शुद्ध होता है। मनुष्य के स्वास्थ्य और पर्यावरण के सुधार के लिए वन, यज्ञ आदि करना आवश्यक माना गया है। ब्राह्मण को पूजनीय इसलिए माना गया है क्योंकि वे सभी वर्गों को विद्या देते हैं। स्त्रियों के लिए पति ही उसका आदरणीय गुरु होता है, न्योंकि वही उसका भरण-पोषण करता है और उसे सन्मार्ग पर ले जाने में सहायता करता । घर में आए हुए अतिथि का आदर-सत्कार सभी लोगों को करना चाहिए क्योंकि वह बहुत बोड़ी देर के लिए किसी के घर आता है। 'अतिथि देवो भव', ऐसा शास्त्र वचन भी है।
यथा चतुर्भिः कनकं निघर्षणच्छेदनतापताडनैः। परीक्ष्यते तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।

जिस प्रकार सोने की परीक्षा चार प्रकार से की जाती है-उसे कसौटी पर घिसा जाता है, काटकर देखा जाता है, तपाया जाता है और कूटकर उसकी जांच की जाती है, उसी प्रकार मनुष्य कितना श्रेष्ठ है इसकी पहचान भी इन चार बातों से होती है।
चाणक्य के अनुसार, इन चारों प्रकारों से की गई परीक्षा में स्वयं को सही सिद्ध करने वाला व्यक्ति ही 'खरा' है। उसकी सज्जनता, उसका चरित्र, उसके गुण और उसका आचार- व्यवहार उसके खरेपन की पुष्टि करते हैं। ।।2।।
तावद् भयेषु भेतव्यं यावद्भयमनागतम्।
 आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमशंकया।।

संकट प्रत्येक मनुष्य पर आते हैं, परंतु बुद्धिमान व्यक्तियों को संकटों और आपत्तियों से तभी तक डरना चाहिए जब तक वे सिर पर न आ जाएं। संकट और दुख आने पर तो व्यक्ति को अपनी पूरी शक्ति से उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। ।।311
एकोदरसमुद्भूता एक नक्षत्रजातकाः।
 न भवन्ति समाः शीले यथा बदरिकण्टकाः।।

एक ही माता के पेट और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न हुए बालक गुण, कर्म और स्वभाव में एक समान नहीं होते, जैसे बेर-वृक्ष के सभी फल और उनके काट एक जैसे नहीं होते, उनमें अंतर होता है। ।14।।
चाणक्य ने बेर और कांटों की उपमा एक विशेष विचार से दी है। एक ही बेर के वृक्ष पर लगे हुए सभी फल मीठे नहीं होते। बेर वृक्ष पर कांटे भी होते हैं, परंतु वह कटि भी एक जैसे कठोर नहीं होते।
इसी प्रकार यह आवश्यक नहीं कि एक ही माता-पिता के और एक ही नक्षत्र में पैदा होने वाले बच्चों के गुण, कर्म और स्वभाव एक जैसे हों। उनका भाग्य तथा उनकी रुचियां एक जैसी नहीं होतीं। माता-पिता के एक होने पर भी प्रारब्ध और परिस्थितियों का अंतर तो
होता ही है।
निःस्पृहो नाऽधिकारी स्यान्नाकामी मण्डनप्रियः।
 नाऽविदग्धः प्रियं ब्रूयात् स्फुटवक्ता न वञ्चकः ।।

कोई भी अधिकारी लोभरहित नहीं होता, शृंगार प्रेमी में कामवासना की अधिकता होती ही है। जो व्यक्ति चतुर नहीं है, वह मधुरभाषी भी नहीं हो सकता तथा साफ बात कहने वाला व्यक्ति कभी भी धोखेबाज नहीं होता। 11511
प्रायः देखा जाता है कि जिस व्यक्ति में बड़ा बनने की लालसा होती है, वहीं अधिकार प्राप्त करना चाहता है। जो अपने शरीर को अच्छे वस्त्रों और खुशबू आदि से सजाता है, उसमें कामवासना की अधिकता होती है। मूर्ख और फूहड़ व्यक्ति मधुरभाषी नहीं होता। जो व्यक्ति साफ बात कहता है अर्थात स्पष्ट वक्ता होता है, वह किसी को धोखा नहीं देता। निदोष

ही सच बोल सकता है।
मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्या अधनानां महाधनाः।
वारांगनाः कुलस्त्रीणां सुभगानां च दुर्भगाः ।।

मूर्ख विद्वानों से वैर भाव रखते हैं। दरिद्र और निर्धन धनवानों को अपना शत्रु समझते हैं। वेश्याएं कुलीन स्त्रियों से द्वेषभाव रखती हैं और विधवा स्त्रियां सुहागिनों को अपना शत्रु मानती हैं। 11611
यह संसार का नियम है कि विपरीत स्थिति वाले लोग एक-दूसरे को अपना शत्रु समझते हैं। चाहिए तो यह कि मूर्ख पण्डितों का आदर करें, जिससे उन्हें भी कुछ लाभ हो, परंतु वह उनका सम्मान करने के बजाय उनसे दुश्मनी रखते हैं। निर्धन और आलसी लोग मानते हैं कि धनी व्यक्ति दूसरों को लूट-खसोटकर धनवान होता है, परंतु उन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि उन व्यक्तियों ने धन एकत्रित करने में कितना परिश्रम किया है। इतना ही नहीं, उसे संभालकर रखने के लिए भी एक विशेष प्रकार के धैर्य की आवश्यकता होती है। वेश्याएं भी कुलीन स्त्रियों से द्वेष करती हैं और विधवा स्त्रियां सुहागिनों को दुर्भावना की दृष्टि से देखती है।
संकेत है कि अयोग्य और अभावग्रस्त ही द्वेष करते हैं।
आलस्योपहता विद्या परहस्तगताः स्त्रियः।
 अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम्।।

आलस्य के कारण विद्या नष्ट हो जाती है, दूसरे के हाथ में गई हुई स्त्रियां नष्ट हो जाती हैं, कम बीज डालने से खेत बेकार हो जाता है और सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है। ।।7।।
इसका भाव यह है कि विद्या की प्राप्ति और उसकी वृद्धि के लिए व्यक्ति को आलस्य का त्याग कर देना चाहिए। आलसी किसी गुण को प्राप्त नहीं कर सकता। दूसरे के पास जाने वाली स्त्री का धर्म नष्ट हो जाता है अर्थात किसी दूसरे के अधिकार में जाने पर स्त्री का सतीत्व कायम नहीं रह पाता। यदि खेत में बीज बोते समय कंजूसी की जाएगी और बीज कम डाला जाएगा तो अच्छी फसल नहीं हो सकेगी। सेना का बल सेनापति से ही स्थिर रहता है। जब सेनापति मारा जाता है तो सेना का हार जाना स्वाभाविक ही है।
अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
 गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते ।।

विद्या की प्राप्ति निरंतर अभ्यास से होती है। अभ्यास से ही विद्या फलवती होती है। उत्तम गुण और स्वभाव से ही कुल का गौरव और यश स्थिर रहता है। श्रेष्ठ पुरुष की पहचान सद्गुणों से होती है। मनुष्य की आंखें देखकर क्रोध का ज्ञान हो जाता है। 118।।
जिन व्यक्तियों को उत्तम विद्या प्राप्त करनी है, वे निरंतर प्रयत्न करते हैं। वे यदि बार-
बार अभ्यास न करें तो विद्या की प्राप्ति असंभव होती है। किसी कुल का स्थिर होना, उसका यश फैलना, उसका प्रसिद्ध होना, गौरव की दृष्टि से देखा जाना आदि उसके उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव के कारण ही होता है। यदि गुण, कर्म और स्वभाव श्रेष्ठ नहीं होंगे तो कुल का गौरव नहीं बढ़ सकता। इसी प्रकार श्रेष्ठ व्यक्ति की पहचान उसके अच्छे गुणों के कारण होती है। किसी व्यक्ति के क्रोधित होने का ज्ञान उसकी आंखें देखकर हो जाता है, क्योंकि क्रोध के कारण व्यक्ति की आंखें लाल हो जाती हैं।
वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
 मृदुना रक्ष्यते भूपः सत्स्त्रिया रक्ष्यते गृहम् ।।

धन से धर्म की रक्षा की जाती है। विद्या को योग के द्वारा बचाया जा सकता है। मधुरता के कारण राजा को बचाया जा सकता है और अच्छी स्त्रियां घर की रक्षक होती हैं। 11911
धर्म की रक्षा के लिए भी धन की आवश्यकता होती है। धर्म, कर्म भी धन के द्वारा ही संपन्न हो सकता है। दूसरों का उपकार करना, दान देना, मंदिर आदि का निर्माण आदि कार्य धर्म माने जाते हैं। विद्या को स्थिर रखने के लिए चतुरतापूर्वक उसका अभ्यास करने की आवश्यकता होती है, इसलिए कहा गया है कि 'विद्या योगेन रक्ष्यते।'
राजा की रक्षा उसके मधुर व्यवहार के कारण ही होती है। यदि शासक क्रूर हो जाए तो प्रजा विद्रोह कर सकती है, इसलिए राजा का कर्तव्य है कि वह मधुर और उदार-व्यवहार से अपना राज्य नष्ट होने से बचाता रहे। राजा को अपनी प्रजा के प्रति व्यवहार दयालुतापूर्ण होना ही चाहिए। जब तक स्त्रियों को अपने सतीत्व का ध्यान रहता है, उनके मन में अपने परिवार की प्रतिष्ठा सर्वोपरि रहती है, तब तक घर बचा रहता है अर्थात परिवार नष्ट नहीं होता, परंतु जब वे अपने शील और सतीत्व का परित्याग कर देती हैं तो वह घर नष्ट होता है।
अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्रमाचारमन्यथा।
अन्यथा कुवचः शान्तं लोकाः क्लिश्यन्ति चान्यथा।।

विद्वान व्यक्ति के पांडित्य की निंदा करने वाले, शास्त्रों द्वारा कहे गए श्रेष्ठ आचरण को व्यर्थ बताने वाले, धीर, गंभीर और शांत रहने वाले व्यक्ति को ढोंगी और पाखंडी बताने वाले लोग हमेशा दुख उठाते हैं। इस परनिंदा रूप कार्य से कोई लाभ नहीं होता है। ।।10।।
बहुत से लोग अपने स्वभाव के कारण विद्वान पंडितों की विद्वत्ता को व्यर्थ बताते हैं, उनकी निंदा करते हैं। शास्त्रों में बताए गए नियमों के अनुसार आचरण करने वाले व्यक्ति को भी वे व्यर्च का आचरण करने वाला बताते हैं। विद्वानों को ढोंगी और शास्त्रों को कल्पित बताते हैं। ऐसा करते हुए वे विद्वानों या शास्त्रों की सार्थकता को तो नकार नहीं पाते, अपितु लाभ से वंचित हो जाते हैं, जो उन्हें मिल सकता था।
शांत और चुपचाप रहने वाले की चुप्पी को मूर्खा की भाषा में कमजोरी ही माना
जाता है। विद्वान, श्रेष्ठ आचरण करने वाले, धीर, गंभीर और शुद्ध व्यक्ति का निंदा से कुछ भी नहीं बिगड़ता, हां, निंदक सदैव दुखी रहते हैं। यदि कोई नदी का जल नहीं पीता, तो उससे नदी का क्या घटता है?
दारिद्र्यनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम्।
 अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी।।

दान देने से दरिद्रता नष्ट होती है, अच्छे आचरण से कष्ट दूर होते हैं, मनुष्य की दुर्गति समाप्त होती है, बुद्धि से अज्ञान नष्ट होता है अर्थात मूर्खता नष्ट होती है और ईश्वर की भक्ति से भय दूर होता है। ।।11।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दान देने से दरिद्रता नष्ट होती है। अनेक शास्त्रों और संतों ने भी कहा है कि 'दान दिए धन ना घटे। यदि मन के साथ इसे जोड़ा जाए, तो यह कथन और भी स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि धनी भी मन से दरिद्र हो सकता है और निर्धन भी श्रीमान्।
व्यक्ति अच्छे गुणों, नम्र व्यवहार और सुशीलता के कारण अपने कष्ट दूर करता है, क्योंकि सभी व्यक्ति सद्‌गुणी और सुशील व्यक्ति को आगे बढ़ाने की इच्छा रखते हैं।
प्रभु सबकी सहायता करने वाला है। जो व्यक्ति नित्य नियम से ईश्वर की प्रार्थना करते हैं, वे सदैव दुर्गुणों से बचे रहते हैं। उन्हें न तो किसी व्यक्ति से डरने की आवश्यकता होती है और न ही वे संकटों के आने पर भयभीत होते हैं।
नाऽस्ति कामसमो व्याधिर्नाऽस्ति मोहसमो रिपुः। नाऽस्ति कोपसमो व‌निर्नाऽस्ति ज्ञानात् परं सुखम् ।।
कामवासना के समान कोई रोग नहीं। मोह से बड़ा कोई शत्रु नहीं। क्रोध जैसी कोई आग नहीं और ज्ञान से बढ़कर इस संसार में सुख देने वाली कोई वस्तु नहीं। ।।12।।
अधिक कामवासना में लिप्त रहने वाला व्यक्ति शक्तिहीन होकर अनेक रोगों का शिकार हो जाता है। वह कामवासना की पूर्ति के लिए रोगी से संबंध बनाकर किसी रोग की गिरफ्त में भी आ सकता है।
व्यक्ति का क्रोध उसके लिए आग का काम करता है। उसका अपना क्रोध उसे जला डालता है। ज्ञान से बढ़कर संसार में सुख देने वाली कोई भी वस्तु नहीं है, जो व्यक्ति बुद्धि और विवेक से कार्य करता है, वह सदा सुखी रहता है। मोह को सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है। मोह का अर्थ है मूर्च्छा अर्थात् अविवेक। यह बुद्धि को नष्ट कर देता है।
जन्ममृत्यु हि यात्येको भुनक्त्येकः शुभाऽशुभम्। 
नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम् ।।

जिस प्रकार मनुष्य अकेला ही जन्म लेता है, उसी प्रकार अकेले ही उसे पाप और पुण्य का फल भी भोगना पड़ता है। अकेले ही अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं अर्थात अकेले ही उसे नरक का दुख उठाना पड़ता है और अकेला ही वह मोक्ष को प्राप्त होता है। ।। 1311
मनुष्य के जन्म और मृत्यु के चक्र में उसका कोई साथ नहीं देता। वह जब जन्म लेता है तब भी अकेला होता है। जब उसकी मृत्यु होती है तब भी वह अकेला होता है। अतः बार- बार जन्म लेने और मरने के चक्र में मनुष्य को अकेले ही भागीदारी करनी होती है।
चाणक्य ने मनुष्य के अकेले ही नरक में जाने की बात कही है। नरक और कुछ नहीं है, मनुष्य द्वारा भोगे जाने वाले कष्टों का ही नाम है। व्यक्ति अकेला ही इस कष्ट को भोगने के लिए मजबूर होता है। उसके कष्ट में सहानुभूति तो जताई जा सकती है, परंतु उसका कष्ट बांटा नहीं जा सकता। यदि वह अच्छे कार्य करता है तो इसी जन्म में जीवन्मुक्त की स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
आचार्य चाणक्य ने यहां संकेत दिया है कि सब अकेले ही करना है, इसलिए उत्तरदायित्व को निभाने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। दूसरों की ओर क्यों देखना? दूसरों का सहारा लेने की आदत से मुक्त हों, यही श्रेयस्कर है।
तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम्।
 जिताऽशस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य तृणं जगत् ।।

जिसे ब्रह्मज्ञान है, उसके लिए स्वर्ग तिनके के समान अर्थात तुच्छ है। शूरवीर। के लिए जीवन तिनके के समान होता है। जितेन्द्रिय अर्थात संयमी व्यक्ति के लिए स्त्री (भोग पदार्थ) तिनके के समान होती है और इच्छारहित मनुष्यों के लिए सारा संसार ही तिनके के समान है। 11411
जिसे ब्रह्मज्ञान है, उसके लिए स्वर्ग का कोई महत्व नहीं, क्योंकि वह जानता है कि स्वर्ग के सुख भी क्षणिक हैं। शूरवीर व्यक्ति जीवन की बलि देने से नहीं डरता, उसके लिए अपना जीवन एक तिनके के समान है, उसे अपने जीवन में किसी से भय नहीं होता। जिस व्यक्ति ने इन्द्रियों को अपने वश में किया है, उसे नारी अपने वश में नहीं कर सकती। यहां नारी शब्द का अर्थ है सभी भोग पदार्थ, नारी तो उसका प्रतीक मात्र है। इसी प्रकार इच्छारहित व्यक्ति के लिए सारा संसार तिनके के समान होता है क्योंकि उसकी किसी वस्तु में आसक्ति नहीं होती। आसक्ति ही व्यक्ति या वस्तु को मूल्य प्रदान करती है।
विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
 व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।

विदेश में विद्या ही मनुष्य की सच्ची मित्र होती है, घर में अच्छे स्वभाव वाली और गुणवती पत्नी ही मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र होती है। रोगी व्यक्ति की मित्र दवाई है और
जो मनुष्य मर चुका है उसका धर्म-कर्म ही उसका मित्र होता है। ।।15।।
मित्र की परिभाषा करते हुए कहा गया है-जो सदैव अपने मित्र का हित चिंतन करे तथा विपत्ति में साथ न छोड़े, वही सच्चा मित्र होता है। इस संदर्भ में विद्या, गुणी पत्नी, औषधि और धर्म को देखने की आवश्यकता है। ये चारों मित्र की तरह हित करते हैं। धर्म की श्रेष्ठता की ओर भी आचार्य ने संकेत किया है क्योंकि जब सब साथ छोड़ जाते हैं, उस समय धर्म ही मृतात्मा को सद्गति देता है, उसके मोक्ष का कारण बनता है।
वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्। 
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च।।

समुद्र में बारिश होना, भोजन से तृप्त हुए मनुष्य को फिर से भोजन कराना, धनी लोगों को दान देना और दिन में दीपक जलाना आदि बातें व्यर्थ और निरर्थक होती हैं। ।। 1611
नाऽस्ति मेघसमं तोयं नाऽस्ति चात्मसमं बलम्। 
नाऽस्ति चक्षुः समं तेजो नाऽस्ति धान्यसमं प्रियम् ।।

बादल के जल जैसा दूसरा कोई जल शुद्ध नहीं, आत्मबल के समान दूसरा कोई बल नहीं, नेत्र ज्योति के समान दूसरी कोई ज्योति नहीं और अन्न के समान दूसरा कोई प्रिय पदार्थ नहीं होता। ।।17।।
मेघ के जल को सबसे अधिक पवित्र इसलिए माना जाता है कि वह स्वास्थ्यवर्धक होता है। जिस व्यक्ति में आत्मा का बल है अर्थात जो स्वयं पर विश्वास करता है, उसमें सभी प्रकार के बलों का सहज रूप में समावेश हो जाता है। आत्मबल क्या शरीर और इन्द्रियों के बल से बढ़कर नहीं है? चाणक्य ने नेत्र की ज्योति को सबसे अधिक उपयोगी माना है क्योंकि नेत्र की ज्योति के बिना मनुष्य के लिए सारा संसार अंधकारमय होता है। अन्न को मनुष्य के लिए सबसे अधिक प्रिय पदार्थ कहा गया है क्योंकि जब तक अन्न नहीं मिलता तब तक शरीर मन आदि अपना-अपना कार्य नहीं कर सकते। प्राणियों के अन्नमय कोष अर्थात् शरीर की पुष्टि तो अन्न से ही होती है।
अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः।
 मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः ।।

धनहीन व्यक्ति और अधिक धन पाना चाहता है, चौपाये अर्थात चार पैर वाले पशु चाहते हैं कि वे बोल सकें, मनुष्य स्वर्ग चाहता है और देवता मोक्ष की कामना करते हैं। ।। 1811
व्यक्ति हर समय चाहता है कि उसे धन की प्राप्ति हो परंतु उसे यह पता ही नहीं होता कि उसके लिए लगातार श्रम करना पड़ता है। पशु वाणी चाहते हैं ताकि वे अपने मन की बात किसी दूसरे से कर सकें। मनुष्य यह भी चाहता है कि उसे स्वर्ग मिले, देवता और विद्वान
व्यक्ति इस जीवन से मुक्त होने की कामना करते, इसलिए वह जीवन में ऐसे कार्य करते हैं जिनसे जीवन-मरण के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्राणीमात्र का यह स्वभाव है कि जिसके पास जो नहीं है, वह उसकी कामना करता है।
सत्येन धार्यते पृथिवी सत्येन तपते रविः।
 सत्येन वाति वायुश्च सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम् ।।

सत्य के कारण पृथ्वी स्थिर है, सूर्य भी सत्य के बल से प्रकाश देता है, सत्य से ही वायु बहती है, सब सत्य में ही स्थिर है। ।।19।।
सत्य का आधार ब्रह्म है। पृथ्वी अथवा यह संसार सत्य के कारण ही टिका हुआ है। इसी सत्य और ब्रह्म से सूर्य का प्रकाश सारे संसार में फैलता है। सत्य अथवा प्रभु की शक्ति से ही इस संसार में वायु का संचार होता है। इस प्रकार सभी कुछ सत्य अथवा ब्रह्म में स्थित 19
चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चलं जीवित यौवनम्। 
चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः ।।

इस चराचर जगत् में लक्ष्मी (धन) चलायमान है अर्थात लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती, नष्ट हो जाती है, प्राण भी नाशवान हैं, जीवन और यौवन भी नष्ट होने वाले हैं, इस चराचर संसार में एकमात्र धर्म ही स्थिर है। ।।20।।
धन-सम्पत्ति मनुष्य के पास सदा नहीं रहती, उसके कर्मों के अनुसार आती-जाती है। जिस मनुष्य ने जीवन धारण किया है, उसका मरना भी आवश्यक है, इसीलिए प्राणों को स्थिर नहीं कहा जा सकता। मनुष्य का यौवन सदा स्थिर रहने वाली वस्तु नहीं, बुढ़ापा यौवन का क्षय है, परंतु धर्म ऐसा तत्त्व है जिसका नाश नहीं होता। मनुष्य की मृत्यु के बाद भी धर्म ही उसका साथ देता है। शास्त्र की भी मान्यता है कि आते भी हम अकेले हैं और जाते भी अकेले ही हैं, लेकिन धर्म हमेशा साथ रहता है। आचार्य के अनुसार जो हमेशा साथ रहने वाला है उसकी ओर मनुष्य को ध्यान देना चाहिए।
नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः।
 चतुष्पदां शृगालस्तु स्त्रीणां धूर्ता च मालिनी ।।

मनुष्य में नाई सबसे अधिक चालाक और होशियार होता है। पक्षियों में कौआ, चार पैरों वाले जानवरों में गीदड़ और स्त्रियों में मालिन अत्यधिक चतुर होती है। 1121।।
यहां जिन जातियों की बात आचार्य चाणक्य ने की है, उसे आपत्तिजनक मानना आचार्य के कथन को सही संदर्भ में न समझने की भूल करना है। जो जाति जितनी अधिक सामाजिक होती है, उसे इस बात का व्यावहारिक अनुभव होता है कि किस व्यक्ति से किस प्रकार कार्य करवाना है।
कुछ बिरादरियों में जो पुरानी परंपराओं का निर्वाह कर रही हैं, आज भी 'नापित' कीमहत्वपूर्ण भूमिका होती है। पहले शादी-विवाह आदि में महत्वपूर्ण निर्णय भी इनके द्वारा लिए जाते थे। ये मीडिएटर का काम करते थे और अपने यजमान के प्रति वफादार होते थे। इनके सामने लोग अपने मन की बात खोलकर भी रख देते हैं। यही स्थिति फूल का व्यापार करने वाली जाति की स्त्रियों की भी है। उनका मेल हर तरह के लोगों के साथ होता था। अपनी बात रखने के बारे में तथा किसी के सवाल का तत्काल जवाब देने में आज भी उनकी कोई बराबरी नहीं है।
यहां एक बात विशेष रूप से समझने की है कि इस दुनिया में कुछ भी नकारात्मक नहीं है। बुद्धिमान व्यक्ति प्रत्येक वस्तु का, प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति का और प्रत्येक संवेग का सही प्रयोग और उपयोग करना जानता है। यही उसकी सफलता का मूलमंत्र है। इसीलिए वह 'विशेष' कहलाता है। और यह भी कि शब्दों का अर्थ रुढ़ की जगह यदि यौगिक रूप में किया जाए, तो सर्वसाधारण उसे खींचकर उसी ओर ले जाता, जो जनसामान्य में प्रचलित है। इस बारे में तो सभी एकमत से सहमत हैं कि कुछ शब्दों का एक अर्थ नहीं होता। उसके सही अर्थों को संदर्भ के अनुसार लगाना पड़ता है। जब शब्द का अर्थ भाव के विपरीत हो, तो लक्ष्यार्थ को समझने का प्रयास करना चाहिए।
अध्याय का सार
गुरु की महिमा का वर्णन सर्वत्र किया गया है, परंतु चाणक्य ने यह भी स्पष्ट किया है कि सामान्य जीवन में कौन किसका गुरु होता है। उनका कहना है कि स्त्रियों का गुरु उसका पति होता है, गृहस्थ का गुरु अतिथि होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का गुरु अग्नि अर्थात अग्निहोत्र है और धारों वर्णों का गुरु ब्राह्मण होता है।
जिस प्रकार सोने को कसौटी पर घिसकर, आग में तपाकर उसकी शुद्धता की परख होती है, उसी प्रकार मनुष्य अपने अच्छे कर्मों और गुणों से पहचाना जाता है और प्रतिकूल परिस्थितियों में ये निखरते हैं।
चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य को जीवन में भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। उसे निडर होकर कार्य करने चाहिए। यदि किसी भय की आशंका हो तो भी घबराना नहीं चाहिए बल्कि संकट आने पर उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए।
चाणक्य कहते हैं कि यह आवश्यक नहीं है कि एक ही माता से उत्पन्न होने वाली संतान एक ही प्रकार के स्वभाव वाली हो, सबमें अलग-अलग गुण होते हैं। यह वैयक्तिक भिन्नता तो प्रकृति का विशेष गुण है।
चाणक्य का मानना है कि कोई भी व्यक्ति वह वस्तु प्राप्त नहीं कर सकता, जिसे प्राप्त करने की उसमें इच्छा न हो। जिसे विषय-वासनाओं से प्रेम नहीं, वह शृंगार अथवा सुंदरता बढ़ाने वाली वस्तुओं की मांग नहीं करता। जो व्यक्ति बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट

बात कहता है, वह कपटी नहीं होता। विद्या अभ्यास से प्राप्त होती है और आलस्य से नष्ट हो जाती है। दूसरे के हाथ में दिया हुआ धन वापस मिलना कठिन होता है और जिस खेत में बीज कम डाला जाता है, वह फसल नष्ट हो जाती है। चाणक्य कहते हैं कि दान देने से धन घटता नहीं वरन् दानदाता की दरिद्रता समाप्त होती है। सद्‌बुद्धि द्वारा मूर्खता नष्ट होती है और मन में सकारात्मक विचारों से भय समाप्त हो जाते हैं।
मनुष्य में अनेक ऐसे दोष होते हैं, जिनसे उसे अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। चाणक्य कहते हैं कि कामवासना से बढ़कर कोई दूसरा रोग नहीं, मोह और क्रोध के समान स्वयं को नष्ट करने वाला कोई शत्रु नहीं। चाणक्य का कहना है कि क्रोध व्यक्ति को हर समय जलाता रहता है। मनुष्य जो कर्म करता है, अच्छा या बुरा, उसका फल उसे अकेले ही भोगना पड़ता है, वह अकेला ही इस संसार में जन्म लेता है और अकेला ही मरता भी है। स्वर्ग अथवा नरक में भी वह अकेला ही जाता है, केवल कर्म ही उसके साथ जाते हैं।
मनुष्य जब विदेश में जाता है तो उसका ज्ञान और बुद्धि ही साथ देती है। घर में पत्नी ही सच्ची मित्र होती है। औषधि रोगी के लिए हितकर होने के कारण उसकी मित्र है। मृत्यु के, बाद जब संसार की कोई वस्तु या व्यक्ति मनुष्य का साथ नहीं देता उस समय धर्म ही व्यक्ति का मित्र होता है।
चाणक्य का कहना है कि वर्षा के जल से श्रेष्ठ दूसरा जल नहीं और व्यक्ति का आत्मबल ही उसका सबसे बड़ा बल है। मनुष्य का तेज उसकी आंखें हैं और उसकी सबसे प्रिय वस्तु है अन्न। संसार में कोई भी अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं है। जो पास में नहीं है, उसी की चाह प्रत्येक व्यक्ति करता है। निर्धन धन चाहता है। पशु वाणी चाहते हैं। मनुष्य स्वर्ग की और देवत्व को प्राप्त जीव मोक्ष की कामना करते हैं। आचार्य यहां संकेत दे रहे हैं कि देवता भी असुरक्षित हैं। उन्हें भी पुण्य समाप्ति के बाद मृत्युलोक में आना पड़ता है इसीलिए वे देवयोनि से भी मुक्त होना चाहते हैं।
सत्य की महत्ता बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि सत्य के कारण ही दुनिया के समस्त कार्य-व्यापार चल रहे हैं। लक्ष्मी, मनुष्य के प्राण और यह संसार सभी नश्वर हैं, केवल धर्म ही शाश्वत है अर्थात मनुष्य को अपनी रुचि धर्म में रखनी चाहिए।

।। अथ षष्ठोऽध्यायः ।।
छठा अध्याय
बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी इंद्रियों को वश में करके समय के अनुरूप बगुले के समान अपने कार्य को सिद्ध करना चाहिए। तब तक धैर्य रखना चाहिए जब तक लक्ष्य चलकर पास न आ जाए।
श्रुत्वा धर्म विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्। 
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात् ।।

मनुष्य वेद आदि शास्त्रों को सुनकर धर्म के रहस्य को जान लेता है। विद्वानों की बात सुनकर दुष्ट व्यक्ति बुरे ढंग से सोचना छोड़ देता है। गुरु से ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य संसार के बंधन से छूट जाता है। ।॥11॥
चाणक्य का विश्वास है कि व्यक्ति वेद-शास्त्रों के अध्ययन के अलावा उन्हें सुनकर भी लाभ उठा सकता है। उनका कहना है कि वेद आदि शास्त्रों के सुनने से व्यक्ति धर्म के रहस्य को समझ सकता है और विद्वानों के उपदेश सुनकर अपने बुरे विचारों को त्याग सकता है। सुनने का अर्थ वेद प्रतिपादित ज्ञान को गुरुमुख से श्रवण करना भी है। इस प्रकार ज्ञान की प्राप्ति श्रवण से ही होती है, जिससे मनुष्य संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
आचार्य ने इस श्लोक द्वारा श्रवण के महत्व पर प्रकाश डाला है। यह श्रवण विद्वान और अनुभवी गुरु के मुख से होने पर ही फल देता है। 'सुनो, मनन करो और उसे आत्मसात् करो-यह श्रुतिवाक्य है।
पक्षिणां काकश्चाण्डालः पशूनां चैव कुक्कुरः।
मुनीनां कोपी चाण्डालः सर्वेषां चैव निन्दकः ।।

पक्षियों में कौआ, पशुओं में कुत्ता, मुनियों में क्रोध करने वाला और सामान्यजन में दूसरे लोगों की निंदा करने वाला व्यक्ति दुष्ट और चाण्डाल होता है। ।।2।।
भाव यह है कि दुष्ट और चाण्डाल प्राणी सभी स्थानों पर होते हैं परंतु दुष्टता की सीमा कहां होती है, इसकी व्याख्या चाणक्य ने की है। कौआ पक्षियों में इसलिए सबसे अधिक गंदा और दुष्ट माना गया है क्योंकि उसे किसी प्रकार की शुद्धता का कोई भी ज्ञान नहीं होता, वह सदैव गंदगी पर जाकर बैठता है, पशुओं में कुत्ते का भी वही हाल है। आचार्य का कहना है कि ऋषि-मुनियों में भी जो व्यक्ति क्रोध करता है, उसे दुष्ट और चांडाल मानना चाहिए, परंतु सामान्य व्यक्तियों में दुष्ट और चाण्डाल वह है, जो दूसरों की निंदा करता है।
'भस्मना शुध्यते कांस्यं ताम्रमम्लेन शुध्यति ।
 रजसा शुध्यते नारी नदी वेगेन शुध्यति ।।

कांसे का बर्तन राख से मांजने पर, तांबा खटाई से, स्त्री रजस्वला होने के बाद तथा नदी का जल तीव्र वेग से शुद्ध होता है। ।।3।।
भ्रमन् सम्पूज्यते राजा भ्रमन् सम्पूज्यते द्विजः।
 भ्रमन् सम्पूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ती विनश्यति।।

अपनी प्रजा में घूम-फिरकर उसकी स्थिति को जानने वाले राजा की प्रजा उसकी पूजा करती है। जो द्विज अर्थात विद्वान ब्राह्मण देश- प्रदेश की भूमि पर ज्ञान का प्रचार करता है, उसकी पूजा होती है। जो योगी सदा घूमता रहता है, वह आदर-सत्कार का भागी होता है, परंतु भ्रमण करने वाली स्त्री भ्रष्ट हो जाती है। 14।।
राजा का कर्तव्य यह है कि वह स्वयं भी अपने राज्य में घूम फिरकर प्रजा की वास्तविक स्थिति ज्ञात करने की कोशिश करे। वह अपने ज्ञान के अनुसार उसके दुख दूर करने का प्रयत्न कर सकता है।
ब्राह्मण का कर्तव्य है कि वह घूम-फिरकर लोगों को शास्त्रों का ज्ञान दे। एक स्थान पर रुकने से उस स्थान और वहां संपर्क में आने वाले लोगों से संबंध स्थापित होने के कारण आसक्ति और मोह का हृदय में उठ खड़ा होना स्वाभाविक है। यह स्थिति योगी को बांधती है। इसके लिए योगी का एक स्थान पर 24 घंटों से ज्यादा नहीं रुकना चाहिए। इसके विपरीत इन लोगों के समान इधर-उधर घूमने वाली नारी अपने धर्म से विचलित हो जाती है। स्त्री का इधर-उधर घूमना परिवार के अपमान का कारण होता है और वह समाज की नजरों में गिर जाता है।
तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः। 
सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता ।।

मनुष्य जैसा भाग्य लेकर जन्म लेता है, उसकी बुद्धि उसी के अनुसार प्रवृत्त होती है और वह व्यवसाय अथवा काम-धन्धा भी वैसा ही चुनता है तथा उसके सहायक भी उसी प्रकार के होते हैं। ।।511
आचार्य का कहना है कि जो होना है वह तो होकर ही रहता है। मनुष्य काम-धन्चे के लिए अपनी बुद्धि के अनुरूप ही व्यवसाय का चुनाव करता है और उसके काम-धन्धे में सहायता करने वाले भी उसके विचारों के अनुरूप मिल जाते हैं।
कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।
 कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ।।

समय सब प्राणियों को अपने पेट में पचा लेता है अर्थात सबको नष्ट कर देता है। काल ही सबकी मृत्यु का कारण होता है। जब सब लोग सो जाते हैं, तो काल ही जागता रहता है। इसमें संदेह नहीं कि काल बड़ा बलवान है। काल से पार पाना अत्यंत कठिन है। ।। 611
व्यक्ति काल के प्रभाव से नहीं बच सकता है, जीवों सहित सभी वस्तुएं काल के प्रभाव से नष्ट हो जाती हैं। सबके सो जाने पर भी वह काल जागता रहता है। काल चक्र सृष्टि के आरंभ से लेकर प्रलय काल तक चलता रहता है कभी नहीं रुकता। जो उसकी उपेक्षा करता है, काल (समय) उसे पीछे छोड़कर आगे निकल जाता है। काल हम सबके साथ ऐसे खेलता है जैसे शिकार बने चूहे के साथ बिल्ली क्रीड़ा करती है।
न पश्यति च जन्मान्धः कामान्धो नेव पश्यति। 
न पश्यति मदोन्मत्तो ह्यर्थी दोषान् न पश्यति ।।

जन्म से अंधे को, कामांध को और शराब आदि के नशे में मस्त व्यक्ति को कुछ दिखाई नहीं देता। स्वार्थी व्यक्ति की भी यही स्थिति है क्योंकि वह उस व्यक्ति के दोषों को देख नहीं पाता, जिससे उसके स्वार्थों की पूर्ति होती हो। ।।7।।
स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते। 
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ।।

जीवात्मा स्वयं कार्य करता है और उसका फल भी स्वयं भोगता है। वह स्वयं ही विभिन्न योनियों में जन्म लेकर संसार में भ्रमण करता है और स्वयं ही अपने पुरुषार्थ से संसार के बंधनों तथा आवागमन के चक्र से छूटकर मुक्ति को प्राप्त करता है। ।।8।।
आचार्य के अनुसार, व्यक्ति जैसे कर्म करता है, उसके अनुसार ही उसे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। कर्मों के फल के अनुरूप ही उसे दुख और सुख मिलता है। वह स्वयं ही अपने कर्मों के अनुसार संसार में विभिन्न योनियों में जन्म लेता है और जन्म-मरण के चक्र में पड़ा रहता है। उसे इस चक्र से मुक्ति भी स्वयं उसके श्रेष्ठ कार्यों से ही मिलती है। आचार्य का कथन है कि बंधन और मुक्ति दोनों तुम्हारे हाथों में हैं। 'स्वयं' शब्द पर जोर दिया है, जो

उत्तरदायित्व की ओर संकेत करता है।
राजा राष्ट्रकृतं भुक्ते राज्ञः पापं पुरोहितः।
 भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा ।।

राजा को राष्ट्र के पापों का फल भोगना पड़ता है। राजा के पाप पुरोहित भोगता है। पत्नी के पाप उसके पति को भोगने पड़ते हैं और शिष्य के पाप गुरु भोगते हैं। 1911
राजा यदि राष्ट्र को ठीक ढंग से नहीं चलाता अर्थात अपना कर्तव्य पालन नहीं करता तो उससे होने वाली हानि राजा को ही कष्ट पहुंचाती है। यदि पुरोहित अर्थात राजा को परामर्श देने वाला व्यक्ति राजा को ठीक तरह से मंत्रणा नहीं देता तो उसका पाप पुरोहित को भोगना पड़ता है। स्त्री यदि कोई बुरा कार्य करती है तो उसका पति दोषी होता है। इसी प्रकार शिष्य द्वारा किए गए पाप का वहन गुरु को करना पड़ता है। 'अधीन' द्वारा किए गए पाप का भागी स्वामी होता है।
ऋणकर्ता पिता शत्रु माता च व्यभिचारिणी। 
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्र शत्रुरपण्डितः ।।

ऋणी पिता अपनी संतान का शत्रु होता है। यही स्थिति बुरे आचरण वाली माता की भी है। सुन्दर पत्नी अपने पति की और मूर्ख पुत्र अपने माता-पिता का शत्रु होता है। ।।10।।
किसी भी कारण से अपनी संतान पर ऋण छोड़कर मरने वाला पिता शत्रु कहा गया है, क्योंकि उसके ऋण की अदायगी संतान को करनी पड़ती है। व्यभिचारिणी माता भी शत्रु के समान मानी गई है, क्योंकि उससे परिवार कलंकित होता है। इसी प्रकार अत्यधिक सुंदर स्त्री पति के लिए शत्रु के समान है क्योंकि बहुत से लोग उसके रूप से आकृष्ट होकर उसे पथभ्रष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। मूर्ख पुत्र के कार्यों की वजह से माता-पिता को नित्य अपमान सहना पड़ता है, इससे परिवार को दुख व हानि होती है। इसीलिए वह परिवार का शत्रु है।
लुब्धमर्थन गृह्णीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा।
 मूर्खः छन्दोऽनुवृत्तेन यथार्थत्वेन पण्डितम्।।

लोभी को धन देकर, अभिमानी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करके और विद्वान को सच्ची बात बताकर वश में करने का प्रयत्न करना चाहिए। ।। 1111
लोभी व्यक्ति अपने स्वार्थ में इतना अंधा होता है कि वह धन प्राप्ति के बिना संतुष्ट नहीं होता। उसे धन देकर वश में किया जा सकता है। जिस व्यक्ति को अभिमान है, अहंकार है, उसे नम्रतापूर्वक व्यवहार करके वश में किया जा सकता है। मूर्ख व्यक्ति सदैव हठी होता
है, इसलिए उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करके उसे अपने अनुकूल बनाया जा सकता है
और विद्वान व्यक्ति को वश में करने का सबसे सही उपाय यह है कि उसे वास्तविकता से
परिचित करवाया जाए।
वरं न राज्यं न कुराजराज्यं वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम्।
वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो वरं न दारा न कुदारदाराः।।
बुरे राज्य की अपेक्षा किसी प्रकार का राज्य न होना अच्छा है, दुष्ट मित्रों के बजाय मित्र न होना अच्छा है, दुष्ट शिष्यों की जगह शिष्य न होना अधिक अच्छा है और दुष्ट पत्नी का पति कहलाने से अच्छा है कि पत्नी न हो। ।।12।।
चाणक्य मानते हैं कि शासन-व्यवस्था से संपन्न राज्य में ही रहना चाहिए और मित्र भी सोच-विचारकर ही बनाने चाहिए।
गुरु को भी चाहिए कि परखकर शिष्य बनाए तथा दुष्ट स्त्री को पत्नी बनाने की अपेक्षा अच्छा है कि विवाह ही न किया जाए।
कुराजराज्येन कुतः कुतोऽस्ति निर्वृतिः । प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण
कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः
 कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः ।।

दुष्ट राजा के शासन में प्रजा को सुख नहीं मिल सकता, धोखेबाज मित्र से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती, दुष्ट स्त्री को पत्नी बनाने से घर में सुख और शांति नहीं रह सकती, इसी प्रकार खोटे शिष्य को विद्या दान देने वाले गुरु को भी अपयश ही मिलता है। ।।13।।
सिंहादेकं बकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।
 वायसात्पञ्च शिक्षेच्च षट्शुनस्त्रीणि गर्दभात् ।।

व्यक्ति को शेर और बगुले से एक-एक, मुर्गे से चार, कौए से पांच, कुत्ते से छह और गधे से तीन गुण सीखने चाहिए। ।।14।।
इस संसार की प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक प्राणी हमें कोई न कोई उपदेश दे रहे हैं। इन गुणों को सीखकर जीवन में सफलता, उन्नति और विकास किया जा सकता है। आगामी चार श्लोकों में ऐसे ही कुछ गुणों का वर्णन किया गया है।
प्रभूतं कार्यमल्पं वा यन्नरः कर्तुमिच्छति ।
 सर्वारम्भेण तत्कार्य सिंहादेकं प्रचक्षते ।।

कार्य छोटा हो या बड़ा व्यक्ति को शुरू से ही उसमें पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए, यह शिक्षा हम सिंह से ले सकते हैं। ।।15।।

इसका भाव यह है कि व्यक्ति जो भी कार्य करे, चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, उसे पूरी शक्ति लगाकर करना चाहिए, तभी उसमें सफलता प्राप्त होती है। सिंह पूरी शक्ति से शिकार पर झपटता है- वह बड़ा हो या छोटा। बड़े को देखकर घबराता नहीं और छोटे की उपेक्षा नहीं करता। सफलता पाने के लिए प्रयास पर विश्वास आवश्यक है।
इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः।
 देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत् ।।

बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को वश में करके समय के अनुरूप अपनी क्षमता को तौलकर बगुले के समान अपने कार्य को सिद्ध करना चाहिए। ।।16।।
बगुला जब मछली को पकड़ने के लिए एक टांग पर खड़ा होता है तो उसे मछली के शिकार के अतिरिक्त अन्य किसी बात का ध्यान नहीं होता। इसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति जब किसी कार्य की सिद्धि के लिए प्रयत्न करे तो उसे अपनी इन्द्रियां वश में रखनी चाहिए। मन को चंचल नहीं होने देना चाहिए तथा चित्त एक ही दिशा में, एक ही कार्य की पूर्ति में लगा रहे, ऐसा प्रयास करना चाहिए। शिकार करते समय बगुला इस बात का पूरा अंदाजा लगा लेता है कि किया गया प्रयास निष्फल तो नहीं जाएगा।
प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बंधुषु ।
 स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।।

समय पर उठना, युद्ध के लिए सदा तैयार रहना, अपने बन्धुओं को उनका उचित हिस्सा देना और स्वयं आक्रमण करके भोजन करना मनुष्य को ये चार बातें मुर्गे से सीखनी चाहिए। ।।17।।
गूढमैथुनचरित्वं च काले काले च संग्रहम्।
 अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात्।।

छिपकर मैथुन करना, ढीठ होना, समय-समय पर कुछ वस्तुएं इकट्ठी करना, निरंतर सावधान रहना और किसी दूसरे पर पूरी तरह विश्वास नहीं करना, ये पांच बातें कोए से
सीखने योग्य है। ।।18
बह्वाशी स्वल्पसन्तुष्टः सुनिद्रो लघुचेतनः ।
 स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणाः ।।

बहुत भोजन करना लेकिन कम में भी संतुष्ट रहना, गहरी नींद लेकिन जल्दी से उठ बैठना, स्वामिभक्ति और बहादुरी ये छह गुण कुत्ते से सीखने चाहिए। ।।1911
सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं न च पश्यति।
 सन्तुष्टश्चरते नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्।।
व्यक्ति को ये तीन बातें गधे से सीख लेनी चाहिए-अपने मालिक के लिए बोझ ढोना, सर्दी-गमीं की चिंता नहीं करना तथा सदा संतोष से अपना जीवन बिताना। ।।2011
य एतान् विंशतिगुणानाचरिष्यति मानवः ।
 कार्याऽवस्थासु सर्वासु अजेयः स भविष्यति ।।

जो व्यक्ति इन बीस गुणों को सीख लेता है अर्थात इन्हें अपने आचरण में ले आता है, वह सब कायर्यों और अवस्थाओं में विजयी होता है अर्थात उसे किसी भी अवस्था में पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। ।।21।।
आचार्य का कथन है कि शास्त्रों में जो ज्ञान दिया गया है, वह सैद्धांतिक है। जिसने भी सफलता और उन्नति के तत्वों को स्वयं में, अपने आसपास या समूची प्रकृति में देखा, उसे उन्होंने जिज्ञासुओं के लिए लिपिबद्ध कर दिया, लेकिन उसे अपने जीवन में उतारने के लिए संदेह रहित होना जरूरी है।
ये गुण पशु-पक्षियों में सहज रूप से देखने को मिलते हैं। इन्हें अपनाकर ही वे अस्तित्व की लड़ाई में स्वयं को बचा पाते हैं। कैसे? उसी की बानगी दी है आचार्य ने। भगवान दत्तात्रेय द्वारा 24 गुरुओं से कुछ-न-कुछ सीखना।
इसी तरह के अन्य उदाहरण हैं। अपनी जांच-पड़ताल के लिए आप यह देखें कि इनमें से आपके पास कौन-से गुण हैं और कौन से नहीं!
अध्याय का सार
श्रवण का जीवन में अत्यंत महत्व है लेकिन उसकी भी एक सुनिश्चित विधि है। गुरुमुख से ही शास्त्र का श्रवण करना चाहिए। गुरु विद्वान और अनुभवी होता है, इसलिए उसके सुने वचनों को जीवन में धारण करने से भटकाव समाप्त होता है, निश्चित दिशा मिलती है।
चाणक्य का कहना है कि मनुष्य जीवन बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को शुभ कार्यों की ओर लगाए, दूसरों की निंदा आदि करना छोड़ दे। वेद आदि शास्त्रों के पढ़ने और शुभ कार्य करने से मनुष्य इस संसार में यश को प्राप्त होता है। चाणक्य कहते हैं, जिस मनुष्य के पास धन है, सभी उसके भाई-बंधु, मित्र बनने को तैयार हो जाते हैं और उसे ही श्रेष्ठ पुरुष मान लिया जाता है। वे यह भी कहते हैं कि जैसी होनी होती है, मनुष्य की बुद्धि और उसके कर्म भी उसी प्रकार के हो जाते हैं। इस संसार में समय ही ऐसी वस्तु है जिसे टाला नहीं जा सकता। चाणक्य के अनुसार जब मनुष्य अपने स्वार्थ में अंधा हो जाता है तो उसे अच्छे-बुरे में अंतर दिखाई नहीं देता। मनुष्य का बंधन और मुक्ति उसके द्वारा किए जाने वाले कमाँ पर ही आश्रित होते हैं, क्योंकि वह जैसा

कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है।
आचार्य के अनुसार प्रजा के कार्यों का फल राजा को, पत्नी के कार्यों का फल पति को तथा पिता द्वारा छोड़ा गया ऋण पुत्रों को चुकाना पड़ता है। व्यभिचारिणी माता और मूर्ख पुत्र मनुष्य के लिए शत्रु के समान होते हैं। चाणक्य सामान्य जीवन में आने वाली समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि किसी का लोभी व्यक्ति से पाला पड़ जाए तो उसे धन देकर, विद्वान को अपने मधुर व्यवहार से और मूर्ख तथा दुष्ट को उसके अनुकूल व्यवहार से वश में किया जा सकता है। ऐसे राज्य में रहना उचित नहीं, जहां सुव्यवस्था न हो। इसी प्रकार दुष्ट से मित्रता करने के बजाय मित्ररहित रहकर जीवन गुजार देना ज्यादा हितकर है।
चाणक्य का कहना है कि सिंह से एक गुण सीखना चाहिए- किसी भी कार्य को करते समय उसमें अपनी पूरी शक्ति लगाना। बगुला मछली पकड़ने के लिए आंखें बंद करके एक टांग पर खड़ा होता है, यह इंद्रियों को वश में करने का उदाहरण है। यह बगुले से सीखने योग्य गुण है। प्रयास करना महत्वपूर्ण है, इसलिए उसे करने से पहले अपनी क्षमता को परख लें। बगुला यह निश्चित हो जाने के बाद ही कि अब शिकार बच नहीं सकता, अपना प्रयास करता है। इसी प्रकार मुर्गे से चार बातें सीखनी चाहिए। मनुष्य को ब्रह्ममुहूर्त में उठना, झगड़े का संकट उत्पन्न होने पर पीछे न हटना और जो कुछ भी प्राप्त हो उसे अपने भाई-बन्धुओं में बांटकर ही उपयोग में लाना। इसी प्रकार कौए में भी पांच गुण होते हैं, छिपकर मैथुन करना, हठी होना, समय-समय पर वस्तुओं को इकट्ठा करना, हमेशा चौकन्ना रहना तथा किसी पर विश्वास न करना। कुत्ते में बहुत अधिक खाने की शक्ति होती है, परंतु जब उसे बहुत कम भोजन मिलता है तब भी वह उसी में संतोष कर लेता है। वह एकदम गहरी नींद में सो जाता है, परंतु अत्यंत सतर्क रहता है और जरा-सी आहट होने पर ही जाग उठता है। उसे अपने मालिक से प्रेम होता है और समय पड़ने पर वह वीरतापूर्वक शत्रु से लड़ता भी है। इसी प्रकार गधा अत्यंत थका होने पर भी अपने काम में लगा रहता है, उसे सर्दी-गर्मी आदि किसी बात का कष्ट नहीं होता और अपने जीवन से पूर्णरूप से संतुष्ट रहता है।
चाणक्य के अनुसार जो व्यक्ति इन गुणों को धारण कर लेता है, उसे जीवन में सफलता प्राप्त होती ही है। सफलता की कामना करने वाले को चाहिए कि वह इन गुणों को अपने जीवन में विशेष स्थान दे। इनके आधार पर हम अपनी संभावनाओं को भी आंक सकते हैं। देखिए, कसौटी पर घिसकर अपने खरेपन को।

।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।।
सातवां अध्याय
जिस मनुष्य ने विद्या को ग्रहण नहीं किया, उसका जीवन कुत्ते की उस पूंछ के समान है, जिससे न तो वह अपने गुप्त भागों को ढंक सकता है, न ही काटने वाले मच्छर आदि कीटों को उड़ा सकता है।
अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च। वञ्चनं चाऽपमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ।।
एक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने धन के नष्ट होने को, मानसिक दुख को, घर के दोषों को, किसी व्यक्ति द्वारा ठगे जाने और अपना अपमान होने की बात किसी पर भी प्रकट न करे, किसी को भी न बताए।।।1।।
प्रत्येक व्यक्ति को कभी-न-कभी धन की हानि उठानी पड़ती है, उसके मन में किसी प्रकार का दुख या संताप भी हो सकता है। प्रत्येक घर में कोई-न-कोई बुराई भी होती है। कई बार उसे धोखा देकर ठगा जाता है और किसी के द्वारा उसे अपमानित भी होना पड़ सकता है, परंतु समझदार व्यक्ति को चाहिए इन सब बातों को वह अपने मन में ही छिपाकर रखे, इन्हें किसी दूसरे व्यक्ति पर प्रकट न करें। जानकर लोग हंसी ही उड़ाते हैं। ऐसी स्थिति में वह स्वयं उनका मुकाबला करे और सही अवसर की तलाश करता रहे।
धन-धान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च। आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् ।।
जो व्यक्ति धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या अथवा किसी कला को सीखने में, भोजन
।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।।
सातवां अध्याय
जिस मनुष्य ने विद्या को ग्रहण नहीं किया, उसका जीवन कुत्ते की उस पूंछ के समान है, जिससे न तो वह अपने गुप्त भागों को ढंक सकता है, न ही काटने वाले मच्छर आदि कीटों को उड़ा सकता है।
अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च। 
वञ्चनं चाऽपमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ।।

एक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने धन के नष्ट होने को, मानसिक दुख को, घर के दोषों को, किसी व्यक्ति द्वारा ठगे जाने और अपना अपमान होने की बात किसी पर भी प्रकट न करे, किसी को भी न बताए।।।1।।
प्रत्येक व्यक्ति को कभी-न-कभी धन की हानि उठानी पड़ती है, उसके मन में किसी प्रकार का दुख या संताप भी हो सकता है। प्रत्येक घर में कोई-न-कोई बुराई भी होती है। कई बार उसे धोखा देकर ठगा जाता है और किसी के द्वारा उसे अपमानित भी होना पड़ सकता है, परंतु समझदार व्यक्ति को चाहिए इन सब बातों को वह अपने मन में ही छिपाकर रखे, इन्हें किसी दूसरे व्यक्ति पर प्रकट न करें। जानकर लोग हंसी ही उड़ाते हैं। ऐसी स्थिति में वह स्वयं उनका मुकाबला करे और सही अवसर की तलाश करता रहे।
धन-धान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च। 
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् ।।

जो व्यक्ति धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या अथवा किसी कला को सीखने में, भोजन
के समय अथवा व्यवहार में लज्जाहीन होता है, अर्थात् संकोच नहीं करता वह सुखी रहता है। ।। 211
व्यक्ति को लेन-देन में किसी प्रकार का संकोच नहीं करना चाहिए। अपनी बात स्पष्ट और साफ शब्दों में कहनी चाहिए। विद्या अथवा किसी गुण को सीखते समय संकोच करने से भी हानि होती है।
इसी प्रकार भोजन करते समय जो व्यक्ति संकोच करता है, वह भूखा रह जाता है, इसीलिए भोजन के समय, लोकाचार और व्यवहार के समय व्यक्ति को संकोच न करके अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त करने चाहिए। लोग श्लोक के आखिरी वाक्य को उद्धृत कर कहते हैं कि 'निर्लज्ज सुखी होता है।' संदर्भ के अनुसार इसका अर्थ करना चाहिए ताकि अर्थ का अनर्थ न हो।
सन्तोषाऽमृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम् ।
 न च तद् धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ।।

जो व्यक्ति संतोषरूपी अमृत से तृप्त है, मन से शांत है, उसे जो सुख प्राप्त होता है, वह धन के लिए इधर-उधर दौड़-धूप करने वाले को कभी प्राप्त नहीं होता। ।13।।
संतोष की बड़ी महिमा है। जो व्यक्ति संतोष से अपना जीवन बिताते हैं और शांत रहते हैं, उन्हें जितना सुख प्राप्त होता है, वह धन के लालच के लिए हर समय दौड़-धूप करने वाले व्यक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता। संकेत है कि लोभी से संतोषी श्रेष्ठ है और संतोष जीवनदाता है।
सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने ।
 त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने तपदानयोः ।।

अपनी पत्नी, भोजन और घन-इन तीनों के प्रति मनुष्य को संतोष रखना चाहिए, परंतु विद्याध्ययन, तप और दान के प्रति कभी संतोष नहीं करना चाहिए। ।14।।
चाणक्य के अनुसार, व्यक्ति को अपनी पत्नी से ही संतुष्ट रहना चाहिए, अन्य स्त्रियों से संबंध बनाना अपमानित करता है। व्यक्ति को घर में जो भोजन प्राप्त होता है और उसकी जितनी आय है उसमें ही संतोष करना चाहिए लेकिन विद्या के अध्ययन, यम-नियमों आदि के पालन और दान आदि कार्यों से कभी भी संतुष्ट नहीं होना चाहिए अर्थात व्यक्ति जितना अधिक अध्ययन करेगा, जितना अधिक अपने चरित्र को ऊंचा उठाने के लिए तप करेगा तथा दान आदि करता रहेगा, उससे मनुष्य को लाभ होगा। ये तीन चीजें ऐसी हैं, जिनसे मनुष्य को संतोष नहीं करना चाहिए। संतुष्टि कहां हो और कहां नहीं, जीवन में यह जानना भी जरूरी है।
विप्रयोर्विप्रवहून्योश्च दम्पत्योः स्वामिभृत्ययोः । 
अन्तरेण न गन्तव्यं हलस्य वृषभस्य च।।

दो ब्राह्मणों के बीच से, ब्राह्मण और अग्नि के बीच से, पति-पत्नी के बीच से, सेवक और नौकर के बीच से तथा हल-बैल के बीच से कभी नहीं निकलना चाहिए। ।।5।।
जहां दो ब्राह्मण खड़े हों या बात कर रहे हों, उनके बीच से नहीं निकलना चाहिए। इससे उनका अपमान होता है। इसी प्रकार ब्राह्मण और अग्नि के बीच से निकलकर नहीं जाना चाहिए, हो सकता है कि ब्राह्मण हवन, यज्ञ आदि कर रहा हो।
इसी प्रकार पति-पत्नी जहां कहीं खड़े अथवा बैठे हों, उनके बीच से निकलना भी अनुचित माना गया है। मालिक और नौकर, हल और बैल-इन दोनों के बीच से भी नहीं निकलना चाहिए, हो सकता है कि मालिक और नौकर किसी विशेष बात पर चर्चा कर रहे हों। हल और बैल के बीच में से निकलने का भाव बिलकुल स्पष्ट है कि ऐसे में चोट लग सकती है।
पादाभ्यां न स्पृशेदग्निं गुरु ब्राह्मणमेव च।
 नैव गं न कुमारीं च न वृद्धं न शिशुं तथा।।

अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गाय, कुंवारी कन्या, बूढा आदमी और छोटे बच्चे-इन सबको पैर से कभी नहीं छूना चाहिए। ।।6।।
कुछ कार्य ऐसे भी हैं, जिन्हें करने से हानि होती है और कुछ कार्य आचार-व्यवहार के विपरीत होते हैं, उन्हें करने से समाज में अपयश होता है। अग्नि को पवित्र माना गया है, इसलिए उसे पैर से स्पर्श नहीं करना चाहिए। गुरु, ब्राह्मण और गाय को भी पूज्य होने के कारण पैर से छूना उचित नहीं। कुंवारी लड़की, बूढ़े आदमी और बच्चे भी सम्मान के पात्र होते हैं, इसलिए इन्हें भी पैर से नहीं छूना चाहिए। पूज्य को यथायोग्य सम्मान देने पर यदि आयु, विद्या, यश और बल की प्राप्ति होती है, तो अनादर करने से इनकी हानि भी तो होगी ही। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनसे इस कथन की पुष्टि होती है।
शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम्। 
हस्ती शतहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनम् ।।

बैलगाड़ी से पांच हाथ, घोड़े से दस हाथ और हाथी से सौ हाथ दूर रहने में ही मनुष्य की भलाई है। लेकिन दुष्ट से बचने के लिए यदि स्थान विशेष का त्याग भी करना पड़े तो हिचकना नहीं चाहिए। ।1711
व्यक्ति को स्वयं इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि किसी कारणवश उसे हानि न पहुंचे। बैलगाड़ी के बिलकुल निकट चलने से कोई दुर्घटना हो सकती है। घोड़ा किसी प्रकार की हानि पहुंचा सकता है। हाथी से भी कुचले जाने का भय रहता है, इसलिए इनसे दूर रहना चाहिए। चाणक्य का मानना है कि दुष्ट व्यक्ति इन सबसे बुरा होता है। इन सबसे बचने का यदि कोई और उपाय न हो तो व्यक्ति को स्वयं वह स्थान विशेष त्याग देना चाहिए।
हस्ती अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताड्यते ।
शृंगी लगुडहस्तेन खड्ङ्गहस्तेन दुर्जनः ।।

हाथी को अंकुश से वश में किया जाता है। घोड़े को हाथ की थाप से सीधे रास्ते पर लगाया जाता है। सींग वाले पशुओं को डंडा मारकर सीधे रास्ते पर लाया जा सकता दुष्ट व्यक्ति को हाथ में पकड़ी हुई तलवार से मारा जाना चाहिए क्योंकि वह वश में नहीं आता, उसे नष्ट ही करना होता है। 118।।
तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा धनगर्जिते।
 साधवः परसम्पत्ती खलः परविपत्तिषु ।।

ब्राह्मण भोजन से तृप्त हो जाता है, मोर बादलों के गर्जने पर, सज्जन दूसरे को संपन्न और सुखी देखकर परंतु दुष्ट दूसरों को विपत्ति में पड़ा देखकर प्रसन्न होते हैं। 11911
आचार्य चाणक्य ने यहां स्वभाव की ओर संकेत किया है। भोजन करके ब्राह्मण संतुष्ट होता है, क्योंकि इससे उसे खिलाने वाले को पुण्य की प्राप्ति होती है। बादलों को जल से भरा और प्रसन्नता के कारण गर्जना करता देखकर मयूर नृत्य करने लगता है। इसी तरह सज्जन दूसरों को सुखी देखकर हर्ष का अनुभव करते हैं, जबकि दुष्ट दूसरे के दुख में सुखी होते हैं।
आचार्य ने दुष्ट और सज्जन के स्वभाव के अंतर से यह बताना चाहा है कि प्रत्येक को स्वयं में झांककर देखना चाहिए कि वह दूसरों के सुख में सुख का अनुभव कर रहा है या उसे दूसरों को दुख पहुंचाने में या दुखी देखने में सुख की अनुभूति होती है। पहली स्थिति सज्जन की है और दूसरी दुष्ट व्यक्ति की।
अनुलोमेन बलिनं प्रतिलोमेन दुर्जनम्। 
आत्मतुल्यबलं शत्रु विनयेन बलेन वा।।

बलवान शत्रु को अनुकूल तथा दुर्जन शत्रु को प्रतिकूल व्यवहार द्वारा अपने वश में करें। इसी प्रकार अपने समान बल वाले शत्रु को विनम्रता या बल द्वारा, जो भी उस समय उपयुक्त हो, अपने वश में करने का प्रयत्न करना चाहिए। ।।10।।
चाणक्य का कहना है कि समय और स्थिति के अनुसार अपने शत्रु से व्यवहार करना चाहिए। यदि शत्रु बलवान है तो विनयपूर्वक उसे जीतने का प्रयत्न करना चाहिए अथवा अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। दुष्ट शत्रु के साथ प्रतिकूल व्यवहार करना चाहिए क्योंकि सज्जनतापूर्वक किए गए व्यवहार को वह कमजोरी समझेगा, इसलिए उसके
साथ ऐसा व्यवहार इस प्रकार किया जाना चाहिए ताकि उसकी दुष्टता पर अंकुश लगे। बाहुवीर्य बलं राज्ञो ब्राह्मणो ब्रह्मविद् बली। रूपयौवनमाधुर्य स्त्रीणां बलमुत्तमम् ।।
राजा का बल अथवा शक्ति उसकी भुजाओं का बल है। ब्राह्मण का बल उसका ज्ञान
शृंगी लगुडहस्तेन खड्ङ्गहस्तेन दुर्जनः ।।
हाथी को अंकुश से वश में किया जाता है। घोड़े को हाथ की थाप से सीधे रास्ते पर लगाया जाता है। सींग वाले पशुओं को डंडा मारकर सीधे रास्ते पर लाया जा सकता दुष्ट व्यक्ति को हाथ में पकड़ी हुई तलवार से मारा जाना चाहिए क्योंकि वह वश में नहीं आता, उसे नष्ट ही करना होता है। 118।।
तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा धनगर्जिते। साधवः परसम्पत्ती खलः परविपत्तिषु ।।
ब्राह्मण भोजन से तृप्त हो जाता है, मोर बादलों के गर्जने पर, सज्जन दूसरे को संपन्न और सुखी देखकर परंतु दुष्ट दूसरों को विपत्ति में पड़ा देखकर प्रसन्न होते हैं। 11911
आचार्य चाणक्य ने यहां स्वभाव की ओर संकेत किया है। भोजन करके ब्राह्मण संतुष्ट होता है, क्योंकि इससे उसे खिलाने वाले को पुण्य की प्राप्ति होती है। बादलों को जल से भरा और प्रसन्नता के कारण गर्जना करता देखकर मयूर नृत्य करने लगता है। इसी तरह सज्जन दूसरों को सुखी देखकर हर्ष का अनुभव करते हैं, जबकि दुष्ट दूसरे के दुख में सुखी होते हैं।
आचार्य ने दुष्ट और सज्जन के स्वभाव के अंतर से यह बताना चाहा है कि प्रत्येक को स्वयं में झांककर देखना चाहिए कि वह दूसरों के सुख में सुख का अनुभव कर रहा है या उसे दूसरों को दुख पहुंचाने में या दुखी देखने में सुख की अनुभूति होती है। पहली स्थिति सज्जन की है और दूसरी दुष्ट व्यक्ति की।
अनुलोमेन बलिनं प्रतिलोमेन दुर्जनम्। आत्मतुल्यबलं शत्रु विनयेन बलेन वा।।
बलवान शत्रु को अनुकूल तथा दुर्जन शत्रु को प्रतिकूल व्यवहार द्वारा अपने वश में करें। इसी प्रकार अपने समान बल वाले शत्रु को विनम्रता या बल द्वारा, जो भी उस समय उपयुक्त हो, अपने वश में करने का प्रयत्न करना चाहिए। ।।10।।
चाणक्य का कहना है कि समय और स्थिति के अनुसार अपने शत्रु से व्यवहार करना चाहिए। यदि शत्रु बलवान है तो विनयपूर्वक उसे जीतने का प्रयत्न करना चाहिए अथवा अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। दुष्ट शत्रु के साथ प्रतिकूल व्यवहार करना चाहिए क्योंकि सज्जनतापूर्वक किए गए व्यवहार को वह कमजोरी समझेगा, इसलिए उसके
साथ ऐसा व्यवहार इस प्रकार किया जाना चाहिए ताकि उसकी दुष्टता पर अंकुश लगे। बाहुवीर्य बलं राज्ञो ब्राह्मणो ब्रह्मविद् बली। रूपयौवनमाधुर्य स्त्रीणां बलमुत्तमम् ।।
राजा का बल अथवा शक्ति उसकी भुजाओं का बल है। ब्राह्मण का बल उसका ज्ञान

है और स्त्रियों का बल रूप और यौवन के साथ-साथ उनका सुमधुर व्यवहार है। ।।11।।
राजा के भुजबल से चाणक्य का भाव उसकी सशक्त सेना से है, जिस राजा की सेना सशक्त होगी, वह देश की रक्षा कर सकेगा परंतु इसके साथ-साथ शारीरिक रूप से राजा को स्वयं भी बलवान होना चाहिए। वह सेना की प्रेर प्रेरणा होता है। ब्राह्मण की शक्ति ईश्वर संबंधी ज्ञान है। स्त्रियों का बल रूप और यौवन के साथ-साथ उनका मधुर व्यवहार है। इन दोनों का समन्वय यदि न हो, तो स्त्री उतनी प्रभावशाली नहीं हो पाती जितनी कि उसमें संभावना है।
नाऽत्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्। छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः ।।
मनुष्य को अत्यन्त सरल और सीधा भी नहीं होना चाहिए। वन में जाकर देखो, सीधे वृक्ष काट दिए जाते हैं और टेढ़े-मेढ़े गांठों वाले वृक्ष खड़े रहते हैं। ।।12।।
आचार्य चाणक्य के अनुसार, मनुष्य को अत्यन्त सरल और सीधे-स्वभाव का भी नहीं होना चाहिए। इससे उसे सब लोग दुर्बल और मूर्ख मानने लगते हैं तथा हर समय कष्ट देने का प्रयत्न करते हैं। सीधा सादा व्यक्ति प्रत्येक व्यक्ति के के लिए सुगम होता है जबकि टेढ़े व्यक्ति से सब बचने। की कोशिश करते हैं। ऐसे में दुरुपयोग तो होगा ही।
यत्रोदकं तत्र वसन्ति हंसाः तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति।
न हंसतुल्येन नरेण भाव्यं पुनस्त्यजन्ते पुनराश्रयन्ते ।।

जहां जल रहता है, वहां हंस रहते हैं और जब जल सूख जाता है तो हंस उस स्थान को छोड़ देते हैं। मनुष्य को हंस के समान स्वार्थी नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे कभी त्याग करते हैं और कभी आश्रय लेते हैं। ।।13।।
मनुष्य ही नहीं देवता भी स्वार्थी हैं। जब तक कोई स्तुति करता है, संबंध रखते हैं, फिर छोड़ देते हैं। लेकिन चाणक्य इसे ठीक नहीं मानते। उनका मानना है कि सुख में ही नहीं, दुख में भी साथ नहीं छोड़ना चाहिए, यदि किसी ने समय पर आपके लिए कुछ किया है तो। ऐसा नीति की दृष्टि से भी आवश्यक है। संबंधों को तोड़ना बुद्धिमान व्यक्ति का स्वभाव या गुण नहीं है। कभी भी किसी की जरूरत पड़ सकती है। अगर संबंध ही तोड़ दिया, तो आप उसके पास फिर किस मुंह से जाएंगे।
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्। 
तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाऽम्भसाम्।।

अर्जित अथवा कमाए हुए धन का त्याग करना अर्थात् उसका ठीक ढंग से व्यय करना, उससे सार्थक लाभ उठाना ही उसकी रक्षा है। जिस प्रकार तालाब में भरे हुए जल को निकालते रहने से ही उस तालाब का पानी शुद्ध और पवित्र रहता है। ।।1411
मनुष्य द्वारा कमाए गए धन का सही उपयोग यही है कि वह उसे ठीक ढंग से काम में लाए। उसका दान करे, उसका उचित उपभोग करे-सही अर्थों में यही धन की रक्षा है। यदि धन कमाने के बाद उसका सही उपयोग नहीं किया जाएगा तो धन कमाने का लाभ ही क्या है? यह बात उसी प्रकार ठीक है जैसे यदि तालाब में भरे हुए पानी को निकाला नहीं जाएगा तो वह सड़ जाएगा। सड़ने से बचाने के लिए उसका उपयोग आवश्यक है। इसी तरह तालाब की रक्षा हो सकती है। धन की रक्षा का भी उपाय यह है कि उसका सदुपयोग किया जाए।
यस्याऽर्थास्तस्य मित्राणि यस्याऽर्थास्तस्य बान्धवाः। 
यस्याऽर्थाः स पुमांल्लोके यस्याऽर्थाः स च जीवति ।।

संसार में जिसके पास धन है उसी के सब मित्र होते हैं, उसी के सब भाई-बन्धु और स्वजन होते हैं। धनवान व्यक्ति को ही श्रेष्ठ व्यक्ति माना जाता है। इस प्रकार वह आदरपूर्वक अपना जीवन बिताता है। ।।15।।
आचार्य ने धन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए यहां स्पष्ट किया है कि मनुष्य के पास जब तक धन रहता है, तब तक सब उसके मित्र बने रहते हैं। जिसके पास धन होता है, उसके रिश्तेदार भी बहुत होते हैं। धनवान व्यक्ति को ही संसार में श्रेष्ठ माना जाता है और धनवान व्यक्ति का ही जीवन धन्य कहलाने योग्य है। निर्धन व्यक्ति तो निर्जीव के समान है क्योंकि न
तो उसकी ओर कोई ध्यान देता है, न ही कोई उसका अपना होता है।
धन में ऐसी शक्ति है कि यह जानते हुए भी कि यह आने-जाने वाला है सब लोग धनवान व्यक्ति को ही अपना मित्र और पारिवारिकजन बनाना उचित समझते हैं, उसे ही श्रेष्ठ व्यक्ति माना जाता है।
स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके चत्वारि चिह्नानि वसन्ति देहे।
दानप्रसंगो मधुरा च वाणी देवाऽर्चनं ब्राह्मणतर्पणं च।।

स्वर्ग से इस संसार में आने वाले जीव के शरीर में चार बातें उसके चिह्न रूप में रहती हैं अर्थात् उसके चार प्रमुख गुण होते हैं। उसमें दान देने की प्रवृत्ति होती है। वह मधुरभाषी होता है। देवताओं की पूजा-अर्चना करता है, उनका आदर-सत्कार करता है और विद्वान- ब्राह्मणों को सदैव तृप्त अर्थात् संतुष्ट रखता है। 111611
आचार्य चाणक्य के अनुसार, जिन व्यक्तियों में ये चार गुण होते हैं। वे मानो पृथ्वी पर उतरे हुए देवता ही हैं। वाणी में मिठास, प्रेमपूर्वक बिना अभिमान के बात करना, दान देने की प्रवृत्ति, देवताओं का आदर-सत्कार और उनकी पूजा-अर्चना करना तथा ब्राह्मणों को पूजा तथा आदर-सम्मान द्वारा तृप्त करने का प्रयत्न करना ही तो देवताओं के लक्षण हैं। इसे धर्मग्रंथों में दैवी संपत्ति कहते हैं।
अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।
नीचप्रसंगः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम् ।।

(इसी प्रकार) नरक में रहने वाले जब देह धारण कर इस संसार में आते हैं तो उनमें ऊपर बताए गए चिह्नों के सर्वथा विपरीत चिह्न होते हैं। वे मधुरभाषी होने के बजाय अत्यंत क्रोधी स्वभाव के होते हैं। कड़वी बात कहते हैं। वे निर्धन होते हैं। अपने परिवारजनों तथा मित्रों से वे द्वेष-भाव रखते हैं। उनकी संगति में नीच लोग रहते हैं और वे नीच कुल वालों की सेवा करते हैं। ।।1711
यह श्लोक पूर्व श्लोक के भाव से संबंधित है। दुष्ट दुष्ट लोग अत्यन्त क्रोधी स्वभाव के होते हैं। मधुर भाषण करने के बजाय कठोर और कड़वी बातें बोलते हैं। वे दरिद्र होते हैं अर्थात उनके पास धन नहीं होता। जिस प्रकार कुत्ता दूसरे अपरिचित कुत्ते को देखकर उस पर भौंकता है, उसी प्रकार दुष्ट अपनों से भी वैर-भाव रखने लगता है। उसके संगी-साथी नीच होते हैं और वह नीच लोगों की ही सेवा करता है। ऐसे लोग नरक से आते हैं और जहां रहते हैं वहां भी नरक ही बना देते हैं।
गम्यते यदि
मृगेन्द्र-मन्दिरं
लभ्यते
करिकपोलमौक्तिकम्।
जम्बुकाऽऽलयगते च प्राप्यते वत्स-पुच्छ खर-चर्म- खण्डनम्।।

यदि कोई मनुष्य सिंह की गुफा में पहुंच जाए तो वहां संभव है कि उसे हाथी के मस्तक का मोती (गजमुक्ता) प्राप्त हो जाए लेकिन यदि कोई गीदड़ की गुफा में जाएगा तो वहां उसे किसी बछड़े की पूंछ का अथवा गधे की खाल का टुकड़ा ही प्राप्त होगा। ।।18।।
इस श्लोक से चाणक्य का भाव यह है कि साहसी और शूरवीर व्यक्ति की संगति में यद्यपि भय और खतरा है, फिर भी वहां रत्नों की प्राप्ति हो सकती है, परंतु दुष्ट, कायर और ठग व्यक्ति के पास तो कुछ भी हाथ नहीं लगता, कुछ मिलता भी है, तो वह तुच्छ तथा निकृष्ट होता है।
शुनः पुच्छमिव व्यर्थ जीवितं विद्यया विना। 
न गुह्यगोपने शक्तं न च दंशनिवारणे ।।

विद्या के बिना मनुष्य का जीवन कुत्ते की उस पूंछ के समान है, जिससे न तो वह अपने शरीर के गुप्त भागों को ढक सकता है और न ही काटने वाले मच्छरों आदि को उड़ा सकता है। ।।19।।
वाचः शौचं च मनसः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
 सर्वभूते दया शौचं एतच्छीत्रं पराऽर्थिनाम् ।।

वाणी की पवित्रता, मन की शुद्धि, इंद्रियों का संयम, प्राणिमात्र पर दया, धन की पवित्रता, मोक्ष प्राप्त करने वाले के लक्षण होते हैं। ।।20।।
नीति ग्रंथों में अध्यात्म से संबंधित श्लोकों का आना कुछ पाठकों को खटक सकता है। उन्हें ऐसा लगेगा मानो आचार्य अपने लक्ष्य से भटक गए हैं। लेकिन ऐसा समझना आचार्य चाणक्य के व्यक्तित्व को न समझ पाना है। अपनी कूटनीतिक चालों से शत्रु को मात देने वाले आचार्य अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में इसीलिए सफल हुए क्योंकि वे अपने अंतरमन से उतने सरल और सहज थे। महान उ‌द्देश्य को प्राप्त करने के लिए लघु स्वार्थों को छोड़ने की उन्होंने शिक्षा ही नहीं दी, उन्हें अपने आचरण में भी विशिष्ट स्थान दिया। अध्यात्म उनके जीवन का आधार था। बंधन तो लीला मात्र है, असल में तो उनके सारे प्रयास मुक्ति के लिए ही थे।
उन्होंने इन श्लोकों द्वारा बताया कि भगवत्ता और दिव्यता कहीं अन्यत्र नहीं हैं। प्रत्येक में वह रची-बसी है। जरूरत है उसका अनुभव करने की। आचार्य ने उस अनुभव के लिए शुचिता (पवित्रता) को सबसे आवश्यक माना है। जो वाणी और मन से पवित्र होगा और जो दूसरों को दुखी देखकर दुखी होता होगा वही विवेकवान् हो सकता है। परोपकार की भावना हो, लेकिन इंद्रियों पर संयम न हो, तो भी अपने लक्ष्य को पाया नहीं जा सकता। एक स्थिति प्राप्त करने के बाद मार्ग से भटकने का भय बना रहता है। संयमी तो वहां स्वयं को संभाल लेता है, जहां इंद्रिय लोलुप उलझ जाता है। बिना विवेक के सत्य का ज्ञान नहीं होता और उसके बिना बंधनमुक्त भी नहीं हुआ जा सकता।
पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम्। इक्षी 
गुडं तथा देहे पश्याऽऽत्मानं विवेकतः।।

जैसे फूल में सुगंध होती है, तिलों में तेल होता है, सूखी लकड़ी में अग्नि होती है, दूध में घी और ईख में गुड़ तथा मिठास होती है, वैसे ही शरीर में आत्मा और परमात्मा विद्यमान है। बुद्धिमान मनुष्य को विवेक का सहारा लेकर आत्मा और परमात्मा को जानने का प्रयत्न करना चाहिए। ।।21 ।।
आचार्य ने साधन और साध्य दोनों का स्पष्ट कथन किया है यहां।
अध्याय का सार
मनुष्य को कई कारणों से धन की हानि होती है। कई कारणों से वह दुखी रहता है। परिवार में कभी कुछ दोष भी आ जाते हैं तथा कई बार उसे धूर्त लोगों के हार्थों से धोखा भीउठाना पड़ता है। चाणक्य का कहना है कि मनुष्य को ऐसी बातों को किसी दूसरे पर प्रकट करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि ऐसा करने से जगहंसाई के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं आता। इससे सामाजिक प्रतिष्ठा पर भी आंच आती है।
जो मनुष्य लेन-देन के संबंध में संकोच करता है, उसे हानि उठानी पड़ती है। किसी विद्या की प्राप्ति अथवा कोई गुण सीखते समय भी मनुष्य को संकोच नहीं करना चाहिए। यहां संकोच न करने का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य अत्यंत लोभी हो जाए। मनुष्य को संतोषी होना चाहिए, परंतु कुछ बातें ऐसी भी हैं जिनके संबंध में संतोष करने से हानि होती है, जैसे -विद्या, प्रभु स्मरण और दान आदि।
यहां आचार्य ने सामान्य आचरण की बातों का भी उल्लेख किया है क्योंकि इनसे व्यक्तिगत रूप से लाभ होता है और सामाजिक प्रतिष्ठा भी प्राप्त होती है। जहां दो मनुष्य बात कर रहे हों, उनके बीच में नहीं पड़ना चाहिए। इसी प्रकार जब कोई ब्राह्मण हवन आदि कर रहा हो तो उसके बीच से गुजरना ठीक नहीं। हल और बैल के बीच में जो अंतर होता है, उसे बनाए रखना चाहिए। यदि उस बीच में आने का कोई प्रयत्न करेगा तो हल के (फाल) अगले तीखे भाग से घायल हो जाएगा। अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गौ, कन्या, वृक्ष और बालक को पैर नहीं लगाना चाहिए। इन्हें पैर लगाने का अर्थ है उनका अपमान करना। उन्होंने यहां पर यह भी बताया है कि ब्राह्मण को यदि सम्मानपूर्वक भोजन आदि करवा दिया जाए तो वह संतुष्ट हो जाता है। आकाश में उमड़ते बादलों को देखकर मोर प्रसन्न होता है। साधु अथवा सज्जन लोग दूसरों का कल्याण होने से प्रसन्न होते हैं, परंतु दुष्ट आदमी दूसरे की भलाई नहीं देख सकता। उसे इससे कष्ट होता है।
चाणक्य ने जहां समय के अनुकूल आचरण करने की बात कही है, वहीं वे यह भी कहते हैं कि अपने से बलवान शत्रु को चतुरतापूर्वक अनुकूल व्यवहार करके प्रसन्न करना चाहिए और अपने से कमजोर दिखाई देने वाले शत्रु को भय दिखाकर वश में कर लेना चाहिए। इस प्रकार राजा में चतुरता, विनम्रता और बल का सम्मिश्रण होना चाहिए। ब्राह्मण को अपनी शक्ति वेद आदि शास्त्रों के ज्ञान से बढ़ानी चाहिए जबकि स्त्रियों की शक्ति उनकी मधुर वाणी है।
चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति को अत्यन्त सरल और सीधे स्वभाव का भी नहीं होना चाहिए। सीधे व्यक्ति को सब अपने उपयोग में लाना चाहते हैं, जिससे उसे अकसर हानि ही होती है, क्योंकि उसके हित की चिंता किसी को नहीं होती।
आचार्य के अनुसार व्यक्ति को सदैव अपना रूप नहीं बदलते रहना चाहिए और न ही अपना स्थान। वे कहते हैं कि केवल उसी धनी व्यक्ति का सम्मान समाज में होता है, जो उस धन का सदुपयोग करता है अर्थात अच्छे धन को कामों में लगाता है, क्योंकि जो अच्छे लोग इस संसार में आते हैं, उनमें दान देने की प्रवृत्ति होती है। जो कटु-भाषण नहीं करते, देवी- देवता तथा ईश्वर की पूजा करते हैं और ब्राह्मणों को भोजन आदि से संतुष्ट रखते हैं-वस्तुतः वे ही श्रेष्ठ पुरुष कहलाते हैं। इसके विपरीत आचरण करने वाले दुष्टों की श्रेणी में आते हैं।
चाणक्य का कहना है कि मनुष्य को सदैव सज्जनों और अपने से उत्तम पुरुषों की ही संगति करनी चाहिए अर्थात मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिए कि वह अपने से श्रेष्ठ व्यक्तियों से संपर्क बनाए, तभी वह संसार में सफल हो सकता है। नीच लोगों के साथ रहने में सदैव हानि होती है।
जिस प्रकार फूलों में सुगंध, तिलों में तेल, लकड़ी में आग, दूध में घी, ईख में गुड़ होने पर भी दिखाई नहीं देता अर्थात ये चीजें इन वस्तुओं में विद्यमान रहती हैं, परंतु उन्हें आंख से देखा नहीं जा सकता, इसी प्रकार मनुष्य के शरीर में आत्मा विद्यमान रहती है। इसे प्रकट करने के लिए विशेष और सुव्यवस्थित प्रयास अर्थात्, विशेष प्रकार की निरंतर साधना आवश्यक है।
コロ
।। अथ अष्टमोऽध्यायः ।।
आठवां अध्याय
भूमि के अंदर से निकलने वाला पानी शुद्ध माना जाता है। पतिव्रता नारी पवित्र होती है। लोगों का कल्याण करने वाला राजा पवित्र माना जाता है और संतोषी ब्राह्मण को भी पवित्र माना गया है।
अथमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः।
 उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।

जो लोग संसार में केवल धन की इच्छा करते हैं, वे अधम अर्थात नीच कोटि के हैं। मध्यम श्रेणी के लोग धन और सम्मान दोनों की इच्छा करते हैं जबकि उत्तम कोटि के मनुष्यों को केवल आदर-सम्मान ही चाहिए होता है।11।।
संसार में धन की इच्छा तो सभी को रहती है, परंतु धन की प्राप्ति के लिए निम्न श्रेणी के लोग अन्य सब बातें भूल जाते हैं। सब कुछ भुलाकर धन के पीछे भागना ठीक नहीं। मध्यम श्रेणी के लोग वे हैं जो धन के साथ मान-सम्मान की भी इच्छा रखते हैं, वे धन की प्राप्ति के लिए अपने मान-सम्मान को दांव पर नहीं लगाते। श्रेष्ठ पुरुष अर्थात उत्तम कोटि के मनुष्य वे हैं, जिनके लिए आदर-सत्कार ही सब कुछ है। उत्तम कोटि के लोगों को महात्मा कहा जाता है, उनके लिए धन का विशेष महत्व नहीं होता। वे धन का प्रयोग जीने के लिए करते हैं, धन के लिए नहीं जीते हैं।
इक्षुरापः पयो मूलं ताम्बूलं फलमौषधम् ।
भक्षयित्वाऽपि कर्तव्याः
स्नानदानाऽऽदिकाः
क्रियाः।।
गन्ना, पानी, दूध, कंदमूल फल, पान तथा दवाइयों का सेवन करने के बाद भी स्नान आदि और धर्म कार्य किए जा सकते हैं। ।।2।।
सामान्य भारतीयों में यह धारणा पाई जाती है कि स्नान ध्यान आदि करने के बाद ही फल और औषधि आदि का सेवन करना चाहिए, परंतु चाणक्य कहते हैं कि बीमारी की अवस्था में दूध, जल, कंदमूल फल और दवाई आदि का सेवन किया जा सकता है, इसमें कोई पाप नहीं। उसके बाद स्नान आदि करके पूजा-पाठ और धार्मिक कार्य करना अनुचित नहीं है।
दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते । 
यदन्नं भक्षयेन्नित्यं जायते तादृशी प्रजा ।।

दीपक अंधकार को खाता है और उससे काजल की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार मनुष्य जैसा अन्न खाता है, वैसी ही उसकी संतान उत्पन्न होती है। ।।3।।
तात्पर्य बिलकुल स्पष्ट है- यदि व्यक्ति अच्छे कार्यों से अपनी आजीविका चलाएगा तो उसकी संतान भी सद्‌गुणों से युक्त होगी, पदि वह चोरी और मक्कारी से पैदा किए हुए धन से अपनी संतान का पालन-पोषण करता है तो संतान के विचार भी उसी प्रकार के निकृष्ट होंगे। आचार्य यहां संकेत दे रहे हैं कि जैसी संतान चाहते हो, वैसा ही अन्न सेवन करो। संतान यदि फल है, तो अन्न उसका बीज है।
वित्तं देहि गुणान्वितेषु मतिमन्नान्यत्र देहि क्वचित् प्राप्तं वारिनिधेर्जलं धनमुखे माधुर्ययुक्तं सदा सकलान्
जीवान्स्थावरजंगमांश्च भूमण्डलम्
संजीव्य
भूयः पश्य तदेव कोटिगुणितं गच्छन्तमम्भोनिधिम् ।।
बुद्धिमान या अच्छे गुणों से युक्त मनुष्य को ही धन दो, गुणहीनों को धन मत दो। समुद्र का खारा पानी बादल के मीठे पानी से मिलकर मीठा हो जाता है और इस संसार में रहने वाले सभी जड़-चेतन, चर और अचर जीवों को जीवन देकर फिर समुद्र में मिल जाता है। 11411
चाणक्य ने बुद्धिमान व्यक्ति को धन देने की उपमा वर्षा के जल से की है अर्थात जिस प्रकार वर्षा का जल जड़-चेतन आदि को जीवन देने के बाद फिर समुद्र में जा मिलता है और फिर समुद्र से करोड़ गुना अधिक बादलों को पुनः प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार गुणी व्यक्ति को दिया हुआ धन अनेक अच्छे कार्यों में प्रयुक्त होता है। यह श्लोक यह भी संकेत करता है कि यद्यपि धन अनेक दुर्गुणों से युक्त है, फिर भी गुणी व्यक्ति का साथ पाकर वह

निर्दोष हो जाता है-जनोपयोगी हो जाता है।
चाण्डालानां सहस्त्रे च सूरिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
 एको हि यवनः प्रोक्तो न नीचो यवनात् परः ।।

तत्त्व को जानने वाले विद्वानों ने यह कहा है कि हजारों चाण्डालों के समान एक यवन अर्थात म्लेच्छ- धर्मविरोधी होता है। इससे बढ़कर कोई दूसरा नीच नहीं होता। ।।5।।
यहां यवन शब्द का अर्थ किसी सम्प्रदाय विशेष से नहीं है, वरन् अधर्म का आचरण करने वाले दुष्ट व्यक्ति से है। यदि इस शब्द का अर्थ समग्र रूप में लिया जाए, तो वह है तन और मन से अशुद्ध तथा अपवित्र रहने वाला। नीचे दिया गया श्लोक इसी बात की पुष्टि करता है।
तैलाऽभ्यंगे चिताधूमे मैथुने क्षीरकर्मणि। 
ताव‌द्भवति चाण्डालो यावत्स्नानं न चाऽऽचरेत् ।।

तेल की मालिश करने के बाद, चिता के धुएं के स्पर्श करने के बाद, स्त्री से संभोग करने के बाद और हजामत आदि करवाने के बाद मनुष्य जब तक स्नान नहीं कर लेता, तब तक वह चाण्डाल अर्थात् अशुद्ध होता है। ।।6।।
अजीर्ण भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्। 
भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम् ।।

अपच की स्थिति में जल पीना औषधि का काम देता है और भोजन के पच जाने पर जल पीने से शरीर का बल बढ़ता है, भोजन के बीच में जल पीना अमृत के समान है, परंतु भोजन के अंत में जल का सेवन विष के समान हानिकारक होता है। 11711
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नरः।
 हतं निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष्टा ह्यभर्तृकाः ।।

आचरण के बिना ज्ञान व्यर्थ है। अज्ञान से मनुष्य नष्ट हो जाता है। सेनापति के अभाव में सेना नष्ट हो जाती है और पति से रहित स्त्रियां भी नष्ट हो जाती हैं। 118।।
यदि व्यक्ति को ज्ञान है कि कौन-सा कार्य उचित है और कौन-सा अनुचित, इसके बावजूद वह अपने आधरण में इस बात को नहीं अपनाता, तो ऐसा ज्ञान व्यर्थ है, उसका कोई लाभ नहीं।
मनुष्य का जीवन बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। ईश्वर ने प्राणी को बुद्धि इसीलिए दी है कि वह ज्ञानवान होकर शुभाचरण करे, किंतु कुछ लोग अपनी अज्ञानता के कारण जीवन संकट में डालकर नष्ट हो जाते हैं अर्थात अज्ञान उन्हें निगल जाता है। इसी प्रकार सेनापति के बिना सेना व्यर्थ होती है और वह नष्ट हो जाती है। स्त्रियां भी पति के बिना दुष्ट लोगों द्वारा सताए जाने के कारण नष्ट हो जाती हैं। पति उसका रक्षक होता है। वही उसकी
रक्षा करता है। पति के बिना वह अपने मार्ग से भटक सकती है। इस संदर्भ में आज स्त्रियों की स्थिति में बहुत अंतर आया है। शिक्षा इसका प्रमुख कारण है।
वृद्धकाले मृता भार्या बंधुहस्ते गतं धनम्।
भोजनं च पराधीनं तिस्त्रः पुंसां विडम्बना ।।

वृद्धावस्था में पत्नी का देहान्त हो जाना, धन अथवा संपत्ति का भाई बन्धुओं के हाथ में चले जाना और भोजन के लिए दूसरों पर आश्रित रहना, यह तीनों बातें मनुष्य के लिए मृत्यु समान दुखदायी हैं। 11911
दुख जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन वृद्धावस्था में पदि कोई पुरुष अपनी पत्नी को खो दें, तो वह दारुण स्थिति है। जीवन साथी की जीवन में दो भूमिकाएं हैं - भोग और सहयोग। वृद्धावस्था में एक-दूसरे के सहयोग की अपेक्षा होती है। परंपरा के अनुसार पति अकसर पत्नी से 5-7 वर्ष बड़ा होता था। वृद्धावस्था में इस अंतर का अत्यंत महत्व है। जब पूरे परिवार की अपनी दुनिया हो, वृद्ध एक तरह से निरर्थक हो चुके हों, बूढ़े दंपति ही एक-दूसरे के लिए सार्थक हो, ऐसे में एक का, विशेषकर पत्नी का, चले जाना पति के लिए मृत्यु के समान है। आचार्य ने एक महत्वपूर्ण समस्या की ओर मानो इस लोकांश से संकेत किया है। पुरुष के बिना स्त्री अपना समय काट लेती है। सोचिए, पराधीन कौन है?
नाग्निहोत्रं विना वेदा न च दानं विना क्रिया।
न भावेन विना सिद्धिस्तस्मा‌द्भावो हि कारणम् ।।

अग्निहोत्र आदि कमों के बिना वेदों का अध्ययन व्यर्थ है तथा दान-दक्षिणा के बिना यज्ञ आदि कर्म निष्फल होते हैं। श्रद्धा और भक्ति के बिना किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती अर्थात मनुष्य की भावना ही उसके विचार, उसकी सब सिद्धियों और सफलता का कारण मानी गई है। 111011
काष्ठपाषाणथातूनां कृत्वा भावेन सेवनम्। 
श्रद्धया च तया सिद्धस्तस्यः विष्णुः प्रसीदति ।।

लकड़ी, पत्थर अथवा धातु की मूर्ति में प्रभु की भावना और श्रद्धा रखकर उसकी पूजा की जाएगी, तो सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। प्रभु इस भक्त पर अवश्य प्रसन्न होते हैं। ।। 1111
लकड़ी, पत्थर अथवा धातु की मूर्तियों से व्यक्ति को सिद्धि प्राप्त नहीं होती, सिद्धि प्राप्त होती है तपस्या और भावना से अर्थात मनुष्य उनके प्रति जैसी भावना रखता है और श्रद्धापूर्वक सेवा करता है, व्यक्ति को वैसी सिद्धि ही प्राप्ति होती है। उसी भक्त पर विष्णु तथा परमेश्वर प्रसन्न होते हैं। 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी' अर्थात् पूजा में भावना ही प्रधान है- जैसी भावना, वैसा फल।
न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृन्मये।

भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम्।।
देवता अथवा परमेश्वर, काठ अथवा पत्थर की मूर्ति में नहीं हैं। परमेश्वर तो मनुष्य की भावना में विद्यमान रहते हैं अर्थात जहां मनुष्य भावना द्वारा उसकी पूजा करता है, वहीं वे प्रकट होते हैं। ।।1211
शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात्परं सुखम्।
 न तृष्णायाः परो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः ।।

शांति से बढ़कर कोई तप नहीं, संतोष से बढ़कर कोई सुख नहीं। तृष्णा अथवा चाह से बढ़कर कोई रोग नहीं, दयालुता से बढ़कर कोई धर्म नहीं। ।।13।।
शांत रहने के लिए व्यक्ति को अपनी कामनाओं और इंद्रियों पर नियंत्रण रखना होता है इसीलिए यह तप है। जो व्यक्ति हर समय भागता-दौड़ता रहता है, और और की कामना करता रहता है, उसे सुख नहीं मिल सकता। मनुष्य की तृष्णा उस रोग की तरह है, जिसमें भूख कभी शांत नहीं होती। दया को आचार्य ने सर्वश्रेष्ठ धर्म माना है। दया का अर्थ है संवेदना का विकास, इसमें अन्य का भाव समाप्त हो जाता है।
क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी। 
विद्या कामदुधा धेनुः सन्तोषो नन्दनं वनम् ।।

क्रोध यमराज के समान है। तृष्णा वैतरणी है। विद्या कामधेनु है और संतोष नंदन वन अर्थात इंद्र के उद्यान के समान है। ।।14।1
क्रोध यमराज के समान मृत्युदाता है। मनुष्य की इच्छाएं वैतरणी नदी के समान हैं जिनका पार नहीं पाया जा सकता।
विद्या को सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली कामधेनु बताया गया है, अतः विद्वान सरलतापूर्वक धन और मान-सम्मान दोनों को अर्जित कर सकता है। मनुष्य के जीवन में संतोष को इंद्र की वाटिका के समान अत्यन्त सुख देने वाला माना गया है। इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि जीवन में सुखी रहने के लिए विद्या का संग्रह करे और अपना समय संतोष के साथ बिताए।
गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम् । 
सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम् ।।

गुणों से मनुष्य के सौन्दर्य की वृद्धि होती है। शील से कुल की शोभा होती है। कार्यों में सफलता से विद्या शोभित होती है और धन के सही उपभोग से धन की शोभा बढ़ती है। ।। 1511
मनुष्य की देह यदि सुंदर है लेकिन उसमें गुणों का अभाव है तो वह सौंदर्य किसी काम का नहीं। अच्छे आचरण के कारण ही कुल की शोभा होती है। यदि उच्च कुल में उत्पन्न

हुआ व्यक्ति नीच आचरण करता है तो उसका कुल बदनाम होता है और ऐसी विद्या की भी कोई शोभा नहीं होती, जिससे मनुष्य किसी कार्य को सिद्ध न कर सके अर्थात मनुष्य को अपने कार्यों में सिद्धि विद्या के कारण ही प्राप्त होती है। ऐसी विद्या का कोई लाभ नहीं, जिससे कोई भी कार्य न लिया जाए। धन के उपभोग का अर्थ है कि धन को अच्छे कार्यों में लगाया जाए। धन की शोभा तभी है, जब उसका ठीक से उपयोग किया जाए, उसे अच्छे कार्यों में लगाया जाए।
निर्गुणस्य हतं रूपं दुःशीलस्य हतं कुलम्।
 असिद्धस्य हता विद्या अभोगेन हतं धनम् ।।

गुणहीन मनुष्यों का सुंदर अथवा रूपवान होना व्यर्थ होता है। जिस व्यक्ति का आचरण शील से युक्त नहीं, उसकी कुल में निंदा होती है। जिस व्यक्ति में किसी कार्य को सिद्ध करने की शक्ति नहीं, ऐसे बुद्धिहीन व्यक्ति की विद्या व्यर्थ है और जिस धन का उपभोग नहीं किया जाता, वह धन भी व्यर्थ है। ।।161
शुचिर्भूमिगतं तोयं शुद्धा नारी पतिव्रता। 
शुचिः क्षेमकरो राजा सन्तोषी ब्राह्मणः शुचिः ।।

भूमि के अंदर से निकलने वाला पानी शुद्ध माना जाता है। पतिव्रता नारी पवित्र होती है। लोगों का कल्याण करने वाला राजा पवित्र माना जाता है और संतोषी ब्राह्मण को भी पवित्र माना गया है। 11711
चाणक्य का कथन है कि भूमि के नीचे से प्राप्त होने वाला जल शुद्ध माना जाता है। पति के प्रति समर्पित नारी शुद्ध और पवित्र मानी जाती है। जो राजा अपनी प्रजा के कल्याण में लगा रहता है, जो सरकार अपनी जनता का कल्याण करती है, भ्रष्टाचार में नहीं पड़ती, उसे शुद्ध और पवित्र माना जाता है। उसी प्रकार जो ब्राह्मण संतुष्ट रहता है अर्थात जिसमें धन की लालसा नहीं है, वही पवित्र है।
असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभृतः। 
सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जाश्च कुलांगना ।।

संतोषरहित ब्राह्मण, संतुष्ट होने वाला राजा, शर्म करने वाली वेश्या और लज्जाहीन कुलीन स्त्रियां नष्ट हो जाती हैं। ।।18।।
असंतुष्ट रहने वाला ब्राह्मण अपने कर्म से भ्रष्ट हो जाता है। वह अपना कर्तव्य भूल जाता है। समाज में उसकी प्रतिष्ठा क्षीण होती है। इसी प्रकार जो राजा अपनी थोड़ी-सी सफलता से संतोष कर लेता है, उसमें महत्वाकांक्षाएं कम हो जाती हैं, वह अपना राज्य का विस्तार न करने के कारण शक्तिहीन होकर नष्ट हो जाता है। वेश्याओं का कार्य लोगों को संतुष्ट करना है। वह बाजार में बैठकर भी पदि संकोच और लज्जा करती रहेगी तो वह भूखी मर जाएगी। इसी प्रकार यदि अच्छे घर की औरतें लज्जा को त्याग देती हैं तो वे भी नष्ट हो
जाती हैं। इस श्लोक से स्पष्ट होता है कोई एक कार्य किसी के लिए हितकर है, तो किसी को हानि पहुंचाने वाला होता है। कर्तव्य का निर्णय संदर्भ के अनुसार होता है। उसकी कोई निश्चित गाइडलाइन नहीं है।
किं कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम्। दुष्कुलीनोऽपि विद्वांश्च देवैरपि सुपूज्यते ।।
यदि कुल विद्याहीन है तो उसके विशाल और बड़े होने से कोई लाभ नहीं, यदि बुरे कुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति विद्वान है तो देवता लोग भी उसकी पूजा करते हैं। ।।19।।
विद्यारहित बड़े हे कुल में उत्पन्न होने से कोई लाभ नहीं क्योंकि व्यक्ति का सम्मान बड़े कुल में उत्पन्न होने से नहीं होता, बल्कि विद्वान होने और अच्छे गुणों के कारण होता है। इस प्रकार चाणक्य केवल वंश को महत्व नहीं, वे व्यक्ति के विद्वान होने को अधिक महत्व देते हैं। उनका कहना है कि यदि नीच कुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति भी विद्या आदि गुणों से युक्त है तो सभी लोग उसका सम्मान करते हैं। रावण उच्चकुल में उत्पन्न हुआ, लेकिन दुर्गुणों के कारण प्रत्येक वर्ष जलाया जाता है।
विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान् गच्छति गौरवम्।
 विद्यया लभते सर्व विद्या सर्वत्र पूज्यते ।।

इस संसार में विद्वान की प्रशंसा होती है। विद्वान को ही आदर सम्मान और धन धान्य की प्राप्ति होती है। प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति विद्या द्वारा ही होती है और विद्या की सब जगह पूजा होती है। ।।2011
मांसभक्षेः सुरापानैर्मूर्खश्चाक्षरवर्जितैः ।
 पशुभिः पुरुषाकारैर्भाराऽऽक्रान्ता च मेदिनी।।

मांस खाने वाले, शराब पीने वाले, मूर्ख और निरक्षर मनुष्य रूपी पशुओं के भार से यह पृथ्वी पीड़ित और दुखी रहती है। ।।21।।
मांस खाने वाले और शराब पीने वाले व्यक्ति यह सोच भी नहीं पाते कि कौन-सी वस्तु खाने के योग्य है और कौन-सी नहीं। इस प्रकार मूर्ख और निरक्षर व्यक्ति रूप-रंग में तो मनुष्य के समान होते हैं, परंतु वह पशु के समान इस पृथ्वी का भार हैं अर्थात उनसे इस संसार का कोई उपकार नहीं होता। ऐसे लोगों को पशु कहना, पशुओं का अपमान है।
अन्नहीनों दहेद् राष्ट्र मन्त्रहीनश्च ऋत्विजः। 
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।।

जो देश को अन्नहीन करता हो, जिसमें मंत्रों को न जानने वाले ऋत्विज हों, जिसके यजमान दान भावना से रहित हों, ऐसा यज्ञ शत्रु समान है। ।।22।।
आचार्य के अनुसार, यज्ञ जहां मनुष्य के लिए अनेक प्रकार से लाभकारी है, वहीं
यदि यज्ञ ठीक प्रकार से सम्पन्न न किया जाए तो उससे बहुत बड़ी हानि भी होती है। यज्ञ से वर्षा होती है और राष्ट्र में अन्न और धन-धान्य की वृद्धि होती है। यह यज्ञ का प्रत्यक्ष फल है। ऋत्विज अर्थात् यज्ञ कराने वाले आचार्यों को मंत्रज्ञ होना चाहिए। इसी प्रकार यज्ञकर्ता अर्थात् यजमान का हृदय भी विशाल होना चाहिए।
उसकी आचार्यों के प्रति निष्ठा और श्रद्धा होगी, तभी वह उन्हें धन-धान्य आदि देकर प्रसन्न करेगा। आचार्य यज्ञ की सार्थकता के लिए ऋत्विज और यजमान के योग्य होने की ओर संकेत कर रहे हैं।
अध्याय का सार
चाणक्य ने इस अध्याय में शरीर की दृष्टि से एक समान दिखने वाले मनुष्यों का गुणों और प्रवृत्ति के अनुसार विभाजन किया है। स्वभाव और प्रवृत्ति ही व्यक्ति को उत्तम, मध्यम और निम्न बनाती है। निम्न श्रेणी के लोग जैसे-तैसे धन इकट्ठा करना चाहते हैं। वे ऐसे उपायों से भी धन प्राप्त करना चाहते हैं जिनसे उनका अपमान होता है। उन्हें मान-अपमान की कोई चिंता नहीं होती। मध्यम श्रेणी के लोग मान-सम्मान के साथ-साथ धन इकट्ठा करना चाहते हैं, परंतु उत्तम श्रेणी के लोग केवल मान-सम्मान को ही महत्व देते हैं, धन उनके लिए गौण होता है, मुख्य नहीं।
चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति जिस प्रकार का भोजन करता है, जैसा अन्न खाता है उसकी संतान भी वैसी ही होती है। यह संकेत है कि भोजन केवल स्वाद या पेट भरने की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है, यह मानव जाति के भविष्य को भी निर्धारित करता है।
चाणक्य ने तीन बातें मृत्यु के समान कष्ट देने वाली बताई हैं- वृद्धावस्था में मनुष्य की पत्नी की मृत्यु होना, धन-संपत्ति का दूसरों के हाथों में जाना और खान-पान के लिए दूसरों पर आश्रित रहना। इनमें से दो का अनुभव तो किसी भी अवस्था के व्यक्ति को हो सकता है लेकिन एक का संबंध विशेष अवस्था से है। इस ओर संकेत करके आचार्य ने जीवन के कटु सत्य को उजागर किया है। इससे उस अवस्था में पुरुष की निरीहता भी प्रकट होती है।
चाणक्य ने व्यक्ति के विचारों और उसकी भावना को अधिक महत्वपूर्ण बताया है। उन्होंने कहा है कि लकड़ी, पत्थर और धातु की मूर्तियों की यदि शुद्ध भावना और श्रद्धा से पूजा की जाए तो सब कार्य पूर्ण हो जाते हैं। इन मूर्तियों में भगवान का वास उस रूप में नहीं होता जैसा कि लोग मानते हैं। मनुष्य की उच्च भावनाएं अथवा विचार ही मूर्ति को माध्यम बनाकर पूजक का कल्याण करते हैं।
ココ
।। अथ नवमोऽध्यायः ।।
नौवां अध्याय
जो ब्राह्मण धन की प्राप्ति के विचार से वेदों का अध्ययन करते हैं और जो क्षुद्र अर्थात नीच मनुष्यों का अन्न खाते हैं, वे विषहीन सांप के समान कुछ भी करने में असफल होते हैं।
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत् त्यज।
 क्षमाऽऽर्जवं दया शौचं सत्यं पीयूषवद् भज ।।

यदि तू मुक्ति चाहता है तो बुरे व्यसनों और बुरी आदतों को विष के समान समझकर उनका त्याग कर दे तथा क्षमा, सरलता, दया, पवित्रता और सत्य को अमृत के समान ग्रहण कर। ।।1।।
आचार्य चाणक्य ने मुक्ति चाहने वालों को सलाह दी है कि विषयों को वे विष के समान छोड़ दें क्योंकि जिस तरह विष जीवन को समाप्त कर देता है, उसी तरह विषय भी प्राणी को 'भोग' के रूप में नष्ट करते रहते हैं। यहां विषय शब्द का अर्थ वस्तु नहीं बल्कि उसमें आसक्ति का होना है। इस प्रकार आचार्य की दृष्टि में विषयासक्ति ही मृत्यु है। लोग जिस अमृत की तलाश स्वर्ग में करते हैं, उसे आचार्य ने इन पांच गुणों में बताया है। इस श्लोक का उल्लेख 'अष्टावक्र गीता' में भी इसी रूप में जनक-अष्टावक्र संवाद के रूप में हुआ है। यहां चेत् अर्थात् यदि शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसा कहने का तात्पर्य है कि यदि कोई मुक्त होने का संकल्प कर चुका है-वैसे प्रायः हम बंधन में आनंदित होते रहते हैं, बंधन में सुरक्षा महसूस करते हैं।
परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमाः।
त एवं विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत् ।।

जो लोग एक-दूसरे के भेदों को प्रकट करते हैं, वे उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे बांबी में फंसकर सांप नष्ट हो जाता है। ।।2।।
अपमानित करने के विचार से अपने मित्रों के रहस्यों को प्रकट करने वाले उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार बांबी में घुसा हुआ सांप बाहर नहीं निकल पाता और बांबी के अंदर ही दम घुटने से मर जाता है। ऐसे लोग न घर के रहते हैं, न घाट के।
गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे नाऽकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य।
 विद्वान् धनाढ्यश्च नृपश्चिरायुः धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत् ।।

ब्रह्मा ने सोने में सुगंध और ईख के पौधे में फल उत्पन्न नहीं किए और निश्चय ही चंदन के वृक्ष में फूल भी पैदा नहीं होते, इसी तरह विद्वान व्यक्ति को अधिक धनी और राजा को अधिक लंबी आयु वाला नहीं बनाया। उससे ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में प्रभु को बुद्धि देने वाला कोई नहीं था। ।।3।।
श्रेष्ठ वस्तु को प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। यही चाह उसे उस वस्तु से दूर कराती है, जिसे प्राप्त करने के लिए उसने कठोर श्रम किया है। क्योंकि उसमें भी उसे कमी नजर आने लगती है। ऐसे असमंजस की स्थिति को ही आचार्य ने यहां प्रस्तुत करने का प्रयास किया। यदि सोने में सुगंध भी होती, तो उसका मूल्य और भी बढ़ जाता। इस 'यदि' के संदर्भ में ही लोगों की ओर से आचार्य यहां सृष्टि रचयिता को उलाहना दे रहे हैं, उसकी बुद्धि को कोस रहे हैं। लेकिन यदि ऐसा हो जाता जैसी लोगों की चाह है, तो वैसा न होने की कामना लोग करते, क्या यह सच नहीं है?
सर्वोषधीनाममृता प्रधाना सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम्।
सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानं सर्वेषु गात्रेषु शिरः प्रधानम्।।

सभी प्रकार की औषधियों में अमृत सबसे प्रमुख औषधि है। सुख देने वाले सब साधनों में भोजन सबसे प्रमुख है। मनुष्य की सभी इंदियों में आंखें सबसे प्रधान और श्रेष्ठ हैं तथा शरीर के सभी अंगों में मनुष्य का सिर सर्वश्रेष्ठ है। ।।4।।
कुछ व्यक्तियों ने इस श्लोक में आए हुए अमृता शब्द का अर्थ गिलोय से भी किया है। गिलोय का उपयोग अनेक रोगों के लिए किया जाता है, परंतु मूल अर्थ अमृत ही उचित है, क्योंकि अमृत भी एक प्रकार की औषधि है और अमृत से सभी को जीवन प्राप्त होता है।
मनुष्य के पास धन आदि सभी सुख के साधन हैं, परंतु जब तक वह भोजन नहीं करता तब तक उसे पूर्ण सुख प्राप्त नहीं होता, इसलिए भोजन को सब सुखों में प्रधान माना गया है। मनुष्य अनेक इंद्रियों से युक्त है-वह सुनता है, स्पर्श करता है, चखता है, अनुभूति करता है परंतु यदि वह देख नहीं सकता तो उसे इंद्रियों से पूर्ण सुख प्राप्त नहीं होता, इसलिए आंखों को सब इंद्रियों में प्रधान बताया गया है। इसी प्रकार शरीर के सभी अंगों में मनुष्य का
सिर प्रधान है, उसी को सभी अंगों में श्रेष्ठ माना गया है। मस्तिष्क का महत्व सर्वविदित है। दूतो न सञ्चरति खे न चलेच्च वार्ता
पूर्व न जल्पितमिदं न च संगमोऽस्ति ।
 व्योम्नि स्थितं रविशशिग्रहणं प्रशस्तं जानाति यो द्विजवरः स कथं न विद्वान्।।

आकाश में किसी दूत का जाना संभव नहीं और वहां किसी से किसी प्रकार की बातचीत भी नहीं हो सकती, परंतु जिस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने आकाश में सूर्य और चंद्रमा के ग्रहण की बात बताई है, उसे विद्वान क्यों न माना जाए। ।।5।।
विद्यार्थी सेवकः पान्थः क्षुधाऽऽर्ती भयकातरः। 
भाण्डारी प्रतिहारी च सप्त सुप्तान् प्रबोधयेत्।।

विद्यार्थी, सेवक, मार्ग में चलने वाला पधिक, यात्री, भूख से पीड़ित, डरा हुआ व्यक्ति और भण्डार की रक्षा करने वाला द्वारपाल यदि अपने कार्यकाल में सो रहे हों, तो इन्हें जगा देना चाहिए। ।।6।।
यदि विद्यार्थी सोता रहेगा तो विद्या का अभ्यास कैसे करेगा। मालिक यदि सेवक को सोता देख लेगा तो उसे नौकरी से पृथक कर देगा। यदि यात्री रास्ते में सो जाएगा तो या तो उसकी चोरी हो जाएगी अथवा उसकी हत्या कर दी जाएगी। स्वप्न में यदि कोई प्यास या भूख से व्याकुल है, तो उसे जगाना ही उसकी समस्या का समाधान है। यही बात स्वप्न में डरे हुए व्यक्ति पर भी लागू होती है।
भण्डार के रक्षक तथा द्वारपाल सो रहे हों तो इन्हें जगा देना ठीक रहता है, क्योंकि इनके सोने से इनकी ही नहीं अनेक लोगों की हानि होती है। आचार्य के इस कथन को शास्त्र के उन आदेशों से जोड़कर देखना चाहिए, जिनमें यह कहा गया है कि सोते हुए व्यक्ति को उठाना नहीं चाहिए। निंद्रा शारीरिक और मानसिक विश्राम की वह अवस्था है जो प्राणी को संतुलन की समुचित व्यवस्था देती है।
इसी संदर्भ में पशु और वृक्षों को सोते हुए से न जगाने और रात्रि के समय स्पर्श न करने का निर्देश किया गया है।
अहिं नृपं च शार्दूलं किटिं च बालकं तथा।
परश्वानं च मूर्ख च सप्त सुप्तान् न बोधयेत् ।।

सांप, राजा, बाघ, सूअर, बालक, दूसरे के कुत्ते और मूर्ख व्यक्ति को सोते में जगाना नहीं चाहिए। ।।7।।
यदि सोए हुए सांप को जगाएंगे तो वह काट खाएगा, इसी प्रकार सोते हुए राजा को जगाने पर वह क्रोधित होकर हत्या का आदेश दे सकता है। बाघ आदि हिंसक पशुओं को जगाने का क्या परिणाम हो सकता है, यह सब जानते हैं। सोते हुए बालक को जगाएंगे तो वह भी मुसीबत खड़ी कर देगा। इसी प्रकार दूसरे व्यक्ति के कुत्ते और मूर्ख मनुष्य को जगाना नहीं चाहिए। उनके सोते रहने में ही भला है।
अर्थाऽधीताश्च यैर्वेदास्तथा शूद्रान्नभोजिनाः। 
ते द्विजाः किं करिष्यन्ति निर्विषा इव पन्नगाः ।।

जो ब्राह्मण धन की प्राप्ति के विचार से वेदों का अध्ययन करते हैं और जो शूद्रों अर्थात नीच मनुष्यों का अन्न खाते हैं, वे विषहीन सांप के समान कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं। 118।।
जो ब्राह्मण वेदों का अध्ययन कर उससे धन कमाते हैं अर्थात उस ज्ञान से पैसा बटोरते हैं और वे ब्राह्मण भी जो अपना पेट भरने के लिए शूद्रों के अधीन रहते हैं अर्थात नीच लोगों का अन्न खाते हैं, वे विषरहित सर्प के समान निरर्थक हैं। तेजहीन हो जाने के कारण ऐसे विद्वान ब्राह्मणों को संसार में किसी प्रकार का यश और सम्मान प्राप्त नहीं होता।
यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनाऽऽगमः।
 निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति ।।

जिसके नाराज होने पर किसी प्रकार का डर नहीं होता और जिसके प्रसन्न होने पर धन प्राप्ति की आशा नहीं होती, जो न दण्ड दे सकता है और न ही किसी प्रकार की दया प्रकट कर सकता है उसके नाराज होने पर किसी का कुछ नहीं बिगड़ता। 11911
निर्विषेणाऽपि सर्पण कर्तव्या महती फणा।
 विषमस्तु न चाप्यस्तु घटाटोपो भयंकरः।।

विषहीन सांप को भी अपना फन फैलाना चाहिए, उसमें विष है या नहीं, इस बात को कोई नहीं जानता? हां, उसके इस आडंबर से अथवा दिखावे से लोग भयभीत अवश्य हो सकते हैं। ।।10।।
प्रातद्यूतप्रसंगेन मध्याह्न स्त्रीप्रसंगतः। 
रात्री चीर्यप्रसंगेन कालो गच्छत्यधीमताम् ।।

मूर्ख लोग अपना प्रातःकाल का समय जुआ खेलने में, दोपहर का समय स्त्री प्रसंग में और रात्रि का समय चोरी आदि में व्यर्थ करते हैं। ।।11।।

कहकर चाणक्य द्वारा प्रयुक्त मूर्ख और व्यर्थ शब्द यहां महत्वपूर्ण हैं। मूखों के बारे में ऐसा आचार्य ने संकेत किया है कि विद्वान अपना समय सद्‌कार्यों में व्यतीत करते हैं।
स्वहस्तग्रथिता माला स्वहस्तघृष्टचन्दनम्। स्वहस्तलिखितं स्तोत्रं शक्रस्यापि श्रियं हरेत्।।
अपने ही हाथ से गुंधी हुई माला, अपने हाथ से घिसा हुआ चंदन और अपने ही हाथ से लिखी हुई भगवान की स्तुति करने से मनुष्य इंद्र की धन-सम्पत्ति को भी वश में कर सकता है। ।।12।।
चाणक्य का भाव यह है कि धनवान व्यक्ति को भगवान की स्तुति करने के लिए किए जाने वाले उपायों को स्वयं अपने हाथ से करना चाहिए। दूसरों से करवाने से कोई लाभ नहीं
होता।
इक्षुदण्डास्तिलाः क्षुद्राः कान्ता हेम च मेदिनी।
 चन्दनं दधि ताम्बूलं मर्दनं गुणवर्धनम् ।।

ईख, तिल, मूर्ख, छोटे आदमी, स्त्री, सोना, भूमि, चंदन और दही तथा पान इन्हें जितना मला जाएगा उतने ही इनके गुण बढ़ेंगे।।11311
ईख और तिल आदि को जितना अधिक दबाएंगे उतना ही अधिक तेल और रस निकलेगा। सोने को भी जितना तपाया अथवा शुद्ध किया जाएगा, उसमें चमक और निखार आएगा। भूमि में जितना अधिक हल चलाया जाएगा उतना ही अधिक उससे अन्न की उत्पत्ति होगी। इसी प्रकार चंदन और दही आदि को जितना रगड़ेंगे और मधेंगे उतना ही उनके गुण में वृद्धि होती है। इसी प्रकार मूर्ख के मस्तिष्क पर भी जब जोर पड़ेगा तभी व वह कुछ गुणों को ग्रहण कर सकेगा। यह बात उन जातियों और राष्ट्रों पर भी लागू होती है जो प्रमाद में डूबी हुई हैं तथा निकम्मी हो गई हैं। जिन्होंने संघर्ष किया, वो उन्नत और विकसित हैं।
दरिद्रता धीरतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते।।

दरिद्र अवस्था में यदि व्यक्ति धैर्य नहीं छोड़ता, तो निर्धनता कष्ट नहीं देती। साधारण वस्त्र को यदि साफ रखा जाए तो वह भी अच्छा लगता है। यदि सामान्य भोजन, जिसे पुष्टिकारक न माना जाए, भी ताजा और गर्म-गर्म खाया जाए तो अच्छा लगता है। इसी प्रकार सुशीलता आदि गुणों के होने पर कुरूपता दुरी नहीं लगती। ।।14।।
आचार्य के अनुसार व्यक्ति में यदि गुण हैं तो उसके दोषों की ओर कोई ध्यान नहीं देता। वस्त्र भले ही सस्ता हो, लेकिन स्वच्छ होना चाहिए। भोजन भले ही साधारण हो, किन्तु उचित ढंग से उसे यदि पकाया और परोसा जाए तो वह भी रुचिकर लगता है। अर्थ यह है क

व्यक्ति में गुणों की प्रधानता होनी चाहिए, दिखावे की नहीं।
अध्याय का सार
चाणक्य ने मनुष्य को जीवन का लक्ष्य बताते हुए कहा है कि जो व्यक्ति संसार से मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें विषय-वासनाओं का त्याग विष के समान कर देना चाहिए अर्थात् बेहिचक। जो नीच मनुष्य दूसरों के प्रति घृणा के कारण कठोर बात बोलते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। कोई भी उनका सम्मान नहीं करता।
चाणक्य संसार की विचित्र धारणा को व्यक्त करते हुए बताते हैं कि सोने में सुगंध नहीं होती, ईख पर फल नहीं लगता, चंदन के वृक्ष पर फूल नहीं लगते, विद्वान व्यक्ति के पास धन नहीं होता और राजा को प्रायः अधिक आयु नहीं मिलती- ये बातें देखकर ऐसा लगता है कि परमेश्वर ने यह काम करते हुए बुद्धि का सहारा नहीं लिया। अर्थात् भूल तो किसी से भी
हो सकती है। काश! परमात्मा ने ऐसा किया होता। चाणक्य कहते हैं कि अमृत सबसे उत्तम औषधि होती है क्योंकि इससे मृत्यु, रोग से मुक्ति मिल जाती है। सबसे बड़ा सुख भोजन की प्राप्ति है, ज्ञानेंद्रियों में सबसे उत्तम आंख है और शरीर के अंगों में सबसे श्रेष्ठ मनुष्य का सिर है।
ब्राह्मण की विद्वत्ता बताते हुए चाणक्य का कथन है कि आकाश में कोई गया नहीं, सूर्य, चंद्रमा तक कोई पहुंचा नहीं, परंतु जिस विद्वान ब्राह्मण ने उनकी गति, उनके ग्रहण से संबंधित ज्ञान दिया है और भविष्यवाणी की है, उसे विद्वान मानने में संकोच नहीं करना चाहिए। अर्थात् पृथ्वी पर बैठे-बैठे जिसने इन आकाशीय घटनाओं का पूरी तरह से सही आकलन कर लिया, वह अवश्य सराहना के योग्य है।
चाणक्य ने अनेक स्थानों पर कहा है कि व्यक्ति को संसार में सतर्क होकर जीवन बिताना चाहिए। विद्यार्थी, नौकर, यात्री और भूख से दुखी, डरा हुआ व्यक्ति और द्वाररक्षक - इन्हें सदा जागते रहना चाहिए, यदि इन्हें सोता देखें तो इन्हें जगा दें लेकिन राजा, सांप, बाघ, जंगली सूअर और दूसरे का कुत्ता तथा मूर्ख व्यक्ति यदि सोए पड़े हों तो इन्हें जगाना नहीं चाहिए। ये सोए ही हितकारी हैं।
इस अध्याय में आचार्य चाणक्य ने ब्राह्मणों के संबंध में कहा है कि उन्हें पतित लोगों से किसी प्रकार की सहायता नहीं लेनी चाहिए क्योंकि ऐसे लोगों के स्वार्थ भी तुच्छ ही होते हैं। समय आने पर उनकी पूर्ति में सहयोग करना और न करना दोनों ही स्थितियां दुविधावाली हैं। सहयोग करने पर नैतिकता की हानि होती है तथा न करने पर कृतघ्न होने का आभास होता है। आचार्य का कहना है कि मनुष्य को अपना वास्तविक स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिए अर्थात यदि सांप विषरहित है तो भी उसे अपने पर आक्रमण करने वाले को डराने के लिए फन फैलाते रहना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि आडम्बर से भी दूसरे व्यक्तियों को प्रभावित

किया जा सकता है। किसी संत द्वारा सर्प को दिया गया यह उपदेश सभी ने पढ़ा-सुना होगा कि फुफकारना जरूर चाहिए, भले ही डंसने का मन न हो।
मूर्खा को इस बात का ज्ञान नहीं होता कि किस समय कौन-सा कार्य किया जाए, वह प्रातःकाल ही जुआ आदि खेलने लगते हैं, दोपहर का समय भोग-विलास और रात्रि का समय चोरी आदि बुरे कामों में बिताते हैं। ये तीनों कार्य धर्म और कानून दोनों दृष्टि से निषिद्ध हैं। इनसे धन और सम्मान की हानि होती है। सबसे बढ़कर इनसे आत्मा का पतन होता है। चाणक्य का कहना है कि प्रभु की उपासना व्यक्ति को स्वयं करनी चाहिए। जिस प्रकार भूख- प्यास तभी शांत होती है, जब आप स्वयं भोजन खाते और पानी पीते हैं, उसी प्रकार आपके द्वारा किए गए शुभ कर्म-ईश्वर उपासना आदि तभी पूरी तरह से फल देता है, जब आप उसे स्वयं करें। व्यक्ति को कष्टों में धैर्य रखना चाहिए। धैर्य से कष्ट उतने दुखदायी प्रतीत नहीं होते जितने धैर्य न होने पर। अनुभव में तो यह भी आया है कि धैर्य दुख को कम ही नहीं करता बल्कि सुख को भी साथ के साथ उजागर कर देता है। ऐसे में दुख दुख रहता ही नहीं है। श्रीकृष्ण ने गीता में धैर्यशील को अमृतत्व का अधिकारी माना है-यो धीरः सः अमृतत्वाय कल्पते। इस प्रकार मनुष्य का सबसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण है धैर्य।

।। अथ दशमोऽध्यायः ।।
दसवां अध्याय
भाग्य अथवा प्रभु की महिमा अपरम्पार है, उसके कारण एक निर्धन भिखारी पल में राजा बन सकता है और राजा को कंगाल होना पड़ता है।
धनहीनो न हीनश्च धनिकः स सुनिश्चयः। 
विद्यारत्नेन यो हीनः स हीनः सर्ववस्तुषु ।।

धन से हीन मनुष्य दीन-हीन नहीं होता, यदि वह विद्या धन से युक्त हो तो, परंतु जिस मनुष्य के पास विद्या रूपी रत्न नहीं है, वह सभी चीजों से हीन माना जाता है। ।।1।।
दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम् ।
 शास्त्रपूतं वदेत् वाक्यं मनः पूतं समाचरेत् ।।

भली-प्रकार आंख से देखकर मनुष्य को आगे कदम रखना चाहिए, कपड़े से छानकर जल पीना चाहिए, शास्त्र के अनुसार कोई बात कहनी चाहिए और कोई भी कार्य मन से भली प्रकार सोच-समझकर करना चाहिए। ।।2।।
आचार्य के अनुसार, मनुष्य को सोच-समझकर उचित कार्य करना चाहिए। किसी कार्य को करने से पहले यह भली प्रकार जांच-परख लें कि वह व्यवहार और शास्त्र से विरुद्ध तो नहीं है। सदैव सावधान और सचेत रहकर प्रत्येक कार्य को करने की सलाह यहां दी गई है। जल के प्रति की गई असावधानी अनेक रोगों की उत्पत्ति कर सकती है।
सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।

सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्।।
यदि सुख की इच्छा हो तो विद्या अध्ययन का विचार छोड़ देना चाहिए और यदि विद्यार्थी विद्या सीखने की इच्छा रखता है तो उसे सुख और आराम का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या प्राप्त नहीं हो सकती और जो विद्या प्राप्त करना चाहता है, उसे सुख नहीं मिल सकता। ।।3।।
चाणक्य का विश्वास है कि विद्या प्राप्ति के समय विद्यार्थी को सुख-सुविधाओं की आशा नहीं करनी चाहिए। कठोर तप से ही विद्या की प्राप्ति हो सकती है। यदि विद्यार्थी विद्या में पारंगत होना चाहता है तो उसे निरंतर अभ्यास करना पड़ता है, जो सुख से नहीं हो सकता है। क्या कठिनता से मिलने वाली कोई भी वस्तु मूल्यवान नहीं होती? अतः विद्यार्थी को सुख की आशा ही छोड़ देनी चाहिए अन्यथा उसे विद्या प्राप्त नहीं हो सकती। भोग और ज्ञान परस्पर विरोधी हैं।
कवयः किं न पश्यन्ति किं न कुर्वन्ति योषितः। मद्यपाः किं न जल्पन्ति किं न भक्षन्ति वायसाः।।
कवि अपनी कल्पना से क्या नहीं देख सकते? अर्थात् सभी कुछ देख सकते हैं और स्त्रियां क्या नहीं कर सकतीं? वे सभी प्रकार की मनमानी कर सकती हैं। नशे में चूर व्यक्ति क्या नहीं बोल सकता? अर्थात् कुछ भी बोल सकता है और कौआ क्या नहीं खाता? ।।4।।
आचार्य ने कवि शब्द का प्रयोग यहां ऋषि और कवि दोनों अर्थों में किया है। कहा जाता है- 'जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि।' और ऋषि उसे कहते हैं, जो मंत्रों का साक्षात्कार करता है— ऋषयो मंत्र द्रष्टारः।
स्त्रियां अपने दुस्साहस के कारण ऐसे कार्य कर सकती हैं जिन्हें करने से पूर्व पुरुष कई बार सोचेगा। नशे में चूर व्यक्ति के जो कुछ भी मन में आता है, बक देता है। उस समय उसे भले-बुरे का ज्ञान नहीं होता। इसी प्रकार कौआ भी अपने स्वभाव के कारण कहीं भी जा बैठता है।
रंकं करोति राजानं राजानं रंकमेव च। धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं विधिः।।
भाग्य की महिमा अपरम्पार है क्योंकि वह निर्धन अर्थात भिखारी को पल में राजा बना सकता है और राजा को कंगाल। इसी तरह भाग्य के ही कारण धनवान व्यक्ति निर्धन बन जाता है और निर्धन धनवान। ।।5।।
लुब्धानां याचकः शत्रुर्मूर्खाणां बोधकः रिपुः ।
जारस्त्रीणां पतिः शत्रुश्चोराणां चन्द्रमा रिपुः।।
मांगने वाला लोभी मनुष्य का शत्रु होता है। मूखौँ का शत्रु उन्हें सदुपदेश देने वाला

होता है। व्यभिचारिणी स्त्रियों का शत्रु पति होता है और चोरों का शत्रु है चंद्रमा। ।।6।।
लोभी अथवा लालची व्यक्ति उसको अपना शत्रु मानता है, जो उससे किसी चीज को लेने की आशा रखता है अथवा कुछ मांगता है, मूखाँ को सदुपदेश देने वाला अथवा उन्हें सन्मार्ग पर चलाने वाला उनका सबसे बड़ा शत्रु होता है, क्योंकि मूर्ख व्यक्ति की यह विशेषता होती है कि किसी की अच्छी बात को वह नहीं मानता और अपने कार्यों को ही सही ठहराता है। जो स्त्री व्यभिचारिणी है, पति उसे इस काम से रोकने का प्रयत्न करता है, इसलिए उसे वह अपना शत्रु मानती है। चोर उचक्के लोग रात्रि के समय अंधकार में अपना कार्य करते हैं, चांदनी रात में उनके लिए चोरी करना असंभव होता है, इसलिए चंद्रमा उनका सबसे बड़ा शत्रु होता है। इस प्रकार जो किसी के कार्य में रुकावट डालता है, वही उसका शत्रु है।
येषां न विद्या न तपो दानं न ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।
नहीं हो सकता। मनुष्य के भीतर निहित संस्कारों को ही बाहरी साधनों से उभारा और निखारा जा सकता है।
खेत में बीज ही न हो तो खाद आदि देने से फसल नहीं उगती। कभी-कभी तो उलटा ही होता है। इच्छित फसल को पाने के लिए किए गए उर्वरकों के प्रयोग से ऐसी हानिकर फसल लहलहाने लगती है, जिसकी किसी ने कभी कल्पना ही नहीं की होती।
दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूतले। अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत् ।।
इस संसार में ऐसा कोई उपाय नहीं, जिससे दुर्जन व्यक्ति को सज्जन बनाया जा सके, बिलकुल उसी तरह जिस प्रकार गुदा को चाहे सैकड़ों प्रकार से और सैकड़ों बार धोया जाए फिर भी वह श्रेष्ठ अंग नहीं बन सकती। 111011
आत्मद्वेषात् भवेन्मृत्युः परद्वेषात् धनक्षयः । राजद्वेषात् भवेन्नाशो ब्रह्मद्वेषात् कुलक्षयः ।।
जो मनुष्य अपनी ही आत्मा से द्वेष रखता है वह स्वयं को नष्ट कर लेता है। दूसरों से द्वेष रखने से अपना धन नष्ट होता है। राजा से वैर-भाव रखने से मनुष्य अपना नाश करता है और ब्राह्मणों से द्वेष रखने से कुल का नाश हो जाता है। ।।11।।
'आत्मद्वेषात्' की जगह कहीं 'आप्तद्वेषात्' शब्द का भी प्रयोग किया गया है। इसे पाठभेद कहते हैं। 'आप्त' का अर्थ है विद्वान, ऋषि, मुनि और सिद्ध पुरुष- 'आप्तस्तु यथार्थवक्ता।' जो सत्य बोले, वह आप्त है। जो आत्मा के नजदीक है, वही आप्त है।
इस दृष्टि से इस श्लोक के दोनों रूप सही हैं। जो बिना किसी लाग-लपेट के निष्पक्ष भाव से बोले वह आप्त है। आत्मा की आवाज और आप्तवाक्य एक ही बात तो है। क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य अपना ही सबसे बड़ा मित्र है और शत्रु भी। इसी प्रकार आप्त अर्थात विद्वानों और सिद्ध पुरुषों से द्वेष रखने वाला व्यक्ति भी नष्ट हो जाता है।
वर वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं पत्रफलाम्बुभोजनम्। द्रुमालयं
तृणेषु शय्या शतजीर्णवल्कलं न बंधुमध्ये धनहीनजीवनम् ।।
भले ही मनुष्य सिंह और बाघ आदि हिंसक जानवरों से युक्त वन में निवास करे, किसी पेड़ पर अपना घर बना ले, वृक्षों के पत्ते और फल खाकर तथा पानी पीकर गुजारा कर ले, तिनकों की शय्या पर सो ले, फटे-पुराने वृक्षों की छाल के कपड़े पहन ले, परंतु अपने भाई-बंधुओं में धन से रहित अर्थात दरिद्र बनकर जीवन न बिताए। ।।12।।
इस श्लोक से यह बात भली प्रकार स्पष्ट होती है कि निर्धनता एक प्रकार का
जिन मनुष्यों के पास न विद्या है न ही जिन्होंने किसी प्रकार का तप किया है, जिनमें न दान देने की प्रवृत्ति है, न ज्ञान है, दया और नम्रता आदि भी नहीं है, गुण और धर्माचरण की भावना नहीं है, ऐसे मनुष्य पशु के रूप में इस संसार में विचरते हैं। ।।7।।
धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है।
अन्तःसारविहीनानामुपदेशो न जायते। 
मलयाचलसंसर्गात् न वेणुश्चन्दनायते।।

जिन व्यक्तियों में किसी प्रकार की भीतरी योग्यता नहीं अर्थात जो अंदर से खोखले है, बुद्धिहीन हैं, ऐसे व्यक्तियों को किसी भी प्रकार का उपदेश देना उसी प्रकार व्यर्थ होता है जिस प्रकार मलयाचल पर्वत से आने वाले सुगंधित हवा के झोंकों का बांस से स्पर्श। ।।8।।
जिस व्यक्ति में किसी प्रकार की भीतरी योग्यता नहीं और जिसका हृदय भी साफ नहीं, उसमें बुरे विचार भरे हैं, उसे किसी भी प्रकार का उपदेश देना व्यर्थ है। उस पर उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। ऐसा होना उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे चंदन वन से आने वाली सुगंधित वायु के स्पर्श से बांस में न तो सुगंध ही आती है और न ही वह चंदन बन पाता है।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्। 
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ।।

जिस व्यक्ति के पास अपनी बुद्धि नहीं, शास्त्र उसका क्या कर सकेगा, आंखों से
रहित को दर्पण का कोई लाभ नहीं हो सकता है। ।।9।। आचार्य का यह कथन संकेत करता है कि केवल बाहरी साधनों से कोई ज्ञानवान

अभिशाप है। चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति अन्य सभी प्रकार के कष्ट सहन कर सकता है परंतु निर्धनता के कारण अपने सगे-संबंधियों द्वारा किए जाने वाले अपमान को सहन नहीं कर सकता। निर्धन को कौन अपना मानता है?
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च संध्या वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम्।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ।।

ब्राह्मण एक वृक्ष के समान है और संध्या अर्थात प्रभु की उपासना और आराधना उसकी जड़ है, वेद उसकी शाखाएं हैं और धर्म-कर्म उसके पत्ते हैं, इसलिए यत्नपूर्वक जड़ की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि जड़ के नष्ट हो जाने पर न शाखाएं रहेंगी, न ही पत्ते। ।।13।।
ब्राह्मण एक वृक्ष के समान है। प्रातः और सायं दो कालों के बीच में जो समय पड़ता है उसे संधिवेला कहते हैं, उस समय ब्राह्मण प्रभु की पूजा व उपासना करता है। यह उसका आवश्यक कर्म है। यह ब्राह्मण रूपी वृक्ष के फलने-फूलने की जड़ें हैं अथवा आधार हैं। वेद का ज्ञान उस वृक्ष की शाखाएं हैं। उसके धर्मानुकूल अच्छे कार्य, उसके पत्ते के समान हैं। इसलिए यत्नपूर्वक उस वृक्ष के मूल की रक्षा करनी चाहिए। मूल की रक्षा से ही वृक्ष फलता- फूलता है। यदि जड़ ही नष्ट हो जाएगी तो वृक्ष कैसे बचेगा? आचार्य यहां कहते हैं कि प्रत्येक
ब्राह्मण को संध्या करनी ही चाहिए। इसी से वह ब्रह्म बल को प्राप्त करता है। माता च कमलादेवी पिता देवो जनार्दनः।
बान्धवाः विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ।।

कमला देवी अर्थात लक्ष्मी जिसकी माता हैं और सर्वव्यापक श्री विष्णु जिसके पिता हैं, प्रभु के भक्त जिसके भाई-बंधु हैं ऐसे पुरुष के लिए तीनों लोक अपने ही देश के समान हैं। 111411
एकवृक्षसमारूढा नाना वर्णा विहंगमाः।
प्रभाते दशसु दिक्षु तत्र का परिवेदना ।।

 रात्रि के समय अनेक रंग-रूप वाले पक्षी एक वृक्ष पर आकर बैठते हैं। प्रातःकाल के समय वे सभी दसों दिशाओं में उड़ जाते हैं। ऐसे में क्या शोक करना। ।।1511
इस संसार रूपी परिवार में अनेक बंधु-बांधव और रिश्तेदार उसी तरह आकर मिलते हैं जिस प्रकार सायंकाल होते ही अनेक तरह के पक्षी बसेरा लेने के लिए एक पेड़ पर आ बैठते हैं और समय आने पर अर्थात सूर्य उदय होने पर वे विभिन्न दिशाओं में चल देते हैं। इसी प्रकार एक परिवार में इकट्ठे हुए बन्धु-बान्धव भी समय आने पर बिछुड़ जाते हैं, इसलिए उनके संबंध में किसी प्रकार का शोक करना उचित नहीं है।
बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम्। 
वने सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः ।।

जिसके पास बुद्धि अर्थात ज्ञान है, उसके पास ही बल होता है, बुद्धिहीन व्यक्ति के पास बल कहां। जंगल में अपनी शक्ति के मद में मस्त सिंह को एक खरगोश ने मार डाला (यह इसी का प्रमाण है)। ।।16।।
पंचतंत्र में भी इस कथा का उल्लेख है, जिसमें छोटे से खरगोश ने अपनी बुद्धि के बल से बलवान सिंह को भी मरने को विवश कर दिया। बुद्धिमान व्यक्ति अपने बल का तो सही उपयोग करता ही है, वह दूसरे के बल को भी अपने अनुसार प्रयोग करने में सफल हो जाता है।
का चिन्ता मम जीवने यदि हरिर्विश्वम्भरो गीयते
 नो चेदर्भकजीवनाय जननीस्तन्यं कथं निर्मयेत्।
 इत्यालोच्य मुहुर्मुहुर्यदुपते लक्ष्मीपते केवलं
त्वत्पादाम्बुजसेवनेन सततं कालो मया नीयते ।।

यदि भगवान विष्णु को सारे संसार का पालन-पोषण करने वाला कहा गया है तो मुझे इस जीवन में किसी बात की चिंता करने की आवश्यकता नहीं। यदि भगवान विष्णु न होते तो गर्भ में स्थित बालक के जीवन के लिए माता के स्तनों में दूध कहां से आता? बार- बार इस तरह का विचार करके हे तीनों लोकों के स्वामी! मैं आपके चरण कमलों की सेवा करते हुए अपना जीवन व्यतीत कर रहा हूं। ।।17
भाव यह है कि सृष्टिकर्ता परमेश्वर ही सबका भरण-पोषण करता है, ऐसी स्थिति में मनुष्यों को किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो बालक गर्भ में है उसके पालन-पोषण के लिए माता के स्तनों में दूध पहले ही उत्पन्न हो जाता है। यदि ऐसा है, तो चिंता किस बात की। हां, परमेश्वर का स्मरण करते हुए उसके प्रति अपनी कृतज्ञता का भाव अवश्य प्रकट करना चाहिए।
विशिष्टबुद्धिस्तथापि
गीर्वाणवाणीषु भाषान्तरलोलुपोऽहम्। यथा सुराणाममृते स्थितेऽपि स्वर्गागनानामधरासवे
रुचिः।।
संस्कृत के अतिरिक्त में दूसरी भाषाओं का भी लोभी हूँ, जैसे स्वर्ग में विद्यमान देवताओं को अमृत की प्राप्ति के बाद भी स्वर्ग की अप्सराओं के होंठों के रस का पान करने में रुचि रहती है। ।। 1811
चाणक्य ने इस श्लोक में संस्कृत भाषा का विशेष आदर करते हुए यह संकेत दिया है
कि अन्य भाषाओं को भी सीखना चाहिए। उनका मानना है कि यद्यपि संस्कृत में समस्त रसों का स्वाद है, लेकिन अन्य भाषाओं का स्वाद भी विद्वान को चखना चाहिए, क्योंकि उनका भी अपना एक स्वाद है। उसमें तत्संबंधी संस्कृति और चिंतन की झलक और खुशबू मिलती है।
अन्नाद्दशगुणं पिष्टं पिष्टादशगुणं पयः। 
पयसोऽष्टगुणं मांसं मांसाद्दशगुणं घृतम् ।।

अन्न से दस गुणा अधिक शक्ति उसके आटे में है। आटे से दस गुणा अधिक शक्ति दूध में है, दूध से आठ गुणा अधिक शक्ति मांस में है और मांस से दस गुणां अधिक शक्ति थी में है। ।॥19॥
शाकेन रोगा वर्धन्ते पयसा वर्धते तनुः।
 घृतेन वर्धते वीर्य मांसान्मांसं प्रवर्धते ।।

साग खाने से रोग बढ़ते हैं, दूध से शरीर मोटा होता है, घी से वीर्य की वृद्धि होती है और मांस से मांस बढ़ता है। ।।20।।
साग से रोग बढ़ना संकेत करता है कि अधिकांश लोग उसे भली प्रकार थोकर प्रयोग में नहीं लाते। इसलिए निरंतर उनका सेवन करने से रोगों की वृद्धि होती है। दूध से शरीर बढ़ता है। बालकों और किशोरों को दूध का सेवन करना चाहिए। घी का अधिक सेवन करने से वीर्य की वृद्धि होती है-कम मात्रा से ज्यादा ऊर्जा। मांस खाने से शरीर का मांस बढ़ता है। मोटापे से पीड़ित व्यक्ति को इसके सेवन से बचना चाहिए। इस प्रकार चाणक्य के अनुसार घी इन सब वस्तुओं में श्रेष्ठ माना गया है, जिससे बल और वीर्य दोनों की वृद्धि होती है।
अध्याय का सार
चाणक्य ने विद्या रूपी धन को सब धनों में श्रेष्ठ माना है। उनका कहना है कि जिस मनुष्य के पास विद्या रूपी धन नहीं, वह सब कुछ होते हुए भी 'हीन' है। 'पहले सोचें, फिर करें', चाणक्य ऐसा करने की सलाह देते हैं। करने के बाद सोचने का तो कोई अर्थ ही नहीं है। विद्यार्थी के कर्तव्य की ओर ध्यान दिलाते हुए आचार्य फिर कहते हैं कि जो विद्यार्थी विद्या प्राप्त करना चाहता है, उसे सुख की अभिलाषा छोड़ देनी चाहिए।
चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति पुरुषार्थ के बावजूद भाग्य से ही निर्धन से धनी होता है। इस प्रकार जीवन में भाग्य की महत्वपूर्ण भूमिका है। नियति की गति को समझना
ही बुद्धिमत्ता है। चाणक्य यहां फिर कहते हैं कि मनुष्य को विद्या रूपी धन प्राप्त करना चाहिए,
दानशील होना चाहिए, धर्म से युक्त होना चाहिए परंतु जिस मनुष्य में ऐसी कोई भी बात नहीं, वह पृथ्वी पर पशु के समान है और भाररूप है। व्यक्ति को अपनी भीतरी योग्यता का ज्ञान होना चाहिए। जिसमें भीतरी योग्यता नहीं और जो बुद्धिहीन है, वेद आदि शास्त्रों से भी उसका कल्याण नहीं हो सकता। चाणक्य कहते हैं कि दुष्ट व्यक्ति सदा दुष्ट ही रहता है, वह अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता।
अपने बन्धु-बान्धवों, रिश्तेदारों में मनुष्य को निर्धन होकर अपना जीवन नहीं बिताना चाहिए। उसे चाहिए कि वह अपनी निर्धनता दूर करने का प्रयत्न करे। चाणक्य ने इस संसार के रंग-ढंग का वर्णन करते हुए कहा है कि जिस प्रकार सायंकाल के समय अनेक पक्षी एक वृक्ष पर आकर बसेरा लेते हैं और प्रातःकाल अपनी दिशाओं में उड़ जाते हैं, उसी प्रकार बन्धु-बान्धव भी मनुष्य को संयोग से ही मिलते हैं, इसलिए उनके बिछुड़ने का मनुष्य को शोक नहीं करना चाहिए। यह तो प्रकृति का नियम है। चाणक्य मनुष्य की बुद्धि को ही उसका सबसे बड़ा सहायक मानते हैं। उनका मानना है कि जब परमेश्वर ही संसार का पालन करने वाला है तो जीविका की चिंता क्यों?

।। अथ एकादशोऽध्यायः ।।
ग्यारहवां अध्याय
जो दूसरों के कार्य को बिगाड़ता है, ढोगी है, अपना ही स्वार्थ सिद्ध करने में लगा रहता है, दूसरों को धोखा देता है, सबसे द्वेष करता है, दिखने में अत्यन्त नम्र और अन्दर से पैनी छुरी के समान है, ऐसे ब्राह्मण को बिलाव समझना चाहिए।
दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं धीरत्वमुचितज्ञता। 
अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः सहजा गुणाः।।

दान देने की इच्छा, मधुर भाषण, धैर्य और उचित अथवा अनुचित का ज्ञान, ये चार गुण मनुष्य में सहज-स्वभाव से ही होते हैं, अभ्यास से इन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता। ।। 111
सहज का अर्थ है-साथ में उत्पन्न अर्थात् जन्म के साथ। व्यवहार में इसे कहते हैं, 'खून में होना'। इन गुणों में विकास किया जा सकता है, लेकिन इन्हें अभ्यास द्वारा पैदा नहीं किया जा सकता।
आज की भाषा में यदि कहें, तो ये गुण आनुवंशिक है-जींस में हैं। परिवेश इन्हें विकसित कर सकता है बस। इन्हें थोड़ा-बहुत तराश सकता है वातावरण। सहज और अभ्यास द्वारा प्राप्त गुणों में अंतर होता है। सहज गुण नष्ट नहीं होते, जबकि अभ्यास द्वारा जिन्हें प्राप्त किया जाता है, अनभ्यास द्वारा वे समाप्त हो जाते हैं।
हां, ऐसा देखने में आया है कि कभी-कभी सहज गुण उचित वातावरण न मिलने के कारण सामने नहीं आ पाते।

आत्मवर्ग परित्यज्य परवर्ग समाश्रयेत्।
स्वयमेव लयं याति यथा राजाऽन्यधर्मतः ।।

जो मनुष्य अपने समुदाय के लोगों को छोड़कर दूसरों के समुदाय का सहारा लेता है, वह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे दूसरे के धर्म का आश्रय लेने वाला राजा। ।।2।।
राजा का कर्तव्य होता है कि वह अपनी प्रजा की रक्षा करे, यही उसका धर्म है। यदि वह अपने इस धर्म को छोड़ देता है तो वह स्वयं ही नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार अपने वर्ग के लोगों का परित्याग करके दूसरे वर्ग के लोगों का आश्रय लेने से व्यक्ति नष्ट हो जाता है। इसीलिए व्यक्ति को चाहिए वह अपने धर्म में स्थित रहे। यहां धर्म का अर्थ 'स्व भाव' भी लिया जा सकता है। श्रीकृष्ण ने भी 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः' कहकर इसी बात की ओर संकेत किया है।
हस्ती स्थूलतनुः स चांकुशवशः किं हस्तिमात्रोकुशो दीपे प्रज्वलिते प्रणश्यति तमः किं दीपमात्रं तमः। वचेणापि हताः पतन्ति गिरयः किं वज्रमात्रों गिरिम् तेजो यस्य विराजते स बलवान् स्थूलेषु कः प्रत्ययः।।
हाथी लंबे-चौड़े शरीर वाला होता है परंतु उसे बहुत छोटे से अंकुश द्वारा वश में किया जाता है। दीपक जलने पर अंधकार नष्ट हो जाता है तो क्या अंधकार दीपक के आकार का होता है? हथौड़े की चोट करने से बड़े-बड़े पर्वत गिर पड़ते हैं, तो क्या पर्वत का आकार प्रकार हथौड़े से छोटा होता है? प्रत्येक वस्तु अपने तेज के कारण ही बलवान होती है, लंबा- चौड़ा शरीर कोई मायने नहीं रखता है। ।।3।।
कलौ दशसहस्त्रेषु हरिस्त्यजति मेदिनीम्।
 तदर्थ जाह्नवीतोयं तदर्थं ग्रामदेवता ।।

लोग ऐसा मानते हैं कि कलियुग के दस हजार वर्ष समाप्त होने के बाद परमात्मा पृथ्वी का त्याग कर देते हैं। उससे आधे अर्थात पांच हजार वर्ष समाप्त होने पर गंगा का जल पृथ्वी को छोड़ देता है और उसके आधे वर्ष समाप्त होने पर गांव का देवता गांव छोड़कर चला जाता है। 11411
कुछ लोगों ने इसका अर्थ इस प्रकार भी किया है कि जब कलियुग की समाप्ति में दस हजार वर्ष रह जाएंगे तब भगवान इस संसार को छोड़कर चले जाएंगे। पांच हजार वर्ष शेष रहने तक गंगा का जल समाप्त हो जाएगा और ढाई हजार वर्ष शेष रहने तक गांव का देवता, गांव छोड़कर चला जाएगा। कुछ लोगों का ऐसा विचार है कि कलियुग में अधर्म बढ़ जाने से इस प्रकार की स्थिति पैदा होती है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि चाणक्य जैसा बुद्धिमान व्यक्ति इस प्रकार की बातें नहीं कह सकता, इसलिए यह श्लोक बाद में जोड़ा गया है। अर्थात् प्रक्षिप्त है यह श्लोक।
गृहाऽऽसक्तस्य नो विद्या नो दया मांसभोजिनः । द्रव्यलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रैणस्य न पवित्रता ।।
जिस व्यक्ति की घर में अधिक आसक्ति है, घर में अधिक मोह और लगाव है, उसे विद्या की प्राप्ति नहीं हो सकती। जो लोग मांस खाते हैं उनमें दया नहीं, जो धन के लोभी होते हैं, उनमें सत्य नहीं होता तथा दुराचारी, व्यभिचारी और भोगविलास में लगे रहने वाले मनुष्य में पवित्रता का अभाव रहता है। ।।5।।
न दुर्जनः शिक्ष्यमाणः। साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो
मधुरत्वमेति ।।
जिस प्रकार नीम के वृक्ष को दूध और घी से सींचने पर भी उसमें मिठास पैदा नहीं होती, उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति अनेक प्रकार से समझाने-बुझाने पर भी सज्जन नहीं हो पाता। ।।6।।
जिस तरह कुछ शारीरिक क्रियाएं मनुष्य के नियंत्रण से बाहर होती हैं, इसी प्रकार लंबे अभ्यास के परिणाम स्वरूप पड़े संस्कारों के कारण कुछ मानसिक क्रियाएं भी मनुष्य के वश से बाहर हो जाती हैं, जिसे सिगमंड फ्रायड ने 'अवचेतन मन' कहा है। सज्जनता और दुष्टता का संबंध इसी मनोस्तर पर बैठे मनुष्य की क्रियाओं को नियंत्रित करने वाले संस्कारों से है। इसीलिए जब तक वहां परिवर्तन न हो, किसी के मूल स्वभाव को बदलना अत्यंत कठिन होता है।
अन्तर्गतमलो दुष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि।
 न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।

जिस दुष्ट का अंतःकरण कामवासना आदि मलों से भरा हुआ है, ऐसा मनुष्य यदि सैकड़ों बार भी तीर्थ-स्नान करे तो भी पवित्र नहीं हो सकता, बिलकुल उसी तरह जिस प्रकार शराब रखने का बर्तन आग पर जलाने से भी शुद्ध नहीं हो सकता। ।।7।।
जिस व्यक्ति के मन, विचार और अन्तःकरण पवित्र नहीं, यदि वह सैकड़ों तीर्थों में भी स्नान क्यों न कर ले, वह पवित्र और निष्पाप नहीं हो सकता। 'पाप' का संबंध शरीर से नहीं अंतःकरण से है।
न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष स तं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम्।


यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य बिभर्ति गुञ्जाः।।

जिसे किसी के गुणों की श्रेष्ठता का ज्ञान नहीं, वह सदा उनकी निंदा करता रहता है। उसके ऐसा करने से किसी को आश्चर्य नहीं होता, जैसे भीलनी हाथी के मस्तक में उत्पन्न होने वाली गजमुक्ता को छोड़कर पुंघचियों की माला ही धारण करती है। ।।8।।
जिसमें किसी की विशेषताओं अथवा गुणों को परखने का ज्ञान ही नहीं, वह उसकी कढ़ किस प्रकार करेगा? गुणों के महत्व को न जानने वाला व्यक्ति यदि उनकी उपेक्षा करता है अथवा निंदा करता है तो उससे किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए, वह तो जंगल में रहने वाली उस भीलनी की तरह है, जो हाथी के मस्तक से उत्पन्न होने वाले मोतियों को छोड़कर घुंघचियों की ही माला धारण करती है। उसे इस बात का ज्ञान ही नहीं होता कि हाथी के मस्तक में उत्पन्न होने वाले (गजमुक्ता) मोती कितने मूल्यवान होते हैं। गुणों का मूल्य गुणी ही लगा पाता है।
ये तु संवत्सरं पूर्ण नित्यं मौनेन भुञ्जते ।
 युगकोटिसहस्त्रं तु स्वर्गलोके महीयते ।।

जो व्यक्ति पूरे वर्ष तक मौन रहकर चुपचाप भोजन करता है, वह एक करोड़ वर्ष तक स्वर्ग में आदर-सम्मान प्राप्त करता है। 11911
अर्थ यह है कि जो व्यक्ति अपने धर्म का पालन करते हुए सदाचारपूर्वक श्रम करता है और जो कुछ भी अर्जित करता है उससे संतुष्ट रहता है, उससे सभी देवी-देवता प्रसन्न रहते हैं अर्थात उसे किसी प्रकार के कष्टों का मुख नहीं देखना पड़ता। उसका सभी जगह सम्मान होता है। यहां मौन का अर्थ प्राप्त की सहज स्वीकृति है- चुप रहना नहीं।
कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं शृंगारकौतुके। 
अतिनिद्राऽतिसेवे च विद्यार्थी ह्यष्ट वर्जयेत्।।

विद्यार्थी के लिए आवश्यक है कि वह काम, क्रोध, लोभ, स्वादिष्ट पदार्थों की इच्छा, शृंगार, खेल-तमाशे, अधिक सोना और चापलूसी करना आदि इन आठ बातों का त्याग कर दे। ।।10।।
अकृष्टफलमूलेन वनवासरतः सदा। 
कुरुतेऽहरहः श्राद्धषिर्विप्रः स उच्चते ।।

जो बिना खेती की हुई भूमि से उत्पन्न होने वाले फल और कंदमूल आदि को खाकर निर्वाह करता है और सदा जंगल में रहकर ही प्रसन्न रहता है और जो प्रतिदिन श्राद्ध करता है, ऐसा ब्राह्मण ऋषि कहलाता है। ।।11।।
ऐसे ब्राह्मण को ऋषि इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसका जीवन सर्वथा प्रकृति के
एक विचारणीय विषय है।
परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
 छली द्वेषी मृदुः क्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते ।।

जो दूसरों के कार्य को बिगाड़ता है, ढोंगी है, अपना ही स्वार्थ सिद्ध करने में लगा रहता है, दूसरों को धोखा देता है, सबसे द्वेष करता है, ऊपर से देखने में अत्यंत नम्र और अंदर से पैनी छुरी के समान है, ऐसे ब्राह्मण को बिलाव कहा गया है। ।।15
जिस व्यक्ति का ध्यान सदा दूसरों के कार्य बिगाड़ने में लगा रहता है, जो सदा ही अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगा रहता है, लोगों को धोखा देता है, बिना कारण के ही उनसे शत्रुता रखता है, जो ऊपर से कोमल और अन्दर से क्रूर है, उस ब्राह्मण को बिलाव के समान निकृष्ट पशु माना गया है।
वापी कूप तडागानामाराम सुर वेश्मनाम्
 उच्छेदने निराऽऽशंकः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते ।।

जो ब्राह्मण पानी के स्थानों, बावड़ी, कुआं, तालाब, बाग-बगीचों और मंदिरों में तोड़- फोड़ करने में किसी प्रकार का भय न अनुभव करते हों, उन्हें म्लेच्छ कहा जाता है। ।।16।।
पीने के जल वाले स्थानों, उद्यानों और मंदिरों आदि के निर्माण का धर्मग्रंथों में अत्यधिक महत्व है। ऐसे कार्य करना बताता है कि उन्हें करने वाला केवल अपने बारे में ही नहीं औरों के बारे में भी सोचता है।
जो अपने से श्रेष्ठ दूसरों को माने। जनहित के चिंतन में लीन रहे, वही ब्राह्मण है। परोपकार की भावना ही ब्राह्मण की परिचायिका है और जो इन्हें नष्ट करने वाला हो, करुणाविहीन और क्रूर हो वह ब्राह्मण कैसे हो सकता है। ऐसे व्यक्ति को तो तुच्छ या म्लेच्छ ही कहना चाहिए।
देवद्रव्यं गुरुद्रव्यं परदाराऽभिमर्शनम्। 
निर्वाहः सर्वभूतेषु विप्रश्चाण्डाल उच्यते ।।

जो देवताओं और गुरु के धन को चुरा लेता है, दूसरों की स्त्रियों के साथ सहवास करता है और जो सभी तरह के प्राणियों के साथ अपना जीवन गुजार लेता है, उस ब्राह्मण को चाण्डाल कहा जाता है। ।।17।।
देयं भोज्यधनं सदा सुकृतिभिनों सञ्चितव्यं कदा श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता अस्माकं मधु दानभोगरहितं नष्टं चिरात्सञ्चितं निर्वाणादिति पाणिपादयुगले घर्षन्त्यहो मक्षिकाः।।
शहद का संग्रह करने में आदर्श मधुमक्खियों को भी पश्चात्ताप करना पड़ता है, क्योंकि शहद का दान न करने से शहद नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार कुछ लोग धन का दान नहीं करते और जब वह नष्ट होने लगता है तो पश्चात्ताप करते हैं, जबकि कुछ लोग अपने धन का दान के रूप में उचित प्रयोग करते रहते हैं। राजा बलि, कर्ण और विक्रमादित्य दान करने के कारण ही आज तक समाज में सम्मान के पात्र हैं। ।।18।।
आचार्य चाणक्य ने इस श्लोक में दान का माहात्म्य बताया है। आम लोगों की धारणा है कि दान देकर वे लोगों पर उपकार करते हैं। यह प्रथम दृष्टि में सही भी है लेकिन यचार्थ इससे हटकर है। यदि दान न किया जाए, तो क्या होगा? आचार्य के अनुसार इसका उत्तर है धन का विनाश। त्याग से दी गई वस्तु नष्ट नहीं होती, बल्कि बढ़ती है। जबकि संकोच से वह सड़-गल जाती है, नष्ट हो जाती है। इस नियम के अनुसार दान द्वारा दानकर्ता अपने धन की वृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। इतना ही नहीं, ऐसा करने से उसके यश में भी वृद्धि होती है। इससे श्रेष्ठ सौदा और क्या हो सकता है?
दान को अकसर लोग धन से जोड़कर देखते हैं, वास्तविकता ऐसी नहीं है। अन्न का दान, विद्या का दान, स्वास्थ्य का दान आदि अन्य भी दान के रूप हैं। सज्जन व्यक्तियों का धन सदा दान करने के लिए ही होता है। वे कभी उसका संचय नहीं करते, क्योंकि दान करने के कारण ही दानवीर कर्ण, महाराज बलि और विक्रमादित्य का यश आज भी संसार में फैला हुआ है। चाणक्य ने वर्गों के अनुसार कर्मों की व्याख्या की है और यह स्पष्ट किया है कि व्यक्ति अपने कुछ गुणों के कारण ही सदा याद किया जाता है।
अध्याय का सार
चाणक्य कहते हैं कि कुछ बातें मनुष्य में स्वाभाविक रूप से होती हैं, उन्हें केवल अभ्यास से प्राप्त नहीं किया जा सकता। दान में रुचि, मधुर भाषण की इच्छा, मधुरता, वीरता ये गुण मनुष्य को स्वभाव से ही प्राप्त होते हैं, अभ्यास से केवल इनमें वृद्धि की सकती है, तराशा जा सकता है बस। चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य को अपना स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि जो अपने स्वभाव और कर्म को छोड़कर दूसरे के आश्रय में जाता है, वह नष्ट हो जाता है।
चाणक्य कहते हैं कि मोटे शरीर को देखकर ऐसा नहीं मानना चाहिए कि वह बहुत बलवान हो सकता है। लंबे-चौड़े शरीर वाला हाथी छोटे से अंकुश से वश में कर लिया जाता है। इसी प्रकार दीपक की छोटी-सी ली वर्षों के अंधकार को पलभर में नष्ट कर देती है। इतना ही नहीं अपने से कई गुना लंबाई-चौड़ाई में वह प्रकाश फैलाती है। बड़े बड़े पहाड़ों और शिलाओं को हथौड़े की चोट से तोड़ा जा सकता है जबकि हथौड़े का आकार भार पहाड़ों और शिलाओं से बहुत कम होता है। इसलिए लंबे-चौड़े शरीर को देखकर यह नहीं मान लेना चाहिए कि वह बलवान है।

चाणक्य के अनुसार विद्यार्थी को विद्या की प्राप्ति के समय घर से मोह नहीं रखना चाहिए। यदि वह घर के मोह में फंसा रहेगा तो उसे विद्या प्राप्त नहीं होगी। उनका कहना है कि दुष्ट व्यक्ति को जितना भी समझाया जाए, वह दुष्ट ही रहता है, उसका सज्जन बनना उसी प्रकार असंभव है, जैसे नीम के पेड़ को दूध, घी, चीनी आदि से सींचने पर भी उसमें मिठास पैदा नहीं की जा सकती। इसी संबंध में वे आगे कहते हैं कि जिस मनुष्य का अंतःकरण शुद्ध नहीं, यदि वह अनेक बार तीर्थयात्रा भी करता है तो भी वह पवित्र नहीं हो सकता।
आचार्य का मानना है कि गुणों की श्रेष्ठता को समझना प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है। जो उसके गुणों को नहीं समझता, वह उसकी निंदा करने लगता है। विद्यार्थी के लिए कुछ और हिदायत देते हुए चाणक्य कहते हैं कि विद्यार्थी को काम, क्रोध, लोभ, मोह, खेल- तमाशे और शृंगार तथा अधिक सोने से बचना चाहिए। क्योंकि ये दुर्गुण हैं और इनसे उसके मन में विक्षेप पैदा होता है। इनसे उसकी ऊर्जा का व्यय होता है, जिससे एकाग्रता पर असर पड़ता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्गों के संबंध में बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति कंदमूल फल खाकर अपना जीवन बिताता है, जो प्रतिदिन पितरों का श्राद्ध करता है, ऐसे ब्राह्मण को ऋषि कहा जाता है। इस प्रकार ऋषि वह है जो संयमी है और अपने पूर्वजों के प्रति जिसके मन में सम्मान का भाव है। जो व्यक्ति एक समय के भोजन से संतुष्ट रहता है तथा अध्ययन-अध्यापन का काम करता है, उसे द्विज कहते हैं। जो ब्राह्मण संसार के कामों में लगा हुआ है और पशुपालन, खेती आदि करता है, उसे वैश्य कहा जाता है। जो ब्राह्मण की सेवा करता है और शराब, मांस आदि बेचकर अपनी जीविका चलाता है, उसे शूद्र कहते हैं। उनका कहना है कि ब्राह्मण का कर्तव्य यह है कि वह अन्य लोगों के कार्य की सिद्धि में उनकी सहायता करे, दूसरों से छल-कपट न करे। जो ब्राह्मण सार्वजनिक स्थलों, जैसे- बावड़ी, कुआं, तालाब, मंदिर और पार्क आदि को अपवित्र करता है, वह म्लेच्छ है।
जो ब्राह्मण और विद्वानों के धन को चुरा लेता है, दूसरों की स्त्रियों का सम्मान नहीं करता और सभी प्रकार के लोगों के साथ जीवन बिता लेता है, वह ब्राह्मण न होकर चाण्डाल है।
अंत में, चाणक्य कहते हैं कि सज्जन और महात्मा व्यक्ति धन को कभी इकट्ठा नहीं करते, वे उसे दान देने की वस्तु समझते हैं, वे इसका प्रयोग धर्म द्वारा यश प्राप्ति के लिए करते हैं जबकि कंजूस धन का प्रयोग अपनों पर और स्वयं पर भी नहीं करते। ऐसा धन नष्ट हो जाता है। तब कंजूस के पास पछतावा करने के अलावा कुछ नहीं बचता। दुष्ट के धन की गति भी विषयों के भोग में होती है। विषय भोग क्षणिक होने के कारण अपना फल भी उसी रूप में देते हैं। वह सुख-दुख देते हैं।
।। अथ द्वादशोऽध्यायः ।।
बारहवां अध्याय
बुद्धिमान मनुष्य को भोजन प्राप्ति के संबंध में चिता नहीं करनी चाहिए, उसे केवल धर्म-कर्म के संबंध में चिंतन करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य के जन्म के समय ही भोजन का प्रबंध हो जाता है।
सानन्दं सदनं सुताश्च सुचियः कान्ता प्रियालापिनी
इच्छापूर्तिधनं स्वयोषितिरतिः सेवकाः स्वाऽऽज्ञापराः
आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं मिष्टान्नपानं गृहे साथीः संगमुपासते च सततं धन्यो गृहस्थाऽऽश्रमः ।।
उसी का घर सुखी हो सकता है, जिसके पुत्र और पुत्रियां अच्छी बुद्धि से युक्त हों, जिसकी पत्नी मृदुभाषिणी हो, जिसके पास परिश्रम हो, ईमानदारी से पैदा किया हुआ धन हो, अच्छे मित्र हो, अपनी पत्नी के प्रति प्रेम और अनुराग हो, नौकर-चाकर आज्ञा का पालन करने वाले हों। जिस घर में अतिथियों का आदर-सम्मान होता है, कल्याणकारी परमेश्वर की उपासना होती है, घर में प्रतिदिन अच्छे मीठे भोजन और मधुर पेयों की व्यवस्था होती है, सदा सज्जन पुरुषों का संग अथवा संगति करने का अवसर मिलता है, ऐसा गृहस्थ आश्रम धन्य है, प्रशंसा के योग्य है। ।।1।।
आदर्श गृहस्थ का रूप-स्वरूप कैसा होना चाहिए, इस ओर आचार्य ने इस श्लोक में स्पष्ट रूप से इशारा किया है।

आर्तेषु विप्रेषु दयान्वितश्च यत् श्रद्धया स्वल्पमुपैति दानम्।
अनन्तपारं समुपैति राजन् यदीयते तन्न लभेद् द्विजेभ्यः।।
दयालु और करुणा से युक्त मनुष्य दुखी ब्राह्मणों को श्रद्धा से जो कुछ भी दान देता है। हे राजन्! वह दान देने वाले को उतना ही प्राप्त नहीं होता है, प्रभु की कृपा से उसमें काफी वृद्धि होती है और वह दान देने वालों को भली-प्रकार मिलता जाता है। ।।2।।
कबीर आदि अनेक संतों ने भी इस बात की पुष्टि की है कि 'दान दिए धन न घटे', अर्थात दान करने से दान देने वाले के धन में कमी नहीं आती बल्कि उसमें पुण्य के रूप में वृद्धि ही होती है।
दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने शाठ्यं सदा दुर्जने प्रीतिः साधुजने स्मयः खलजने विद्वज्जने चार्जवम्। शौर्य शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धृष्टता इत्थं ये पुरुषाः कुशलास्तेष्वेवलोकस्थितिः।। कलासु
अपने बन्धु-बान्धवों के साथ वही व्यक्ति सुख से रह सकता है, जो उनके साथ सज्जनता और नम्रता का व्यवहार करता है, दूसरे लोगों पर दया और दुर्जनों के प्रति भी उनके अनुकूल व्यवहार करता है, सज्जन लोगों से जो प्रेम रखता है, दुष्टों के प्रति जो कठोर होता है और विद्वानों के साथ सरलता से पेश आता है। जो शक्तिशाली लोगों के साथ शूरवीरता और पराक्रम से काम लेता है, गुरु, माता-पिता और आचार्य के प्रति जो सहनशीलतापूर्ण व्यवहार रखता है तथा स्त्रियों के प्रति अधिक विश्वास न करके जो उनके प्रति चतुराईपूर्ण व्यवहार करता है, वही कुशलतापूर्वक इस संसार में रह सकता है। ।13।।
हस्ती दानविवर्जिती श्रुतिपुटी सारस्वतद्रोहिणो नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थ गती। अन्यायार्जितवित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुंगं शिरो रे रे जम्बुक मुञ्च मुञ्च सहसा निन्द्यं सुनिन्द्यं वपुः।।
जिसके दोनों हाथ कभी दान आदि के कार्य में नहीं लगे अर्थात जिसने जीवन में कभी दान न दिया हो, कानों से वेद आदि शास्त्रों का श्रवण नहीं किया अर्थात उनसे द्वेष करता रहा हो, अपने दोनों नेत्रों से सज्जन पुरुषों के दर्शन नहीं किए, पैरों से तीर्थयात्रा नहीं की, माता-पिता तथा आचार्य की सेवा के लिए जो उनके पास कभी नहीं गया, जिसने

अन्याय से धन इकट्ठा करके अपनी आजीविका चलाई, इतने पर भी जो आदमी अभिमान से सिर ऊंचा उठाकर चलता है, ऐसे व्यक्ति के लिए चाणक्य कहते हैं कि है गीदड़ के समान नीच मनुष्य! तू तो नीच लोगों से भी नीच है, तू अत्यंत निंदनीय है, इसलिए जितनी जल्दी हो सके, इस नीच शरीर को त्याग दे अर्थात तेरे इस प्रकार के जीवन से तेरा मर जाना अति उत्तम है। ।14।।
पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किं नोलुकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम्। वर्षा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणं यत्पूर्व विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः ।।
यदि करील नामक पौधे पर पत्ते नहीं निकलते, तो इसमें वसंत ऋतु का क्या दोष है? यदि उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता तो इसमें सूर्य का क्या दोष है? यदि चातक की चोंच में वर्षा का पानी नहीं टिकता तो इसमें बादल का क्या दोष है? संसार को बनाने वाले ब्रह्मा ने मनुष्य के भाग्य में जो कुछ लिख दिया है, उसे कोई भी नहीं मिटा सकता, वह उसे अवश्य भोगना पड़ता है। 11511
चाणक्य यहां कहते हैं कि जिसके भाग्य में जो कुछ लिखा है, उसे कोई नहीं मिटा सकता। लेकिन आचार्य भाग्यवादी भी नहीं हैं।
सत्संगा‌द्भवति हि साधुता खलानां साधूनां न हि खलसंगमात्खलत्वम्।
आमोद कुसुम-भवं मृदेव थत्ते मृगन्धं न हि कुसुमानि धारयन्ति ।।

सज्जनों के सत्संग से दुर्जन मनुष्य भी सज्जन हो सकता है, परंतु सज्जन पुरुषों में दुष्टों की संगति से दुष्टता वैसे ही नहीं आती जैसे फूल से उत्पन्न होने वाली सुगंध मिट्टी में तो आ जाती है, परंतु मिट्टी की गंध फूल में नहीं आ पाती है। 11611
इसका अर्थ यह है कि जिसका जो वास्तविक स्वभाव है, उसमें परिवर्तन नहीं होता अर्थात ऐसा स्वभाव जो परिवर्तनशील नहीं है, श्रेष्ठ माना जाता है। दुष्ट का सज्जन के संग से सज्जन बन जाना और दुष्ट के संग से सज्जन का सज्जन ही बने रहना इस बात की पुष्टि करता है कि सज्जनता मनुष्य का सच्चा स्वभाव है।
साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः ।
कालेन फलते तीर्थं सद्यः साधुसमागमः ।।

सज्जन पुरुष के दर्शन से पुण्य प्राप्त होता है, क्योंकि साधु पुरुष अपने आपमें
साक्षात् तीर्थस्वरूप होते हैं। तीर्थ तो अपने समय के अनुसार ही फल देता है, परंतु साधुओं का संग करने से जल्दी ही मन की आशाएं पूर्ण हो जाती हैं। ।।7।।
विप्राऽस्मिन्नगरे महान् कथय कस्तालद्रुमाणां गणः को दाता रजको ददाति वसनं प्रातगृहीत्वा निशि। को दक्षः परदारवित्तहरणे सर्वेऽपि दक्षो जनः कस्माज्जीवसि हे सखे विषकृमिन्यायेन जीवाम्यहम्।।
कोई राही अथवा यात्री किसी नगर में पहुंचकर किसी ब्राह्मण से पूछता है कि है ब्राह्मण! मुझे बताओ कि इस नगर में कौन सबसे अधिक महान है? उस ब्राह्मण ने उत्तर दिया, ताड़ के वृक्षों का झुंड। यात्री ने फिर प्रश्न किया कि इस नगर में दाता कौन है? उसे उत्तर मिला, धोबी ही यहां का सबसे बड़ा दाता है, जो प्रातःकाल कपड़े धोने अथवा रंगने के लिए ले जाता है और सायंकाल के समय लौटा देता है। यात्री ने फिर पूछा कि इस नगर में चतुर व्यक्ति कौन है? तो ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि इस नगर के सभी व्यक्ति दूसरों का धन और उनकी स्त्री का हरण करने में चतुर हैं। यात्री ने फिर पूछा कि ऐसी अवस्था में तुम्हारा जीवन यहां कैसे बीतता है? ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि में विष में पैदा होने वाले कीड़े के समान हूं, जो उसी में उत्पन्न होता है लेकिन फिर भी विष के प्रभाव से मुक्त रहता है। विष का उस पर कोई असर नहीं होता। मैं उसी प्रकार इन लोगों के साथ अपना जीवन बिता रहा हूं।। 811
प्रतिकूल परिस्थितियों में जीने का सूत्र है यह विष कृमिन्याय।
विप्रपादोदककर्दमानि
वेदशास्त्रध्वनिगर्जितानि ।
स्वाहा स्वधाकार-विवर्जितानि
गुहाणि तानि ।।
श्मशानतुल्यानि
जिन घरों में ब्राह्मणों के पांव धोने वाले जल से कीचड़ न हुआ हो, जहां वेद आदि शास्त्रों के पाठ न होते हों, जिसमें स्वाहा और स्वधा इन शब्दों का उच्चारण न होता हो, वे घर श्मशान के समान हैं। 119।। जिन घरों में ब्राह्मणों का आदर-सत्कार नहीं होता, जहां वेद आदि शास्त्रों की ध्वनि
नहीं गूंजती, जिस घर में अग्निहोत्र अर्थात् होम आदि शुभकर्म नहीं होते हैं, उसे श्मशान के समान समझना चाहिए। वह घर मुदाँ का निवास स्थान ही माना जाएगा। वहां जीवनी शक्ति नहीं होती।
सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया स्वसा ।

शान्तिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः।।
किसी सांसारिक पुरुष ने किसी संत-महात्मा को अत्यंत आनंद की स्थिति में देखकर उनसे उनके बंधु-बांधवों के बारे में पूछा, तो संत ने उत्तर दिया-सत्य ही मेरी माता है और ज्ञान मेरा पिता है, धर्म ही मेरा भाई है और दया मेरी बहन है, शांति मेरी पत्नी है और क्षमा और सहनशीलता मेरे पुत्र हैं, यह छह ही मेरे परिवार के सदस्य हैं, मेरे बन्धु-बान्धव हैं, मेरे रिश्तेदार हैं। ।।10।।
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः।
 नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ।।

यह शरीर अनित्य है अर्थात नाशवान है, धन-सम्पत्ति भी सदा किसी के पास स्थिर नहीं रहती, मृत्यु सदैव प्रत्येक के पास रहती है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को धर्माचरण करना चाहिए। ।।11।।
मनुष्य जानता है कि जिसने इस संसार में जन्म लिया है, वह मरेगा अवश्य। धन भी किसी के पास सदा स्थिर नहीं रहता। सबको इस संसार से एक दिन विदा लेनी है, इसलिए उसका कर्तव्य है कि वह इस संसार में धर्माचरण द्वारा धर्म का संचय करे, क्योंकि धर्म ही मनुष्य की मृत्यु के बाद उसका साथ देता है। अपने अच्छे आचरण के कारण संसार में उसे याद किया जाता है।
आमन्त्रणोत्सवा विप्रा गावो नवतृणोत्सवाः।
 पत्युत्साहयुता नार्यः अहं कृष्णरसोत्सवः ।।

किसी ब्राह्मण के लिए भोजन का निमंत्रण मिलना ही उत्सव है। गौओं के लिए ताजी नई घास प्राप्त होना ही उत्सव के समान है। पति में उत्साह की वृद्धि होते रहना ही स्त्रियों के लिए उत्सव के समान है। और मेरे लिए? मेरे लिए तो श्रीकृष्ण के चरणों में अनुराग ही उत्सव के समान है। ।।1211
मातृवत् परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्ठवत्।
 आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति।।

जो व्यक्ति दूसरी स्त्रियों को माता के समान देखता है, दूसरों के धन को मिट्टी के ढेले के समान समझता है और संसार के सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, वास्तव में वही यथार्थ को देखता है। ।।13।।
जो व्यक्ति दूसरों की स्त्रियों को अपनी माता के समान आदर देता है, दूसरों के धन अथवा उनके हिस्से को हड़पने की इच्छा नहीं करता और सभी प्राणियों के साथ वह उसी प्रकार का व्यवहार करता है जैसा अपने साथ व्यवहार किए जाने की इच्छा रखता है, ऐसा व्यक्ति ही बुद्धिमान है अर्थात उसका इस प्रकार का आचरण ही उसे श्रेष्ठ बनाता है। आचार्य के अनुसार, किसे कैसे देखना है, इसे वह जानता है।

धर्म तत्परता मुखे मधुरता दाने समुत्साहता मित्रेऽवञ्चकता गुरौ विनयता चित्तेऽति गम्भीरता। आचारे शुचिता गुणे रसिकता शास्त्रेषु विज्ञानता रूपे सुन्दरता शिवे भजनता सत्स्वेव संदृश्यते ।।
धर्म में निरंतर लगे रहना, मुख से मीठे वचन बोलना, दान देने में सदैव उत्सुक रहना, नेत्र के प्रति कोई भेद-भाव न रखना, गुरु के प्रति नम्रता और अपने हृदय में गंभीरता, अपने नाचरण में पवित्रता, गुणों के ग्रहण करने में रुचि, शास्त्रों का विशेष ज्ञान, रूप में सौंदर्य और भु में भक्ति आदि का होना-ये गुण सज्जन पुरुषों में ही दिखाई देते हैं। ।11411
काष्ठं कल्पतरुः सुमेरुरचलश्चिन्तामणिः प्रस्तरः
 सूर्यस्तीव्रकरः शशी क्षयकरः क्षारों हि वारान्निधिः। 
कामो नष्टतनुर्बलिदितिसुतो नित्यं पशुः कामगो
- नैतांस्ते तुलयामि भो रघुपते कस्योपमा दीयते ।।

सबकी कामनाओं की पूर्ति करने वाला कल्पवृक्ष लकड़ी है, सुमेरु एक पर्वत है, चिंताओं को दूर करने वाली मणि-चिंतामणि एक पत्थर है, सूर्य भयंकर रूप से प्रचंड किरणों वाला है, चंद्रमा की कलाएं क्षीण होती रहती हैं, समुद्र खारा है, कामदेव का कोई बरीर नहीं, दानशील बलि दैत्य हैं, कामधेनु अर्थात सबकी इच्छा पूर्ण करने वाली गाय एक शु है, मैं इन सबको आपके समान अर्थात आपके बराबर नहीं समझता। हे प्रभु राम! नापकी तुलना किसके साथ की जाए? अर्थात् आप अतुलनीय हैं। ।।15।।
विनयं राजपुत्रेभ्यः पण्डितेभ्यः सुभाषितम्। 
अनृतं द्यूतकारेभ्यः स्त्रीभ्यः शिक्षेत् कैतवम् ।।

व्यक्ति सभी स्थानों से कुछ न कुछ सीख सकता है। उसे राजपुत्रों से नम्रता और मुशीलता, विद्वानों से प्रिय वचन बोलना, जुआरियों से मिथ्या-भाषण अर्थात सही स्थिति का ता न लगने देना और स्त्रियों से छल करना सीखना चाहिए। ।।16।।
इस संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो उपयोगी न हो। बस उसका सही समय पर, बही तरह से उपयोग आना चाहिए। मिथ्या भाषण और छल भी जीवन में उपयोगी होते हैं। नका उपयोग उन्हीं के प्रति करें, जो आपको इनमें उलझाएं। लोहे को लोहा ही काटता है।
अनालोक्य व्ययं कर्ता ह्यनाथः कलहप्रियः। 
आतुरः सर्वक्षेत्रेषु नरः शीघ्रं विनश्यति ।।

जो व्यक्ति बिना विचारे और बिना देखे शक्ति से अधिक खर्च करता है, निर्बल होने र भी जो लड़ाई-झगड़े में रुचि रखता है, सभी वर्गों की स्त्रियों से जो संभोग के लिए
उतावला रहता है, वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है। ।।17।।
नाहारं चिन्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत्। 
आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते ।।

बुद्धिमान मनुष्य को भोजन प्राप्ति के संबंध में चिंता नहीं करनी चाहिए, उसे केवल धर्म-कर्म के संबंध में चिंतन करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य के जन्म के समय ही भोजन का प्रबंध हो जाता है, प्रारब्ध द्वारा कर दिया जाता है। ।।18।।
बुद्धिमान व्यक्ति खानपान की चिंता किए बिना धर्म-कार्य में लगे रहते हैं। कर्तव्यों का निर्वाह करने वाले की इच्छाएं प्रकृति पूरी करती है।
आचार्य के इस कथन से उन्हें भाग्यवादी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। यहाँ आचार्य यह कहना चाह रहे हैं कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का करना चाहिए। कर्तव्यों की दिशा यदि सही हो, तो उसकी कामनाओं की पूर्ति सहज में होने लगती है। कई संतों- महापुरुषों का जीवन इस कथन की पुष्टि करता है।
जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।
 स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।

जैसे बूंद-बूंद से घड़ा भर जाता है, उसी प्रकार निरंतर इकट्ठा करते रहने से धन, विद्या और धर्म की प्राप्ति होती है। ।।19।।
वयसः परिणामेऽपि यः खलः खल एव सः। 
सुपक्वमपि माधुर्य नोपयातीन्द्रवारुणम् ।।

जो व्यक्ति दुष्ट है, वह परिपक्व अवस्था का हो जाने पर भी दुष्ट ही बना रहता है, जैसे इंद्रायण का फल पक जाने पर भी मीठा नहीं होता, कड़वा ही बना रहता है। ।।20।।
यह आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति आयु के बढ़ने के साथ-साथ अपने स्वभाव में भी परिवर्तन कर सके। अधिकांश व्यक्ति, जो दुष्ट और दुर्जन होते हैं, अपने जीवन की अंतिम स्थिति तक दुष्ट ही बने रहते हैं। उनके जीवन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आता। जिस प्रकार इंद्रायण नामक फल पूरी तरह पक जाने पर भी कड़वा ही रहता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने स्वभाव को छोड़ने में असमर्थ रहता है।
अध्याय का सार
अध्याय के प्रारंभ में चाणक्य उस गृहस्थ को सुखी बताते हैं, जिसके घर में मंगल कार्य होते रहते हैं। जिसकी संतान बुद्धिमान हो, पत्नी मधुरभाषिणी हो, जिसने सत्कमों से धन की प्राप्ति की हो, जिसके मित्र समय पर उसका साथ देने वाले हों, नौकर आदि उसकी
आज्ञा का पालन करने वाले हों, जहां अतिथियों का स्वागत-सत्कार होता हो, जो गृहस्थ नित-नियम से प्रभु की उपासना करता हो और जिस घर में प्रतिदिन श्रेष्ठ, स्वादिष्ट भोजन बनता हो, ऐसी गृहस्थी ही प्रशंसनीय होती है अर्थात ऐसा गृहस्थ सदैव सुखी रहता है।
दान का महत्व बताते हुए चाणक्य ने अनेक स्थानों पर कहा है कि दान देने से धन की कमी नहीं होती। हां, योग्य और विद्वान ब्राह्मणों को ही दान देना चाहिए, क्योंकि ऐसे व्यक्ति को दिया हुआ दान कई गुना होकर मिलता है। असल में देखा जाए तो धन का दान करना तो इसलिए भी लाभप्रद है क्योंकि ऐसा करके व्यक्ति यश और पुण्य की प्राप्ति करता है, जो धन की अपेक्षा बहुत ज्यादा समय तक रहने वाली है।
इस संसार में नित्य ऐसे दुष्कर्म होते हैं, जिनसे किसी के नष्ट होने का भय-सा बना रहता है। जिस व्यक्ति ने अपने हाथों से कभी दान नहीं दिया, कानों से कभी शास्त्र वचन नहीं सुने, आंखों से कभी सज्जन व्यक्तियों के दर्शन नहीं किए और जो कभी तीर्थों पर भी नहीं गया, चाणक्य कहते हैं कि ऐसा जीवन व्यर्थ है।
होनी बड़ी प्रबल होती है, यह बात सभी जानते हैं। अपनी होनी अथवा भाग्य के
कारण करील के वृक्ष पर पत्ते नहीं होते तो इसके लिए वसंत को दोषी नहीं माना जा सकता, यदि उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता तो उसमें सूर्य का क्या अपराध है, इसलिए जो कुछ भाग्य में लिखा है, उसके प्रति किसी को दोष देना उचित नहीं। एक बहुत ही उपयुक्त उदाहरण देकर आचार्य चाणक्य ने कहा है कि दुष्ट व्यक्ति के पास रहने से भी सज्जन व्यक्ति अपनी सज्जनता का त्याग नहीं करता, जबकि सज्जन की संगति में आकर दुष्ट सज्जन बन सकता है। सज्जनों के संबंध में आचार्य का कहना है कि उनके दर्शनमात्र से पुण्य फल की प्राप्ति होती है, परंतु जहां कोई सज्जन पुरुष नहीं होता, वहां का जीवन भी विष के उस कीड़े के समान होता है, जो विष में ही उत्पन्न होता है और विष में ही मरता है। इस श्लोक का आशय यह भी हो सकता है कि जिस प्रकार विष का कीड़ा विष से अप्रभावी रहता है, उसी प्रकार दुष्टों में रहने पर भी सज्जन व्यक्ति दुर्गुणों से कोसों मील दूर रहता है।
चाणक्य ने आदर्श घर उसे माना है, जहां ब्राह्मणों का सम्मान होता है, उनकी सेवा होती है, जहां वेद मंत्रों और शास्त्रों की ध्वनि गूंजती रहती है और अग्निहोत्र से वातावरण सुगंधित रहता है। जहां यह सब नहीं होता, ऐसा धर्म-कर्म रहित घर श्मशान के समान होता है। ऐसे घर में नकारात्मक ऊर्जा का निवास हो जाता है। चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए अन्य बातों की ओर से ध्यान हटाकर अपना मन धर्म के कार्यों में लगाए।
आचार्य के अनुसार, जो व्यक्ति दूसरों की स्त्री को माता के समान देखता है, दूसरे के धन को तुच्छ समझता है और सब प्राणियों को अपने समान मानता है, सदैव धर्म में लगा रहता है, कटु वचन नहीं बोलता, जिसमें दान की प्रवृत्ति होती है, मित्रों से जो किसी प्रकार का छल-कपट नहीं करता, गुरु के प्रति जो नम्र रहता है, जिसका अंतःकरण समुद्र के समान गंभीर है, जो आचरण में पवित्र, शास्त्रों को जानने वाला और हर समय प्रभु को याद रखने वाला है, वही सज्जन है।

भगवान राम के संबंध में चाणक्य कहते हैं कि वे कल्पवृक्ष से भी श्रेष्ठ हैं, सुमेरु पर्वत से भी अधिक धनी हैं, उनका तेज सूर्य से भी अधिक है, वे कामधेनु से भी अधिक मनोकामनाएं पूरी करने वाले हैं, इसलिए उनकी उपासना करनी चाहिए।
इन श्लोकों से लगता है कि आचार्य चाणक्य भगवान श्रीराम के मर्यादा पूर्ण जीवन तथा नीतियों से प्रभावित थे।
ココ
।। अथ त्रयोदशोऽध्यायः ।।
तेरहवां अध्याय
जिस प्रकार हजारों गायों में बछड़ा केवल अपनी मां के ही पास आता है, उसी प्रकार जो कर्म किया जाता है, वह कर्म करने वाले के पीछे-पीछे चलता है।
मुहूर्तमपि जीवेच्च नरः शुक्लेन कर्मणा। 
\न कल्पमपि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना ।।

मनुष्य को यदि एक मुहूर्त अर्थात 48 मिनट का जीवन भी मिले तो उसे उत्तम और पुण्य कार्य करते हुए जीवित रहना चाहिए, क्योंकि ऐसा ही जीवन उत्तम है, परंतु इस लोक और परलोक में दुष्ट कर्म करते हुए हजारों वर्ष जीना भी व्यर्थ है। ।।1।।
चाणक्य का भाव यह है कि मनुष्य का जीवन बहुत भाग्य से मिलता है। यदि जीवन बहुत छोटा भी हो तो भी उसे अच्छे कर्म करते हुए जीवित रहना चाहिए। बुरे काम करते हुए हजारों साल का जीवन भी व्यर्थ है। मनुष्य का धर्म है कि अच्छे कर्म करता हुआ अपने जीवन को बिताए। आयु की सार्थकता शुभ कर्मों से है।
गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत्।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः।।

जो बातें बीत चुकी हैं, उन पर शोक नहीं करना चाहिए और भविष्य की भी चिंता नहीं करनी चाहिए। बुद्धिमान लोग वर्तमान समय के अनुसार कार्य में लगे रहते हैं। ।।2।।
व्यक्ति को चाहिए वह बीती हुई बातों पर शोक करने में व्यर्थ समय न गंवाए। उसे
इस बात की भी चिंता नहीं करनी चाहिए कि आगे क्या होने वाला है। अतीत हाथ से निकल चुका है, तो भविष्य की केवल कल्पना की जा सकती है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को वर्तमान स्थितियों के अनुरूप अपने काम में लगे रहना चाहिए। इससे बीते कल में हुई भूलों को ठीक किया जा सकता है और आने वाले कल को एक उत्तम आधार दिया जा सकता है।
स्वभावेन हि तुष्यन्ति देवाः सत्पुरुषाः पिता। 
ज्ञातयः स्नानपानाभ्यां वाक्यदानेन पण्डिताः ।।

देवता, सज्जन और पिता स्वभाव से संतुष्ट होते हैं, बन्धु-बान्धव अच्छे खानपान से जबकि पंडित (विवेकशील) मधुर भाषण से ही प्रसन्न हो जाते हैं। ।।3।।
देवता, सज्जन व्यक्ति और पिता केवल व्यक्ति के स्वभाव को देखते हैं। पिता अपने पुत्र के स्वभाव से ही प्रसन्न होता है। रिश्तेदार, बन्धु-बान्धव अच्छे खानपान से खुश रहते हैं अर्थात यदि उनकी खानपान से अच्छी आवभगत की जाए तो वह प्रसन्न रहते हैं और विद्वान मीठी बातों से ही प्रसन्न हो जाते हैं। इसी बात को कुछ इस तरह भी कहा जा सकता है। देवता, सज्जन और पिता अपने पूजक और संतति से सदा ही संतुष्ट रहते हैं।
अहो बत विचित्राणि चरितानि महाऽऽत्मनाम्।
 लक्ष्मीं तृणाय मन्यन्ते त‌द्भारेण नमन्ति च।।

महात्माओं और सज्जनों का चरित्र बड़ा विचित्र होता है। वे धन को तिनके के समान समझते हैं, परंतु तब उसके भार से वह झुक जाते हैं, अर्थात विनम्र बन जाते हैं जब वह आता है। ।।4।।
सज्जन धन को तिनके के समान अर्थात् अर्थहीन समझते हैं, परंतु यदि इनके पास धन आ जाए तो वे और भी नम्र हो जाते हैं अर्थात धन के आने पर भी उन्हें अभिमान नहीं होता। वे उसी प्रकार झुक जाते हैं, जिस प्रकार फलों से लदे हुए वृक्ष की टहनियां नम हो जाती हैं।
यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्। 
स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत्सुखम् ।।

जिसका किसी के प्रति स्नेह अथवा प्रेम होता है, उसी से उसको भय भी होता है। स्नेह अथवा प्रेम ही दुख का आधार है। स्नेह ही सारे दुखों का मूल कारण है। इसलिए उन स्नेह बन्धनों को त्यागकर सुखपूर्वक रहने का प्रयत्न करना चाहिए। ।।5।
अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिस्तथा। 
द्वावेतौ सुखमेधेते य‌द्भविष्यो विनश्यति ।।

आने वाले कष्ट को दूर करने के लिए जो पहले से ही तैयार रहता है और जो विपत्ति आने पर उसे दूर करने का उपाय सोच लेता है, ये दोनों प्रकार के व्यक्ति अपने सुख की वृद्धि
करते हैं अर्थात सुखी रहते हैं तथा जो यह सोचता है कि जो भाग्य में लिखा है वही होगा, ऐसा व्यक्ति नष्ट हो जाता है। 116।।
चाणक्य ने कहा है कि संकट आने से पूर्व जो व्यक्ति बचाव का उपाय कर लेता है और जो संकट आने पर तत्काल आत्मरक्षा का उपाय कर लेता है ये दोनों सुख से जीवन बिताते हैं, परंतु जो भाग्य के लिखे के अनुसार सोचता है कि देखा जाएगा, वह नष्ट हो जाता 12
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः । 
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ।।

राजा के धर्मात्मा होने पर प्रजा भी धार्मिक आचरण करती है। राजा के पापी होने पर प्रजा भी पाप में लग जाती है। राजा उदासीन रहता है, तो प्रजा भी उदासीन रहने लगती है, क्योंकि प्रजा वैसा ही आचरण करती है, जैसा राजा करता है। ।।711
जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्। 
मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः।।

चाणक्य कहते हैं कि मैं धर्म से रहित अधर्मी व्यक्ति को जीवित रहने पर भी मरे हुए के समान समझता हूं। जबकि धर्मयुक्त मनुष्य मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है, इस बात में किसी प्रकार का सन्देह नहीं। ।।8।।
मृत्यु के बाद धार्मिक व्यक्ति के जीने का अर्थ यह है कि व्यक्ति की कीर्ति, उसका यश, उसके अच्छे कार्यों के कारण अमर रहते हैं। अधार्मिक व्यक्ति तो जीवित रहता हुआ भी मरे के समान है क्योंकि न तो उसे कोई पूछता है और न ही उसका समाज में कोई सम्मान होता है।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते। 
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम् ।।

जिस मनुष्य के पास धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों में से एक चीज भी नहीं है, उसका जन्म बकरी के गले में लटकते हुए स्तनों के समान निरर्थक होता है। 1911
दह्यमानाः सुतीव्रण नीचाः परयशोऽग्निना। 
अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते ।।

नीच मनुष्य दूसरे व्यक्ति के यश को बढ़ता हुआ देखकर उसकी यशरूपी कीर्ति से
जलते हैं और जब उस पद को प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं, तब उस व्यक्ति की निंदा करने लगते हैं। ।।10।।
दुष्ट व्यक्ति दूसरे को तरक्की करता देखकर उससे जलने लगते हैं। उसकी कीर्तिरूपी आग उन्हें जलाती रहती है। जब वे उस कीर्ति को प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं, तब उस
व्यक्ति की निंदा करने लगते हैं।
बन्धाय विषयाऽऽसक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः। मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।।
मनुष्य अपने विचारों के कारण ही अपने आपको बन्धनों में फंसा हुआ मानता है और अपने विचारों के कारण ही अपने आपको बंधनों से से मुक्त समझता है। विषय-वासनाएं ही मनुष्य के बंधन के कारण हैं और विषय-वासनाओं से मुक्त होकर ही मनुष्यों को मोक्ष प्राप्त होता है। ।।11日
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि।
 यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ।।

अपने शरीर के अभिमान से नष्ट हो जाने पर, अपने आपको परमात्मा से युक्त जान लेने पर मन जहां-जहां जाता है, वहां-वहां ही उसे समाधि से युक्त समझना चाहिए। ।।12।।
मनुष्य की आत्मा और देह दोनों अलग हैं-जब व्यक्ति को इस बात का ज्ञान हो जाता है तब उसका शरीर संबंधी अभिमान नष्ट हो जाता है, यही उसकी समाधि अवस्था है।
ईप्सितं मनसः सर्वं कस्य सम्पद्यते सुखम्। 
देवाऽऽयत्तं यतः सर्व तस्मात्सन्तोषमाश्रयेत्।।

मनुष्य के मन की सभी इच्छाएं कभी भी पूर्ण नहीं होतीं, क्योंकि वे सभी भाग्य के अधीन हैं, इसलिए मनुष्य को अपने जीवन में संतोष धारण करना चाहिए। ।।13।।
यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो गच्छति मातरम्। 
तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।।

जिस प्रकार हजारों गायों में बछड़ा केवल अपनी मां के ही पास जाता है, उसी प्रकार
जो कर्म किया जाता है, वह कर्म करने वाले के पीछे-पीछे चलता है। 1।14।।
अनवस्थितकार्यस्य न जने न वने सुखम्।
 जने दहति संसर्गों वने संगविवर्जनम् ।।

बेढंगे काम करने वाले को न समाज में सुख मिलता है, न ही जंगल में। ऐसे व्यक्ति को समाज में मनुष्यों का संसर्ग दुखी करता है जबकि जंगल में अकेलापन। ।।15।।
अव्यवस्थित जीवन वाला व्यक्ति कभी भी सुखी नहीं हो सकता।
यथा खात्वा खनित्रेण भूतले वारि विन्दति।
 तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ।।

जैसे फावड़े से खोदने पर पृथ्वी से जल प्राप्त होता है, वैसे ही गुरु की सेवा करने
वाला विद्यार्थी विद्या को प्राप्त करता है। ।11611
कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी। 
तथापि सुधियश्चाऽऽर्याः सुविचार्यैव कुवते ।।

मनुष्य को कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है और मनुष्य की बुद्धि भी कर्मों के अनुसार ही कार्य करती है। इतने पर भी बुद्धिमान और सज्जन भली-भांति सोच-विचार कर ही कार्य करते हैं। ।।1711
मनुष्य जिस प्रकार का कर्म करता है, उसी के अनुसार उसे फल मिलता है। गीता में भी कहा गया है कि मनुष्य को कर्म करना चाहिए उसके फल की चिंता छोड़ देनी चाहिए। इसलिए यह और भी आवश्यक हो जाता है कि मनुष्य सोच-विचार कर ही कर्म करे, बिना सोचे-विचारे कार्य करने से कार्य सिद्धि नहीं होती और फल प्राप्ति की तो आशा ही नहीं की जा सकती।
एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नाभिवन्दति । 
श्वानयोनिशतं भुक्त्वा चाण्डालेष्वभिजायते ।।

एकाक्षर मंत्र देने वाले गुरु की जो वंदना नहीं करता, वह कुत्ते की योनि में सौ बार जन्म लेकर फिर चाण्डाल के घर उत्पन्न होता है। ।।18।।
एक अक्षर का अर्थ यहां दो प्रकार से हो सकता है। एक अक्षर का ज्ञान देने वाला भी इसका अर्थ किया जा सकता है। शास्त्रों में ॐ को एकाक्षर ब्रह्म कहा गया है। इन्हें प्रदान करने वाला ही गुरु है। गुरु का जो आदर नहीं करता, वह चाण्डाल के समान है। शास्त्रों में कृतघ्नता को ऐसा पाप माना गया है जिसका कोई प्रायश्चित्त नहीं होता।
युगान्ते प्रचलते मेरुः कल्पान्ते सप्त सागराः।
 साधवः प्रतिपन्नार्थान् न चलन्ति कदाचन ।।

एक युग के अंत में सुमेरु पर्वत भी अपने स्थान पर स्थिर नहीं रहता, कल्प के अंत में समुद्र भी अपनी सीमाएं लांघकर इस संसार को कष्ट में डाल देता है, परंतु श्रेष्ठ पुरुष अपने हाथ में लिए हुए कार्य को पूरा करने की प्रतिज्ञा से विचलित नहीं होते। ।।1911
इसका भाव यह है कि प्रकृति के नियम भले ही बदल जाएं, पर्वत और समुद्र भले ही अपना स्थान छोड़ दें, परंतु सज्जन व्यक्तियों ने जिस किसी कार्य की पूर्ति के लिए वचन दिया है, वह अवश्य उसे पूरा करते हैं। वे अपने दिए गए वचन से टलते नहीं, भले ही उन्हें इसके लिए अपने प्राण गंवाने पड़ें। राजा दशरथ ने अपने वचनों का निर्वाह करने के लिए ही तो अपने प्राण त्याग दिए थे। वे जानते थे कि राम के बिना जीवित रहना संभव नहीं, फिर भी उन्होंने राम को वन में भेजा।
अध्याय का सार
चाणक्य ने अनेक बार 'मनुष्य' की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है। उनका कहना है कि
यदि मनुष्य-जीवन एक क्षण के लिए भी प्राप्त होता है तो उस काल में भी मनुष्य को श्रेष्ठ कर्म करने चाहिए और यदि उसका जीवन एक युग से भी अधिक हो तो भी उसे बुरे कर्मों में लिप्त नहीं होना चाहिए।
चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह जो समय बीत चुका है, या जो आगे आने वाला है, इसकी चिंता छोड़कर वर्तमान की ओर ही ध्यान दे। समस्याओं का समाधान उसी में निहित है।
मनुष्य की सफलता उसके स्वभाव पर निर्भर करती है। वह स्वभाव से ही सज्जन पुरुषों और अपने माता-पिता को प्रसन्न कर सकता है। महात्माओं का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे धन को तिनके के समान तुच्छ समझते हैं, यदि उनके पास अधिकाधिक धन हो जाए तो भी वे अभिमान नहीं करते, वे उसी प्रकार नम्र होकर झुक जाते हैं, जिस प्रकार फल से लदी हुई वृक्ष की शाखा। आचार्य का कहना है कि अपने बन्धु-बान्धवों के प्रति कर्तव्य पूरे करते हुए उनसे इतना अधिक लगाव नहीं बढ़ाना चाहिए कि उनके बिछड़ने से कष्ट अनुभव हो।
जो व्यक्ति सदैव सतर्क रहते हैं और समय आने से पूर्व ही आने वाले कष्टों को रोकने के उपाय कर लेते हैं, ऐसे व्यक्ति अपना जीवन सुख से बिता देते हैं, परंतु जो भाग्य के भरोसे रहता है, उसे कष्ट उठाना पड़ता है।
जैसा राजा वैसी प्रजा, एक बहुत पुरानी कहावत है। यह आचार्य चाणक्य के समय से ही प्रसिद्ध हुई दिखाई देती है। चाणक्य कहते हैं कि जिस मनुष्य के जीवन में धर्म का अभाव है, में उसको मृत व्यक्ति के समान समझता हूँ और धर्माचरण करने वाला व्यक्ति मरने के बाद भी जीवित रहता है।
इसी संबंध में आचार्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों में से एक के लिए भी पुरुषार्थ नहीं किया तो समझो कि उसका जीवन व्यर्थ है। शास्त्र धर्म, अर्थ और काम को पुरुषार्थ मानते हैं-मोक्ष उनकी दृष्टि में परमपुरुषार्थ है। यह संकेत है कि इन तीनों की सार्थकता तभी है, जब समस्त बंधनों से जीव मुक्त हो जाएगा।
दुष्ट व्यक्ति जब किसी के बढ़ते हुए यश को देखता है तो वह उसकी निंदा करने लगता है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी मनुष्य के मन को ही मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा शत्रु बताया है, क्योंकि उसके विचार ही उसे संसार के मोह-माया में फंसाए रखते हैं, जो उसके लिए बंधन के समान हैं। योगी मन को वश में करके उसके सभी बंधनों को काट फेंकते हैं।
मनुष्य के कर्मों के संबंध में वे कहते हैं कि जिस प्रकार बहुत-सी गौओं में भी बछड़ा 
अपनी मां को पहचान लेता है और उसी के पीछे-पीछे चलता है, उसी प्रकार मनुष्य के कर्म ही मनुष्य का साथ देते हैं अर्थात वह जैसा कार्य करता है, उसके अनुसार ही उसको फल भोगना पड़ता है।
कर्म के संबंध में चाणक्य आगे यह कहते हैं कि मनुष्य को कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है और उसकी बुद्धि भी उसके द्वारा किए जाने वाले कर्मों के अनुसार ही कार्य करती है। इतने पर भी विद्वान और सज्जन व्यक्ति सोच-विचार कर कार्य करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि कुछ ऐसा भी है, जिसे बुद्धि द्वारा नई दिशा दी जा सकती है।
चाणक्य अंत में मनुष्य के स्वभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सज्जन पुरुष अपने कर्तव्य अथवा अपने वचन से कभी भी विमुख नहीं होते, जबकि संकट आने पर बड़ी से बड़ी प्राकृतिक शक्तियां भी मनुष्य का साथ छोड़ देती हैं।

।। अथ चतुर्दशोऽध्यायः।।
चौदहवां अध्याय
देखने वाले एक ही वस्तु को तीन प्रकार से देखते हैं। योगी उसे अति-निंदित शव के रूप में देखते हैं। कामी लोग सुंदर नारी के रूप में देखते हैं और कुत्ता उसे एक मांस के लोथड़े के रूप में देखता है।
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्। मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ।।
इस पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं-जल, अन्न और हितकारी वचन, परंतु मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़े को रत्न कहते हैं। ।।1।।
आत्माऽपराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्। दारिद्र्यरोगदुःखानि बन्धनव्यसनानि च।।
दरिद्रता, रोग, दुख, बंधन तथा आपत्तियां - ये सब मनुष्य के अधर्म रूपी वृक्ष के फल हैं। ।।2।।
मनुष्य जैसे कर्म करता है, उसे वैसे ही फलों की प्राप्ति होती है। मनुष्य की दरिद्रता, दुखी होना, रोगों से युक्त रहना, सांसारिक बंधनों में फंसे रहना और इसके साथ अनेक प्रकार की आपत्तियां आदि आना, ये मनुष्य के दुष्कर्मों के ही फल हैं। इसलिए मनुष्य का कर्तव्य यह है कि वह शुभ कर्म करे, ताकि उसका जीवन सुखपूर्वक बीते।
आचार्य ने यहां कर्म के सिद्धांत का विवेचन करते हुए शुभ कार्य करने की प्रेरणा दी
है क्योंकि यही सुख का साधन है।
पुनर्वित्तं पुनर्मित्रं पुनर्भार्या पुनर्मही। एतत्सर्व पुनर्लभ्यं न शरीरं पुनः पुनः ।।
धन भी पुनः प्राप्त हो सकता है, मित्र भी मिल सकते हैं, पत्नी भी फिर से मिल सकती है। ये सब वस्तुएं मनुष्य को बार-बार प्राप्त हो सकती हैं, परंतु यह शरीर बार-बार प्राप्त नहीं हो सकता। ।13।।
बहूनां चैव सत्त्वानां समवायो रिपुञ्जयः । वर्षाधाराधरो मेघस्तृणेरपि निवार्यते।।
निश्चित रूप से बहुत से मनुष्य मिलकर शत्रु को जीत सकते हैं। मनुष्यों का समुदाय अर्थात उनका सगंठन शत्रु को जीतने में उसी प्रकार सफल रहता है, जिस प्रकार इकट्ठ किए हुए तिनके जल की धारा को रोक देते हैं अर्थात घास-फूस का छप्पर वर्षा के पानी से रक्षा करता है। ।।411
यह बात देखने-सुनने में बहुत सामान्य प्रतीत होती है, परंतु यह है अत्यंत महत्वपूर्ण। जिस परिवार में मतभेद होते हैं, आपस में एकता नहीं होती, वह परिवार नष्ट हो जाता है। इसी तरह जिन परिवारों में अथवा देश के लोगों में एकता है, मिलकर काम करने की इच्छा है, वे भयंकर से भयंकर शत्रु को पराजित करने में समर्थ होते हैं। वृक्ष की एक शाखा को कोई एक बच्चा भी तोड़ सकता है, परंतु जब पतली-पतली शाखाएं इकट्ठी हो जाती हैं तो इन्हें शक्तिशाली हाथी के लिए तोड़ना भी कठिन हो जाता है-संघे शक्तिः कलौ युगे।
जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि। प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तितः ।।
जल पर तेल, दुष्ट व्यक्ति के पास गुप्त वार्ता, सुपात्र व्यक्ति को दिया गया दान, बुद्धिमान का शास्त्रज्ञान ये सभी बातें ऐसी हैं, जो पूरी होने पर वस्तु की शक्ति अर्थात विशेषता से बिना किसी प्रयास के स्वयं फैल जाती हैं, इनका विस्तार हो जाता है। ।।5।।
पानी पर यदि तेल की बूंद डाली जाएगी तो वह बूंद के रूप में न रहकर उस पर फैल जाएगी, इसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति के पास कोई रहस्य गुप्त नहीं रह सकता। सुपात्र व्यक्ति को दिया हुआ दान और बुद्धिमान व्यक्ति को दिया गया शास्त्रज्ञान, ये सब अपने आप अपनी विशेषता के कारण चारों ओर फैल जाते हैं।
धर्माऽऽख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्। सा सर्वदेव तिष्ठेच्चेत् को न मुच्येत बन्धनात्।।
धार्मिक कथा आदि के सुनने के समय, श्मशान भूमि में और रोगी होने पर मनुष्य के मन में जो सद्‌बुद्धि उत्पन्न होती है, यदि वह सदैव स्थिर रहे तो मनुष्य संसार के बंधनों से छूट
सकता है। 11611
जब मनुष्य धर्म संबंधी उपदेश सुनता है तो उसके मन में अच्छे विचारों का उदय होता है। इसी प्रकार जब मनुष्य किसी मृत व्यक्ति के साथ श्मशान भूमि में जाता है तो वह समझता है कि यह शरीर नश्वर है, उस समय उसके मन में पापों से मुक्त होने की सद्भावना उत्पन्न होती है। ऐसे ही जब मनुष्य रोगग्रस्त होता है तो वह प्रभु को याद करता है और उस समय सोचता है कि वह ऐसा कोई कार्य नहीं करेगा, जिससे उसे फिर बीमार होना पड़े। चाणक्य कहते हैं कि यदि व्यक्ति सदैव इसी प्रकार सोचता रहे तो वह संसार के बन्धनों से छूट सकता है। परंतु होता यह है कि जब मनुष्य धर्म सभा से उठ जाता है, श्मशान भूमि से लौट आता है और रोग से मुक्त हो जाता है तो वह फिर से संसार के उसी मोह-मायाजाल में फंस जाता है। यही माया है।
उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी । तादृशी यदि पूर्व स्यात् कस्य न स्यान्महोदयः ।।
दुष्कर्म करने के बाद पश्चात्ताप करने वाले मनुष्य की बुद्धि जिस प्रकार की होती है, वैसी बुद्धि यदि पाप करने से पहले भी हो जाए तो सभी को मुक्ति प्राप्त हो सकती है। 117।।
मनुष्य बुरा कार्य करने के बाद पछताता है, उसे अपने किए हुए कार्य पर पछतावा होता है। वह जानता है कि उसने वह किया है, जो उसे नहीं करना चाहिए। चाणक्य कहते हैं कि यदि दुष्कर्म करने से पहले ही मनुष्य के विचार वैसे ही हो जाएं जैसे पश्चात्ताप के समय होते हैं, तो कोई भी दुष्कर्म न हो।
दाने तपसि शौर्ये वा विज्ञाने विनये नये। विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा ।।
दान, तपस्या, वीरता, विज्ञान, विनम्रता और नीतिवान होने में मनुष्य को सबसे बड़ा होने का अभिमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि पृथ्वी अनेक अमूल्य रत्नों से भरी हुई है। ।। 811
दूरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थितः। यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः ।।
जो जिसके हृदय में बसा हुआ है, वह यदि बहुत दूर है तो भी उसे दूर नहीं कहा जा सकता और जो जिसके हृदय में समाया हुआ नहीं है, वह बहुत निकट रहने पर भी दूर प्रतीत होता है। ।।9।।
जिन लोगों में सच्चा प्रेम है, वे यदि एक-दूसरे से बहुत दूर रहते हैं, तो भी उन्हें दूर
नहीं मानना चाहिए, परंतु जिसने किसी के दिल में घर नहीं किया, वह पास रहने से भी दूर
रहता है। आचार्य के अनुसार, सच्चे प्रेम में दूरी का कोई महत्व नहीं है।
यस्य चाप्रियमिच्छेत तस्य ब्रूयात् सदा प्रियम्। व्याधो मृगवधं कर्तुं गीतं गायति सुस्वरम्।।
जिसका बुरा करने की इच्छा हो, उससे सदा मीठी बात करनी चाहिए, जैसे शिकारी हिरण को पकड़ने से पहले मीठी आवाज में गीत गाता है। ।।10
इस श्लोक में एक सामान्य सांसारिक बात कही गई है। जो मन अपने पाप के कारण किसी का अहित चाहता है, वह पहले सदा मीठी-मीठी बातें करता है। जिस प्रकार हिरण आदि का शिकार करने से पहले शिकारी मधुर आवाज में गीत गाता है, सांप को पकड़ने वाला मस्त होकर बीन बजाता है। इस प्रकार ये दोनों मधुर स्वर के आकर्षण में बंधकर शिकारी के पास खुद आ जाते हैं तो शिकारी उन्हें पकड़ लेता है। जब तक दूसरे में असुरक्षा की भावना है, उसके मर्मस्थल पर आघात नहीं किया जा सकता।
चाणक्य कहते हैं कि दुष्ट व्यक्ति अहित करने की इच्छा से मीठी-मीठी बातें करते हैं, ऐसा करके वे पहले रिझाते हैं फिर हानि पहुंचाते हैं। जुआरी पहले लाभ होने का लालच दिखाता है, जिससे भोलाभाला व्यक्ति उसके जाल में फंसकर बड़ी-सी रकम दांव में लगा देता है और अपनी हानि कर बैठता है।
अत्यासन्ना विनाशाय दूरस्था न फलप्रदाः। सेवितव्यं मध्यभागेन राजा वहूनिर्गुरुः स्त्रियः ।।
राजा, अग्नि, गुरु और स्त्री इनके पास हर समय नहीं रहना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य को हानि हो सकती है। परंतु इनसे दूर रहने से भी मनुष्य को कोई लाभ नहीं होता। इसलिए इनसे व्यवहार करते समय व्यक्ति को बहुत सोच-समझकर बीच का रास्ता अपनाना चाहिए-इसी को मध्यम मार्ग कहते हैं। ।।11
मध्यम मार्ग का अर्थ है कि व्यक्ति को किसी वस्तु अथवा विचार में न तो अधिक लिप्त होना चाहिए और न ही उसका सर्वथा परित्याग करना चाहिए। मध्यम मार्ग में दोनों छोरों का परित्याग करना पड़ता है और एक बीच का रास्ता अपनाना पड़ता है। गौतम बुद्ध ने इसी मार्ग को अपनाने पर बल दिया था। श्रीकृष्ण इसे 'समत्व' कहते हैं। इसमें अति वर्जित 18
अग्निरापः स्त्रियो मूर्खाः सर्पा राजकुलानि च। नित्यं यत्नेन सेव्यानि सद्यः प्राणहराणि षट्।।
अग्नि, जल, स्त्रियां, मूर्ख, सांप और राजपरिवार का सेवन करते समय मनुष्य को सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि ये छह कभी भी मृत्यु का कारण हो सकते हैं। ।।12।।
स जीवति गुणा यस्य यस्य धर्मः स जीवति।
गुणधर्मविहीनस्य जीवितं निष्प्रयोजनम् ।।
संसार में वही जीवित रहता है, जिसमें गुण और धर्म जीवित रहता है। गुणों और धर्म से रहित मनुष्य का जीवन व्यर्थ है। ।।13।।
इस संसार में गुणी व्यक्तियों के जीवन को श्रेष्ठ माना गया है, इस प्रकार धर्मात्मा व्यक्तियों का जीवन ही जीवन है, परंतु जिस व्यक्ति में न तो कोई गुण है और न ही धर्म, उसका जीवन बिलकुल व्यर्थ है।
पदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा। परापवादसस्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय ।।
है मनुष्य! यदि तू किसी एक ही कर्म द्वारा सारे संसार को अपने वश में करना चाहता है तो तू दूसरों की निंदा करने वाली अपनी वाणी को वश में कर ले अर्थात दूसरों की निंदा करना छोड़ दे। ।।14।।
दूसरों की निंदा छोड़ने का अर्थ है अपनी आलोचना और दूसरों के गुणों को ग्रहण करना। ऐसा करने वाला सहज रूप से विश्व को जीत लेगा।
प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं प्रियम्। आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः ।।
जो अवसर के अनुकूल बात करना जानता है, जो अपने यश और गरिमा के अनुकूल मधुर भाषण कर सकता है और जो अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध करता है, उसी को वास्तव में विद्वान कहा जाता है। ।।15।।
व्यक्ति को अवसर के अनुकूल ही वाक्यों का प्रयोग करना चाहिए और उस समय इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि इससे प्रतिष्ठा बढ़ेगी अथवा घटेगी। जो व्यक्ति समय के अनुकूल बात नहीं करता, जिसे अपने मान-अपमान का कोई ज्ञान नहीं या जो प्रिय भाषण अथवा मधुर-भाषण करना नहीं जानता, वह मूर्ख है। जो व्यक्ति समय के अनुरूप बात करता है, अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध करता है, वही पण्डित अथवा सब कुछ जानने बाला विद्वान है।
एक एवं पदार्थस्तु त्रिधा भवति वीक्षितः । कुणपः कामिनी मांसं योगिभिः कामिभिः श्वभिः।।
एक ही चीज को देखने वाले प्राणी तीन प्रकार से देखते हैं। योगी उसे अति-निंदित शव के रूप में देखते हैं, कामी लोग सुंदर नारी के रूप में देखते हैं और कुत्ता उसे एक मांस के लोधड़े के रूप में देखता है। भेद दृष्टि का है, वस्तु तो एक ही है। ।।1611
'जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि' यह एक व्यावहारिक और दार्शनिक सिद्धांत है। आचार्य ने सुंदर उदाहरण से इसकी पुष्टि की है।
सुसिद्धमौषधं धर्म गृहच्छिद्रं च मैथुनम्।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव मतिमान्न प्रकाशयेत् ।।
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि सिद्ध की हुई औषधि, अपने द्वारा किए जाने वाले धर्माचरण, घर के दोष, स्त्री के साथ संभोग, कुभोजन तथा सुने हुए निंदित वचन किसी के सामने प्रकट न करे। ।।17।।
तावन्मौनेन नीयन्ते कोकिलैश्चैव वासराः। यावत्सर्वजनानन्ददायिनी वाक्प्रवर्तते ।।
जब तक सभी को आनंद देने वाली बसंत ऋतु आरंभ नहीं होती, तब तक कोयल मौन रहकर अपने दिन बिता देती है अर्थात बसंत ऋतु के आने पर ही कोयल की कूक सुनाई देती है। ।।18।।
इसका भावार्थ है कि व्यक्ति को बड़े धैर्य से सही समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। सही समय पर कही गई सही बात ही असरदार होती है।
धर्म धनं च धान्यं च गुरोर्वचनमौषधम्।
सुगृहीतं च कर्तव्यमन्यथा तु न जीवति ।।
जीवन को सही से बिताने के लिए धर्म का आचरण, धन पैदा करना, अन्नों का संचय, गुरु के वचनों का पालन, अनेक प्रकार की औषधियों का संग्रह विधिपूर्वक और यत्न से करना चाहिए। ।।1911
मनुष्य को चाहिए कि धन, धर्म, अन्न, गुरु की कही हुई बातें और अनेक प्रकार की उपयोगी औषधियां का संग्रह करता रहे। जो मनुष्य ऐसा नहीं करता, उसे जीवन में तरह- तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
त्यज दुर्जनसंसर्ग भज साधुसमागमम्। कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यताम्।।
हे मनुष्य! दुष्टों के संग को त्याग दे और सज्जन पुरुषों का संग कर। दिन-रात अच्छे कार्य किया कर, सदैव संसार को नाशवान समझकर परमेश्वर का ध्यान किया कर। ।।20।।
मनुष्य को जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इसी का सूत्र है मानो यह श्लोक। नैतिकता का सार संक्षेप निहित है इस श्लोक में।
अध्याय का सार
इस अध्याय में सामान्य लोगों के लिए चाणक्य ने कुछ महत्वपूर्ण बातों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। वे कहते हैं कि इस पृथ्वी पर अन्न, जल और नीतियुक्त बातें-इन
तीन को ही महत्वपूर्ण मानना चाहिए। उनके अनुसार, ये तीन चीजें ही मनुष्य के लिए रत्न के समान हैं अर्थात मनुष्य का इस संसार में इनके बिना कार्य-व्यापार करना कठिन है। धनी से धनी व्यक्ति के लिए और अत्यंत निर्धन के लिए अन्न और जल एक जैसा महत्व रखते हैं। इसके साथ नीतियुक्त मधुरवाणी इसलिए आवश्यक है कि इससे मनुष्य का कल्याण होता है। आचार्य ने आगे कहा है कि यदि व्यक्ति दरिद्र है, रोगी है, दुखी है और बंधनों तथा कष्टों में पड़ा है तो यह सब उसके अधर्म रूपी कायर्यों का फल है। उनका कहना है कि इस संसार में जिन वस्तुओं को हम बहुत उपयोगी मानते हैं, उनमें से धन, मित्र, स्त्री, भूमि तथा मकान आदि मनुष्य को बार-बार मिल सकते हैं, परंतु मनुष्य जीवन ऐसा है जो बड़ी कठिनाइयों से प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयत्न करे, धर्माचरण करे, न कि हर समय संसार के भोगों में फंसा रहकर अपने जीवन को व्यर्थ गंवा दे।
प्रायः हर देश के निवासियों के लिए संगठित रहना, प्राचीनकाल से ही महत्वपूर्ण आवश्यकता रही है, इसलिए वे कहते हैं कि यदि निर्बल से निर्बल राष्ट्र संगठित रहेंगे तो अत्यंत बलवान शत्रु को भी पराजित करना उनके लिए संभव होगा। इसी संदर्भ में वे आगे कहते हैं कि जीवन में कोई समय ऐसा भी आता है, जब मनुष्य जीवन की वास्तविकता के बारे में सोचने लगता है। मनुष्य जब किसी धर्मोपदेश को सुनता है तो उसके मन में धर्माचरण की प्रवृत्ति जाग्रत होती है। जब मनुष्य किसी को अपने कंधे पर लादकर श्मशान भूमि में जाता है तो उसे ऐसा प्रतीत होता है कि यह जीवन नश्वर है और जब मनुष्य किसी रोग से पीड़ित होता है तो प्रायः हाय-हाय करता हुआ प्रभु को याद करता है। चाणक्य कहते हैं कि यदि मनुष्य सदा इसी प्रकार के विधार मन में रखे तो वह संसार के बंधनों से छूट सकता है। इसी संदर्भ में वे आगे कहते हैं कि मनुष्य जब कोई दुष्कर्म करता है तो उसके बाद वह पछताने लगता है अर्थात उसकी बुद्धि में एक परिवर्तन होता है। यदि दुष्कर्म करने से पूर्व मनुष्य की बुद्धि उस दिशा में कार्य करे तो वह संसार के बंधनों से छूट सकता है।
मोक्ष प्राप्ति में बाधक कार्यों की ओर संकेत करते हुए आचार्य का कहना है कि अभिमान मनुष्य को ले डूबता है। यदि कोई व्यक्ति यह समझता है कि उसके जैसा तपस्वी, दानी, शूरवीर और ज्ञानवान कोई दूसरा नहीं है तो यह उसका भ्रम है, क्योंकि संसार इतना विशाल है कि उसमें एक से बढ़कर एक गुणी व्यक्ति हैं।
यहां एक सामान्य-सी बात की ओर इशारा करते हुए आचार्य ने कहा है कि समीपता और दूरी का संबंध हृदय से है न कि स्थान से।
चाणक्य ने यहां ऐसी कूटनीतिपूर्ण बात कही है, जो किसी भी राज्य के लिए उपयुक्त हो सकती है। उनका कहना है कि जो राज्य आपको हानि पहुंचाता है, यदि आपमें शक्ति से उसका निवारण करने की योग्यता नहीं है तो उससे मित्रता गांठकर, मधुर व्यवहार का दिखावा करते हुए बुद्धिपूर्वक शक्तिहीन कर देना चाहिए।
वे आगे कहते हैं कि राजा, अग्नि, गुरु और स्त्री आदि के न तो अत्यन्त निकट जाना
चाहिए और न ही इनसे अत्यंत दूरी रखनी चाहिए। उदाहरण के लिए सामान्य-सी बात है कि यदि व्यक्ति अग्नि के अधिक समीप जाएगा तो वह जलकर भस्म हो जाएगा। इसीलिए उन्होंने कहा है कि इन सब वस्तुओं का उपयोग मध्यम दूरी अथवा मध्यम अवस्था में करना चाहिए, क्योंकि यदि इनके सेवन में सावधानी नहीं बरती जाएगी तो नष्ट होना निश्चित है। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति गुणी है, उसी का जीवन सफल है, जिसमें किसी प्रकार का गुण नहीं, कोई विशेष बुद्धि नहीं, उसका जीवन व्यर्थ है।
इसी संदर्भ में वे आगे कहते हैं कि मनुष्य यदि संसार को अपने वश में करना चाहता है तो उसे दूसरों की निंदा करना छोड़ देना चाहिए। समझदार व्यक्ति वही है, जो समय के अनुकूल बात करता है, अपने मान-सम्मान के अनुरूप मधुर और प्रिय वचन बोलता है और क्रोध करते समय इस बात का अनुमान कर लेता है कि वह उसकी शक्ति के अनुरूप है या नहीं। इसी के साथ ही वे कहते हैं कि संसार की प्रत्येक वस्तु को मनुष्य विभिन्न दृष्टिकोणों से देखते हैं। स्त्री का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि योगी स्त्री के स्वरूप को पूणा घृणा की की। दृष्टि से एक लाश के समान देखता है। कामी व्यक्ति उसे हर प्रकार से सुंदर समझता है और कुत्ते की दृष्टि में वह एक मांस के लोथड़े अलावा कुछ नहीं है। सभी अपने भावों के अनुसार उसका दर्शन करते हैं, इसीलिए इस प्रकार की परस्पर विभिन्नता देखने में आती है। आगे चलकर चाणक्य बताते हैं कि बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए वह अच्छे कर्म, घर के दोष, स्त्री से सहवास और अपने संबंध में सुने हुए निंदित वचनों को कभी किसी दूसरे व्यक्ति के समक्ष प्रकट न करे।
चाणक्य का कहना है कि मनुष्य को कष्ट के समय मौन रहना चाहिए। चीखने- चिल्लाने से कोई लाभ नहीं होता। उसे चाहिए कि वह सदैव धार्मिक कार्यों में लगा रहे। यथाशक्ति अच्छे कार्यों से धन का संग्रह करता रहे। धन का संग्रह भी समय के अनुकूल समझा गया है। गुरु के कल्याणकारी वचनों को संजोकर रखना अत्यंत आवश्यक है। यदि व्यक्ति इन चीजों का संग्रह नहीं करता तो उसका जीवन संकट में पड़ सकता है।
अंत में, वे मनुष्य को सुखी जीवन बिताने के लिए मार्गदर्शन करते हुए कहते हैं कि मनुष्य को दुष्टों की संगति छोड़ देनी चाहिए, उसको सज्जनों के पास उठना-बैठना चाहिए। दिन-रात उसे अच्छे कर्म करते रहने चाहिए और उसे यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यह संसार अनित्य है, इसलिए उसे सदैव अपना मन प्रभु के चिंतन में लगाए रखना चाहिए।
ココ
।। अथ पंचदशोऽध्यायः ।।
पंद्रहवां अध्याय
अन्याय से कमाया हुआ धन अधिक से अधिक दस वर्ष तक
किसी व्यक्ति के पास ठहरता है और ग्यारहवां वर्ष प्रारंभ होते ही व्याज और मूल सहित नष्ट हो जाता है।
यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु। तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलेपनैः ।।
जिसका हृदय प्राणिमात्र पर दया से पिघल जाता है, उसे ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करने, तथा जटाधारण और शरीर पर भस्म लगाने की क्या आवश्यकता है? ।।1।।
जिस व्यक्ति के मन में प्राणियों के कष्टों को देखकर दया के भाव आते हैं, उसे ज्ञान प्राप्त करने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए तप करने की आवश्यकता नहीं है। चाणक्य ने मनुष्य के मन में दया के भाव को सभी धर्मों से ऊंचा स्थान दिया है।
एकमेवाक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत्। पृथिव्यां नास्ति तद्रव्यं यद्दत्त्वा चाऽनृणी भवेत् ।।
जो गुरु अपने शिष्य को एक अक्षर ॐ अर्थात परमेश्वर का ठीक से ज्ञान करवा देता है, उस गुरु के ऋण से शिष्य मुक्त नहीं हो पाते। संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जिसे गुरु को समर्पित करके शिष्य गुरु के ऋण से मुक्त हो सके। ।12।।
खलानां कण्टकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया। उपानन्मुखभंगो वा दूरतो वा विसर्जनम्।।

दुर्जन और कांटे इन दो चीजों से बचने के दो ही उपाय हैं, या तो जूतों से इनका मुंह कुचल दिया जाए, उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया जाए अथवा उनको दूर से ही त्याग दिया जाए। ।।311
चाणक्य कांटे और दुष्ट व्यक्ति को एक ही श्रेणी में रखते हैं। इनसे व्यवहार करने के भी वे दो मार्ग बताते हैं। यदि शक्ति है, तो उसे कुचल दें, अन्यथा उससे बचकर निकल जाएं।
कुचैलिनं दन्तमलोपसृष्टं बह्वाशिनं निष्ठुरभाषिणं च।
सूर्योदये चास्तमिते शयानं विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपाणिः।।
गंदे कपड़े पहनने वाले, गंदे दांतों वाले अर्थात दांतों की सफाई न करने वाले, अधिक भोजन करने वाले, कठोर वचन बोलने वाले, सूर्य उदय होने तथा सूर्यास्त के समय सोने वाले व्यक्ति को लक्ष्मी-स्वास्थ्य, सौंदर्य और शोभा त्याग देती है, भले ही विष्णु क्यों न हो। ।14।।
त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं दाराश्च भृत्याश्च सुहृज्जनाश्च ।
तं चार्थवन्तं पुनराश्रयन्ते अर्थो हि लोके पुरुषस्य बंधुः।।
जब मनुष्य के पास धन नहीं रहता तो उसके मित्र, स्त्री, नौकर-चाकर और भाई-बंधु सब उसे छोड़कर चले जाते हैं। यदि उसके पास फिर से धन-संपत्ति आ जाए तो वे फिर उसका आश्रय ले लेते हैं। संसार में धन ही मनुष्य का बन्धु है। ।।5।।
आचार्य ने धन के व्यावहारिक पक्ष को बताते हुए कहा है कि इसी के इर्द-गिर्द सारे संबंधों का ताना-बाना हुआ करता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं!
अन्यायोपार्जितं द्रव्यं दश वर्षाणि तिष्ठति। प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद् विनश्यति ।।
अन्याय से कमाया हुआ धन अधिक से अधिक दस वर्ष तक आदमी के पास ठहरता है और ग्यारहवां वर्ष प्रारंभ होते ही ब्याज और मूल सहित नष्ट हो जाता है। ।।611
अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्। अमृतं राहवे मृत्युर्विषं शंकर भूषणम् ।।
समर्थ और शक्तिवान पुरुष यदि कोई अनुचित कार्य भी करता है तो उसे उचित समझा जाता है, जबकि नीच पुरुष द्वारा किया उचित कार्य भी अनुचित कहलाता है। उदाहरण के लिए राहु नामक दैत्य के लिए अमृत भी मृत्यु का कारण बन गया और शिव के लिए विष भी उनके कंठ का आभूषण माना गया। विषपान के कारण उनकी मृत्यु नहीं हुई.
बल्कि उन्हें नीलकंठ कहा जाने लगा। ।।7।।
तद्भोजनं यद् द्विजभुक्तशेषं तत्सौहृदं यत्क्रियते परस्मिन्।
सा प्राज्ञता या न करोति पापं दम्भं विना यः क्रियते स धर्मः ।।
वास्तविक भोजन वह है जो ब्राह्मण आदि को खिला देने के बाद बचता है, अर्थात गृहस्थ को चाहिए कि वह स्वयं भोजन करने से पहले ब्राह्मण को भोजन कराए, इसी प्रकार प्रेम और स्नेह उसे ही कहा जा सकता है जो परायों से किया जाता है, अपने बन्धु-बान्धवों से
तो सभी प्रेम करते हैं। बुद्धिमत्ता यह है कि मनुष्य पाप कर्म करने से बचा रहे। धर्म वह है
जिसमें छल-कपट न हो। 118।।
अपनों से किया जाने वाला प्रेम पूर्णतया व्यावहारिक होता है। इसीलिए वह डोया जाता है। जबकि पराये जिससे अपने बन जाएं और बने भी रहें, वही सही अर्थों में प्रेम है।
मणिर्नुण्ठति पादाग्रे काचः शिरसि धार्यते। क्रयविक्रयवेलायां काचः काचो मणिर्मणिः।।
किसी विशेष स्थिति में रत्न चाहे पैरों में लुढ़कता रहे और कांच को सिर पर धारण किया जाए, परंतु जब बेचने अथवा लेने का समय आता है तो कांच को कांच और रत्न को रत्न ही कहा जाता है। 11911
इसका भाव यह है कि किसी अयोग्य वस्तु अथवा व्यक्ति को उचित स्थान पर रखने अथवा नियुक्त करने से उसके मूल्य में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता, परंतु जब मूल्यांकन का समय आता है तो उनकी वास्तविक स्थिति का पता लग ही जाता है।
अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्याः अल्पश्च कालो बहुविघ्नता च।
तदुपासनीयं यत्सार भूतं क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ।। हंसो यथा
वेद आदि शास्त्र अत्यंत विशाल हैं, वे ज्ञान के समुद्र हैं, विद्याएं भी बहुत सी हैं, परंतु मनुष्य की आयु सीमित है और उसके मार्ग में कठिनाइयां भी बहुत-सी आती हैं, इसलिए उसके लिए उचित है कि वह शास्त्रों से सारभूत बातों को उसी प्रकार ग्रहण कर ले, जिस प्रकार हंस पानी मिले दूध से दूध ग्रहण कर लेता है। ।।10।।
दूरागतं पथि श्रान्तं वृथा च गृहमागतम्। अनर्चयित्वा यो भुंक्ते स वै चाण्डाल उच्यते ।।
दूर से चलकर आने वाला यात्री थका हुआ होता है, बिना किसी स्वार्थ के घर में आए
हुए अतिथि की पूजा किए बिना जो घर का स्वामी स्वयं भोजन कर लेता है, उसे निश्चय ही चाण्डाल कहा जाता है। ।।11।।
वेद आज्ञा देते हैं कि अतिथि देवता है- अतिथि देवो भव! गृहस्थ को चाहिए कि दूर से चलकर आने वाले अतिथि का वह आदर-सत्कार करे। अतिथि की उपेक्षा करना पाप कर्म है। शास्त्रों में अतिथि की सेवा का विधान है। अतिथि सेवा द्वारा अनजाने व्यक्ति को भी सज्जन सम्मान और श्रद्धा का पात्र बना लेते हैं।
पठन्ति चतुरो वेदान् धर्मशास्त्राण्यनेकशः । आत्मानं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं यथा।।
जो लोग वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी आत्मा- परमात्मा के संबंध में कुछ नहीं जानते, वे आत्मज्ञान से रहित उस कलछी की तरह हैं, जो स्वादिष्ट साग सब्जी में तो घूमती है, परंतु उसे उसके स्वाद का बिलकुल भी ज्ञान नहीं होता। ।।1211
शास्त्रों के अध्ययन की सार्थकता इसी बात में है कि जो कुछ पढ़ा जाए, उसका सार ग्रहण करके मनुष्य उसे अपने जीवन में उतारे। यदि मनुष्य ऐसा नहीं करता तो उसका जीवन व्यर्थ है। शास्त्र उन उपायों को भी बताते हैं जिनसे आदर्श को जीवन में उतारने का कार्य
आसान हो जाता है।
धन्या द्विजमयी नौका विपरीता भवार्णवे। तरन्त्यधोगताः सर्वे उपरिस्थाः पतन्त्यथः।।
इस संसार-सागर में ब्राह्मणरूपी नौका धन्य है, जो उल्टी गति से चलती है। यह उल्टी गति क्या है? जो इस नाव के नीचे रहते हैं, वे सब तो भवसागर से पार उतर जाते हैं और जो नाव के ऊपर चढ़ते हैं, उनका पतन हो होता है। ।।13।।
तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति अथवा गृहस्थ लोग ब्राह्मणों के साथ नम्र रहकर उनकी सेवा करते रहते हैं, उनका तो उद्धार हो जाता है और जो अभिमान में चूर रहकर उनका अपमान करते हैं, उनकी सदैव अधोगति ही होती है।
अयममृतनिधानं नायकोऽप्यौषधीनां अमृतमयशरीरः कान्तियुक्तोऽपि चन्द्रः । भवति विगतरश्मिर्मण्डलं प्राप्य भानोः परसदननिविष्टः को लघुत्वं न याति ।।
दूसरे के घर में जाने से व्यक्ति का सम्मान घटता है, वह छोटा होता है। जैसे चंद्रमा को अमृत का भण्डार कहा जाता है, यह गुणकारी औषधियों का स्वामी भी है, इसकी छवि अथवा इसकी किरणों को अमृत के समान माना जाता है, इसमें कांति भी है अर्थात यह प्रकाश से युक्त है, परंतु जब यही चंद्रमा सूर्यमण्डल पर जाता है तो तेजरहित हो जाता है,
वहां उसकी सारी चमक-दमक समाप्त हो जाती है। ।।14।।
जो व्यक्ति निजी स्वार्थ की पूर्ति के उद्देश्य से दूसरे के घर में जाता है, उसका बड़प्पन स्थिर नहीं रह पाता। आचार्य का यह कथन है कि व्यक्ति को कभी भी अपने मार्ग का परित्याग नहीं करना चाहिए।
अलिरयं कमलिनीमकरन्दमदालसः।
नलिनीदलमध्यगः
विधिवशात्परदेशमुपागतः मन्यते ।।
कुटजपुष्परसं बहु
भौरा कमलिनी के फूल की पंखुड़ियों में बैठा रहता है, उसके पराग का रस चूसता रहता है और उसके मध्य में मस्त बना रहता है, परंतु दैवयोग से जब उसे एक स्थान से किसी दूसरे स्थान को जाना पड़ता है, तो वहां उसे करील आदि वृक्षों के फूलों से रस तो मिल जाता है, किंतु कांटों के कारण काफी कष्ट भी उठाना पड़ता है। ।।15।।
इसका भाव यह है कि विदेश में जाने से व्यक्ति अनेक बार धन की प्राप्ति तो करता है, परंतु उसे अनेक प्रकार के कष्ट भी उठाने पड़ते हैं, इसलिए उसे चाहिए कि वह स्वयं को समय के अनुसार ढाले, अर्थात कष्ट आने पर उसे दुखी नहीं होना चाहिए।
पीतः क्रुद्धेन तातश्चरणतलहतो वल्लभो येन रोषाद् आबाल्याद्विप्रवर्यः स्ववदनविवरे धार्यते वैरिणी मे। गेहं में छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्तपूजानिमित्तं
तस्मात्खिन्ना सदाहं द्विजकुलनिलयं नाथ युक्तं त्यजामि ।।
विष्णु लक्ष्मी से पूछते हैं कि वह ब्राह्मणों से नाराज क्यों रहती हैं तो उत्तर देती हुई लक्ष्मी कहती हैं- अगस्त्य ऋषि ने नाराज होकर मेरे पिता समुद्र को ही पी लिया था, ब्राह्मण भृगु ने क्रोध में आकर आपकी छाती पर लात मारी थी। और ये ब्राह्मण लोग बचपन से ही मेरी सौत सरस्वती को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते रहते हैं, प्रतिदिन शिव की पूजा के लिए मेरे निवास स्थान से कमल पुष्यों को उजाड़ देते हैं। हे स्वामी! यही कारण है, जिससे में ब्राह्मणों से सदा दूर रहती हूं। ।।1611
इस श्लोक का सामान्य भाव यह है कि ब्राह्मण अधिक लोभी नहीं होते और वे प्रारंभ से ही धन कमाने की प्रवृत्ति से रहित होकर विद्या अध्ययन में लगे रहते हैं। धन-संपत्ति जुटाने पर उनका विशेष ध्यान नहीं होता। इसीलिए वे विद्वान तो होते हैं, धनवान नहीं।
बन्धनानि खलु प्रेमरज्जुदृढबन्धनमन्यत्। सन्ति बहूनि
दारुभेदनिपुणोऽपि पंकजकोशे ।।
षडंघ्रिर्निष्क्रियो
भवति
इस संसार में बहुत से बंधन हैं, परंतु प्रेमरूपी रस्सी का बंधन कुछ विचित्र होता है। लकड़ी को छेदने की शक्ति रखने वाला भौरा भी कमल के फूल में बंद होकर निष्क्रिय हो जाता है। कमल की पंखुड़ियों को काटने की उसमें शक्ति होती है, परंतु उनके प्रति अतिरेक प्रेम- भावना होने के कारण वह ऐसा नहीं करता। ।।17।।
संसार में मनुष्य अनेक प्रकार के बंधनों में बंधा हुआ है, परंतु सबसे मजबूत बंधन प्रेम का होता है, जिस प्रकार कमल की कोमल पंखुड़ियों में बंद हो जाने पर भौरा प्रेमवश उन्हें काट नहीं पाता, इसी प्रकार मनुष्य प्रेम के पाश में बंधा हुआ सब कष्ट उठाने के लिए तैयार हो जाता है अर्थात वह प्रेम के बंधन से मुक्त नहीं हो पाता।
छिन्नोऽपि चन्दनतरुर्न जहाति गन्धं वृद्धोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम्। यन्त्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः ।।
चंदन का वृक्ष कट जाने पर भी अपनी सुगंध नहीं छोड़ता, बूढ़ा हो जाने पर भी हाथी अपनी क्रीड़ाएं नहीं छोड़ता, कोल्हू पर पेर (पेल) दिए जाने के बाद भी ईख अपनी मिठास को नहीं छोड़ता, इसी प्रकार कुलीन मनुष्य निर्धन हो जाने पर भी अपनी शालीनता को नहीं छोड़ता। ।।18।।
स्वभाव किसी भी परिस्थिति में बदलता नहीं है। इससे पूर्व भी कई स्थानों पर आचार्य ने दुष्टों की चर्चा की है।
स्वभाव पर जोर देने का आचार्य का तात्पर्य व्यवहार की दिशा को निर्धारित करना है। इसी आधार पर विश्वास की सीमा का निर्धारण भी किया जा सकता है। स्वभाव में यदि सज्जनता है, तो विश्वास की संभावना का प्रतिशत बढ़ जाता है। आचार्य ने अपने जीवन में भी इस मनोविज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग किया है। धर्मनंद के विश्वस्त और मगध के निष्ठावान प्रधान अमात्य राक्षस को चंद्रगुप्त का अमात्य बनाना इसी उपरोक्त कथन का सशक्त उदाहरण है।
'कुलीन' शब्द का प्रयोग कर आचार्य ने वंश-परंपरा की ओर भी संकेत किया। परंपरा या प्राप्त होने वाले संस्कारों का जीवन में अत्यधिक महत्व है। पारिवारिक पृष्ठभूमि व्यक्तित्व का अत्यधिक सशक्त रूप से निर्धारण करती है।
अध्याय का सार

इस अध्याय के प्रारंभ में आचार्य ने दया के महत्व को स्पष्ट किया है। उनका कहना है कि जो व्यक्ति इस संसार के प्राणिमात्र पर दया करता है, उसे न तो मोक्ष प्राप्त करने के लिए जप-तप आदि साधन की आवश्यकता है और न ही जटाजूट धारण करके साधु-संन्यासी बनने की। दया सभी धर्मो का सार है।
गुरु के महत्व को बताते हुए आचार्य चाणक्य बताते हैं कि यदि शिष्य गुरु को अपना सर्वस्व समर्पित कर दे तो भी गुरु का ऋण शिष्य से नहीं उतरता। गुरु ही शिष्य को वास्तविक ज्ञान देता है, जिससे उऋण होना संभव ही नहीं है।
दृष्ट व्यक्ति से बचने का उपाय बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि या तो उसे मसलकर नष्ट कर देना चाहिए अथवा ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि वह आपके कार्य में किसी प्रकार की रुकावट न डाल सके।
चाणक्य का कहना है कि जो व्यक्ति मैले कपड़े पहने रहता है, जिसके दांतों पर मैल जमा हुआ दिखाई देता है, जो हर समय कड़वी बातें करता रहता है तथा जो सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सोया रहता है, उसे न तो लक्ष्मी प्राप्त होती है, न ही उसका स्वास्थ्य ठीक रहता है। इसीलिए व्यक्ति को अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए प्रकृति के नियमों के
अनुसार चलना चाहिए। आचार्य के अनुसार धन मनुष्य का बंधु और सखा है, इसलिए मनुष्य को धन संग्रह करते रहना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि धन को धर्मपूर्वक ही कमाना चाहिए। अन्याय से पैदा किया हुआ धन दस वर्षों से ज्यादा नहीं ठहरता।
अनेक विद्वानों का कहना है कि समर्थ व्यक्ति जो कुछ करता है, लोग उसके लिए उसे दोषी नहीं ठहराते "समरथ को नहिं दोष गोसाईं।" असमर्थ द्वारा किया गया अच्छा काम भी दोषयुक्त माना जाता है। इसका कारण भय और स्वार्थ है, न कि सत्य दृष्टि।
आचार्य ने दान की महिमा का बखान किया है। वे कहते हैं कि ब्राह्मणों को भोजन करवाने के बाद ही गृहस्थ को भोजन करना चाहिए। उनके अनुसार प्रेम और स्नेह उसे ही कहा जाता है, जो दूसरों से किया जाए। अपने संबंधियों तथा मित्रों आदि से तो सभी प्रेम करते हैं। आचार्य ने बुद्धिमान उसे कहा है जो पाप कमों की ओर आकृष्ट न हो।
चाणक्य मनुष्यों को यह बताना चाहते हैं कि ज्ञान का कोई अंत नहीं है, जबकि मनुष्य का जीवन बहुत छोटा है। उनका कहना है कि वेद आदि शास्त्रों के पढ़ने पर भी जिसे उनमें वर्णित आत्मा और परमात्मा का ज्ञान नहीं हुआ, उसका जीवन व्यर्थ है। उसका जीवन बिलकुल उसी प्रकार है, जैसे धातु की कलछी स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ में घूमती हुई भी उसका स्वाद नहीं ले पाती।
चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति जब दूसरों के घर में जाता है अर्थात अपना घर छोड़ता है तो उसे छोटा माना जाता है। चंद्रमा को अमृत का भण्डार कहा जाता है, परंतु जब वह सूर्य की सीध में आता है तो एक प्रकार से उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है, क्योंकि उस समय
वह सूर्य से ही प्रकाश ग्रहण करता है।
चाणक्य ने यह बात स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि ब्राह्मणों के पास धन क्यों नहीं होता? उनका कहना है कि वे सदैव सरस्वती की उपासना में लगे रहते हैं इसलिए धन इकट्ठा करने की उनकी प्रवृत्ति ही नहीं होती। इस संसार में प्रेम का बंधन ही सबसे दृढ़ होता है। चाणक्य उदाहरण देते हुए कहते हैं कि भौर में इतनी शक्ति होती है कि वह लकड़ियों में भी छेद कर सकता है, परंतु कमल के अनुराग में बंध जाने के कारण उसकी शक्ति व्यर्थ हो जाती है। इसी प्रकार मनुष्य के जो स्वाभाविक गुण हैं, वे कभी भी समाप्त नहीं होते। जिस प्रकार चंदन का वृक्ष छोटे-छोटे टुकड़ों में काट दिए जाने पर भी अपनी सुगंध नहीं छोड़ता, उसी प्रकार श्रेष्ठ कुलीन मनुष्य निर्धन होने पर भी अपने गुणों का त्याग नहीं करता।

।। अथ षोडशोऽध्यायः ।।
सोलहवां अध्याय
संसार एक कड़वा वृक्ष है लेकिन आश्चर्य है कि इस पर अमृत सरीखे मीठे और जीवन देने वाले दो फल लगते हैं, एक मधुर वाणी और दूसरी सज्जनों की संगति।
न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धर्मोऽपि नोपार्जितः। नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिंगितं मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ।।
जिस मनुष्य ने संसाररूपी जाल को काटने के लिए प्रभु के स्वरूप का ध्यान नहीं किया, जिसने स्वर्ग के द्वार खोलने के लिए धर्मरूपी धन का संग्रह नहीं किया, जिसने स्वप्न में भी नारी के सुंदर स्तनों और जंघाओं का आलिंगन नहीं किया, वह माता के यौवनरूपी वृक्ष को काटने वाले कुल्हाड़े का काम करता है। ।।1
चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने न तो प्रभु का ध्यान किया, न ही कोई धर्म-कर्म किया और न ही सहवास का सुख प्राप्त किया, ऐसे व्यक्ति का जीवन एक प्रकार से निरर्थक है। इस श्लोक के द्वारा आचार्य ने उन तीन जीवन धाराओं को बताने का प्रयास किया, जिनमें जन-सामान्य उलझा हुआ है। धर्म, अर्थ, काम-इन तीनों पुरुषार्थों के लिए ही तो प्रयास किया जा रहा है। आचार्य ने ईश-स्मरण को प्रथम स्थान दिया है।
जल्पन्ति सार्थमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमाः।
हृदये चिन्तयन्त्यन्यं न स्त्रीणामेकतो रतिः।।
वेश्याओं की किसी एक से प्रीति नहीं होती। वे बातचीत तो किसी अन्य व्यक्ति से करती हैं, परंतु हाव-भाव पूर्वक देखती किसी अन्य व्यक्ति को हैं और अपने हृदय में चिंतन किसी अन्य व्यक्ति का करती हैं। इस प्रकार वेश्याओं का प्रेम किसी एक व्यक्ति से नहीं होता, यह उनका स्वभाव है। जो कोई व्यक्ति यह समझता है कि कोई वेश्या उससे प्रेम करती है, वह उसकी मूर्खता है। ।1211
यो मोहान्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी। स तस्य वशगो भूत्वा नृत्येत् क्रीडा-शकुन्तवत् ।।
जो मूर्ख यह समझता है कि कामुक स्त्री केवल उसी से प्रेम करती है, वह उसके वश में होकर कठपुतली के समान उसके इशारों पर नाचता रहता है। ।।3।।
वास्तविकता यह है कि मनुष्य कामुक स्त्री के छल-कपट को नहीं समझ पाता। स्त्री अपने चातुर्य से व्यक्ति के मन में यह विश्वास पैदा कर देती है कि वह उसी से प्रेम करती है। जो उस पर विश्वास कर लेता है, वह व्यक्ति मूर्ख है। वह उसके इशारों पर कठपुतली के समान नाचता रहता है। उसका व्यक्तित्व और अस्तित्व दोनों ही समाप्त हो जाते हैं।
कोऽर्थान् प्राप्य न गर्वितो विषयिणः कस्यापदोऽस्तं गताः
स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः को नाम राज्ञां प्रियः।
कः कालस्य न गोचरत्वमगमत्कोऽर्थी गलो गौरवं को वा दुर्जनवागुरासु पतितः क्षेमेण यातः पथि ।।
इस संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जिसे धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति होने पर अभिमान न हुआ हो? कोई भी विषय भोगों में लिप्त व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ, जिसे कष्ट न भोगने पड़े हों। संसार में ऐसा कौन-सा व्यक्ति है, जो सुंदर स्त्रियों के वश में न हुआ हो? मांगने वाले व्यक्ति को कब सम्मान मिला है और कौन व्यक्ति ऐसा है, जो दुष्ट लोगों के चक्कर में फंसकर कुशलतापूर्वक संसार में रह सकता हो। ।।4।।
संसार में ऐसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं, जो धनवान होने पर भी अभिमानरहित और नम्र बने रहते हैं। संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो विषय भोगों में लिप्त होने के बाद कष्टों में न फंसा हो और संसार में ऐसे व्यक्तियों का भी अभाव है, जो स्त्रियों के मोह-जाल में न फंसे हों। जो सदा याचना करता रहता है, उसे सम्मान कैसे मिल सकता है।
न निर्मितः केन न दृष्टपूर्वः न श्रूयते हेममयः कुरंगः।
तथाऽपि
तृष्णा
रघुनन्दनस्य
विनाशकाले
विपरीतबुद्धिः ।।
आज तक न तो सोने के मृग की रचना हुई है और न ही किसी ने सोने का मृग देखा है, फिर भी श्रीरामचन्द्र स्वर्ण मृग को पकड़ने के लिए उतावले हो गए। यह बात ठीक ही है कि जब मनुष्य के बुरे दिन आते हैं, तो उसकी बुद्धि उल्टी बातें सोचने लगती है। ।।5।।
गुणैरुत्तमतां याति नोच्चैरासनसंस्थिताः। प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते ।।
मनुष्य अपने अच्छे गुणों के कारण ही श्रेष्ठता को प्राप्त होता है, ऊंचे आसन पर बैठने के कारण नहीं। राजभवन की सबसे ऊंची चोटी पर बैठने पर भी कौआ कभी गरुड़ नहीं बन सकता। 11611
गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते न महत्योऽपि सम्पदः । पूर्णेन्दु किं तथा बन्छो निष्कलंको यथा कृशः ।।
सभी स्थानों पर मनुष्य का आदर-सत्कार उसके गुणों के कारण ही होता है। गुणहीन मनुष्य के पास यदि धन के भण्डार भी हों तो भी उसका सम्मान नहीं होता। बहुत थोड़े से प्रकाश वाला, परंतु दाग-धब्बों से रहित दूज का चांद जिस प्रकार पूजा जाता है अथवा शुभ समझा जाता है, पूर्णिमा के चंद्रमा को वैसा सम्मान प्राप्त नहीं होता। ।।7।1
इसका भाव यह है कि मनुष्य का आदर-सत्कार उसके गुणों के कारण होता है। पूर्णिमा के चांद में अनेक दाग-धब्बे दिखाई देते हैं, परंतु दूज का चांद एक पतली-सी लकीर के समान होता है, उसमें कोई दाग-धब्बा नहीं होता, इसलिए वह पूरे चांद की अपेक्षा अधिक सुंदर दिखाई देता है। भगवान शिव ने इसीलिए तो उसे अपने शिरोभाग में स्थान दिया है।
पर-प्रोक्तगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्। इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः ।।
जिस मनुष्य के गुणों की तारीफ दूसरे लोग करते हैं, वह गुणों से रहित होने पर भी गुणी मान लिया जाता है, परंतु यदि इंद्र भी अपने मुख से अपनी प्रशंसा करे तो उन्हें छोटा ही
माना जाएगा। 11811
गुणी वह होता है जो अपने से ज्यादा गुणवान की ओर देखे। इसीलिए वह स्वयं को गुणरहित मानता है। जबकि गुणहीन व्यक्ति अपनी कमियों को छिपाने के लिए अपने मुंह मियां मिठू बनता है।
विवेकिनमनुप्राप्ता गुणा यान्ति मनोज्ञताम्। सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम् ।।
जिस प्रकार सोने के आभूषण में जड़ा हुआ रत्न और भी सुंदर दिखाई देता है, उसी प्रकार व्यक्ति को चाहिए कि विवेकपूर्वक अपने में गुणों का विकास करके अपने व्यक्तित्व

को और भी अधिक सुंदर बनाए तथा सदैव गुणों को ग्रहण करे। ।।9।।
गुणैः सर्वज्ञतुल्योऽपि सीदत्येको निराश्रयः। अनर्घ्यमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेक्षते ।।
गुणों में सर्वज्ञ-परमात्मा के समान होने पर भी निराश्रित व्यक्ति दुखी होता रहता है, जैसे अत्यन्त मूल्यवान हीरा भी सोने में जड़े जाने की आशा करता है, उसी प्रकार गुणी मनुष्यों को भी किसी सहारे की अपेक्षा रहती है अर्थात गुणी व्यक्ति भी आश्रय के बिना समाज में वह सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता, जिसकी उसको अपेक्षा होती है। ।।10।।
अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु ।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते हार्था मा भवन्तु मे ।।
जो धन दूसरों को हानि और पीड़ा पहुंचाकर, धर्म विरुद्ध कार्य करके, शत्रु के सामने गिड़गिड़ा कर प्राप्त होता हो, वह धन मुझे नहीं चाहिए। ऐसा धन मेरे पास न आए तो अच्छा है। 111111
चाणक्य कहते हैं कि मनुष्यों को ऐसे धन की कामना नहीं करनी चाहिए, जो दूसरों को हानि पहुंचाकर एकत्रित किया जाए। धर्म विरुद्ध कार्य करके और शत्रु के सामने गिड़गिड़ाने से प्राप्त किया हुआ धन अकल्याणकारी और अपमान देने वाला होता है। मनुष्य को ऐसा धन प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। उसे सदैव परिश्रम और अच्छे उपायों से ही धन का संग्रह करना चाहिए। शुभ धन ही शुभत्व देता है।
किं तया क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिव केवला। या तु वेश्येव सा मान्या पथिकैरपि भुज्यते।।
ऐसे धन का भी कोई लाभ नहीं, जो कुलवधू के समान केवल एक ही मनुष्य के लिए उपभोग की वस्तु हो। धन-संपत्ति तो वही श्रेष्ठ है, जिसका लाभ राह चलते लोग भी उठाते हैं अर्थात धन-संपत्ति वही श्रेष्ठ है, जो वेश्या के समान अन्य लोगों के भी काम आती है। ।। 1211
इस श्लोक का भाव है कि उत्तम धन वहीं है, जो परोपकार के काम में लगाया जाता है, जिस धन को कोई एक व्यक्ति समेटकर बैठ जाता है, न तो उसे उपयोगी माना जाता है और न ही उससे किसी का लाभ होता है, समाज कल्याण के उपयोग में लाया गया धन ही श्रेष्ठ धन है। धन की गति रुकनी नहीं चाहिए।
धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु चाहारकर्मसु। अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च ।।
इस संसार में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जो धन का विभिन्न प्रकार से उपभोग करने पर तृप्त हुआ हो। इस धन का उपभोग इस जीवन के कार्यों, स्त्रियों के सेवन और विभिन्न

प्रकार के भोजन आदि पर करने से भी मनुष्य अतृप्त रहेगा और अतृप्त रहते हुए ही इस संसार से चला जाएगा अर्थात धन को किसी भी प्रकार से उपभोग में लाया जाए, मनुष्य तृप्त नहीं होता। ।।13।।
सामान्य धारणा से विपरीत यह श्लोक सत्य की ओर संकेत करता है। धन से संतुष्टि मिलेगी, ऐसा माना जाता है, लेकिन आचार्य चाणक्य का कथन है कि यह सत्य नहीं है- चाहो तो देख लो। हां, यदि धन संतुष्टि देगा तो केवल परोपकार में लगकर। ऐसा धन मनुष्य को संतोष और तृप्ति दोनों प्रदान करता है।
क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञहोमबलिक्रियाः। न क्षीयते पात्रदानमभयं सर्वदेहिनाम् ।।
सभी प्रकार के अन्न, जल, वस्त्र, भूमिदान आदि, सभी प्रकार के ब्रह्म यज्ञ, देव-यज्ञ और बलि यज्ञ आदि-सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं अर्थात यह सभी वस्तुएं नष्ट होने वाली हैं, परंतु सुपात्र व्यक्ति को दिया हुआ दान और प्राणिमात्र को दिया गया अभयदान कभी भी नष्ट नहीं होता। ।।14।।
तृणं लघु तृणात्तूलं तूलादपि च याचकः। वायुना किं न नीतोऽसौ मामयं याचयिष्यति ।।
संसार में एक तिनका अत्यंत हल्का होता है। तिनके से भी अधिक हल्की रुई होती है, परंतु याचक को तो सबसे अधिक हल्का माना गया है अर्थात व्यक्ति जब कोई चीज किसी से मांग
बैठता है, तो वह सभी चीजों से हल्का अर्थात तुच्छ माना जाता है। 1।15।।
वरं प्राणपरित्यागो मानभंगेन जीवनात्। प्राणत्यागे क्षणं दुःखं मानभंगे दिने दिने ।।
अपमानित होकर जीने के बजाय मर जाना अधिक अच्छा है, क्योंकि मृत्यु से तो क्षणभर का ही कष्ट होता है, जबकि अपमानित होने पर व्यक्ति दिन-प्रतिदिन मरता रहता है। 111611
भाव यह है कि व्यक्ति को अपना जीवन सम्मानपूर्वक बिताना चाहिए। अपमानित होने की अपेक्षा मर जाना इसलिए श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि मरते समय क्षणभर का कष्ट होता है, जबकि अपमानित व्यक्ति पग-पग पर दुख झेलता रहता है।
प्रियवाक्यप्नदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः । तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ।।
मधुर बोली वाले से सभी प्राणी प्रसन्न रहते हैं, अतः व्यक्ति को सदैव प्रिय वचन ही बोलने चाहिए, उसे चाहिए कि वह वाणी में अमृतरूपी मधुरता घोलकर बोले। व्यक्ति को वाणी से दरिद्र नहीं होना चाहिए। ।।17।।

अशुभ कार्य करने से मनुष्य को हानि होती है। इसलिए मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह जो भी कार्य प्रारंभ करे उसके संबंध में उसे पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि इसका परिणाम अच्छा होगा।। 108 1
।। कालवित् कार्य साधयेत् ।।
देता है। अनुकूल समय को पहचानने वाला व्यक्ति अपना कार्य बड़ी सरलता से सिद्ध कर
बुद्धिमान व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि कोई कार्य प्रारंभ करने से पूर्व उसे यह देखना चाहिए कि समय उसके अनुकूल है अथवा प्रतिकूल। समय की अनुकूलता के अतिरिक्त उसे अपने सहायकों और परिस्थितियों के विषय में भी विचार करना चाहिए। उसे यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि कार्य सिद्ध करने में कितना व्यय होगा।
इस प्रकार की बातों पर विचार करने से मनुष्य समय को अपने अनुकूल बना लेता है। जो इन बातों पर विचार नहीं करता, वह समय अनुकूल होने पर भी कार्यसिद्ध करने में असफल रहता है।
इसीलिए व्यक्ति को कार्य सिद्धि के लिए उचित समय को पहचानने का प्रयत्न करना चाहिए, जिस प्रकार गर्म लोहे पर चोट करने से ही उसे अपनी इच्छानुसार ढाला जा सकता है, इसी प्रकार अनुकूल समय पर कार्य करने से कार्य जल्दी सिद्ध हो जाता है।। 109।
।। कालातिक्रमात् काल एव फलं पिबति ।।
कर्त्तव्य का समय टल जाने से स्वयं काल ही उसकी सफलता को चाट जाता है। जो काम किसी निश्चित समय पर किया जाना आवश्यक होता है, यदि वह समय हाथ से निकल जाए तो उसका सफल होना असंभव होता है। कारण स्पष्ट है, सफलता के लिए तैयार स्थितियां-परिस्थितियां बिखर जाती हैं।। 110।
।। क्षणं प्रति कालविक्षेपं न कुर्यात् सर्वकृत्येषु ।।
मनुष्य किसी भी निश्चित कर्त्तव्य में क्षणमात्र का विलंब न करें।
मनुष्य को चाहिए कि वह किसी भी निश्चित कर्त्तव्य में एक क्षण भी विलंब न करे। ठीक समय पर किये गये काम की सफलता मनुष्य को दिखा देती है कि यह काम जिस क्षण में किया गया है, वहीं उसका सर्वोत्तम काल था। कार्य के उचित समय को पहचानना ही मनुष्य के सीखने की सर्वोत्तम कला मानी गयी है।। 111।
।। देशफलविभागी ज्ञात्वा कार्यमारभेत् ।।
मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह परिस्थितियों और कार्य की सफलता की संभावना, दोनों को पूर्ण रूप से समझकर कार्य प्रारंभ करे।
जो व्यक्ति समय, देश और परिस्थितियों को विचारकर कार्य नहीं करता उसे सफलता नहीं मिलती। कार्य प्रारंभ करने से पूर्व व्यक्ति को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि कार्य की सफलता की कितनी संभावना है।। 112 ।
।। दैवहीनं कार्य सुसाध्यमपि दुःसाध्यं भवति ।।
यदि भाग्य प्रतिकूल हो तो आसानी से सिद्ध होने वाला कार्य भी कठिनता से सिद्ध होने वाला दिखाई देता है।
परिस्थितियों के अनुकूल न होने पर आसानी से सिद्ध होने वाला कार्य भी कठिन दिखाई देने लगता है। मनुष्य का कर्त्तव्य यह है कि वह अपने पुरुषार्थ से उस कार्य को सिद्ध करने का प्रयत्न करे, क्योंकि उद्यमी पुरुष को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है, 'दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति।' प्रतिकूल स्थितियों की बात तो कायर पुरुष करते हैं। उद्यमी पुरुष अपने परिश्रम से परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेते हैं। पुरुषार्थी मनुष्यों ने संसार में ऐसे कार्य कर दिखाए हैं जिनके संबंध में आज भी आश्चर्य होता है। मनुष्य को चाहिए कि कार्य की कठिनता से न घबराकर पुरुषार्थ से उसका मुकाबला करे।। 113 ।
।। नीतिज्ञो देशकालौ परीक्षेत् ।।
कर्त्तव्य को विवेक से करना नीतिवान् मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है। व्यवहार-कुशल व्यक्ति परिस्थितियों और सुअवसर दोनों बातों का पूर्ण ज्ञान करने के बाद ही कार्य प्रारंभ करता है। वह कार्य प्रारंभ करने से पूर्व भली प्रकार उसकी विवेचना करता है। नीतिवान् व्यक्ति वही है जो कार्य को बिना विचारे ही आरंभ नहीं कर देता।। 114
।। परीक्ष्यकारिणि श्रीश्वरं तिष्ठति ।।
भली प्रकार सोच-विचारकर तथा अवसर को पहचानने के बाद जो व्यक्ति कार्य करता है, उसे ही सफलता प्राप्त होती है।। 115।
।। सर्वाश्च सम्पदः सर्वोपायेन परिग्रहेत् ।।
राजा का कर्त्तव्य है कि वह सभी प्रकार के उपायों से अर्थात् अपनी बुद्धि-कौशल से सभी प्रकार की संपत्तियों का संग्रह करे।
राजा का कर्त्तव्य है कि वह साम, दान, दंड, भेद आदि उपायों से संपत्तियों का संचय
करे। उसके लिए सभी प्रकार के साधनों और संपत्तियों का संचय करना इसलिए आवश्यक है कि उन्हीं से वह प्रजा का हित कर सकता है। प्रजा की भलाई के लिए राजा को सभी साधन जुटाने चाहिए। संकेत है कि राजा की दृष्टि बहुमुखी होनी चाहिए।। 116।
।। भाग्यवन्तमपरीक्ष्यकारिणं श्रीः परित्यजति ।।
सफलता का अवसर पहचाने बिना कार्य प्रारंभ करनेवाला व्यक्ति लक्ष्मी रहित हो जाता है अर्थात् लक्ष्मी उसे छोड़ जाती है।
व्यक्ति भले ही अपने आपको भाग्यवान् समझता हो परंतु यदि वह समय को पहचाने बिना, भली प्रकार जांच किए बिना कार्य प्रारंभ करता है तो उसे सफलता प्राप्त नहीं होती।।
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।। ज्ञानेनानुमानैश्च परीक्षा कर्त्तव्या ।।
इस सूत्र का भाव यह है कि मनुष्य को अपने कर्त्तव्य की परीक्षा के साधनों का किस प्रकार पता लगाना चाहिए। उसका कर्त्तव्य यह है कि वह अपने अनुभव-शक्ति तथा विचार- शक्ति दोनों के सहारे परिणाम के कारणों का ठीक-ठीक पता करके यह निश्चय करे कि यह काम किस प्रकार से होना है।। 118।
।। यो यस्मिन् कर्मणि कुशलः तं तस्मिन्नेव योजयेत् ।।
चाहिए। जो व्यक्ति जिस काम को करने में कुशल हो, उसे वही कार्य करने का भार सौंपना
राज्य कर्मचारियों की नियुक्ति करते समय उनकी योग्यता का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है। जो व्यक्ति जिस प्रकार की योग्यता रखता हो उसे वही कार्य सौंपना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति ऐसा कार्य करता है जिसका उसे अनुभव नहीं तो उस कार्य के बिगड़ जाने से राज्य को हानि होती है। राज्य की हानि का अर्थ प्रजा के कष्टों से आंका जा सकता है।। 119 1
।। दुःसाध्यमपि सुसाध्यं करोति उपायज्ञः ।। जब व्यक्ति किसी कार्य को करने का उपाय जानता है तो वह कठिन-से-कठिन कार्य को भी आसान बना देता है।
इसका भाव यह है कि प्रत्येक कार्य को पूर्णता तक पहुंचाने के लिए विभिन्न उपायों की आवश्यकता होती है। जिसे उपायों का ज्ञान नहीं होता उसके लिए सरल कार्य करना भी कठिन हो जाता है परंतु जो उपायों को जानता है अथवा समय के अनुरूप साधन जुटा लेता
है, उसके लिए कठिन-से-कठिन कार्य भी करना सरल हो जाता है।। 120।
।। अज्ञानिना कृतमपि न बहु मन्तव्यम् ।।
उसकी चाणक्य कहते हैं कि यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति किसी कार्य को सफल बना लेता है तो सफलता को आकस्मिक घटना मानकर उसे महत्त्व नहीं देना चाहिए।
वस्तुतः इसका भाव यह है कि यदि कोई अनाड़ी व्यक्ति किसी कार्य को सिद्ध कर लेता है तो उसे एक आकस्मिक घटना मान लिया जाता है और उसे उस कार्य को कर लेने का महत्त्व नहीं मिलता, क्योंकि आकस्मिक रूप से किया हुआ वह काम उसके ज्ञान के कारण नहीं किया होता।। 121 ।
।। यादृच्छिकत्वात् कृमिरपि रूपान्तराणि करोति ।।
यह सूत्र भी पहले सूत्र की बात को पुष्ट करता है। इसका भाव यह है कि जैसे घुन या कीड़ा किसी पदार्थ के आकस्मिक रूप को बिना किसी ज्ञान के बदल देता है उससे उसकी निर्माणकुशलता प्रमाणित नहीं होती। इसलिए यदि अज्ञानी व्यक्ति अचानक कोई कार्य संपन्न कर लेता है तो उसे केवल संयोग ही मानना चाहिए, उसकी कार्यकुशलता नहीं। जिस प्रकार लकड़ी में रहने वाला घुन नामक कीड़ा लकड़ी को खाता हुआ उसमें विभिन्न प्रकार की आकृतियां बना देता है, भले ही वह आकृतियां देखने में सुंदर हो, तो भी घुन के कीड़े को उसका श्रेय नहीं मिलता क्योंकि उसको कुछ ज्ञान नहीं होता। वह तो उसका एक आकस्मिक कार्य होता है।। 122 ।
।। सिद्धस्यैव कार्यस्य प्रकाशनं कर्त्तव्यम् ।।
चाहिए। किसी कार्य के सिद्ध हो जाने पर ही उसके संबंध में लोगों को जानकारी देनी
भाव यह है कि व्यक्ति जब कोई कार्य सिद्ध करना चाहता है तो उसे गुप्त रखकर ही सिद्ध किया जा सकता है। यदि उस कार्य के संबंध में लोगों को पहले ही ज्ञान हो जाएगा, तो संभवतः कोई अन्य व्यक्ति यह कार्य कर डाले।। 123 ।
।। ज्ञानवतामपि दैवमानुषदोषात् कार्याणि दुष्यन्ति ।।
कभी-कभी बहुत से कार्य प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण अथवा किसी मनुष्य द्वारा कोई त्रुटि रहने पर अधूरे रह जाते हैं अर्थात् सिद्ध नहीं हो पाते।
अनेक बार ऐसा हो जाता है कि प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण कार्य पूरे नहीं हो पाते। कई बार इनके पूरे न होने का कारण मानवीय त्रुटियों को माना जाता है। कई बार
चाणक्य के शास्त्र
चंद्रगुप्त को सम्राट के रूप में स्थापित करने के बाद चाणक्य अपने राजनीति एवं अर्थव्यवस्था संबंधी विचारों को ग्रंथ रूप में ढालना (रचना) चाहते थे, जिससे आने वाली पीढ़ी लाभान्वित हो सके। लेकिन प्रधानमंत्री पद एवं चंद्रगुप्त की सुरक्षा का उत्तरदायित्व उनके आड़े आ रहा था। अनायास ही जब राक्षस द्वारा प्रधानमंत्री पद का दायित्व ग्रहण कर लिया गया तो वे इस ओर से निश्चिंत हो गए। अब उनके पास पर्याप्त समय था, और उन्होंने अपनी वर्षों की महत्वाकांक्षा को पुस्तक (ग्रंथ) रूप में ढालना शुरू कर दिया।
अर्थशास्त्र
चाणक्य का अर्थशास्त्र 15 खंडों में लिखा एक वृहद ग्रंच है जिसमें 180 अध्याय तथा 150 भाग हैं। इस अर्थशास्त्र में एक राजशाही का पूरा संविधान है, जिसमें राजा के कर्तव्य, मंत्रिमंडल, शासन व्यवस्था का पूरा चित्रण है। आर्थिक व्यवस्था की पूरी रूपरेखा है। अर्थ तंत्र के अधिकारियों व कर वसूली की विशद व्याख्या है। इस भाग में खनन, धातुओं, रत्नों, उपरत्नों, खनिज संपदा, खनन व्यवस्था तथा धातुओं के उद्योग का भी वर्णन है। देखा जाए तो यह शायद विश्व का प्रथम राजनीतिक संविधान तथा अर्थव्यवस्था का विधि-विधान है।
चाणक्य नीति
चाणक्य नीति उनके द्वारा लिखी सर्वाधिक लोकप्रिय व पढ़ी जाने वाली रचना है। इसमें उन्होंने सभी शास्त्रों का सार, जीवन के मूल्य सूत्रों के रूप में संस्कृत दोहों व चौपाइयों की शैली में प्रस्तुत किए हैं। इसे पढ़कर एक आम आदमी जीवन में सफलता, उचित व
अनुचित, नैतिक या अनैतिक, धर्म या अधर्म, बुद्धिमानी या मूर्खता, लाभदायक या हानिकारक, अच्छा या बुरा, उपयोगी या अनुपयोगी की पहचान कर सकता है। इन सूत्रों में चाणक्य ने शिक्षा पर बहुत जोर दिया है। वे कहते हैं कि शिक्षा में ही व्यक्ति का असली उद्धार है। पुस्तक में कुछ पूर्वाग्रह युक्त बातें भी हैं जो शायद आधुनिक जगत की कसौटी पर खरी न उतरें। पर आम तौर पर सूत्र बहुत तर्वनरंगत हैं।
पंचतंत्र कथाएं
बहुत से इतिहासकारों का मत है कि विश्व प्रसिद्ध पंचतंत्र की कथाएं आचार्य चाणक्य ने ही विष्णुगुप्त नाम में लिखीं थीं। दंत कथा है कि एक राजा के चार बेटे थे, बड़े शरारती व निकम्में। शिक्षा प्राप्त करने में उन्हें कोई रुचि नहीं थीं। कई अध्यापकों ने उन्हें पढ़ाना चाहा, पर वे स्वयं राजकुमारों के कारनामों से आतंकित होकर सिर पर पैर रखा आग निकले।
राजा ने पुरस्कार की घोषणा की कि जो विद्वान उनके चार चिकने पड़ों पर अक्ल का पानी चढ़ा देंगा उसे वे बड़ा पुरस्कार देंगे।
चुनौती स्वीकार कर विष्णुगुप्त सामने आए। प्रर उन्होंने पहले ही साफ बता दिया कि वह धन के लोभी नहीं हैं। वे यह कार्य केवल इसलिए कर रहे हैं ताकि राजकुमारों के कपालों के अंदर पड़े पत्थर से जनता लहुलुहान न हो जाए।
उन्होंने शिक्षा का एक नया ही उपाय आजमाया। राजकुमारों को वे कहानियां सुनाते जिनके पात्र पशु-पक्षी, पेड़-पौधे व कीट-पतंग होते। कहानियों में चतुराई, सूझबूझ, नीति तथा नैतिक मूल्यों से भरे संदेश होते।
उन्हीं कहानियों को सुन-सुन कर राजकुमार ज्ञानवान व नीतिवान बन गए।
इन्हीं चमत्कारी कहानियों को पंचतंत्र शीर्षक से जाना जाता है। यह कहानियां सबकों इतनी भायर्थी कि विश्व की सारी भाषाओं में इनका अनुवाद हो गया और यह विश्व बाल साहित्य खजाने के अनमोल मोती बन गए।
यदि सचमुच विष्णुगुप्त चाणक्य ही थे तो मानना होगा कि चाणक्य के रूप में भारत में एक ऐसे बहुआयामी व्यक्ति पैदा हुए जिनका हर आयाम अ‌द्भुत था व उनकी रचनाशक्ति अद्वितीय थी।
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लेखाः
चाणक्य नीति
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संस्कृतसाहित्ये नैतिकग्रन्थवर्गे चाणक्यनीतिः महत्त्वपूर्णं स्थानम् अस्ति । अस्मिन् जीवनं सुखदं सफलं च कर्तुं सूत्रशैल्या उपयोगिनो सुझावः दत्ताः सन्ति। जीवनस्य प्रत्येकस्मिन् पक्षे मनुष्याणां कृते व्यावहारिकशिक्षां दातुं अस्य मुख्यविषयः अस्ति । अस्मिन् मुख्यतया धर्मस्य, संस्कृतिस्य, न्यायस्य, शान्तिस्य, सुशिक्षायाः, मानवजीवनस्य सर्वतोमुखप्रगतेः च झलकानि प्रस्तुतानि सन्ति । अस्मिन् नैतिकपुस्तके जीवन-सिद्धान्तस्य जीवन-अभ्यासस्य च आदर्शस्य यथार्थस्य च सुन्दरः समन्वयः दृश्यते । Nitivarnan Partva संस्कृतग्रन्थेषु चाणक्य-नितिदर्पणस्य महत्त्वपूर्णं स्थानम् अस्ति । जीवनं सुखदं प्रयोजनं च कर्तुं विविधविषयाणां वर्णनं सूत्रशैल्या बोधगम्यरूपेण क्रियते । व्यवहारसूत्रैः सह तेषु राजनीतिसम्बद्धाः श्लोकाः अपि अन्तर्भवन्ति । आचार्य चाणक्यः भारतस्य महान् गौरवः अस्ति तथा च भारतस्य इतिहासस्य गर्वः अस्ति। अतः नीति-दर्पणं प्रति गमनात् पूर्वं प्रथमं अस्य महान् शिक्षकस्य, तीक्ष्णराजनेतुः, अर्थशास्त्रज्ञस्य च विषये किञ्चित् ज्ञातुं प्रयतेम | प्राचीनसंस्कृतविदां परम्परायां आचार्यचाणकस्य पुत्रस्य विष्णुगुप्त-चाणक्यस्य विशेषं स्थानम् अस्ति । सः प्रतिभाशाली, राजनैतिकदक्षः, नीतिशास्त्रे व्यवहारे च अन्वेषणशीलः, कूटनीतिशास्त्रस्य चतुरः अग्रणीः, अर्थशास्त्रस्य विद्वान् च इति मन्यते स्वाभिमानी, चरित्रवान्, स्वभावनिवृत्तः च; रूपेण कुरूपः; बुद्ध्या तीक्ष्णः; अभिप्रायेषु दृढः; सः प्रतिभासम्पन्नः, दूरदर्शी, युगस्य निर्माता च आसीत् । सः कर्तव्यवेद्यां हृदयस्य मधुरभावनानां त्यागं कुर्वन् धैर्यस्य मूर्तरूपः आसीत् । चाणक्य काल क्रि.श पूर्वस्य ३२६ वर्षीयः इति मन्यते । स्वनिवासस्थानं पटलीपुत्रं (पटना) त्यक्त्वा तक्षशिलं प्रति गत्वा तत्रैव शिक्षां प्राप्तवान् । प्रौढज्ञानेन विद्वांसः प्रसन्नं कृत्वा तत्र राजनीतिशास्त्रस्य प्राध्यापकः अभवत् । परन्तु तस्य जीवनं सर्वदा आत्मनिरीक्षणे एव मग्नम् आसीत् । देशस्य दुर्दशां दृष्ट्वा तस्य हृदयं अस्वस्थं जातम्; सः कलङ्कितराजनीत्याः, साम्प्रदायिकमानसिकतायाः च पीडितस्य भारतस्य पतनं सहितुं न शक्तवान् । अतः सः स्वस्य दूरदर्शनचिन्तनेन विस्तृतयोजनां कृत्वा देशस्य एकीकरणाय असामान्यप्रयत्नः अकरोत् । सः भारतस्य अनेकेषु मण्डलेषु यात्रां कृतवान् । सः सामान्यजनानाम्, आचार्याणां, सम्

पुस्तकं पठतु