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पञ्चतन्त्रम्

14 November 2023

2 दर्शितम् 2

विषय
मित्रभेद प्रथम तन्त्र |
१] वानरोके यूथकी कथा...
[२] और मेरोको कथा
३ दकि
४ परादिकी कमा
कथा
६ फाकी और कनक सूत्रकी कथा.
७ और कर्टकको कथा
८ मारक की कथा
मन्दकी कथा
गाली कथा
११ मदद सिंहकी कथा
१२ टट्ट और समुद्रकी कथा
१३] कूर्मक कथा
१४ अनागतविधाता आदि तीन कथा..
१५ पटी की कथा
२६ सिंहकी कथा....
१७] सूखी कथा
१८ पटकथा
१९ धर्म था
२० मूर्ख एक और मोलेकी कथा
२१ पुत्रकी का
२२ वानर और राज्य कथा....
मित्रसम्प्राप्ति द्वितीय तंच ।
हिरण्यक संवाद


विषय
हिरण्यक कथा तिल पेनबालीकी कथा
३ की कथा
सागर पणिककी कथा
५ सोमकी का
६ पीछे करनेवाले की
कीय तृतीय तन्त्र ।
काकतात.
१] ही था
२] कथा
और करेकी स्था
४ सर्प और पेटियोकी कथा हरिकथा
६ के हंसोफी कथा
व्यापक कथा
८ चोर और राक्षसकी कथा
१० सम्मी और परके सर्पको कथा
११ [रकार और उसकी खीकी कथा
२२. काकी का
ॐ स्पष्ट कथा
२४ रन सिहको कथा
१६ कथा
लक्ष्मणा चतुर्थ मंत्र
तबारक कथा
२की कथा
३ फलकेशर सिल्फी कथा
* कुलकारको कथा
१ सिंह और गी

६ की कथा
७ नन्द्राजाकी कथा
.....
८ शुद्ध पर रजफकी कथा
९ हालिकफी खीकी कपा
२० पेटा की कथा
११ ची कथा
१२ चित्रांग सारमेयकी कथा
अपरीक्षित कारक पंचम संघ
१ मणिभद्रनाम की कथा
२ प्राणी और नौलेकी कथा
३] मस्तक पर च भ्रमण करनेवालेकी कथा
४सिंह बनाने की कथा
५ मूर्ख पण्डितकी का
६ बुद्धि आदि मयोको कथा .....
गीर गाकी कवा
८ मन्थर लकी कथा
९ सोमम पिताकी कथा
१० चन्द्रराजाकी कथा
११ राक्षस और राजकन्याकी कथा...
१२. अन् कुबडे और सीखना की कथा
२२ चण्डम राक्षस और मादाणकी कथा
१४ भारण्डपट्टीकी कथा....
१५ फेंकडे और की कथा
इति कधासूची समाता ।


अथ पंचतन्त्रम् ।
भाषाटीकासहितम् ।
ब्रह्मा रुद्रः कुमारो हरिवरुणयमा बहिरिन्द्रः कुबेर-
चन्द्रादित्यो सरस्वत्युदधियुगनगा वायुरुर्वी भुजङ्गाः ।
सिद्धानद्योऽश्विन श्रदितिरदितिसुता मातरश्चण्डिकाया
वेदास्तीर्थानि यज्ञा गणवतुमुनयः पान्तु नित्यं महाच॥
या व्याप्रसादेन नमस्कृत्य गजाननम् ।
कियते पञ्चतंत्रस्य भापाटीका मनोरमा ||
दोहा-रामु शिवा रघुपतिसिया, बन्दों पचनकुमार
कृपा कर जन जान मोहि, गुणागार घुससार ॥
जा, शिव कार्तिकेय, विष्णु, पराण, यम, अनि, एन्, कुतेर, चन्द्र, सू सरस्वती, सागर, चापुन, पर्वत, वायु, पृथ्वी, वासुकि आदि सर्प, कपडाद सिद्ध, नदी, अश्विनीकुमार, उक्ष्मी, दिति (श्री), अदिति के पुत्र (देवता), चण्डिकामादि मातायें, वेद (ऋ, साग, (पुष्पक्षत्र काश मादि), यज्ञ ( दर्श पौर्णमासादि), गण ( प्रमयादि), ( आठ देव ), मुनि (व्यसादि ), गढ़ ( सूर्यादि ), नित्य ( हमारी ) रक्षा करें। सग्धरा छन् । १
मनवे वाचस्पतये शुक्राय पराशराय ससुताय । चाणक्य च विदुषे नमोऽस्तु नयशास्त्रकर्तृभ्यः ॥ २॥
स्वायम्भू मनु, गृहस्पति, शुरू, सपुत्र ( व्याससहित ) पराशर, पण्डित
चाणन और नीतिशासनानेवालोके निमित नमस्कार है ।। २ ।।

(२)
पञ्चतन्त्रम् ।
सकलार्थशाखसारं जगति समालोक्य विष्णुशर्मेदम् ।
तन्त्रः पञ्चभिरेतच्चकार तुमनोहरं शास्त्रम् ॥ ३ ॥
इस प्रकार विष्णुम इस जगत् सपूर्ण अर्थशास्त्र का सार देखकर पंच- यह गोहर शाख निर्माण किया है ॥ ३ ॥
तद्यथा अनुश्रूयते अस्ति दाक्षिणात्ये जनपदे महिलारो प्यं नाम नगरम् । तत्र सकलार्थिकल्पद्रुमः प्रवरमुकुटमणि मरीचिमञ्जरीचर्चितचरणयुगलः सकलकलापारंगतोऽमरश- क्तिर्नाम राजा बभूव । तस्य वयः पुत्राः परमदुर्मेधसो बहुरा तिरुमशक्तिरनन्तशक्तिश्चेतिनामानो बभूवुः । अथ राजा तान् शास्त्रविमुखान् आलोक्य सचिवान् आहूय मोराच “भो ! ज्ञातमेतद्भवद्भिः यन्ममेते पुत्राः शास्त्रविमुखा विवेक- रहिताश्च तत् एतान् पश्यतो मे महदपि राज्यं न सौख्य मावहति । अथवा साध्विमुच्यते-
ऐसा सुना है कि दक्षिणके देशमै एक महिलारोप्यनाम मगर | सम्पूर्ण बाचकों के मनोरथ पूर्ण करनेको) कल्पवृक्ष, बडे बडे निर्मित राजा- सकी मुकुटमणियोंकी किरणों के समूहसे पूजित चरणगुगल, सम्पूर्ण कलाओंका पारगामी, अमरशक्ति नाम राजा था, उसके तीन पुत्र अतिदुर्बुद्धि शक्ति, शक्ति, अनन्तशक्ति नामवाले थे। तब राजा उनको शास्त्रले विमुख देखकर मन्त्रियोंकोडारोडा" आपको विदित है कि जो यह मेरे पुत्र शाखसे विमुख विवेक रहित है। सो इनको देखकर मुझको यह राज्य नहीं देता है अथवा किसीने यह भच्छा कहा है कि-
अजातमृतमूर्खेभ्यो ताजातो तो वरम् । यस्तो स्वल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत् ॥ ४ ॥ नर होकर मरगये और मूर्ख
इन ( तीन प्रकारके) मे हुए और होकर मरगये भछे है, कारण कि वे दोनों थोडे दुःसके निमित्त है, तो पजाता है ॥ ४ ॥
वरं गर्भस्रावो वरमतुषु नैवाभिगमनं वरं जातमेतो वरमपि च कन्यैव जनिता ।

(4)
भाषाटीकासमेतम् ।
वरं वन्ध्या माय वरमपि च गर्भेषु वसति- र्न चाविद्वावृपद्रविणगुणयुक्तोपि तनयः ॥ ५ ॥
गर्नका साथ होजाना अच्छा है, भातु खीके निकट न जाना अच्छा है, होतेही माना है, वा कन्याही होनी अच्छी है, मार्याका का होगा था गर्भ रहनाही महा है, परन्तु पण्डित रूप द्रव्यसम्पन्नमी पुत्र अच्छा नहीं है ॥ १ ॥
कि तथा क्रियते धन्वा या न स्ते न दुग्धदा । कोः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान्न भक्तिमान् ॥ ६ ॥
गोसे क्या किया जाय, जो म जगती है, दूध देती है, उस पुत्रसे क्या है, जो न नि हैन मतिमान् ॥ ६ ॥
वरमिह वा सुतमरणं मा मूर्खत्वं कुलप्रसूतस्य । येन विधजनमध्ये जारज इव ते मनुजः ॥ ७ ॥
इस जगत् में पुत्रका मरण अच्छा है, परन्तु कुछ पुत्रका मूर्ख होना मका नहीं, जिससे विद्वानोंके बीच मनुष्य गारोकी समानत होता है ॥ ७ ॥
गुणिगणगणनारम्भे न पतति कठिनी ससम्भ्रमा यस्प । नाम्बा यदि सुतिनी वद बन्ध्या कीदृशी भवति ॥ ८ ॥ गुणिजने मणमा आरम्भ जिसकी रेखा मूलतेम नहीं गिरती है,
यदि उससे उसकी माता पुती है, तो कहो या कैसी होती है ॥ ८ ॥
तदेतेषां यथा वृद्धिप्रकाशो भवति तथा कोऽप्युपायोऽतु| अत्र च महतां वृत्तिखानानां पण्डितानां पराती तिष्ठति ।
ततो यथा मम मनोरथाः सिद्धिं यान्ति तथा अनुष्ठीयताम्' इति । तत्रैकः प्रोवाच- 'देव द्वादशमि- ततो धर्मशास्त्राणि मन्वादीनि
अर्थ- शाखाणि चाणक्यादीनि कामशास्त्राणि वात्स्यायनादी- नि। एवं च ततो धर्मार्थकामशास्त्राणि ज्ञायन्ते । ततः प्रति- बोधनं भवति ।
अथ तन्मध्यतः सुमतिर्नाम सचिवः प्राह- "मशाश्वतोऽयं जीवितव्यविषयः प्रभूतकालज्ञेयानि शब्द-


(4) पञ्चतन्त्रम् ।
शास्त्राणि । तत्संक्षेपमार्थ शास्त्रं किञ्चिदेतेषां प्रबोधनार्थं चिन्त्यतामिति । उक्तख यतः-
सो जैसे इनकी प्रकाश हो पैसा कोई उपाय कियागाने यहाँ मेरी दीहुई मागीविकाको भोगते हुए पांचसी पंडित है। सो जैसे मेरे मनोरथ सिद्ध हो, जैसा अनुष्ठान करो"। उनमें एक "देव ! बार में व्याकरण पढा जाता है, फिर धर्मशाखमनुमादिके, अर्थशाल चाणक्यादि, कामशास्त्रा थनादि इसके उपरान्त फिर धर्म, अर्थ, कामशास्त्र जाने जाते है, ज्ञान होता है"। तब उनमें सुमति नाम मन्त्री थोडा- "यह जीवन पिप नित्य है, बहुत शब्दशास्त्र बहुत दिनोंमें पड़े जाते हैं, सो कोई संक्षेपमात्रा इनके शानके निमित्त विचार करो, कहा भी है-
अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रं स्वल्पं तचायुर्यहवन विन्नाः । सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु हंसैयथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात ।
शाखा पार नहीं है अवस्था थोड़ी और विन बहुत है, इस कारण सारा को असारको खाग जैसे ससे दूध निकाल लेते हैं. उपजत है ।। ९ ।
तवास्ति विष्णुशर्मा नाम ब्राह्मणः सकलशाखपारम संसदि लब्धकीर्तिः तस्मै समर्पयतु पतान् स ननं 1 "द्राक प्रबुद्धान् करिष्यति" इति ।
स राजा तदाकर्ण्य वि ष्णुशर्माणमाहूय प्रोवाच - "भो भगवन्! मदनुग्रहार्थमेतान् अर्थशाखं प्रति द्राग्यथा अनन्यसदृशान् विदधाति तथा कुरु सदा अहं त्वां शासनशतेन योजयिष्यामि"।
अथविष्णुशर्मा तं राजानमूचे- "देव ! धूयतां मे तथ्यवचनमानाहं विद्यावि क्रयं शासनशतेनापि करोमि।
पुनरेतांस्तव पुत्रान् मासषट्केन यदि नीतिशाखज्ञान् न करोमि ततः स्वनामत्यागं करोमि ।
किंबहुना, श्रूयतां ममैष सिंहनादः नामर्थलिप्सुर्वी ।
मनाशीतिवर्षस्य व्यावृत्तसर्वेन्द्रियार्थस्य न किञ्चिदर्थेन प्रया- जनं किन्तु त्वत्प्रार्थनासिद्धधर्थं सरस्वतीविनोद कर

भाषाटीकासमेतम् ।
(५)
यामि तहिपतामद्यतनो दिवसः यदि अहं पण्मासा- भ्यन्तरे तव पुत्रान् नयशास्त्रं प्रति अनन्यसदृशान् न करि- प्यामि ततो नार्हति देवो देवमार्ग सन्दर्शयितुम्" । अथासौ राजा तां ब्राह्मणस्यासंभव्यां प्रतिज्ञां श्रुत्वा ससचिवः प्रहृष्टो मे सादरं तान् कुमारान् समर्प्य परां निर्वृतिमाजगाम । चिष्णुशर्मणापि तानादाय तदर्थ मित्र भेद-मित्रप्राप्ति - काकोलुकीय - लब्धप्रणाश-अपरीक्षितका- रकाणि चेति पञ्च तन्त्राणि रचयित्वा पाठितास्ते राजपुत्राः । तेपि तानि अधीत्य मासपदकेन यथोक्ताः संवृत्ताः । ततः प्रभृति एतत्पञ्चतन्यकं नाम नीतिशाखं बालावबोधनार्थ भूतले सम् किंबहुना ।
सो. यह एक नाम शाखा पारगामी विद्यार्थि प्राप्त है, उसके निमित्त इन पुत्रोको समर्पण करदो वह अव शीघ्र इनको ज्ञानवान् करदेगा।" यह राजा यह वचन सुन शिर्माको बुलाकर चोला "भगवन् मुझपर पाकर इन मेरे पुत्रोको अर्थशालने शीही असा चारण जैसे बने वैसे करो तो मे तुमको सीमा सम्पत् दूगा"। तब 1 विष्णुशर्मा उस राजा कहने उगा "देन मेरा सत्य वचन सुनो में सम्प विद्यायक नहीं हूँ परन्तु इन तुम्हारे पुत्रोंको यदि छः महीने त शाखा तो अपना नाम त्यागनकरू बहुत कहने से क्या मेरा यह सिर्जन नो नो इच्छा में महता के इन्द्रियों के भोग नहइएको अर्धसे कुछ प्रयोजन नहीं है, परन्तु तुम्हारी प्रार्थना सिदिकै निमित्य सरस्वती विनोद करूंगा। सो आजका दिन डिलिये जो मैं छः महीने में तुम्हारे पुत्रोको नियामें असाधारण ( जिसके बराबर कोई नहोन करू तो जगधर मुझको देवमार्ग (स्वर्ग) न दिखाये" | तब यह राजा इस ब्राह्मणको सम्भाव्य ( असम्भावी ) प्रतिज्ञाको सुनकर, मन्त्रियों सहित मन हो, को प्राप्त हुआ। उसके निमित्त आदरसे उन कुमारोंको समर्पणकर, श्यन्त सतोषको प्राप्त हुआ । विष्णुनेमा उनको वे उनके निमित्त मित्रभेद, मिति, काकोदकीय सम्प्रणाश, अपरीक्षितकारक इन पाच

(६) पञ्चतन्त्रम् ।
रात्रोको निर्माणकर उन राजकुमारों को पढ़ाये भी उनको पढकर छः महीने जैसा कहाया सेंदुए उस दिनसे यह पंचतन्त्र नामक नीतिशास्त्र बालकों के ज्ञाननिमित्त में बहुत-
अधी य इदं नित्यं नीतिशास्त्रं शृणोति च । न पराभवमाप्रोति शक्रादपि कदाचन ॥ १० ॥ कथामुखमेतत् ।
जो इस नीतिको पढ़ता और सुनता है यह कभी इन्द्रसेमी पराभवको प्राप्त नहीं होता है ॥ १० ॥
इतिहासमा पत्रपाठीकायामुखं समाप्तम् ।
अथ मित्रभेदोनाम प्रथमं तंत्रम् ।
प्रारभ्यते मित्रभेदा नाम प्रथमं तन्त्रम् । यस्पाय- मादिमः श्लोकः-
इसके अनन्तर मित्रभेद नामा प्रथम तन्त्रका प्रारम्भ करते हैं। जिसकी आदि यह लोक-
वर्द्धमानो महान्नेहा सिंहगोवृषयोर्वने । पिशुनेनातिलुब्धेन जम्बुकेन विनाशितः ॥ १ ॥
सिंह और बैठका मन बाहुआ महास्नेह गुरु जम्बुक गीदड ) नेवर दिया ॥ १ ॥
तद्यथा अनुभूयते-अस्ति दाक्षिणात्ये जनपदे महिलारोप्यं नाम नगरम् । तत्र धर्मोपार्जितभूरिविभवो बर्द्धमानको नाम वणिकपुत्रो बभूव । तस्य कदाचिद्रात्रौ शय्यारूढस्य चिन्ता समुत्पन्ना। "यत्मभूतेऽपि वित्चे अर्थोपायाचिन्तनीयाः कर्त्त- व्याधेति । यत उक्त-
सो यह सुनाजाता है कि, दक्षिण देशमें महिलारोप्यनाम एक नगर है यहाँ
धर्म महान उपार्जन कर्ता ईमान नामक वणिक्पुत्र था । उसको एक समय

मेतम् ।
(3)
रात्री खाटमें लेटेर चिन्ता उत्पन्न हुई कि "बहुत धन उत्पन्न होनेपर भी नासिका उपाय चिन्ता करना चाहिये कहानी है-
न हि तद्विद्यते किचिद्यदर्थेन न सिद्धयति ।
यत्नेन मतिमास्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ॥ २ ॥
ऐसी कोई वस्तु नहीं जो असे सिद्ध न होती हो इस कारण बिमान् यत्नले अर्थ उपार्जन करे ॥ २ ॥
मित्राणि यस्यार्थस्तस्य बान्धवाः । स्पार्थाः स पुमलोके यस्पार्थाः स च पण्डितः ॥ ३ ॥
जिसके धन है उसके मित्र हैं, जिसके पन है उसके बधु है, जिसके ब है लोकमे नही पुरुष है, जिसके धन है वहीं पति है ॥ ३ ॥
न सा विद्यां न तद्दानं न तच्छिल्पं न सा कला । न तत्स्थैर्य हि धनिनां याचकैर्यत्र गीयते ॥ ४ ॥
नव विवान वह दान है, न वह कारीगरी है, न वह कहा है, न वह नियोकी स्थिरता है, जिसको पाचक में गाते हो ॥ ४ ॥
इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते ।
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ॥ ५ ॥
इस लोक धर्मियोंके गैरमी वजन होजाते हैं, दरिद्रोंके की भी सदा दुर्जन हो जाते है ॥ १ ॥
अभ्योऽपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्यस्ततस्ततः । प्रवर्त्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः ॥ ६ ॥
बनके बढ़ने और इवर पर इकट्ठे होनेसे सब किया महत्त होती जैसे पर्वतोसे नदिया ( निकल कर सब कार्य पूर्ण करती हैं ) ॥ ६ ॥
पूज्यते यदपूज्योऽपि यद्गम्योऽपि गम्पते । वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ॥ ७ ॥
अपूपमी (धनले जित होता है, गम्पके निकटभी जाया जाता नारी पुरुषभी कन्दन योग्य होता है, यह प्रभाव नाही ॥ ७ ॥
दिन्द्रियाणीयुः काय्र्याण्यखिलान्यपि । - '
पतस्मात्कारणाद्विन्तं सर्वसाधनमुच्यते ॥ ८ ॥

1
लेखाः
पञ्चतन्त्रम्
0.0
पञ्चतन्त्रं कश्चन कथाग्रन्थः विद्यते। अस्य ग्रन्थस्य कर्ता अस्ति विष्णुशर्मा। महिलारोप्यस्य राज्ञः अमरशक्तेः बहुशक्तिः रुद्रशक्तिः अनन्तशक्तिः इत्येतान् त्रीन् पुत्रान् षड्भिः मासैः राजनीतिनिपुणान् कर्तुं विष्णुशर्मा पञ्चतन्त्रग्रन्थं रचितवान् इति श्रूयते। पञ्चतन्त्रे गद्यं पद्यं चापि अस्ति। प्रायः कथाभागं निरूपयति गद्यम्। पद्यं च नीतिं निरूपयति। एते तन्त्राणि सन्ति – मित्रभेदः, मित्रसंप्रपतिः (मैत्री), काकोलुकीयं (संधि-विग्रहः), लब्धप्राणाशः अपारीक्षितकरकः च । पञ्चतन्त्रकथाः मुख्यतया प्राचीनभारते नैतिकताशिक्षणार्थं रचिताः आसन् ।

पुस्तकं पठतु